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वैचारिकी संग्रह

सावरकर समग्र खंड 4

विनायक दामोदर सावरकर


सावरकर समग्र

खंड - 4

स्वातंत्र्यवीर

विनायक दामोदर सावरकर

प्रभात प्रकाशन,दिल्ली

आभार • स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक

२५२ स्वातंत्र्यवीर सावरकर मार्ग

शिवाजी उद्यान, दादर, मुंबई-२८

प्रकाशक • प्रभात प्रकाशन

४/१९ आसफ अली रोड

नई दिल्ली-११०००२

संस्करण • २००४

© सौ. हिमानी सावरकर

मूल्य • पाँच सौ रुपए प्रति खंड

पाँच हजार रुपए (दस खंडों का सैट)

मुद्रक • गिर्राज प्रिंटर्स, दिल्ली

SAVARKAR SAMAGRA (Complete Works of Vinayak Damodar Savarkar)

Published by Prabhat Prakashan, 4/19 Asaf Ali Road, New Delhi-2

Vol. III Rs. 500.00 ISBN 81-7315-323-X Set of Ten Vols. Rs. 5000.00 ISBN 81-7315-331-0
विनायक दामोदर सावरकर : संक्षिप्त जीवन परिचय

श्री विनायक दामोदर सावरकर भारतीय स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी तथा अग्रणी नक्षत्र थे। 'वीर सावरकर' शब्द साहस, वीरता, देशभक्ति का पर्यायवाची बन गया है। 'वीर सावरकर' शब्द के स्मरण करते ही अनुपम त्याग, अदम्य साहस, महान् वीरता, एक उत्कट देशभक्ति से ओतप्रोत इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हमारे सामने साकार होकर खुल पड़ते हैं।

वीर सावरकर न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु वह एक महान् क्रांतिकारी, चिंतक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे। वह एक ऐसे इतिहासकार भी थे जिन्होंने हिंदू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढंग से लिपिबद्ध किया तो '१८५७ के प्रथम स्वातंत्र्य समर' का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिखकर ब्रिटिश शासन को हिला डाला था।

इस महान् क्रांतिपुंज का जन्म महाराष्ट्र के नासिक जिले के ग्राम भगूर में चितपावन वशीय ब्राह्मण श्री दामोदर सावरकर के घर २८ मई, १८८३ को हुआ था। गाँव के स्कूल में ही पाँचवीं तक पढ़ने के बाद विनायक आगे पढ़ने के लिए नासिक चले गए।

लोकमान्य तिलक द्वारा संचालित 'केसरी' पत्र की उन दिनों भारी धूम थी। 'केसरी' में प्रकाशित लेखों को पढ़कर विनायक के हृदय में राष्ट्रभक्ति की भावनाएँ हिलोरें लेने लगीं। लेखों, संपादकीयों व कविताओं को पढ़कर उन्होंने जाना कि भारत को दासता के चंगुल में रखकर अंग्रेज किस प्रकार भारत का शोषण कर रहे हैं। वीर सावरकर ने कविताएँ तथा लेख लिखने शुरू कर दिए। उनकी रचनाएँ मराठी पत्रों में नियमित रूप से प्रकाशित होने लगीं। 'काल' के संपादक श्री परांजपे ने अपने पत्र में सावरकर की कुछ रचनाएँ प्रकाशित की, जिन्होंने तहलका मचा दिया।

सन् १९०५ में सावरकर बी.ए. के छात्र थे। उन्होंने एक लेख में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान किया। इसके बाद उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर विदेशी वस्त्रों की होली जलाने का कार्यक्रम बनाया। लोकमान्य तिलक इस कार्य के लिए आशीर्वाद देने उपस्थित हुए।

सावरकर की योजना थी कि किसी प्रकार विदेश जाकर बम आदि बनाने सीखे जाएँ तथा शस्त्रास्त्र प्राप्त किए जाएँ। तभी श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा ने सावरकर को छात्रवृत्ति देने की घोषणा कर दी। ९ जून, १९०६ को सावरकर इंग्लैंड के रवाना हो गए। वह लंदन में 'इंडिया हाउस' में ठहरे। उन्होंने वहाँ पहुँचते ही अपनी विचारधारा के भारतीय युवकों को एकत्रित करना शुरू कर दिया। उन्होंने 'फ्री इंडिया सोसाइटी' की स्थापना की।

सावरकर इंडिया हाउस' में रहते हुए लेख व कविताएँ लिखते रहे। वह गुप्त रूप से बम बनाने की विधि का अध्ययन व प्रयोग भी करते रहे। उन्होंने इटली के महान् देशभक्त मैझिनी का जीवन-चरित्र लिखा। उसका मराठी अनुवाद भारत में छपा तो एक बार तो तहलका ही मच गया था।

१९०७ में सावरकर ने अंग्रेजों के गढ़ लंदन में १८५७ की अर्द्धशती मनाने का व्यापक कार्यक्रम बनाया। १० मई, १९०७ को 'इंडिया हाउस' में सन् १८५७ की क्रांति की स्वर्ण जयंती का आयोजन किया गया। भवन को तोरण-द्वारों से सजाया गया। मंच पर मंगल पांडे, लक्ष्मीबाई, वीर कुँवरसिंह, तात्या टोपे, बहादुरशाह जफर, नानाजी पेशवा आदि भारतीय शहीदों के चित्र थे। भारतीय युवक सीने व बाँहों पर शहीदों के चित्रों के बिल्ले लगाए हुए थे। उनपर अंकित था - '१८५७ के वीर अमर रहें'। इस समारोह में कई सौ भारतीयों ने भाग लेकर १८५७ के स्वाधीनता-संग्राम के शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की। राष्ट्रीय गान के बाद वीर सावरकर का ओजस्वी भाषण हुआ, जिसमें उन्होंने सप्रमाण सिद्ध किया कि १८५७ में 'गदर' नहीं अपित भारत की स्वाधीनता का प्रथम महान संग्राम हआ था।

सावरकर ने १९०७ में '१८५७ का प्रथम स्वातंत्र्य समर' ग्रंथ लिखना शुरू किया। इंडिया हाउस के पुस्तकालय में बैठकर वह विभिन्न दस्तावेजों व ग्रंथों का अध्ययन करने लगे। उन्होंने लगभग डेढ़ हजार ग्रंथों के गहन अध्ययन के बाद इसे लिखना शुरू किया।

ग्रंथ की पांडुलिपि किसी प्रकार गुप्त रूप से भारत पहुँचा दी गई। महाराष्ट्र में इसे प्रकाशित करने की योजना बनाई गई। 'स्वराज्य' पत्र के संपादक ने इसे प्रकाशित करने का निर्णय लिया; किंतु पुलिस ने प्रेस पर छापा मारकर योजना में बाधा डाल दी। ग्रंथ की पांडुलिपि गुप्त रूप से पेरिस भेज दी गई। वहाँ इसे प्रकाशित कराने का प्रयास किया गया; किंतु ब्रिटिश गुप्तचर वहाँ भी पहुंच गए और ग्रंथ को प्रकाशित न होने दिया गया। ग्रंथ के प्रकाशित होने से पूर्व ही उसपर प्रतिबंध लगा दिया गया। अंतत: १९०९ में ग्रंथ फ्रांस से प्रकाशित हो, ही गया।

ब्रिटिश सरकार तीनों सावरकर बंधुओं को 'राजद्रोही' व खतरनाक घोषित कर चुकी थी। सावरकर इंग्लैंड से पेरिस चले गए। पेरिस में उन्हें अपने साथी याद आते। वह सोचते कि उनके संकट में रहते उनका यहाँ सुरक्षित रहना उचित नहीं है। अंततः वह इंग्लैंड के लिए रवाना हो गए।

१३ मार्च, १९१० को लंदन के रेलवे स्टेशन पर पहुँचते ही सावरकर को बंदी बना लिया गया और ब्रिक्स्टन जेल में बंद कर दिया गया। उनपर लंदन की अदालत में मुकदमा शुरू हुआ। न्यायाधीश ने २२ मई को निर्णय दिया कि क्योंकि सावरकर पर भारत में भी कई मुकदमे हैं, अतः उन्हें भारत ले जाकर वहीं मुकदमा चलाया जाए। अंततः २९ जून को सावरकर को भारत भेजने का आदेश जारी कर दिया गया।

१ जुलाई, १९०९ को 'मोरिया' जलयान से सावरकर को कड़े पहरे में भारत रवाना किया गया। ब्रिटिश सरकार को भनक लग गई थी कि सावरकर को रास्ते में छुड़ाने का प्रयास किया जा सकता है। अतः सुरक्षा प्रबंध बहुत कड़े किए गए। ८ जुलाई को जलयान मार्सेल बंदरगाह के निकट पहुँचने ही वाला था कि सावरकर शौच जाने के बहाने पाखाने में जा घुसे। फुरती के साथ उछलकर वह पोर्ट हॉल तक पहुँचे और समुद्र में कूद पड़े।

अधिकारियों को जैसे ही उनके समुद्र में कूद जाने की भनक लगी कि अंग्रेज अफसरों के छक्के छूट गए। उन्होंने समुद्र की लहरें चीरकर तैरते हुए सावरकर पर गोलियों की बौछार शुरू कर दी। सावरकर सागर की छाती चीरते हुए फ्रांस के तट की ओर बढ़ने लगे। कुछ ही देर में वह तट तक पहुँचने में सफल हो गए किंतु उन्हें पुनः बंदी बना लिया गया।

१५ सितंबर, १९१० को सावरकर पर मुकदमा शुरू हुआ। सावरकर ने स्पष्ट कहा कि भारत के न्यायालय से उन्हें न्याय की किंचित् भी आशा नहीं है, अतः वह अपना बयान देना व्यर्थ समझते हैं।

२३ दिसंबर को अदालत ने उन्हें ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र रचने, बम बनाने तथा रिवॉल्वर आदि शस्त्रास्त्र भारत भेजने आदि आरोपों में आजन्म कारावास की सजा सुना दी। उनकी तमाम संपत्ति भी जब्त कर ली गई।

२३ जनवरी, १९११ को उनके विरुद्ध दूसरे मामले की सुनवाई शुरू हुई। ३० जनवरी को पुनः आजन्म कारावास की सजा सुना दी गई। इस प्रकार सावरकर को दो आजन्म कारावासों का दंड दे दिया गया। सावरकर को जब अंग्रेज न्यायाधीश ने दो आजन्म कारावासों का दंड सुनाया तो उन्होंने हँसते हुए कहा, 'मुझे बहुत प्रसन्नता है कि ईसाई (ब्रिटिश) सरकार ने मुझे दो जीवनों का कारावास दंड देकर पुनर्जन्म के हिंदू सिद्धांत को मान लिया है।'

कुछ माह बाद महाराजा नामक जलयान से सावरकर को अंदमान भेज दिया गया। अंदमान में उन्हें अमानवीय यातनाएँ दी जाती थीं। कोल्हू में बैल की जगह जोतकर तेल पिरवाया जाता था, मूँज कुटवाई जाती थी। राजनीतिक बंदियों पर वहाँ किस प्रकार अमानवीय अत्याचार ढाए जाते थे, इसका रोमांचकारी वर्णन सावरकरजी ने अपनी पुस्तक मेरा आजीवन कारावास में किया है।

सावरकरजी ने अंदमान में कारावास के दौरान अनुभव किया कि मुसलमान वॉर्डर हिंदू बंदियों को यातनाएँ देकर उनका धर्म-परिवर्तन करने का कुचक्र रचते हैं। उन्होंने इस अन्यायपूर्ण धर्म-परिवर्तन का डटकर विरोध किया तथा बलात् मुसलिम बनाए गए अनेक बंदियों को हिंदू धर्म में दीक्षित करने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने अंदमान की कालकोठरी में कविताएँ लिखीं। 'कमला', 'गोमांतक' तथा 'विरहोच्छ्वास' जैसी रचनाएँ उन्होंने जेल की यातनाओं से हुई अनुभूति के वातावरण में ही लिखी थीं। उन्होंने 'मृत्यु' को संबोधित करते हुए जो कविता लिखी वह अत्यंत मार्मिक व देशभक्ति से पूर्ण थी।

सावरकरजी ने अंदमान कारागार में होनेवाले अमानवीय अत्याचारों की सूचना किसी प्रकार भारत के समाचारपत्रों में प्रकाशित कराने में सफलता प्राप्त कर ली। इससे पूरे देश में इन अत्याचारों के विरोध में प्रबल आवाज उठी। अंत में दस वर्ष बाद १९२१ में सावरकरजी को बंबई लाकर नजरबंद रखने का निर्णय किया गया। उन्हें महाराष्ट्र के रत्नागिरी स्थान में नजरबंदी में रखने के आदेश हुए।

'हिंदुत्व', 'हिंदू पदपादशाही', 'उ:श्राप', 'उत्तरक्रिया', 'संन्यस्त खड्ग' आदि ग्रंथ उन्होंने रत्नागिरी में ही लिखे।

१० मई, १९३७ को सावरकरजी की नजरबंदी रद्द की गई।

नजरबंदी से मुक्त होते ही सावरकरजी का भव्य स्वागत किया गया। अनेक नेताओं ने उन्हें कांग्रेस में शामिल करने का प्रयास किया; किंतु उन्होंने स्पष्ट कह दिया, 'कांग्रेस की मुसलिम तुष्टीकरण की नीति पर मेरे तीव्र मतभेद हैं। मैं हिंदू महासभा का ही नेतृत्व करूँगा।'

३० दिसंबर, १९३७ को अहमदाबाद में आयोजित अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अधिवेशन में सावरकरजी सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने 'हिंदू' की सर्वश्रेष्ठ व मान्य परिभाषा की। हिंदू महासभा के मंच से सावरकरजी ने 'राजनीति का हिंदूकरण और हिंदू सैनिकीकरण' का नारा दिया। उन्होंने हिंदू युवकों को अधिक-से-अधिक संख्या में सेना में भरती होने की प्रेरणा दी। उन्होंने तर्क दिया, 'भारतीय सेना के हिंदू सैनिकों पर ही इस देश की रक्षा का भार आएगा, अतः उन्हें आधुनिकतम सैन्य विज्ञान की शिक्षा दी जानी जरूरी है।'

२६ फरवरी, १९६६ को भारतीय इतिहास के इस अलौकिक महापुरुष ने इस संसार से विदा ले ली। अपनी अंतिम वसीयत में भी उन्होंने हिंदू संगठन व सैनिकीकरण के महत्त्व, शुद्धि की आवश्यकता पर प्रकाश डाला। भारत को पुन: अखंड बनाए जाने की उनकी आकांक्षा रही।

ऐसे वीर पुरुष का व्यक्तित्व और कृतित्व आज भी हमारे लिए पथ-प्रदर्शक का काम करने में सक्षम है।

-शिवकुमार गोयल


सावरकर समग्र

प्रथम खंड

पूर्व पीठिका, भगूर, नाशिक

शत्रु के शिविर में

लंदन से लिखे पत्र

द्वितीय खंड

मेरा आजीवन कारावास

अंदमान की कालकोठरी से

गांधी वध निवेदन

आत्महत्या या आत्मार्पण

अंतिम इच्छा पत्र

तृतीय खंड

काला पानी

मुझे उससे क्या? अर्थात् मोपला कांड

अंधश्रद्धा निर्मूलक कथाएँ

चतुर्थ खंड

उ:शाप

बोधिवृक्ष

संन्यस्त खड्ग

उत्तरक्रिया

प्राचीन अर्वाचीन महिला

गरमागरम चिवड़ा

गांधी गोंधल

पंचम खंड

१८५७ का स्वातंत्र्य समर

रणदुंदुभि

तेजस्वी तारे

षष्टम खंड

छह स्वर्णिम पृष्ठ

हिंदू पदपादशाही

सप्तम खंड

जातिभंजक निबंध

सामाजिक भाषण

विज्ञाननिष्ठ निबंध

अष्टम खंड

मैझिनी चरित्र

विदेश में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम

क्षकिरणे

ऐतिहासिक निवेदन

अभिनव भारत संबंधी भाषण

नवम खंड

हिंदुत्व हिंदुत्व का प्राण

नेपाली आंदोलन

लिपि सुधार आंदोलन

हिंदू राष्ट्रदर्शन

दशम खंड

कविताएँ

भाषा-शुद्धि लेख

विविध लेख

अनुवाद :

प्रो. निशिकांत मिरजकर, डॉ. ललिता मिरजकर,

डॉ. हेमा जावडेकर, श्री वामन राव पाठक, श्री काशीनाथ जोशी,

श्री शरद दामोदर महाजन, श्री माधव साठे, सौ. कुसुम तांबे,

सौ. सुनीता कुट्टी, सौ. प्रणोति उपासने

संपादन :

प्रो. निशिकांत मिरजकर, डॉ. श्याम बहादुर वर्मा,

श्री रामेश्वर मिश्र 'पंकज', श्री जगदीश उपासने,

श्री काशीनाथ जोशी, श्री धृतिवर्धन गुप्त, श्री अशोक कौशिक

मार्गदर्शन :

श्री त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी, डॉ. हरींद्र श्रीवास्तव,

श्री शिवकुमार गोयल

अनुक्रम

नाटक

१. संगीत उ:श्राप

२. बोधिवृक्ष

३. संगीत संन्यस्त खड्ग

४. संगीत उत्तरक्रिया

प्राचीन-अर्वाचीन महिलाएँ

१. मनुस्मृति में महिलाएँ

२. प्राचीन यहूदी योषिता

३. रूस में विवाह-विच्छेद स्वतंत्रता का प्रयोग

४. ललना-लावण्य की लाभ-हानि

५. विश्व की वर्तमान महान् महिलाओं में से तीन

गरमागरम चिउड़ा

१. मोहम्मद अली तथा हसन निजामी की लतियाई

२. पत्वाखाली के सत्याग्रह को आठ महीने हो गए

३. शाहाबाद के मुसलमानों की हिंदू होने की धमकी

४. मसजिद के निकट हिंदू बाजा बजाएँ मऊ के मुसलमानों का ढोंग

५. धमकी भरे पत्र

६. नील के पुतले के घोड़े की टाँग तोड़ दी!

७. हाथ लगे चार प्रमाणपत्र

८. मसजिद गिराई-महाराज भरतपुर को गद्दी से उतारो

९. शुद्धि के नाम पर गोमंतक में राजनीतिक आंदोलन-टाइम्स की खोज

१०. तुर्की कन्याओं को अमेरिकी स्कूल में मत भेजो

११. निजाम के समर्थक मुसलमान

१२. 'संपूर्ण राजनीतिक स्वाधीनता' इन शब्दों से संतप्त गांधीजी एवं अंग्रेज

१३. अंदमान में हुतात्माओं की मृत्यु क्यों नहीं हुई?

१४. राष्ट्रीय सभा से अधिक सर्वपक्षीय सभा महान्

१५. लालाजी पर लाठी प्रहार

१६. काशी में मर्कट महासम्मेलन और ठूँठ महासम्मेलन

१७. बंबई का दंगा-फसाद

१८. नेपाल का प्रस्तर-प्रासाद और सैयद अहमद का काँच-घर

१९. हुतात्मा राजपाल और महात्मा गांधी

२०. शंकराचार्य महाराज तथा जॉन बुल महाराज की सूचना

२१. सर टेगार्ट के डंडे के विरोध में चिटगाँव का प्रतिडंडा

२२. यह प्रतिशोध की बला अथवा हत्या की बला

गांधी आपाधापी

१. स्वतंत्रता का मार्ग

२. गांधीजी और भोले-भाले हिंदू लोग

३. कौन सा धर्म शांतिप्रधान है?

४. ब्रिटिशों के समर्थक

५. वाइसराय के साथ भोजन करता हुआ असहयोग

६. साबरमती का श्रमण

७. स्वतंत्रता का विरोध

८. दे दान छूटे ग्रहण

९. अत्याचार शब्द का अर्थ

१०. स्वतंत्र भारत का सम्राट् कौन है ?

११. घोंघी भगवती

१२. अहिंसात्मक भंडविधान

१३. कथनी और करनी

१४. पर शुद्धि नहीं मरेगी

१५. श्रद्धानंद की हत्या और गांधीजी का निष्पक्ष पक्षपात

नाटक

संगीत उ:श्राप

पात्र परिचय

संत चोखा

किशन

शंकर

कमलिनी

नारंभट

इब्राहिम

देवी सिंह

गंगा

चंपा

परिचय

रत्नागिरि में स्थानबद्ध रहते समाज सुधारक श्री विनायक दामोदर सावरकरजी ने यह 'संगीत उ:श्राप' नाटक सन् १९२७ में लिखा था। इस नाटक में अछूतोद्धार, हिंदुओं का इसलामीकरण, अछूत हिंदुओं का धर्माभिमान आदि प्रश्न प्रभावशाली ढंग से उठाए गए हैं।

यह वह समय था जब सावरकरजी पर प्रत्यक्ष राजनीति में भाग लेने पर प्रतिबंध तो था ही, बिना अनुमति के रत्नागिरि से बाहर जाना भी प्रतिबंधित था। अतः अपने विचारों का भारत भर में प्रचार करने के उद्देश्य से सावरकरजी ने यह नाटक लिखा। जो कार्य सैकड़ों भाषण देने से नहीं हो सकता है, वह मात्र एक प्रभावशाली नाटक द्वारा आसानी से हो सकता है, ऐसा सावरकरजी ने नासिक के एक भाषण में कहा था। उसीके अनुसार उन्होंने अपने विचारों के प्रचार हेतु 'उ:श्राप', 'संन्यस्त खड्ग' और 'उत्तरक्रिया' इन तीन नाटकों की रचना की। भगवान् बुद्ध की जीवनी पर भी उन्होंने एक आधा-अधूरा नाटक लिख रखा था, जिसका नाम था-'बोधिवृक्ष'। उसके दो-एक अंक उस समय के 'मौज' साप्ताहिक में प्रकाशित हुए थे। संभावना है कि यह आधा-अधूरा नाटक ही उनका नाट्य लेखन का प्रथम प्रयास हो।

प्रस्तुत नाटक में संत चोखामेला, उसका शिष्य किशन, उसकी बहन कमलिनी और उसका प्रियतम शंकर प्रमुख पात्र हैं। अछूतों को बार-बार हर जगह अपमानित किया जाना शंकर के लिए असह्य हो जाता है और वह मुसलमान बन जाता है। मुसलमान बनने से क्या लाभ हैं, वह किशन को भी समझाने की कोशिश करता है, किंतु किशन उसके सुझाव को तीव्रतापूर्वक नकारते हुए कहता है कि 'छोटा-मोटा पटेल जैसा पद तो क्या, यदि दिल्ली की सलतनत भी प्रदान की गई तो मैं हिंदू धर्म नहीं छोड़नेवाला।' उसकी बहन कमलिनी भी कहती है कि मैंने शंकर को विवाह का वचन दिया था, धर्मांतरित सिकंदर को नहीं। उसका अपहरण करने का प्रयत्न करनेवाले एक मुसलमान सरदार को वह प्रेम का नाटक करते हुए आलिंगन देती है तथा छुरा भोंककर उसकी हत्या करती है। उस समय 'यह है बदले का प्रथक प्रहार' जैसे शब्दों में प्रकट हुआ विचार मननीय तथा पठनीय है (देखिए अंक-५)।

इस नाटक को मंचन की अनुमति मिलना मुश्किल था, परंतु किसी तरह वह प्राप्त कर इसका पहला मंचन ९ अप्रैल, १९२७ को 'नाट्य प्रसारक' के संचालक लेले बंधुओं ने रत्नागिरि में किया था। अनुमति का खेल धूप-छाँव सा होता रहा। जून १९२७ में सरकार द्वारा यह नाटक प्रतिबंधित किया गया।

आधुनिक मंच पर नाटक की यथावत् प्रस्तुति मुश्किल काम है। आधुनिक दृष्टि से यदि इसकी पुनः रंगावृत्ति तैयार की गई या कुछ प्रवेश अंकित किए गए तो वे आज भी प्रभावशाली सिद्ध होंगे।

-बालाराव सावरकर

पहला अंक

: पहला दृश्य :

[सूत्रधार,नटी,परिपार्श्वक खड़े हैं ।]

नांदी : हे प्रभु उ:श्राप, हिंदुओं के आज

अमित हैं अपराध, पर करो तुम माफ!!

पतित पावन नाथ, दो कृपा का दान

कुल-गुरु-तप का, सार्थ कर दो मान!!

पय यशोदा का स्मरण करो, और यमुना गान

स्वकुल की गरिमा रखो, हे शुभंकर प्राण!!

मंगलाचरण

आचरण अद्भुत किया था,

आज तक चरितार्थ जिसने।

नाट्य है अनुपम अनोखा,

आज हम साकार करते।

पात्र हैं सब भिन्न फिर भी,

हैं सभी संतान उसकी।

लेखनी धारक विनायक,

सृजनकर्ता विश्वव्यापी!!

सत्यप्रिय : (परदे के अंदर से) ठहरो, रुको।

सूत्रधार : मंगलाचरण समाप्त होते-न-होते ही हमें रुकने का आदेश देता हुआ यह कौन इधर आ रहा है ?

नटी : नाथ! विनायक नाम सुनते ही शायद कोई अफसर नाटक बंद कराने के लिए इधर आ रहा है, मुझे ऐसा डर लग रहा है! यह नाट्य कृति विनायक की है, यह घोषणा क्यों कर दी आपने? आक्षेपों के प्रबल शापों के वज्राघात से उनकी लेखनी, देवकी के दीप्तिमान् शिशुओं जैसी करुणास्पद बन गई है। देवकी के दीप्तिमान् शिशु जैसे जन्म लेते ही मौत के विकराल जबड़े में फेंक दिए जाते रहे, वैसी ही स्थिति विनायक की लेखनी की भी अभी तक होती आई है। संजोग, मानो कालपुरुष-सा उन्हें निर्मित होते ही विस्मृति के गर्त में गाड़ता आया है।

सत्यप्रिय : (अंदर से ही) ठहरो! ठहरो !!

परिपार्श्वक : अरे बाप रे! सरकारी अधिकारी ही है !! अब कहाँ जाऊँ? हे सूत्रधार, बड़े-बड़े ख्यातिलब्ध प्रतिभासंपन्नों को छोड़ इस नौसिखिए-नाटककार से हमारा गठबंधन करने की आत्मघाती दुर्बुद्धि तुम्हें क्योंकर आई? भाई सूत्रधारजी, अपने इस नाटक का ही सूत्र नहीं, बल्कि उस नटी का मंगलसूत्र भी सत्ताधीशों की कैंची में फँस गया सा दिखता है।

सूत्रधार : घबराओ नहीं, मेरा मंगलाचरण समस्त श्रापों का साक्षात् उ:श्राप है। मुझे विश्वास है कि वह दयानिधान इस मंगलाचरण के उ:श्राप से संतुष्ट होकर विनायक की कलम पर लगे शाप को भी अगस्ति मंत्र से हीन-दीन कर दिए गए साँप की भाँति प्रभावहीन कर देगा।

सत्यप्रिय : रुकिए, रुकिए! (मंच पर आकर) आप लोग कौन हैं? क्या आप ही नाटक खेलनेवाले हैं?

पार्श्वचर : जी मैं नहीं। ये पुरुष और महिला। मैं मात्र निरीक्षक के रूप में आ गया था।

सत्यप्रिय : निरीक्षक के रूप में ! यदि नाटक खेलना अपराध है तो उसे रुचि से देखने का अभिप्राय अपराध को प्रोत्साहन देना ही तो होगा?

पार्श्वचर : सरकार ! मैं पाँव पड़ता हूँ। मैं जाता हूँ। सरकारी अधिकारियों का सम्मान करने में ही मैं उनके सामने हमेशा बेंत की तरह काँपता हूँ।

सत्यप्रिय : पर मैं न सरकार हूँ और न सरकारी अधिकारी। उस लोकोपयुक्त संस्था से मेरा सिद्धांतत: कोई वैर भी नहीं है। अत: आप मुझसे डरें नहीं।

पार्श्वचर : (खड़े होकर) सरकारी अधिकारी नहीं हो न? फिर तुम कोई भी हो? प्रत्यक्ष भगवान् क्यों न हो? मैं तुमसे नहीं डरता। ऐरे-गैरे से डरनेवाला डरपोक मैं नहीं हूँ। समझे! बोलो!! तुमने क्योंकर हमारे रंग में भंग किया?

सूत्रधार : (पार्श्वचर को डाँटते हुए) देखिए, इसे छोड़िए। मैं इस नाटक का सूत्रधार हूँ। क्या आप भी मेरे इस नाट्य-प्रयोग का अवलोकन कर मुझे उपकृत करेंगे? क्या मैं आपका नाम जान सकता हूँ?

सत्यप्रिय : मैं सत्यप्रिय हूँ। पूर्व में संत चोखामेला के काल में सत्यवान नाम के एक प्रख्यात धर्मप्रवर्तक हो गए हैं, मैं उनके पंथ का अनुयायी हूँ। हमारे गुरुदेव ने कहा था कि सत्य ही धर्म है। सत्य ही हमारा वेद है। अतः उस पंथ को सत्यवेदी कहा जाता है, लोग उपहास में हमें सतपागल भी कहते हैं।

सूत्रधार : वाह ! आज के हमारे नाट्य-प्रयोग को आप जैसा सत्यप्रिय दर्शक मिलना हमारा अहोभाग्य है। आपके गुरुदेव सत्यवान संत चोखा महाराज के समकालीन हैं। अत: उनसे जुड़ी इस कथावस्तु में आपको अपने गुरुदेव के भी दर्शन होंगे।

सत्यप्रिय : कैसी बात करते हो! अजी, जैसे मदिरापान की आदत विपत्ति या आपत्ति से, जैसे विषयलोलुपता सुंदरता से गृहस्थी के जंजाल में फँसाने जैसी माया लगती है, वैसे ही असत्य की चाह बढ़ाने का काम यह नाट्य-कला करती है। मैं उसका निरीक्षण करने नहीं, मैं तो उसका निर्दलन करने आया हूँ।

सूत्रधार : पर यह राजनीतिक या श्रृंगार भरा नाटक नहीं है। संत से संबंधित नाटक भी वास्तविक जीवन के लिए किस तरह घातक होते हैं- यह तो आप ही जान सकते हैं।

सत्यप्रिय : नाटक का कथ्य राजनीतिक है या नहीं, उसपर उसकी घातकता निर्भर नहीं रहती। केवल कथानक ही नहीं, समूची नाट्य-कला ही वेश्या की भाँति असत्य का भंडार है। अपना मूल रूप छिपाकर दूसरा ही कोई व्यक्तित्व साकार करना क्या धोखेबाजी नहीं है? और फिर आप केवल रूपांतर ही नहीं करते, लिंगांतर भी आभासित करते हैं। मात्र आभास ही नहीं करते बल्कि शपथपूर्वक वही व्यक्ति होने का दावा करते हुए मंच पर आरूढ़ होते हैं, क्योंकि आप लोग मानते हैं कि सबसे श्रेष्ठ अभिनेता वही है जो खुद को भूलकर अपनी भूमिका से तादात्म्य हो सके। अपने आपको पूर्णतः भुलाकर जीवित होते हुए भी दस बार इस प्रकार मरना कि दर्शकों की आँखों से आँसू झरने लगें। दिन में पुरुष तो रात्रि में स्त्री पात्र बनकर इतना हू-ब-हू अभिनय करना कि दर्शक भी आजीवन उसके यथार्थ को बता न पाएँ। घने अँधेरे में यह कहना कि कड़ी धूप में मेरे पैर जले जा रहे हैं। मात्र अंगुली गड़ाने से छेद हो जाए, परदे पर चित्रित इस तरह के किले पर तोपें दागने की आज्ञा देते हैं। इस अत्यंत निंदनीय झूठ के पुलिंदे पर लोगों को शर्म भी नहीं महसूस होती। यदि मेरे हाथों में शासन होता तो मैंने सभी अभिनेताओं को कड़ा दंड दे दिया होता।

पार्श्वचर : (स्वगत) फिर से दंड! मुझे अभी भी यही लगता है कि हो न हो यह छद्म वेशधारी कोई-न-कोई अधिकारी ही है। अतः दो शब्द उसके अनुकूल प्रकट करना ही श्रेयस्कर होगा। जरूरत पड़ी तो इन दो शब्दों से सँकरी गली से बच निकलना आसान होगा। (प्रकट) हे सत्यप्रियजी, आपके दंड की बात करने के पहले ही मैं बताने लगा था कि आपके कथन में कुछ तथ्य तो अवश्य है। अब खरडा गाँव की लड़ाई की बात ही लें। उक्त लड़ाई में सदाशिव भाऊ पेशवा औरंगजेब द्वारा मारा गया, यह इतिहासकारों को ज्ञात है। फिर भी उसकी मौत के पश्चात् भी स्वयं को 'सदाशिव भाऊ' कहलानेवाला नकलची 'सदाशिव भाऊ' प्रकट हुआ था न? उस असत्य कथन के अपराध के लिए ऊँट पर उलटा बाँधकर हथियार से उसका सिर फोड़ा गया था। उस सत्य युग में असत्य के प्रति इतनी तीव्र प्रतिक्रिया होती थी, पर अब तो घोर कलयुग है, कलयुग!! अब सीने पर हाथ रखकर अपने आपको सदाशिवराव भाऊ कहलानेवाले नकलची, रंगमंच पर इतमीनान से घूमते दिखते हैं। 'पानीपत का मुकाबला' 'पानीपत की देन' के अंतर्गत तीन लाख सैनिकों की लड़ाइयाँ छोटे से रंगमंच पर साकार करते रहते हैं लोग। अब सिर फोड़ने की सजा तो छोड़िए, अब लोग चार-चार रुपए खर्च कर तालियों की ध्वनि से उनका सम्मान करते हैं। पेशवाशाही समाप्त हो गई, यह ठीक ही हुआ, अन्यथा इन नकली सदाशिव भाऊ में से एक अत्यंत साहसी अभिनेता गनपति राव जोशी, पेशवा तख्त पर अपना अधिकार जताने पुणे पर धावा भी बोल देता और ये दर्शक 'हर-हर महादेव' की गर्जना करने उसकी सेना में अपने हाथ की छड़ियों को तलवार मानकर शामिल हो जाते।

सूत्रधार : सत्यप्रिय, वाचिक सत्य ही श्रेष्ठ सत्य है, यह तुम्हारी परिभाषा मुझे संदेहास्पद लगती है। समाज को मंगलकारी उपदेश की ओर ले जानेवाली नाट्य-कला यदि सद्भाव से परिपूर्ण हो तो वह एक उपयुक्त साधन है। ऐसी मेरी मान्यता है। अतः मैं क्षमा चाहूँगा।

सत्यप्रिय : कैसी क्षमा? अरे सूत्रधार, आपके नाम से ही सब झूठ का पुलिंदा है। कह रहे हैं अपने को सूत्रधार! अरे, कम-से-कम उतनी देर अपने हाथ में सूत्र भी पकड़ा करो! मिथ्याचरण थोड़ा-बहुत टल जाएगा, फिर भले ही बल से आप कुछ भी करें, पर मैं तो आपके नाटक को मंचन की अनुमति न दूंगा।

पार्श्वचर : हमें पहले ही सरकार से अनुमति मिल गई है। अब हमें तुम्हारे सत्य की अनुमति की परवाह नहीं है, समझे!

नटी :परंतु प्राणनाथ, देखिए, अभिनय करने हेतु लड़कियाँ सज-धजकर आ रही हैं। मायापुर गाँव की पिछड़ी बस्ती में लगाई फुलवारी से वे फूल तोड़कर ला रही हैं। अतः अब हमें शीघ्रता से मंच सज्जा करने में संलग्न हो जाना चाहिए। (जाते हैं)

: दूसरा दृश्य :

[स्थान : मायापुर की पिछड़ी बस्ती,चंपा और सखू बातचीत

करती आती हैं। ]

सखू : चंपा, यह कमलिनी की फुलवारी अब किसी नंदन वन-सी दिखने लगी है, है न? जब मोगरे या हरसिंगार में बहार आती है तो उसकी सुगंध से यह गंदी बस्ती महक उठती है। इस बस्ती के बीचोबीच रहनेवाले अपने मुखिया नायक 'जानबा' द्वारा अपने दो बच्चों- किशन एवं कमलिनी-हेतु निर्मित तुलसी वृंदावन में तो यह सुगंध चरम सीमा पर प्रतीत होती है। वहाँ थोड़ी देर रुकने से भी ऐसा लगने लगता है मानो हम नवरात्रियों में किसी मंदिर के सामने खड़े हों। मंदिर के गर्भगृह में ऐसी ही गंधमय पवित्रता होगी-है न?

चंपा : वह मैं कैसे बता सकूँगी? हम तो अछूतों की कन्याएँ हैं। मंदिर की चारदीवारी तक ही हमारी पहुँच है। फिर भला मैं कैसे बताऊँ गर्भगृह की पवित्रता के बारे में? हाँ, इतना अवश्य जानती हूँ कि अपने नायक 'जानबा' को संत चोखा महाराज की प्रसाद प्राप्ति के पश्चात् उन्होंने दिन-रात सफाई करते-करते इस गंदी बस्ती की काया ही पलट दी है। अब यह बस्ती इतनी साफ-सुथरी, मंगल और पवित्र बन गई है कि उससे गर्भगृह की कल्पना इस तुलसी वृंदावन के पास खड़े रहकर की जा सकती है। कमलिनी जानबा की इकलौती बेटी, किशन इकलौता बेटा!! दोनों को ग्रंथ पढ़ना, अभंग गाना उन्होंने ही सिखाया है। उनके साथ संगत में हम सबने सबकुछ सीख लिया है, है न? कमलिनी तो किसी देवी से कम नहीं लगती। यह फुलवारी, यह वृंदावन और यहाँ की प्रसन्नता, सब कमलिनी की भक्ति और शोभा की छायामात्र ही तो हैं।

सखू : पहले-पहले तो मुझे उसकी बातें बड़ी उबाऊ लगती थीं। हमेशा साफ रहो...नहाओधोओ, पेड़-पौधे लगाओ, उसकी पूजा करो, फिर संस्कृत शब्द रटो, पोथी पढ़ो ... बार-बार यही रटते रहती थी वह। मैं कहूँ-अरे, हम अछूतों की कन्याएँ, हमें इन सब बामनों की बातों से क्या लेना-देना? साफ-सुथरा रहने से हमें कोई बामन थोड़े ही मान लेगा? स्वच्छ-सुंदर रहकर हमें नटनी थोड़े ही बनना है? पर सच तो यह है कि सुंदर-वुंदर दिखने का सवाल है ही नहीं। प्रश्न यह है हमार रहन-सहन कैसी हो, हमें क्या करना है। अब मुझे कोई रोके, तो भी मैं सफाई का काम करने के बाद नहा-धोकर पोथी से चार-पाँच पंक्ति पढ़ ही लेती हूँ। कितना सुकून मिलता है उससे!

चंपा : जानबाजी ने जब कहा कि हरेक अछूत के घर के सामने एक तुलसी वृंदावन होना ही चाहिए, तब मैंने स्वयं अपने हाथों से मिट्टी खोदकर दरवाजे के सामने उसका निर्माण किया था। इस फुलवारी को गोकुल जैसा शोभायमान बनाने के लिए ही तो मैं कमलिनी का हाथ बँटाने आई हूँ, समझी?

सखू : हाँ, वह तो है ही। उस गोकुल से इस गोकुल की बराबरी कराने हेतु अब कमलिनी गोपी लीला भी शुरू करने जा रही है, ऐसा सुना है मैंने। उसमें भी हाथ बँटाना, चंपा देवी। सच, चंपा देवी, एक बात मालूम है तुझे?

चंपा : कौन सी बात?

सखू : अरे, उस कमलिनी और शंकर में कुछ मेल-जोल बढ़ रहा है।

चंपा : मेल-जोल से तात्पर्य?

सखू : निरी भोली हो तुम चंपा। क्या तुम इतना भी नहीं समझती? जैसा तेरा और कमलिनी के भाई किशन के बीच पक रहा है न, वैसा ही कमलिनी का शंकर से जम गया है। 'बेंत पड़े धम-धम, सूझ बढ़े छम-छम...'

चंपा : सखी, यदि तुम्हारी जीभ के बेंत ऐसे ही अकारण मुझे लगते रहे तो तुम्हारे संगत की यह मरकही शाला छोड़कर मुझे भाग जाना पड़ेगा। जा उधर, मेरे पास खड़ी न रहना, मैं उधर के फूल तोड़ती हूँ।

सखू : मैं भी उधर के ही फूल तोड़ूँगी।

चंपा : फिर मैं इस ओर के तोड़ूँगी।

सखू : अरे, पर मुझपर गुस्सा क्यों हो रही हो? क्या मैंने तुम्हें किशन के नजदीक भेजा था? तुम्हारे माँ-बाप तो वैसा कुछ सोच रहे हैं और तुम मुझपर गुस्सा उतार रही हो। उनपर उतारो गुस्सा।

चंपा : सच? क्या कमलिनी के पिताजी उसको शंकर के हाथों सौंपने जा रहे हैं?

सखू : ये मैं क्या जानूँ। हाँ, मैंने कल इतना जरूर सुना था कि तुम्हारे होनेवाले 'वो' शंकर को, फुलवारी में कुछ बता रहे थे...शंकर और किशन बचपन के दोस्त हैं, अब वह दोस्ती इस नए बंधन से अधिक सुदृढ़ न होगी? और तुम्हारा क्या? कमलाबाई तो अब तुम्हारी ननद होगी।

चंपा : तुम कुछ भी बकती रहो, पर मैं तुम्हें और कमलिनी को बचपन की सहेली ही मानूँगी।

सखू : लो, वह देखो, कमलिनी आ रही है। जरा सा मजाक करें। (कमलिनी का प्रवेश) कमला, ये देखो, मैंने बेला के कितने फूल तोड़ लिये हैं ! चंपा की टोकरी बिलकुल खाली रह गई। बस, गप्पें ठोंक रही है तब से ...

चंपा : झूठ बोलती है ये। वह फूल तोड़ रही थी तो मैं इस मदनमस्त को पानी से सींच रही थी। मैंने इसके खराब पत्ते निकाले, जड़ों की साफ-सफाई की। फिर मेरी टोकरी कैसे भरेगी? काम के साथ बातें भी होती रहीं। ये भी बतियाती रही।

कमलिनी : ऐसा ही होता है। जो लगातार पेड़-पौधों की देखभाल करते हैं, साफ-सफाई रखते हैं, उनकी टोकरियाँ खाली ही रह जाती हैं। दूसरों द्वारा विकसित पौधों के फूल कोई तीसरा ही तोड़ता है। पौधे की देखभाल करते-करते चंपा की टोकरी खाली रह गई। इसीलिए तुझे अपनी टोकरी भरी दिख रही है।

सखू : वो तो सच ही है, पर मुझे यह बताओ कि जब चंपा यहाँ पौधे की देखभाल कर रही थी, तब आप कहाँ गुल खिला रही थीं, कमलिनीजी? आप किसी उपासना में तल्लीन थीं? आजकल बड़ी एकाग्रता से उपासना हो रही है।

चंपा : कौन से भगवान् को पूज रही हो तुम?

सखू : देवों का देव कौन है?

चंपा : महादेव।

सखू : उसका कोई अन्य नाम भी होगा।

चंपा : शंकर।

सखू : बस, उसी की उपासना चल रही है इसकी।

कमलिनी : (फूलों की माला से मारते हुए) क्या व्यर्थ की बकवास किए जा रही हो। कौन है ये शंकर?

चंपा : शंकर को नहीं जानती? इतनी बनो मत।

गीत

व्याघ्रांबर धारी, हे अनंग, हे कर्पूर गौरी

तुम रमते हो अल्हड़ जोगी, श्मशानों में करते केली

हे भंगड़, हे भिल्लन प्रेमी, तुमरी लीला सबसे न्यारी।

तो कमलिनीजी, इतने परिश्रम से तुमने यह फुलवारी बनाई,

अब तुम्हारे लिए इसका क्या उपयोग होगा? शंकर के अलावा किसी सीधे-सादे देवता को पूजना होता तो जूही-चमेली की फूल मालाओं का उपयोग होता, पर शंकर तो विषधर हैं। अतः अब तुम साँपों की बाड़ी लगवाओ। अब तो तुम्हें नए-नए साँप उसके गले में पहनाने पड़ेंगे। तब इस फुलवारी का कुछ भी उपयोग नहीं रहेगा।

कमलिनी : मेरी प्रिय भाभीजी, मैं साँप-फुलवारी लगा भी लूँगी और यह फुलवारी तुम्हें दे दूँगी। जिस देवता की उपासना आप कर रही हैं वो रँगीला-मिजाजी है न? मेरा कैसा भी क्यों न हो? तेरे रँगीले किशन राजा को जूही-चमेली की मालाएँ तो रास आएँगी न? पर मालाएँ पक्के धागे की बनाना। गोपियों की खींच-तान में एकाध कहीं टूट न जाए। सोलह सहस्र नारियाँ उसके पीतांबर को पकड़ने का प्रयास करती रहती हैं, पर किसीकी भी पकड़ में वह आता नहीं।

सखू : तुम दोनों अब व्याघ्रांबर और पीतांबर की खींच-तान करती रहो। साँझ हो रही है, मुझे अब जाना चाहिए, चंपाजी। चलो, बाँट लें सब फूल।

कमलिनी : ऐसे थोड़े ही बाँट लेने दूंगी मैं फूल। आज हम लोग थोड़ा भी खेले नहीं। मैंने सभी सहेलियों को टिपरी नाच खेलने को बुलाया है। आती ही होंगी सब।

सखू : देखो चंपा, मैंने कहा न था कि अब यहाँ रासलीला शुरू होगी। उसका रंगाभ्यास करने दो कमल को।

कमलिनी : इस तुलसी वृंदावन के सामने क्या-क्या बकती जा रही हो तुम?

सखू : बकवास कैसे और क्यों? यह तुलसी कृष्ण के सामने जो कुछ कहती थी, वही तुम भी कहोगी। इतना ही तो कहा मैंने।

चंपा : वह देखो, सारी सहेलियाँ आ गईं।

गीत

नव पारिजात माला, न है गुलाब प्यारा

न केतकी न चंपा, खुशबू भरा खजाना

प्रभु है तुझे समर्पित, तुलसी सुमेर माला

न रूप है अनोखा, न रंग भी अदेखा

हे पतित हृदय प्रेमी, तुलसी करे विलोला।

[नाचते हुए बाकी लड़कियाँ जाती हैं। चंपा, सखू और कमलिनी के निकट जाकर आत्मीयता से आलिंगन देती हैं।]

चंपा : सच कहूँ, कमला, तुझसे दूर रहते ही नहीं बनता।

सखू : एक बात पूछूँ मैं। क्या प्राणप्रिय का आलिंगन भी हमारे स्नेहपूर्ण आलिंगन सा मीठा रहता होगा?

चंपा : मुझे तो लगता है कि हमारा बचपन कभी समाप्त ही न हो। ऐसा हुआ तो हम लोग हमेशा एक साथ रह सकेंगी।

कमलिनी : ऐसा क्यों पूछती हो सखियो? सच, मुझे भी एक आशंका व्याकुल करती रहती है। ऐसे प्रेम का अनुभव हमें फिर कभी जीवन भर मिल पाएगा या नहीं? किंतु ऐसे सुख में जीवन भर साथ रहना संभव हो न हो, पर कहीं भी रहना पड़ा तो हमारा यह प्यार अमिट रखना तो हमारे हाथों में ही है न? आओ सखियो, जी भरके गले लग जाओ।

[तीनों एक-दूसरे के आलिंगन में समा जाती हैं।]

चंपा : अब जाएँ हम?

कमलिनी : ठीक है, जाओ। काफी देर हो गई है। घरवाले क्रोधित होंगे। जाओ अब।

[सखियाँ जाती हैं। शंकर का प्रवेश।]

शंकर : हमने आपकी सखियों की प्रेमलीला देख ली।

कमलिनी : अरे, शंकर! तुम? बड़े ही शरीर हो। मेरे किशन भाई कहाँ गए ?

शंकर : वो भी बड़ा बदमाश है। हमें एकांत मिले, इसलिए बहाना बनाकर कहीं चल देता है।

कमलिनी : पर उससे छिपाकर तुमसे बात करने लायक है भी क्या मेरे पास? सच कहूँ, ऐसा सुयोग्य भाई मुझे अनेक जन्मों में भी नहीं मिल पाएगा। हम एक-दूसरे से कुछ भी छिपाकर नहीं रखते। तुम्हारी-उसकी अटूट मित्रता के बाद तुम हमारे यहाँ जब रहने आए और हमारे बीच में जो प्यार प्रस्फुटित हुआ, वह सब उसे कब का मालूम है। तब से चिढ़ाता है वो मुझे-मैं स्नेह दक्षिणा के रूप में अपनी प्यारी बहना ही शंकर को अर्पित करनेवाला हूँ, समझी? याद है, एक बार मैं भाई से मजाक करते हुए इस हरसिंगार के पीछे जा छिपी थी, तो भाई ने मुझे पकड़ने के लिए तुम्हें भेजा था, तुम छिपते हुए आए थे और मुझे पकड़ लिया था। अचानक हुए उस स्पर्श ने मुझे रोमांचित कर दिया था।

गीत

नाम है न काम है, कामना कैसे कहूँ

याद क्षण आया कभी, सिहर सी जाती रहूँ।

सच कहती हूँ, उस समय ऐसा लगा था कि जीवन भर तुम्हारे निकट ही रहूँ। उस दिन के रोमांचित भावों को मैंने माँ से भी छिपाने के प्रयास किए थे, पर भाई से छिपा न पाई। तब उसने मुझे किसी सखी की भाँति एकांत में उस नवीन भावना का मधुर अर्थ कहते हुए क्या कहा, क्या बताऊँ?

शंकर : कमल, किशन के विश्वास पर तेरा एकाधिकार नहीं है। मेरा भी उतना ही अधिकार है। उस दिन उसने मुझसे क्या कहा था, बताऊँ?

गीत

नयनों की लोलुपता तेरी, सखि अद्भुत है ये अठखेली

मन में रख लूँ मैं हे प्यारी, रस की दुनिया से सारी

पुलकित भावों की ये ओरी, सस्वर गुंजित होती रहती।

और मैंने उसी दिन उसे सच कह दिया था। कल किशन ने ईश्वर को साक्षी मानकर तेरा हाथ मेरे हाथों में देकर जन्म-जन्मांतर का उपकार किया है, जिसे मैं कभी भी नहीं भूलूँगा। अब तुम्हारे पिता जानबा क्या कहते हैं, इसकी चिंता थोड़ी-बहुत शेष है। इतना जरूर कहूँगा, प्रिये कि उस उषाकाल में तुम्हारा थामा था हाथ, प्रेम के हरसिंगार की छाया में जीवन की संध्या तक भी थामूँगा।

कमलिनी : हे मनहर, उस दिन तुम्हारी पकड़ से छूटने के लिए छटपटानेवाली मैं आज तुम्हारे जीवन से लिपटने की बातें कर रही हूँ।

शंकर : वह मदन मनोहारी कमलाकर हमारे प्रीति-संगम का हमेशा साक्षी रहे।

कमलिनी : वह मदनगर्वहारी शंकर हमारे प्रेममिलन को मंगलमय बना दे।

[किशन का प्रवेश।]

किशन : क्यों कमला, अभी-अभी तुम शंकर का नाम ले रही थीं? प्यारी बहना, अब चाहे जब ऐसे शंकर का नाम लेने की आदत छोड़नी होगी तुम्हें। अब तुम्हारा संबंध ही बदल गया है। हम हिंदुओं की महिलाएँ जब चाहे पति का नाम नहीं लेतीं, मालूम है न!

कमलिनी : अच्छा, तो तुम्हारा यह कथन मैं जाकर अपनी होनेवाली भाभी को बता देती हूँ। विवाह के पहले पति को नाम लेकर चाहे जितनी बार पुकार लो, पर विवाह के बाद पति का नाम लेना बिलकुल छोड़ देना पड़ता है। यह स्त्रीधर्म है-यह किशन ने तुझे बताया है, ऐसा चंपा को जाकर कहती हूँ।

किशन : अभी जा रही हो, जाओ; किंतु एक अच्छा समाचार सुनने से वंचित रह जाओगी।

शंकर : सच? कोई समाचार लाए हो?

किशन : एक छोड़ दो, परम मंगल समाचार मैं तुम्हें कहने लाया हूँ। पहला यह कि जब मैंने जानबा को यह बताया कि मैंने कमलिनी को शंकर के लिए प्रस्तावित किया है, तो उन्होंने बड़ी ही खुशी से स्वीकृति दे दी। दूसरा समाचार है कि अपने बाबा के और हम सब दलितों के सद्गुरु श्रीसंत चोखा महाराज के दर्शन हेतु हम तीनों को उन्होंने पंढरपुर जाने की आज्ञा की है। बाबा अब कहीं आ-जा नहीं सकते। अतः तुम्हें उनके दर्शन कराने का जिम्मा उन्होंने मुझपर सौंपा है! अब मैं रिश्ते से तुम्हारा वचन-निश्चित साला बन गया हूँ। चलो, हमें पहले बाबा के ही दर्शन करने चाहिए। (जाते हैं।)

: तीसरा दृश्य :

[चोखा महाराज हाथ में झाड़ू लिये पंढरपुर के मंदिर का परिक्रमा-पथ बुहार रहे हैं।]

चोखा : ओहो हो!! रात बीतकर पौ फटने की यह संधि वेला, यह उषाकाल कितना शांत है! पाप की मध्य रात्रि बीतकर पश्चात्ताप की उदय वेला में मंगलोन्मुख मन जैसा निर्मल एवं शांत होता जाता है वैसा ही यह आकाश निर्मल और शांत दिख रहा है। संतों की अमृत वाणी सुनकर मन को जैसा सुकून मिलता है वैसा ही आनंद उन नन्हे पक्षियों की किलकारियाँ मेरे मन को दे रही हैं, पर यह तुलना ठीक नहीं है; क्योंकि-हे मेरे कानो! इस किलकारी का आनंद तुममें ही समाहित हो रहा है, वह संतों की वाणी जैसा झिरते-झिरते आत्मा को नहीं छू रहा। वह दिखावटी है। इन पक्षियों का जो गाना मेरी इंद्रियों को सुखकर प्रतीत हो रहा है, वह स्वयं भी सुखकारी है या नहीं, यह भी एक प्रश्न ही है। हो सकता है कि उस नन्हे पंछी की नन्ही सी प्रिया अभी तक उससे मिलने नहीं आई हो, इसलिए विरह से अशांत होकर उसे पुकारते हुए निकली उसकी यह किलकारी कदाचित् उसके व्याकुल हृदय की संगीतमय छटपटाहट हो। नहीं-नहीं! पूर्णता से, जिस संगीत से हृदय की आकुलता शांत होती है वह संगीत तो वास्तव में श्रीहरि का नाम स्मरण मात्र है ? हे गोपाल, हे गोविंदा! मेरे भक्ति के उषाकाल में अब अपने ज्ञानमय प्रकाश का प्रत्यक्ष उदय होने दो।

गीत

जनक औ' जननी, तू ही है हमारी

दया क्यों न आती, तुझे हे मुरारी?

कैसे ये संसार, तूने है बनाया

पराया सा दूर, हमें क्यों बसाया?

जन्म-जरा-अंत, सुख-दुःख सारे

हमारे अभाग, क्यों अनदेखे?

प्रभु तेरे द्वार, करूँ मैं पुकार

चोखा का उद्धार, कब और कैसे?

[रास्ते से जाता एक व्यक्ति प्रवेश करता है।]

व्यक्ति : अबे, ओ धेड़, तू रास्ता साफ कर रहा है या रोके रख रहा है? ठहर, ठहर, वह धूल मुझपर उड़ेगी। तुम धेड़ लोग बहुत ही गर्रा गए हो! काम तो झाड़ू लगाने का करते हो और भजन गाने का दुस्साहस कर रहे हो? क्यों बे महारठे! जो गा रहा है, उसका अर्थ भी समझता है?

चोखा : महाराज, क्षमा करें।

वेदों का अनुभव कहो या शास्त्रों का अनुवाद

एकमात्र है नाम पर, वह गोविंद महान्

चोखा तो है नासमझ, मूढ़ कहें सब कोय

नाम रटे वह जात है, हे विट्ठल श्रीरंग।

व्यक्ति : हाँ-हाँ, जरा सँभलके। वेदों का नाम लोगे तो कान काट देंगे तुम्हारे। भगवान् विट्ठल के हाथ कमर से चिपके हैं। वे तेरी सहायतार्थ कदापि न आएँगे। हमारे हाथ बिलकुल खुले हुए हैं। तेरे थोबड़े का स्वागत जरूर करेंगे, समझे? धेड़-गँवार कहीं का! चल दूर हट, नहीं तो अपनी छाया से मुझे अपवित्र कर देगा।

चोखा : भगवान्-

पाँचों की भूतों की छुआछूत?

बने देह उसके बिना कोई कैसी?

सभी गर है छूत ही फिर भेद कैसे?

चोखा तो न समझे दुनिया है कैसी?

[किशन, शंकर और कमला आकर उसके पैर छूते हैं।]

चोखा : अरे-अरे, ये क्या कर रहे हो? मैं तो एक तुच्छ झाड़ूवाला हूँ। सज्जनो, आप मेरे पैरों को इस तरह छुओ नहीं! आप मुझे कोई और समझ त्रुटि कर रहे हो।

किशन : नहीं, महाराजजी, कोई त्रुटि नहीं कर रहे हैं हम। मैं किशन हूँ, यह मेरी बहना कमलिनी और यह है शंकर। हम भाई-बहन मायापुर के जानबा महाराज की संतान हैं। यह शंकर हमारे मोहल्ले का ही युवक है। हम लोग उसका कमलिनी से ब्याह रचाने जा रहे हैं। आपको याद है न, जानबा? आपके शिष्य, उन्होंने ही भेजा है हमें आपके दर्शनों को। वे अब काफी बूढ़े हो गए हैं। आ नहीं पाए, इसलिए बहुत दुःखी हैं।

चोखा : आओ, इस ओर, सड़क पार के उस पत्थर पर बैठें। जानबा की मुझे खूब याद है, पर मायापुर से इस लड़की को इतनी दूर तक कैसे लाए? कोई गाड़ी की है क्या?

किशन : नहीं महाराज। हम दीन-दरिद्र, घर की गाड़ी कहाँ! किराए की या मुफ्त की माँगें तो महाराज, भाड़े से भी कोई गाड़ी में लेता नहीं है। फिर मुफ्त कौन बैठाएगा?

चोखा : फिर पैदल चलने का कष्ट तुमने इस लड़की को क्योंकर दिया? लड़कियों से इस वय में चलने का श्रम नहीं होता। फिर तुम तो भजन का सामान भी साथ लाए हो। बैठो, बेटा।

कमलिनी : महाराज, आपके चरणों के जो दर्शन हुए, मेरी तो सारी थकान उड़ गई। मेरी उम्र की मुझसे भी दरिद्र अन्य लड़कियों को मैंने सिर पर लकड़ी के बोझे लादे पंढरपुर आते देखा है। उनकी वेदनाओं की कल्पना मुझे भी तो होनी चाहिए। अन्यथा उनके दुःख पर मैं दया नहीं कर सकूँगी। और यदि वे चार पैसों के लिए पंढरपुर पैदल आती हैं तो जनम-जनम भी न मिले, ऐसा आपके चरणों के दर्शन का पुण्य प्राप्त करने के लिए मैंने यह यात्रा की तो उसमें विशेष क्या किया? मैं स्वयं ही पैदल आई हूँ, महाराज।

शंकर : किंतु एक प्रार्थना है, महाराजजी। अभी यहाँ से गए महोदय से हमने आपका पता पूछा कि चोखा महाराज कहाँ हैं? तो वे गुस्से से बड़बड़ाते बोले, 'संत चोखा महाराज कौन? वह तेरे बाप को मालूम होगा। हाँ, हमारे नगर की सड़कें साफ करनेवाले चोखा को जरूर जानते हैं हम। वह यहीं सड़क साफ कर रहा है।' उसकी यह बदतमीजी मुझे बहुत बुरी लगी। क्या सचमुच आपको झाड़ू लगाना पड़ता है, महाराज?

चोखा : हाँ, यह सच है। हम धेड़-गँवार जो हैं। अपना धंधा ही है यह। इसमें अपमान की क्या बात है?

शंकर : क्यों नहीं? जो भगवत् भक्ति में रमा है, जो निर्वैर, निष्पाप और निर्मल संत है, उसे केवल इसलिए कि वह धेड़ जाति में पैदा हुआ, इतना घटिया काम करना पड़े, यह अपमानजनक नहीं तो क्या है? ऊँची जाति के चोर-उचक्के पापी लोगों द्वारा फैलाई हुई गंदगी दूर करना हमारा जातिगत धंधा हो गया। यह कैसा न्याय? हम लोगों का जन्म गाँव की गंदगी साफ करते-करते ऐसे ही व्यर्थ बीत जाएगा क्या?

किशन : महाराजजी, लाइए, वह झाड़ू मुझे दीजिए। जिन हाथों में शंकराचार्य का धर्मदंड या राजदंड शोभित होना चाहिए, उन हाथों में यह झाड़ू मुझसे देखा नहीं जाता। जब तक हम लोग यहाँ हैं, हम बारी-बारी से झाड़ू लगाया करेंगे। दीजिए यह झाड़ू। (झाड़ू लेने बढ़ता है।)

चोखा : बेटे, ठहरो, ठहरो! मेरे हाथों का यह दंड वास्तव में यदि शंकराचार्य के हाथों का धर्मदंड होता या कोई राजदंड होता तो मैं तुम्हारी बात मान भी लेता, पर यह तो बेटे, मेरी पंगु भक्ति की एकमात्र सहायक लाठी है। इस नगर के मार्ग, यह परिक्रमा की राह, लोगों के पैरों तले कुचली धूल और लोगों द्वारा फैलाई हुई गंदगी झाड़ने का, साफ करने का क्षुद्र से क्षुद्रतर भी जो काम नहीं करेंगे, वह काम मेरे हिस्से आया, इसे मैं अपना सद्भाग्य समझता हूँ। इसके लिए मैं जनम-जनम महार जाति में ही जन्म पाऊँ, ऐसी ईश्वर से मेरी प्रार्थना है। हाथी पर बैठने तथा राजदंड ग्रहण करने हेतु तो अनेक लोगों को उत्सुक देखा जाएगा, किंतु मनुष्य जीवन को साफ-सुथरा, सुखी रखने के लिए जरूरी इस 'सफाईदंड' को स्वीकारने कोई आगे नहीं बढ़ेगा। अतः ऐसा 'समाज स्वास्थ्य' का उपयोगी काम करने यदि हम धेड़-अछूत आगे आएँ तो वह काम तुच्छ नहीं बल्कि सर्वश्रेष्ठ ही है। उससे तो हमारे जन्मों की सार्थकता सिद्ध होती है।

किशन : महाराज, आपका उपदेश कितना महान् है !

शंकर : तो फिर हम महार कुत्ते के पैरों से रौंदी हुई नगर मार्ग की धूल झाड़ते, लोगों की गंदगी व मिट्टी में लोटें और क्षत्रिय राजदंड हाथ में लेकर केशर-कस्तूरी का सुगंधि लेपन कर निर्मल और सुंदर बने रहें। जिनके उपकार से वे वैसा सुंदर रह सकते हैं, उन्हीं महार-भंगी को पापयोनि कह पशु से भी अपवित्र माना जाए-यह सामाजिक कर्तव्यों का विभाजन क्या आपको उचित लगता है?

चोखा : नहीं। किसी भी जाति को बलात्कार से नीच या पापयोनि का, हीन मानकर उससे आजीवन गंदे काम कराना निश्चय ही अन्यायपूर्ण है, पर हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि सामाजिक सफाई नहीं की गई तो गंदगी से बीमारी ही बढ़ेगी। उस सर्वनाश से बचने हेतु किसी-न-किसीको तो यह काम करना ही पड़ेगा। फिर हम लोगों ने यह काम किया तो क्या हानि है? फलाना काम श्रेष्ठ, ढिकाना काम नीच, फलाना पवित्र तो अन्य अपवित्र, यह मानसिकता हिंदू समाज जितनी जल्द छोड़ दे उतना ही भला होगा। लोकहित साधक सभी काम पवित्र हैं, ऐसी सोच यदि बढ़े तो एक-दूसरे से विद्वेष, दूरियाँ नहीं बढ़ेंगी। 'स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभतेनर: न।' समाज की मानसिक बुराई को दूर करने हेतु संत श्रम करते हैं तो दैहिक बुराई दूर करने हेतु हम लोग श्रम करते हैं। कर्तव्य की दृष्टि से यदि इस साम्य-भाव को देखें तो दोनों काम एक जैसे लगेंगे। हाथी की सवारी में घूमनेवालों से कहीं अधिक अच्छी स्थिति उसकी है जो दूसरों की गंदगी साफ करने के लिए झुकता है। उसका अहं विलुप्त हो जाने से वह नारायण से कहीं अधिक एकाकार होता है।

किशन : महाराज, आपकी यह अमृतवाणी सुनकर सामाजिक कर्तव्य के बँटवारे में समाज की गंदगी साफ कर सामाजिक आरोग्य रक्षण का यह अति घिनौना, परंतु उसी कारण उपकारक कर्तव्य हम महारों को प्राप्त हुआ-और उससे परोपकार की शिक्षा लेने का यह सुवर्ण अवसर का लाभ हमें हुआ-ऐसा मुझे लगने लगा है।

शंकर : और जिस समाज की स्वास्थ्य रक्षा हेतु हम यह गंदगी भरा काम करते हैं, उस समाज ने उन महार-भंगियों पर उपकार किया, इसलिए कुत्ते से भी अस्पृश्य और पापयोनि मानने का एक सुवर्ण अवसर उसे भी मिला।

चोखा : भाई शंकर, औरों की पवित्रता एवं स्वच्छता बनी रहे, इसके लिए धूल-कीचड़ में सने हम धेड़ों के बदन किसी भस्म विलोपित ब्राह्मण से सम्मान्य समझे जाने चाहिए। यदि उसे कोई नीच-पापी समझता है तो यह उसकी तुच्छ बुद्धि का दोष माना जाए। दूसरों के चिढ़ाने से यदि कोई धेड़ स्वयं को ही नीच-पापी मानने लगे और क्रोधित होने लगे तो उसे चिढ़ानेवाला सही है, यही सिद्ध न होगा क्या कि दूसरे के चिढ़ाने पर जो अपना कर्तव्य या लोक सेवा छोड़ता है, वह सचमुच पतित होता है। अपने आपको पतित माननेवाले अपने भाइयों की गलती हमें सुधारनी चाहिए। उसके लिए हम हिंदुओं को एक-दूसरे से राग-द्वेष भुलाना चाहिए। हम लोगों को भी अपना रहन-सहन एवं आचरण शुद्ध और पवित्र रखना सीखना होगा। जितना हमारा आचरण-व्यवहार उच्च वर्णीय हिंदू परायण सा होगा, जितनी उसमें नम्रता एवं स्नेहपूर्णता होगी उतना ही उन्हें हमें नीच-अछूत कहने में हिचक होगी। हम लोग अमंगल-अपवित्र रहते हैं, यही उनका आक्षेप है। हमें उस आक्षेप को मिटा देना चाहिए। हम अपने विनीत सेवा भावों से ऊँचे लोगों का दिल जीत लेंगे, वैसे ही हम अपनी धर्म-परायणता से प्रत्यक्ष परमात्मा को भी जीत लेंगे।

कमलिनी : भाई, महाराज जो अमृत तुल्य उपदेश दे रहे हैं, वह सोलह आने सच है।

चोखा : हाँ बेटा, यही वास्तविकता है। मुझे खुशी है कि यह उपदेश तेरी समझ में आ रहा था। क्या तुम भजन करती हो? क्या तुलसी को पूजती हो?

किशन : महाराज, कभी भी टालती नहीं है। इसी कारण जानबा ने इसे अपने अच्छे भजन सिखाए हैं।

चोखा : अच्छा! फिर तो हमें भी एकाध भजन सुना दो। अपने इस होनेवाले पति शंकर का संकोच तो नहीं करती न?

किशन : नहीं जी, हम तीनों बचपन से एक साथ पले हैं। हमारी बहना ने एक तरह से स्वयंवर ही किया है। फिर संकोच कैसा?

कमल : भाई, कुछ मन की नहीं तो जन की लाज तो रखो। तुम्हारे इस कथन से मुझे संकोच होने लगा है। महाराज, मेरा गला मधुर नहीं है। मेरा भजन सुनकर आपको हँसी आएगी।

शंकर : यह इसका विनय है, महाराज। वास्तव में इसका स्वर बहुत ही मधुर है।

चोखा : भाई, तुम्हें तो ऐसा लगेगा ही। अतः तुम्हारी सिफारिश हम नहीं स्वीकार सकते। कमलिनी, तुम्हारा स्वर कैसा है-इसकी चिंता नहीं। मन तो मधुर है न? भजन प्रिय है न तुझे? बस, काफी है वह। भक्त की रुचि ही सभी चीजों को भावपूर्ण बनाती है। अत: निस्संकोच गाओ।

कमलिनी : भाई, तुम्हीं बताओ ना, क्या गाऊँ मैं?

किशन : वह गोविंदवाला गीत गाओ।

कमल : हरि बिछुड़ गया है, ऐसा मैं नहीं कहूँगी। देखो, वह शंकर मुसकरा रहा है।

चोखा : नहीं बेटे, कोई नहीं हँसेगा, खुलकर गाओ।

गीत

हरि मोरे कहाँ छिपे हो आज

आकुल मेरे प्राण सखि

कहाँ छिपे हैं प्राण!

ग्रह-ग्रह-तारे खोजे सब रे

पर न मिले नाथ

कहाँ छिपे हो आज।

चोखा : (तल्लीन होकर) बेटी, गोपियों की भाँति तुम भी यदि परम भक्ति से अपना प्रेम सर्वस्व श्रीकृष्ण को सौंप दो, तो वह गोविंद तुम्हारे निकट ही तुम्हें प्राप्त होगा। ग्रह-तारों पर ढूँढ़ना नहीं पड़ेगा उसे। वह तो स्वयं कहता है-'मद्भक्ता यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामि नारद।'

[नारंभट एवं देवी सिंह का प्रवेश।]

नारंभट : वाह ! इस सुंदर छोकरी को लेकर कौन रँगीला जवान यहाँ रासलीला कर रहा है? देवी सिंह, कौन है यह?

देवी सिंह : नारंभट, आपका मन भी ललचा गया? सुंदरियों को साथ लेकर क्या तुम्हीं लोग बैठ सकते हो?

नारंभट : निश्चय ही ऐसा सुंदर कबूतर मेरे आलिंगन के पिंजरे में बंद रहना चाहिए। (ठीक से देखते हुए) अरे देवी सिंह, ये तो अपना चोखा है। धेड़ दिखता है। वहाँ बस्ती पर भजन गाने बैठता है और यहाँ गोपियाँ इकट्ठा कर क्या स्वयं कृष्ण बनने जा रहा है?

देवी सिंह : अरे चोर चोखा! कृष्ण क्षत्रिय था, यह भी भूल गया क्या? सुंदर युवतियों को गोपी समझने के कृष्ण-अधिकार के हम ही वास्तव में वारिस हैं, समझा?

नारंभट : कृष्ण का गुरु ब्राह्मण था। इसलिए क्षत्रिय जिन्हें गोपी समझें, उन्हें ही अपनी शिष्या मानने का अधिकार हमें है, समझा? ( आगे बढ़कर) अबे, ओ धेड़, अभी तू कुछ संस्कृत शब्द बक रहा था न? अरे चांडाल, तुझे संस्कृत बोलने का अधिकार नहीं, फिर भी तू-धेड़ों को संस्कृत सीखने की-धृष्टता कर रहा है। ऊँची जाति के विरुद्ध बगावत करना सिखा रहा है। हम ब्राह्मण-क्षत्रियों को आते देख खड़ा भी नहीं हुआ। अरे, अब उठता है ! देखो, वह महार!

चोखा : जोहार माई-बाप, भजन में तल्लीन था, देख न पाया आपको।

नारंभट : तल्लीन था! आज के इस भजन में क्यों न रमण होगा तू! उस सुंदरी के मस्ती भरे शरीर का सितार संगम करने को हो तो क्यों न तल्लीन होगा कोई। फिर तो मैं भी आज से 'वारकरी'* बन जाऊँगा।

शंकर : सँभलके बात करो, महाशय। हम धेड़ हैं तो क्या हुआ, हम इस तरह से अपनी बेटियों का अपमान नहीं सह सकते, समझे न? क्या समझते हो अपने आपको? ( उनपर हमला करते हुए) दाँत तोड़ डालूँगा पूरे-के-पूरे, समझे। फिर से कुछ बक-बक की तो ठीक न होगा।

नारंभट : माफ करो, भाई, ये कन्या धेड़वी है, यह मालूम न था हमें। हम केवल धेड़ों को ही नहीं अपितु सभी सुंदरियों से चुहल करते हैं। सभी लड़कियों को हम समान मानते हैं। इस बारे में हम छुआछूत नहीं मानते, समझे। छोड़ दो, गुस्सा थूक दो! (देवी सिंह को पीछे खींचते हुए) जाने दो भाई, भीख न सही पर कित्ता रोको, कहने की स्थिति आ गई है? छोड़ो, चलो यहाँ से।

देवी सिंह : मैं क्या करूँ? ये सभी पुरुष होते तो मैंने मजा चखाया होता इन्हें। पर इनकी सेना में एक स्त्री भी है। इसलिए मैं धर्मयुद्ध नहीं कर सकता। एक शिखंडी के कारण भीष्माचार्य को भी पांडवों से युद्ध छोड़ देना पड़ा था।

नारंभाट : इतनी ही बात हो तो उसकी तोड़ मेरे पास है। यदि तुम तीन पुरुषों से जूझ सकते हो तो मैं एक स्त्री से निपट लूँगा, स्त्री से युद्ध ब्राह्मणों को निषिद्ध नहीं है। द्रोणाचार्य शिखंडी से जूझे ही थे। तू इशारा भर कर, मैं भुजा ठोंककर तैयार हूँ। द्वंद्वयुद्ध में अभी तक अनगिनत नारियों को चारों खाने चित्त किया है मैंने।

देवी सिंह : अभी ऐसा कुछ नहीं करना है। इस चोखा की बगावत समूल नष्ट कर डालेंगे हम। यह धेड़ों को वेदमंत्र सिखाता है। अकेले ब्राह्मण-क्षत्रियों को सबक सिखाने के लिए उकसाता है। ये हवा पूरे पंढरपुर में फैला देंगे, फिर देख मजा तू।

नारंभट : चलो तो, उस रसभरे होंठोंवाली का मात्र नाम लेने से इस धेड़ ने मेरे दाँत ठिकाने लगाने की धमकी दी। अब मैं भीम प्रतिज्ञा करता हूँ कि इसी लड़की के ये रसभरे होंठ अपने दाँतों के अंगूर से पकड़कर अधरामृत जब तक नहीं पीऊँगा, तब तक चैन न पाऊँगा। केवल बदले की आग में जलूँगा।

देवी सिंह : अरे, तू तो भीमसेन बना जा रहा है। यदि तूने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की तो तू नाममात्र का ब्राह्मण रह जाएगा, यह मालूम है न तुझे? यह कन्या धेड़ की है, इतना भर खयाल रखना।

नारंभट : ऐसा है क्या? स्त्री रत्न दुष्कुलादीपि, पर वह धेड़ हो ही नहीं सकती।

देवी सिंह : कैसे कह सकते हो यह?

नारंभट : जब मुझे उसे छूने की प्रेरणा हो रही है तब वह अस्पृश्य कैसे हो सकती है, 'सतां हि संदेह पदेशु स्त्रीषु प्रमाणसर्वं करणं प्रवृत्तयः'।

[जाते हैं। चोखा की पत्नी आती है।]

सोयरा : नाथ, क्या हुआ? मैं परिक्रमा का आधा रास्ता साफ कर आई, पर आपका पता न चला। यहाँ देखा तो झगड़ा हो रहा था। कौन है यह लड़की?

शंकर : (प्रणाम करके) माता, हमने आपको पहचान लिया। संत गुरु की पत्नी पद के लिए पूर्णतया योग्य ऐसी आप सोयराबाई हैं। माता, आपके पूज्य पति का और हमारी महार जाति के परम आदरणीय संत का जो अपमान और धिक्कार दुष्टों ने किया तो किया ही, साथ-साथ मेरी होनेवाली पत्नी का बिना कारण उपहास करने में भी उन दुष्टों को शर्म नहीं लगी। इसीलिए मुझे उनपर हमला करना पड़ा। गुरुजी ने यदि रोका न होता तो मैं क्या कर जाता, कह नहीं सकता। ये अपने आपको ब्राह्मण, क्षत्रिय कहलाते हैं, पर इन क्षत्रियों जैसे नशेड़ी, दुष्ट और पाखंडी सारी पृथ्वी पर ढूँढ़ने से भी नहीं मिलेंगे। ये पाप-पुण्यों की भी परवाह नहीं करते।

चोखा : अरे बेटा, ब्राह्मणों के बारे में ऐसे जहरीले शब्द कहकर तू क्यों अपनी जीभ को दूषित करता है ? हमारे हिंदू धर्म में महादेव का तृतीय नेत्र कहा गया है ब्राह्मण को। उन्हीं के कारण तो ब्रह्मज्ञान जीवित बचा है संसार में। कितनी तपस्या, कितना त्याग है उसके पीछे! त्याग ही जिनका भोग रहा, पर्णकुटी ही जिनका प्रसाद रही, संन्यास ही जिनका संसार रहा, जिनके बीच अनगिनत महात्माओं एवं हुतात्माओं ने जन्म लिया, उस ब्राह्मण जाति को भला-बुरा कहने-सुनने की अपेक्षा मैं उन्हें अनेक बार वंदन करना पसंद करूँगा। कुछ क्षत्रिय यदि दुष्ट एवं प्रपीड़क हों तो सभी को बुरा कहना कहाँ तक उचित होगा? यह मत भूलो कि श्रीराम, श्रीकृष्ण क्षत्रिय थे तो उनके महान् गुरु वशिष्ठ और संदीपनि ब्राह्मण थे।

सोयरा : अब मध्याह्न का समय हो रहा है। अत: मेहमानों को लेकर हमें घर चलना चाहिए। चलो बेटी।

चोखा : आज हम गरीबों के घर का अतिथि-सत्कार स्वीकार कर हमें पुण्य पाने दो। चलो, हम भजन गाते-गाते घर जाएँ।

शंकर ,

कमलिनी

और किशन : गुरु का यह आदेश मानो हम पतितों पर किया गया विशेष अनुग्रह ही है।

[भजन गाते जाते हैं।]

गीत

यह दुनिया, मन्नतमाँगों की

दास प्रभु तुम हो सुखदायी

दुःख-दर्दों के प्रलयंकारी

तुम संहारक औ' अविनाशी।

दूसरा अंक

: पहला दृश्य :

[नारंभट का घर। देवी सिंह एवं नारंभट बातें कर रहे हैं।]

नारंभट : नहीं भाई, मैंने उस अड़ियल राहगीर को वैसा कुछ भी नहीं कहा। वह बोला, मेरे पास दक्षिणा नहीं है, तो मैंने पूछा कि क्यों बे मूर्ख, फिर तुझे स्नान का मंत्र क्या तेरा बाप मुफ्त में बताएगा?...ऐसा तो हम इन पिछड़ों से दिन में सौ बार बोलते रहते हैं, पर आज तो वह मुझपर धावा बोल गया। बोला, दाँत तोड़ दूंगा। मैंने कहा, भाई मैं ब्राह्मण, पूजा-पाठ हेतु नहाया-धोया, पवित्र कपड़ों में हूँ, अतः बिना छुए ही दाँत तोड़ना। तो वह वहाँ से जाते-जाते बोला कि हम लोग पिछड़े और तुम लोग बड़े अगड़े हो? पर तुम जैसे अगड़ों से तो वह चोखा महाराज भला है, देवी सिंह। मैं बताता हूँ कि इन नीचों में चोखा का महत्त्व बहुत ही बढ़ता जा रहा है। वह इन्हें फुसलाता है और ये लोग हमें भला-बुरा कहने लगते हैं। मेरे साथ घटित दुर्व्यवहार इसी का प्रमाण नहीं है क्या?

देवी सिंह : इसका प्रायश्चित्त सनातन धर्म संरक्षण, क्षत्रिय कुल भूषण यह देवी सिंह उस चोखा से शीघ्र ही कराएगा, डरो नहीं। मैंने पूरे पंढरपुर में यत्र-तत्र-सर्वत्र सवर्णों को उसके खिलाफ चेताया है। सभी हिंदुओं को जगाया है। उस फुलझड़ी को अपने कब्जे में लाने का प्रबंध भी किया है मैंने। वो इब्राहिम है न! अरे अपने सूबेदार बंगरा खान का साला।

नारंभट : अर्थात् तुम उस मुसलमान को अपने इस शुद्ध हिंदू-कूट में ले रहे हो क्या? देखो, मैं पापी भले ही हूँ, पर ब्राह्मण हूँ। वह अछूत कन्या भले ही हो, पर है तो हिंदू। मैं मुसलमानों के हाथों उसे पड़ने नहीं दूंगा, समझे? मुसलमान तो हिंदू धर्म के दुश्मन हैं, वे उसका धर्मांतरण कर देंगे।

देवी सिंह : अरे भाई, धर्ममार्तंडजी, डरिए नहीं। अछूतों का नाम लेते ही तुम्हारी भौंहें चढ़ जाती हैं, पर उस फुलझड़ी का नाम लेते ही धर्मबंधुता दिखाने लगे हो। वह कन्या मुसलमान के हाथों पहुँची तो उसके नाखून के भी दर्शन तुझे नहीं होंगे, यही डर सता रहा है न तुझे। डरो नहीं, यह कबूतर मैं अपने खेमे में ही रखनेवाला हूँ, समझे।

नारंभट : अपने खेमे में यानी कहाँ ?

देवी सिंह : अरे, आज तक हम इन जंगली कबूतरों को पकड़कर जिस सुंदर पिंजरे में रखते आए हैं उसी गंगाजी के वेश्यागार में रखेंगे-ठीक! अब मेरा एक काम है। एक नई झंझट आन खड़ी हुई है, उसका निपटारा करना है हमें।

नारंभट : देखो भाई, आज तक जो हुआ सो हुआ। अब मैं किसी झंझट में तुम्हारा साथ नहीं देनेवाला।

देवी सिंह : यह मामूली झंझट नहीं है। सुनहरी झंझट है। यह देखो, यहाँ के प्रमुख संभाजीराव पाटिल हैं न, उन्होंने दूसरा विवाह किया है।

नारंभट : अच्छा! फिर?

देवी सिंह : (स्वगत) देखो, कैसे इस ब्राह्मण के कान खड़े हो गए? ( प्रकट) और उसने अपनी युवा पत्नी मालिनी की देखभाल हेतु एक वृद्धा मौसी की व्यवस्था की है। इस मौसी के पास अपार धन का भंडार है। तुम किसी तरह अंतरंग में घुसपैठ कर लो। फिर चाहो तो उस स्वर्णमालिनी का और चाहो तो मौसी के स्वर्ण का हम दोनों मनचाहा इस्तेमाल करेंगे। यदि हम किसी तरह उस संभाजीराव को अपने बस में रख सके तो हमारे सारे भले-बुरे कारनामों में पटेल के संपर्क का ढाल सा उपयोग हो सकेगा। चोखा को मजा चखाने के बाद संभाजीराव तो हमारा दाहिना हाथ हो जाएगा।

नारंभट : यह तुम्हारी कल्पनाओं का महल तो उत्तम है, पर यह तो सोचो कि क्या संभाजीराव हमारे बस में रहने योग्य हैं?

देवी सिंह : यदि न होते तो मैं उनका नाम क्यों लेता? अयोग्य, दुर्गुणी व्यक्तियों की परछाईं से भी मैं दूर रहता हूँ।

नारंभट : कौन से सद्गुण हैं उस पटेल में?

देवी सिंह : पहले तो वे निरे गधे हैं। दूसरे, बड़े भोले-भाले, भावुक तथा चने के पेड़ पर जितना चढ़ाना चाहो उतना चढ़ाने लायक हैं।

नारंभट : क्या उन्हें ज्योतिष में रुचि है?

देवी सिंह : रुचि की क्या बात करते हो, यदि ज्योतिषी भी अपने कथित फलादेश को गलत मान लें तो भी संभाजीराव उसे गलत नहीं मान सकते। वे कहेंगे कि किसी-न-किसी अंश में फलादेश सही साबित हुआ है।

नारंभट : वाह, फिर तो उन्हें सर्वगुणसंपन्न व्यक्ति मानने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। अब एक काम करो, तुम्हारी पहचान है न उनसे?

देवी सिंह : पहचान? अरे भाई, आज ही उन्होंने अपनी युवा पत्नी के लिए किसी पूजा-पाठी ब्राह्मण की पूछताछ की थी। तभी तो ये सब बातें मेरे दिमाग में कौंध गईं।

नारंभट : फिर तो तू पहले वहाँ ही जा। मैं वहाँ एक अज्ञात ज्योतिषी के रूप में पहुँचता हूँ। मैं जैसे-जैसे उनके भूत एवं वर्तमान का वर्णन करते जाऊँ, वैसे-वैसे तुम आश्चर्यचकित होकर मेरी प्रशंसा के पुल बाँधते जाना, समझे।

देवी सिंह : अरे, पर इतना सबकुछ बता सकने लायक ज्योतिष का अध्ययन तेरे सात पुश्तों ने भी कभी किया हो, इसका मुझे पता नहीं। फिर तू ये सब नाटक करेगा कैसे? हाँ, कोई खास गुप्त ग्रंथ तेरे पास हो तो बात बन सकती है।

नारंभट : बिलकुल सही, वैसा ही ग्रंथ है मेरे पास।

देवी सिंह : कौन सा?

नारंभट : कौन सा क्या पूछते हो? मेरा गुप्त ग्रंथ साक्षात् तुम हो तुम। मुझे उसके नाम-काल की जानकारी दे दो, फिर मैं जब वहाँ आकर उसी जानकारी को बताने लगूँ तो तुम मेरी दिव्यदृष्टि की तारीफ में पुल बाँधने लगना। मेरा ज्योतिष का यह गुप्त ग्रंथ है न अद्भुत? अधिकांश ज्योतिषी ऐसे ही ग्रंथ का उपयोग कर धन ऐंठते रहते हैं।

देवी सिंह : मान लिया भाई तुम्हें!

नारंभट : फिर, वामन का दिमाग है यह। चलो, तुम उस पटेल का पूरा इतिहास सुनाना शरू करो। बोलो, संतान कितनी, भाई कितने? बाप कितने? चलो, कहो जल्दी। (निर्गमन)

: दूसरा दृश्य :

[कमलिनी एक पेड़ की छाँव में बैठी है। किशन एवं शंकर उसे हवा करते हुए जगाने के प्रयास में हैं।]

किशन : नींद लग गई शायद बहना को, कितनी धैर्यवान् है यह !

शंकर : नींद? अरे वह तो धूप-प्यास के कारण सर चकराकर बेहोश हो गई है। बुखार होते हुए भी वह कल पंढरपुर से घर वापसी यात्रा पर निकली, यही भूल हुई। प्यास से परेशान होने पर भी वह मुसकराती रही है, कमाल है! नदी पर हुई दुर्दशा तुमने देखी थी न? फिर भी चोखाजी कहते हैं कि हिंदू लोग जो हमें दूर रखते हैं, उसकी वजह है हमारा गंदा रहन-सहन। वे कहते हैं कि यदि हम साफ-सुथरे रहें तो स्पृश्य लोग हमसे घृणा-दूरी नहीं रखेंगे, पर उनकी इस पवित्र कल्पना और प्रत्यक्ष में कितना अंतर है, यह देखा न? उस कमलिनी जैसी साफ-सुथरी, शुद्ध एवं सदाचारिणी लड़की तो स्पृश्यों में भी खोजे न मिलेगी; किंतु वह चूँकि अछूत कन्या है, अतः उसे नदी पर भी पानी पीने से रोका गया। एक तो नदी भी छोटी सी, उसमें भी जहाँ कहीं उबरे में पानी हो, वहाँ स्पृश्यों को पानी पीने-भरने का अधिकार। उसके बाद वे वहीं थोड़े आगे चलकर नहाने-धोने का प्रयोग करेंगे, उसके निचले हिस्से में ढोरों के उपयोग हेतु जगह रखी जाती है। फिर जहाँ नदी सूखी-सूखी सी हो जाए वहाँ विस्तार का अधिकार अछूतों को रहेगा! उस गंदे, मटमैले पानी के एक-दो घूँट पीते ही कमलिनी को मिचली आई। वह किसान दूर से तमाशा देखता रहा। धेड़-अछूत यही पानी तो पीते हैं, फिर इस महारानी को क्या हुआ, ऐसी छींटाकशी करते चलता बना। इन्हीं लोगों ने पुरखों से लेकर हमें भी ऐसा गंदा पानी पीने हेतु बाध्य किया और फिर उलाहने देते हैं कि अछूत गंदे, घिने रहते हैं। साफ रहने, जीने का मौका ही कब दिया इन्होंने? अब संतों के साधुत्व भरे उपदेश मात्र से हम अछूतों को मनुष्यता प्राप्त नहीं होगी। चित्र में चित्रित तालाब को देखकर हमारी सदियों की प्यास न बुझ सकेगी। संतों जैसे व्यवहार से हमपर होनेवाले अन्यायों की मात्रा कम न हो सकेगी। हमें कुछ जालिम, कड़े उपाय ही खोजने पड़ेंगे।

कमलिनी : भाई, शंकर, मुझे पानी चाहिए।

किशन : देखो, यहाँ से कुछ दूरी पर ही एक गाँव है, जहाँ मेरे परिचित अछूतों के कुछ मकान हैं। रास्ते में एक सार्वजनिक कुआँ एवं सदा पानी उड़ाता फव्वारा भी है।

कमलिनी : क्या वहाँ फव्वारा है ? ओह, भाई, यदि उसकी कुछ बूंदें मात्र भी मेरे होंठों पर गिरें तो इस चातकी की आत्मा शांत हो जाएगी। पानी! पानी!! चलो-चलो, मैं चलने से नहीं घबराती। चलो, मैं चलती हूँ उस फव्वारे पर, चलो!

शंकर : ठहरो! तुम्हें थोड़ा बुखार है। फिर ऊपर से धूप भी काफी है। पानी के लिए तो हम सभी आकुल हैं। उस गाँव तक तुम्हें चलाकर कैसे ले जाएँ? अरे, वह देखो, एक बैलगाड़ी आ रही है। मैं उससे पूछकर देखता हूँ। (गाड़ीवान सीटी बजाते हुए प्रवेश करता है।) अरे भाई, गाड़ीवान, किस ओर जा रहे हो?

गाड़ीवान : मायापुर की ओर जा रहा हूँ।

शंकर : वाह! बहुत बढ़िया। हम तीनों को यदि आप मायापुर तक ले चलें तो बहुत उपकार होगा। हमारी इस कमली को ज्वर है, चक्कर भी आया था। हम आपका भाड़ा घर जाते ही चुकता कर देंगे।

गाड़ीवान : तो फिर बैठो गाड़ी में। मुझे सहज ही सवारी मिल गई, इसमें उपकार की क्या बात? ( किशन के पास आते ही उसे देखकर) पर ये है कौन? यह मायापुर के जान्या धेड़ का छोकरा तो नहीं? ये धेड़ मेरी गाड़ी में चलेगा?

शंकर : मैं भी अछूत हूँ।

गाड़ीवान : अछूत होकर मेरी गाड़ी में बैठकर शोभायात्रा निकलवाना चाह रहे थे क्या मायापुर में? मजाक समझ लिया क्या? कोड़े लगा दूँगा फिर कभी ऐसा पाजीपना किया तो।

किशन : मजाक नहीं, पर यदि कोई महार हुआ तो उसपर बिलकुल दया नहीं करना-ऐसा क्या आपका हिंदू धर्म कहता है? पटेलजी, मेरी बहन को प्यास और धूप के ज्वर से चक्कर आ रहे हैं। इसलिए दया करिए और उस अगले गाँव तक हमें इस छायादार गाड़ी में ले चलिए। हम पहुँचते ही किराया दे देंगे। ये हमारे वस्त्र चाहें तो रहन रख लें, पर दया करिए।

शंकर : अभी आपने जिनका नाम लिया था, उन्हीं जानोबा नायक की बेटी है ये।

गाड़ीवान : (वहाँ से जाते हुए) वाह, जान्या धेड़ का जानोबा नाम बना दिया? फिर उस बड़े बाप की इस लाड़ली को मुझ गरीब की यह गाड़ी ठीक नहीं रहेगी। मैं आगे चलकर कोई राजा की पालकी या डोली दिख गई तो भेज दूँगा सेवा में।

किशन : अरे, तुम्हारी इस गाड़ी में बैल जोते गए हैं और अपना कुत्ता तुमने जंजीर से बाँध गाड़ी के अंदर बैठा रखा है। धूप से लपलपाती जीभ से वह तुम्हारा हाथ चाट रहा है। उस बैल से तेरी गाड़ी दूषित नहीं होती, उस कुत्ते की लार से भी हाथ दूषित नहीं होते। आदमियों जैसे आदमी हम महार, तेरे हिंदू धर्म के हम हिंदू-हमारे स्पर्श मात्र से क्यों तेरी गाड़ी दूषित होगी? क्या विपत्ति में भी हम दया के पात्र नहीं हैं ? क्या हम कुत्तों से भी गंदे हैं?

गाड़ीवान : मेरा कुत्ता तुम महार-भंगियों की तरह गाँववालों का मैला ढोता नहीं फिरता।

शंकर : वह केवल मल खाता है। रही मैले की टोकरी उठाने की बात, तो तुम भी तो उसे ढोते हो। पेट में काहे का बोझ लेकर खड़े हो भाई?

गाड़ीवान : भड़वो, लड़ना हो तो भगवान् से लड़ो। मुझसे क्यों मुँह लड़ाते हो? उस भगवान् से लड़ो जिसने तुम्हें कुत्ते के घर नहीं, धेड़ों के घर पैदा किया। मैंने जैसे अपने कुत्ते को साँकल से बाँध रखा है वैसे ही भगवान् ने तुम्हें रूढ़ि की श्रृंखला से गंदे कामों से बाँध रखा है, मैंने नहीं। मुझे क्यों, भगवान् को कोसते रहो। मैं तो चौहान हूँ। मैं भला धेड़ों को अपनी गाड़ी में बैठाऊँ? पैरों की जूती सिर पर रखूँ?

शंकर : (मन में) अरे रे! कितनी दुर्गति है हमारी! हमारी आँखों के सामने हमारी महिलाओं की दुर्दशा हो तो भी हमें वह सहनी पड़ती है। ऐसा लगता है कि सबसे धिक्कारा हुआ अपना यह काला चेहरा कमलिनी के सामने फिर से न दिखाऊँ। वह मुझे कायर समझती होगी। (उसके सम्मान की रक्षा कर सकने योग्य पौरुष इस काली मूँछें रखनेवाले मुझमें नहीं है , यह जानकर मेरे प्रति उसका प्रेम घटता होगा।)

कमलिनी : क्या सोच रहे हो, शंकर? किस चिंता में डूबे हो? तुम्हारा चेहरा क्यों मुरझा गया? मुझे गाड़ी वगैरह की कोई जरूरत नहीं। लो मैं चलने-फिरने लायक हो गई। गाँव पास ही तो है। हम पैदल चले चलेंगे। वहाँ हमें पानी मिलेगा।

शंकर : कमली, उस पानी से हमारी प्यास तो बुझ जाएगी, पर जन्म-जन्मांतर से लगे ये काले धब्बे क्या छूट सकेंगे? हम धेड़ों से लगे ये छुआछूत के धब्बे धो सके, ऐसा पवित्र जल गंगाघाट पर भी खोजने से नहीं मिलेगा, फिर ऐरे-गैरे पानी की तो बात ही छोड़ दो। सचमुच इस धेड़-अधेड़ जाति में पैदा होने के स्थान पर किसी पशु या प्राणी की योनि में पैदा होना गवारा होता हमारे हिंदू धर्मी लोगों को। हे भगवन्, क्यों पैदा किया तुमने हमें इस जाति में ?

कमलिनी : (मुसकराते हुए) क्या वाकई तुम्हें धेड़ होने का पश्चात्ताप हो रहा है? क्या तुम्हें हमारी जाति में कुछ भी आकर्षक नहीं लगता? फिर ठीक है, भाई साहब, चलो, हम यहाँ क्यों रुकें? जिसे हमारी जाति में कोई आकर्षण न लगे, उसके सिर का बोझ बन हम यहाँ क्यों रुकें?

शंकर : कमली, अरे तुझे कब किसने कहा कि तू आकर्षक नहीं? मेरे कहने का अर्थ ही तू समझ नहीं पाई। हम दोनों को भगवान् ने एक ही जाति में पैदा किया। तभी तो हम एक-दूसरे से मिल सकते हैं। उसके लिए तो मैं भगवान् का लाख-लाख बार आभारी हूँ। मैं तो केवल सार्वजनिक आचरण एवं सामाजिक दृष्टिकोण के बारे में बोल रहा था। अब तो वैसा भी कभी नहीं बोलूँगा। मेरी कमल...चलो, आगे बढ़ें (आगे बढ़ते हैं, दूसरे परदे से बाहर आते हैं।)

कमलिनी : अभी कितनी दूर है वह गाँव, शंकर? मुझे न...ओह माँऽऽ (जमीन पर गिरती है।)

शंकर : अरे, इसे फिर से चक्कर आ गया लगता है? कमली, ओ कमलीऽऽ!

किशन : (हवा करते हुए) लड़की की क्या दुर्दशा हो रही है! दीदी, ओ दीदी, मेरी प्यारी बहना, निर्दोष बहना!

शंकर : किशन, वह देख, एक घुड़सवार आ रहा है, कमला को इस तरह अब चलाते जाना परम निष्ठुरता होगी। इसलिए बेहतर होगा कि हम इसे घोड़े पर साथ ले चलने के लिए उस घुड़सवार से विनती करें।

किशन : अरे भाई, हम निवेदन लाख बार कर लें, पर उसे कबूल तो होना चाहिए न। हमारे हिंदुओं की सामाजिक रूढ़ि के अनुसार पालकी में कौन बैठे? हत्ती पर कौन? घोड़े पर कौन? बैल पर कौन? भैंसे पर कौन? ऊँट पर कौन? किस वाहन पर कौन सी जाति बैठे, यह निश्चित है। ऐसे ही उच्च जाति से नीची तक बाँटते-बाँटते सब वाहन समाप्त हो जाने से महार के हिस्से में उसके स्वयं के पैर का वाहन ही शेष रह गया। ऐसे में महार को घोड़े पर कौन चढ़ाएगा?

शंकर : तो फिर एक जुगत करते हैं, हम अपनी जाति बताएँ ही नहीं। फिर वह तो किराये पर माल ढोनेवाला खच्चर दिखता है। वह देखो, घुड़सवार इस ओर ही आ रहा है। (घुड़सवार आता है।)

शंकर : राम-राम, दादा। एक प्रार्थना है, कड़ी धूप में चक्कर खाकर यह लड़की बेहोश पड़ी है। पानी भी कहीं नहीं है। यदि आप इसे पास के गाँव तक ले चलें तो बड़ी कृपा होगी।

घुड़सवार : अरे, इतनी सी बात के लिए क्यों इतना गिड़गिड़ाते हो, भाई। तुम्हारी बच्ची मेरी बच्ची सी है। चलो, उस गाँव के फव्वारे का पानी पिलाकर पास के बगीचे में आराम कराओ तो तत्काल ठीक हो जाएगी। चलो, बैठाओ उसे।

किशन : भगवान् भला करे तुम्हारा, भाई। कमलिनी दीदी, चलो उठो, अब घोड़े की सवारी करनी है। अब पानी मिल जाएगा।

कमलिनी : (धीरे से अकेले से) लेकिन भाई, हम अछूत हैं, क्या यह बता दिया तुमने?

शंकर : अब मेहरबानी भी करो और उसका उच्चारण भी न करो।

कमलिनी : फिर शंकर, मुझे घोड़ा नहीं चाहिए। मैं ऐसे ही चल लूँगी, पर उस सज्जन को धोखा न दूँगी। और कोई दुष्ट होता तो चला जाता, पर इस दयालु को धोखा देना उचित नहीं लगता और मैं अछूत कन्या हूँ, यह क्योंकर छुपाया जाए? मुझे तो उसमें कोई लाज-शर्म नहीं लगती। घोड़े पर बैठने हेतु मैं अपने माँ-बाप को क्यों नकारूँ?

किशन : हे दयालु सज्जन! आप यह पूछे बिना ही कि हम कौन हैं, क्या हैं, भूल दया से सहायता देने को प्रवृत्त हुए हैं। अतः आपकी वह दया इतने उथले निश्चय की नहीं होगी कि हम महार हैं, यह सुनते ही उसका निर्मल प्रवाह एकाएक सूख जाए।

घुड़सवार : क्या आप महार हैं ?

कमलिनी : जी, हम महार ही हैं और जिस तरह गैर महारों के प्राण प्यास से व्याकुल होते हैं उसी तरह हम महारों के भी तड़पते हैं। हमारे भी तड़प रहे हैं।

घुड़सवार : हे विनम्र लड़की, महार तो मनुष्य हैं, पर सभी जीव-जंतु प्यास से मनुष्य जैसे ही तड़पते हैं। मनुष्य की तरह ही दया के पात्र रहते हैं। महार को घोड़े पर बैठाकर अपने ही गाँव ले जाऊँगा तो तुम्हें पहचानते ही लोग मुझपर गोबर मारेंगे, मेरी वृत्ति डूब जाएगी और मेरे पत्नी, बच्चे भूखों मरेंगे।

कमलिनी : महाराज, आपने जो दया, सहानुभूति जताई उससे मेरी आधी प्यास बुझ गई। आप बिलकुल संकोच न करें। अच्छा हुआ जो मैंने बता दिया कि हम महार हैं, यथा मुझपर दया करने से यदि आपके पत्नी-बच्चों की हाय लगती तो आपकी दया का झरना मेरी इस कपट की गरमी से सूख गया होता और आगे-पीछे कोई सत्पात्र याचक भी उस झरने पर आकर अपनी प्यास बुझा न पाता। वंचित दया पर-दुःख से फिर से झरने नहीं लगती-आप जाएँ।

घुड़सवार : उदार बेटी, तुम्हारे संकट काल में मेरी कोई सहायता संभव नहीं हो पा रही है। इस प्रायश्चित्त का मैं दंड चुका रहा हूँ। ये बीस रुपए रख लो, तुम्हारी यात्रा में काम आएँगे। (प्रस्थान)

कमलिनी : बीस रुपए! अरे, ये क्या? चला गया वह? कितना दयालु है बेचारा। चलो शंकर, हम लोग आगे बढ़ें। यह सही है कि चलने में मुझे काफी कष्ट है, पर अब लगता है कि मैं जाकर पानी पी सकती हूँ। (जाते हैं।)

: तीसरा दृश्य :

[इब्राहिम का आगमन।]

इब्राहिम : लड़की हो तो ऐसी हो। हिंदुओं की ऐसी कोई जाँबाज शेरनी मुझे पहले मिलती तो मैं भला क्योंकर मुसलमान बनता? मुसलमान बनकर चार साल बीत गए, पर कुरान का एक लफ्ज भी मुझे पता हो तो खुदा कसम! वो लोग जैसी उर्दू बोलते हैं वैसी उर्दू भाषा मुझे थोड़ी ही आती है। मैं पैदाइशी हिंदू, मेरा दिमाग भी हिंदू सोचवाला, पर जब तक हिंदू था तब तक ब्राह्मण से शूद्रों तक तो क्या ये महार भी नीच कहकर दूर भगाते रहे। एक-दूसरे को अछूत समझकर झिड़की देनेवालों में मानो प्रतिस्पर्धा चलती रहती है एक-दूजे को लात मारने की। इसलिए हिंदू धर्म से चिढ़कर मैंने मुसलमान बनना स्वीकारा। बहन मुझे मिलने-समझाने आई थी, पर हमारे सूबेदार बंगश खान उसपर आशिक हो गए। फिर उसे भी मुसलमान बना कर हम सूबेदार के साले बन बैठे। इतना ही नहीं, पाँच-पचास सिपाहियों के नायक बन बैठे हम। हमारी शान-बान बढ़ गई। काम भी ऐसा मिला कि वाह! जो भी हिंदू सुंदरी मिलती उसे पकड़कर पहले सूबेदार की खिदमत में पेश करना। बाद में मसजिद में ले जाकर उसका धर्मांतरण करना। सूबेदार तो पूरा पगला गया है हिंदू लड़कियों को हथियाने में, पर अब यह कन्या तो मैं ही हथियाऊँगा। बागड़ पर चोरी से उछलकर दूसरों के फूल चुनने में सारा शरीर काँटों से लहूलुहान हो हमारा और तोड़े हुए फूलों की मालाओं से गला शोभायमान और शीतल हो हमारे बहनोई साहब का, उस सूबेदार बंगश खान का। यह लड़की उसकी नजरों से बचानी पड़ेगी। देवी सिंह जैसे कहता है, इसे गंगाजी के घर पर रख देंगे। फिर उससे जबरन राक्षस विवाह करेंगे। उसपर जोर-जबरदस्ती करने के बाद वह मुसलमान बनने को तैयार हो ही जाएगी। मसजिद में ही उससे निकाह कर लेने के बाद साले साहब को खबर करेंगे कि हमें किसी जागीर का तोहफा दिया जाए।

(देवी सिंह का आगमन) अरे, यह देवी सिंह तो आ ही गया।

देवी सिंह : क्यों, देखा? कैसा शिकार ढूँढ़ा हमने?

इब्राहिम : जाकर पकड़ लूँ क्या अभी?

देवी सिंह : अभी नहीं, धीरे से, जो कुछ हमने सुना, उसके अनुसार वे फव्वारे पर पानी पीने जाएँगे। वहाँ यदि तुम इन्हें पकड़ोगे तो सारे हिंदू चिल्लाएँगे कि तुमने हिंदू लड़की भगा ली। फिर तो हम खुलकर साथ न दे पाएँगे, पर जब वे तीनों धेड़ पानी पीने आएँगे और उन्हें पानी न मिले तो तुम उनसे मिलकर उन्हें जबरन पानी पीने के लिए बहकाना। तुम सरकारी मुसलमान अधिकारी हो। उनकी सहायता करोगे, ऐसा विश्वास उनमें जगाओ। जब वे जबरदस्ती पानी पीने बढ़ेंगे तो हमसब उनपर टूट पड़ेंगे। उस भीड़-भड़क्के में शासकीय अधिकारी के नाते मैं तुमसे उन्हें गिरफ्तार करने की माँग करूँगा, और तुम उन्हें पकड़ लेना। इस तरह हिंदुओं का विरोध नहीं रहेगा बल्कि सहयोग ही मिलेगा। मुझे और नारंभट को वे धर्म संरक्षक की संज्ञा देंगे। तो तुम बढ़कर उन्हें फव्वारे से पानी प्राप्त करने के लिए उकसाओ, चलो। (जाते हैं।)

: चौथा दृश्य :

[किशन,शंकर और कमलिनी का प्रवेश।]

शंकर : आखिर पहुँच गए हम गाँव में।

कमलिनी : अब किसी भी तरह पहले मुझे दो घूँट पानी पीना है। वो किसका घर है, देखो?

किशन : चौकीदार का है। चलो, वहाँ पानी के लिए पूछते हैं। ये देखो, उनका लड़का इस तरफ आ रहा है। क्यों बेटे, हम प्यासों को थोड़ा जल पिलाओगे?

लड़का : हाँ-हाँ, थोड़ा ही क्यों, भरपेट जल पिलाऊँगा। आइए, घर के अंदर आइए। मटके का ठंडा जल पिलाता हूँ आप सबको।

किशन : हम अंदर नहीं आ सकते, बेटे, क्योंकि हम महार हैं।

लड़का : (पास आते हुए) तो क्या हुआ? कल ही मैं मामा के यहाँ से बैलगाड़ी में बैठकर घर लौटा, तब मुझे जमके प्यास लगी थी। फिर तुम लोग तो धूप में चलकर आए हो, तुम्हारे प्राण कितने अकुलाए होंगे प्यास से। महार हुए तो क्या हुआ?

कमलिनी : (हाथ आगे बढ़ाते हुए) बेटे, भगवान् तेरा भला करे। ऐसा लगता है कि चेहरे पर हाथ फेरकर प्यार करूँ। कितना दयावान है तू!

गीत

इस बालक से लाड़ करूँ

इस बालक को प्यार करूँ

ऐसा मुझको लगता है

कितना प्यारा लगता है

चेहरे को छू सहला लूँ

दिल में इसको अपना लूँ।

लड़के की माँ: ऐ हरामजादी, कहाँ से यह बला यहाँ आई, पता नहीं। मेरे पुत्र के पास आने की हिम्मत ही कैसे की तूने? मुँह से बताए जा रही हो कि महार हैं हम। फिर अपनी छाया क्यों डाली मेरे बेटे पर? कहती है, सहला लूँ इसे। चल हट यहाँ से, जूतों से पूजना चाहिए तुम लोगों को। चल रे, अंदर चल।

लड़का : ऐसा मत कहो माँ। बेचारे प्यासे हैं। (माँ लड़के को खींचकर ले जाती है।)

कमलिनी : कितना दयालु प्यारा लड़का था वो।

शंकर : उसकी माँ भी उसकी आयु में बच्चे जैसी ही दयालु रही होगी। आज का यह प्यारा बालक कल जब बड़ा हो जाएगा तो उसके जैसा ही कठोर बन जाएगा, क्योंकि दया-सहानुभूति की अमृत-लता बचपन में जितनी मुलायम दिखती है, उसे जाति के, अहम् के कीड़े लगते ही वह उतनी ही सूखी हो जाती है। यदि ब्राह्मण लोग बालकों को बचपन से ही यह सिखाना शुरू कर दें कि महार लोग भी मनुष्य हैं, हिंदू धर्मी हैं, हम भाई हैं, तो बड़े होने पर उनके मन में छुआछूत का भाव ही नहीं रहेगा, पर ...

कमलिनी : अब पहले पानी चाहिए। वो फव्वारा दिख ही रहा है। वहाँ भी हमें किसीने रोका तो?

इब्राहिम : (प्रवेश करके) तो क्या? जबरदस्ती घुसकर पानी पियो। तुम महार हो, क्या इसलिए पानी पीना भी नहीं मिलेगा तुम्हें? भगवान् पानी बरसाता है, वो क्या मात्र सवर्ण हिंदुओं के लिए बरसाता है ? मैंने अभी दूर से तुम्हारे साथ हुआ छल देखा है। मैं भी पहले हिंदू डोम था। इतना क्षुद्र था कि जैसे ये सवर्ण तुम महारों को झिड़की देते हैं वैसे ही तुम महार हमें झिड़की देते थे, दूर रखते थे। एक दिन मैं भी प्यास से तड़प रहा था। इस फव्वारे पर रोकने लगे लोग मुझे। मैं सीधे घुसा और अल्ला हो अकबर चिल्लाया। उससे उन्होंने मुसलमान मान लिया और फिर पानी पीने का ही नहीं बल्कि नहाने का भी अधिकार मिल गया। इसलिए तुम लोग आगे बढ़ो। मैं पंढरपुर का कोतवाल हूँ। मैं मुसलमान राज्यकर्ता हूँ। इसलिए जितना चाहो, पानी पियो। देखता हूँ किसकी हिम्मत है रोकने की!

किशन : इतनी जोर-जबरदस्ती की क्या बात है। यहाँ नहीं तो आगे हम महारों के ही चार घर हैं, वहाँ पी लेंगे पानी।

शंकर : उस उबरे जैसे नाले का पानी। छि:, मैं तो इस फव्वारे की अप्सराओं से गिरता साफ-सुथरा पानी पीऊँगा। इसपर मेरा भी तो अधिकार है।

[फव्वारे का दृश्य।]

कमलिनी : भाई देखो, वह फव्वारा दिख रहा है। कितनी ठंडी बूँदें उड़ रही हैं! अरे, एकाध बूँद मेरी जिह्वा पर गिरेगी तो कितना मजा आएगा!

किशन : (फव्वारे के पास खड़े लोगों से) हम लोग राहगीर हैं, क्या आप हमें थोड़ा सा पानी पिला देंगे?

अनेक व्यक्ति : भाई, पिलाने की क्या जरूरत? तुम खुद लेकर पी लो। नगरसेठ ने सभी के उपयोग के लिए यह बनवाया है। उस तरफ मुसलमानों के लिए टोंटियाँ लगी हैं, इस ओर हिंदुओं के लिए। तुम लोग उससे जी भरके पानी पी लो।

किशन : पर हम लोग तो महार हैं।

व्यक्ति : फिर इतने नजदीक आकर कैसे खड़े हुए? क्या कहें तुम्हारी जुर्रत को, आँ? ( जाता है।)

किशन : हे दयालु माई-बाप, हम महारों को कोई पानी पिलाएगा क्या?

कमलिनी : ओ माई, हमें पानी पिलाओ जी।

गीत

पानी दे दे पानी दे, अम्मा ऽ माई पानी दे

प्यासे व्याकुल तन-मन हैं, ठंडा-ठंडा पानी दे

बिनती करती झुककर मैं, ठंडा-ठंडा पानी दे।

शंकर : अरे, व्यर्थ ही गिड़गिड़ा रही हो तुम। इन पाषाण हृदयी लोगों का दिल नहीं पसीजेगा। मुसलमान यहाँ पानी पी सकते हैं, पर हम महारों को दूर से भी पानी पिलाना इन्हें मंजूर नहीं होता। हम कहने को तो हिंदू हैं, पर मूर्तिभंजक मुसलमान हम मूर्तिपूजकों से पवित्र लगता है इन्हें। चल, मैं पिलाता हूँ तुझे पानी।

देवी सिंह : नारंभट, देखते क्या हो, लगाओ आवाज, चिल्लाओ जोर से कि महारों ने पानी दूषित किया।

नारंभट : चिल्लाता हूँ, पर इस मुसलमान इब्राहिम को तू यहाँ क्यों ले आया?

देवी सिंह : वह नहीं तो और कौन उस लड़की को पकड़कर ले जाने का हुक्म देगा, तुम्हारा बाप! वह कोतवाल है।

नारंभट : पर मुसलमान है?

देवी सिंह : हाँ, पर लड़की भी तो सुंदर है। बोलो, यदि मुसलमान की सहायता न लेनी हो तो हाथ आया शिकार छोड़ना पड़ेगा। बोलो, हो राजी? क्या छोड़ दें यह अपना प्रिय खेल?

नारंभट : खेल छोड़ने की जरूरत नहीं, पर उसके साथ इस अरबी घोड़े की चाल मुझे नहीं जँचती।

देवी सिंह : अरे, पर उस घोड़े की सवारी करना मैं जानता हूँ। उसके हाथ थोड़े ही लगने दूँगा ये सुंदर कबूतरी। उसकी कमल-सी खिली-खिली आँखें देख और अपनी धर्मबुद्धि की पिचपिची आँखें मूंद ले।

कमलिनी : (शंकर को रोकते हुए) नहीं, नहीं। मैं उनकी ईमानदार भावनाओं को जोर-जबरदस्ती से नहीं तोड़ने दूँगी। हमारे दर्द से पीड़ित होकर जब उनका दिल पसीजेगा तभी मैं वह पानी पीऊँगी। वो देखो, कोई दयावान ब्राह्मण अपना संध्याकर्म छोड़कर हमें पानी पिलाने आ रहा है।

पुरुषोत्तम

शास्त्री : बाई, लो पानी। अँजुली बढ़ाओ।

सब लोग : शास्त्रीजी, अरे ये क्या? वे महार हैं और आप उन्हें संध्या जल...?

शास्त्री : मेरे संध्या जल में इन पतितों को पावन करने की ताकत है। मेरे गायत्री मंत्र का स्वर पाठ कानफोड़ू नहीं है, उसमें अपने स्पर्श से दया का मधुर संगीत फूटता है। बैठ बेटी, मेरा यह संध्या का पवित्र जल तेरे मुँह में डालना ही आज के मेरे संध्या कर्म का पहला आचमन होगा।

कमलिनी : भाई शंकर, तुम लोग पहले पीयो।

किशन : पगली कहीं की! पहले तू पी ले। फिर बचेगा सो हम पी लेंगे।

शास्त्री : बचेगा सो क्यों? सारे लोग पेट भर पानी पियो। मैं तुम्हें पात्र भर-भरके पानी पिलाऊँगा।

[कमलिनी पानी पीने लगती है।]

सब

चिल्लाते हैं : पुरुषोत्तम शास्त्री पर छाया पड़ी। यह ब्राह्मण भी अब भ्रष्ट हो गया...महारों के छींटे उड़े।

नारंभट और

देवी सिंह : और यह देखो, वैसे ही फव्वारे पर जाकर वही महारों के छींटोंवाली और छाया पड़ी लुटिया डुबो रहा है।

सभी

चिल्लाते हैं : पनघट भ्रष्ट हुआ। लुटिया भ्रष्ट हुई। सबकुछ भ्रष्ट हुआ। (सभी की चिल्लाहट से असमंजस की स्थिति।)

इब्राहिम : (आगे बढ़कर) अरे, क्यों शोर मचा रखा है? क्या हो गया?

देवी सिंह : कोतवालजी, आप बड़े अच्छे मौके पर आए। हमारी शिकायत है-ये महार हमारे फव्वारे पर जबरन आए और पानी पीया। हमारा यह फव्वारा भ्रष्ट हो गया। पकड़ो इन सबको और हमारा धर्मरक्षण करो। आप राजपुरुष जो ठहरे।

इब्राहिम : समझ गया। अब चुप रहो। ऐ धेड़ो, तुम लोग इधर ही रुको। मैं सब चौकसी करता, क्या? पहले मेरी प्यास बुझाओ। (अब लोग दौड़ते हैं।)

सब लोग : फौजदार साहब को प्यास लगी? मैं लाता हूँ लोटे में जल भरके।

मेरा लीजिए, बड़ा साफ, स्वच्छ जल है।

इब्राहिम : फौजदार साहब खुद जाकर पानी पीएँगे।

सब लोग : फौजदार साहब खुद जाकर पानी पीएँगे? रास्ता दो, राह दो उन्हें। बड़ा न्यायी इनसान है यह। ऐसे न्यायी मुसलमान अफसर हैं, इसीलिए हमारे धर्म की सुरक्षा हो रही है। ये मुसलमान हिंदुओं की हिफाजत करते हैं।

शंकर : कमलिनी, देखी, हमारे हिंदुओं की दुर्गति। मुझे तो अब हिंदू कहलाना भी नापसंद होता जा रहा है। ये डोम मुसलमान बनते ही खान साहब हो गया। अब वह सीधा जाकर पानी पी रहा है, पैर धो रहा है और हमें दो घूँट पानी दूर से भी पीने की रोक है, क्योंकि हम मुसलमान नहीं हुए। मुझे तो अब लगता है कि इसके बाद हम हिंदू समाज पर अपनी छाया डालना छोड़ कहीं और दूसरा घर खोजें।

कमलिनी : राम-राम, क्या बात करते हो शंकर! जितना दुःख मुझे पानी न देनेवाले पवित्रता के पुजारियों के शब्दों से नहीं हुआ, उतना तेरे वाक् बाणों से हुआ है। हे मेरे प्रिय साथी, हम हिंदू ही हैं। ये हिंदू भी हमारे ही हैं। यदि यह पूर्वजों द्वारा अर्जित निवास छोड़कर हम और नया घर खोजेंगे तो वह केवल नरक में ही मिलेगा।

इब्राहिम : हाँ, सब लोग यहाँ आओ। पाँव पोंछने के लिए रूमाल मिलेगा क्या?

सब लोग : हाँ-हाँ, क्यों नहीं। फौजदार के पैर पोंछने हैं। ये लीजिए मेरा पवित्र वस्त्र। (इब्राहिम पवित्र वस्त्र से पैर पोंछता है।)

इब्राहिम : बोलो, देवी सिंह, क्या हुआ?

देवी सिंह : जनाब, इन धेड़ों ने हिंदुओं का पानी भ्रष्ट कर डाला, हिंदू धर्म को गालियाँ दीं।

इब्राहिम : बस, इतना ही। उसमें क्या हुआ? हिंदू धर्म को हम भी गाली देता, क्या?

अनेक व्यक्ति : हाँ जी, पर हमारी एक प्रार्थना है। आप मुसलमान जो हैं, हिंदू धर्म को गालियाँ देना आपका धर्म ही है, धेड़ों का नहीं।

इब्राहिम : अच्छा, यदि ये तीनों मुसलमान हुए तो भरने दोगे पानी यहाँ ?

सब लोग : हाँ जी, पीने देंगे, पर जब तक ये हिंदू महार हैं, हम इन्हें कैसे पानी छूने दें? आप न्यायी हैं। इन्हें पानी छूने मत दें।

इब्राहिम : (खुद से) सचमुच, भगवान् ने हिंदू धर्म का विनाश करने हेतु ही इन लोगों की बुद्धि भ्रष्ट कर दी है। जब तक महार हिंदू हैं, हम उसे पानी छूने देना अधर्म मानते हैं, पर वे ही धर्मांतरण करके सामने आते हैं तो हम उन्हें ससम्मान पानी छूने देने को तैयार हो जाते हैं। इनके इस व्यवहार से ही हमारे मन की श्रद्धा टूटती जाती है। (लोगों को देख जोर से बोलता है) अच्छा, अब इस झगड़े की सुनवाई हम पंढरपुर चौकी पर करेंगे। देवी सिंह, तुम सब लोग मेरे साथ चौकी पर चलो। हम इस लड़की को भी चौकी पर ले जाएँगे।

शंकर : हम तीनों एक साथ चौकी चलेंगे। हम इस स्त्री को अकेले तुम्हारे साथ नहीं भेजेंगे।

इब्राहिम : क्या बोलता है, बदमाश?

देवी सिंह : सबसे मुँह लड़ाता है, साला। पाजी कहीं का!

इब्राहिम : देवी सिंह, पकड़ो इस लड़की को। और तुम सब लोग इन धेड़ों को पकड़कर ले जाओ। पकड़ो सबको, नहीं तो तुमने मेरी आज्ञा नहीं मानी, यह कहकर घरबार जप्त कराऊँगा, सुना?...पकड़ो सालों को।

[देवी सिंह और साथी'पकड़ो-पकड़ो'चिल्लाते हैं। कमलिनी को खींचते हैं। शंकर और किशन प्रतिरोध करते हैं,पर सब मिलकर उन्हें पकड़कर रस्सी से बाँधते हैं। नारंभट कमलिनी को लेकर जाता है। वह बचाओ-बचाओ चिल्लाती है। इसी हो-हंगामे में इब्राहिम भी वहाँ से जाता है।]

: पाँचवाँ दृश्य :

[संभाजी पटेल बातचीत करते आते हैं।]

संभाजी : मेरे जीवन की ढलती यात्रा में मेरी एकमात्र आधार बनी मेरी प्रिय पत्नी मालिनी एक क्षण के लिए भी नजरों से ओझल हुई तो बेचैनी होने लगती है। अभी छोड़ आया हूँ उसे, पर लगता है कि फिर जाऊँ उसके पास। (दरवाजा खटखटाता है।)

मालिनी : अरे, ये क्या, फिर वापस आ गए?

संभाजी : कुछ देर पहले मेरे पैर दबा दिए थे, अब मैं तुम्हारे पैर रगड़े देता हूँ।

मालिनी : उफ, ये उलटी बात किसलिए?

संभाजी : अरे पगली, प्रथम पत्नी के पैर नहीं रगड़ना चाहिए-यह ठीक है, पर तू तो मेरी लाड़ली दूसरी पत्नी है। प्रथम पत्नी पति की बेटी या नातिनी दिखने योग्य छोटी थोड़े ही रहती है। इसीलिए उसके बारे में विषय-लालसा जाग्रत हो जाती है। अतः शास्त्रों में वह आज्ञा केवल पहली के लिए निर्देशित रहती है, पर दूसरी पत्नी चूँकि 'बालिका वधू' सी दिखती है। अत: वर के मन में उसके प्रति वात्सल्य भाव जाग्रत होता है। तुम्हें देखकर मेरे मन में स्वामित्व भाव की अपेक्षा सेवाभाव ही जाग्रत हुआ है। छोटी बच्ची सा तेरे लाड़-प्यार को जी होता है। इसलिए तेरे पैर दबाने की इच्छा हो रही है। तीसरी शादी के बारे में तो कहते हैं कि चूँकि लड़की नातिनी के वय की होती है। अतः उसे गोद में लेकर भी घूमा जा सकता है। क्या मैं तुझे गोद में लेकर घूम लूँ? वात्सल्य रस मेरे दिल में उफन रहा है। करूँ मैं तुझे लाड़?

मालिनी : बस-बस, रहने दीजिए। आपको और लाड़-प्यार करना ही है तो पति जैसे करिए, बाप जैसे नहीं, समझे ! वात्सल्य भाव के लाड़-प्यार से जी जब ऊब जाता है तभी लड़कियाँ शादी करती हैं। गाँव के नाममात्र पटेल कहलाने से क्या फायदा? कुछ पुरुषार्थ कर दिखाइए। तभी मेरा पटेलनी कहलाना सार्थक होगा। मात्र पैर रगड़कर थोड़े ही कुछ फल मिलेगा। कोई पूजा-पाठ करने के लिए पुजारी रखूँ तो वह व्यवस्था भी तो नहीं हो पा रही आपसे।

संभाजी : अरे, मैं तो बताना भूल ही गया था कि कल ही मैंने देवी सिंह को तुम्हारे लिए कोई पुजारी खोज लाने भेजा है।

मालिनी : पुजारी मात्र विद्वान् होने से नहीं चलेगा। मुँह में तमाखू रखे, नाक पर ऐनक खींचते तुतलाते संस्कृत रटनेवाली पापी सुरत मुझे नहीं चाहिए। महिलाएँ पापयोनि हैं, रत्न तो पत्थर मात्र हैं, सोना मात्र मिट्टी है, भोग तो रोग ही हैं, ऐसे शोकगीत गानेवाला पुजारी कितना भी विद्वान् क्यों न हो, पर वह मुझे नहीं चाहिए। इसके पहले तुम जैसा लाए थे, वैसा ही पुजारी इस बार भी हुआ तो मैं उसका मुँह भी नहीं देखूँगी, समझे।

संभाजी : भला ऐसा-वैसा क्यों कर लाऊँगा मैं, आँ। बल्कि जिसका मुखड़ा सुंदर हो, जिसे घंटों निहारते रहने में मुझे अच्छा लगे, ऐसा काव्य-कथा-संगीत प्रेमी कथावाचक मैं लाने जा रहा हूँ। तुम्हें दिखाकर ही रखूँगा उसे, समझी बेटी? ( गोद लेना चाहता है।)

मालिनी : बस, हो गया तुम्हारा यह वात्सल्य रस। क्या मैं तुम्हारे लिए बेटी हूँ? किसी दूसरे को बेटा या बेटी कहने की ललक जाग रही है मेरे मन में, समझे।

[देवी सिंह का प्रवेश।]

देवी सिंह : राम-राम पटेलजी।

संभाजी : आइए, आइए! आप ही चाहिए थे मुझे। पुजारी-पंडित मिला क्या?

देवी सिंह : नहीं, अभी तो नहीं मिला, पर एक खबर लगी है कि कोई ज्योतिषी नगर में आया है जिसकी नगर में काफी चर्चा है, पर मेरा ज्योतिष पर उतना भरोसा नहीं है। अतः मैंने पूछताछ नहीं की।

संभाजी : वही तो गलती की आपने। ज्योतिषी और पुराणवाचक ऐसा दोनों कलाओं का ज्ञाता अगर मिलेगा तो वह निश्चय ही मेरी पत्नी का और मेरा मनोरंजन करेगा। ज्योतिष पर विश्वास नहीं, ऐसा क्यों कहते हो? यदि मैं तुम्हें यह बताऊँ कि ज्योतिष के अनुमान कितने सही होते हैं, तो तुम विश्वास नहीं करोगे।

देवी सिंह : सच!

संभाजी : मेरी प्रथम पत्नी का देहांत होने पर मैं दूसरी शादी करूँगा, यह एक ज्योतिषी ने बताया था, वह पूरा सच निकला। यह भविष्यवाणी कब की थी, मालूम है? मेरे जन्म के पूर्व। आश्चर्य है न, परंतु महाराज, महा आश्चर्य तो आगे है। वह मेरे जन्म के पूर्व किसका हाथ देखकर कहा था, ज्ञात है?-मेरी दादी का।

देवी सिंह : क्या कहते हैं आप? दादी का हाथ देखकर यह बताया गया कि तुम्हें एक पोता होगा। उसका विवाह होगा, फिर पत्नी मर जाएगी और वह दूसरा विवाह करेगा?

संभाजी : और वह दूसरी पत्नी उससे प्यार करेगी, यानी मुझसे प्यार करेगी। यह भविष्य मेरे जन्म के पूर्व बताया था, वह भी मेरी दादी का हाथ देखकर।

देवी सिंह : फिर तो निश्चय ही आश्चर्य लगता है। और यह पूरा-का-पूरा सच निकला?

संभाजी : फिर? ज्योतिषी के कथनानुसार मैं पैदा हुआ, शादी हुई, पत्नी मरी, फिर दूसरा विवाह हुआ और तुम्हारी ये नई पटेलन द्रौपदी ने धर्मराज को जितना प्यार न किया होगा उतना प्यार मुझसे करती है। ईश्वर चाहे तो क्या नहीं होता।

नारंभट : (प्रवेश कर) बिलकुल सही कहा आपने। ईश्वर चाहे तो क्या कुछ नहीं होता? ऐसा भाव रखनेवाले आप जैसे धर्मप्राण व्यक्ति का ईश्वर कल्याण करे।

संभाजी : आइए-आइए। कौन हैं आप?

नारंभट : मैं एक ब्राह्मण हूँ। बचपन में ज्योतिष का अध्ययन किया था। आगे चलकर वेद-वेदांग का अध्ययन किया। जो ईश्वर पर विश्वास करते हैं उन्हीं के यहाँ निवास करने की परिपाटी है मेरी। आपके शब्द सुनकर मैंने प्रवेश किया। आप सचमुच धर्मात्मा दिखते हैं।

संभाजी : नहीं-नहीं। कौन कहता है कि मैं धर्मात्मा हूँ!

नारंभट : कौन-किसकी बात क्यों कहूँ? ज्योतिष कहता है यह सब। देखिए, पटेलजी, आप नम्रता से औरों को यह सब कहें, पर ज्योतिषी के सामने तो आपको हर सच बात स्वीकारनी होगी।

संभाजी : क्या आपको मेरी जानकारी ज्योतिष ज्ञान से हुई? फिर इसके पहले आप यहाँ क्यों नहीं आए?

नारंभट : आपका मकान खोज रहा था चार-पाँच दिनों से।

देवी सिंह : वाह! नारंभटजी, ज्योतिष की बिजली से आपको पटेलजी के दिल के चप्पे-चप्पे दिखाई दिए, पर राजमार्ग पर स्थित यह आलीशान कोठी नहीं दिखाई दी। भूत-भविष्य-वर्तमान दिखानेवाला ज्ञान आपको पटेलजी का मकान क्यों नहीं दिखा सका?

नारंभट : (स्वगत) कितना गधा है ये! मैंने इसे छोटी-मोटी शंकाएँ उठाकर मुझे उत्तर देने का अवसर देने को कहा था ताकि पटेल का विश्वास जीत सकूँ, पर ये गधा मुझसे ऐसे प्रश्न पूछ रहा है जिससे मेरी फजीहत हो जाए। हमेशा मेरी बात काटने की इसकी पुरानी आदत है। इसे भी मजा चखाना पड़ेगा। (प्रकट) अरे भाई, जन्म काल के आधार पर चेहरे से या हाथ देखने से मनुष्य की कुंडली बनती है। उससे उसका इतिहास बता सकते हैं, पर कोई किसी गाँव या कोठी की कुंडली थोड़े ही बनाता है। हाँ, अन्य किसी तरीके से यह बताया जा सकता है कि गाँव में गलियाँ कितनी, मकान कितने, नालियाँ कितनी, दुर्जन (उसकी ओर देखते) कितने, उनके नाम भी बताए जा सकते हैं। क्या एक-दो नाम गिनाऊँ?

देवी सिंह : नहीं-नहीं। उसका क्या करना? हमारा विश्वास है आपपर। क्या आप जरा पटेल साहब का हाथ देखेंगे? कृपा करिए। आपको उचित दक्षिणा भी दी जाएगी।

नारंभट : दक्षिणा! क्या मैं पैसे के लिए ज्ञान बेचूँ? नहीं, नहीं, जाता हूँ मैं ...

संभाजी : शास्त्रीजी, वो बात नहीं है। क्षमा करिए, केवल उपकार करके आप कृपया मेरा हाथ देखिए। देखो देवी सिंह, यदि ज्ञानी सच्चा हो तो वह कितना निस्स्वार्थी होता है।

नारंभट : ठीक है, ठीक है। दिखाइए हाथ। (हाथ देखते हुए) आपकी माताएँ दो थीं, पर पिता मात्र एक थे सगे। (देवी सिंह हँसता है) हँसते क्यों हो? मराठों में पुनर्विवाह की प्रथा है ही, जिससे पुत्रवती माता दूसरा विवाह रचा बच्चों सहित नया पति करती है। ऐसे बच्चों का सौतेला बाप रहता है। मुझसे गप्पें नहीं हाँकना। ज्योतिष विद्या इतनी पवित्र है कि जो कुछ सच है, वही कहा जा सकता है। हम तो मात्र सत्य का कथन करते हैं।

संभाजी : क्यों देवी सिंहजी, अच्छी फजीहत करा ली आपने।

नारंभट : भाई तीन थे, तीनों मरे। मात्र आप बचे हैं। एक विवाह हुआ, पर उससे कोई संतान नहीं हुई। प्रथम पत्नी के मरणोपरांत आपका दूसरा विवाह हुआ। यह पत्नी अत्यंत सुंदर, युवा तथा आपसे प्यार करनेवाली, विश्वास योग्य है।

संभाजी : (गरदन हिलाते हुए) बिलकुल सही कहा आपने, महाराज।

देवी सिंह : क्या सबकुछ सच कहा है इन्होंने? यदि सच है तब तो मेरे आज तक के अविश्वास को डिगा दिया है इन्होंने।

संभाजी : शास्त्रीजी, फिर तो आप इनका भी हाथ देखिए।

देवी सिंह : ठीक है, दिखाता हूँ अपना हाथ इन्हें।

नारंभट : देख ही लेता हूँ अब मैं तुम्हें। (उसका हाथ जोर से पकड़कर) माँ एक, बाप दो, एक सगा, दूसरा सौतेला।

संभाजी : (हँसते हुए) कहो संभाजी, बोलिए अब, सच है कि झूठ?

देवी सिंह : क्या सही पकड़ा है इन्होंने। हमारे यहाँ महिलाओं के पुनर्विवाह होते ही हैं (मन में) कितना पाजी है यह पंडित।

नारंभट : बहनें दस थीं। पाँच मरी, चार जिंदा हैं। एक जिंदा तो है, पर मरी सी है।

संभाजी : क्या मतलब है इसका, सिंहजी।

देवी सिंह : वह ज्योतिषीजी से ही पूछें। इन लोगों को निश्चित कुछ बताते नहीं बनता तो गोलमाल भाषा का प्रयोग करते हैं ये लोग।

नारंभट : गोलमाल कहते हैं तो सुनिए, यह रेखा देखिए, बहन जिंदा है, पर मरी सी। इसका मतलब है वह वेश्या है, समझे ! चौंक क्यों गए?

देवी सिंह : सच है वह; ( मन में) साले-हरामजादे, यदि मैं इसकी पोल खोलूँ तो पटेल की मालिनी और मौसी की सुवर्णमालिनी दोनों से हाथ धोना पड़ेगा। इसलिए यह ज्योतिषी बड़ा सच्चा प्रवक्ता है, यही मुझे जताना पड़ेगा। पटेल का इसपर भरोसा बढ़े, इसलिए सारी छीछालेदार सहनी पड़ेगी मुझे। (आँखें दिखाता है।)

नारंभट : देखिए, बुरा मत मानिए। एक तो ज्योतिष पूछना नहीं चाहिए और पूछा तो सच सुनने से चिढ़ना नहीं चाहिए। सुनिए, बाप दिवालिया हो गए थे। इसलिए आपका बचपन उछल-कूद में बीता और यौवन में उल्लू बने फिरे। बोलो, सच है ना ये?

देवी सिंह : सच है ये; ( मन में) क्या करूँ मैं अब! इसने तो मेरी धज्जियाँ उड़ा दीं। चोर कहीं का।

नारंभट : चोर! सही है, तुम्हारे बाबा ने चोरी की थी। तुम्हारे परदादा सज्जन थे, पर शराब के अति सेवन से मरे।

संभाजी : क्यों देवी सिंहजी?

देवी सिंह : सच तो है सब। हाथ क्या, पूरा भूत पकड़ में आ गया है इनके। ( मन में) क्या किया जाए। लगता है कि एक लात लगाकर गिराया जाए इसे। (प्रकट) अच्छा शास्त्रीजी, अब भूतकाल वर्णन बहुत हो चुका।

संभाजी : अब कुछ वर्तमान और भविष्य बताएँ।

नारंभट : वर्तमान? वह तो भूत से भी भयंकर रहता है कभी-कभी। अब इन पटेल साहब की ही बात लो। इनके विषय में आप काफी लोभी नजर आ रहे हैं।

संभाजी : बिलकुल सच है ये। ये मेरे बहुत ही विश्वसनीय दोस्त बनते जा रहे हैं।

नारंभट : आपको गृहसुख थोड़ा कम ही है। आपकी वर्तमान पत्नी के साथ आपके नौकर की कुछ लेन-देन चल रही है।

संभाजी : क्यों सिंहजी?

देवी सिंह : सच है जी। मैंने पैसे घर में ही देकर रखे हैं। वही सारी व्यवस्थाएँ देखती हैं। अतः वह पैसे का लेन-देन अवश्य जारी है। हाँ, अब बहुत हो गया शास्त्रीजी। बहुत कष्ट दिए आपको हमने। ज्योतिष की सचाई के बारे में हम पूरे आश्वस्त हो गए। (हाथ खींच लेता है।)

नारंभट : अरे, अरे, रुकिए। भूत, वर्तमान की झलक तो देख ली आपने, पर जरा भविष्य की भी तो देखिए। आपकी पत्नी अभी गर्भवती है।

संभाजी : फिर पुत्र प्राप्ति ही है न?

नारंभट : हाँ, पूरी संभावना है, पर वो इनकी पहचान के एक पुजारी ...

देवी सिंह : (मन में) ये साला रंडी पुत्र जाने क्या-क्या बकेगा। इसकी जीभ खींच लूँ और लात मारूँ।

नारंभट : बस, उस पुजारी के चेहरे-मोहरे जैसा ही है।

देवी सिंह : बिलकुल सही बताया आपने। अब मेरे बारे में बस हो गया। ये दक्षिणा रखिए। अब पटेलजी की पुत्र प्राप्ति के बारे में बोलिए। ( अपना हाथ खींच लेता है।)

नारंभट : इनकी संतानोत्पत्ति के बारे में तो पत्नी का हाथ देखने पर ही बता सकूँगा।

देवी सिंह : और मुझे पुत्र प्राप्ति होगी, यह बात मेरा हाथ देखकर कैसे बताई?

संभाजी : फिर से वही आशंका।

नारंभट : मैं करता हूँ समाधान उसका। शास्त्र का एक नियम है कि जिस व्यक्ति से उसकी पत्नी प्यार नहीं करती, उसके हाथ पर उसकी संतान की रेखा स्पष्ट दिखती है। पटेलजी की पत्नी सुंदर है, युवा है, फिर भी वो इनसे जी-जान से प्यार करती है। इसलिए उसीका हाथ देखकर पुत्र या पुत्री बताना उचित और सही होगा, पर आप जैसे मनुष्य की पत्नी दुर्भाग्य से आपसे प्यार नहीं करती।

देवी सिंह : सच कह रहे हैं शास्त्रीजी, पटेल साहब। श्रीमतीजी का हाथ दिखाएँ इन्हें।

संभाजी : ठीक है। आप हमारी श्रीमतीजी का हाथ देख लीजिए। अरे, कौन है वहाँ? अरे रामसिंह, जाकर पटेलनबाई को बुला लाओ।

रामसिंह : (परदे में से) हुजूर, वे कहती हैं कि अभी वे बिलकुल नहीं आ सकतीं।

संभाजी : (मन में) अरे रे! कम-से-कम इस समय तो ऐसा नहीं कहना चाहिए था उसे (खुलेआम पोथी पढ़ रही है।) ईश्वर चिंतन में लीन होने पर उन्हें किसी बात की सुध-बुध नहीं रहती। रामसिंह, उनसे जाकर कहो कि एक शास्त्री पंडित आए हैं। अत: पूजा-पाठ होते ही आ जाएँ यहाँ।

रामसिंह : (परदे में से) कहती हैं कि वे आ रही हैं।

नारंभट : (मन में) अच्छा शकुन है। (अपने कपड़े सँवारने लगता है।)

मालिनी : (प्रवेश करते हुए) क्या आदेश है?

संभाजी : शास्त्रीजी को प्रणाम करो। आज तक मैंने ऐसा ज्योतिषी नहीं देखा था। हाथ दिखाओ इन्हें अपना।

नारंभट : (पहले अंगुलियाँ पकड़ता है, फिर कलाई तक की रेखा देखकर) श्रीमतीजी का बीता जन्म किसी ब्राह्मण कुल में हुआ था। इसी से इन्हें पूजा-पाठ में अधिक दिलचस्पी है। ये पिछले जन्म में काशी में मरी थीं। इसी से पुराणों के प्रति आसक्त हैं ये। (स्वगत) ओहो, क्या मांसलता है ! अँधेरी रात में भी ऐसा हाथ पकड़कर आगे क्या होगा, यह बताया जा सकता है, पर वर्तमान कैसे बताऊँ? पिछला जन्म बता दिया। अबके बारे में देवी सिंह से पूछना ही भूल गया मैं। (खुली) हथेली देखूँ? ओहो, क्या चिह्न है! पुत्र प्राप्ति! बड़ा पराक्रमी होगा। महापराक्रमी कैसा हो?

संभाजी : शास्त्रीजी, आपके मुँह में घी-शक्कर। विजयनगर साम्राज्य के समय से हमारे कुल में वीर पुरुष पैदा होते रहे हैं आज तक, अब महान् पराक्रमी पैदा होने चाहिए। कैसा होगा महाराज?

नारंभट : बाप से सवाई।

मालिनी : बस, इतना ही शास्त्रीजी। मतलब कुछ भी नहीं। शून्य का सवा गुना यानी शून्य ही रहेगा।

नारंभट : पर यह रेखा देखिए। वाह, क्या चीज है! (उसके भुज दंड को पकड़ता है।)

देवी सिंह : शास्त्रीजी, क्या भुजाओं तक रेखाएँ रहती हैं?

नारंभट : हथेली की रेखाएँ देखकर यह कहा जा सकता है कि बेटों को कलेजे से लगाकर रखा जाएगा या नहीं, पर वह वीर-पराक्रमी होगा, यह तो भुजाओं से ही ज्ञात हो पाएगा। क्योंकि वीरता तो भुजाओं में रहती है। (भुजा को सहलाते हुए) क्या भुजा है! बिलकुल राजयोग दिखाती है। पटेलजी, आपका बेटा राजयोगी होगा। देवी, तुम धन्य हो। (मन में) आय हाय, हथेली की रेखाओं का उद्गम खोजते-खोजते मेरा हाथ इसके दर्शनीय सीने के उठाव के पास पहुँच चुका है। हाथ जैसी रेखाएँ सारे शरीर पर फैली होती तो कितना मजा आता! हाथ की रेखाएँ मोड़ लेती हुई सुंदरता के मानसरोवर तक जा पहुँचती हैं। वहाँ पहुँचने की हिम्मत करता हूँ मैं अब। (खुलेआम) गले की रेखा देखिए। देवीजी, निश्चय ही आप राजमाता बनेंगी। संदेह ही नहीं, ओहो हो!!

संभाजी : मैं अत्यंत आभारी हूँ आपका।

मालिनी : पर भविष्य की वीरमाता या राजमाता को अभी से प्रशिक्षित करने के लिए कोई वसिष्ठ या धौम्य ऋषि या कोई कुलगुरु कहाँ मिलेगा?

संभाजी : उसमें कौन सी बड़ी बात! वो तो यहाँ उपलब्ध है। शास्त्रीजी, आपको हमारी विनती माननी होगी। आप हमारे आज से गुरु बनें और पत्नी को कथा पाठ कराया करें। क्यों मालिनी, पसंद हैं न कुलगुरुजी?

मालिनी : पसंद-नापसंद की क्या कहूँ?

संभाजी : अरे भाई, भविष्य में आगमन कर रहे युवराज के हिसाब से तो योग्य लगते हैं ये कुलगुरु। बस, तय हुआ। जाओ, मौसी से भी कह दो। आज से ही इनकी पुराण कथा नियमपूर्वक सुननी है। और हाँ, कुलगुरु जैसा सम्मान देकर घर में सभी को इनसे व्यवहार करना है, समझीं!

मालिनी : प्रणाम करती हूँ गुरुदेव।

नारंभट : पुत्रवती भव।

मालिनी : (स्वगत) ऐसे समर्थ गुरुदेव ने यह आशीर्वाद मन से दिया हो तो वह तो खरा उतरेगा ही।

नारंभट : ठीक है, हम भी जरा देवदर्शन कर आते हैं।

संभाजी : जैसी इच्छा, महाराज! देवी सिंहजी, आप भी चलिए अब।

[देवी सिंह और नारंभट उठते हैं। सामने का परदा गिराया जाता है।]

देवी सिंह : (नारंभट की ओर बढ़ते हुए) क्यों बे बाम्मन। साला बड़ा कुलगुरु, ज्योतिषी बना है। अब अच्छी-खासी मरम्मत करता हूँ तेरी। साले, सारी बत्तीसी तोड़ दूँगा। मेरी पत्नी के बारे में क्या बक रहा था बे तू!

नारंभट : अरे, अरे, ये क्या कह रहे हो? वास्तव में सोचा हुआ कार्य निर्विघ्न संपन्न हुआ, इसलिए धन्यवाद देना चाहिए था तुम्हें। तेरी पुरानी पत्नी के बारे में जो कुछ कहा मैंने, वह सब अब इस नई खूबसूरत पत्नी पाने की खुशी में भूल जा तू दोस्त। और तूने मुझे बीच में आड़े-टेढ़े प्रश्न पूछकर मेरी फजीहत करने की चेष्टा की थी, उसका क्या?

देवी सिंह : पागलपन था वह मेरा।

नारंभट : इसीलिए तेरी मूर्खता भरी बकवास बंद करने के लिए मुझे वैसा कहने की समयज्ञता दरसानी पड़ी। अब छोड़ो वो सब बातें। जिसका अंत ठीक, उसका सबकुछ ठीक है। एक माह में उस मालिनी को तेरे गले की माला बना दूँगा मैं, फिर तो कोई शिकायत न होगी! पर एक खयाल रखना। कमलिनी जैसी धरोहर कल हम गंगाजी के मंदिर में रख आए हैं न, वह इब्राहिम की नजरों में नहीं पड़नी चाहिए। उस हिंदू लड़की पर हिंदू का ही अधिकार रहेगा, समझे!

देवी सिंह : अरे, गंगाजी तेरी ही नहीं, मेरी भी गुरु है। हमारी आज तक की सभी अमानतें उसने कैसे सँभालकर रखी हैं। अमानत तो सुरक्षित रहती ही है, पर उसके ब्याज की चुंबानी खैरात भी कैसे दबादब देती है वो!

नारंभट : फिर तो बात बन गई। उस मंदिर के सामने अपनी दुकान लगाकर बैठनेवाले उस चोख्या को वहाँ से भगाने का काम शेष है। अभी उस धेड़ की छाया पड़ती है मंदिर में आते-जाते।

देवी सिंह : बदमाश कहीं का। उसको तो वहाँ से बेदखल करना ही पड़ेगा। मंदिर में आने-जानेवाली महिलाओं पर बुरी नजर रखता है वो। भ्रष्टाचार मचा दिया है साले ने, पर अब हमारे उकसाने से और उसकी बकबक सुनकर सभी हिंदू लोग मुखालफत कर रहे हैं। अस्पृश्य को देखकर भी जी मचलने लगता है मेरा।

नारंभट : सच कहूँ? मेरे सामने मुझसे अधिक कोई सद्गुणी व्यक्ति जब दिखता है न, तभी मेरा जी मचलने लगता है। मैं क्या कम सज्जन हूँ! क्यों? हाऽ हा (हँसता है) चलो, अब उस चोख्या को मंदिर के सामने से हटाने के काम में लग जाएँ। (जाते हैं।)

: छठवाँ दृश्य :

[चोखा महाराज मंदिर के सामने सड़क पर बैठे हैं।]

चोखा : हे प्रभु, पांडुरंग! हमारा आज का दिन भी समाप्त होने को आया। फिर भी हे प्रभु, अब भी तेरे चरणों को तो छोड़ें, मंदिर के दरवाजे के भी दर्शन हम लोगों को नहीं मिलते। कल के उषाकाल से आज के उस क्षणकाल तक युगों की घड़ी का घंटा निरंतर गिनते हुए मैं लगातार मंदिर का मार्ग चलता आया हूँ, पर वह कठिन राह अभी भी पूरी नहीं हो रही है। एक-एक योनि की एक-एक सीढ़ी चढ़ते-चढ़ते मैंने चौरासी योनियाँ पार कर लीं, पर हमें अभी मंदिर की चारदीवारी को छूने का भी अधिकार नहीं मिला। हे भगवन्, तुम्हारे मंदिर के पहुँच-मार्ग का क्या कोई अंत नहीं है? (जो कोई यात्री इस मार्ग-मंदीर की तरफ जाता है,इस आशा से चलते आया वो थककर सड़क पर ही चिरनिद्रा में सो गया और आगे कहीं मंदिर है भी या नहीं, यह बताने नहीं लौटा।) अत: यह मार्ग मंदिर को नहीं जाता, यह लोगों ने अभी समझा ही नहीं-ऐसा तो नहीं? कुछ भी क्यों न हो, यह कठिन मार्ग चलते, चढ़ते हमारे तो पैर थक गए। अपने कर्मों की गति के अनुसार तुम्हारे मंदिर तक पहुँच पाऊँगा। यह श्रद्धा-विश्वास भी अब डिग गया है। इसी राह पर इसी तरह सब आशा और निराशा तेरे पैरों पर, जो कि मंदिर की चारदीवारी के फलस्वरूप दिखते ही नहीं, अर्पित करके मैं अब इस पूजा भरे मार्ग पर ही बैठक लगानेवाला हूँ। तेरी तरफ आनेवाले मेरे कर्मों की गति अब रुकी है। मेरी दुर्बलता पर दया आकर तुम्हारी करुणा की दयादृष्टि यदि मुझ तक खींच लाई तो ही कुछ संभावना है। (अभंग गाता है।)

भवसागर से व्याकुल वन-मन, दौड़ो हे करुणाकर

मोह भरे इस दुनिया भर को, दो राहत तीर्थंकर

मन को मेरे दो सहारा कुछ, दौड़ो हे गिरिजाधर।

हे भगवन्, संतों द्वारा वर्णित अपने मनोहर रूप का दर्शन मुझे दे सकोगे क्या? ये हजारों भक्त तेरे मंदिर में आते-जाते हैं। तुझे फूल चढ़ाते हैं और प्रसाद प्राप्त कर तेरा साँवला-सलोना रूप आँखों में भरकर लौटते हैं, पर मुझे तेरा दर्शन कौन करने देगा? मैं तो पतित हूँ, महार हूँ, अछूत हूँ। मुझे कौन करने देगा दर्शन? तेरे भक्तों ने इस मंदिर के आसपास ऐसी घेराबंदी कर रखी है कि मुझे दर्शन कैसे हों? पर हे भगवन्, क्या इस घेराबंदी को तोड़कर तुम मुझे दर्शन देने मंदिर के बाहर नहीं आ सकते? अरे, कोई मुझे भगवान् विट्ठल के दर्शन कराएगा? विट्ठल दर्शन तो उसकी प्रसन्नता पर निर्भर रहता है। क्या उसकी मूर्ति का दर्शन कराएगा कोई मुझे?

अभंग

श्रीमुख ये सुंदर पहने है पीतांबर

वैजयंती हार शोभा न्यारी

जीवों का सखा वो प्राण प्रिय भारी

सँभालो ये माया, हे त्रिपुरारी ...

पन्नालाल : (प्रवेश करते) अरे, मंदिर के रास्ते पर बैठकर ये कौन भिखारी बकबक कर रहा है? भीकू सेठ, कौन है ये?

भीकू सेठ : अरे, तुम्हें नहीं मालूम। यह तो चोखा महार है। कितना रोका, पर ये रोज अपनी दरिद्रता भरी भक्ति का प्रदर्शन करने रास्ते में बैठा रहता है। पन्नालालजी, इसे हटवाना ही पड़ेगा यहाँ से।

पन्नालाल : क्या वास्तविक भक्ति से बैठता है ये?

भीकू सेठ : अरे, काहे की भक्ति? घर में खाने को नहीं है, काम-धंधा करता है नहीं, इसलिए भक्ति का ढोंग रचाकर बैठते हैं यहाँ ये लोग। औरों से तो कोई तकलीफ नहीं होती, पर यह धेड़ तो आने-जानेवालों से प्रसाद माँगने इतना आगे बढ़ आता है कि उसकी छाया के कारण छुआछूत फैलती है यहाँ। भजन इतने जोर-जोर से गाता रहता है कि मूर्ति की प्रदक्षिणा करते समय मंत्रों का जाप करना भी असंभव हो जाता है। भक्तों के मंत्रोच्चारों पर जब इस धेड़ के भजनों का स्वर छाता है तो वे मंत्र भी अपवित्र हो जाते हैं। ये देखो, आ गया ये हमारे पास प्रसाद माँगने।

चोखा : महाराज, पांडुरंग के प्रसाद का कुछ अंश मुझे मिलेगा क्या?

पन्नालाल : तू खुद ही क्यों नहीं चढ़ाता भोग भगवान् को? दूसरे के चढ़ाए भोग से कुछ माँगना तो भीख माँगना है। भीख माँगने की ये तेरी खास तरकीब दिखती है।

चोखा : महाराज, क्या मुझे भोग का थाल अंदर ले जाने देंगे आप? यदि ऐसा करने देंगे तो जन्म सार्थक हो जाएगा। भगवान् की मूर्ति को मैं आँखों में समा लूँगा।

भीकू सेठ : अरे, तुझे अछूत हमने बनाया या भगवान् ने? उसी से माँग भोग का थाल अंदर ले जाने की अनुमति। काहे का भोग चढ़ाएगा तू? मरे मांस का ही न!

चोखा : शिव, शिव! सेठजी, मरे हुए का तो क्या, किसी भी तरह के मांस का स्पर्श आज तक इस चोखा ने नहीं किया है।

भीकू सेठ : अरे, तूने नहीं तो तेरे बाप ने किया होगा।

चोखा : हो सकता है, महाराज। हम लोग तो महार, अछूत ठहरे। जो रीति-रिवाज आप लोगों ने बना दिए हैं उनका पालन करते हैं हम लोग। इसीलिए प्राण कितने भी व्याकुल क्यों न हों, मैं तो मंदिर के कलश के दर्शन से ही संतोष कर लेता हूँ। दोपहर को भक्तों द्वारा फेंके गए प्रसाद के जूठे टुकड़ों को ग्रहण कर मैं धन्य होता हूँ। यही मेरी पूजा होती है।

अभंग

जातिहीन मैं, जानूँ न सेवा

हम नीचों को, झूठन मेवा

प्रभु लेऊँ नाम निस-दिन तेरा

दास कहलाऊँ हरी राम तेरा।

नारंभट : (प्रवेश कर) ओहो, अब तू हमारे दासों का दास बन बैठा क्या? अरे, कल यही आदमी महारों को ब्राह्मणों जैसा नहा-धोकर साफ-सुथरा रहना सिखा रहा था और फव्वारे का पानी, बलपूर्वक ही क्यों न हो, पीने को उकसा रहा था।

पन्नालाल : क्या, यह वही आदमी है? अरे, धेड़ कहीं का!

भीकू सेठ : तुझे ब्राह्मण होना है क्या? क्योंकर डालें तुझे ब्राह्मण?

चोखा : ऐसी अमर्यादा मैं कैसे करूँगा? हम तो झुककर जोहार करते हैं सबको।

अभंग

जोहार माई-बाप, जोहार

तेरे दासों का मैं दास जोहार

मैं हूँ भूखा तेरे द्वार आया

तेरे परसाद जूठन को पाया

जोहार माई-बाप, जोहार

नारंभट : परंतु यह जूठन वह सुंदरी खाएगी क्या? अजी, एक दिन यह एक सुंदर जवान कन्या के गले में हाथ डाले उससे गोपियों के गीत गवा रहा था।

देवी सिंह : पक्का बगलाभगत है यह। यह पाजी इस तरह सड़क पर इसलिए बैठता है कि हमारी जिन महिलाओं के नाखून भी जन्म भर किसीको देखने नहीं मिलते, उनके मुखड़े यह देख सके।

भीकू सेठ : अरे चांडाल! इसीलिए बैठता है। वह स्वाभाविक है। महार वाड़े के कुरूप, कुग्रास से ऊबे हुए इन पतितों की आँखें हम ब्राह्मण, वैश्य स्त्रियों का तरल सौंदर्य देखते ही ऐसे ललचाती हैं जैसे अकाल में घास खाकर दिन गिनते कंगाल को अंगूर का लुभावना गुच्छा देखकर लालच छूटता है। चोखा, जा रहा है यहाँ से या लगाऊँ थप्पड़।

देवी सिंह : छुआछूत हुई तो भी हर्ज नहीं, लगाओ साले को। साला राह में बैठकर रास्ता अपवित्र करता है। नहाना तो वैसे भी पड़ेगा।

चोखा : अरे भाई, मैंने क्या बिगाड़ा है आपका? पैर पड़ता हूँ मैं।

भीकू सेठ

और

पन्नालाल : दूर रहो, दूर रहो। साले ने छाया स्पर्श कर ही डाला। भगाओ साले को। (उसे गालियाँ देते हुए भगाते हैं।)

लड़कियाँ देखता है, छूता है, भ्रष्टाचार करता है, ब्राह्मण होना चाहता है। (ऐसी बक-झक करते नारंभट, देवी सिंह और सारे अन्य लोग उसे धक्के मार-मारकर भगा देते हैं।)

: सातवाँ दृश्य :

[भगा दिए जाने के बाद चोखा दूसरी सड़क पर खड़ा है।]

चोखा : हाय, हाय! यह मेरी कैसी दुर्गति है, भगवान् ! मेरी ही क्यों, हम सभी अछूतों की ऐसी ही दयनीय अवस्था होती है। देवदर्शन नहीं, पर कलशदर्शन तो होता था सड़क से, चारदीवारी से सटकर बैठता था तो कम-से-कम आरती के स्वर तो सुनाई देते थे, पर अब वह सुख भी छिन गया। प्रसाद के चार जूठे कण ग्रहण किए बिना अन्न ग्रहण न करने का मेरा नियम अब कैसे पूरा होगा!

अभंग

हीन जाति मेरी, कैसे करूँ सेवा?

दूर करे हमको, कैसी ये माया?

चाहकर भी तुझको, पाऊँ मैं कैसे?

हे प्रभो मुरारी, देखूँ मैं कैसा?

क्या मैं सचमुच इतना नीच हूँ, जैसा ये सब कहते हैं, वैसा मुझे देवदर्शन का अधिकार ही नहीं है। मैं धेड़ महार हूँ, इसलिए ये सब मेरा धिक्कार करते हैं। मैं मनुष्य भी हूँ या नहीं? या धूल में रेंगनेवाला कोई कीड़ा हूँ? क्या मैं इतना गया-बीता कीड़ा हूँ कि पैर लगाना भी लोगों को गंदा लगे। अभी जिन्होंने मुझे वहाँ से भगाया, उनके चरण छूने लगा तो भी छुआछूत मानी उन्होंने। यदि उनके कहने के अनुसार शास्त्रों द्वारा ऐसी ही आज्ञा होगी तो फिर गलती मेरी ही होगी। मुझे देवदर्शन का अधिकार सचमुच नहीं है क्या? भगवान् की सेवा का, उसके रास्ते पर बैठने का, उसका जूठा ही सही, प्रसाद पाने का, ऊँची आवाज में भजन करने का, ये सारे अधिकार क्या सचमुच मुझे नहीं हैं? हमारे लिए भगवान् है भी या नहीं? हाय, हाय! फिर हम अछूतों के जन्म का उद्देश्य ही क्या है!

अभंग

कितनी दौड़-धूप करूँ मैं अनाड़ी

अर्थहीन सारी जीवन कहानी

ज्यों-ज्यों करूँ भक्ति त्यों-त्यों कष्ट भारी

कैसे मैं अभागा करूँगा आरती?

अरे, ये कौन आ रहे हैं? ये तो सारे पंढरपुर में प्रसिद्ध शास्त्रीजी हैं, उन्हीं से पूछता हूँ, पर उनके हाथों में तो प्रसाद का थाल है। मुँह से कुछ पाठ भी चल रहा है। कैसे पुकारूँ उन्हें? मेरे पुकारने से स्वरों की छुआछूत तो न लग जाएगी? क्या इशारा करके देखूँ? (वे जैसे ही पास आते हैं, चोखा जोहार करके कुछ बुदबुदाता है।)

महाराजजी, एक शंका पूछनी थी।

शब्दशास्त्री : मैंने कितनी बार इशारे से तुझे मेरे मार्ग से दूर हटने को कहा, चोखा? पर अपने इस म्लेच्छ राज्य में अनाचार फैल चुका है न। जहाँ हिंदू धर्म का शुद्ध रूप विराजमान है, उस स्थान पर तो कम-से-कम अभी भी वैदिक ब्राह्मण अछूतों का छाया स्पर्श भी पाप मानते हैं। तुम महार, धेड़ केवल अस्पृश्य ही नहीं, अदृश्य (अदर्शनीय) भी हो। तुम्हारी नजर की छाया से अपवित्र हुआ यह प्रसाद का थाल अब मुझे फेंक देना पड़ेगा। चोखा, ऐसे भावाकुल होकर मत देख। माना कि तू सुशील है, देवभक्त है, पर तू महार-अछूत भी तो है। मुझे दया आती है तुझपर, शास्त्र वचन तो नहीं लाँघ सकता। कम-से-कम कल से तू रास्ते में ऐसे मत खड़ा रहना। आज तो छुआछूत हो ही गई है। पूछो, क्या पूछना चाहते हो?

चोखा : महाराजजी, मैं अभी जो पूछने जा रहा हूँ, उसका सही उत्तर मिलने पर मैं कल से इस रास्ते पर ही नहीं बल्कि जीवन मार्ग से भी हट जाऊँगा। मुझे अभी-अभी मंदिर के रास्ते से धक्के मारकर भगाया गया है। भगवान् कसम, उस अपमान से अपमानित नहीं हुआ मैं, क्योंकि वे गालियाँ मेरे मन के अहंकार रूपी मैल को धोकर मेरा हृदय-गृह साफ-सुथरा रखने में सहायक होती हैं, पर आज की इस घटना ने मेरे परमप्रिय के दर्शन का छोटा सा झरोखा भी बंद कर दिया जिससे मैं व्याकुल हो उठा हूँ। भगवान् के मंदिर जाने के ज्ञान-दान-तप आदि जो राजमार्ग हैं उनपर अछूतों को नहीं रुकना चाहिए, यह मुझे ज्ञात है, अतः आप संक्षेप में मुझे बताएँ कि नामसंकीर्तन मार्ग की जो पगडंडी है, उसपर चलने-दौड़ने का अधिकार भी क्या अछूतों को नहीं है? भगवान् भी हमारे स्पर्श से अपवित्र हो जाता है, ऐसा पुजारी कहते हैं। क्या यह सब सच है, शास्त्रीजी? हमारी नजरों से प्रसाद का थाल भी अपवित्र हो जाता है, क्या यह सच है, शास्त्रीजी? क्या धर्मशास्त्र हम अछूतों को प्रसाद के चार जूठे कण भी ग्रहण करने का अधिकार नहीं देते? महाराज, इस जन्म में हमें अपने उद्धार का अधिकार नहीं, क्या यह सच है ?

शब्दशास्त्री : चोखा, जहाँ तक शास्त्रों की बात है, यह सब सच है। अस्पृश्यों को नामसंकीर्तन का भी अधिकार नहीं है। अस्पृश्य मात्र अस्पृश्य ही नहीं, अदृश्य (अदर्शनीय) भी है। इस जन्म में तो उनका उद्धार नहीं।

चोखा : पर महाराजजी, अजामिल पापी भी तो गया परमधाम, रोहीदास चचार था, वो भी गया स्वर्गधाम।

शब्दशास्त्री : तूने कहा था न कि तू विवाद नहीं करेगा! शास्त्र क्या है, केवल यही तू पूछना चाहता था न! मैंने जो समझा, वही बताया है। चोखा, मुझे तेरे सद्गुणों को देख दया आती है, पर क्या करूँ, शास्त्र कठोर हैं। तेरे सद्गुण तुझे जब किसी योगेश्वर के यहाँ अगले जन्म में पैदा करेंगे तभी इस जन्म में तेरे लिए बंद ये द्वार खुलेंगे। अच्छा, मैं जाता हूँ।

चोखा : एक क्षण मात्र रुकिए, महाराजजी। आपने जो शास्त्रार्थ बताया, क्या उसे सभी की मान्यता है ? व्याघ्र ने गीता उपदेश किया था, ज्ञानेश्वर ने तो भैंस से वेदोच्चारण कराया था।

शब्दशास्त्री : चोखा, फिर तूने तर्क करना शुरू कर दिया। जैसा मैंने बताया, शास्त्रार्थ सर्वमान्यता प्राप्त तो है ही, पर नियम के भी कुछ अपवाद होते ही हैं।

चोखा : आखिरी प्रश्न, महाराजजी, शास्त्र-शास्त्र में भिन्नता दिखने पर एक सर्वमान्य निर्णय करने का अधिकार किसे है? शास्त्रों पर भी क्या किसीका अधिकार चलता है?

शब्दशास्त्री : हाँ, पर वह किसी मनुष्य का नहीं, केवल परमात्मा का ही रहता है। परमात्मा का निर्णय शास्त्रों को भी शिरोधार्य रहता है।

चोखा : ऐसा है न, महाराज! ठीक है, अब आप जा सकते हैं। आपने मुझे सही मार्ग दिखाया है। आप ही मेरे सद्गुरु हैं। अब मैं अपनी बुद्धि से या लोक बुद्धि से उचित-अनुचित, सत्य-असत्य का निर्णय नहीं करूँगा। अब शास्त्रों के कर्ता-धर्ता परमात्मा से ही मैं सारे प्रश्न पूछूँगा। मेरे अकेले के ही नहीं, बल्कि समूचे अस्पृश्यों के जीवन का अंतिम लक्ष्य क्या होगा? हमारे लिए देवता है या नहीं? इस जन्म में हमें अपनी आँखों से भगवान् की मूर्ति का दर्शन करने को मिलेगा या नहीं-यह सब अब मैं सीधे परमात्मा से ही पूछूँगा।

शब्दशास्त्री : पागल जैसी बातें मत करो, चोखा।

चोखा : पागल जैसी बातें? नहीं महाराजजी। बिना प्रसाद ग्रहण किए अन्न ग्रहण न करने का व्रत है मेरा। आज से वो पूरा नहीं हो पाएगा। अत: मुझे अब उपवास पर रहना पड़ेगा। मैं भी यह जिद करूँगा कि जब तक प्रत्यक्ष पांडुरंग भगवान् आकर मुझे नहीं खिलाते तब तक मैं कुछ नहीं खाऊँगा।

शब्दशास्त्री : इस जिद से व्यर्थ आत्महत्या करनी पड़ेगी, समझे।

चोखा : तो क्या हुआ? करोड़ों अछूतों को इस जन्म में अपने उद्धार का अधिकार है या नहीं, इस महान् प्रश्न का उत्तर पाने के लिए और करोड़ों अछूतों को मनुष्यता के अधिकार दिलाने के लिए यदि एक की बलि चढ़ गई तो कोई परवाह नहीं। वह आत्महत्या नहीं, यज्ञ की आहुति मात्र होगी।

शब्दशास्त्री : देखो भाई, तुम जानो-समझो सारी बातें। मैं जाता हूँ, आज समूचा प्रसाद तूने अपवित्र कर ही डाला है तो तू ही इसे पा ले।

चोखा : आभारी हूँ मैं आपका, पर अब मैं मनुष्य के हाथों का प्रसाद ग्रहण नहीं करूँगा; क्योंकि यदि वह शास्त्रसम्मत न होगा तो अकारण ही मैं पाप का भागीदार बन जाऊँगा। अब मनुष्य के हाथों प्रसाद नहीं पाना मुझे, वैसे ही शास्त्र-वचन भी नहीं सुनना। अब जो कुछ पाना है वह परमात्मा से ही पाना है, जोहर माई-बाप।

शब्दशास्त्री : (जाते-जाते) कुछ भी कहो, इस सदाचारी, सच्चरित्र चोखा को देखकर उसे प्रणाम करने को जी चाहता है, पर क्या करूँ? शास्त्रों और रूढ़ियों को पार नहीं कर सकता। (जाता है।)

चोखा : ठीक है। सारे लोग चले गए। अब मैं और मेरा पांडुरंग, भगवान् और भक्त आमने-सामने होंगे। अब उधारी की बात नहीं। अब मैं सीधे भगवान् से इस प्रश्न का उत्तर पाऊँगा कि अछूतों को इस जन्म में मानवोचित अधिकार मिलेंगे या नहीं?

तीसरा अंक

: पहला दृश्य :

सत्यवान : (सत्यागार में बैठा है। शिष्य-शिष्या उसका उपदेश सुन रहे हैं।) इसीलिए कहता हूँ, सत्य ही वेद है। 'नहि सत्यात्परोधर्मः, नानृतात्पातकं परं', यही वेदों का प्रारंभिक एवं अंतिम वाक्य है। बाकी जो है वे किस्से व गप्पें हैं।

पहला शिष्य : अब यह बताइए कि हमारे इस सत्यवेद के अनुसार सत्य की व्यवस्था क्या है? क्या उसमें भी कुछ अपवाद हैं?

सत्यवान : शिव-शिव, क्या पूछ रहे हो? उसमें अपवाद का अर्थ मात्र असत्य होगा। कभी-कभी उसकी भी आवश्यकता पड़ती है। इसलिए सवाल उठता है कि क्या कभी असत्य को अपनाना उचित है? उत्तर है कि जो मन में है वही मुँह में आए, वैसा ही आचरण रहे। यह निरपवाद आचरण ही धर्म है, यही सत्यधर्म है। कुछ लोग सत्यधर्म की मर्यादा न छूटे, इसलिए चुप रहने को सत्यधर्म के विरुद्ध नहीं मानते, पर यदि कोई हमसे प्रश्न पूछे और हम वहाँ सत्य कथन न करके चुप बैठें तो उसका अर्थ यही होगा कि आप उससे सच छिपा रहे हैं। वहाँ हमारा चुप बैठना असत्य को सत्य की मान्यता दिलाना होता है। इसका अर्थ हुआ कि न बोलकर असत्य को ही ध्वनित करते हैं। यह एक तरह से धोखाधड़ी नहीं है क्या? इसीलिए वास्तविक सत्यवेद में चुप बैठने का कोई स्थान नहीं रहेगा। 'सत्यं वद' यह वेदों की आज्ञा है, सत्य का आलाप करो। मौन रहकर असत्य का फैलाव करने की छूट नहीं। इसलिए हे शिष्यो, इस सत्यगृह में सत्य ही बोलो, केवल सत्य ही बोलो। प्रश्न का उत्तर भी सत्य ही रहे।

दूसरा शिष्य : आचार्य, रघुवंश में सत्य के बारे में ...

सत्यवान : क्या करूँ, मुझे बार-बार आपको टोकना पड़ता है। रघुवंश तो काव्य है और काव्य का अर्थ है कल्पना, असत्य। इसलिए इस आश्रम में काव्य का उच्चार भी अवांछनीय निरूपित किया गया है। थोड़ा सा सूक्ष्म विचार करिए, काव्य की मुख्य शोभा है अलंकार शास्त्र। अलंकार शास्त्र की आत्मा है उपमा, पर उपमा माने असत्य ही तो है। अब रघुवंश की ही बात करें-प्रारंभ में ही कालिदास कहते हैं कि मैं विशालतम समुद्र को छोटी सी नौका में बैठकर पार करना चाहता हूँ। अब यहीं देखिए कि कितना झूठ बोला गया है। उस समय कालिदास के पास कदाचित् स्याही, कागज, लेखनी आदि लेखन सामग्री होगी और रघुवंश लिखने का उसका हेतु था, पर सामने समुद्र था, वह भी विशालतम तो था नहीं। न ही वहाँ नौका थी। और नौका में बैठकर समुद्र पार करने की इच्छा भी नहीं थी। फिर भी उसने यह झूठा कथन केवल अलंकार का प्रयोग करने के लिए कर डाला कि वह छोटी सी नौका से महासागर पार करना चाहता है। सुंदर स्त्री का मुँह हमेशा चंद्र माना जाता है। अब चंद्र को तो कुछ खिलाया जाता नहीं। इसलिए सुंदरी को भी कुछ न खिलाया तो वह मर जाएगी। उसकी मौत की जिम्मेदारी ऐसे में मम्मट जैसे अलंकारशास्त्री और कालिदास जैसे गप्पियों पर ही डाली जाएगी। मुख क्या धड़ से अलग होकर आसमान में संचार करता है? क्या चंद्र के मुख में दाँत होते हैं? यदि सुंदरी का मुँह सूखे समुद्र-सा महान् खड्डों से युक्त होगा और वह इतना बड़ा होगा कि मनुष्य को कभी उसपर चढ़कर उसे प्रत्यक्ष देखने में करोड़ों वर्ष लग जाएँगे, तो शायद ही कोई उस सुंदरी को देखने को लालायित होगा। तब लोग दूर भागेंगे उससे। ये इनका अलंकार है। अजी, ठीक ढंग से झूठ कैसे बोला जाए और वह कितने तरीके से बोला जाए, यह सिखाने का शास्त्र ही अलंकारशास्त्र है और उसी विवेक में लिखे गए ये पंचमहाकाव्य पंचमहापातक ही हैं। ऐसे महापातकों को हम बच्चों को बचपन में ही सिखाते हैं। फिर क्या आश्चर्य है कि असत्य बोलना मनुष्य का स्वभाव ही हो गया है। इसलिए मैंने अपने इस आश्रम में पहले ही दिन से समस्त काव्य ग्रंथ, अलंकारशास्त्र, नाटकों-उपन्यासों की होली कर डाली थी। उस असत्य की राख पर इस सत्याश्रम की नींव रखी गई है।

तीसरा शिष्य : फिर उस हिसाब से पंचतंत्र, हितोपदेश आदि तो त्यागने योग्य ही हैं।

सत्यवान : बिलकुल सही है। अरे, ये कैसे नीतिग्रंथ? ये तो अनीति ग्रंथ ही हैं। कहते हैं, घोड़ा बोला, ऊँट हँसा, चूहे ने कहा। धिक्कार है उनको! उनका नाम भी लें तो बदन लाई जैसा जलने लगता है।

दूसरा शिष्य : पर यह 'लाई' भी तो उपमा है।

सत्यवान : क्षमा करें, तुमने बिलकुल सही कहा। क्रोध से बदन जल उठता है। मेरे आश्रम में एक बार शराब पीना क्षम्य होगा, क्योंकि वह सत्य होता है, पर काव्य पाठ नहीं चलता। (एक स्त्री का प्रवेश) अरे, अरे महिला, आप यहाँ क्यों आईं?

महिला : मेरे बालक को सिरदर्द है।

सत्यवान : चार दिन आप सच बोलिए। फिर देखिए, आपके बेटे का सिरदर्द चला जाएगा। आपको भरोसा नहीं होता न! अजी, आप सत्य बोलेंगी तो प्रसन्न रहेंगी। मन प्रसन्न हो तो सात्त्विक भाव उदित होते हैं। उसके कारण आपके आसपास वे ही भाव उत्पन्न होते हैं जिसके कारण लड़के का सिरदर्द अर्थात् अप्रसन्नता दूर हो जाती है। इस तरह सत्य से सभी रोग दूर होते हैं।

तीसरा शिष्य : मुझे एक बात पूछनी है, पर वह एकांत में पूछनी है।

सत्यवान : सत्यागार में और वह भी एकांत में! लगता है तुम्हें सत्यधर्म की वास्तव में पहचान नहीं। एकांत का अर्थ हुआ दूसरे से कुछ छिपाने की इच्छा। छिपाना अर्थात् असत्य है। इसलिए सत्यधर्म के अनुयायियों को एकांत में कुछ भी करना प्रतिबंधित है। हम अपने शिष्यों को स्पष्ट निर्देश दे रहे हैं कि यदि आपको सत्यवक्‍ता संतति चाहिए तो प्रजनन भी किसी पापकृत्य जैसे अंधकार के परदे में मत करो-उस गृहस्थ धर्म का पालन भी साफ, खुले और सत्यप्रकाश की सूर्य किरणों में अपने गृहस्थ धर्म का पालन करो जिससे संतति गर्भ धारण से ही सत्यवचनी एवं निरोगी बनेगी। अभी तो गर्भधारण भी असत्य संस्कार के बीज पर किए जाते हैं; क्योंकि यह कार्य हमें एकांत में चोरी-छिपे करने की आदत पड़ गई है। पशुओं को देखिए, लज्जा यानी असत्य छुपाना भी असत्य। एकांत भी असत्य ही है। इन तीनों असत्यों की पशुओं के प्रजनन कार्य पर बिलकुल भी छाया नहीं पड़ती। इसलिए पशु कभी भी असत्य नहीं बोलते। यदि गर्भाधान जैसे सुमंगल एवं गंभीर धर्म-कार्य को भी एकांत अपनी छाया मात्र से पापी बना डालता है तो फिर अन्य समय वह कितना अहितकारी रहेगा, यह कहने की आवश्यकता नहीं।

पहला शिष्य : ठीक है, खुलेआम बताता हूँ। कल सुबह सूर्योदय होते ही ...

सत्यवान : असत्य, सूरज कभी उगता नहीं है। पृथ्वी के घूमते-घूमते सूरज दिखने लगता है। (इसी समय परदे के पीछे कुछ छात्रों की आवाजें आती हैं।) क्यों रे कृष्णा, अंधे बच्चो, क्या हल्ला-गुल्ला है। ( लड़के डरते हुए आते हैं।)

कृष्णा : कुछ नहीं जी, हम लोग खेल रहे थे।

सत्यवान : अरे भाई, कहते हो, खेल रहे थे और 'कुछ नहीं' भी कहते हो, यह कैसे? हम सभी को ऐसे झूठ बोलने की आदत पड़ गई है। यदि आश्रम के छात्र ही ऐसे झूठ बोलेंगे तो औरों को हम क्या कहेंगे। परसों उस चोखा को रास्ते से जाते देखा होगा। उसे धक्के मारकर भगा रहे थे लोग। चिल्ला रहे थे कि मंदिर के रास्ते में फिर से देखा तो हड्डियाँ तोड़ डालेंगे। मैंने पूछा, क्यों रे चोखा, क्या बात है, क्या हुआ? तो वह भी बोला, कुछ नहीं, लोग जरा गुस्सा हैं मुझसे। अब इसे पराशांति कहें या असत्य की पराकाष्ठा? इतनी मार खा रहा था, पर कह रहा था- कुछ नहीं जी।

पहला शिष्य : फिर आचार्य ने दया दिखाई होगी।

सत्यवान : बिलकुल नहीं। वह पूरा गप्पी है, असत्यवादी है। उस दिन भजन करते-करते भगवान् से बोला कि तुम मेरे प्रियतम हो और मैं तुम्हारी राधा। अब ऐसी मूँछोंवाली राधा है। इसलिए वह ईश्वर उसे मिलना छोड़ कोस-कोस दूर भाग रहा है। इन संतों ने कमाल कर डाला है। इन्हें स्वयं को 'पत्नी' कहलाने में भी शर्म नहीं आती। कुछ तो भगवान् को ही महिला बनाने में नहीं हिचकते, 'मेरी विठाई माई' ऐसा इन संतों को चिल्लाते देख इतना गुस्सा आता है कि इस चोखा सहित सभी को मार लगाने की इच्छा होती है। अरे, तुम्हारे-मेरे भक्‍तों ने या पुत्रों ने कल तुम्हें या मुझे साड़ी, चोली, चूड़ियाँ पहना स्त्री नाम से पुकारना चालू किया तो कितना गुस्सा आएगा? वैसे ही भगवान् को माई कहकर पुकारने से चिढ़ आती होगी। (बच्चों से) क्या खेल रहे थे तुम लोग?

लड़के : लुका-छिपी।

सत्यवान : (हताश स्वर में) हाय-हाय! इस दुनिया को असत्य के रोग से कैसे मुक्‍त किया जाए? इस सत्याश्रम में लुका-छिपी! लुकना-छिपना यानी 'हम वहाँ होकर भी नहीं हैं' का आभास निर्माण करना। मूर्ति यानी असत्य का अभ्यास। बच्चो, इस आश्रम में झूठ का बुद्धिवाद रखनेवाले खेल खेलना प्रतिबंधित है। लड़कियों के लिए भी घरौंदे जैसे खेल प्रतिबंधित हैं। ठंडे चूल्हे फूँकते, मैं सास रसोई बनाऊँ तू बहू यह भात परोस, ऐसा ढोंग करना गुड्डी का खेल नहीं है, यह कुलघाती खेल है। लड़कियों के हाथ में 'गुड्डी' देना तो उसे झूठ बोलने का प्रथम पाठ सिखाना होगा। वह लड़की गुड्डी को असली गुड्डी जैसी देखने लगती है। इस तरह झूठ के धरातल पर विकसित ये बच्चियाँ भविष्य में पतियों को भी झाँसा देकर सुलाने में माहिर हो जाती हैं। इस तरह असत्य से ग्रस्त सारे संसार में सत्य की स्थापना कैसे करूँ? शिष्यो, अभी हम विश्राम करेंगे। अपने अन्य प्रश्न कल पूछें।

: दूसरा दृश्य :

जाफर अली : हमारे यहाँ सूबेदारजी ने जब से हिंदुओं को मुसलमान बनाने के अधिकार हम मौलवियों को दिए हैं तब से इस जाफर अली ने सबसे अधिक काफिरों को दीक्षा दी है। इसलिए अल्लाताला मुझे इसलाम की सबसे सुंदर परी भेंट करेगा, पर इस लोक में भी वह हमें किसी बात की कमी नहीं रखता। अब हिंदू को मुसलमान बनाया कि सूबेदार से सौ सिक्के गिना लेते हैं हम। अकबर बादशाह से भी अधिक लोगों का धर्म परिवर्तन किया है मैंने। अकबर की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म निरीक्षण कर मैंने हिंदुओं की दलदल के कच्चे धागे चुन लिये थे। यदि हम श्रमणों का धर्म परिवर्तन कराने जाते हैं तो वे पूछते हैं कि तुम्हारे पास कौन सा नगीना तत्त्व है? अब यदि कोई तत्त्व-वत्त्व की बात करने लगता है तो अपना तो सिर चकराने लगता है। क्षत्रिय से बात करो तो वह माँगता है जागीर या बादशाह की बेटी। वैश्य, शूद्रों से बात करें तो वे लाभ की बात चलाते हैं। जो काम यहाँ करते हैं वही वहाँ भी करना है तो परिवर्तन के बटेर कुल कलंकित क्यों करें? इस तरह चार वर्णों के लोगों का परिवर्तन कराना बड़ा कठिन काम हो जाता है, जो कि अकबर की पूरी सत्ता भी करने में असमर्थ रही, पर इस मौलवी जाफर की करामात देखिए, इस पट्ठे ने सीधे महारों की बस्ती को लक्ष्य बनाया। चार वर्णों का धर्म परिवर्तन कराने के लिए केवल लाठी का सहारा पर्याप्त होता है, पर अछूतों के लिए तो उसकी भी आवश्यकता नहीं पड़ी। एक बार उनका हाथ पकड़ा और कान में कहा कि देख, तेरे हिंदू कुत्ते को छूते हैं, कुत्ते को घर में रखते हैं, उसे पंचवटी के राम मंदिर में, पंढरपुर के विठोबा के मंदिर में या काशी के मंदिर में घुसकर परिक्रमा करने देते हैं, पर तुझे (तुम महारों) को यह सब करने नहीं देते। बस, यह दोहरा भर देने से उसका हिंदू होने का मोह भंग हो जाता है। दूसरे के कान में मात्र यह कह दो कि तुम अभी मुसलमान हो जाओ तो यही हिंदू तुम्हें छूने को तैयार हो जाएँगे, घर में घुसने देंगे, घोड़े पर बैठने देंगे, इतना ही नहीं, तुम्हारे सामने झुककर सलाम करेंगे। इतनी सी बात से वह फौरन मुसलमान बनने को तत्पर हो जाता है। इस तरह अछूत को छूकर उसे मुसलमान बनाकर पुरस्कार स्वरूप सौ सिक्के खनखनाखन गिनने में बड़ा मजा आता है। है ना इस मौलवी जाफर अली का कमाल! इसके लिए हिंदू धर्म को ही हमें धन्यवाद देना चाहिए। अस्पृश्यता की प्रथा जीती-जागती रखकर तथा उसका अनुशीलन कर हम मुल्ला-मौलिवयों को हिंदू धर्म खत्म करने में सहायता की है। कभी न डूबनेवाले हिंदू धर्म की लुटिया हम निश्चित ही डुबो सकें। पहले इन अछूतों का धर्म परिवर्तन कर बाद में संख्या बल से प्रबल हुए इसलाम के सिद्धांत की बात ब्राह्मण करे तो तलवार की नोंक पर इन सिद्धांतवादी ब्राह्मणों को मुसलमान बनाना ही नीति-यही कार्यक्रम है। ये देखो, मेरी वही शिकार मेरे चंगुल में फँसने चली आ रही है।

शंकर : (प्रवेश कर) मौलवीजी, कमलिनी के मुसलमान बनने की खबर सच है न!

मौलवी : खुदा कसम, इब्राहिम खान ने पहले मुझे सारी जानकारी दी। हिंदुओं ने फव्वारे पर तुम लोगों को जो यातनाएँ दीं उसे सुनकर तो मेरा हृदय बेचैन हो गया। तुम्हें और किशन को पकड़कर ला रहे थे तब मैंने ही बीच-बचाव कर तुम्हें छुड़वा लिया। कमलिनी मुसलमान हो चुकी है तथा तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है-यह खबर मैंने ही तुम्हें सुनाई। इब्राहिम यह भी बोला कि यदि शंकर मुसलमान बनता है तो सूबेदार खुद कमलिनी का विवाह उससे कर देंगे, साथ ही एक जागीर भी उसे भेंट करनेवाले हैं। इसमें एक भी अक्षर झूठ नहीं है। (मन में) एक अक्षर तो क्या, दस-पाँच अक्षर झूठे नहीं हैं। बाकी सब झूठ-ही-झूठ है, पर वे झूठ नहीं, ऐसा मैंने कब दावा किया? एक अक्षर भी झूठ नहीं, यह कहा है मैंने और वो सच है ही।

शंकर : मौलवीजी, क्या मेरे सामने मेरे दोस्त किशन से मिलकर उसको समझाने का प्रयास करेंगे आप? देखो, मैंने मुसलमान बनने का निश्चय कोई कमलिनी को प्राप्त करने के लिए नहीं किया है।

मौलवी : क्षमा करना, बीच में बोल रहा हूँ। तू जो कुछ कह रहा है वह यथार्थ ही है। तुझे हिंदू रहते यदि धर्मच्युत कमलिनी मिली भी तो क्या? फिर से तुम्हें अछूतों के मोहल्लों में ही बसना पड़ेगा। तुम्हारे साथ वैसा ही अन्यायपूर्ण व्यवहार किया जाएगा। कमलिनी की दुर्दशा वे स्पृश्य हिंदू तुम्हारी आँखों के सामने करते रहेंगे। इसलिए कमलिनी की मुक्ति एक दिन के लिए भी घट जाए तो उपयोग क्या? इससे अच्छा है कि तू मुसलमान हो जा, कमलिनी तेरी पत्नी बन जीवन भर ब्राह्मणी से भी अधिक सुख और विलास से रहेगी। वह जन्म भर के लिए मुक्त हो जाएगी।

शंकर : आपकी बात सच है।

मौलवी : देख शंकर, तुम लोगों के कष्टों का मूल कारण अस्पृश्यता नहीं है क्या?

शंकर : इसमें क्या संदेह?

मौलवी : भई शंकर, जब तक तुम हिंदू हो तब तक यह अस्पृश्यता दूर होने की संभावना है क्या?

शंकर : अब ही क्या, अनगिनत पीढ़ियों के बाद भी इसमें परिवर्तन संभव नहीं दिखता।

मौलवी : फिर तो हिंदू शब्द से चिपके रहकर सारे कष्ट सहना आत्मघाती भोलेपन का परिचय नहीं है क्या?

शंकर : है न ...

मौलवी : फिर पगले, पोंछ डाल वह शब्द मन से, मुँह की भाप तक इन दो अक्षरों से चिपके रहकर महाकष्ट क्यों सहते हो? तोड़ दो नाता उस हिंदू शब्द से, कह दो कि मैं हिंदू नहीं, इस वाक्य के साथ ही तुम महार बस्ती से मंदिर में आ जाओगे, पशु से मनुष्य बन जाओगे, प्यादे से फर्जी बन जाओगे। इतना ही नहीं, तेरे सारे भाईबंद तेरे साथ मुसलमान बनकर संपन्न्ता का उपभोग करेंगे। तू अपनी जाति का उद्धारकर्ता बन जाएगा। कहो, मैं हिंदू नहीं हूँ।

शंकर : नहीं, अब मैं हिंदू नहीं, पक्का निश्चय हो गया। मैंने यह शब्द अपने मस्तिष्क से मिटा डाला, जन्म से मेरे मस्तिष्क पर अंकित इस छाप ने मुझे केवल काँटे की चुभन दी है। देखो, यह काँटा मैंने हमेशा के लिए निकाल डाला और पैरों तले रौंद दिया। बोलो, मुसलमान होने के लिए कौन सा दिन विधान करना होगा मुझे?

मौलवी : कुछ भी नहीं। हिंदू धर्म का तीव्रता से धिक्कार करना-यही मुसलमान बनने का प्रथम चरण है, वो तूने कर डाला है। ये चार शब्द दोहरा डालो-ला इलाही इल्लिल्लाह मोहम्मद रसूलल्लाह।

शंकर : (दोहराता है) पर मुझे इसका अर्थ नहीं मालूम।

मौलवी : चिंता नहीं, तुझे हिंदू धर्म में रहने का अनर्थ समझना है न! फिर मुसलमान धर्म का अर्थ नहीं समझता तो कोई चिंता नहीं। परसों तुम मसजिद में आ जाओ, मैं सूबेदारजी से मिलवा दूँगा। अब तुम किशन की चिंता छोड़ो, हिंदू से मुसलमान बनते ही तेरी स्थिति में काफी बदलाव आया है। तेरी तरक्की देखकर वह भी बिना बोले मुसलमान बन गए, परसों ही सूबेदार की अनुमति से तुम्हारी भेंट कमलिनी से कराने की व्यवस्था करूँगा। मसजिद में मिलना, अब तू जा। अब तू मुसलमान हो गया है, मनुष्य बन गया है। शंकर से सिकंदर खान बन गया है तू, जा।

शंकर : (मन में) इसके ये शब्द मुझे कष्ट दे रहे हैं, पर हिंदुओं के बार-बार कहे गए धेड़ शब्द की पीड़ा से कम कष्टदायक हैं। अब मैं अस्पृश्यता की जन्मजात हीनता से मुक्त हो गया। (जाता है।)

मौलवी : अल्लाह, और सौ रुपए मेरी झोली में गिरे। सच यह है कि कमलिनी अभी मुसलमान नहीं हुई है। कहाँ है वो, यह भी मुझे नहीं पता, पर मेरी बताई बातें सब झूठ हैं, यह भी कहाँ पता है उसे। मुमकिन है, कभी पता ही न लगने दें हम और यदि पता लगा भी तो क्या, मेरे सौ रुपए तो डूबनेवाले नहीं। जैसे हिंदू धर्म ने मुझे सौ रुपए दिलाने में मेरी सहायता की है वैसे ही इन्हें मुझसे कोई छीन न सके, इसमें भी हिंदू धर्म ही मेरा सहायक बननेवाला है। हिंदू धर्म में छुआछूत की प्रवंचना ने शंकर को मेरे आँगन में ला पटका है। आगे यदि उसे पछतावा हुआ या सच का पता चला और वह मुसलमान से फिर हिंदू बनना चाहे तो भी उसकी वापसी अस्वीकार्य होगी। हिंदू ही हिंदुओं को मुसलमान बने रहने में मदद करेंगे। हम मौलवी लोगों का काम कलमा पढ़ाना मात्र है। बाकी काम हिंदू लोग स्वयं कर डालेंगे। गर्भ से निकलकर बालक फिर से गर्भ में वापस नहीं लौट सकता, उसी तरह हिंदू से मुसलमान बना व्यक्ति फिर से उस समाज में प्रवेश नहीं कर सकता। अस्पृश्यता उसे हिंदू धर्म से खदेड़ती है। अनेक बार, पतिता को हमेशा के लिए पतिता बनाकर वही हिंदू धर्म उसकी वापसी असंभव बना डालता है। हिंदू धर्म के दरवाजे से निकासी संभव है। हे खुदा, याअल्ला, इन हिंदुओं को ये दो बातें त्यागने की बुद्धि तुम कभी भी न देना। जब तक हिंदू अस्पृश्यता निवारण और शुद्धि कार्य नहीं अपनाते तब तक मुसलमान और उनकी सत्ता फैलती ही रहेगी।

: तीसरा दृश्य :

नृत्य गीत

वारांगना : भोग ले रति रंग प्यारे, करके संग न्यारे।

है अनंग के खेल सुनहरे, खेले निश-दिन प्यारे।

रोज-रोज के सुखदायी क्षण, कभी न जी को उबाते।

होकर मदहोश हमें वे, सदा रिझाते, सदा रिझाते।

गंगा : कमली, ओ कमली! क्या कहूँ इसे, सो गई ये तो। इस काममंदिर की रुनझुन सुनकर समाधि लगा रोगी भी हड़बड़ाकर जाग उठता है, और यहाँ इसे तो गहरी नींद लग गई दिखती है। अभी तक मैंने इसे रिझाने-मनाने की खूब कोशिश की, पर यह समूचे भोग- विलास के प्रति अनासक्त है, पर स्वभाव से बड़ी ही भावुक-मीठी है ये। मैं तो वेश्या ठहरी, देह की सुंदरता से मैंने अनेक लोगों के दिल जीत लिये, पर इसकी आत्मा की सुंदरता ने मेरा मन मोहित कर लिया है। कौन कहेगा इसे अछूत कन्या? मेरे इस कथन में मेरी यह मान्यता झलकती है कि इतनी सुंदर-सुशील कन्या अछूतों में नहीं हो सकती। मानो ऐसे लोग पैदा होने का ठेका केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय वर्णों ने ही ले रखा हो। मैं स्वयं मराठा कन्या हूँ, पर बाल-विधवापन की गर्त से निकलने के लिए मैंने वेश्या का सहारा लेना भी गलत नहीं माना। अछूतों के यहाँ इतनी सुशील कन्या पैदा हुई, यह कोई आश्‍चर्य नहीं। मराठों के कुल में मुझ जैसी वेश्या पैदा होना ही आश्‍चर्य है। वास्तव में मेरे इस वेश्या मंदिर में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, महार, माँग, हिंदू या मुसलमान जो कोई भी आए, उससे जाति-धर्म पूछे बिना मनुष्य के नाते केवल उसको स्वीकारा जाता है। जाति-पाँति के कपड़े उतारकर ही आदमी यहाँ उसके असली रूप में स्वीकारा जाता है। हजारों बार वह वैसा प्रकट भी हुआ। बचपन के संस्कारों की छाप अमिट रहती है, यही सच है। कमली, उठ बेटी, थोड़ा सा खा ले। (कमल उठती है।) बेटी, ये सच है कि हम वेश्याओं को प्रेम का नाटक करने की आदत रहती है, पर भगवान् की सौगंध, मैं तुझसे अपनी बच्ची जैसा प्यार कर रही हूँ।

कमलिनी : (मन में) क्या करूँ मैं ! वास्तव में इस वेश्या के इस तरह के स्पर्श से मुझे घिन आ रही है, पर इसके मुलायम स्वरों के प्रेमजाल में मेरा दिल घिर सा गया है। (प्रकट) पानी चाहिए था मुझे थोड़ा सा।

गंगा : अभी ला देती हूँ, बेटी। इस तरह तू मुझसे माँगती है तो बड़ा अच्छा लगता है मेरे मन को। (उसके मुँह को सहलाती है और पानी लाने जाती है।)

कमलिनी : हे भगवान्, कहाँ आ पड़ी मैं!

गीत

हे प्रभो, तूने मुझे किस द्वार पर डाला?

फुलवारी में खिला जो, नर्क में क्योंकर गिराया।

उन दरिंदों ने मुझे फव्वारे से भगाकर यहाँ छिपा रखा है। कहाँ होगा मेरा किशन? कहाँ होगा मेरा शंकर? कहाँ खोजते फिर रहे होंगे वे मुझे? प्रियतम की याद आते ही मेरा दिल दो फाँक हो जाता है। किसीके गले लगकर जी भरकर रोने की इच्छा होती है।

गंगा : (प्रवेश कर) ये क्या बेटी, तुम्हारी आँखों में आँसू ! पानी लो, रोओ नहीं। प्रियतम की याद सता रही है क्या? किसी प्रिय को अपना दुखड़ा बताना चाहती हो न, कमला ! हम वेश्याओं को दूसरों के मन के भाव उसकी मुद्रा से पहचानने की बार-बार आवश्यकता पड़ती है, इससे दूसरों की भाव-भावना से समरस होने की हमारी सहानुभूति की शक्ति सहज ही बहुत विकसित हो जाती है। अपनी वह सहानुभूति हम छिपा सकती हैं, रोक सकती हैं, पर मार नहीं सकतीं। इसीलिए तुझे देखते ही मैं सबकुछ समझ गई कि तुझे प्रिय से बातें करनी हैं। तेरे काँपते होंठ, थर्राते गाल यही बताते हैं कि तुझे किसीके गले से लगकर रोने की इच्छा हो रही है। आ मेरे पास। (कमलिनी उससे लिपटकर रोने लगती है।) देख, मैं यह नहीं कहती कि तू मुझे अपनी माँ समझ ले, पर मैंने तुझे अपनी बेटी मान लिया है। इसलिए मेरे प्यार को सच मानकर निश्चिंत रह।

कमलिनी : गंगाजी, आपके ये आत्मीय शब्द अमृत-बूँद जैसे मेरे प्रिय वियोग में तृषित और तप्त हुए मन को मधुर लग रहे हैं। मैं तो आज पूर्ण रूप से आपके अधीन हूँ। बेटी न मानकर यदि आप नौकरानी जैसा भी रखें तो मैं कुछ भी प्रतिकार नहीं कर सकती। फिर भी आपने मुझे माँ सा लाड़-प्यार दिखाया है, उससे मेरे मन में उपजी सारी आशंकाएँ समाप्त हो गईं। अब मेरा नजदीकी आत्मीय यहाँ कोई है भी तो नहीं। जो कुछ है, आप ही हैं। सच कहूँ, मुझे आपके मंदिर की, निवास की, व्यवहार की, यहाँ आते आदमियों की, गंध की, विलास की, रूप की, हर वस्तु की घिन आ रही है-क्षमा करें मुझे, परंतु ...

गंगा : तुझे क्षमा करने के स्थान पर मैं ही तुझसे क्षमा माँगना चाहूँगी। तू जो कुछ कह रही है वे सारे शब्द मुझे पहली बार सुनने को नहीं मिल रहे। यह देख, मेरे हृदय के जिस मंदिर में मैं रहती हुई तुम्हें दिख रही हूँ, उस काम मंदिर से घृणा होना स्वाभाविक है, पर इससे भी अलग मेरे हृदय भवन में एक और मंदिर है। उस भाव मंदिर में एक अत्यंत प्रभावशाली देवता रहते हैं। मेरे हृदय भवन का वही देवघर है। उसके प्रभापुंज से मेरे ये चर्मचक्षु चौंधिया जाते हैं। इसलिए मैं उस मंदिर में न जाकर इस काम मंदिर में ही काँच के झूमते झलकनेवाले परिमित प्रकाश को देखती रहती हूँ। फिर भी मेरे हृदय मंदिर में बसे देवघर के देवता के शब्द मुझे वहाँ भी बीच-बीच में सुनाई देते रहते हैं। तू जो भाषा बोल रही है न, उसी भाषा का प्रयोग करते हैं वे। विगत अनेक दिनों से अन्न-जल-भोग त्यागकर अपना हिंदू धर्म कैसे बचाया जाए, इस चिंता में मग्न तुझे जब मैं देखती हूँ तो तेरे ऊपर गुस्सा न आकर गर्व ही होता है तेरी इस धर्मभक्ति पर।

गीत

हे देवी तुम मातृ रूपिणी शक्ति हो

मेरे मन मंदिर की श्रद्धामयी देवी हो।

कमलिनी : गंगाजी, इसका मतलब कि अब भविष्य में आप मेरे इस निश्चय को भंग करने का प्रयास नहीं करेंगी, है न! मुझे धन-दौलत, मान-सम्मान नहीं चाहिए। मेरे प्रियतम से मेरी भेंट पुनः नहीं कराई तो भी कोई बात नहीं। मेरी लज्जा भी बलि चढ़ गई तो भी चलेगा, पर किसी भी कीमत पर इब्राहिम खान या किसी भी अन्य मुसलमान के द्वारा मेरे कौमार्य से खिलवाड़ न करने दिया जाए, इतनी भर मेहरबानी आप मुझपर अवश्य करें। उस दिन जो ब्राह्मण मुझे यहाँ भगाकर लाया...

गंगा : उस नीच नारंभट का तो तुम नाम भी न लो।

कमलिनी : वह नारंभट तो है ही, पर फिर भी उसने अधर्म नहीं किया, यही मैं आपसे कह रही थी। जब उस दिन वह इब्राहिम खान मुझसे छेड़छाड़ करने लगा तब उसने उसे साफ सुनाया कि यदि तूने इस लड़की को जबरन मुसलमान बनाने का प्रयास किया तो मैं अविलंब यह बात सूबेदार बंगश खान को जा बताऊँगा और इसे आजाद करा ले जाऊँगा। इब्राहिम की मंशा सूबेदार को बिना बताए मुझे अपने पास रख लेने की है। उसे पता है कि यदि मैं सबेदार की नजरों में पड़ गई तो वह मुझे अपने भोग-विलास के लिए रख लेगा। इसलिए वह डरकर जरा सा पीछे हटा। उस ब्राह्मण को आपने नराधम कहा जिसने मेरे साथ थोड़ी छेड़खानी अवश्य की, पर उस नीच ने भी मुसलमान को मुझसे छेड़खानी नहीं करने दी। जिस तरह आप उस ब्राह्मण को नीच, नराधम कह रही हैं, उससे आप किसी मुसलमान की हवा भी मुझे लगने न देंगी, ऐसा मैं विश्वास करती हूँ। बचपन में मेरी माँ कहती थी कि विजयनगर राज्य में किसी सुनार की लड़की ने हिंदू राजा को छोड़ जब मुसलमान को चुना था तो उसकी बहुत भर्त्सना हुई थी। तब से उसके मन में यही दृढ़ संकल्प रहा कि किसी मुसलमान बादशाह की अपेक्षा मैं किसी हिंदू भंगी से भी विवाह करना पसंद करूँगी, पर उस अहिंदू राजा से समझौता नहीं करूँगी। मैं उसी माँ की बेटी हूँ, मेरा यह कुलव्रत, मेरा धर्म अब आप बचाइए, क्योंकि आप भी हिंदू ही हैं।

गंगा : इसमें क्या संदेह! तेरे साफ-सुथरे व्रत की सिद्धि हेतु जहाँ तक बनेगा, मैं प्रयास करूँगी। तेरे शब्दों से मुझे भूली-बिसरी बातें स्मरण आने लगी हैं। बेटी, हम हिंदू कन्याएँ हैं। इसी रिश्ते से, कर्तव्य भावना से मैं तेरी पवित्रता की रक्षा करूँगी। चाहे वह कोतवाल इब्राहिम हो या सूबेदार बंगश खान हो। मैं अपनी चालों से उसके सारे दाँव-पेच समाप्त कर डालूँगी। उसकी गजांत लक्ष्मी तुझे अब लुभा नहीं पाएगी। हे हिंदू लड़की, मेरा-एक हिंदू वेश्या का हृदय तुझे अपना थमा रहा है। यह हाथ अनेक पापों से मैला हुआ है, पर उसे पकड़ने में संकोच न करना। वह मैला केवल चमड़ी को लगा है। अंदर का रक्त, मांस, मज्जा और प्राण अभी भी निर्मल हैं। हिंदू थे, हिंदू ही हैं। अतः मैं सबकुछ लुटाकर तेरे हिंदुत्व की रक्षा करूँगी।

कमलिनी : माँजी, तेरे अनंत उपकार होंगे।

गंगा : पगली, उपकार अभी मत मान, हम वेश्याएँ हैं। हमारे बोलने का अर्थ हमारे आचरण के बाद ही निकाला जाता है। जब काम पूरा हो जाए तभी आभार प्रकट करना। आ, मेरे पास आ। गले लग जा। बहुत दिनों बाद सच्चे प्रेम की भेंट मुझे मिलने दे और क्रोध न कर।

गीत

बेटी तुझे चूमने को जी चाहता है।

तरे निष्पाप बदन को छूने को जी चाहता है।

तेरे मुख-चंद्र को सहलाने को जी चाहता है।

ओह, कितना सुकून मिल रहा है तुझे छूने से। आज तक सवर्णों को छूकर भी मुझे जितनी राहत नहीं मिली, उतनी, अहा हा! एक महार बाला! आज तक लिये आलिंगन के पापस्पर्शों से बधिर, कपटपूर्ण और निर्दय हुआ मेरा हृदय-ऐ महार बाला, तेरे इस अछूत स्पर्श से-पुण्य स्पर्श का सुख कितना दिव्य होता है, आज पहली बार यह अनुभव कर रहा है। मेरे हदय को आज निस्‍स्वार्थ दया ने स्पर्श किया। अब तुम मुझे प्यार भरे- नाम से बुलाया करो। ऐसा लगने लगा है, तुम मुझे 'ताई' (दीदी) कहोगी।

कमलिनी : हाँ, आज से तू मेरी ताई।

: चौथा दृश्य :

[ स्थान : पटेल निवास। नारंभट पोथी लेकर आ रहे हैं।]

नारंभट : अभी तक क्यों नहीं आ रही यह मालिनी, पुराण सुनने ! इस पटेल के घर जब मेरी कुलगुरु पद पर-इस युवा पटेलन मालिनी को पुराण सुनाने के काम पर-नियुक्ति हुई, एक ही डर सताता रहता था कि कहीं पटेल भी पत्नी के साथ पुराण श्रवण करने न बैठे, पर पटेल ने स्वयं ही उस संकट का परिहार कर डाला। अब रही वह बूढ़ी मौसी, उसे किसी तरह टालना चाहिए, नहीं तो मेरे पुराण कथा का प्रतिफल मिला ही समझो। मेरे मन की बात मालिनी के दिल से मेल खाती है ही। बस, अब केवल एकांत भर मिलना चाहिए कि सबकुछ मेरे हाथों में होगा। आज उसने कहा ही था कि मौसी को टालकर आती हूँ, पर अभी तक क्यों नहीं आई? अरे, राम-राम! उसके साथ वह बढ़िया आ रही है। यह तो अच्छा है कि बुढ़िया भोली है, उसे हमारे बीच पनप रहे रहस्य की जरा सी भी भनक नहीं है।

बुढ़िया : क्यों पुराणिकाजी, आज हमें नए काव्य का आरंभ करना है न!

नारंभट : (उसकी उपेक्षा करते हुए मालिनी से) क्यों, ठीक है न! मुहूर्त मिला क्या?

मालिनी : हाँ, यही पूछने आ रही थी कि पुराण का समय हुआ या नहीं।

नारंभट : बिलकुल। हम तो आपके मुखचंद्र के उदित होने की राह देख रहे थे। कामिनी के शीतल मुखचंद्र का उदित होना-यही मुहूर्त आज हम पढ़ने जा रहे हैं, यही रूपावलि काव्य में बताया गया है। कौन सा काव्य निकालें? पंच महाकाव्य में अग्रणी समझा जानेवाला रूपावलि या समासचक्र।

मालिनी : फिर वही रूपावलि काव्य ही पढ़ें।

नारंभट : ठीक है। ॐ श्रीगणेशाय नमः। (पोथी के पन्ने पलटते हुए) अब हम रूपावलि का पठन आरंभ कर रहे हैं। हे कामिनी, तुम मेरी तरफ एकाग्रता से ध्यान दो। मौसीजी, आप थोड़ा पीछे हटकर बैठिए। ध्यान रहे, पोथी बीच में है। हाँ, रूपावलि नाम की एक गोपी अपने पूर्वजन्म में किसी क्षत्रिय की पत्नी थी। सुन रही हैं न! उसने दुर्भाग्य से एक ब्राह्मण का मन दुःखा दिया। ब्राह्मण ने उसे भयंकर श्राप दिया।

मालिनी : ये तो गद्य निरूपण है। पद्य नहीं है क्या? मुझे बचपन से संस्कृत श्‍लोक सुनने का बड़ा मन रहा। यदि उस काव्य में कोई संस्कृत श्‍लोक हो तो एकाध तो पढ़िए। मेरे पिताजी, जो संस्कृत के ज्ञाता थे, भी कहते थे कि रूपावलि काव्य और उसके श्‍लोक बहुत ही सुमधुर हैं।

नारंभट : अच्छा, तुम्हारे पिताजी भी, रूपावलि काव्य है, ऐसा कहते थे। तब तो वे मेरे जैसे ही विद्वान् पंडित रहे होंगे। हे सुंदरी, संस्कृत का एकाध ही क्यों, मुझे हजारों श्‍लोक मुखोद्गत हैं, पर उनमें से कुछ महिलाओं एवं क्षुद्रों के सामने कहना प्रतिबंधित हैं। (मन में) क्या करूँ, मुझे तो एक भी श्‍लोक स्मरण नहीं आ रहा। (खुले में) अरी सुलोचना, इस रूपावलि काव्य में वेदांत से संबंधित श्‍लोक बहुत हैं। उन्हें महिलाओं के सामने कैसे पढ़ूँ ? ( स्वगत) हाँ, स्मरण हो आया एक श्‍लोक। (खुले में) हाँ, उसमें से एक शास्त्रीय चर्चा न करनेवाला, मैं सुनाता हूँ। तुम लोग जरा आगे आओ, यानी ठीक से सुनाई देगा। (दोनों आगे सरकती हैं। बुड्ढी को रोकते हुए।) हाँ, हाँ, इतना आगे नहीं। सामने पोथी जो है। अब रूपावलि काव्य पठन आरंभ करता हूँ-

सुमुखश्‍चैकदंतस्य कपिलो गजकर्णकः।

लंबोदरश्‍च विकटो विघ्ननाशो गणाधिपः॥

मालिनी : अरे, ये कौन सा उल्लेखनीय श्‍लोक है? ये तो ब्राह्मणों के छोटे से बच्चे रटा करते थे हमारे घर के सामने।

नारंभट : कहते हैं न, उसमें कौन सी बड़ी बात है ! तोते क्या 'रामचंद्रजी' नहीं रटते? खरा महत्त्व, खरी सुंदरता, हे सुंदरी, अर्थ में है। बच्चों को अर्थ या भाव थोड़े ही समझ में आता था। इस एक श्‍लोक के कुल तेरह अर्थ बताए गए हैं। उनमें से एक अर्थ सुना है लावण्य लतिका।

मालिनी : छिः, इस तरह बार-बार मेरी लावण्य लता पर चढ़ने का प्रयास करना उचित नहीं। एकाध बार पैर फिसलकर गिरने का और दाँत टूटने का डर भी रहता है उसमें।

नारंभट : कोई हर्ज नहीं। कामशास्त्र में कहा ही है-'दंतच्छेदी हि नागांना श्‍लाघ्यो गिरिविदारण।' अर्थ बताऊँ इसका?

मालिनी : आप तो पहलेवाले का अर्थ बताएँ। कामशास्त्र के श्‍लोक का अर्थ तो अपने आप धीरे-धीरे मेरी समझ में आने लगा है।

नारंभट : सुमुखश्‍चैकदंतस्य कपिलो गजकर्णकः। एक बार क्या हुआ, कपिल नाम के ऋषि को शंकरजी ने श्राप दिया कि तू रोगाक्रांत होगा। समझीं।

मालिनी : शब्दों को जरा और स्पष्ट कीजिए।

नारंभट : हे सुमुखी, सुनो। तस्य कपिलो गजकर्णकः का अर्थ है, एक कपिल ऋषि को 'लंबोदरस्य विकटो' यानी उसकी तोंद के ठीक नीचे 'कटि' यानी कमर पर 'गजकर्णकः' यानी भयंकर खुजली रोग हुआ। उसकी पीड़ा की कल्पना भी नहीं की जा सकती, इतना कष्ट था उसे। जलन-ही-जलन हो रही थी। सारा बदन जल रहा था। कपिलो गजकर्णकः (बुढ़िया से) हाँ, हाँ, जरा दूर सरक के बैठने को कहा है, कितना आगे सरक जाती हैं आप। आगे रखी पोथी का तो खयाल करिए। मैं जैसे आसन लगाकर बैठा हूँ वैसे स्थिरासन में बैठिए आप। (परदे से कोई पुकारता है।) मौसीजी, शायद पटेल साहब बुला रहे हैं आपको।

मौसी : जाके आऊँ थोड़ी?

नारंभट : थोड़ी सी क्यों, आप पूरी-की-पूरी जाएँ। पटेल साहब बुला रहे हैं तो जाना ही पड़ेगा। सारा शहर जिनके शब्दों पर चलता है उनकी पुकार तो सुननी ही है। (मालिनी भी उठने लगती है।) अरे-अरे, कथा श्रवण करते समय बीच में क्या कोई युवा लड़की उठती है? अब मैं जो अध्याय पढ़ने जा रहा हूँ वह मौसी ने अपने जीवन में पहले ही पढ़-सुन लिया है। इसलिए मौसी जा सकती हैं।

मौसी : बैठ बेटी, तू बैठ। मैं देखती हूँ। (जाती है।)

नारंभट : (मन में) यही समय है। शापादपि शरादपि-ब्राह्मण के बच्चे नारंभट बढ़ आगे। (मौसी को जाते देख।) गईं क्या मौसी? होंगी यहीं-कहीं।

मालिनी : होगीं, आप तो स्थिर आसन पर बैठकर पुराण सुनाएँ। वह तो गईं।

नारंभट : वह रूपावलि नाम की गोपी अत्यधिक सुंदर थी। क्या वर्णन करूँ मैं उसकी सुंदरता। उसकी ठोड़ी को मानो...(उसकी ठोड़ी छूने का प्रयास करता है।)

मालिनी : हाँ-हाँ, जरा पीछे ही रहिए। पोथी है सामने। (पीछे सरकती है।)

नारंभट : (पोथी हटाकर खड़ा होता है।) मालिनी, हे लावण्यशालिनी! देख, ये पोथी मौसी जैसी ही दूर हटा दी मैंने। तेरे-मेरे बीच में अब कोई रोक नहीं। फिर अब पास आने में क्या हिचक है?

मालिनी : ऐसा क्यों करते हैं आप? शरीर को छूना क्या उचित है? आप ब्राह्मण, मैं क्षत्रिय!

नारंभट : इसलिए तो हमारे प्रेम-संगम में शास्त्रों का भी कोई प्रतिबंध नहीं। इसे अनुलोम और प्रतिलोम पद्धति कहा गया है।

मालिनी : माने?

नारंभट : अरे पगली, अनुलोम यानी यदि किसी ब्राह्मण का प्रेम किसी क्षत्रिय पर आया और उसका भी प्रेम ब्राह्मण पर हो गया (स्वगत) आय हाय, क्या शरमा रही है, यह क्या लटके-झटके दिखा रही है। (प्रकट) यदि वह क्षत्रिय कन्या संकोच से ब्राह्मण को अकेला देख थोड़े से पीछे मुड़कर खड़ी रहे तो ब्राह्मण को उससे अनुलोम विवाह करना चाहिए। लोम यानी केश, अनु यानी पीछे से। अर्थात् इस तरह लज्जा विमुख उसे पीछे से आगे मोड़कर उसके मुख कालेना चाहिए। और उसे भी ऐसा ही देना चाहिए।

मालिनी : अर्थ बताना ये वैसे ही आचरण कर दिखाना नहीं होता। बिना लिये-किए भी मैं समझ सकती हूँ। इसलिए दूर से ही समझाइए आप, प्रतिलोम क्या होता है?

नारंभट : बताता हूँ। अनुलोम एवं प्रतिलोम दोनों विवाह पद्धतियाँ बताता हूँ। फिर जो उचित लगे, उस तरीके से स्वीकार करना मुझे। अनुलोम में केश के पीछे से आकर यानी पीठ पीछे से आकर पाणिग्रहण करते हैं, पर यदि वह क्षत्रिय कन्या अपने प्रियतम ब्राह्मण को मन दिखावे के लिए-दूर हटकर बात करिए-कहती है, दूर जाने का नाटक करती है तो प्रतिलोम विवाह करना चाहिए। प्रति यानी 'उससे' लोम यानी 'लटककर' अर्थात् ऐसे गले में गलबाँहें डालकर विवाह करना। अनुलोम में पीछे से तो प्रतिलोम में ताल ठोंककर सामने से कामिनी को बाजुओं में लेना मात्र रहता है। ऐसे प्रतिलोम विवाह से जो खुश न हो सके, ऐसी क्षत्रिय बाला शायद ही कोई होती है। असली क्षत्रिय कन्या कभी भी प्रतिलोम विवाह से दूर नहीं भागती-वह वश में हो जाती है। (उसके गले में हाथ डालने की चेष्टा। मौसी आती है।)

मौसी : अरे, ये क्या कर रहे हैं, पुराणिकजी? मुझे बताए स्थिरासन को छोड़ आप यहाँ कैसे पहुँच गए? पुराण समाप्त हुआ क्या?

नारंभट : समाप्त कैसे होगा? मैं कथा शुरू ही कर रहा था। इतने में एक बिच्छू निकला पास से। मालिनीजी को काट लेता, इस डर से ...

मालिनी : बिलकुल काटनेवाला था वह मुझे। यहीं...हाँ, पास से ही निकला था।

मौसी : (घबड़ाकर दूर होते हुए) अरे बाप रे, फिर किसीको आवाज दे देनी थी। सुरेरामजी दौड़ो। (परदा गिरता है।)

: पाँचवाँ दृश्य :

[ स्थान : पटेल के घर के सामनेवाला रास्ता।]

शंकर : (स्वगत) वह किशन आते दिख रहा है। मुसलमान होते ही इसने मेरा मुँह न देखने की प्रतिज्ञा की है, परंतु मेरा उसके प्रति लगाव अभी भी कम नहीं हुआ। ये तो मेरा बचपन का साथी है जिसको पाने की लालसा में मैंने मुसलमानियत स्वीकारी-हाँ, मुसलमानियत ही मुसलिम धर्म नहीं, क्योंकि मुझे उस धर्म की कुछ भी जानकारी नहीं। जो कुछ है, उससे यह निश्चित पता लगता है कि हमारे संत चोखा महाराज जो शिक्षा देते हैं, वैसी कोई ऊँची पवित्रता वहाँ नहीं है। इसलिए मैं मानता हूँ कि मैंने वह धर्म नहीं स्वीकारा है। मैंने छुआछूत के भेदभाव से पीड़ित होकर केवल रक्षात्मक दृष्टि से मुसलमानियत स्वीकारी है। जिसको पाने के लिए मैंने यह सबकुछ किया है। उस लाड़ली कमलिनी के भाई किशन से मेरा लगाव अभी कम नहीं हुआ। इसे भी मुसलमानियत स्वीकारने को कहकर इस अस्पृश्यता के कलंक से मुक्त कराने की मेरी मन से इच्छा है। वह पूरी करने का फिर से एक बार प्रयास करके देखूँ। पंढरपुर के संभाजी पटेल की बहन कोला की खोज में सहायता प्राप्त करने आज यहाँ आ रहा है। यहाँ-वहाँ उससे 'हिंदू अछूत' के नाते कैसा व्यवहार किया जाता है और मुसलमान बने मुझसे कैसे बरताव किया जाता है, इसका अंतर प्रत्यक्ष देखने को मिल जाएगा। उसे देखकर ही हिंदू समाज में रहने की उसकी इच्छा समाप्त हो जाएगी। अभी भी यदि चेतता है तो अच्छा होगा। चलो, पटेल के घर चलें। (जाता है।)

: छठवाँ दृश्य :

[अंदर का परदा उठता है। घर के सायबान पर पटेलजी और अन्य कर्मचारी बैठे हैं।]

संभाजी : क्यों भाई, उस चोखा के बारे में मेरे पास काफी शिकायतें आ रही है। मैंने उसके बारे में नारंभट से पूछा। उसे पंढरपुर के मंदिर से लोगों ने भगा दिया। ऐसा भीकू सेठ भी कह रहे थे।

कर्मचारी : क्या कह रहे थे? स्वयं उन्हें भी उसे धक्के मारकर भगाए बिना रहा नहीं गया। इन धेड़ों ने तो सारा भ्रष्टाचार मचा रखा है। उस चोखा पर तो पागलपन सवार हो जाता है। वह सबसे कहता फिर रहा है कि अब तो प्रत्यक्ष भगवान् आकर उसे प्रसाद खिलानेवाले हैं।

पटेल : सच है क्या? हम क्षत्रियों के मकान छोड़ इस धेड़ के यहाँ भगवान् जाएँगे! पाजी कहीं का। कुछ भी गप्प हाँकता रहता है। इसकी जीभ खींच लेनी चाहिए। ऐसी बातें कहकर वह धेड़ों को हम उच्च वर्णियों का विरोध करने के लिए उकसा रहा है।

किशन : (प्रवेश कर) जोहार माई-बाप!

पटेल : कौन है रे तू?

किशन : मायापुर का महार अछूत हूँ मैं।

पटेल : और इतने आगे बढ़कर खड़े हुए हो। शर्म नहीं आती। मायापुर के रहो या ब्रह्मपुर के, धेड़ तो धेड़ ही रहेंगे। हट, पीछे हट।

किशन : हटता हूँ, हुजूर, पर मेरी एक फरियाद तो सुनिए। मेरे शब्द आपको सुनाई दे सकें, इतनी दूरी पर तो खड़ा होने दें मुझे। देखिए जी, मेरी बहन को मार-पीटकर कुछ लोग भगा ले गए हैं।

शंकर : (एकाएक आगे आकर) पटेल साहब ...

कर्मचारी : अरे हट, पीछे हो, तू भी अछूत ही है न! अभी तक उसके पीछे जो खड़ा था।

शंकर : हाँ, मैं भी महार-अछूत हूँ।

पटेल : पीठ पर कोड़े लगाओ सालों के, जबरदस्ती आगे घुसपैठ कर रहे हैं। दाँत तोडे जाएँगे।

शंकर : हाँ-हाँ, इसलिए आप अपना मुँह बंद रखें। मैंने अछूतों में जो शर्मनाक था, वह छोड़ दिया है। परसों तक इस किशन की भाँति मैं हिंदू अछूत था, पर लज्जास्पद हिंदुत्व छोड़कर मैंने मुसलमानियत स्वीकार की है। इस शुभ कार्य पर खुश होकर सूबेदारजी ने मुझे सिपाही से दुपारी नाइक का दर्जा दिया है। उन्हीं का संदेश बताने आया हूँ मैं। मैं अब हिंदू महार नहीं रहा। अब मेरी छाया पड़ने से आप अपवित्र होते हैं या नहीं, यह साफ बता दें।

पटेल : मुसलमान हो गए हो तुम?

शंकर : सूबेदार बंगश खान के सामने हुआ हूँ मैं।

कर्मचारी : फिर आपकी छाया स्पर्श का कोई बखेड़ा नहीं।

पटेल : ठीक तो है। मुसलमान बनने पर काहे की छुआछूत। आइयो नाई काजी, ऐसे बैठक पर बैठिए।

शंकर : पर मैं हिंदू महार से मुसलमान हुआ हूँ।

पटेल : हुआ होगा। मुसलमानों को छूने या उनके साथ बिलकुल नजदीक बैठने में हम छूत नहीं मानते। आओ, बैठो यहाँ। जो छड़े अछूत हैं उनका बीज-रक्त सभी पूर्वार्जित कुसंस्कारों के कारण दूषित रहता है।

शंकर : पर वही रक्त, वही बीज, वहीं मांस अभी भी मेरे शरीर में है। अणु मात्र भी बदला नहीं है।

कर्मचारी : उसके अलावा ये अछूत लोग बहुत ही गंदे रहते हैं। खाना-पीना सब गंदा रहता है।

शंकर : पर ये किशन जिस बस्ती में रहता है, वहाँ के अधिकतर लोगों ने 'वारकरी' धर्म की माला ग्रहण की है (वारकरी=व्रती)। इस किशन का परिवार तो लहसुन भी नहीं खाता। मांस-मछली की तो बात ही नहीं। वे रोज नहाते हैं, भजन करते हैं। रही अछूतपन के मैले की बात, तो कल मुसलमान बनते ही छूट थोड़े ही गया है। मुसलमान बनने के बाद मैंने स्नान भी नहीं किया है।

पटेल : उसपर भी एक और बात है। ये छड़े मृत मांस ही नहीं, मृत गोमांस भी खाते हैं।

शंकर : पर मैंने आपसे पहले ही कहा था कि इसी तरह लहसुन-प्याज न खानेवाले हिंदू महार भी होते हैं। उन्हीं में से एक मैं था। तब तक तो कभी-कभी ही मैं मृत मांस खाते औरों को देखता था, पर अब मुसलमान बनने के बाद से तो मैं खुद जीता गोमांस खाने लगा हूँ।

पटेल : क्यों मजाक उड़ा रहे हैं, नाइक साहब? अजी, जीता गोमांस खाना तो मुसलमानों का धर्म ही है। आइए, बैठिए यहाँ।

शंकर : कुछ जातियाँ चोरी करना अपना धर्म मानती हैं। क्या उन्हें चोर होने के नाते तुम लोग धिक्कारोगे नहीं? चोरी को धर्म मानने से वह व्यक्ति बड़ा धार्मिक प्रतिष्ठित तो नहीं हो जाता। मृत गोमांस की जितनी दुर्गंध मेरे बदन से पहले आ रही थी उतनी ही आज भी आ रही है। फिर मात्र मुसलमान बनते ही आप मुझे पास बैठाने को तैयार हो गए। वैसे, इस हिंदू महार को हिंदू बने रहकर भी तुम्हारे पास बैठने-बनाने लायक कोई प्रायश्चित्त शास्त्रों में नहीं है क्या?

कर्मचारी : अछूतों को काहे का प्रायश्चित्त होगा, नाइक? संभव है कि इस जन्म में सत्‍कार्य करने के कारण वे अगले जन्म में ऊँची जाति में पैदा हों, लेकिन इन्हें इस जन्म में कोई छूट नहीं।

शंकर : पर मेरा पुनर्जन्म तो हुआ नहीं है। एक ही दिन में मैं स्पृश्य कैसे बन गया? मैंने कौन सा प्रायश्चित्त किया है!

कर्मचारी : मुसलमान हो गए न आप! यही प्रायश्चित्त है। हिंदू रहकर धेड़ों को स्पृश्य बनते नहीं बनता, मुसलमान बनने पर वह हिंदू ही नहीं रहता तो अछूत कैसे रहेगा? अपने आप उसकी शुद्धि हो जाती है।

शंकर : इसका मतलब यह कि इस किशन को मुसलमान बनते ही आप इसे अपने पास बैठने देंगे।

पटेल : बड़ी खुशी से। धर्म जो है, रूढ़ियाँ भी हैं। हम हिंदू लोग अपनी धर्म-प्रथाएँ प्राण गए तक भी नहीं छोड़ सकते। महार जब तक हिंदू है तब तक प्राण जाए तो भी हम उन्हें नहीं छू सकते, पर वही मुसलमान बन जाएगा तो प्राण गँवाने पड़े तो भी छूना नहीं छोड़ेंगे। अरे नाइकजी, छोड़िए यह व्यर्थ की चर्चा। आइए, विराजिए यहाँ (हाथ पकड़कर बैठाता है।)

शंकर : (हाथ को झिड़ककर) कल मेरे हिंदू महार रहते यदि आपने मेरा हाथ थामा होता तो मेरा मन कृतज्ञता से मक्खन की तरह पिघल गया होता। आपकी उदारता से मैं इतना प्रभावित हुआ होता कि भगवान् मानकर आपके पैर की धूल सिर-माथे धारण की होती, पर तब आप मेरी छाया को भी छूना नहीं चाहते थे और अब मेरे हिंदू धर्म त्यागते ही जबकि तुम्हारे देवताओं की मूर्ति पूजना भी मेरे लिए पाप हो गया, तब आप मुझे हाथ पकड़कर पास बैठाने को तैयार हैं। आपकी इस चाटुकारिता को मैं धिक्कारता हूँ। चल किशन, अस्पृश्यता का काला दाग छुड़ाने के लिए और महार से 'मनुष्य' बनने के लिए मेरे साथ चल। मात्र 'मैं हिंदू नहीं' इतना भर कह दो। एक 'हिंदू' शब्द अपने दिमाग से निकाल डालो और चौबीस घंटे के भीतर इनके पास सटकर बैठो। इनके नायक बन जाओगे तुम एक रात में। हिंदू रहकर पूरे जगत में तुम्हारी शुद्धि नहीं होगी। वह हिंदू शब्द मिटा दो और इसी क्षण से 'तू राही कहलाएगा' ऐसा हिंदू धर्म ही बताता है।

किशन : इन लोगों का हिंदू धर्म भले ही ऐसा कहता हो, पर मेरा हिंदू धर्म ऐसा नहीं कहता। वैसा हिंदू रहकर मैं एक जन्म के बाद सत्‍कार्य करके शुद्ध और स्पृश्य बन जाऊँगा, यह तनिक सी आस भी मेरे लिए इस जन्म में पर्याप्त रहेगी। यदि मुसलमान हो जाऊँगा या अन्य कोई भी अहिंदू धर्म अपनाऊँगा तो किसी जन्म में भी शुद्ध होने की आशा न रहेगी, स्वधर्मत्याग का पाप धोया नहीं जाएगा, मेरे भाई।

शंकर : छि:, उस धर्म के नाम का पत्थर मेरे गले में बाँध मुझे नरक में फिर से मत धकेलो, भाई। मैं अब शंकर नहीं, सिकंदर खान हूँ।

किशन : ठीक है, सिकंदरजी, हिंदू धर्म का त्याग करने से मुझे कितना लाभ होगा, यह समझाने की तुमने निरंतर चेष्टा की है। हिंदुओं द्वारा अछूतों को पीड़ित किया जाता है, यह तू सिद्ध कर रहा था। अब अछूत भी हिंदू है। तो क्या तुम यह ध्वनित नहीं कर रहे कि हिंदू महार ही अछूतों का उत्पीड़न करते हैं। यही तात्पर्य निकलता है तुम्हारे कथन का। हिंदू समाज का एक हिस्सा अज्ञान और अहम् के कारण उसी समाज के अस्पृश्य माने गए लोगों का उत्पीड़न करता है, यह तो सच है ही, पर एक हिस्से की गलती के लिए हिंदू समाज छोड़ने का विचार करना अपने आपको छोड़ जाने जैसा पागलपन मात्र है। हिंदुत्व छोड़कर तुझे कितना महत्त्व प्राप्त हुआ है, इसका प्रदर्शन मुझे धर्म परिवर्तन को उकसाने हेतु तुम कर रहे थे। ऐसा ही प्रयास पूँछ कटवानेवाले सियार ने किया था। उसकी भाँति तेरा प्रयास मुझे हास्यास्पद लगता है। इस पटेल से सटकर बैठने मात्र को साधनास्वरूप मैं हिंदू धर्म को नहीं मानता। इन कर्मचारियों की बराबरी करने की योग्यता प्राप्त करने मात्र में हिंदू धर्म नहीं जन्मा। अनेक जन्मों में पुण्य संचय करते-करते मैं हिंदू धर्म में इसलिए जन्मा कि साक्षात् भगवान् मेरा हाथ किसी दिन अपने हाथों में थाम ले। तेरी दस रुपयों की सिकंदरखानी तो कम, पर संपन्नता के रत्नजड़ित हौदे पर बैठाया गया तो भी और उसपर लगा हिंदू धर्म का भगवा झंडा निकालकर वहाँ चाँद जड़ा हरा झंडा या क्रॉस जड़ित झंडा लहराने का प्रयास किसी ने किया तो मैं उस संपन्नता के प्रतीक हौदे पर थूककर सीधे उस धूल में छलाँग लगाना पसंद करूँगा जिसमें हिंदुओं द्वारा दलितों को छला जाता है, हिंदू धर्म की यह नीच मानी गई धूल भी मेरे लिए उस हाथी की वैभवसंपन्न सवारी से श्रेष्ठ है; क्योंकि उस धूल में वशिष्ठ के, श्रीकृष्ण भगवान् के, प्रभु श्रीराम के, वाल्मीकि के पद-रज मिली हुई है। विक्रम और शालीवाहन, ज्ञानेश्वर और एकनाथ, रोहिदास और चोखामेला, इन्होंने इसी हिंदू धर्म के मंदिर के सामने की धूल पवित्र भभूत के रूप में सिर-माथे लगाई थी। उससे वे मुक्त हो गए। उन हिंदू योगियों की धूल में पावन होकर मिलनेवाला सुख उस कुरान प्रदत्त सुख-सुविधाओं से कहीं श्रेष्ठ लगता है, वह निरंतर आनंददायी है। यहाँ पटेल के नजदीक बराबरी से बैठने की बात तो क्या, वहाँ दिल्ली में मयूरासन पर बैठने की बात यदि चलाई गई तो भी मैं हिंदुत्व नहीं छोड़नेवाला। मैं हिंदुत्व का त्याग नहीं करूँगा। भले ही मैं अस्पृश्यता की पीड़ा सह लूँगा, मैं हिंदू भाइयों के दरवाजे पर प्यास से तड़पते पड़ा रहना पसंद करूँगा, पर मरते दम तक हिंदू कहलाना ही पसंद करूँगा। जब कभी मेरे हिंदू बंधु भाईचारे की सद्भावना से मुझे आधार देने का प्रयास करेंगे तभी मैं इस अस्पृश्यता के गर्त से ऊपर उठना पसंद करूँगा; पर किसी भी कीमत पर पराए लोग और पराए धर्म का आधार लेकर मैं अपने बाप-दादाओं से बेईमान नहीं होऊँगा। अपने और तुम्हारे बाप जैसा ही हिंदू कहलाते हुए जिऊँगा और हिंदू कहलाते ही मरूँगा। यदि पुनः जन्म लेना पड़ा तो वह भी हिंदू धर्म में ही चाहूँगा। तुझे प्राप्त धन-दौलत, मान-सम्मान तुझे ही लखलाभ रहे। मुझे उससे कोई लगाव नहीं। (जाता है।)

शंकर : अरे, इसका हमेशा का शांत स्वभाव आज एकाएक इतना विस्फोटक कैसे बन गया! उसके ज्वालाग्राही शब्दों ने तो मुझे भून डाला है। अरे किशन, रुको तो जरा। (जाता है।)

: सातवाँ दृश्य :

[ स्थान : गंगा का मकान। नारंभट और देवी सिंह आते हैं।]

नारंभट : इस गंगा ने तो कमाल कर दिया, इसने कमलिनी को हमसे ऐसा छिपाया है कि अभी तक नख भी दिखाई नहीं दिया। पिछली उधारी देने की बातें कर रही है। उस बुढ़िया मौसी की गठरी हाथ लगे तो उधारी-विधारी चुकाई जा सकती है। देवी सिंह, वह गठरी तो मैं हथिया लूँगा, पर मेरी उधारी का क्या कर रहा हो। मैं तुझे तुम्हारी उधारी चुकाने दे सकूँ, इतनी बड़ी वह गठरी नहीं है। इस गंगाघाट पर हमने आज तक जो मौज-मस्ती की है उसकी बकाया रकम लौटाते-लौटाते तो मेरा दम टूट जाएगा। इसलिए देवी सिंहजी, आप अपनी व्यवस्था स्वयं करें, यही उचित होगा।

देवी सिंह : बिलकुल तैयार हूँ मैं, तेरी उधारी चुकाने हेतु भगवान् की दया से एक हांडी मुझे भी हाथं लग गई है। वह सत्यवान है न! उसका भरोसा पा लिया है मैंने। उसको सेंध लगाता हूँ मैं। पटेल को तो अपनी मुट्ठी में कस लिया है न तुमने।

नारंभट : पूरा कस लिया है उसे मैंने। अब चोखा का नाम लेते ही 'पाजी, उल्लू' आदि गालियों की बौछार करने लगता है। तेरा जब भी उल्लेख करता हूँ तब 'बड़ा ही सज्जन है' ऐसा कहते नहीं अघाता। यदि हमपर कोई आपत्ति आती है तो वह हमारी पूरी सहायता अवश्य करेगा।

देवी सिंह : ठीक है, तो पटेल के यहाँ जो घुसपैठ की है, उससे दो काम तो तूने कर ही लिये। पटेल का विश्‍वास और बुढ़िया की गठरी तो अब लगभग तेरी मुट्ठी में है, पर अभी तक वह पटेलन, वह मालिनी, उनकी-हमारी एक भेंट भी नहीं करवाई तुमने, हरामी ! स्वयं ही हाथ मार रहे हो क्या?

नारंभट : (मन में) इस गधे को उस लूट का पता भी न चलना चाहिए। ( प्रकट) अरे काहे का हाथ मारना, यार! एक बार प्रयास किया तो फजीहत हो गई। वह मालिनी तो बिलकुल पतिव्रता है। अरे, पुराण सुनने कभी अकेले आती नहीं, हमेशा पति को साथ रखती है वह। अतः अपनी बात छोड़कर बोलो तुम। चलो, अब गंगा के कोठे पर चलें। मैंने तुम्हें पहले ही बता दिया है कि उस बुढ़िया ने धन की गठरी कहाँ छिपा रखी है, यह मैंने उसके नौकर से शराब के नशे में उगलवा लिया है। आज फिर उसे खूब पिलाई है। नशे में उससे निश्चित स्थान पता लगाकर वह गठरी हथियाता हूँ। एक बार माल हाथ आ जाए कि बाकी की सारी देनदारियाँ पूरी कर मैं कमली का हाथ थामता हूँ। गंगा ने वचन दिया है मुझे।

देवी सिंह : यदि तेरी देनदारियाँ चुकाकर कुछ शेष बचा तो उससे मेरी उधारी चुकाना न भूलना। उस सत्यवान से उगाही कर मैं तेरे पैसे चुका दूँगा। फिर कमली का दूसरा हाथ थामने का मौका मुझे मिल जाएगा। गंगा ने मुझे भी वचन दिया है। वो देख, ऊपर चिल्ला रहे हैं। सारे नशेड़ियों को चढ़ी लगती है। चलो, ऊपर कोठे पर चलें।

नारंभट : पर एक खयाल रखना, मैं शराब छूऊँगा भी नहीं। ब्राह्मण धर्म जो है न!

देवी सिंह : तुझे कहता कौन है छूने के लिए। यदि सभी ब्राह्मण शराब पीने लगें तो हम क्षत्रियों के लिए एक बूँद भी न बचेगी।

[कोठे का दृश्य- नशेड़ी नशे में झूम रहे हैं।]

देवी सिंह : कौन से आदमी की बात कर रहे हो?

नारंभट : वह, मौसी का दूर का रिश्तेदार है। बदहवाश हो चुका है कि नहीं, जरा देख लो। कहीं पहचान लिया मुझे तो सारी रंगत ही उड़ जाएगी। उससे बेहतर है कि तू ही आगे बढ़कर देख कि सब लोग नशे में चूर हैं या नहीं।

[एक नशेड़ी अपने सिर पर हाथ रखे रोता-बिलखता आता है।]

देवी सिंह : अरे, क्या हुआ तुझे?

पहला : मेरा मुँह गुम गया है। अभी तो था यहीं पर।

देवी सिंह : (दूसरे से) और तुम क्या खोज रहे हो? क्या खो गया तुम्हारा इस कोठे पर?

दूसरा : इसका थोबड़ा यदि इसके धड़ पर नहीं है तो यहीं-कहीं गिरा होगा। हाय-हाय, यदि तेरा मुँह वापस नहीं मिला तो तू शराब कैसे पिएगा? ( पहले के गले में गला डालकर रोता है।)

पहला : मत रो बे। गरदन सहित भी मुँह गिर गया तो क्या हुआ। मैं कंधे के मुँह से उतार लूँगा दारू।

तीसरा : अरे, शराब को कौन कंधा दे रहा है ? शराब क्या मर गई है?

चौथा : मूर्खों, क्या बकते हो, शराबी हो तुम लोग।

पहला : कौन कहता है बे हमें शराबी? आँ? मेरा मुँह गुम गया है, नहीं तो देख लेता तुझे।

चौथा : सज्जनो, गुस्सा न करें। मैं आपको शराबी नहीं कह रहा। मैं तो आपके दादा-परदादा को शराबी कह रहा था।

बाकी के

शराबी : हाँ, फिर ठीक है। हमने अपने पुरखों की परंपरा नहीं तोड़ी, है न!

देवी सिंह : (एक से) क्यों भाई, पहचाना मुझे?

वह व्यक्ति : लो, न पहचानने की क्या बात है? दारू पी, इसका मतलब यह थोड़े है कि स्मृति खो दी मैंने। और लोग तो अपनी माँ-बहनों को भूल जाते हैं। ऐसे लोगों को दारू को छूना भी नहीं चाहिए, पर मैं अपनी माँ को कैसे भूलूँ? मेरी अम्मा! (देवी सिंह के गले में हाथ डालता है।)

देवी सिंह : अरे गुरुजी, तुम्हारा काम तो और आसान बन गया, ये तो बिलकुल होश गँवा बैठा है। बच ही गए आप।

वह व्यक्ति : क्या, बेटा कहा। माँ, मैं तुम्हारा ही बेटा हूँ। बच गई तू। मेरे बचपन में ही तू चल बसी थी, ऐसा कहते थे कुछ लोग, पर अब तू ही कह रही है कि बच गई तू। इसका मतलब कि तू जिंदा है अभी, मैं तुझे कैसे भूलूँ? दारू पी ली है तो क्या हुआ?

नारंभट : देखिए, शराब पीने में कोई बुराई नहीं हैं। केवल एक बात का खयाल रखना चाहिए। कोई गुप्त बात नशे में उजागर नहीं करनी चाहिए। वह दोष यदि तुझमें न हो तो बाकी कोई दोष नहीं है।

शराबी : अजी, दारू पीकर आज तक मैंने कोई भी गुप्त बात किसी से नहीं कही है। पीने के पहले जो कुछ मुँह से निकल गया सो ही।

देवी सिंह : दारू पीकर भी कोई गुप्त बात तुम किसी से नहीं कहते, ये कोई उदाहरण देकर बता सकते हो क्या?

शराबी : क्यों नहीं? मेरी माँ है वह ! उसके जिस घर में मैं रहता हूँ, उसी के बाग में हमारी मालकिन ने धन गाड़के रखा है, पर शराब के नशे में आज तक कभी यह बात नहीं कही मैंने।

नारंभट : यदि यह सच है तो तू शराबी नहीं है। किसी से भी नहीं कही है यह बात? उस बगीचे में इमली के पेड़ के नीचे गड़ा है धन, वह मुझे मालूम है।

शराबी : गलत बता रहे हैं। कुछ भी बकते हैं आप। इमली तो खट्टी रहती है। वहाँ कौन रखेगा अपना धन! उसके पास यदि कोई सोना रखेगा तो वह खट्टा न हो जाएगा? आम मीठा रहता है। धन भी मीठा रहता है, क्योंकि सोने से मिठाई खरीद सकते हैं हम। इसीलिए हमारी मालकिन ने आम के पेड़ तले उसे गाड़ा है, पर यह गुप्त बात क्या मैंने शराब के नशे में कभी कही है? माँ, तुझे भी यह बात मालूम नहीं, फिर इस बाप को कैसे पता रहेगी?

देवी सिंह : नहीं है पता। यह तो लतखोर नशेड़ी नहीं दिखता। शराबी हो तो तुम्हारे जैसा। एक प्याला और पी लो, पर गुप्त बात किसी से मत कहना। फिर चाहे जितनी पियो। (और पिलाता है।) क्यों गुरुजी, मैं भी पी लूँ एक प्याला?

नारंभट : पी लो, पर अपना बोझा मुझपर न डालना। मुझे पीने का आग्रह भी मत करना, मैं पीऊँगा नहीं।

पहला शराबी : कौन नहीं पिएगा दारू, ऐं? तुम पीयोगे, वह पीएगा, मैं पीऊँगा, सब पीएँगे। (नारंभट को पकड़ने दौडता है।)

नारंभट : अरे-अरे, ऐसा पाप मत करो। मैं ब्राह्मण जो हूँ।

सभी शराबी : और हम कौन हैं? अबे भड़वे, अबे नारंभट, हमने पहचाना तुझे। गधे, शुक्राचार्य जैसा ब्राह्मण भी दारू पीता ही था न!

नारंभट : अरे भाई, पर बुढ़ापे में उसने यह नियम लगा दिया कि कोई भी ब्राह्मण दारू न पिए।

सब शराबी : फिर हम भी बुढ़ापे में वही नियम चलानेवाले हैं। तू भी अभी दारू पी ले और बुढ़ापे में दारू न पीने पर बंधन लगा देना, पर नारंभट, आज दारू को मना मत करो।

पहला शराबी : अरे रे, कितना घोर पतन है यह ब्राह्मण जाति का! यज्ञ में सोमपान करके बेहोश होनेवाले ब्राह्मणों के ही वंशज हैं न हम सब। पर क्या पाखंड मचाया है इन्होंने। शराब पीने से डरते हैं साले। (रोने लगता है।)

नारंभट : रोओ नहीं, दीक्षितजी। यज्ञ में दारू या सोमरस पीने में मुझे कोई आपत्ति नहीं।

सब शराबी : चलो, हम सब पहले यज्ञ ही कर लें।

देवी सिंह : पर कुंड कहाँ से लाएँगे?

पहला शराबी : ये लो, मेरे खीसे में है। (चिलम निकालता है।)

दूसरा शराबी : हाँ-हाँ, जरा रुको। शास्त्रीय दृष्टि से यह सही है या नहीं, यह तय करना होगा पहले।

तीसरा शराबी : शास्त्रानुसार शुद्ध है यह कुंड। समय के अनुसार स्मृति बदलती है। स्मृति के अनुसार यज्ञ बदलते हैं। यज्ञ के अनुसार कुंड बदलते हैं। सत्युग में 'यज्ञकुंड', त्रेता में 'होमकुंड', द्वापर में 'हवनकुंड' और कलयुग में यह 'मृत्तिका कुंड' ही सही है। इसे हम 'चिलमकुंड' कह सकते हैं।

पहला शराबी : ठीक है, ठीक है। अब उपनिषदों की भाषा में मैं 'उद्गाता' बनकर मंत्र कहता हूँ। 'चिलम ही अग्निकुंड है। चकमक ही अरणी है। चिनगारी ही आकंमणीय अग्नि है। तमाकू ही है हवन, द्रव्य-मुख है धमनी, दीवार है यूप और उससे टिककर खड़ा मैं बलि का बकरा हूँ। बस, सिद्ध हो गया अग्नि।

नारंभट : (चिलम का एक कश खींचकर) बिलकुल प्रज्वलित हो गया है हुताशन।

पहला शराबी : फिर हताशा छोड़कर खड़े हो जाएँ सब। हम सब ऋषि हैं। दारू ही सोम है। बोतल ही चषका है। पीना ही पान है। अब किसी भी ब्राह्मण को इस यज्ञ में दारू पीने में हिचक नहीं होनी चाहिए। तो पीयो, मनचाहा पीओ। (सब पीते हैं।)

देवी सिंह : ब्राह्मणों को यदि प्रतिबंध नहीं है तो क्या क्षत्रिय को पीने की मनाही है इस यज्ञ में?

पहला शराबी : बिलकुल है। क्षत्रियों को वेदोक्त कर्मों का अधिकार नहीं है।

देवी सिंह : मुँह फोड़ दूँगा, साले।

नारंभट : आपने अभी जो 'मुँह फोड़ दूँगा' कहा ना, वही शास्त्र वचन मानकर क्षत्रियों को कर्म का अधिकार माना जा सकता है। अछूतों को छोड़ सभी को और विशेषकर द्विजों को वेदोक्‍त कर्म का अधिकार प्राप्त है।

सभी : सही है आपका कहना। मात्र अछूतों को दारू पीने का अधिकार नहीं, क्योंकि उनके कारण वह भी अस्पृश्य हो जाएगी। फिर द्विज उसे कैसे छू सकेंगे? ( गंगाजी आती हैं।)

गंगा : सबके सब साले नशे में धुत हैं। देवी सिंह, नारंभट, सेठजी, क्या हाल बना लिया आपने? ( सब एक-एक कर खड़े होते हैं। हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं।) तुमने तो इस स्थान को मद्यशाला का रूप दे डाला।

पहला शराबी : आहा, मूर्तिमान भगवती प्रगट हुई हैं यहाँ हम शास्त्रियों की भक्ति देखकर। हे देवी, तुझे नमस्कार करते हैं हम, क्षमा करो हमें। ( घुटने टेककर बैठता है।)

दूसरा शराबी : देवी नहीं, साक्षात् दारू ही प्रकट हुई है यहाँ हम भक्‍तों की भक्ति देखकर। दारूणी, तुझे नमस्कार है। क्षमा करो। (घुटने टेकता है।)

तीसरा शराबी : ना, ना, ये दारू नहीं, साक्षात् बोतल ही प्रकट हुई है। यदि यह दारू होती तो हमारे मुँह में होती। जिस तरह से इसके अंदर अंगूरासव भरा रहता है, उसी तरह से इसमें कामासव भरा है। बोतल को मुँह से लगाते ही जैसे मनुष्य उन्मुक्त हो जाता है उसी तरह हे बोतल, तेरे होंठों को छूते ही…

गंगा : (उसे थप्पड़ जड़ते हुए) ऐसे थोबड़े पर चपत जड़ी जाती है।

नारंभट : अरे, उफनती मदिरा की बोतल का ढक्कन तड़ाक से कहाँ उड़ गया?

गंगा : (उसके गाल पर प्रहार कर) यहाँ पर, समझ गए। अब भागते हो यहाँ से कि दरबान को बुलाऊँ। मरजादो, अब यहाँ से निकलते हो या बुलाऊँ चौकीदार को। एक-एक की अच्छी खासी धुनाई होगी। चलो भागो यहाँ से। वह धक्के मार-मारकर भगाएगा तुम सबको।

[सारे लड़खड़ाते, एक-दूसरे पर गिरते जाते हैं।]

: आठवा दृश्य :

[चोखा महाराज भजन गाते हुए धरना दिए बैठे हैं।]

चोखा : हे भगवान्, अब भी दया नहीं आती तुम्हें! मेरे प्रश्नों का उत्तर दो। यदि अस्पृश्यों को तेरे रूप का अवलोकन करना, तेरे प्रसाद को चखना, तेरे स्पर्श से रोमांचित होना, तेरे नामसंकीर्तन में तल्लीन होना निषिद्ध है तो फिर तूने उसकी लालसा हमारे मन में क्यों उत्पन्न की? प्यासा और पानी, क्षुधा एवं अन्न ये सब निर्माण करने का सामर्थ्य रखनेवाले, हे अनंत, हे भगवंत, अस्पृश्यों में अपनी भक्ति की प्यास उत्पन्न कर उसे प्राप्त करना क्यों प्रतिबंधित किया तूने? प्यासी आत्मा तड़पती रहती है हमारी।

अभंग

हे दयालु, हे कृपालु, क्यों हुए तुम क्रुद्ध निष्ठुर?

हे कृपालु, हे दयालु, चाहते हैं स्पष्ट उत्तर!!

क्या उन शास्त्रों का तुझे भी भय लगता है? तूने इन शास्त्रों का निर्माण किया है या शास्त्रों ने तुझे बनाया है। बोलो, हे भगवान्, कुछ तो बोलो।

जातिहीन हैं हम, क्या है अधिकार,

सुस्पष्ट जवाब दे दे हमको…

नर देह मेरी, जातिहीन होते

संदेह के घेरे, तोड़ूँ कैसे?

आँसुओं की धारा, चरणों पे छोड़ूँ

क्यों न हमें सेवा करने देते?

[स्तब्ध ध्यानमग्न बैठता है।]

सोयरा : (प्रवेश कर) ओ मेरी माँ, भजन करते-करते मेरे पतिदेव को मूर्च्‍छा आ गई। दिन के बाद दिन बीत रहे हैं, पर अन्न का कण भी पेट में नहीं ले रहे। कितनी दुबली हो गई है काया! पर चेहरा देखो कैसा प्रकाशमान होता जा रहा है! कमजोरी से मूर्च्‍छा आ रही है माँ, ध्यानमग्न हुए हैं? नाथ, नाथ, क्षमा करें मुझे। मेरी एक बात पूरी करिए।

चोखा : कौन? तुम? बोलो क्या कहना है।

सोयरा : नाथ, आपके ईश्‍वर भक्ति के मार्ग में आज तक क्या मैं कभी बाधा बनी हूँ? संसार के इस मायास्तंभ से बाँधे रखने का क्या कभी मैंने प्रयास किया है?

चोखा : हे साध्वी, वैसा काम तूने कभी किया तो नहीं है। अधिक क्या कहूँ, अग्नि के साथ जैसे दीप्ति, विवेक के साथ जैसे मति, मोक्ष के साथ जैसे भक्ति रहती है वैसे ही मेरे परमार्थ साधना के कार्य में तू मूर्तिमान प्रेरणा सिद्ध हुई है।

सोयरा : फिर मैं जो कुछ कहने जा रही हूँ, उसको कृपया अन्यथा न लें। अन्न सेवन के बिना आपकी काया इतनी दुबली हो गई है कि मुझे तो आपके प्राणों की चिंता खाए जा रही है। थोड़ा सा ध्यानमग्न होते ही आपको मूर्च्‍छा आ गई, ऐसा सोचकर मैं तो घबरा गई थी। इसलिए थोड़ा सा तो अन्न ग्रहण करिए। केवल अपनी इस दैहिक ममता से यह कह रही हूँ, ऐसा मत समझिए। एक और भी महत्त्वपूर्ण कारण है इसके पीछे। यदि भगवान् खुद आकर मुझे खिलाएगा तो ही मैं अन्न ग्रहण करूँगा, ऐसा आग्रह करना एक तरह से हठ ही नहीं है क्या! भगवत् गीता में कहा गया है कि शरीर को कष्ट देनेवाली तपस्या जो करते हैं वे मुझे यानी आत्मा को ही कष्ट देते हैं। फिर आपकी तपस्या से पुण्य प्राप्ति तो दूर, पाप की ही आशंका बढ़ जाती है।

चोखा : वही तो मुख्य प्रश्‍न है। पुण्य और पाप क्या है, इस बारे में तो शास्त्र, शिष्ट और संतों में कहीं भी मेल नहीं है। बुद्धि तो आज जिसे पुण्य मानकर आचरण योग्य मानने लगती है उसी को कल पापाचरण मानने लगती है। इसलिए अब जो पाप-पुण्यों का निर्माता है, उस भगवान् से ही निर्णय लेने की ठानी है। अब जहाँ तक आत्मा के कष्टों की बात है, तो वह सही नहीं-पेट भर सब्जी-रोटी खाकर होनेवाला सुख मैंने अनेक बार पाया है, पर अन्न त्यागकर परमेश्‍वर को पाने का सुख-चैन मेरी आत्मा को जो मिल रहा है, उतना वह कभी भी प्राप्त नहीं हुआ था। अछूतों को मंदिर में जाने का अधिकार वैध है या नहीं, उनके लिए इसी जन्म में कोई उद्धार का मार्ग है या नहीं, वे मनुष्य भी हैं या नहीं, या कितना भी पवित्र और पावन कार्य करने पर भी उन्हें मात्र नीच जाति में पैदा होने से इस जन्म में कोई उद्धार का मार्ग क्यों नहीं है, इन प्रश्नों का उत्तर मिले बगैर हमारे लिए पुण्यप्तय कार्य कौन सा है, इसका निर्णय कैसे किया जा सकता है? पहले यही तय करा लूँगा मैं। पाप-पुण्य का निर्णय करने का भार मैंने अपने कमजोर कंधों से उतारकर भगवत् चरणों पर रख दिया है। मेरा दायित्व समाप्त हुआ। अब मैं निर्भयता से निश्चित होकर विश्राम कर रहा हूँ। अब भगवान् पांडुरंग जब यह स्पष्ट करेंगे कि फलाना आचरण तेरे लिए पुण्यमय है, तभी मैं फिर से कर्मारंभ करूँगा, अन्यथा पूर्व कर्म और आज का कर्म संन्यास, दोनों पांडुरंग के चरणों में समर्पित कर प्राण विसर्जन करने के अलावा कोई तीसरा रास्ता नहीं है।

सोयरा : पर नाथ, इस तरह से भगवान् को संकट में डालना ही तो होगा, है न! ऐसे धरना देने से हरेक को भगवान् प्रत्यक्ष साक्षात्कार देंगे ही, ऐसा तो है नहीं। मात्र कुछ महात्माओं को ही आज तक उन्होंने दर्शन दिए हैं। सैकड़ों ने अन्न-जल त्यागकर भगवान् को बुलाने के प्रयास किए, उनकी इस प्रकार मृत्यु भी हो गई, पर भगवान् उनके हठ से ऊबकर मुँह मोड़ बैठे रहे। उधर भक्‍त मर गए-ये भी ध्यान में रखें।

चोखा : हे साध्वी, भगवान् दौड़कर आएँ, यदि इस इच्छा मात्र से हमने तपस्या चलाई होती तो वह कदाचित् हठ होता, पर उसका आना-न आना, हमारे प्रश्नों के उत्तर देना-न देना, यह सब हमने उसपर ही छोड़ दिया है। हमने अन्न को त्यागा नहीं है, अन्न अपने आप छूट गया है। प्रियतम के दर्शन बिना मैं दिन-प्रतिदिन छीजता जा रहा हूँ। समयानुकूल वसंत का स्पर्श नहीं होने से लता जैसे सूख जाती है, वह उसे संकट में डालने के लिए नहीं। वसंत के श्‍वास-उच्‍छ्वास बिना उसे फलते-फूलते नहीं बनता, इसलिए वह सूखती है। माँ के बिना नन्हा जो बिलखता है वह उसे संकट में डालने के लिए नहीं; वह नन्हा माँ के बिना रह नहीं पाता, इसलिए रोता है। वही अवस्था हमारी हुई है। उस जगजीवन के बिना हमारा जीना कठिन है, इसीलिए शरीर सूखता जा रहा है। भगवान् हमे दर्शन दें मात्र इसलिए नहीं। क्योंकि यह तो उसे सोचना है। पर यह भी सही है कि हमें उसके दर्शन के बिना जीते नहीं बनता, इसलिए हम मृत्यु के द्वार पर बैठे हैं। एक श्रीहरि के बिना हमें कुछ नहीं चाहिए, उसको मिलना चाहिए, यही हमारी इच्छा है, प्रार्थना है। इसे ही हम धरना कहते हैं, संकट में डालना नहीं। मैं भी भला और क्या करूँ?

...घबराया मन करे दौड़-धूप, यातनाएँ खूब,

मुक्‍त करो देवा,

तू ही माई-बाप, तू ही आदि नाथ, तू ही सर्वशक्तिमान,

मुक्‍त करो देवा...

[गोविंद, गोविंद कहते बेहोश होकर गिरता है।]

सोयरा : हाय राम, ये क्या हुआ! नाथ, श्रीमान, ये तो मूर्च्छित हो गए से लगते हैं। अब किसे बुलाऊँ मैं? हे प्रभो, क्यों तुम मेरे इस भोले नाथ की परीक्षा ले रहे हो? जिसने जिंदगी में कभी किसीको भी कष्ट नहीं दिया, किसीका अहित नहीं सोचा, यह मेरा निरुपद्रवी, परोपकारी साधु स्वभाव का पति यहाँ तुम्हारे लिए अन्न त्याग के कठोर व्रत में बेहोश होकर गिर पड़ा है, फिर भी तुम्हें दया नहीं आती, भगवान्!

बड़ी विपदा में पड़ी भक्‍त नारी, कौन होगा तारणहारी, बताओ हे श्रीनाथ, बताओ हे आदिनाथ!!

दया करो प्रभु, अब तुम्हारी है बारी, बताओ हे हरि, बताओ श्रीनाथ!!

नाथ, जागिए, हाय राम-इनकी मूर्छा तो काफी गहरी दिखती है।

[इसी समय आकाशवाणी होती है-हे साध्वी, तेरा पति मूर्च्छित नहीं, समाधि में लीन हुआ है।]

सोयरा : अरे क्या, कौन ऊपर से बोल रहा है? क्या मेरे पतिदेव को समाधि लगी है? ये तो उनकी भक्ति की परमावधि होगी। अरे, पर मैं ये क्या देख रही हूँ? मेरी आँखों को चकाचौंध कर देनेवाला यह प्रकाश कहाँ से दिख रहा है? आकाश तो साफ है, बिजली भी नहीं चमकी, फिर यह क्या है? कहाँ से आ रही है धीमी सुगंध? क्या मेरे हृदय को भी स्वर्गीय आत्मा की अनुभूति हो रही है?।

चोखा : (एकदम उठते हुए) हे साध्वी, अभी यहाँ कौन आया था? अभी यहाँ पर सूरज-सी तेजवान, पर चाँद-सी शीतल कोई मूर्ति खड़ी थी। कहाँ गई वह दिव्य आकृति!

सोयरा : नाथ, कोई तो नहीं था यहाँ।

चोखा : साध्वी, थी। यहीं पर थी वह मनमोहक मूर्ति। (फिर से बेहोश होता है।)

सोयरा : हरे राम, देखते-ही-देखते फिर से ध्यानमग्न हो गए ये। इसे समाधि मानूँ या भूख से आई मूर्च्‍छा? मैं तो बहुत घबराई हुई हूँ। कुछ हवा का झटका तो नहीं लग गया इन्हें!

चोखा : (एकाएक) हे नंदकिशोर, हे गोवर्धनधारी, हे साँवले श्याम, तनिक रुको तो सही।

सोयरा : नाथ, ऐसे क्यों कर रहे हैं आप? कहाँ है मुरलीधारी श्रीकृष्ण! वह गोपीवल्लभ हम अछूतों का वल्लभ थोड़े ही है। वह गोपियों के लिए दौड़ सकता है, हम अछूतों के लिए नहीं।

चोखा : वह पीतांबरधारी, गिरधारी कहाँ चला गया! अभी-अभी तो था यहाँ...

सोयरा : महाराज, लगातार आप एक ही विचार में डूबे रहे हैं। इसी से ऐसे आभारत हो रहे हैं, भूख से आपके मज्जा-तंतु भी क्षीण हुए होंगे। इसलिए तरह-तरह के आभास हो रहे हैं आपको।

चोखा : हो सकता है कि आभास ही हों। यदि तुम हवा की बात करती हो तो हमारे प्राण भी तो हवा ही हैं। यह पत्थरों से बना विट्ठल मंदिर भी तो मज्जा-तंतुओं का आभास चित्र है। यह आकाश, मैं, तुम यह भी आभास ही तो है, क्योंकि जो-जो नाशवान है वह सब आभास ही तो है। फिर भी इस नाशवान आभास की वास्तविकता में सापेक्षतः मैं-तुम-ये आकाश जितने वास्तविक दिखते हैं, उतना ही वह साँवला-सलोना मुझे सच में दिखाई दे रहा है। देखो, वहाँ खड़ा है मेरा देव। (श्रीकृष्ण प्रकट होते हैं।)

सोयरा : अरे, ये तो वास्तव में अद्भुत आश्चर्य है। (दोनों भगवान् को दंडवत् नमन करते हैं।)

आज आनंद की परिसीमा है, हमने उसको देखा है,

आज खुशी ने परिसीमा लाँघी है,

हमने जो उसको पाया है...

हमने सबकुछ पाया है।

हे भगवन्, आपकी इस दिव्यता से, अपूर्व प्रभापुंज से हमारी आँखें चकरा गई हैं।

श्रीकृष्ण : उठो, उठो, जागो हे संत!

मैं हूँ आज कृपावंत

भक्ति से प्रसन्न, रखता हूँ वरदहस्त

देता हूँ खुशियाँ अनंत।

चोखा : पर हे दयानिधि, हे कृपावंत

हम तो हैं अछूत, हमें कहाँ अधिकार

भक्ति को अपाम हम तेरे?

श्रीकृष्ण : इसीलिए मैं दौड़ा-दौड़ा आया

तुम्हें बचाने, तुम्हें सिखाने

दौड़ा-दौड़ा आया

पतित पावन कहते मुझको

प्रिय है संबोधन मुझको

यही कार्य मुझको है प्रिय

इसीलिए मैं आया।

भक्‍तवर, मैं दौड़ा-दौड़ा आया।

[श्रीकृष्ण वरदहस्त रखते हैं।]

चोखा : हे प्रभुवर, तुमने स्वीकार कर

मेरा भार उतार दिया है

अजामिल पापराशि जो

उसे लगाया गले तुम्हीं ने

गणिका को भी अपनाकर

तुमने भवसागर पार कराया है।

श्रीकृष्ण : हे भक्त, मुझे लगी भूख,

मिटाओ वह सारी

कराओ कलेवा, प्यार भरा भोग

मेरे साथ करो पंगत न्यारी!

चोखा : हे अविनाशी, हे अनंत, हे भक्‍तवत्सल! मेरे इस छोटे से झोंपड़े में तुम कैसे

समाओगे?

श्रीकृष्ण : ग्वालों के बीच, गोपियों में जैसे समाया था, बस वैसे ही समा जाऊँगा मैं तुममें। चोखा : जैसी प्रभु की इच्छा। कितना अहोभाग्य है हमारा!

[भगवान् के चरणों पर गिरते हैं। भगवान् वरदहस्त रखते हैं। परदा गिरता है।]

चौथा अंक

: पहला दृश्य :

[ स्थान : सत्यगृह, पात्र : सत्यवान एवं शिष्य।]

सत्यवान : प्रिय शिष्यो, कलयुग का अंत होकर जब सत्युग उदित होता है तब उसके पूर्व महाप्रलय होता है। उस प्रलय में सत्युग का एक बीज वटवृक्ष के पत्ते पर अधिष्ठित रहता है। यह सत्यगृह या हम जिस नए सत्युग को स्थापित करने जा रहे हैं, उसका बीज धारण करनेवाला वटपत्र ही है। आप सत्य बोलिए, उसी से आपकी इच्छाएँ पूरी होंगी। कलयुग का विनाश होगा। भगवान् ने भी कभी असत्य बोला था, इसलिए पहले का सत्युग समाप्त हो गया। अब मनुष्य तो क्या, हम पशुओं को भी सच्चरित्र बनाएँगे। हमारे आश्रम में जो कुत्ते हैं, उन्हें भी हम छिपकर उछल-कूद करने की आदत छोड़ देने का उपदेश करते रहते हैं। उनकी आदतें बदलने का प्रयास करते हैं।

पहला शिष्य : मेरा घोड़ा खो गया है। मिल नहीं रहा वह।

सत्यवान : क्या तुम कभी अपने बच्चे के साथ घोड़ा-घोड़ा खेले हो?

पहला शिष्य : हाँ, जी...

सत्यवान : इसीलिए चोरी गया तुम्हारा घोड़ा। जब हम बच्चे को यह कहते हैं कि बेटे, मैं तुम्हारा घोड़ा बनता हूँ, तो क्या हम उसके कोमल मन पर झूठ के संस्कार नहीं डालते? सत्यंवद, धर्मंचर, ऐसा उपदेश जिसमें देते हैं, उस उपनयन संस्कार में हम नवदीक्षित ब्राह्मण को पास-पड़ोस में भिक्षा माँगने भेजते समय यह कहलवाते हैं कि वह काशी यात्रा कर आया है। छि:-छिः। हर जगह हम झूठ-ही-झूठ फैलाते हैं। अरे मेरे प्यारे शिष्य, तू चार-पाँच दिन सच बोलने का प्रयास कर, घोड़ा अपने आप तेरे द्वार आ जाएगा।

पांडुरंग : आचार्य, मैं भी आपके इस पवित्र आश्रम का सदस्य बनना चाहता हूँ। क्या मुझे प्रवेश मिलेगा?

सत्यवान : क्या नाम है तुम्हारा?

पांडुरंग : पांडुरंग।

सत्यवान : अरे, तू तो पूर्णरूपेण काला है। फिर किस बदमाश ने तेरा नाम पांडु ( सफेद) रंग रख दिया! तेरे नाम में ही असत्य है। यदि तू अपना नाम कृष्ण रखने को तैयार है तो बैठ यहाँ, अन्यथा चला जा। क्या जमाना है! बच्चे को पालने में डालते ही असत्य के पाठ थोपे जाते हैं उसपर। पालना-गीत को ही लें। हम गाते हैं कि 'पलने पर मोर जड़े, हाथी दे झूलारे..' अब यह सब वास्तव में कहाँ होते हैं? अब नामकरण को ही लीजिए। नाम रखा 'महावीर' और ये महावीर चूहे को देख घबराकर भागने लगता है। नाम रखा 'सोनाबाई' पर हाथ में पीतल-काँसा-काठी! नाम रखा 'काशी' और रहता है 'नासिक'। इस तरह सब जगह झूठ-ही-झूठ। वास्तव में नाम गुण-कर्म के अनुसार रखने चाहिए। हम एक उदाहरण देते हैं। ये सामने जो बाई है न, उनका नाम यमुना था, पर वे थीं ठिगने कद की। इसलिए हमने उन्हें 'ठिगनी बाई' पुकारना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने लड़के का नाम 'ठिगना' रख लिया। दूसरी एक शिष्या है 'नकटी बाई।' उन्होंने बेटे का नाम 'नकटेश्‍वर' कर लिया। ऊँचे कद की स्त्री ने अपना नाम 'लंबिनी' रख लिया तो लँगड़ी स्त्री ने 'लँगड़ी' रख लिया है। इन सब नामों से हमें सत्यमूर्ति दिख जाती है। वास्तव में माँ के अनुसार नामकरण करना अधिक सही होगा। जैसे राधा से बना राधेय। कौन किसकी जन्मदात्री है, इससे यह पता चल जाता है। पिता की अपेक्षा यह ज्यादा सचाईपरक रहेगा। सत्यकाम, जाबालि आदि नाम भी ऐसे ही हैं। ये देखो, दुबले-पतले शिष्य जो आ रहे हैं। (देवी सिंह आकर प्रणाम करता है।) प्रिय शिष्यो, ये नवीन शिष्य बड़े ही सत्यवादी हैं। सच बोलने की शपथ ली है इन्होंने। इन्होंने जब अपना नाम 'माधव' बताया तो मैंने कहा कि झूठ नाम त्याग दें। इन्होंने त्याग दिया। मैंने पूछा कि तुम्हारी माताजी कैसी हैं? वे बोले, हैं दुबली सी, तो मैंने इनका नाम 'दुबले' रख दिया। सभी कागजात में भी यही नाम लिखा गया है। कहिए दुबलेजी, ठीक तो है न सबकुछ, आइए, बैठिए।

मोहिनी : एक प्रार्थना है। एकांत में कुछ कहना है।

सत्यवान : अरे भाई, प्रत्यक्ष पत्नी के साथ भी एकांत में कुछ कहना-करना निषिद्ध है सत्य पथ में। फिर अपरिचित स्त्री से एकांत कैसे संभव! इसलिए जो कुछ भी हो, यहीं साफ-साफ कह डालो।

मोहिनी : मैं फड़के की पुत्री मोहिनी हूँ।

सत्यवान : 'फड़के' का मतलब है कपड़ा। कपड़े से गुड्डी बनाई जा सकती है, पर जीती-जागती स्त्री कैसे बनाई जा सकेगी? ये तो खुल्लम खुल्ला असत्य है। फिर तुम्हारे जैसी असुंदर स्त्री 'मोहिनी' कैसे हो सकती है? क्या तुझे अपने रूप का ज्ञान नहीं है?

मोहिनी : सच बताऊँ क्या? हाय राम, शर्म लगती है मुझे।

सत्यवान : शर्म! शर्म माने असत्याचरण की इच्छा। असत्य तो त्याज्य है। सत्यगृह में हरेक को 'निर्लज्ज', 'बेशरम' होना चाहिए। शरीर पर कपड़े धारण करना भी छलावा है, झूठ है। बोलो, सच बताओ, क्या तुम बदसूरत नहीं हो?

मोहिनी : मैं जब दर्पण के सामने होती हूँ तो स्वयं को रति सदृश दिखती हूँ, पर जब औरों के साथ होती हूँ तो मुझे अपनी धारणा छोड़नी पड़ती है।

सत्यवान : फिर ठीक है, क्योंकि तुझे यदि अपना रूप मोहक लगता है तो मोहिनी नाम सही होगा। हाँ तो मोहिनीजी, क्या कह रही थीं आप?

मोहिनी : दस हजार की अमानत रखनी थी। आप सा सत्यवान व्यक्ति किसी की कौड़ी भी डुबा नहीं सकता। आप महिलाओं की ऐसी अमानत रखकर उनके धन की सुरक्षा करते हैं-ऐसी ख्याति है आपकी। मेरे बेटों की यह रकम ही अंतिम सहारा है।

सत्यवान : ठीक है, लाइए। अरे ओ दुबले, तुम्हारी कल की प्रार्थना मानकर मैं तुम्हें इस सत्यगृह का रक्षक नियुक्‍त करता हूँ। ये लो चाबियाँ और इस रकम को उठाओ। चलो, मैं सब भांडारण स्थान दिखाता हूँ तुम्हें। ठीक से पहरा रखना उनपर।

देवी सिंह : आचार्यश्री के धन की रक्षा में यह दुबली काया प्राण भी निछावर करने में नहीं चूकेगी। सत्य ही पर-ब्रह्म है, सत्य ही सच्चा धर्म है। मेरे रोम-रोम में सत्यप्रेम ठसाठस भरा हुआ है। चलिए, गुरुजी।

अन्य शिष्य : (उन्हें उठते देख) हमें भी आज्ञा दें आप-अभी आते हैं हम।

सत्यवान : अरे, फिर से झूठ। अरे, तुम लोग जा रहे हो और कहते हो 'आते हैं हम।' सारा उपदेश व्यर्थ हो गया। अरे राम, राम, इस दुनिया को असत्य के रोग से कैसे बचाऊँ मैं।

देवी सिंह : मूर्खों, सच क्यों नहीं कहते? सच बोलने से अपनी आत्मा को संतोष मिलता है, समाज में एक दूसरे के प्रति विश्‍वास बढ़ता है, इस लोक में तथा परलोक में भी कल्याण होता है। फिर सत्य क्यों नहीं बोलते आप?

सत्यवान : दुबले, तुम जैसे सत्यप्रेमी को देखकर भविष्य की आशा कुछ बँधती है, अन्यथा निराशा से पागल ही होना पड़ता मुझे।

देवी सिंह : फिर भी वह पागलपन सत्य का पागलपन होता। सत्य का पागल कहलाना मैं एक तरह से सम्मान ही समझता। ठीक है, जाइए आप लोग। आचार्यजी, हम भी चलें। आप सुरक्षा का भार मुझपर सौंप दीजिए। (जाते हैं।)

: दूसरा दृश्य :

[ स्थान : गंगाजी का कोठा। पात्र : नारंभट, गंगाजी।]

नारंभट : (स्वगत) उस शराबी ने मौसी का गाड़ा हुआ धन जहाँ बताया था वहीं प्राप्त हुआ। क्या गहने हैं! गंगाजी की पिछली सारी उधारी चुकाकर यह पट्ठा नए उपभोग की उधारी माँगेगा, उधर वह मौसी चिल्ला रही होगी। नौकर पर ही संदेह करेगी। मेरा प्रश्‍न ही नहीं उठता। लो, आ गई गंगाजी। अब इस कुरसी पर बैठूँ या उसके गद्दे पर ही बैठूँ।

गंगा : (प्रवेशकर) नारंभट, मेरा बकाया?

नारंभट : गंगा, बात सँभालकर करना। आज यह पट्ठा खाली हाथ नहीं आया, समझी। ये रख पिछला बकाया। क्यों, खुश हो न अब? देखो, कैसे मुसकरा रही है, साली। अब नया खाता खोलने दो। बस एक, एक ही! (चुंबन लेता है।)

गंगा : उतने पर ही अधिकार है आज तुम्हारा, अब भागो यहाँ से। चार दिन बिलकुल फुरसत नहीं है मुझे। फिर आना।

नारंभट : देखो, मैं जाता हूँ, पर जबकि मैंने पिछली उधारी चुका दी है और ऊपर से तीन-चार हजार की गठरी अपनी वकालत कराने तुम्हारे न्यायालय में चढ़ाई है, तो कम-से-कम एक बार कमलिनी से भेंट करा दोगी न!

गंगा : थोड़ा रुकिए। सहमा हुआ पंछी कहीं बंदूक की आवाज सुनकर पास आएगा क्या? मैंने उसे पुचकारकर अपने वश में कर लिया है। एक दिन वह स्वयं इस खिड़की में खड़ी होकर मुझसे पूछेगी कि नारायण भट कब आएँगे यहाँ?

नारंभट : (पगलाता हुआ) क्या मीठा सपना सजा रही हो प्यारी। आज उसका दर्शन तो करा दो। कितनी सुंदर हैं उसकी आँखें!

गंगा : देखने मात्र से क्या मिलेगा, गुरुजी? कल वह मुझसे कह रही थी कि मौसी, तुम कहो तो अपने पैरों के नाखून चूमने दे सकती हूँ मैं उन्हें।

नारंभट : फिर तुमने 'हाँ' क्यों नहीं कह दिया?

गंगा : वह महार है, आप तो अस्पृश्यों को छूते नहीं।

नारंभट : पगली हो तुम गंगा। अस्पृश्यता का वास्तविक अर्थ है कि वे हमें नहीं छुए। यदि हमारा मन चाहे तो भी हम नहीं छुए, ऐसा नहीं है। जाओ, ले आओ उसे यहाँ।

गंगा : पर पैर के नख का चुंबन?

नारंभट : अरी, उसे तो सब चुंबनों में कुशल प्रणय चिह्न समझा जाता है रतिशास्त्र में, क्योंकि मुँह चूमकर फिर धड़धड़ाते मानिनी के पैरों पड़ जाने की अपेक्षा पहले पैर का चुंबन लेकर फिर ऊपर मन-मुख तक चढ़ते जाना ही प्रणय में अपना साध्य अचूक, तुरंत और सलीलता से प्राप्त करा देता है। ला उसे जल्दी ला।

गंगा : आज नहीं। चार दिन बाद। नाखूनों का चुंबन तो अवश्य ही दिलाऊँगी। अभी तो जाइए आप।

नारंभट : जाता हूँ, पर एक शर्त है। इब्राहिम या देवी सिंह इनमें से किसीको भी उसके नाखून तक का दर्शन नहीं होना चाहिए। मैंने पैसे दिए हैं, अतः अब कमलिनी मेरी हो गई है।

गंगा : उसकी चिंता न करें आप। उन मुओं को यहाँ खड़ा भी न होने दूँगी। अब आप जाएँ। अरे, फिर से ये क्या? बड़े बेशरम हैं आप। चलिए, भागिए अब...

[नारंभट जाता है। दूसरा दृश्य। परदा खुलता है।]

गंगा : (स्वगत) कितने निर्लज्ज हैं ये। मुझ जैसी के चरणों पर गिरेंगे। मैंने मजाक में क्या कह दिया कि नख-चुंबन दिलाऊँगी तो लार टपकाने लगा साला और चोरी-चोरी यह नीच काम करनेवाले ये लोग उस चोखामेला को महार-महार कहते हैं और वह लड़कियों पर पापदृष्टि रखता है, यह आरोप लगाकर उसे धक्के मारकर भगाते समय कैसे धर्मवीर बनते हैं। (देवी सिंह को आता देख) अब ये दूसरे धर्माचार्य पधार रहे हैं। हाँ-हाँ, अंदर कदम मत रखिए। उलटे कदमों से लौट जाइए। पिछला बकाया डुबोनेवालों का मुँह भी नहीं देखती मैं। जाइए, जाइए, काम में व्यस्त हूँ मैं आज।

देवी सिंह : बहुत अच्छे! 'काम' में है न तू आज! फिर तो यहाँ से जाना उचित न होगा। जब तू निष्काम रहती है, उस समय तुझसे श्रृंगार क्रीडा करने को यह देवी सिंह दुष्ट या पागल नहीं है। तू 'काम' में है और मुझमें भी अब उसका संचार हो रहा है। फिर दूरी कैसी? आओ, मेरी बाँहों में समा जाओ। (थैली आगे बढ़ाता है) लो, उतार दी न सारी उधारी! जब तक उस सत्यवान जैसे पागल लोग दुनिया में हैं तब तक तेरी उधारियाँ चुकाने में हमें क्या तकलीफ होगी! उसने स्वयं मुझे पहरेदार बनाया है। चोर के हाथों खजाने की चाबियाँ दी हैं।

गंगा : दुष्ट, तूने क्या उन चाबियों से...

देवी सिंह : ईमानदारी से लौटा दी उसे। केवल तिजोरी का सोना उठाकर इस धर्मकार्य में इस गंगाघाट पर समर्पित कर दिया है। किसी मोहिनी ने यह राशि उसी दिन लाकर दी थी।

गंगा : अरे देवी सिंह, पर जिस बेचारी ने अपनी सारी पूँजी सँभालने को दी थी, उसे और उसके बच्चों को ही तूने निर्धन कर डाला। उसका करुण क्रंदन तुझे सुनाई नहीं देता? दुःख नहीं होता तुझे?

देवी सिंह : दु:ख तो क्या, रोना भी आता है मुझे, पर आँसुओं को इस तरह निरर्थक बहाना मुझे उचित नहीं लगता। जब तक सत्यवान जैसे मूर्ख भोंदू साधुओं के पीछे पड़ने का लोगों का रोग दूर नहीं होता तब तक मैं अपने सभी व्यक्तिगत दुःखों को दबा दे रहा हूँ। जब दुनिया से भोलापन नष्ट होकर लुच्चे-लफंगों को भोली महिलाओं को धोखा देना असंभव हो जाएगा तब मैं पूर्व में फँसे लोगों के लिए एकमुश्त आँसू बहा लूँगा। कोई सयाना जैसे एक ही मंडप तले दस बार विवाह निपटाकर बचत कर लेता है, वैसे ही मैं एकतार्थ आँसू खर्च कर दूँगा। छोड़ो ये बातें, मैंने सारी उधारी चुकाई है। फिर अब कमलिनी...?

गंगा : आठ दिनों के बाद, आजकल तुम्हारा नाम लेते ही मुसकराने लगी है थोड़ी सी, पर थोड़ा ठहरो।

देवी सिंह : चिंता नहीं, पर इस बीच उस बम्मन को या इब्राहिम को उसके नख भी दिखने नहीं देना, हाँ।

गंगा : आप उसकी चिंता न करें। उन मुओं को घुसने भी नहीं दूँगी यहाँ। जाएँ अब! बराबर आठवें दिन आइएगा। कमलिनी आपकी है। हाँ, अब जाइए। (उसके जाने पर) क्या मरा भंगड़ है वह सत्यवान? ऐसे पक्के चोर के हाथों में खजाने की चाबियाँ देता है। श्रद्धावान महिलाओं का धन इन चोरों के सुपुर्द करनेवाला साधुत्व किस काम का? आग लगे ऐसे सत्य को! कितने लोग उस सत्यवान को गालियाँ देते हैं। दाने-दाने को तरसेंगे, कहा नहीं जा सकता। अब ये तीसरे उल्लू पधार रहे हैं। (इब्राहिम आता है।) आइए, खान साहब, बड़ी ही फड़कती खबर है आपके लिए, सुनना चाहेंगे?

इब्राहिम : कमलिनी मुझे चाहने लगी, यही वह फड़कती खबर है न!

गंगा : ठीक जाना! आठ दिनों में इस पलंग पर पहले और बाद में आपके शयन मंदिर में कमलिनी आपके दुर्लभ प्रेम के सपने पूरे करेगी, परंतु हाय राम!

इब्राहिम : अरे, ये लो, तेरा...परंतु, सारी बाकी चुकती कर दी। इन आठ दिनों में मुझे कमलिनी मिलनी चाहिए। देखा गंगाजी, मेरा हाथ नारंभट और देवी सिंह इन दो पत्थरों के नीचे दबा है। मैं उनसे खुलकर झगड़ूँ तो वे कमलिनी की बात सूबेदार तक पहुँचा देंगे। सूबेदार को पता चला तो वह कमलिनी को अपने शयनागार में खींच ले जाएँगे। और फिर इब्राहिम को मात्र तुम्हारे दरवाजे पर से सीटियाँ फूँकते रखवाली करने के सिवाय कुछ काम न रहेगा। गंगा, इसलिए अब तू ही मेरी सास हो, माता हो, पिता हो।

गंगा : (चिढ़कर) अपनी यह बकवास बंद करो, अब संक्षेप में सुनो। देवी सिंह नारंभट को धोखा देकर कमलिनी को मुसलमान होने के लिए राजी कर तुमसे विवाह करा दें। इतना काम ही करना है न मुझे! अब जाइए, मैं सब समझ गई। निश्चिंत रहिए।

इब्राहिम : बिलकुल ठीक समझा है तुमने। एक बार मेरा विवाह भर हो जाए फिर सूबेदार तो क्या, कोई भी उसे ले नहीं सकता। सारे मुसलमान मेरा साथ देंगे। और यदि एकाध दिन चोरी-छिपे वह ले भी गया, तो साला ही है मेरा वह।

गंगा : फिर शुरू हो गए। अब मैं अंदर जाती हूँ। निकलो यहाँ से। आठ दिन में सब ठीक करती हूँ मैं। (उसके जाने के बाद) अब सबकुछ आठ दिनों में निपटाती हूँ। आज प्राप्त सारी रोकड़ कमलिनी के आकर्षण का कमाल है। नहीं तो मेरे डुबोनेवाले मुझे थोड़े ही सोना चढ़ानेवाले थे। यह सब उसकी आरती की कमाई मैं उसे ही मुँहबोली माँ का स्त्रीधन समझ दे डालूँगी। और फिर चार-पाँच दिन में सारी संपत्ति लेकर अपनी लाड़ली बेटी के साथ काशीयात्रा पर निकल जाऊँगी। इन तीनों बदमाशों में आपस में भिड़त होने के पहले ही मुझे अपना काम साध लेना है। यदि इन भेड़ों की टक्कर हुई तो मामला सूबेदार तक पहुँचेगा और फिर कमलिनी को बचाना मुश्किल हो जाएगा। आज तक सारे दाँव ठीक पड़े हैं। अब कल जो बात सुनी, वह क्या गुल खिलाएगी, यह कहा नहीं जा सकता। कमलिनी का प्रियतम, वह शंकर मुसलमान हो गया हो, सच नहीं लगता मुझे। यह बात उसे बताई जाए या बिना बताए उसे यहाँ से हटाया जाए, यह समझ में नहीं आता।

कमलिनी : (जल्दी से प्रवेश कर) जीजी, वह दरवाजे से गुजरता युवक! वह सुंदर युवक! जीजी, वह मेरा शंकर है। मुसलमान जैसे वेश में शायद मुझे चुपके से खोज रहा होगा। मैं उसे बड़ी दूर से निहार रही थी। वह शंकर ही है, बुला लाओ उसे।

गंगा : (परदे की तरफ जाते हुए) बेटी, भेजती हूँ बुलावा। आएगा ही, पर यदि वह मुसलमानी भेष में है तो थोड़े धैर्य से काम लो। एक जैसे और भी लोग नहीं होते, ऐसा नहीं है। इसलिए अनजान को यहाँ बुलाकर तुम्हारा भेद खोलना उचित न होगा, अन्यथा कल सुबह तक वह सूबेदार तुझे अपने शयनागार में खींच ले जा सकता है।

कमलिनी : थूकती हूँ उसके नाम पर; पर जीजी, वह शंकर ही है। अब मुझसे रहा नहीं जाता। भगवान् की लीला देखो, मेरे प्रियतम से भेंट करा रहा है।

[कमलिनी गुनगुनाती है। तभी शंकर का प्रवेश।]

' गंगा : लो, आ गया वह। धैर्य रखो बेटी, तेरे मन की स्थिरता की जो मैंने बार-बार प्रशंसा की है, वह झूठी न पड़े, ऐसे चित्तवृत्ति निरोध से जब तक मैं तुम्हें ना बुलाऊँ तब तक तुम अंदर खड़ी रहना।

पद

आज मुझे प्रियतम मेरा री देखो।

मिलेगा। जीजी।

ले आओ उसे...

[कमलिनी वैसा ही करती है। दरबान शंकर को अंदर छोड़ जाता है।]

आइए, बैठिए। अजनबी व्यक्ति ने पुकारा, इसपर नाराज तो नहीं हैं।

शंकर : बिलकुल नाराज नहीं हूँ, क्योंकि मैं तो अपने प्रिय की खोज में चाहे जहाँ भी जा सकता हूँ। आपने बुलवाया तो दिल में एकाएक आशा जगी। ऐसा लगा कि मैं जिसे खोज रहा हूँ उसी अपनी कमलिनी ने तो नहीं बुलाया मुझे।

कमलिनी : (स्वगत) दैया री! यह तो शंकर ही है। घुस पड़ूँ क्या मैं वहाँ। पड़ जाऊँ उसके गले में। पर वह मरा मुसलमानी भेष? हे मेरे हाथो, थाम लो मेरे धड़कते-उछलते हृदय को, नहीं तो मेरी जीजी मुझे उतावली कहेगी। धिक्कारेगी।

गंगा : क्या मैं आपका नाम जान सकती हूँ? कदाचित् मेरे हाथ से आपकी कुछ सहायता हो जाए।

शंकर : मेरा नाम है सिकंदर खान।

गंगा : और जिसको आप निरंतर तीनों लोक में खोज रहे हैं उसका नाम-कमलिनी? यह तो हिंदू नाम है।

शंकर : मेरा भी नाम पहले शंकर, हिंदू ही था।

गंगा : अच्छा, शंकर था नाम! इतना सुंदर नाम क्यों छोड़ दिया?

शंकर : सुंदर नाम क्यों छोड़ा? क्योंकि वह नाम और उसमें निहित हिंदुत्व जब तक मेरे शरीर से रक्‍त चूसती जोंक की तरह चिपका हुआ था तब तक वह मेरे शरीर से रक्‍त ही नहीं, मेरे जीवन का सुख, मान और मेरी आत्मा से आनंद सोखकर पी रहा था, पर जैसे ही मैंने अपने मन में जहरीले साँप की कल्पना बाँबी से खींचकर, दौंचकर दूर फेंक दी, मैं मनुष्य बन गया। मैंने सुना था कि कमलिनी ने भी अपने आत्मघाती नाम का त्याग कर मेरे जैसा ही मुसलमानी धर्म स्वीकार कर लिया है।

कमलिनी : (स्वगत) जिस चांडाल ने कमलिनी के धर्मांतरण की खबर फैलाई, उसकी जिह्वा जल क्यों न गई! और शंकर के धर्म बदलने की बात जो जिह्वा कर रही है, वह भी झड़ क्यों नहीं जाती! पर कमलिनी, ये तो तेरा प्रियतम शंकर है। यदि तू ही उसके लिए ऐसा भला-बुरा कहेगी तो वह इसे सह पाएगा? कुछ भी हो, है तो तेरा प्रियतम ही।

गंगा : पर सिकंदर खान, यदि तुम्हारा दिया हुआ समाचार झूठ निकला तो?

शंकर : तो क्या हुआ? भगवान् को साक्षी रखकर मैंने उससे विवाह करने का वचन दिया है। उसे निभाऊँगा मैं।

कमलिनी : (स्वगत) हाय राम, ये अब भी भगवान् को मान रहा है! मैंने व्यर्थ ही अपशब्द कहे उसके बारे में। यह मुसलमानी नाम मुझे खोजने के लिए, पाने के लिए झूठमूठ स्वीकारा होगा उसने। मेरा शंकर तो हिंदू ही है।

शंकर : अपनी कमला से तो मैं विवाहित हुआ ही। मैं अपनी भाँति उसे भी मुसलमान बना लूँगा और अछूतों की गंदी बस्ती से उसे राजमहल की सी ऊँचाई पर ले जाऊँगा।

कमलिनी : (स्वगत) नहीं, ये राक्षस मेरा शंकर नहीं। यह कोई सिंकदर ही होगा। मेरी आँखें धोखा दे गईं, चर्मचक्षुओं को यह शंकर दिखा, पर मन के चक्षुओं ने सही पहचान लिया। ऐ मेरे दिल, अब तू इसके लिए पागल मत बन।

शंकर : बोलिए, जिसके लिए मैं पागल बन गया हूँ, जो मेरे बचपन की सहेली थी, जो मेरे किशोर वय की सखी थी, जो मेरी गृहिणी होनेवाली थी, वह मेरी कमलिनी कहाँ है? क्या आप उसका पता दे सकती हैं? ( गाता है।)

कहाँ गई मेरी प्राणप्रिय, तड़पे ये निश-दिन मेरा जिया

कहाँ गई मेरी दिल की लता, लिपटे रहती थी।

मन में प्राणप्रिया, कहाँ ढूँढूँ मैं अपनी प्राणप्रिया।

कमलिनी : (स्वगत) कोई संदेह नहीं अब। शंकर ही है ये और मेरा मन उछल रहा है उसकी बाँहों में समाने को, पर हे मन, जरा रुको, ठीक से देखो, सिकंदर तो नहीं है वो?

गंगा : कमल...

कमल : कहिए, दीदी...

शंकर : अरे, यही है मेरी कमलिनी। हाँ, यही है वह। कितनी खुशी की बात है! प्रिय कमलिनी, चलो तू ही है मेरी।

कमलिनी : हाय राम, मैं तुम्हें शंकर नहीं मानती।

शंकर : अरे, ऐसे डरती क्यों हो? मैं ही तुम्हारा पहले का शंकर हूँ। मैं अब सिकंदर बन गया हूँ, कमलिनी। तुम्हारी खोजबीन में कितने कष्ट उठाए मैंने। तेरे मिलन को तड़पता रहा यह शंकर। अब एक पल की विरह सह नहीं सकता। चलो।

कमलिनी : ये लो प्रिय, मैं तैयार हूँ तुम्हारी बाँहों में सिमटने को। (आगे बढ़ते-बढ़ते रुक जाती है। फिर कठोर स्वर में कहती है।) नहीं, ये नहीं हो सकता। पहले बताओ, तुम शंकर हो या सिकंदर? दोनों एक स्थान पर नहीं रह सकते। दोनों मेरे प्रियतम कैसे हो सकते हैं? हे मेरे पैर, आगे बढ़ने से रुको, नहीं तो स्वर्ग के शिखर पर विराजने जो कदम बढ़ रहे हों वह कदाचित् फिसलकर नरक के गहरे गड्ढे में जा गिरें।

शंकर : प्राणप्रिय, अब मेरा धीरज मत तोड़ो। ऐसे डरती क्यों हो?

कमलिनी : तुम्हारी इस वेशभूषा से नफरत है मुझे। उस पतित अहिंदू वेशभूषा से डर लगता है मुझे।

शंकर : क्या तुम अभी भी हिंदू ही हो?

कमलिनी : और क्या तुम हिंदू नहीं हो अब? बताओ, साफ और सच-सच बताओ। तुम्हारे एक कथन पर मेरे जीवन का सोना बनना या मिट्टी होना निर्भर है। बोलो, दूर से ही बताओ। तेरे इन दुष्ट वस्त्रों की और हिंदू विरोधी प्रलापों की छाया भी मुझपर न पड़े, इतनी दूरी रखकर बोलो।

शंकर : नहीं, अब मैं हिंदू नहीं रहा। तू और मैं जब हिंदू थे तब जो नीचत्व की छाप हमपर लगी थी वह इस वेश को अपनाते ही गल गई। कमली, इस वेश से नया भय उत्पन्न नहीं होता बल्कि पुराने सारे डर दूर हो जाते हैं। कमली, तुम भी ये वेश धारण कर लो, इन विचारों का मर्म स्वीकार कर लो और मेरे साथ-साथ उसी फव्वारे पर चलो। तुम पाओगी कि जो तुम्हें घोड़े पर नहीं बैठा रहे थे, जो तुम्हें पानी पीने नहीं दे रहे थे, वे ही अब तेरे आगे-पीछे मँडराएँगे। उनकी क्षत्रियता अब घुटने टेक वह सब करने देगी जिसको वे पहले दूर रखते थे, क्योंकि मैं अब सिकंदर बन गया हूँ। मैं सिपहसालार बन गया हूँ। और तुम तो मेरी स्वयंवरिता पत्नी बन रही हो।

कमलिनी : सिकंदर, ये पापी शब्द फिर से मत बोलो। स्वयंवरित मैं शंकर की पत्नी हो सकती हूँ। शंकर मेरा प्रियतम है। (एकाएक कठोर स्वर में) पर सिकंदर नीच की... (फिर से मुलायम स्वर में) अरे, कितनी दुष्टता दिखा रही हूँ मैं। मेरा रत्नों जैसा ये प्राणसखा मुझे फिर से मिला है और मैं कुछ भी बके जा रही हूँ। शंकर... (आगे बढ़ने लगती है।)

शंकर : कमली, रुको नहीं, यदि यह मेरा वेश तुझे भयंकर पाप लग रहा हो तो इतना भर समझो कि वह तुम्हारे प्यार की ही छाया है। तेरे मुसलमान बनने की बात सुनकर ही तुझे विरह व्यथा से बचाने मैंने मुसलमान होना स्वीकारा है।

कमलिनी : फिर तो मैं अधिक ही घृणा करती हूँ तुमसे। हिंदुत्व का मूल्य जिसने मुझ जैसी हाड़-मांस की एक लड़की के प्रेम से अधिक न समझ पाया, वह अधम ही होगा। यदि कोई दर्शन या विचारों से प्रभावित होकर धर्मांतरण करता तो मैं उसको मतिमंद मान सकती थी, उसका धिक्कार मैं न करती, पर जो दुःखों से डरकर नरक के किसी सुवर्ण पात्र के लोभ में और व्यक्तिगत अपमानों से डरकर धर्म बदलता है वह मेरी दृष्टि में नीचोत्तम ही है। मैं उसकी छाया से भी बचना चाहती हूँ। जीजी, मुझे पकड़ो। मेरे अवयव और मन में द्वंद्व हो रहा है। शरीर इस शंकर के आलिंगन के अमृतपान के लिए उतावला होकर पतंगे की तरह उसपर झपटना चाहता है, जबकि मेरी आत्मा सिकंदर के राक्षस से बचने को कह रही है, क्योंकि यह हिंदू धर्म से अलग हुआ सिकंदर खान है।

शंकर : हिंदू धर्म से पतित मत कहो। हिंदू धर्म में जो पतित था वही आज पावन बनकर नहीं बल्कि पावक (अग्नि) बनकर तुम्हारे सामने खड़ा है। जब वह शंकर था तब उसके छूने से घोड़े को भी छूत लगती थी, आज उसी शंकर के घुड़सवार बनते ही कल तक हल्ला मचानेवाले वे ही क्षत्रिय-वैश्य उसके घोड़े की मालिश करने में जुटे देखे जा सकते हैं। तुम्हीं बताओ, ये मेरा पतन है या उत्थान!

कमलिनी : घोड़े पर बैठना यदि उद्धार होगा तो मक्खियों को भी राजा से अधिक भाग्यवान मानना चाहिए, क्योंकि मक्खियाँ भी घोड़े की सवारी करती हैं। शंकर यदि हिंदू महार के रूप में घुड़सवारी करता, सभी लोग तुझसे मनुष्यता के नाते समानतापूर्वक व्यवहार करते तो उसे तुम्हारी वास्तविक उन्नति माना होता मैंने। पर ये हिंदू तेरे घोड़े को खरारा कर रहे हैं, तू उनका अछूत बंधु है इसलिए नहीं बल्कि तुम मुसलमान हो, इसलिए कर रहे हैं। इस स्थिति के अंतर से मेरे हिंदू बांधवों की आत्मघाती कापुरुषता जितनी व्यक्त हो रही है उससे कहीं अधिक स्वजाति की अवनति से संतुष्ट होनेवाली तेरी स्वधर्म द्रोही नीचता अधिक उजागर हो रही है। मेरा शंकर हिंदू था, तू तो मुसलमान है।

शंकर : तेरा हिंदू शंकर तो अब इस दुनिया में नहीं है। जो कुछ है वह यही सिकंदर है।

कमलिनी : दुष्ट, तुम्हारे अभद्र शब्द नष्ट हों। मेरा शंकर है, वह हिंदू ही है और इसी दुनिया में है। कमलिनी की साँस जब तक चलेगी तब तक वह उसके मन में अमर है। जीजी, मेरा शंकर है, कसम तुम्हारी, वह उस हरसिंगार के नीचे खड़ा है। जीजी, जानती हो? हम इस पेड़ के साये में लुका-छिपी खेला करते थे। उस समय उसने मुझे खेलते-खेलते ऐसे पकड़ लिया था। (उसकी ओर बढ़ती है। तभी मल्हार गायकवाड़ आता है।)

मल्हार : सलाम, सिकंदर खान साहब।

शंकर : कमली, ये देखो, सूबेदार का दिया हुआ मेरी अधीनस्थ सेना का क्षत्रियकुल उत्पन्न वीर मराठा। देखो, यह कैसे मुझे झुककर सलाम कर रहा है। कहो गायकवाड़, घोड़ा ले आए हमारा? बोलो।

मल्हार : जी खान साहब, सूबेदार ने आपको अविलंब बुलाया भी है। यही कहने आया हूँ मैं।

शंकर : ठीक है। ये देखो, ये मेरी स्वामिनी है। इन्हें भी तुम झुककर सलाम करो। फिर यहाँ से जाना।

[मल्हार मुजरा करने बढ़ता है।]

कमलिनी : (पीछे हटते हुए) अरे-अरे, ये क्या पटेल साहब! मैं एक अछूत कन्या हूँ। यदि आप मुझे एक धर्मभगिनी के नाते मुजरा करोगे तो मैं स्वीकार कर सकती हूँ, पर तुम्हें धोखे में रखकर मैं सलाम नहीं ले सकती।

शंकर : गायकवाड़, मुजरा करते हो या नहीं?

मल्हार : हम तो उच्चवर्णी मराठा हैं। हम इस अछूत कन्या को कैसे मुजरा करें?

शंकर : मुझे कैसे किया?

मल्हार : क्योंकि अब आपने हिंदू धर्म त्याग दिया है। यदि ये हिंदू धर्म तजकर मुसलमान हो जाएँ तो हम मुजरा करेंगे। मुसलमानों के सामने हम दस बार झुककर सलाम कर लेंगे, पर अछूतों को, जब तक वे हिंदू हैं तब तक तो बिलकुल भी न करेंगे। हिंदू रूढ़ि को हम त्याग थोड़े ही सकते हैं।

कमलिनी : पटेलजी, आपकी आज की रूढ़ि के अनुसार मैं अछूत कन्या आपको दूर से ही जोहार करती हूँ।

शंकर : (स्वगत) बचपन के संस्कारों ने इसे पूरी तरह ग्रस लिया है। जैसेकि भुतिया को किसी दुर्घटना से जबरदस्ती करते हुए भी बचाना पड़ता है, वैसे ही मैं कमलिनी को पिछड़ी बस्ती से बलपूर्वक उठाकर महलों में ले जाऊँगा और उसे मुसलमान बनाऊँगा। (प्रकट) आज तो मैं जा रहा हूँ। कुछ दिन बाद लौटूँगा। तब तक सोच लेना। जाऊँ मैं? इतने दिनों बाद मिलने पर भी मुझे ऐसे ही लौटा रही हो। हाथ में हाथ भी नहीं लेने दिया।

कमलिनी : मेरा दिल पानी-पानी हुआ जा रहा है। शंकर, मत जाओ न, सचमुच मत जाओ। तुम्हारे जाने की बात सुनते ही आँखों में आँसू आ जाते हैं। (गीत गाती है।)

तेरे बिना, जीना ना, प्राणप्रिय, जीना ना...

हे मेरे शंकर (धिक्कार से) सिकंदर,

तुम यहाँ से चले जाओ।

शंकर : नहीं जाऊँगा। तुझे गले लगाए बिना जाऊँगा तो पगला जाऊँगा मैं।

(जबरन उसे पास खींचता है।)

गंगा : हाँ-हाँ, सावधान सिकंदर खान! जोर-जबरदस्ती से तुम मेरी इस हिंदू कन्या को छू नहीं सकते अन्यथा द्वार रक्षकों को बुलाकर निकालना पड़ेगा तुम्हें यहाँ से। जाओ, चलते बनो यहाँ से।

शंकर : (स्वगत) गलती कर रहा हूँ मैं। अभी यहाँ बिफर गई तो यह हिरनी हाथ से छूट जाएगी। सूबेदार की अनुमति से इस घर पर छापा मारकर ही इन्हें पकड़ना उचित होगा। अब तो मैं हिंदू रहा नहीं। इसलिए किसीको भी जबरन धर्म बदलवाना अनुचित न होगा। अब तो मैं मुसलमान बन चुका हूँ। अब तो सबको, विशेषतः अछूतों को, सारे हिंदुओं को तलवार की नोंक पर काफिर से काजी बनवाना यह मेरा धर्म और कर्तव्य बन गया है। (प्रकट) क्षमा करो बाई, जो कुछ हुआ, बेहतर है उसको भुला दें। मैं आपको फिर से कोई कष्ट न दूँगा। शंकर के हाथ में मात्र एक कमल था, पर इस सिकंदर के गले में गलबाहें डालने के लिए अनेकों की कतार खड़ी है। आप निश्चिंत रहिए। (जाता है।)

: तीसरा दृश्य :

[ स्थान : बंगश खान की कचहरी।]

बंगश : हिंदुओं के बगीचे के अनेक कोमल फूल इस सूबेदार बंगश खान ने आज तक तोड़े। इसलिए सब फूल बासी हो गए हैं। इसलिए उन सभी फूलों की रानी जो कमलिनी है, वही मेरे चरणों पर अब अर्पित होगी। मुझे पता चला था कि इब्राहिम ने कुछ लोगों की सहायता से एक हिंदू सुंदरी को कहीं सुरक्षित छिपा रखा है, पर उस उल्लू सिकंदर ने, उस धेड़ शंकर ने स्वयं आकर उसका पता बताया है मुझे। अब मैं इब्राहिम को या और किसीको भी पता लगने के पहले छापा डालकर उसे पकड़वा लूँगा। मेरे छापे की ओर उसका बिलकुल भी ध्यान न जाए, इसलिए मैं उस इब्राहिम को चोखा के विरुद्ध आई शिकायतों पर लगा देता हूँ। वह कोई सजा सुनकर हलचल पैदा करे, उसी बीच मैं चुपचाप छापा मारकर कमलिनी पर कब्जा कर लूँगा। हिंदुओं की जितनी कन्याओं को लूटकर मैं जनानखाने में शामिल कर लेता हूँ उतनी ही मेरी इज्जत मुसलमानों में बढ़ती जाती है। ऐहिक सुखों का जितना उपभोग किया जाए उतना ही पारलौकिक कल्याण का मार्ग खुला होता है, जिसका साधन उस मौलवी जाफर अली ने मुझे दिखा दिया। मैंने अभी तक इतनी हिंदू लड़कियाँ भ्रष्ट कर उन्हें अपनी रखैल बनाया है कि सैकड़ों मुसलमान मुझे इसलाम का सच्चा प्रेषक एवं मुसलिम संतान संवर्धना के नाते धर्म प्रसारक ही मानने लगे हैं। ऐयाशी करना तो धर्म के विरुद्ध मानी जाती है, पर जाफर अली के मंत्र ने तो कामोपभोग के जरिए धर्मसंचय करने का मार्ग बताया है। काम की पूर्ति से धर्म और धर्म की पूर्ति हेतु कामोपभोग, यह बड़ा ही लाभकारी तंत्र दिया है हम लोगों को। कुरान में क्या कहा है, उससे हमें क्या लेना? काफिरों की कन्याएँ भोगो, उन्हें भ्रष्ट करो, यह जाफर अली का मंत्र ही मेरी कुरान है। वह देखो, मौलवी साहब आ ही रहे हैं। (जाफर अली एवं मुल्लाजी का प्रवेश।) आइए मुल्लाजी, तशरीफ लाइए। उस चोखामार के बारे में क्या फैसला हुआ, संक्षेप में बताइए, जरा जल्दी में हूँ।

जाफर अली : हिंदुओं की धर्म-प्रथाओं में हम शासकों को दखल नहीं देना चाहिए, यह मानना गलत है। हम हिंदुओं के सिंहासन तोड़कर राज्यकर्ता बने हैं। हमने उन क्षत्रियों को दास बनाकर उनकी प्रथाओं को चूर-चूर कर दिया है। मोहम्मद गजनवी, मोहम्मद गोरी, हिंदू देवस्थानों को तोड़कर मूर्तियों को मसजिद की सीढ़ियों पर गाड़ा है। लाखों हिंदुओं को हमने तलवार के जोर से मुसलमान बनाया है। उनकी कन्याओं को अपनी दासी बनाया है। तभी तो इसलाम के प्रसार-प्रचार हेतु हिंदू धर्म की रूढ़ियाँ-प्रथाएँ तथा जन-धन मन को नष्ट करना हमारा कर्तव्य है। जहाँ ऐसा करना संभव हो, वहाँ उनकी आत्मघाती रूढ़ियों को प्रोत्साहित कर अपनी संख्या बढ़ाना तर्कसंगत होता है। चोखा हमारे मार्ग की बाधा है, क्योंकि उसने पांडुरंग को आसान तरीके से भक्ति करने का तरीका सिखाकर और अपने आचरण द्वारा हिंदू धर्म की अच्छाइयाँ बताकर अछूतों में कट्टर हिंदुत्वता भर दी है। रोहिदास, चोखा जैसे संत यदि इन धेड़ों में न पैदा होते तो सारे-के-सारे अछूत कब के मुसलमान बन गए होते।

सूबेदार : फिर उस चोखा को धर्मघातकी कहकर क्यों न खत्म कर दें हम?

जाफर अली : नहीं, ऐसा करने से हमारे सारे हिंदू उसके लिए सम्मान एवं श्रद्धा दिखाने लगेंगे। अस्पृश्य भी उसे धर्मवीर मानने लगेंगे, पर हम यदि स्पृश्यों का पक्ष लेकर चोखा को मारते हैं तो स्पृश्य हमारे राज्य के हितचिंतक बन जाएँगे और उससे अछूतों के बस्ती की ओर बढ़ रहे इसलाम के चरणों की चोखा जैसी बड़ी बाधा अपने आप दूर हो जाएगी।

मुल्लाजी : क्या ऐसा करने से अछुत लोग हमसे बिफर नहीं जाएँगे?

जाफर अली : मैं जब तक जिंदा हूँ तब तक उसका डर नहीं। उन सब यातनाओं का दोष स्पृश्य हिंदुओं के माथे पर मढ़कर कहूँगा कि देखो भाई, हमें तुम्हारे महार संत पर खूब दया आई, पर राज्यकर्ता के नाते हमने तुम हिंदुओं की प्रथाओं का पालन न कराया होता तो तुम्हीं लोग हमारे विरोध में चिल्लाते। मुसलमान अछूतों को कितने प्रेम से गले लगाते हैं, ये देखना हो तो हिंदुत्व छोड़ दो। उनके द्वारा दी जा रही यातनाओं का चक्कर कभी समाप्त होनेवाला नहीं। तुम सारे अछूत मुसलमान बन जाओ, और फिर देखो कौन तुम्हें नहीं छूता? मेरे इस प्रचार से प्रभावित हुए अछूत मुसलमान बनकर ही चैन लेंगे। अपने अनुभवों की बात कह रहा हूँ मैं।

सूबेदार : बिलकुल ठीक है आपकी बात। क्यों मौलवीजी, आपकी क्या राय है?

मुल्लाजी : गुनाह माफ है, लेकिन मैं तो सीधा-सादा अल्लाह का बंदा हूँ। मुझे मौलवी की कूटनीति पसंद नहीं है। इसलाम का प्रचार इस तरह से करना कुरान शरीफ को कलंकित करना होगा। हिंदुओं में भी ऊँचे किस्म का ब्रह्मज्ञान है, उनमें भी नामी साधु-महात्मा पैदा होते आए हैं। मेरा कुरान तो मुझे उदारता सिखाता है। उसका प्रसार प्यार और भाईचारे से करना सिखाता है, पर कूटनीति या तलवार की नोक पर या कन्याओं पर बलात्कार आदि तरीकों से जिस धर्म का प्रचार किया जाता है वह दैवी धर्म न होकर दानवी धर्म है-ऐसा...

सूबेदार : चुप रहो, मुल्लाजी, मैं आपको बोलने दे रहा हूँ, इसलिए आप जो चाहे मत बको। हजारों मौलवियों और धर्मवीरों के बताए मार्ग से ही हम आ रहे हैं। अच्छा मौलवीजी, इब्राहिम को कहो कि वह पकड़े गए चोखा सहित सभी हिंदू नेताओं को मेरे सामने लाए। मुझे और भी काम निपटाने हैं। ये काम निपटाकर मैं आगे बढूँगा।

[मौलवी जाकर इब्राहिम और चोखा को घसीटते ला रहे सैनिक सहित देवी सिंह,पटेल,नारंभट आदि को लाता है।]

हिंदू नेता : सूबेदार की जय हो। मुसलमानी सलतनत की जय हो।

सूबेदार : हाँ-हाँ, बकवास बंद करो। तुम लोगों की फरियाद क्या है, वह बताओ। बोलो पटेल, तुम्हीं बताओ।

पटेल : (चोखा के सिर पर घूसा मारकर) बोल, अब तू ही बता सारा किस्सा। भगवान् तेरे घर आकर भोजन करते हैं क्या? हम क्षत्रियों के घर में उन्हें भोजन नहीं मिलता, इसलिए तुझ जैसे धेड़ के यहाँ भीख माँगने आते हैं क्या?

भीकू सेठ : (पीठ पर धौल जमाते हुए) अबे बोल न अब! भगवान् तुझे हाथ पकड़कर मंदिर में ले जाते हैं, क्यों? सोने के गहनों से लदा हम वैश्यों का हाथ छोड़कर घूरे के गोबर-गड्ढे में सना तेरा हाथ प्रत्यक्ष आकर पकड़ते हैं, क्यों?

अन्य लोग : अबे बोल ना! अब क्यों बोलती बंद हो गई तेरी? तूने मंदिर में घुसकर उसे अपवित्र किया है या नहीं? ये भगवान् के गले का हार तेरे गले में कहाँ से आया? मंदिर में घुसते हो, भगवान् को भ्रष्ट करते हो।

चोखा : सज्जनो, मुझ गरीब को क्यों कष्ट दे रहे हो। मनुष्य को छूने से वह अपवित्र हो जाएगा, यह बात मान तो ली, परंतु भगवान् को छूने से वह अपवित्र हो जाएगा, ये कैसे माना जा सकता है। यदि अस्पृश्यों के स्पर्श से वह मैला हो जाता है तो जिस दिन उसने अछूतों को जन्म दिया, उसी दिन उसे मैला, अछूत हो जाना चाहिए। जरा सोचिए। (अभंग गाता है।)

…छूत है जी कौन? अछूत है कौन?

छुआछूत भाव, देह धारी…

चोखा कहे देव, सभी से अलिप्त

वही निराकार, देखा मैंने…

भगवान् मेरे घर आते हैं। मेरे रोकने के बाद भी एक थाल में भोजन करते हैं, यह पूर्णतः सत्य है। उससे मुझ पतित का घर पावन हुआ, देव मैला नहीं हुआ। मेरे लाख कहने पर कि मैं अछूत हूँ, भगवान् पांडुरंग मुझे मंदिर में ले गए, पर उससे न मंदिर मैला हुआ, न भगवान्। बल्कि मैं पतित पावन बन गया। प्रकाश के छूने से अँधेरा कजरा नहीं जाता बल्कि अँधेरा ही प्रकाशमय हो जाता है।

सूबेदार : ठीक है, चोखा। तुमने माना है कि तुम मंदिर में गए थे और तुमने भगवान् के साथ खाना भी खाया। अच्छा, ये बताओ कि तुम हिंदू हो न!

चोखा : जी, मैं हिंदू ही हूँ। हिंदू समाज के पैरों का पायंदाज हूँ मैं। भगवान् पांडुरंग के मंदिर की साफ-सफाई करनेवाला झाड़ू लगानेवाला हूँ मैं जी।

सूबेदार : जब तुम हिंदू हो तो तुम्हें यह तो मालूम होगा ही कि अछूतों को मंदिर में नहीं घुसना चाहिए, औरों को छूना नहीं चाहिए। हिंदू शास्त्रों की ये बातें तुझे तो मालूम ही होंगी। फिर तुमने देव और देवालय को भ्रष्ट क्यों किया?

चोखा : शास्त्रों का सही अर्थ मैं अपढ़ किसी भी तरह जान न पाया। इसलिए संपूर्ण ज्ञान की गंगा जिसके चरणों से निकली, उन चरणों की शरण में गया मैं। अस्पृश्य भक्ति कैसे करें, यही प्रश्न मैंने उनसे पूछा। मैं मंदिर में जा नहीं सकता था। इसलिए वे ही मेरे यहाँ आए और बोले

'ऊँच-नीच जाति होना, लिंग-भेद कभी भी कहीं भी मुझे नापसंद हैं!'

जैसे अग्नि को आहुति मैला नहीं कर सकती, शराबी जैसा पतित स्पर्श भी भगवान् को मैला नहीं कर सकता। चोर-उचक्के, वेश्यागामी स्पृश्यों के आने से मंदिर अपवित्र नहीं बनता, पर अछूत के, वह भी पवित्र और साफ होकर आए अछूत के स्पर्श से, चूँकि वह अछूत कुल में पैदा हुआ इसलिए वह अपवित्र और मैला हो जाएगा, यह तो घोर पाखंड है। प्रत्यक्ष भगवान् ने समझाया यह मुझे।

नारंभट : (उसकी पीठ पर मारके) बदमाश, लुच्चे, ब्राह्मणों को शराबी कहता है।

देवी सिंह : लफंगे, पाजी, क्षत्रियों को चोर कहता है। (उसके सिर पर मारता है।)

भीकू सेठ : साले कमीने, वैश्यों को वेश्या कहता है। (मुँह पर मारता है।)

चोखा : हे भगवान्, मुझपर हो रहे अत्याचार अब तुम ही देखो और झेलो। भक्त को पीड़ित किया जा रहा है और तुम आराम से मंदिर में बैठे हो।

[इतने में एक व्यक्ति दौड़ता आता है।]

वह व्यक्ति : अरे भाई, बड़ा आश्चर्य हो रहा है। मंदिर में भगवान् पांडुरंग की मूर्ति पर आघात हो रहे हैं। उनके सिर और गाल पर सूजन आ गई। मार के निशान सारे बदन पर उभर आए हैं। (आकाशवाणी होती है।) 'मेरे भक्त पर होनेवाले आघात मेरी मूर्ति पर हो रहे हैं।'

दूसरा व्यक्ति : (दौड़ते-हाँफते आता है।) दौड़ो-दौड़ो, भगवान् मंदिर से एकाएक गायब हो गए हैं। किसी ने भयंकर जादू-टोना किया सा लगता है।

पटेल : (घबराकर और चिढ़कर) अरे, किसी ने क्या, इस साले धेड़ ने ही कुछ टोटका किया होगा। सूबेदारजी, यदि आप इसे खत्म नहीं करेंगे तो प्रलय काल आ जाएगा। हम हिंदू इसे मारते हैं तो वह भगवान् को ही जा लगता है, पर आप मुसलमान हैं। यदि आप इसे मारेंगे तो भगवान् क्रोधित नहीं होंगे। इसलिए मारिए इसे।

भीकू सेठ : बिलकुल सही कहा आपने, पटेल। विजयनगर के साम्राज्य में नरसिंह का भव्य मंदिर मुसलमानों ने तोड़ा, पर भगवान् उनपर जरा भी कुपित नहीं हुए, बल्कि उन्हें सारा राज्य सौंप दिया। यदि किसी हिंदू ने उनके सामने नारियल न फोड़ा होता तो वही नरसिंह उसके सिर पर सवार हो जाते।

सूबेदार : ठीक है। इब्राहिम, इन सब हिंदुओं को मैदान में ले जाओ। इस चोखा को मंदिर मैला करने की सजा में बैल से बाँध दो और बैलों को कोड़े मार दौड़ा दो। पत्थरों पर, सड़क पर घिस-पिटकर जब तक इसके टुकड़े-टुकड़े नहीं हो जाते तब तक बैलों को दौड़ाते रहो। चलो जाओ। (सब हिंदू सूबेदार की जय ,मुसलिम सलतनत की जय,चिल्लाते वहाँ से जाते हैं, चोखा को घसीटकर ले जाते हैं।)

: चौथा दृश्य :

शंकर : धिक्कार है मुझे! भारी पापों के गर्त में धंसता जा रहा हूँ मैं। छि:, करना कुछ था और कर बैठा कुछ और ही। मेरी लाड़ली कमलिनी का अस्पृश्यता का कलंक मिटाकर मैं उसे सुखों के सिंहासन पर बैठाना चाहता था। स्वेच्छा से यदि वह इसके लिए तैयार न हो तो बलपूर्वक उसे इसके लिए तैयार किया जाए, इसलिए मैंने सूबेदार बंगश खान को उसका समाचार स्वयं जाकर दिया; परंतु उसके ऊपर हुए अत्याचारों और उसकी सुंदरता के बारे में सुनते ही वह मुझपर कुत्ते जैसा झपट पड़ा। बोला कि ये ऐसी सुंदर लड़की तुझ जैसे धेड़ को, बिन पेंदी के लोटे को सौंपने में मैं तेरी सहायता करूँ? सूबेदार बंगश मर गया क्या! वह जब तक जिंदा है तब तक सुंदर कन्याएँ धेड़ों के हाथ लगना संभव नहीं है। ऐसा अन्याय कैसे होने देंगे हम! ऐसा कहकर उस काम लंपट ने कमलिनी को खुद उपभोग हेतु पकड़ लाने की घोषणा कर दी। अरे रे, वे राक्षस उसे पकड़ने निकल भी पड़े होंगे। मैंने स्वयं ही उसका ठिकाना बताया, कितनी नीचता कर डाली मैंने! अब करूँ तो क्या करूँ मैं? हाय, हा, अस्पृश्यता के कलंक से ऊबकर मैंने हिंदू धर्म से विद्रोह किया, धिक्कार है मुझे! अस्पृश्यता हिंदू धर्म नहीं है, किशन और कमलिनी के ये उद्गार अब याद आते हैं तो उनकी यथार्थता ज्ञात होती है। उस समय यह समझा नहीं था। हिंदू तो हिंदू, अब मुसलमान बंगश भी 'बिन पेंदी' का कहकर धिक्कार रहा है। मेरी प्रिय कमलिनी, मेरे सिकंदर नाम से तुझे घिन है, पर अंदर का शंकर तो अभी भी प्रिय है न! उस पापी सिकंदर की छाया से मुक्त होकर फिर से शंकर के रूप में शुद्ध करने का कोई उपाय होगा क्या? मैं हिंदु धर्म के लिए जीऊँगा, उसी के हित में मरूँगा--यह किशन की कृतिशील गर्जना मेरे दिल में तोपों की गड़गड़ाहट-सी गूंज रही है। नीच सिकंदर, तेरे पापी प्रवेश के साथ-साथ मेरी कमलिनी, मेरा आश्रय, मेरा हिंदुत्व, मेरा मैं भी पराया हो गया। अब मैं इस पापी सिकंदर के कब्जे से शंकर को कैसे छुड़ाऊँ? या उस सिकंदर का गला दबाकर खत्म कर दूँ उसे? ( गला दबाने लगता है।) पर नहीं, इसके अलावा दूसरा तरीका भी है। अपने धर्म शत्रुओं को काटकर फिर अपने को काट डालूँगा। यही उचिंत होगा। मरना ही है तो वह अपने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए, मुझपर छाए राक्षस सिकंदर को खत्म करते हुए मरना ही श्रेयस्कर होगा, पर बाद में क्या होगा? मौत के बाद क्या होगा? अरे, एकाएक मुझे ऐसा भय क्यों लगने लगा? मरने के बाद तो परलोक है। जो दुष्ट हिंदू लोग स्वधर्म छोड़कर अन्य धर्म में जाते हैं, वे स्वयं को नहीं बल्कि सात पुरखों को नरक में ढकेलते हैं। यदि यह सत्य है तो... (अँधेरा होता है।)

पहला भूत : (प्रवेश कर) यह वास्तव में सच है। अक्षर-अक्षर सच है। शंकर, तेरे हिंदू धर्म का त्याग करते ही देखो मुझे यमदूत खींच ले जाने लगे हैं।

शंकर : कौन हो तुम? मैं नींद में तो नहीं देख रहा तुम्हें! बोलो, कौन हो तुम?

पहला भूत : मैं तुम्हारी माँ हूँ, शंकर। ये देखो, मेरे बदन में जो रक्त है, वह हिंदू रक्त है। उसी रक्त से बना मेरे स्तन का दूध वह हिंदू दूध है। शंकर, यह हिंदू रक्त और हिंदू दूध पीकर ही तू बड़ा हुआ। तेरे शरीर का कण-कण, हाड़-मांस-मज्जा सबकुछ हिंदू बीज का ही है। मेरे पेट से पैदा होकर मुझे नरक में मत ढकेलो!

शंकर : क्षमा करो, माँ!

दूसरा भूत : कदापि नहीं। दुष्ट मेरे कुल को कलंकित कर डाला है तुमने। जरा गौर से देख, कौन हूँ मैं?

शंकर : पिताजी! बाबा! हे धरती, तू दो फाँक हो जा और मुझे मेरा कजराया चेहरा छुपाने को जगह दे।

दूसरा भूत : अब तो पाताल में भी तुझे छिपते नहीं बनेगा, समझे! अपने महान् हिंदू धर्म का त्याग करने के कारण यमदूत वहाँ भी तेरा पीछा करेंगे। मैं तेरा पिता हूँ। अभी तूने मुझे 'बाबा' कहकर पुकारा था, पर मैं तो महार, अछूत था। मुझ जैसे महार का बेटा कहलाने से शरमाकर तूने मुसलमान बाप अपनाया है न! फिर मुझे नहीं, उसे ही 'बाबा' कहकर पुकार और मुझे नरक में ढकेल दे।

शंकर : बाबा, शंकर के लिए आप आज भी बाबा हो। जिस नीच ने मुसलमान बाप अपनाया, उस सिकंदर को मैं शीघ्र ही दंड दूँगा, बाबा। आपका शंकर शीघ्र ही चोरी-छिपे घुसपैठ करनेवाले सिकंदर को मौत के घाट उतारनेवाला है। आप निश्चिंत रहें।

तीसरा भूत : शंकर, मैं तेरा परदादा हूँ।

शंकर : अब तो मेरा दिल भय, आश्चर्य और पश्चात्ताप से फटा जा रहा है। बाप रेऽ!

सभी भूत

एक साथ : मुसलमान बाप कहो, ईसाई बाप कहो। हम तो हिंदू हैं, हिंदू महार! शर्म आती है न हमपर? दुष्ट, कुलकलंक! हमारे हिंदू धर्म में पैदा होकर भी तूने हमें नरक में ढकेल दिया है। अब भी हमें बचा ले इन यमदूतों से, अब भी समय है।

शंकर : हे मेरी सारी शक्तियो, जागो। हे जिह्वा, लड़खड़ा नहीं। हे मेरे पूर्वजो, हिंदू धर्म त्यागकर इस भयंकर पाप से मैं कैसे छुटकारा पा सकता हूँ? क्या करूँ मैं?

सभी भूत

एक साथ : पश्चात्ताप!

शंकर : पश्चात्ताप से पतित हुआ व्यक्ति हिंदू धर्म में वापस प्रवेश नहीं कर सकता, ऐसा नियम है न!

सब भूत : वह गलत है, झूठ है। जनसामान्य ने भले ही धर्मांतरित की शुद्धि नहीं, ऐसा कहा हो, पर कठोर-से-कठोर यमधर्म भी पश्चात्ताप के बाद सुष्ट हो सकता है और हिंदू धर्म में लौट सकता है। ऐसा मानना है-इसलिए पश्चात्ताप करो और...

शंकर : बोलिए-बोलिए, और क्या संस्कार करूँ मैं, यदि पर्वत शिखर से छलाँग लगाने को कहोगे तो वह भी मैं कर लूँगा, पर मुझे फिर से हिंदू धर्म में ले लीजिए।

सब भूत : पश्चात्ताप से तू अब हिंदू बन ही गया है, पर विशेष कर्तव्य का बोध कराना हम आवश्यक मानते हैं। तेरी मूर्खता और लंपटता के फलस्वरूप वहाँ सती कमलिनी को जो कष्ट भुगतना पड़ रहा है, उसे मुक्त कराने तत्काल वहाँ पहुँचो। मुसलमानों की प्रताड़ना में फँसी उस हिंदू कन्या की ढाल बनकर रक्षा करो। उसपर बलात्कार की कामना करनेवाले दुष्टों में से कम-से-कम किसी एक की हत्या कर उसके रुधिर से कमलिनी के पैर धो डालो। यही तेरा प्रायश्चित्त विधान है। जाओ।

शंकर : ठीक है, जाता हूँ। (सब भूतों का निर्गमन।) मैं शंकर हूँ, मैं हिंदू हूँ। हे मुझमें घुसपैठ किए हुए मुसलमान सिकंदर खान, अब रणभूमि में उतर पड़। मैं कमल के सामने तुझे समाप्त करूँगा। सिकंदर खान, मैं कमलिनी के सामने तेरा ही वध करनेवाला हूँ। कहाँ भागेगा अब? ( जाता है।)

: पाँचवाँ दृश्य :

[ स्थान : गंगा की कोठी। पात्र : गंगा और कमलिनी।]

गंगा : बेटी कमलिनी, संकट जब आते हैं तो चारों ओर से आते हैं। वही हमारे साथ हो रहा है। तुझे पाने के लिए ललचाए इब्राहिम की चांडाल चौकड़ी को तो मैंने किसी तरह से भगा दिया, पर वह तेरा शंकर! उस धर्मभ्रष्ट सिकंदर शैतान ने तेरा पता बंगश खान को दिया और सूबेदार की पापी दृष्टि तुझपर पड़ी। अब वह तुझे पकड़कर ले जाने कभी भी, किसी भी समय आ सकता है। बेटी, जो कुछ साहस हमें करना है, वह अभी इसी क्षण करना होगा। तेरा निश्चय तो पक्का है न!

कमलिनी : दीदी, बिलकुल पक्का है। किसी भी अहिंदू को मैं स्वयं होकर नहीं छुऊँगी, बलात्कार से किसी अहिंदू ने मेरी दुर्दशा की तो मैं उसका बदला लिये बिना नहीं रहूँगी। दीदी, मैं चोखाजी की शिष्या हूँ, जानू महार की बेटी हूँ। हिंदू धर्म की चारदीवारी की रक्षा का दायित्व हमें सौंपा गया है। मैं उसी तट रक्षक की कन्या हूँ। मैं हिंदुत्व के तट की रक्षा करते-करते मर जाऊँगी, पर धर्म शत्रुओं को अंदर प्रविष्ट न होने दूँगी। लेकिन जीजी, तेरे सुख को मैंने मिट्टी में मिला दिया।

गंगा : कमली, तुझ जैसी देवी के स्पर्श से पावन हुई मैं तेरी प्रतिज्ञापूर्ति के लिए, तेरे इस महान् कार्य में साथ देने को तैयार हूँ। कमला, देख यह दृढ़ निश्चय कुछ देर मुझे कंपित कर अब लोहे जैसा कठोर हो उग्र रूप धारण कर रहा है। अब मेरे प्राणों का कुछ भी हो। मैंने पहले ही अपना सारा धन भरोसे की एक नौकरानी के साथ अपनी मौसी के यहाँ भेज दिया है। वह तेरे जीवन भर के लिए काफी है। तू अब यहाँ से निकल जा। चोखाजी के पास मत जाना, क्योंकि उन्हें भी तरह-तरह से फँसाया जा रहा है। मैंने नदी के पास जो झोंपड़ी बताई है, वहाँ जाकर तू छुप जा। मैं यहीं रहती हूँ कुछ देर। यदि वे अभी यहाँ आएँगे भी तो मैं उन्हें बातों में उलझा रखूँगी, भले मेरा कुछ भी क्यों न हो। यदि मैं सकुशल रही तो झोंपड़ी में आकर तुमसे मिलूँगी। वहाँ से हम अपनी मौसी के गाँव चले जाएँगे।

कमलिनी : क्या मैं अकेली जाऊँ, जीजी?

गंगा : ठहर, मैं तुझे संगिनी देती हूँ। (छुरी देते हुए) ये ले, ये संकट के समय की संगिनी।

कमलिनी : ठीक है, जीजी। इस संगिनी को देख मेरी काफी हिम्मत बढ़ गई। बड़ी तेज है ये मेरी सहेली। बिलकुल चंपा जैसी।

[परदे के पीछे से कुछ आवाज आ रही है।]

गंगा : कमला, मुझे लगता है कि वे लोग आ ही रहे हैं। जा बेटी, पिछले दरवाजे से भाग जा। भगवान् तेरी रक्षा करें।

कमलिनी : घबराओ नहीं दीदी, लो, मैं निकलती हूँ। कितना कष्ट दिया मैंने तुम्हें! एक बार मुझे प्यार से चूम तो लो, जीजी।

गंगा : (उसे पास लेकर चूमती है।) देख बेटी, यह भावनाओं के प्रवाह में बहने का समय नहीं है। तू तो मेरे दिल का कमल है।

कमलिनी : पर अब वज्र से भी कठोर हूँ मैं। मेरी आँखों में जितने आँसू थे वे सब मैंने तेरे ऊपर उड़ेल दिए। अब मुझे मेरा मार्ग दिख रहा है। सारे आँसू सूख चुके हैं। अब निकलेगा तो खून ही निकलेगा उनसे। जाती हूँ मैं। (जाती है।)

गंगा : जा बेटी, सुरक्षित जा। (परदे के पीछे से फिर आवाजें आ रही हैं) दरवाजा लगा लेती हूँ मैं। हे भगवान्, मेरे निश्चय के दरवाजे का तू ही अवरोधक बनना!

...हे करुणाकर, हे प्रलयंकर, रक्षा करना मेरी

पतितों के उद्धारक स्वामी, रक्षा करना मेरी।

पाँचवाँ अंक

: पहला दृश्य :

[ स्थान : सत्यगृह के सामने का मार्ग।]

कमलिनी : हाय राम, लगता है जीजी के घर से छिपकर भागते हुए उन्होंने मुझे निश्चित ही दूर से देख लिया है। कहाँ जाऊँ, क्या करूँ? इस रास्ते के आगे-पीछे लोगों की बातें और दौड़-धूप की आवाज आ रही है। अब किसीके घर में घुसकर आसरा लूँ तो ही बच सकती हूँ, अन्यथा इन शिकारियों की टोली का वृत्त सँकरा होता हुआ मुझसे आकर भिड़ जाएगा, पर मुझ अछूत कन्या के लिए कौन अपना दरवाजा खोलेगा! उलटे मेरी जाति-पाँति का पता लग जाए तो हिंदू लोग ही चिल्ला-चिल्लाकर मेरा घात करेंगे। ये आगे सत्यगृह अवश्य है। सुना था कि यहाँ का सत्यभीरु अस्पृश्यता नहीं मानता। तो वहीं शरण लेना उचित होगा। वह कुछ समय मुझे यदि छिपने दे तो मेरा पीछा करनेवाले अन्यत्र निकल जाएँगे। अब चाहे सत्यवान मुझे बचाए या मरवाए, मैं दरवाजा खटखटाती ही हूँ। (वैसा करती है।)

कमलिनी : महाराज¨¨

सत्यवान : झूठ बोलती हो! मैं राजा नहीं, मुझे आचार्य कहो, क्या नाम है तेरा?

कमलिनी : कमलिनी।

सत्यवान : फिर झूठ बोली। मनुष्य हो और कमलिनी माने एक पौधा बताकर मुझे झाँसा दे रही हो।

कमलिनी : मुझे मनुष्य कहिए चाहे कुछ भी कह लीजिए, पर अभी मेरे प्राणों की रक्षा करें। मैं एक हिंदू महार की बेटी हूँ। मुझे जबरदस्ती पकड़कर भगा ले जाने हेतु कुछ मुसलमान गुंडे मेरे पीछे पड़े हैं। आप हिंदू हैं, मैं और कुछ नहीं चाहती आपसे। ये गुंडे निकल जाने तक आसरा दें आप मुझे। सत्यगृह में रहने दें मुझे।

सत्यवान : इस भवन में सच बोलनेवाला ही रह सकता है।

कमलिनी : मैं तो सत्य के लिए आपत्ति में फँसी हूँ। वह बात भी बताऊँगी।

सत्यवान : ऐसा है तो अंदर आओ, पर अभी तूने बताया था कि तुम महार की बेटी हो। महार स्त्रियों से अन्य जाति के पुरुषों और अन्य जाति की स्त्रियों से महार पुरुषों के गुप्त गंधर्व संबंध अनेक बार होते हैं, पर जहाँ अनुलोम और प्रतिलोम संबंध रूढ़ हैं वहाँ कौन क्या है यह कहना मुश्किल हो जाता है। इसलिए तू महार है, ऐसा कहना झूठ हो सकता है। मैं केवल एक लड़की हूँ, तू इतना कह तो मैं अंदर बुलाता हूँ। वैसा कह दे तू।

कमलिनी : मैं एक लड़की हूँ, जी।

सत्यवान : आओ, अंदर आओ। (जोर से) अरे बौने, क्या कर रहे हो तुम?

बौना : (प्रवेश कर) पूजा के पात्र साफ कर रहा था।

सत्यवान : झूठ बोलते हो तुम। पात्र को क्या खाक साफ करोगे तुम। अपनी गलती सुधारो और फिर इस लड़की को आराम करने ले जाओ। थकी-हारी है बेचारी। सत्य के लिए जूझ रही है यह।

[वे ले जाते हैं।]

: दूसरा दृश्य :

[बंगश खान सिपाहियों सहित सत्यगृह पर आता है।]

बंगश : क्या उल्लू हो तुम लोग! अभी वह परी रास्ते से निकल गई। फिर पकड़ी कैसे नहीं गई?

पहला सिपाही:क्षमा कीजिए हुजूर, पर वह इस आड़ी गली से अगले रास्ते पर निकल भागी, पर भागकर जाएगी कहाँ! उस रास्ते पर भी अपने लोग खड़े हैं जी।

बंगश : पर बीच में किसी ने उसे घर में तो नहीं छिपा लिया? हो सकता है, किसी हिंदू ने उसे हिंदू मानकर घर में छिपाकर उसकी रक्षा करने का प्रयास किया हो।

दूसरा सिपाही : सूबेदारजी, वह अछूत कन्या है। उसे हिंदू मानकर घर में लेने लायक हिंदू लोग अपने जाति-धर्म के अभिमानी जिस दिन हो जाएँगे उस दिन से हिंदुस्तान में इसलाम के प्रचार की आशा नहीं रहेगी। जिन्होंने चोखा महार को 'मंदिर अपवित्र करता है' कहकर सजा दिलाने उसे मुसलमानों के हाथों सौंपा, वे हिंदू लोग एक महार लड़की को मुसलमानों से बचाने के लिए घर में लेंगे? वे उसे मुसलमानों के घर में ढकेलेंगे, पर अपने घर में कदापि प्रवेश नहीं देंगे।

पहला सिपाही:सूबेदारजी, पर वह सत्यगृह का पगला अस्पृश्यता नहीं मानता। हो सकता है कि उसे अंदर ले लिया हो। अभी इधर ही थी।

बंगश : फिर देखते क्या हो! घुसो अंदर और मारो बदमाश को।

पहला सिपाही:नहीं साहब, घुसने-मारने की क्या जरूरत! वह पगला गँवार है। वह खुद ही सब बता देगा, क्योंकि वह जितना सत्यवादी है उतना ही डरपोक भी। उसके शिष्य भी उसी के नमूने है। (सिपाही दरवाजा खटखटाते हैं, सत्यागार से बौना बाहर आता है।)

पहला सिपाही:क्यों बे शिष्य, तेरे आश्रम में अभी जो लड़की आई है, उसको बाहर लाओ। उसका भाई मिलने आया है। सूबेदार का हुक्म है। बुलाओ उसको।

बौना : जो अंदर है ही नहीं, उसे सूबेदार तो क्या भगवान् का भी आदेश बाहर बुलवा सकता है? कोई लड़की-वड़की नहीं आई अंदर। हम सत्यवान के शिष्य कभी झूठ नहीं बोलते। हाँ, केवल इतना बता सकता हूँ कि बड़ी आँखों और घने बालोंवाली एक लड़की अभी घबराई सी...

बंगश : हाँ-हाँ, वही मेरी प्यारी किधर है, बताओ?

बौना : अभी-अभी कुछ समय पहले यहाँ से भागकर अगली गली में घुसते दिखी थी। जो कुछ सच है, वही आगे बढ़कर कहना चाहिए, ऐसा मेरे गुरु का उपदेश है।

बंगश : ठीक है, बेटा, तेरा और तेरे गुरु का भगवान् भला करे। इस गली के सामने दो सिपाही तैनात कर बाकी सब बताई दिशा में चलो। सारे रास्तों पर चुपचाप निगरानी रखो। (सब जाते हैं। सत्यवान का प्रवेश।)

सत्यवान : बौने, क्या गड़बड चल रही है? किससे बातें कर रहा था?

बौना : कमलिनी ने अभी हमें जिन नीचों की जानकारी दी थी, वे यानी सूबेदार बंगश खान यहाँ आए थे। मुझसे पूछने लगे कि कमलिनी यहाँ है क्या? मैंने कहा, भाग गई। तब वे सारे आगे निकल गए। अब कुछ समय बाद जब सब शांत हो जाएगा तो कमलिनी को चुपचाप निकाल देंगे।

सत्यवान : चुपचाप! अरे मूर्ख, इस भवन में चुपचाप! इस भवन में हमने उसे छिपाए रखा और चुपचाप भगा दिया, यह बात पता लगी तो मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाएँगे। जाओ, जाकर बताओ कि वह लड़की यहीं है। हमने अनजाने में उसे अंदर बुला लिया था। सत्यगृह में 'चुपचाप' कुछ नहीं होता। जाओ, सच बोलो।

बौना : मैंने सच ही बोला है। कमलिनी यहाँ पर है, ऐसा कहा होता तो वह इस परिस्थिति में असत्य होता।

सत्यवान : गधा कहीं का! गुरु को सिखाता है। कैसी परिस्थिति¨¨!

बौना : महाभारतकारों द्वारा बताई परिस्थिति की मर्यादा¨¨

सत्यवान : फिर महाभारत! जिस महाभारत में श्रीकृष्ण को पुरुष पुंगव यानी पुरुषों में बैल कहा गया, जो झूठ के पुलिदों से भरा पड़ा है, उस महाभारत की बात करते हो। जाओ और बताकर आओ कि वह लड़की अंदर ही है।

बौना : मैं नहीं जाऊँगा। आज तक सब सुनता रहा आपकी। एक निष्पाप हिंदू कुमारी प्राणों के भय एवं हिंदुत्व की रक्षा हेतु हमारी प्रार्थना कर रही हो और उसका धर्म-भाई उसे पाप के गर्त में ढकेले, यह असत्याचरण मुझसे कदापि नहीं होगा। निरीह गऊ को कसाइयों के हाथों कैसे सौंप दूं? यह दुष्टता मैं नहीं करूँगा।

सत्यवान : मेरे शिष्य द्वारा बगावत!

बौना : चिल्लाइए नहीं। आप ही हिंदू धर्म के प्रति विद्रोह कर रहे हैं।

सत्यवान : हाँ, हिंदू धर्म! कैसा धर्म? सत्य ही एकमात्र धर्म है और मैं मात्र सत्य ही बोलूँगा। ओ सिपाही, ओ सूबेदारजी, वह लड़की यहाँ छिपी है। (चिल्लाता है। कमलिनी आती है।)

कमलिनी : आचार्य, हाथ जोड़ती हूँ। अब मुझे और कष्ट न दें। मैं अबला निरपराध बाला, पहले ही अस्पृश्यता की आग में झुलस चुकी हूँ। अब कम-से-कम सचाई की आग में जलाकर तो मत मारिए मुझे! धर्म के नाम पर आप सज्जनों ने अभी तक काफी छला है मुझे, अब सत्य के नाम पर तो मेरा वध न करिए। यह आँधी गुजर जाने के बाद मैं यहाँ से चली जाऊँगी। तब तक तो मुझे छिपे रहने दें यहाँ।

सत्यवान : छिपने दूँ! यानी असत्य को प्रश्रय दूँ? तेरी दो कौड़ी की इज्जत के लिए मैं अपना सत्य का प्रण त्यागूँ?

कमलिनी : प्राणों का भय तो है ही। जिसने जीवन के सुखों का अभी जरा भी अनुभव नहीं लिया उसे प्राणों का लालच तो है ही, पर मैं मात्र उसके लिए नहीं गिड़गिड़ा रही। मेरे प्राणों से भी प्रिय तुम्हारे अपने हिंदू धर्म की रक्षा हेतु मैं सहायता माँग रही हूँ। मेरी परीक्षा लेना चाहते हो तो ये छुरी लो और भोंक दो मेरे दिल में। पर आचार्य, उन म्लेच्छों के आगे मत परोसो मुझे। उन्हें बुलाकर उनसे बच निकली इस गाय को हलाल होने के लिए मत पेश करो। दया करो, दया धर्म का मूल है, इसका स्मरण रखो।

सत्यवान : क्या बकती हो-दया, धर्म?

'न हि सत्यात्परो धर्मः, नानृतातपातकं परम्'। सिपाहियो, दौड़ो¨

बौना : हे निर्दय पुरुष, विजयनगर के हिंदू साम्राज्य के भेद शत्रुओं को देनेवाले भी सत्य ही बोलते थे। तेरी सत्य की व्याख्या मान लें तो जितने देशद्रोही हो चुके, उन सबको नरक से स्वर्ग में भेजना पड़ेगा। देखिए, भले ही आप असत्य न बोलो, पर कम-से-कम चिल्लाओ तो नहीं। झूठ बोलने के कारण मैं नरक में जाऊँगा, पर उससे इस निरपराध बालिका की जान तो बच जाएगी, धर्म का पक्ष तो सुरक्षित रहेगा। अन्याय का प्रयास विफल होगा। जिस कार्य से अपने धर्म की रक्षा होगी, उसके लिए मैं अकेला नरक जाने को खुशी से तैयार हूँ। आप केवल चुप रहें जिससे वे लौटकर न आएँ। भय का कोई कारण नहीं रहेगा।

सत्यवान : क्या मैं डर के मारे ऐसा कह रहा हूँ?

बौना : और नहीं तो क्या? ढोंगी पुरुष, तेरे मन में पैदा राज-कोप का भय अभी कुछ समय पूर्व तेरे मुँह से निकल चुका है। कमलिनी को छिपाने की वजह से तेरे शरीर के टुकड़े किए जाने की आशंका को भाँपकर तू सत्य का यह आडंबर रच रहा है।

सत्यवान : गुरु का अपमान कर रहे हो। (चिल्लाकर) अरे सिपाहीजी, दौड़ो, वह लड़की यहीं छिपी है।

कमलिनी : हे साधो, हे देव, हे पुरुषोत्तम! जिन हाथों ने आज तक कोई पाप नहीं किया, इस कुमारी के वे हाथ तुम्हारे पैरों को पकड़ रहे हैं। मेरे साथ विश्वासघात मत करो। थोड़ा चुप रहकर मेरी रक्षा करो।

सत्यवान : (उसे ढकेलकर) चुप रहना यानी सत्य को छिपाना यानी असत्य का साथ देना होगा। अजी सूबेदारजी... (बौना आगे बढ़कर उसका मुँह हाथ से दबाता है। वह चीखता-पुकारता है। इतने में सिपाही आते हैं।)

सिपाही : क्या गड़बड़ मचा रखी है?

सत्यवान : सिपाहीजी, ये देखो, वह लड़की जिसे तुम लोग खोज रहे हो। ये मेरे मना करने पर भी आश्रम में आ घुसी। मेरे इस शिष्य ने जान-बूझकर झूठ बोला आपसे। सूबेदारजी को बुलाइए। मैंने मात्र सत्य ही कहा है। (सिपाही-सूबेदार का प्रवेश।)

सिपाही : सूबेदारजी, ये देखो वह लड़की मिल गई। वह कोने में खड़ी है गुलपरी! सत्यवान ने खुद होकर खबर दी हमें। यह बौना तो झूठ बोला था।

सूबेदार : अच्छा तो फिर पहले इस बौने को ही पकड़ो। सत्यवान को अवश्य कुछ पुरस्कार देना होगा।

पहला सिपाही:नहीं साहब, उस काफिर को भी बख्शा न जाए। मारो उसको भी।

बंगश : गलत बक रहे हो। सत्य के नाम पर विश्वासघात, अहिंसा के नाम पर वीरता का घात और भूतदया के नाम पर आत्मघात करनेवाले हिंदू जिंदा हैं, तभी तो हम इस देश पर शासन कर रहे हैं। सत्यवान तो क्या, उसके नाम से चलनेवाले इस पंथ की पूरी सहायता करनी चाहिए हमें।

सत्यवान : वाह, वाह! सत्य के प्रति इतना लगाव देखकर मुझे अत्यधिक खुशी होती है। मेरी प्रार्थना है कि इस बेचारी पर आप कोई अत्याचार न करें। इसके साथ कोई बलात्कार न करें।

सूबेदार : (क्रोधित होकर) साला फूल गया इतने में। किसपर बलात्कार किया जाए और किसको छोड़ दिया जाए, ये तू बताएगा मुझे। फिर से बीच में बोला तो जीभ काट डालूँगा तेरी।

सत्यवान : नहीं-नहीं, सत्य बोलने के लिए कम-से-कम उसे रहने दें।

सिपाही : चुप बैठ बे। (उससे धक्का खाते ही सत्यवान एक कोने में जा गिरता है। दूसरा सिपाही सँभालता है।)

बंगश : हे सुंदरी, अब तुम मुझे यह बताओ कि किसी हिरनी की भाँति तुम क्यों कँपकँपाती खड़ी हो? मैं तुम्हारा शिकार करने या तुझे बाण मारने के लिए नहीं खड़ा हूँ। मैं तो तुम्हारी नजरों के तीरों से घायल हुआ खड़ा हूँ यहाँ। हे हिरनी, तूने इस शिकारी का ही शिकार कर डाला है।

कमलिनी : सूबेदारजी, जब तक आप दूर खड़े रहेंगे तब तक मेरे नयनबाण तो सहने ही पड़ेंगे। यदि वे सहन न हो रहे हों तो पास आकर इस हिरनी के ऊपर अपने अभय का हाथ फेरें, जिससे यह डरी हुई हिरनी भी प्यार से वह हाथ चाटने लगे।

बंगश : (उसके पास जाते हुए) अभी आता हूँ तेरे पास, प्यारी। इन हिंदुओं ने काफी अत्याचार किए हैं न तुमपर! उन पीड़ाओं से बचाने के लिए ही आया है यह बंगश। ये मेरी शक्तिशाली भुजाएँ तुझे अपने आगोश में लेने हेतु मचल रही हैं। आओ, मेरी प्यारी, पास आओ¨¨

बौना : (स्वगत) क्या अचरज की बात है। धर्म के लिए प्राण देने की बात करनेवाली यह लड़की अब सूबेदार पर लटू कैसे हो रही है। कैसे-कैसे इशारे और शब्दों का प्रयोग कर रही है। आखिरकार यह अछूत लड़की अपनी जाति पर ही गई। धिक्कार है ऐसे काम लंपट स्त्रियों की चंचलता¨¨

कमलिनी : (विस्मित सी) मेरे आलिंगन के लिए आतुर सूबेदार के बाहुओं को उनके पैर पीछे खींच रहे हैं क्या?

बंगश : हे सुंदर पुष्प, तेरी खुशबू पाने के लिए खुदा के पैर भी नहीं लड़खड़ाएँगे। आओ, मेरे बाहुओं में समा जाओ। (उसको आलिंगन देने जाता है। उतने में कमलिनी उसके पेट में छुरी भोंक देती है और चिल्लाती है।)

कमलिनी : और ये ले आलिंगन का फल!

बौना : हर-हर महादेव! इस अछूत कन्या ने तो धर्मवीरता में चित्तौड़ की राजकन्याओं को भी मात दे दी। हर-हर महादेव!

बंगश : या अल्लाह! मार डाला इस लड़की ने। (नीचे गिरता है) मेरा खून किया।

कमलिनी : (खून से भरी छुरी चमकाते हुए) ये देखा, हिंदू युवती के फूल का काँटा! हे हिंदू कन्याओ, इस रक्तरंजिता छुरी को देखो, पवित्रता और धर्म की रक्षा जब हमारे पुरुष और देवों से भी नहीं बनती तब वह या तो चित्तौड़ की चिता कर सकती है या फिर प्रतिशोध की यह छुरी। इन दोनों में एक महत्त्वपूर्ण अंतर है। चित्तौड़ की चिता दुष्टों के लिए सज्जनों की बलि लेती है। चोर को छोड़ संन्यासी को फाँसी देती है। बलात्कार की आशंका न रहे, इसलिए अबलाओं का ही संहार कर डालती है। आग लगानेवाले को अपना घर जलाने का मौका न मिले, इसलिए स्वयं ही अपने घर को आग लगा लेती है। चित्तौड़ की चिता दुष्टों को निराश कर सकती है, पर उनका विनाश नहीं कर सकती। प्रतिशोध की भावनाओं से चली यह छुरी दोनों कार्य कर सकती है। अपने ऊपर अत्याचार करने को उद्यत किसीको भी किसी भी स्थान पर उसके पापों के लिए प्राणदंड दे सकती है। चित्तौड़ के अग्निकुंड की अपेक्षा इस छुरी से बलात्कारी भी घबराता है। संभव है कि यह छुरी किसीकी शुद्धता न बचा पाए, पर भ्रष्टाचारी को सबक अवश्य सिखा सकती है। किसीको भी अपने जनानखाने में खींच ले जानेवाला आतंकी भी ऐसे सबक से घबराएगा। हिरनी कहकर मेरी मृगया कहना चाहता था, पर ये देख, हम हिंदू कन्याओं की आँखें कमल जैसी भले हों, पर हमारे नाखून सिंहनी जैसे तेज रहते हैं। इससे भी अधिक बर्बरतापूर्वक जितनी कुमारिकाओं को आज तक इस अधम ने भ्रष्ट किया होगा, उन सबका प्रतिशोध आज मैंने ले लिया। अब अन्य कोई भी सूबेदार हिंदुओं की सुंदरता के फूल तोड़ने हिंदू उद्यान में इतने निर्भय और निर्लज्ज साहस से नहीं घूमेगा, क्योंकि उस उद्यान में यह छुरी नागिन की तरह फिरती रहेगी और कभी-कभी काट लेगी, यह उसने देख लिया है। नहीं देखा हो तो फिर से देखो इसका विष! (फिर से बंगश पर छुरी चलाती है।)

पहला सिपाही:देखते क्या हो? हमारे सामने सूबेदार मारा गया। पकड़ो साली को।

सभी सिपाही : पकड़ो, मारो।

सत्यवान : बिलकुल धर दबोचिए इस पापिन को। प्यार भरी बातों में उलझाकर मार डाला सूबेदार को। असत्याचारणी, राक्षसी, चुडैल इस लड़की ने सत्य बोलनेवाले सूबेदार की हत्या कर डाली। छोड़िए मुझे और पकड़ लीजिए इसे। (सिपाही कमलिनी की ओर बढ़ते हैं। इतने में गंगा का प्रवेश।)

गंगा : (सारा दृश्य देखकर) धन्य है, मेरी बेटी, तूने सही-सही प्रतिशोध लिया है आज। अब मैं देखती हूँ इन सबको। छोड़ो उसे (कहकर एक सिपाही को आहत करती है। कमलिनी छूटती है , पर गंगा आहत होकर गिरती है।)

कमलिनी : (गंगा के सीने पर झुककर) जीजी, मेरी जीजी।

बचा हुआ

सिपाही : अरे राक्षसी, अभी क्यों रोती है? पहले थोड़ा हँसो, फिर रो लेना। ये तो एक रंडी मरी है। अब उसकी गद्दी चलाना तुम। अब देखता हूँ कौन आता है तुझे बचाने!

[चिल्लाते हुए उसकी छुरी छीनने का प्रयास करता है। इतने में शंकर तलवार लेकर आता है।]

शंकर : देख, उसे बचाने तेरा महाकाल तेरे सामने आया है। (वह उस सिपाही पर वार करता है। सिपाही आहत होकर गिरता है। कमलिनी भी आहत होकर गिर जाती है। घुटने के बल बैठते हुए।) कमल! कमलिनी! हे देवी!!

कमलिनी : (उचककर) सिकंदर, यदि थोड़ी भी मानवता तुममें शेष है तो मेरी अंतिम साँसों को मत अपवित्र करो।

शंकर : (हताश स्वर में) कमल, मैं तुम्हारा शंकर ही हूँ, सिकंदर नहीं।

कमलिनी : (स्वगत) अरे रे, मेरा दिल फिर इसे देखकर पिघलने लगा है। अब मरते-मरते दे दूँ इसे इसका चिरवांछित आलिंगन। (पर कठोर स्वर में) परंतु कमला इसे माने कैसे? सिकंदर को? नहीं-नहीं। (प्रकट) हे सुखकारी शत्रु, रे पापी प्रियकर, हे सुंदर सर्प! सुन, कान खोलकर सुन। कभी प्यार था तुझसे मुझे। उस प्यार की शपथ लेकर प्रार्थना करती हूँ कि मरते समय मेरे शरीर को अपने मैले हाथ मत लगा।

शंकर : उसी प्यार की सौगंध। तुझे याद है, हमने कभी साथ जीने-मरने की शपथ ली थी। अब वह सौगंध तो पूरी करने दे। बाँहों में बाँहें डालकर मर जाएँ हम। सुख से प्राणत्याग करेंगे।

कमलिनी : झूठ बोलते हो तुम, मैंने तुझे अपना कहने की शपथ नहीं ली थी। मैंने शपथ ली थी शंकर के बाहुओं में मरने की।

शंकर : कमल, मैं वही तुम्हारा प्रियतम शंकर हूँ। तुम्हें भरोसा नहीं है न! ये देखो, मैं अपने पर हावी सिकंदर की हत्या कर देता हूँ। (स्वयं पर वार कर लेता है। कराहते-कराहते कहता है।) शंकर हिंदू था, मैं भी हिंदू हूँ। शंकर महार था, मैं अब वही हूँ। खून का कतरा-कतरा हिंदू है। हे देवी, पश्चात्ताप के खून से मैं तेरे चरणों का सिंचन करता हूँ। मुझे शुद्ध कर लो। प्राण जाने के पहले तो¨¨

कमलिनी : फिर आओ मेरे पास, हे प्राणप्रिय, तुम अकेले नहीं जाओगे। मैं अपनी सौगंध पूरी करूँगी। तुम्हारे साथ-साथ ही स्वर्ग सिधारूँगी। मौत के आगमन पर आलिंगन की छाया में मैं अपनी माँग भर रही हूँ। हे देवी, हमें आशीर्वाद दो। (दोनों एक-दूसरे के आलिंगन में पड़े रहते हैं।)

शंकर : हे दयालु परमात्मा, यह आत्मोत्सर्ग का क्षण मुझे बड़ा ही सुखदायी लगता है।

कमलिनी : जीवन भर मैंने इतना विशुद्ध आनंददायक क्षण नहीं पाया था। एक बार हरसिंगार के नीचे, तो अब यह दूसरा, जीवन के गर्भगृह में हुआ हमारा मिलन अत्यंत सुखदायी लग रहा है।

शंकर : (उसे चूमता है) हे प्रभो, जिस सृष्टि के उत्पादक ने हमें ये साँसें दी थीं, वे साँसें हम एकत्र रूप में विसर्जित करते हैं। गोविंद¨¨गोविंद¨¨गोविंद¨¨

[दोनों नाम लेते-लेते मरते हैं।]

: तीसरा दृश्य :

[जंगल से जाफर अली चोखा को पकड़कर लाता है।]

जाफर अली : चोखा, मुझे जो बताना था, सो मैंने बता दिया। अब जो कुछ तुझे कहना है, संक्षेप में कह दे। थोड़ा समय शेष है। यदि इस भयानक मृत्युदंड से बचना हो तो मुसलमान बन जाओ। पगले, वह पत्थर की मूर्ति भगवान् विट्ठला है, ये कैसे मानता है तू?

चोखा : पत्थर की मूरत! अरे, वह तो सर्वव्यापी है।

सर्वव्यापी देव, सृष्टि का है स्वामी,

चारों वर्ण उसके, विश्वंभर।

प्राणों का है प्राण, पीड़ितों का त्राण

आकृति विस्तार, निरंकारी।

आनंद की खान, करूँ क्या बखान

चोखा का है देव, विट्ठला माई।

जाफर अली : अब अपनी यह सैद्धांतिक बकबक बंद कर। तेरी मृत्यु जिस अस्पृश्यता के कलंक से कदम-दर-कदम पास आ रही है, वह अस्पृश्यता का कलंक तू मुसलमान बनकर धो सकता है। मुसलमान सभी इनसानों को एक समान मानते हैं। सभी लोग एक ही स्थान पर, एक साथ प्रार्थना करते हैं।

चोखा : ऐसा है क्या? फिर मैं भी मनुष्य ही तो हूँ और परमात्मा की प्रार्थना भी मराठी में करता हूँ। फिर मुसलमान होने पर और अरबी प्रार्थना से क्या विशेष फर्क पड़ता है। भगवान् को मात्र अरबी आती हो और मराठी नहीं, ऐसा तो है नहीं!

जाफर अली : विशेष क्या है? चोखा, जब तक कोई व्यक्ति मुसलमान नहीं बन जाता तब तक वह काफिर माना जाता है। काफिर को न तो कोई लड़की ब्याहता है और न समाज में उसकी कोई स्थिति रहती है, न स्वर्ग में स्थान मिलता है। नीच-से-नीच मुसलमान भी पाक-से-पाक काफिर की अपेक्षा खुदा का अधिक प्यारा होता है। काफिर को मुक्ति दो, ऐसा कहना भी पाप है।

चोखा : बस हो गया। आपने अभी संक्षेप में जो कहा, उसका मतलब मेरी समझ में आ गया। आपकी समानता का मतलब केवल यह है कि मुसलमान कितना भी नीच क्यों न हो, वह खुदा को प्यारा होगा और काफिर कितना भी साफ-पवित्र रहा तो भी नरक का अधिकारी होगा। क्या यही है आपकी समता की भावना? इससे तो नारंभट की व्याख्या अधिक अच्छी है। नारंभट की अस्पृश्यता केवल मनुष्यों तक ही सीमित है, पर तुम्हारी काफिर की अस्पृश्यता तो भगवान् भी मानता है, क्योंकि मरणोपरांत वह न तो उसे छूता है और न उसका उद्धार करता है। नारंभट की अस्पृश्यता हमारे शरीर को नहीं छूती, पर तुम मुसलमानों की अस्पृश्यता काफिर की आत्माओं को छूने से भी रोकती है। कुछ चुनिंदा मुसलमान या ईसाई छोड़कर बाकी सबकी सब मानव जाति नरक में डूबी रहेगी। तुम्हारा देवदूत उसे नरक में ढकेल देगा, ऐसा माननेवाला तुम्हारा बर्बर धर्म इस जन्म की सीमित अस्पृश्यता माननेवाला हिंदू धर्म से कैसे अच्छा हो सकता है; क्योंकि हमारे धर्म में तो इस जन्म में सत्कार्य करने पर अगले जन्म में मुक्ति मिलने की संभावना रहती है, पर आप जैसे बता रहे हैं, वैसे में तो काफिर को ना पुनर्जन्म है और न मुक्ति! यह सारी तुलना में नारंभट की अस्पृश्यता से कर रहा हूँ, क्योंकि हिंदू धर्म अस्पृश्यता मानता ही नहीं है। हिंदुओं का देव तो अस्पृश्यों के घर जाकर उनके साथ भोजन भी कर लेता है, क्योंकि मैंने पहले ही यह अनुभव किया है-

¨¨इसी जनम में मैंने देखा, मेरा पांडुरंग

इसी आँख से मंदिर देखा, पंढरपुर श्रीरंग!

छुआछूत का नाम नहीं था और नहीं था कुसंग

चोखा तो सबकुछ पाया, प्यार भरा सत्संग!!

जाफर अली : अरे भाई, भयंकर मौत से डरकर तो तू मुसलमान बन जा।

चोखा : मौलवीजी, आपके पैगंबर अभी कहाँ होंगे?

जाफर अली : (स्वगत) इसे पैगंबर के बारे में उत्सुकता होने लगी है। शायद कुछ मुलायम पड़ा दिखता है। (खुले में) अरे पगले, हमारे पैगंबर के बारे में देखा, कितना अज्ञान है तेरा! इसलिए तुझे पत्थर का देव सच लगता है। सुन, हमारे पैगंबर तो सैकड़ों वर्ष पूर्व अपने अनुयायियों के साथ मदीना में धराशायी हो गए।

चोखा : ऐसा है न! जो मुसलमान धर्म प्रत्यक्ष पैगंबर की मौत नहीं रोक सका, वह मुझ जैसे नवागत पतित की रक्षा कैसे कर सकेगा?

जाफर अली : मरो फिर। हलाल होकर मरो अब। (परदा गिरता है) इब्राहिम, सिपाहियो, लो, इस चोखा को सँभालो। साले को बैल जोड़ियों के साथ बाँधकर दौड़ा दो ताकि घिसट-घिसटकर मर जाए साला। (सब लोग चोखा को खींचकर लाते हैं और बैल जोड़ी के डंडे से बाँधने लगते हैं।)

सोयरा : (प्रवेश कर) हाय राम, अजी पैर पड़ती हूँ मैं आपके। मेरे इस भोले बाबा को कृपया तंकलीफ मत दो।

अभंग

दौड़-दौड़ भगवान् मेरे, चलो नहीं मंद

मारते हैं सारे मुझको, लगाओ पाबंद!

भ्रष्ट किया तुमने कहते, करे लाम बंद

दौड़ चक्रपाणी अब तू, कर दे साथ संग!!

जाफर अली : चोखा, देखा, अभी भी समय है। मेरा कहना अब भी मान ले।

चोखा : भजन गाता है-

¨ॱमैंने अपना भाव तुझे है बताया

यदि तुझे भाया, दौड़ हे मुरारी

ना है भय, चिंता, ना है फिक्र कोई

गोद में ले लो जी, विनती है मेरी!!

जाफर अली : भगाओ बैलों को अब।

सब लोग : मारो चाबुक से उन्हें। (चाबुक चलाता है।)

जाफर अली : अरे, अभी ये बैल टस-से-मस नहीं हुए। जोर से मारो सालों को। अरे, पर ये क्या हो रहा है। मुझे क्यों कँपकँपी छूट रही है?

नारंभट : अरे बाप रे, यह धरती भूचाल सी क्यों काँपने लगी!

[आकाशवाणी होती है।]

मूर्खों, ठीक से सुनो, संतों की रक्षा के लिए भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं बैलों को रोके खड़े हैं। कोई भी हिला नहीं पाएगा उन्हें। मूर्खों, कम-से-कम अब तो होश में आओ, अन्यथा भयानक संकट आनेवाला है।

जाफर अली : क्या बकवास सुनते हो। लाओ, वह चाबुक मुझे सौंप दो। बैलों को तो छोड़ो, अब मैं इस चोखा की ही खाल उतारता हूँ। देखू, कहाँ है वह काफिरों का भगवान्?

किशन : (एकदम पीछे से आकर जाफर अली को खंजर मारकर गिराता है।) ये देखो हिंदुओं का भगवान्।

[श्रीकृष्ण प्रकट होते हैं।]

सब लोग : अरे भागो, भागो, प्रलय होने जा रहा है।

श्रीकृष्ण : खबरदार, यदि कोई यहाँ से भागा तो। मेरे प्रिय भक्त को, इस अत्यज को पीड़ा पहुँचाई है तुमने। उसका फल भोगे बिना आगे बढ़ न सकोगे। तुम लोग औरों को अछूत मानकर उन्हें कष्ट देते आए हो। इसका परिणाम जानते हो? यह रक्तपिपासु दुनिया भी सभी जगह से खदेड़ेगी। यदि तुम औरों को महार-धेड़-अछूत कहकर धिक्कारते हो तो दुनिया भी तुमसे ऐसा ही बरताव करेगी। इसलिए चेतो, जागो, सतर्क हो जाओ।

सब लोग : हे प्रभु, अनंत अपराध हैं हमारे। हमें क्षमा करें। आप जैसी आज्ञा देंगे वैसा हम करेंगे।

श्रीकृष्ण : तो सुनो मेरी आज्ञा-इस कलयुग में सभी समान हैं, इसके विरुद्ध जो भी होगा वह शास्त्र झूठा होगा। मेरा शब्द ही शास्त्र मानकर चलो। मंदिरों के, दिलों के दरवाजे खोल दिए हैं मैंने सबके लिए। मैं इन्हें अब स्पृश्यों के जैसे अधिकार दे रहा हूँ। मैंने इन्हें उ:श्राप देकर समान अधिकार प्रदान कर दिया है। आप इसे मानें, इसी में हिंदू जाति का हित है।

सब लोग : आपकी आज्ञा सिर आँखों पर, भगवन्। आज से हम किसीको अछूत न मानेंगे। हम सब हिंदू एक हैं, यही भाव रहेगा भगवन्!!

[परदा गिरता है। भगवान् अंतर्धान होते हैं।]

बोधिवृक्ष

पात्र परिचय

मधुरा

यशोधरा

मंजुला

सिद्धार्थ

छंद

व्याध

चित्रगुप्त

यमराज

वासना

बुद्ध

राहुल

परिचय

अपनी स्थानबद्ध स्थिति में वीर सावरकर ने 'बोधिवृक्ष' नामक की रचना की थी। यह रचना अपूर्ण होने के कारण अप्रकाशित भी रही। इस नाटक के जो अंक एवं दृश्य उपलब्ध हैं उनको 'समग्र सावरकर वाङ्मय' में सम्मिलित करना इसलिए आवश्यक लगा क्योंकि राजपुत्र सिद्धार्थ के राजत्याग की, पत्नी-पुत्र त्याग की भूमिका इसमें स्पष्ट हुई है। हाँ, इसके मूल पाठ में व्याकरण की दृष्टि से कुछ परिवर्तन किए गए हैं।

दूसरी बात यह कि यह अपूर्ण होते हुए भी विचार प्रधान है। भगवान् श्रीकृष्ण और भगवान् बुद्ध की विचारधाराएँ अलग हैं, पर ध्येय एक ही है। यश, श्री, कीर्ति, ज्ञान-विज्ञान और वैराग्य जिसे प्राप्त है, वे भगवान हैं-ऐसी भगवान् शब्द की व्याख्या है। (इस व्याख्या के अनुसार लेखक, कवि, वक्ता और इस बोधिवृक्ष नाटक के दूसरे अंक में जैसे सिद्धार्थ ने वासना को मात दी, वैसे ही काले पानी के कठोर दंड और प्रलोभन को मात देनेवाले नाटककार स्वयं भी भगवान् हैं, यह प्रा. शिवाजी राव भोंसले, योगी श्री यः स. भट की तरह ही मेरा भी अभिप्राय है।) दोनों ने ही दीन-दुःखियों को सुखी करने के लिए त्याग किया। कष्ट सहन किए। अंतर इतना ही है कि राज त्याग कर संन्यास लेकर, तृष्णा त्याग सुख का मार्ग है, ऐसा उपदेश सिद्धार्थ देते थे तो बैरिस्टर सावरकर कहते हैं कि स्वतृष्ण पूरी करने के लिए दूसरों को पीड़ित करनेवाले स्वार्थी और दुष्ट प्रवृत्ति के दुर्जनों का नाश करो। उसके लिए स्वतृष्णा मारकर भी वैराग्य और वीर वृत्ति धारण करो।

भगवान् बुद्ध ने राजत्याग करके संन्यास लेकर जागृति की तो भगवान् सावरकर ने संन्यासी वृत्ति से राजनीति की और अंत में देह जब पूर्ण कार्यक्षम न रही तब उसे भी छोड़ने में आत्मार्पण भी किया। 'संन्यस्त खड्ग' के अंत में उन्होंने 'तयोस्तु कर्म संन्यासांत् कर्मयोगी विशिष्यते' ऐसा वचन दिया है। ऐसा मतभेद होते हुए भी सावरकर ने इस नाटक में और 'संन्यस्त खड्ग' में भी भगवान् बुद्ध द्वारा पत्नी, पुत्र, पिता, माता और राज्य त्याग करने के पीछे उनकी जो भी भूमिका रही होगी वह मानो उन्हें (सावरकर को) स्वयं को स्वीकार्य थी, इतनी अच्छी विधि से प्रतिपादित की है। उसी तरह उनकी प्रिय पत्नी यशोधरा के भी विचार देशभक्तों और सैनिकों की पत्नियों द्वारा मनन कर अपनाए जाने चाहिए, ऐसे अनुकरणीय हैं।

-बाल सावरकर

पहला अंक

: पहला दृश्य :

[यशोधरा नवजात शिशु के साथ पलंग पर बैठी है। उसकी बहनें और सखियाँ उससे बातें कर रही हैं और सारंगी के साथ गा रही हैं।]

मधुरा : राज्ञी यशोधराजी, आपके इस शिशु राजपुत्र के नयन कमलों की पंखुड़ियाँ अभी पूरी तरह खुली भी नहीं हैं। फिर भी वह सारंगी के कोमल सुरों पर मुसकरा रहा है। देखो, कैसा यह मृगछौने जैसा सुंदर लग रहा है! इसकी मुसकान तो देखो, जैसे कमल पर चाँदनी खिली हो। मंजुल, गा तो कोई मधुर गीत फिर से।

यशोधरा : वह तेरा उर्मिला गीत है न, उसे ही गाओ, उसे ही सुनने को मेरा जी आजकल बहुत करता है।

मधुरा : नहीं, वह नहीं। वैराग्य बोझ से भारी-वयस्कों का वह गीत नहीं, हमारे इस छौने को तो कोई चिड़ा-चिड़ी (कोका-चीडी) का हलका-फुलका बालगीत चाहिए।

यशोधरा : वह क्यों? मेरे लाड़ले की तो पसंद और हमारी नहीं, क्यों? मेरा लाड़ला अभी राजपुत्र है, राजा नहीं हुआ है। मेरे श्वसुर शुद्धोधन का राज चल रहा है। जन्मते ही इतना चक्रवर्तित्व, मुझे नहीं चाहिए मेरा लाड़ला। मेरे लाडले की रानी जब आएगी तब उसपर चलाए राजाज्ञा, मुझपर नहीं।

मधुरा : लल्ला, मेरे लाडले, देख ले, ये तेरी माँ ही को तुझसे जलन कर रही है। और मैं तेरी मुँह बोली मौसी पाप ले रही हूँ। दे तो एक मीठी पप्पी। दे दे। अच्छा जी, आपकी ही चलने दो राजाज्ञा। मंजुलाजी, गाओ। वही गीत-ताई कह रही हैं वह। (मंजुला उर्मिला का गीत गाती है।)

यशोधरा : गहरी साँस लेकर। मंजुला, सच में आजकल यह गीत सुनने को मेरा जी बहुत करता है और उसे सुनने के बाद कुछ डर सा भी लगता है। परसों यह गीत सुनते-सुनते मुझे झपकी लगी और एक सपना आया कि जैसे ये मेरे पति राजपुत्र सिद्धार्थ का सुंदर विलास मंदिर और तुम सब मेरी प्यारी बहनें यह अपना राजनगर, यह सारा दृश्य अकस्मात् विलीन होकर मैं अयोध्या के एक निर्मनुष्य दालान में अकेली एक कोने में आँसू पोंछती पड़ी हुई हूँ और लोग दूर से मुझे देखकर कह रहे हैं, वह देखो, दूसरी उर्मिला और मेरे पति राजपुत्र सिद्धार्थ मेरे पास होते हुए भी मुझे दिख नहीं रहे हैं।

मधुरा : पागल हो गईं क्या यशोधरा तुम! राम-लक्ष्मण के पिता जैसे कैकेयी के पंजे में फँसे हुए थे वैसे तेरे श्वसुर शुद्धोधन महाराज कहीं किसी युवती के पंजे में जकड़े हुए नहीं हैं। तेरे पति राजपुत्र सिद्धार्थ को वन में भेजकर तुझे सीता, उर्मिला जैसा दुःख क्यों देंगे!

यशोधरा : मधुरा, सीता के दुःख से भी मैं इतना नहीं डरती जितना उर्मिला के दुःख से डरती हूँ। सीता के वनवास में प्रिय का दर्शन होता था। रामचंद्र की ईश्वरीय संगत का सुख मिलता था, पर बेचारी उर्मिला, उसे तो पति के साथ वनवास का दुःख भोगने का सुख भी किसी ने नहीं दिया। उसे अकेली छोड़ लक्ष्मण निकल गए, क्योंकि उन्हें ब्रह्मचारी बने रहने की इच्छा हुई, पर मैं कहूँ, जिन्हें ब्रह्मचारी बने रहने की इच्छा हो वे अपना वैसा निश्चय विवाह पूर्व करें। विवाह बाद ब्रह्मचर्य व्रत का निश्चय उनके अकेले की इच्छा से करने का अधिकार उन्हें नहीं है। दोनों के सहयोग से बने प्रासाद को जिस तरह अकेला नहीं भंग कर सकता, वैसे ही दांपत्य जीवन का लताकुंज कोई अकेला तोड़-ताड़ नहीं सकता। पर बेचारी उर्मिला, अबला पति को झक आते ही विरह के वीरान दुःख के तट पर, जैसे जल से निकली मछली फेंककर उसकी आत्मा को तड़पाया जाता है, वैसी फेंक दी गई। कौन कह सकता है, मेरे प्रिय पतिदेव सिद्धार्थ को भी ब्रह्मचर्य की और श्रमण संन्यासी का जीवन जीने की ऐसी इच्छा आगे-पीछे न हो जाए? वैसे देखो, आजकल बार-बार कहते रहते हैं कि यह संसार कितना क्लेशकारी है। परसों कोई श्रमण मिला, तब से तो इनका चित्त बहुत उदास सा दिखता है; कहते हैं, उस श्रमण जैसा यति होना कितना सुखकारी है! क्या होगा, कौन जाने, सखी?

मधुरा : जीजी, क्या होगा यही विचार निरंतर कोई करे तो अच्छा-भला भी पागल हो जाए! तुम्हारी सीता जैसी स्थिति होगी या उर्मिला जैसी या दोनों जैसी भी नहीं या दोनों जैसी बारी-बारी से आती हैं, उसकी चिंता आज क्यों करनी? देख, स्त्री को छोड़ पाना, कहने भर की बात नहीं होती? रामजी भी सीता न दिखने पर विलख विलखकर रोए थे, लता-बेलों को भी सीता-सीता कहकर गले लगाते रहे थे। तुम भी सीता जैसी ही सिद्धार्थ की प्रिय रानी हो। उर्मिला जैसी, राम ने बड़ी बहन से विवाह किया, इसलिए लक्ष्मण से विवाह करने का आदेश पिता ने दिया, ऐसी किसी भी दूसरे से बाँधी गाँठ कि नहीं।

मंजुला : हाँ जी। मधुरा, अपनी जीजी यशोधरा के स्वयंवर की पूरी कथा मुझे सुनाओ न! मैं बच्ची थी तब।

मधुरा : तू बच्ची थी, यह जानकर कहने का तेरा भाव यह तो नहीं कि उस समय स्वयंवर में भाग ले सकती, इतनी सयानी होती तो यशोधरा को उस स्वयंवर में यश मिलने का अवसर पाना कठिन ही होता!

यशोधरा : (मुसकराते हुए) हाँ, यही है मंजुला।

मंजुला : नहीं मधुरा, बेकार के झगड़े खड़े करने की तुम्हारी यह बुरी आदत ठीक नहीं।

यशोधरा : अरे, परंतु इसमें बिगड़ा ही क्या है? स्वयंवर तू जीत लेती तो वह भी मेरा भूषण ही होता।

मंजुला : पर मुझे तो उस स्वयंवर की बात बता। मुझे इतना ही स्मरण है कि राजकुमार सिद्धार्थ के मंदिर में शाक्य कुल की सुंदर-से-सुंदर कन्याओं का सम्मेलन हुआ है और मैं माँ का आँचल पकड़कर वहाँ खड़ी थी। आगे क्या हुआ?

मधुरा : आगे यह हुआ कि उन कन्याओं के झुंड नाच-गाकर थक जाने पर राजकुमार की ओर से उनको पुरस्कार दिए गए। एक से बढ़कर एक सुंदर कन्या राजकुमार के सामने जाती। पुरस्कारस्वरूप वस्त्र, भूषण, अलंकार जो मिले, वह लेती, कोई कलिका जैसी लज्जा से काँप उठती, कोई दचकी मृगी जैसी चारों ओर निहारती, कोई चित्र जैसी स्तब्ध हुई देखती, पर सिद्धार्थ की मुद्रा रत्ती भर भी विचलित नहीं हुई, मानो उसका ध्यान जैसे उधर था ही नहीं। अंत में जब अपने सुप्रबुद्ध की चाँदनी जैसी कन्या विदा लेने आई तब राजकुमार चौंके, तुरंत उसने अपने गले का रत्नहार इस चटक चाँदनी के गले में पहनाया और उसने भी कामदेव के पुष्प धनुष जैसे अपने बाहुपाश सिद्धार्थ के कंठ में डाल अपना प्रेम-विह्वल मस्तक उसके विशाल वक्षःस्थल पर टिका दिया।

यशोधरा : (मधुरा को रोककर) ऐ वाहियात, ऐसा नहीं। बस कहने लगी ऊटपटाँग। राजकुमार ने मेरे गले में हार पहनाया और मैं तुरंत अपनी सखियों के साथ आगे हो गई-समझी मंजुला।

मंजुला : फिर वे शतरंज का खेल और शस्त्र विद्या की प्रतियोगिताएँ कब हुईं? सच-सच कहना मधुरा।

मधुरा : अब मैं सच ही कहूँगी। यशोधरा के लिए प्रस्ताव करते ही हमारे पिताश्री सुप्रबुद्ध ने कहा कि क्षात्र रीति से शस्त्र विद्या में जो श्रेष्ठ होगा उसे ही कन्या देना उचित है, अतः शस्त्र प्रतियोगिता हुई। अरी, दो जुड़वाँ युवा सिद्धार्थ ने अपने तेज खड्ग के एक ही प्रहार से ऐसे साफ काटे कि वे कुछ देर खड़े-के-खड़े रहे। प्रतिस्पर्धी को लगा कि प्रहार खाली गया और वे हँसने लगे। उतने में हवा चली तो वे युवा लड़खड़ाकर गिर गए और सिद्धार्थ की जय जयकार हुई। वैसे ही धनुर्विद्या में, पर सबसे विकट स्थिति अश्वविद्या के प्रयोग में थी। अरी, पूरे शाक्य कुल में जिसपर कोई सवारी नहीं कर सकता था, ऐसा एक काला-कलूटा, उजड्ड घोड़ा अपनी लाल-लाल आँखों से गुस्से से साँसें भरता आगे आया। जो उसपर चढ़ता वह उसे फटाक से नीचे फेंक देता। अगली टापों से भूमि गोड़ता पिछली टाँगों पर खड़ा हो जाता, फिर चक्रवाती सागर जैसा मुँह से फेन निकालकर फड़फड़ाने लगता और काटने दौड़ता।

मंजुला : ओ दैया! मुझे कँपकँपी छूट रही है। बताओ जल्दी कि सिद्धार्थ का क्या हुआ?

मधुरा : उन्होंने तो उसकी अयाल के बाल पकड़े और वैसे ही उसकी नंगी पीठ पर चढ़ गए। घोड़ा ढीला पड़ गया। फिर सिद्धार्थ ने उसे जोर से दौड़ाकर दस चक्कर लगाए। पूरे शाक्य मंडल ने बड़ा जयघोष किया और यशोधरा का विवाह सिद्धार्थ से हुआ।

मंजुला : राजकुमार सिद्धार्थ को बचपन से ही श्रमण होकर वन में जाने की उमंग हो उठती थी। उन उदास विचारों से उनको हमेशा के लिए ही परावृत्त करने उनपर यह सुंदरता का मोहन मंत्र राजमंत्री की ओर से डाला गया था। उस दिन सर्वोत्तम मोगरे के फूलों की माला राजकुमार को यशोधरा ने पहनाई और वन प्रांतर में भटकनेवाले उस दिग्गज को उस मोगरे की माला से जो बाँधा, वह आज तक उससे बँधे हैं।

यशोधरा : सखी मधुरा, पर इस आज के कल का क्या? उस फूलमाला की बेड़ियाँ उस दिग्गज को बाँध सकीं, इसका कारण वह माला नहीं थी, वह तो उस दिग्गज की ही स्वयं की इच्छा थी कि वह उससे बँधा रहा। राजकुमार को बचपन से ही संसार विषय में जो उदासीनता आती थी वह संसार के दु:ख का तिनका दिखते ही फिर से जाग जाने की संभावना भी न रहे, इसलिए मेरे श्वसुर महाराज शुद्धोधन ने कपिलवस्तु नगर के बाहर स्वर्ग तुल्य यह विलास भवन बनवाया। उसी में राजकुमार रहें और रमे रहें, इसलिए यह खासी व्यवस्था की, पर यहाँ भी लता-वृक्षों के नीचे बिछे फूलों को तुरंत ही उठाना पड़ता है, क्योंकि यदि वे बिछे फूल सूखे हुए दिख जाएँ तो सिद्धार्थ के मुख का हास्य भी तुरंत कुम्हला जाता है। वे तुरंत कहने लगते हैं-अरे, सारी सुंदरता ऐसी क्षणिक है। हाय, हाय! जो प्रातः खिलेगा वह संध्या को कुम्हलाएगा, पर सखी, खिले फूलों में एक भी कुम्हलाया वहाँ दिखे नहीं, इतनी सावधानी से सजाया जानेवाला प्रीति का जो मनोहर उपवन है वह केवल भासमान स्वप्न सा है। उसमें भी सिद्धार्थ को दुःख के दुःस्वप्न दिखते ही हैं, उनका क्या करें? ऐसी स्थिति में फूलमाला की श्रृंखला तोड़कर वह दिग्गज कब भाग जाएगा इसका कोई ठीक नहीं।

मधुरा : ठीक है, सखी यशोधरा! तेरे इस अल्हड़ मुन्ने का, इस अपने नवजात मुन्ने को पहली बार देखने सिद्धार्थ आ रहे हैं ना! फिर देख लेना मजा, मैं कह रही हूँ। अरी, अपने इस मनोहर, छुटके तनय के सुंदर स्मित के किरणों की यह वात्सल्य माला राजकुमार सिद्धार्थ के हृदय को तेरी वरमाला से भी अधिक कसकर बाँध देगी।

मंजुला : राजकुमार के आते ही इस नन्हे की लखभेंट उनके हाथों सौंपने का पहला अधिकार मेरा है, अच्छा! मौसी हूँ ना मैं इसकी।

मधुरा : अरे, लो आ गए सिद्धार्थ। नहीं, तुम नहीं उठना इस तरह, हम कहेंगे कुमार को कि अभी व्यवहार करने नहीं निकली है हमारी राजप्रसूता। देखो लड़कियो, सुख क्षणिक होता है, इसलिए दुःख की तरह ही त्याज्य है, श्रमण संन्यासियों के इस आदर्श के सटीक उत्तर में लिखा वह मधुर गीत गाओ। एकदम सुरांगनाओं जैसा गाओ, नदी के प्रवाह की तरह गाओ, सलीलना थक जाओ तब भी उच्छ्वास नहीं लेना। हाँ, न जाने उस उच्छ्वास की हवा से भी राजकुमार के कोमल मन को दुःख का धक्का लग जाए।

[राजकुमार सिद्धार्थ के आते ही लड़कियाँ नाचने-गाने लगती हैं, सिद्धार्थ यशोधरा के पास बैठते हैं।]

सिद्धार्थ : (गाना समाप्त होते ही रोककर) यशोधरा! एक गुलाब फूल सूखे तो दूसरा फूल खिलता है। इससे माली को निरंतर फूल मिलते रहेंगे। यह इस गीत का भाव है तो भी स्वयं माली की फूल का उपभोग करने की इंद्रिय शक्ति ही कभी-न-कभी विफल होगी ही, तिसपर इंद्रिय सुख हमेशा ही रहनेवाला नहीं है, इस दु:खद आशंका का यह गीत क्या समाधान करता है!

मधुरा : राजकुमार, ऐसी निर्मूल आशंकाओं का समाधान करते रहने के लिए मेरी यशोधरा क्या कोई भंगड़ साधु वैरागी है! आज युगों-युगों से हजारों वर्षों से बड़े-बड़े जपी-तपी श्रमण, संन्यासी, अवतार, अवधूत आपके जैसा ही पूछते आए, पर उनका उत्तर किसी ने भी दिया क्या? जब कोई वह उत्तर देगा तब हम भी फूलों के गीत गाना छोड़कर श्रमणों की कथाएँ गाएँगे, पर आज हम अपने नन्हे राजा के लिए मधुर लोरी और झूला गीत के सिवाय दूसरा कुछ भी न गाएँगी, न सुनेंगी; क्योंकि आज आप हमारे महाराज नहीं हैं, हमारे इस छोटे राजा के राज पिता हैं। मंजुला, ले, आ इधर अपना का नन्हा राजा, देखिए महाराज शुद्धोधन का पौत्र, राजपुत्र सिद्धार्थ और राजकन्या देवी यशोधरा का तनय, पूरे शाक्य राष्ट्र का चहेता छोटा राजा।

मंजुला : अरे, इतने शब्द आभूषण छोड़ केवल इतना कहती कि मंजुला का सुंदर भांजा है यह, तो सबकुछ महत्त्वपूर्ण उसमें आ जाता। लीजिए महाराज, अपने नन्हे राजा को अब। संपूर्ण शाक्य कुल को आपके बेटे के जन्म से खुशी हो रही है।

[सिद्धार्थ बच्चे को किंचित् सहलाकर उच्‍छ्वास लेता है।]

यशोधरा : मंजुला, मधुरा! पूरे शाक्य राष्ट्र के घर-घर में जिस कारण से खुशियाँ-ही-खुशियाँ हो रही हैं ऐसा तुम कह रही हो, उस कारण सिद्धार्थ को दुःख के उच्छ्वास छोड़ने पड़ रहे हैं। लाओ, नन्हे राजा को। तुम्हें प्रेम है तो सबको ही लगना चाहिए, ऐसा नहीं है।

सिद्धार्थ : देवी, मेरी प्रिया, जात भार्या, स्वयं के नवजात शिशु को देखकर शेरनी के स्तन भी दूध से भर जाते हैं, क्रूर-से-क्रूर सिंह भी उसे गाय जैसा निरापद लगता है। चतुष्पादों को भी स्नेहसिक्त करनेवाला यह अपत्य प्रेम मुझे मोहित नहीं करता, ऐसा कैसे होगा? तुममें से किसीको भी इस शिशु को देखकर जितनी प्रीति उमड़ी हो उतनी ही मेरी भी उमड़ी है। इसका प्रत्यंतर है यह मेरे दुःख से भरे निःश्वास। तुम्हें आश्चर्य होता है? मधुरा, मानो कोई सुंदर वन पंछी राजद्वार के ऊपरी पिंजरे में बंद रखा हो और दास-दासी, राजा-रानी उस सुंदर पंछी को अपने पिंजरे में फँसा देखकर आनंद से भर गए हों, पर राजा का एक कुमार दुःखी होकर सोचने लगे कि उस पंछी को उस सँकरे पिंजरे में परतंत्रता की कोमल पीड़ा हो रही होगी। इसको यहाँ से स्वतंत्र करने की युक्ति मुझे सूझे तो कितना अच्छा हो। अब मधुरा, तू ही बता, उस पंछी पर खरा प्रेम किसका? राजा के दास-दासियों का या राजकुमार का?

मधुरा : मैं कुछ नहीं कहती। मुझे ज्ञात है कि मेरे ही मुँह से निकलवाना है कुछ उलटा-सीधा।

मंजुला : अच्छा, मैं कहती हूँ, उस पंछी को पिंजरे में देखकर दुःखी होते राजकुमार का प्रेम उसके प्रति अधिक है।

सिद्धार्थ : उसी तरह, प्रिय यशोधरा, इस बच्चे का लाभ तुम्हें हुआ, इसलिए तुम्हें आनंद हो रहा है, पर तुम्हारे इस लाभ में उसकी क्या हानि हो रही है, इधर तुम्हारा ध्यान ही नहीं है। इसलिए तुम्हारा प्रेम स्वार्थी है, पर मुझे यह नन्हा निरपराध जीव इस दुःखपूर्ण संस्कृति के पिंजरे में फँस गया है, इसलिए दुःख होता है। इसे उस पीड़ादायक परतंत्रता से कैसे मुक्त करूँ, इस चिंता से छोड़े गए नि:श्वास उसके प्रति निस्स्वार्थ प्रेम के आनंद से पूरित तुम्हारे उत्साह को देखकर अधिक भर गया है।

यशोधरा : किसी भिखारी को रास्ते में भीख माँगते चलते-चलते जो बच्चा पैदा हो जाता है, उसके विकलांग बाप को ऐसा शोक करना ठीक लगता है, क्योंकि कंगाली, दीनता के पिंजरे में उसके माता-पिता ने उसे बंद कर दिया है, ऐसा कहा जा सकता था, पर मेरा यह राजविंडा पुत्र शुद्धोधन महाराज का मन्नतों से प्राप्त पौत्र है। वह शाक्यों के राजा का गर्भश्रीमंत वारिस है।

सिद्धार्थ : हाय! हाय! यशोधरा, भीख के रास्ते में लगनेवाले पेड़ की छाया को छोड़कर जिसके प्रसूती को छाया का स्थान मिलता नहीं और जिन्हें स्वयं को ही खाने को न मिलने के कारण बच्चे को भरपेट पिलाए, इतना दूध कभी न मिलता हो, ऐसी सैकड़ों भिखारिन माताएँ इस दुनिया में हैं तो! और उनको पैदा होते जन्मते ही मरने के मार्ग पर हतभागी बालक जन्म लेते हैं तो, तो फिर राजविलास में जन्मे एक गर्भश्रीमंत बाल वारिस के जन्म पर मैं कितना खुश हो जाऊँ और उन असंख्य निरपराध जीवों को जिन्हें जन्म लेते ही कष्टों में छटपटाना पड़ता है, उनके लिए दुःख के कितने नि:श्वास लूँ-यह तुम्हीं मुझे बताओ। यशोधरा, यह केवल राज्य का वारिस है, इसलिए अपना शिशु सुख में ही रहेगा, यह तुम्हारा सोचना कितना भ्रमपूर्ण है? यदि इसे ज्वर हो आया तो राज्य में कोई भी एक उसे बाँट सकेगा? इसपर छोटी माता, बड़ी माता का प्रकोप हुआ तो ये सारी दास-दासियाँ उसकी पीड़ा को स्वयं भोग सकेंगी क्या? पगली, राजा का पुत्र हुआ तो भी वह जन्मते ही बोलने नहीं लगता। बचपन जैसा सुख नहीं, ऐसा कहनेवाले कहते रहें, पर बचपन जैसा दुःख भी नहीं। एक दिन कभी कोई स्नेही पास न हो तो जीना कठिन। उसे क्या कष्ट है वह कह नहीं सकता। क्या कहना है समझ में नहीं आता। पेट दुखता है और प्यारी माँ उसे न समझ उसके सिर में ओषधि लगाती है। प्रकाश में दिये से हाथ जलता है और अँधेरे में माँ-बाप का ही पैर पड़कर किसी अंगूर के फूल की तरह पिचक जाता है। अजी अपने ही मलमूत्र में पड़े रहने से वह शरीर पर लिपट जाता है और वही अंगुलियाँ मुख में जाने पर चूसी जाती हैं। ऐसा मलिन, असहाय और परतंत्रता की हीन स्थिति में बचपन रहता है। ऐसे सुख में इस अपने लाड़ले बेटे को ढकेलने की क्रूरता हम माँ-बाप करते हैं। नहीं-नहीं, इस क्रूरता का मुझे प्रायश्चित्त लेना चाहिए। और वह यही कि जन्म के कारागृह में पड़े इस शोकग्रस्त संसार से उसे मुक्त करने का कोई उपाय निकालना पड़ेगा।

प्रिये यशोधरा, मधुरा, मंजुला, अब रात्रि अधिक हो गई है। जाओ, सो जाओ। हम कुछ देर चाँदनी में उद्यान में बैठना चाहेंगे। ( जाने लगता है।)

मधुरा : परंतु राजकुमार, थोड़ा रुकें। इस पुत्र का जन्म आनंदोत्सव...यशोधरा...

यशोधरा : मधुरा, जाने दे। कुमार ने कहा ही है कि उन्हें पुत्र जन्म की यह बात अति दुःख की लगती है। क्यों रोकती हो इस दु:खद स्थान पर उन्हें-यह क्या सच में ही चले गए! मंजुला, अरी, तुमने सच में ही उन्हें जाने कैसे दिया? ( मंजुला के गले पड़ते हुए) मेरी बहना, मेरी सखी, राजकुमार सिद्धार्थ विश्व के दुःख का नाश करने का रास्ता खोज रहे हैं? विश्व में अपनी गिनती कहाँ है? अपना दुःख माने राजा का फन्ना। हमारे दुःख से वे यथासंभव दूर रहें। उतना ही हमारा दुःख दूर करने का उत्तम उपाय? मधुरा, वह स्नेह की पुरानी श्रृंखला कम पड़ेगी, इसलिए तू वात्सल्य की श्रृंखला उस दिग्गज के चरणों में डालना चाहती थी तो उससे वे अधिक ही घबराकर भाग गए।

मधुरा : शांत! सखी, शांत! यह लहर भी जैसे उठी है वैसे ही बैठ जाएगी। अब तू थोड़ी देर शांत होकर सो जा। तुम्हें जाग सहन न होगी। लड़कियो, कोई मधुर गीत सुनाओ। उसे सुनते-सुनते देवी को झपकी आ जाए तो तुम सब सो जाना। (परदा गिरता है।)

: दूसरा दृश्य :

छंद : राजकुमार सिद्धार्थ का मन बचपन से ही वैराग्य की ओर था। उनका मन नित्य उदास रहता है। इसलिए उन्हें गृहस्थी में बाँधने के लिए यह विलास भवन बनवाया। मैं उनका प्रिय सारथी हूँ, इसलिए इस विलास भवन में रहकर और सिद्धार्थ का मन हमेशा सुखकारक विषयों की ओर लाकर उनका मन प्रसन्न रखने का काम शुद्धोधन महाराज ने मुझे सौंपा, पर आजकल यहाँ भी सिद्धार्थ बहुत उदास रहते हैं। उनकी संगति में तो मुझे भी उदास होना पड़ता है। तथापि अपना कर्तव्य इस तरह छोड़ नहीं देना चाहिए। अभी वे वहाँ चाँदनी में आनेवाले हैं। लो, आ ही गए! छंदा! कुछ भी हो जाए पर मुँह पर उदासी नहीं छानी चाहिए। हमेशा हँसमुख रहो और विश्व दुःखमय लगे तो भी नहीं और वह सुखमय न भी लगे तो भी वह सुखमय है, ऐसा ही कहते रहो।

सिद्धार्थ : (प्रवेश कर) छंद, ऐसे उदास क्यों खड़े हो?

छंद : उदास नहीं हूँ, महाराज। इस उद्यान की चाँदनी की अपूर्व शोभा देखकर मैं मंत्रमुग्ध हो गया था। आपकी राह ही देख रहा था। यह चैत्र पूर्णिमा है। इस सुंदर सरोवर में देखिए, आकाश कैसा प्रतिबिंबित हो रहा है और इसमें दिखता चंद्रमा तो इतना स्पष्ट दिख रहा है कि किसी बालक को वह अचानक दिखाया जाए तो उसे लगेगा कि इस सरोवर के नीचे सच में ही एक दूसरा आकाश है और उसमें दिखनेवाले दूसरे चंद्र की खोज मैंने की है।

सिद्धार्थ : फिर क्या उस बालक की वह समझ खोटी होगी? इस जलाशय में बिंबित हुए इस सुरम्य आकाश को यदि तुम खोटा कहोगे तो फिर यह वायु के परिसर में प्रतिबिंबित हुआ आकाश भी खरा है, यह किस आधार पर मानें? दोनों ही दृग प्रत्यय! दृष्टि बंध के खेल।

छंद : परंतु यह जलाशय के नीचे दिखनेवाला आकाश क्षणिक है। दिखता है, पर टिकता नहीं है।

सिद्धार्थ : और यह ऊपर का आकाश? छंद, वह भी उतना ही क्षणिक दिखनेवाला है, पर टिकनेवाला नहीं है। वह तारा देखो। ये तीन शब्द मैं तुमसे कहूँ तब तक वह तारा जहाँ था वहाँ से कई लाख योजन दूर निकल गया। उस अनुपात में तारागणों के परस्पर आकर्षण में विलक्षण अंतर हो गया। इस परिवर्तन के अनुपात में इन सब तारों की, आकाश की, तुम्हारी, मेरी, हवा की गति की परिस्थिति और परिणाम और प्रमाण भी बदल गए। एक तारे के वेग के कारण इतना परिवर्तन होता है तो अनंत अणु रेणु के परस्पर आकर्षण उत्सारण करनेवाले ब्रह्मांड के महान् स्तंभन के अखंड वेग के प्रभाव को क्या कहा जाए? गत विपल में देखा हुआ आकाश इस विपल में वहीं रहा हुआ नहीं है। न वायु, न चंद्र, न तू और न मैं। इस जलाशय के चंद्रबिंब की तरह यह सारा वस्तुजगत् निरंतर परिवर्तनशील, अनित्य, दिखनेवाला, पर टिकनेवाला सारांश समान खोटे हैं या खरे हैं। कहो, ठीक है न!

छंद : हाँ, कुमारजी! (स्वगत)अरे रे यहाँ 'हाँ' कहना नहीं था। (प्रकट) परंतु महाराज, वह कुछ भी हो, पर शांत, सुखद और सुंदर रातें देखने पर मन को जो आनंद होता है वह तो अनुभवसिद्ध है न! यह देखिए, इस आम्रवृक्ष पर जो पंछी रहते हैं, आज शाम को उनके जोड़े चाँदनी दिखने तक अपने-अपने घरौंदे के सज्जों पर बैठे मधुर-मधुर गीत गा रहे थे। इतने मधुर कि गाते-गाते उनको नींद ही आने लगी। अब नींद में उन्हें इस प्रसन्न जलाशय, इस चाँदनी के, इन फूलों की सुगंध के सुखद स्वप्न दीख रहे होंगे।

सिद्धार्थ : उन पंछियों को नींद में स्वप्न आ रहे हों या नहीं, परंतु छंद, तुझे तो जागते हुए ही स्वप्न दीख रहे हैं। यह बात सच है कि यह ज्योतिमयी, शांत, सुखद रात देखो, यह तू कह रहा है, परंतु उस पार के उस वन से जाकर पूछो तो सही। वह शांत है या अशांत है। वह सिंह, वह बाघ, वे लोमड़ियाँ अपनी गुफा से अभी भूख से बिलबिलाते बाहर निकल रहे होंगे अपने दाँत निपोरते हुए और उनके क्रूर गर्जन और दहाड़ें सुन अपने-अपने प्राण कैसे बचाएँ, इस चिंता-भय से मृग, महिस, गोरू, सौरू थरथर काँप रहे होंगे। इधर-उधर रक्तरंजित संघर्ष प्रारंभ होकर सैकड़ों गले कटेंगे। कहीं राह जनिकों ने यात्रियों की मुंडियाँ दबाकर रखी होंगी और उन धनिकों के बाल-बच्चे थरथर काँपते हुए 'दया करो', 'उन्हें छोड़ो', कहते-कहते उन्हें भी घर में मार डाला जा रहा होगा। वह देखो, दावाग्नि, पूरा वन जल रहा है और चंद्र को लोरी गाते सोए हुए जैसा तुमने अभी कहा, वे पंछी अकस्मात् जलते-भुनते ची-चीं करते आग में टपाटप गिर रहे होंगे या तू कहता है वे शांत रातें, यह सुख का नाटक तू देख रहा है तभी इस जग में किसीको मृत्यु का अंतिम क्षण बुला रहा है, कोई प्रसूति वेदनाओं से तड़फड़ा रही होगी, कोई ज्वर से जल रहा होगा, कहीं श्मशान में शव जल रहे होंगे, स्वजन-परिजन रो रहे होंगे, यह सब खोटा है क्या?

छंद : नहीं महाराज। (स्वगत)अरे यहाँ 'नहीं' कहना था। पहले जल्दी में हाँ निकल गया और अब नहीं निकल गया। (प्रकट) पर कुमार, वहाँ कुछ भी होता रहा हो, यहाँ कम-से-कम आपको और मुझे इस विलास भवन के इस निर्भय उपवन में यह सुंदर चाँदनी से भरी रात शांति और आनंद तो दे ही रही है।

सिद्धार्थ : छंद, सच तो यह है कि इस जग में जब तक सैकड़ों आदमी दुःख से पीड़ित हैं तब तक मुझे कुछ भी आनंद नहीं है। पर अपना ही केवल देखें तो इस समय और यही तीन भयंकर भूत तेरे तीनों ओर से अकस्मात् आकर तुझे खाने लगें, तो तुझे यह चाँदनी, यह उपवन इस समय भी शांत, सुखद और निर्भय लगेगा क्या?

छंद : बिलकुल नहीं! पर¨¨पर¨¨परंतु कुमार, ऐसी रात में भयंकर भूत आदि के नाम नहीं लेने चाहिए।

सिद्धार्थ : नाम कौन से? ये देखो, भूतों के प्रत्यक्ष रूप ही यहाँ खड़े हैं। वह कौन है, पहचाना? यह रोग का भूत है। उसके हाथ-पैरों से सड़ा मांस और रक्त टपक रहा है। उसका मुँह टेढ़ा-मेढ़ा होकर मुँह से मवाद बह रहा है। उसका शरीर पीड़ा क्लांत है। पेट में भी बहुत मरोड़ उठ रही है। वह देखो, कितना व्याकुल होकर चीख रहा है। कितनी दयनीय कराह है। छंद, यह रोग का भूत तुझे-मुझे कब पछाड़ेगा, इसका कोई नियम है क्या? आँखों की सूजन, नाक का दुखना, कान दर्द, शरीर पर जितने रोम हैं उतनी संख्या में रोग हैं, क्योंकि हर बाल के पीछे एक बलतोड़ तो होता ही है-कराह, टीस, कसक, जलन, वेदना, शोथ, दाह, यातना।

अरे रे! भयंकर रोगों की इन अनंत यातनाओं की तलवार मानव मात्र के सिर पर निरंतर टँगी हुई है। वह देखो, वहाँ वह दूसरा भयंकर भूत-वह बुढ़ापा, वह जरा! दांत गिरे हुए, आँखें चिपड़ी हुईं, नाक बहती हुई, लार टपकती हुई, पैर लटपटा रहे हैं। गंदा, अभद्र, दलिदर, घृणास्पद-यह बुढ़ापा तेरी और मेरी एक दिन ऐसी ही गत बनाएगा। बिस्तर पर अपने ही मल-मूत्र में पड़े हमें देखकर हमारे सगे ही दूर भागेंगे। ममता के बाल-बच्चे भी दुःखी होकर कहेंगे-रामजी, इनकी मिट्टी अब उठाओ। और अब ये तीसरा भयानक भूत। देखो, वह तुझपर और मुझपर हमला करने के लिए कैसा आतुर हो रहा है। कोयले जैसा काला-कलूटा चेहरा। आँखें सफेद झक्क, गुस्सैल, जीभ टूटकर बाहर लटकती हुई। यह मृत्यु का भूत मरण। छंद, परसों राजधानी में तूने ही मुझसे कहा था न कि आज या कल हम सब मृत्यु की अरथी पर बाँधे जानेवाले हैं। हाय, हाय! जन्म, जरा, व्याधि, मरण। उद्यान के ये उग्र चौपाए। मनुष्य जाति के पीछे हमेशा होते हुए छंद, कैसा विलास भवन, कैसी चाँदनी, कैसी शांति, कैसा सुख? अपने इस दुःखमय विश्व के दुःखों से मुक्त होने का मार्ग मुझे कोई दिखाएगा क्या? वैसा कोई मार्ग क्या है भी? इसका हल एक बार मुझे ढूँढ़ना ही पड़ेगा। महा दुःख से विश्व को मुक्त करने के लिए वह रास्ता खोजने के लिए मैं अपना यौवन, अपना राज्य, अपने पिता, अपनी माता, अपनी पत्नी, अपना सबकुछ, अपने प्राण भी अर्पण कर दूँगा। आज मैं दुनिया को राम-राम कह गुप्त रूप से चला जाऊँगा। नहीं तो कल महाराज शुद्धोधन मेरा फिर से रास्ता रोकेंगे। छंद, जाओ। तुम मेरा घोड़ा सज्जित करके ले आना। जाओ, इस विलास भवन को छोड़कर मैं भाग न जाऊँ, इस हेतु से मेरे पिता के रखे हुए पहरेदार भाग्य से सोए हुए हैं, मुझे निकल जाना चाहिए।

छंद : परंतु राजकुमार...

सिद्धार्थ : अब किंतु न परंतु, छंद दुःखाग्नि से दावाग्नि वड़वा की तरह जल रहे इस संसार में अब मैं क्षण भर भी नहीं रहूँगा। जन्म, व्याधि, मरण, कभी भी, किसी से भी टाले न जानेवाले सांसारिक महादुःखों से कौन सयाना उद्विग्न न होगा! और छंद, तू तो सयाना है न!

छंद : हाँ, महाराज।

सिद्धार्थ : तो जाओ और घोड़ा लेकर आओ। मैं एक बार यशोधरा को स्वयं अंतिम विदाई देकर यहीं आता हूँ। जा, घोड़ा लेकर आना। मैं आया।

: तीसरा दृश्य :

[यशोधरा का अंत:पुर। पलंग पर यशोधरा,मंजुला आदि सोई हुई हैं।]

सिद्धार्थ : (प्रवेश करते हुए) अहा हा! इन भौतिक चर्मचक्षुओं को यह सुंदरता का अनुपम दृश्य कितना मोहित कर रहा है! बचपन से ही मुझे गृहस्थी बुरी लगती थी और मैं श्रमण संन्यासियों के पीछे-पीछे जाता था-यह देखकर घबराए हुए मेरे पिता ने मुझे संसार में ही बाँधे रखने का जो सुनहला, परम आकर्षक, मोहन मंत्र से भरा इंद्रजाल तैयार किया, वह यही है। शाक्य कुल की ही नहीं, दूर-दूर से कई सुंदर ललनाओं को लाकर मेरे मन को बहलाने इस विलास भवन में रखा। सुंदरता के ये कितने सुंदर नमूने! विविध सुंदरता, यह गोरी कितनी सुवर्ण जैसी! हेम गौर अंगलता। नींद में आँचल कमर के नीचे चला गया है। हाथ पर रखा वदन जैसे नाल पर छिपा कमल। यह सुधा, इसका वह श्यामल मुखमंडल। कितनी मोहमयी अवस्था है यह! और कितनी सफेद झक, सुंदरता का मुँह लज्जित हो जाए। सारंगी बजाते-बजाते यह वैसी ही मंच पर लुढ़ककर सो गई। सारंगी को भी नींद लग जाए, ऐसी शांति से वह उससे चिपकी हुई है। सुधा के स्वप्न के गाने को सारंगी के स्वप्न के सुर साथ दे रहे हों, ऐसी दोनों की नींद एकतान हो गई दिख रही है। यह चित्रा, करवट पर ढंग से सोई होने के कारण उसकी उत्साही अंगलता सच में ही किसी मनोहारी चित्र जैसी कमनीय दिख रही है। ये मोहना और मधुरा आपस में एक होकर सोई हैं, पर उनके उस एक शरीर पर वह उनके दो मुखमंडल अवश्य अड़ोस-पड़ोस में भिन्नता से शोभा दे रहे हैं। जैसे एक नाल में उगे दो जुड़वाँ कमल फूल। और यह मेरी पटरानी, मेरी प्रियतमा, मेरी यशोधरा, लगता है, गहरी नींद में है। मंद-मंद कालबद्ध साँस लेते-छोड़ते किंचित् ऊपर-नीचे होनेवाले वक्षस्थल के ये हार! यह उसकी ढीली हुई वेणी, उस वेणी के ढीलेपन से कुल चार कुंतल निकलकर उसके चेहरे पर लुब्धता से उड़ रहे हैं। और उन सारी ललनाओं के एकत्र हो जाने से इस समग्र दृश्य की रत्न माणिक की कोई माला टूटकर बिखर जाए या दो प्रेमी किशोरियों की आपस में ऊधम-मस्ती में कोई रंग-बिरंगा गुलाब फूलों से गुथा बड़ा हार नीचे गिरा हो और उसकी पंखुड़ियाँ इधर-उधर बिखर जाएँ, वैसे फूलों की बिखरी पंखुड़ियों जैसी पसरी हुई इन सुंदरियों से यह स्थल अति आकर्षक लग रहा है। इन सबने मुझसे कितना प्रेम किया! मैंने भी इनसे कितना प्रेम किया। इनके साथ मैंने कितना विलास, विहार किया। मन की प्यालियाँ भर-भरकर मैंने इस सुंदरता के बगीचे के हर फूल का मधुर मधु का आकंठ पान किया, पर आज मैं इन सबको छोड़े जा रहा हूँ। ये कामिनियाँ, यह कामासव, यह कामी काया, इन सब कमनीय वस्तुओं को विषवत् मानकर उनका परित्याग करने यह सिद्धार्थ सिद्ध हो गया है। यह बात मेरे मन को स्पष्टता से ज्ञात हो, इसलिए मैं (सोच-समझकर) हेतुतः यहाँ आया हूँ। रे मन, तेरी खरी परीक्षा है यह। इन अत्यंत मोहमयी कामिनियों के लाँघे न जाते आकर्षण के बीच में ऐसे खड़े रहकर फिर तुम उसे लाँघकर जा सको तब ही तेरा वैराग्य बल सच्चा साबित होगा। भौतिक नेत्रों को सुरम्य रमणियों का यह शयन मंदिर कितना आकर्षक लग रहा है! रे मन, वह मैंने तुझे अभी बताया ही है, पर अब आत्मिक उपनेत्र मेरे पास हैं, उन्हें लगाकर फिर यही दृश्य देखो। उस दिन जो एक श्रमण परिव्राजक साधु मुझे अचानक मिला, उसने मानव का यह वास्तविक स्वरूप दिखानेवाले तात्त्विक उपनेत्र मुझे गुप्त रूप से दिए हैं। उसे नर-कपाल कहते हैं। यह मनुष्य के मुँह का ह‍ड़ि‍यों का ढाँचा है। दिखावटी गुड़िया के अंदर की यह चिंदियों की एक गाँठ है। ओहो, यह कितना आश्चर्य! ये तात्त्विक उपनेत्र मन की आँखों पर लगाकर देखते ही यह विलास भवन अकस्मात् ही एक भयानक श्मशान में बदल जो गया। क्या इन सब रमणीक मुखमंडलों की अंत में इस नर कपाल जैसी स्थिति होगी? उसका मूल रूप यही है और इस बीभत्स हड्डी के ढाँचे पर चढ़ाई हुई सुंदरता एक स्वाँग है। नाक ऊँची, एक शान जताते हुए नाक का यही मूल रह जाता है न! एक-न-एक दिन देखते-देखते ऐसा थोबड़ा होगा ही। देखनेवाली गैर आँखों के अंधे गड्ढे गदराए गाल के अधूरे भयानक सुरंग! अरे यह स्त्री देह, अरे नरदेह, रोगों से जर्जर, गंदगी से भरे हुए, दुर्गंध से परिपूर्ण, मुझे इससे असह्य घृणा हो रही है। यह देखो, नींद में ही दाँत किटकिटा रही है। टपकते लार से भरी हुई है। वह देखो, मुँह खोले खर्राटे भर रही है। अरे रे! और इसकी यह कैसी दुर्गंध कितनी गंदी। हाय-हाय, जिन ललनाओं को ऐसी अस्त-व्यस्त सोई पड़ी देखकर उनके दर्शन से मुझे काम-ज्वर चढ़ मैं मोहित हो जाता था, वही ये स्त्रियाँ? यह वैराग्य का मंत्रमणि, यह तत्त्वज्ञान का ताबीज, ये विवेक के उपनेत्र लगाकर देखते ही मेरी विषय भावना नष्ट होकर मुझे यह विलास भवन-प्रत्यक्ष नरक भवन समान बीभत्स लग रहा है। कामोन्माद में जब इन ललनाओं के आलिंगन को कोई स्वर्गवास कहता है तो वह लाक्षणिक अर्थ से सत्य ही होता है, पर जब मैं इन बीभत्स, अंदर-बाहर गंदगी और पसीने से घिन बनी देह को आलिंगन देने को नरकवास कहता हूँ तब वह शत-प्रतिशत सत्य होता है। अब यहाँ क्षण भर भी मेरा मन रम नहीं सकता। इन अभागी स्त्रियों या यशोधरा पर मेरी प्रीति कम हुई है, इसलिए नहीं; तुम लोगों पर वास्तविक प्रीति आज से ही मैं करने लगा हूँ इसलिए। इसीलिए मैं तुम्हें छोड़कर जा रहा हूँ, क्योंकि यशोधरा, आज तक तेरा यौवन-सम्मोहन मेरी तरुणाई को खींचता था, इसलिए मैं तुमपर प्रेम करता था, पर 'जरा' तेरे-मेरे यौवन को गोंच जैसी चूस रही है। जब ये आँखें पिचकी और चिपड़ी हो जाएंगी, यह मुँह पोपला हो जाएगा, कमर झुककर कूबड़ निकल आएगा, शरीर और मुँह पर झुर्रियों का जाल फैल जाएगा तब मेरा यह विषयासक्त प्रेम नष्ट होगा। नई-नई नवयौवना स्त्रियाँ सेवा में आती रहीं तो भी जब बुढ़ापा मेरी कामेच्छ ही छीन ले जाएगा तब क्या? तुम्हारी कमनीयता और मेरी कामेच्छा दोनों के नष्ट होते ही, यौन प्रेम का आकर्षण समाप्त होते ही, चूसे गए छिलके जैसे हम एक-दूसरे से दूर फेंक दिए जाएँगे। यौन प्रेम से वियोग ही नहीं तो विरस भी होगा, परंतु इन दुर्गति के विचारों से आज मुझे जो तुम्हारे, मेरे और सारे जग पर दया आ रही है और मुझे, तुम्हें और सारे प्राणियों को इस जन्म, व्याधि, जरा, मृत्यु के भयानक संकट से छुड़ाने के लिए जो महत्तम प्रयास करने का संकल्प कर रहा हूँ वही मेरा तुम पर प्रकट होता वास्तविक प्रेम है, वही मेरा-तुम्हारा खरा स्नेह है, देवी यशोधरा चलता हूँ। आज तक के प्रेम की यह पावती ले लो। (चुंबन लेने जाता है) नहीं, वह जाग जाएगी और मेरे वन प्रस्थान में बाधा बन जाएगी, पर मुन्ना, तुझे मुझसे पिता का सुख नहीं मिलेगा। मेरा यहाँ आना दैवी खेल था। फिर भी पिता के चुंबन पर जो औरस अधिकार तुझे प्राप्त है उसे मैं पूरा नहीं डुबोता। यह प्रथम और अंतिम चुंबन लेता हूँ। (पुत्र को चूमता है।) और अंत में प्रीति देवता, यशोधरा, जिस तेरे इस रति शय्या को मेरा स्पर्श फिर से कभी भी होनेवाला नहीं है, उसे यह मैं अंतिम स्पर्श करके और देवस्थान जैसी प्रदक्षिणा कर अब चलता हूँ। मेरे महाभिनिष्क्रमण का शुभ क्षण पास आ गया है। मैं अभी तुरंत घोड़े पर सवार होकर वन में निकल जाऊँगा।

: चौथा दृश्य :

[छंद और सिद्धार्थ अश्व कंटक को थपकिया रहे हैं।]

छंद : राजकुमार, सारी रात लगातार घोड़े पर यात्रा करते-करते आपको अब काफी थकान हो गई होगी। अब हम शाक्य राजा की सीमा पारकर मगध राजा बिंबिसार के राज्य में प्रवेश कर चुके हैं। अब राजा शुद्धोधन के दूत हमें लौटाकर ले जाने के लिए आएँगे, इसका डर नहीं है। अतः सिद्धार्थ, आप कुछ देर इस शिला पर विश्राम करें।

सिद्धार्थ : मैं तो थक ही गया, पर मेरे दौड़ते घोड़े के पीछे दौड़ते हुए छंद, तू भी कितना थक गया है! उसी तरह यह मेरा प्रिय अश्व कंटक भी कितना थका हुआ दिख रहा है। छंद, मेरे प्रति तुम्हारी एकनिष्ठ और इस अपूर्व सहायता का यह छोटा सा पुरस्कार लो (उसे रत्नकंकण देता है।)

छंद : नहीं महाराज, सच में ही नहीं। आपने मेरी निष्ठा का उल्लेख किया। अब तो मुझे यह पुरस्कार लेने में अधिक ही संकोच हो रहा है; क्योंकि आपके राजत्याग पर और वनगमन पर मेरी निष्ठा थी, इसलिए मैं आया, ऐसा बिलकुल भी नहीं है। आपके इस साहस, औचित्य के प्रति मेरी निष्ठा पूरी तरह अस्त हो जाने पर भी मैं पीछे रह नहीं सकता था। इसलिए मैं साथ में आया। मार्ग में वापस जाने का निश्चय मैं बार-बार कर रहा था। फिर भी आगे ही दौड़ रहा था। ऐसी बात नहीं कि दौड़ने की इच्छा मन में होने से मैं रुका नहीं, वस्तुतः मैं रुकना चाहता था। फिर भी मैं दौड़ता रहा, दौड़ता रहा। आपके चरणों का और वचनों का आकर्षण ही ऐसा कुछ विलक्षण है। अब यही देखिए कि आपके ये रत्नकंकण मुझे लेने की बिलकुल इच्छा नहीं हो रही है, परंतु महाराज, आपके 'लो' कहते ही मेरे हाथ आगे पसर जाते हैं। नहीं महाराज, मुझे ये बिलकुल नहीं चाहिए। (रत्नकंकण ले लेता है।)

सिद्धार्थ : छंद, अब इस घोर वन में मैं अकेला ही प्रवेश करूँगा, अतः तुम राजधानी लौट जाओ। शुद्धोधन महाराज और मेरी प्रिया यशोधरा, इन दोनों के लिए तुम मेरा एक संदेश ले जाकर उन्हें दे देना जिससे तुमने मुझे वन जाने में सहयोग दिया, इस कारण तुमपर होनेवाला उनका क्रोध शांत हो जाएगा। उन्हें कहना कि 'जिस दिन आपका-हमारा संयोग हुआ उसी दिन वियोग के बीज भी पड़ गए थे। मैं आपको छोड़कर न भी जाता तो भी मैं और आप हमेशा इकट्ठा ही रहते, ऐसा नहीं है। कभी तो हमको एक-दूसरे से विदा लेनी ही पड़ती। मृत्यु के परदे के पीछे मैं पहले जाता तो भी आपको मेरी अंतिम विदाई सहनी ही पड़ती। वैसे ही मृत्यु के परदे के पीछे आप पहले जाते तो भी मुझे आपकी अंतिम विदाई लेनी ही पड़ती। अतः इस अवश्यंभावी बात का शोक न करें। मेरे जन्मते ही मैं दिग्विजयी होऊँगा ऐसा ज्योतिषी ने कहा था। क्षात्र रीति के अनुसार मैं लाख सेना के साथ दिग्विजय के लिए निकलता तो आप मुझे बड़े गौरव और आनंद के साथ विदा देते। वैसी ही विदा आज भी आप मुझे दें, क्योंकि आज मैं उस सहस्राधिक मनुष्यों के रक्तपात से रँगे हुए दुष्ट शस्त्र दिग्विजय की अपेक्षा अति श्लाघ्य और शुभकारी ऐसे एक महान् शांतिपूर्ण दिग्विजय पर निकला हूँ। मैं दुःख का मूल खोजकर पूरे मानव समाज को क्लेश मुक्त करने के लिए मृत्यु को ही जीतने निकल रहा हूँ। अत: आप मेरे इस कार्य के लिए शुभ ही सोचें।'

छंद : महाराज, यह अति उदार संदेश शुद्धोधन महाराज जैसे विवेकी क्षत्रिय वृद्ध को कदाचित् संतोष कर देगा, पर देवी यशोधरा को संतोष इससे कैसे होगा? उसके भरे यौवन में आज बिलकुल खालीपन होने वाला है।

सिद्धार्थ : हाय, हाय! सच में आज अभी उधर देवी यशोधरा पलंग से उठते ही दैनिक स्वभाव के अनुसार, उसके निकट मैं सोया हूँ, ऐसा जानकर मुझपर अपना हाथ रखने का प्रयास करेगी और वह हाथ नीचे गिर जाएगा। तब मैं नहीं हूँ, यह जानकर उसके हृदय को जो ठेस लगेगी उसकी वेदना मुझे अभी यहाँ भी हो रही है। लोक कल्याण के लिए मेरे किए किसी भी त्याग से यह प्रीति त्याग ही अति कठिन है, इसलिए महान् त्याग है, परंतु यशोधरा, मैं वन में न जाकर तेरे मंदिर में तुझे प्रेम का पक्का आलिंगन दिए रहूँ। फिर भी तेरे यौवन और सौंदर्य का यह सुनहला नग, मेरे आलिंगन के कंजूस मूठ से काल चोर छीनकर ले ही जाएगा। यशोधरा, तेरा यौवन फूटे पात्र की तरह निरंतर झर रहा है। इसलिए तेरे-मेरे और विश्व के इस दुःख से हमेशा के लिए विदा लेने के लिए अर्थात् तेरे ही चिरंतन कल्याण के लिए मैं आज तुझे छोड़ रहा हूँ।

छंद, यह मेरा संदेश लो और लौट जाओ। (अपना मुकुट निकालते हुए) और रे मुकुट, तू भी जा। तेरा भार इस मेरे मस्तक पर से दूर किए बिना विश्व कल्याण का भार उठाने के लिए वहाँ स्थान कैसे मिलेगा? बचपन से जब-जब मैं कंगाल और श्रमिक किसान को पसीने से नहाया हुआ देखता था और राज्य के लिए युद्ध में घायल हुए सैनिक भी देखता था तब-तब मुझे इस राजमुकुट से घृणा होती थी। लगता था कि इस राजमुकुट में लगे हर निष्क्रिय रत्न में जो तेज चमक रहा है वह उसका न होकर उस श्रमिक किसान का है। और घायल सैनिक के पसीने और रक्त की बूँद-बूँद के वे भयानक प्रतिबिंब हैं। राजा की तृष्णा राक्षस जैसी इन मेहनती श्रमिकों के रक्त का प्राशन करती है और यह मुकुट उस रक्त पीनेवाले राज पिपासा के हाथ का रक्त पीने का पात्र है। रे मुकुट, तेरे रत्नों की संख्या जितना ही निर्मल पानी की बूँदों से भरा यह कमंडल और अनाज के दानों से भरी यह अंजुली तुझसे अधिक उपयुक्त है, क्योंकि उसे हीन-दीन प्यासे पी सकेंगे, भूखे खा सकेंगे, पर मानव की भूख-प्यास पूरी करने में अक्षम इन चमकदार पत्थरों को रत्न मानकर तुम्हें जिन मूर्ख आदमियों ने घूरे पर से उठाकर बड़ा बनाया उस घूरे पर ही जाकर गिरो। जाओ (फेंक देता है।) और जरदारी कपड़ो, तुम भी जाओ (कपड़े फेंकता है।)

छंद, अब मुझे इतना हलका लग रहा है। निर्धन बेचारों को देखकर आज तक मुझे जो दया आती थी वह लबार थी, क्योंकि भूखे का, नंगे का दुःख वही जान सकता है जो स्वयं नंगा है, भूखा है। दुःखियों के दुःख आज मेरे स्वयं पर ओट लेने से, भिखारी से भी भिखारी हो जाने से उनके दुःखों पर दया करने की वास्तविक पात्रता मुझमें आ गई और कितना आश्चर्य है कि उस विलासी सुख का त्याग करते ही त्याग का विलासी सुख मुझे मिला। एक घूँट जल, एक कौर अन्न और अनंत आनंद। (परदे में देखकर) कौन जा रहा है वह भगवा कपड़ा पहने? क्या वह अपने वस्त्र मुझे देगा?

छंद : अभी, ओ भले आदमी (व्याध प्रवेश करता है। छंद उसे रोककर कहता है।) हम आप ही को बुला रहे हैं।

व्याध : फिर आप चूक कर रहे हैं, क्योंकि मैं सभ्य नहीं, वनवासी हूँ।

सिद्धार्थ : अजी सज्जन!

व्याध : आप भी चूक कर रहे हैं, क्योंकि मैं सज्जन नहीं, दुर्जन हूँ। छोड़िए सब, मैं व्याध हूँ महाराज।

सिद्धार्थ : पर मैं भी अब महाराज नहीं रहा। इसलिए निवेदन करता हूँ कि ये अपने भगवे वस्त्र मुझे दे दो।

व्याध : बिलकुल नहीं दूँगा। इन वस्त्रों के कारण ही तो मैं छिपा रहकर असावधान मृग को मार सकता हूँ और आपके ये कपड़े पहनकर, व्याध का धंधा करनेवाले ये वस्त्र आपको देकर अपना एक और प्रतियोगी पैदा नहीं करना चाहता।

सिद्धार्थ : उसके लिए तुम डरो नहीं, क्योंकि यद्यपि मैं भी एक तरह से व्याध का धंधा करनेवाला हूँ, पर फिर भी उसका तुम्हारे धंधे से संबंध नहीं है। तुम्हारा धंधा मृगया का। मैं तो मृत्यु को ही मारने का धंधा करनेवाला हूँ। ये भगवा वस्त्र व्याध और विरक्त दोनों को ही एक जैसे उपयोगी हैं, क्योंकि उसे पहनने से मृग जैसा ही मरण (मृत्यु) भी असावधानी में व्याध के फंदे में आएगा। दे दो मुझे ये वस्त्र और उसके मूल्य में ये लो राज विलासी जरतारी वस्त्र! और ये अलंकार भी लो।

व्याध : (लालची, परंतु आशंकित दृष्टि से देखते हुए। स्वगत) चुराकर तो नहीं लाया किसीका यह सारा। अन्यथा श्मशान के ये मेरे वस्त्रों के बदले जरतारी वस्त्र कौन गधा देगा!

छंद : पगले व्याध, डरो मत। ये एक बहुत बड़े धनवान व्यक्ति होते हुए भी प्रबुद्ध होने लिए संन्यास लेना चाह रहे हैं। इसलिए तुम्हें यह अमूल्य अवसर मिला है। व्याध का और प्रबुद्ध का यह ऐसा सौदा हजारों वर्षों में कभी ही होता होगा।

व्याध : (स्वगत)मैं समझता था कि शाक्य राज पुत्र ही अकेला ऐसा उल्लू है, पर अब ऐसा दिखता है कि ऐसे सिरफिरों की एक जाति ही होगी इस विश्व में। (प्रकट) अच्छा, दीजिए ये वस्त्र-अलंकार और चलिए चार कदम आगे। उस घूरे पर और कुछ चिंदियाँ हैं इसी रंग की। वे या ये या सारी ही ले लो, जितनी ले सको। (सिद्धार्थ और व्याध अंदर जाकर कपड़े बदल आते हैं। छंद देखता ही रह जाता है।)

छंद : पर जरतारी वस्त्रों से अब मृग फँसेगा नहीं।

व्याध : ऐसे वस्त्र और अलंकार मिल जाने के बाद मृगों के पीछे क्यों भागूँगा! अजी पाँच सौ वनसूअर के बराबर है यह एक रत्न। वह मिल जाए तो फिर वनसूअर के पीछे दौड़ते फिरने के लिए क्या मैं कोई निर्बुद्ध वनसूअर हूँ। अच्छा, चलूँ अब (लौटता है और कहता है।) अब यह देखो, ये सब बेच लेने के दस पंद्रह वर्ष बाद मैं फिर से यहाँ आऊँगा। व्याध का धंधा चालू करूँगा। तब आप भी नए राजवस्त्र और अलंकार पहन फिर से यहाँ आएँ, पहचान रखें और ऐसा वस्त्र विनिमय बार-बार करते रहें हमसे! (व्याध निकल जाता है।)

सिद्धार्थ : लो हो गया। मैंने अपने पास की स्वार्थ की चिंदी-चिंदी फेंक दी है। सकल दु:खों का मूल खोजकर उसका उच्छेद कर समस्त प्राणी जगत् को दुःख मुक्त करने के लिए आज जो मैं यह कदम दुर्गम वन में रख रहा हूँ, वह सफल होने तक मैं पीछे कदम नहीं लूँगा। कम-से-कम इस कार्य में पराकाष्ठा के मानवी प्रयास करने से मैं नहीं चूकूँगा। हे देवो! आपके समक्ष ऐसी प्रतिज्ञा कर यह सिद्धार्थ अपना अर्थ सिद्ध करने के लिए यह महाभिनिष्क्रमण कर रहा है।

[वन में जाता है,परदा गिरता है।]

: पाँचवाँ दृश्य :

[यशोधरा का शयन कक्ष।]

मधुरा : सखी, सिद्धार्थ कपिलवस्तु में न लौटकर परिव्राजक होकर चले गए। छंद के संदेश के बाद शोकाकुल हुए शुद्धोधन महाराज ने प्रधानजी को भार्गव आश्रम में सिद्धार्थ को बुलाने भेजा था, पर वे विफल होकर लौट आए। अब सारी आशाएँ लुप्त हो गई हैं।

यशोधरा : (रोते हुए) मधुरा, सारी आशाएँ लुप्त हो गईं। अपने यौवन के अंक का प्रारंभ उस स्वयंवर में होकर उसका अंत ऐसे स्वयं त्याग में हुआ। मेरी प्राप्ति के लिए प्रेम के प्रथम जोश में सिद्धार्थ ने उस शस्त्र स्पर्धा में स्वयं का प्राण धोखे में डालकर मेरा वरण जितनी उत्कटता से किया उतनी ही उत्कटता से आज वह प्रेम अस्त होते ही उन्होंने मेरा त्याग करके मेरे प्राण धोखे में डाल दिए हैं। काममुग्ध युवतियो, जिसे तुम प्रेम-प्रेम कहती हो, वह ऐसा चंचल होता है। यह ध्यान में रखकर ही उसे अपनाओ तो फिर धोखा नहीं होगा। अच्छा चलो, लड़कियो, इस जीवन नाटक में यशोधरा का प्रवेश समाप्त हुआ। अब वह रंगमंच पर रानी के रूप में नहीं आएगी। इसलिए यह मेरे बीते प्रवेश के शय्या मंदिर का दृश्य, प्रकृति चित्र बदलो। उन तार वाद्यों को, सारंगियों को, जल तरंग को कहो कि यशोधरा के जीवन का प्रेम संगीत समाप्त हुआ। उसका सुर मौन हो गया। गीतों के राग भी कुपित होकर वैरागी हो गए।

मधुरा : सखी, इतनी हताश क्यों हो? सिद्धार्थ की तरह पहले भी बड़े-बड़े राजा विरक्त होकर वन में चले गए थे, उन्होंने साधना समाप्त होते ही फिर लौटकर अपनी प्रिया के साथ सुखी गृहस्थी बसाई। सिद्धार्थ भी वैसे ही लौट नहीं आएँगे, यह कैसे मानें?

यशोधरा : मधुरा, तुमने सिद्धार्थ का स्वभाव अभी पहचाना नहीं और इस यशोधरा का भी नहीं। नाटक में जैसे एक प्रवेश फिर से नहीं होता, भंग हुई वीणा जैसे फिर से बजती नहीं, वैसे ही हताशा में रति मंदिर से बाहर जानेवाली यशोधरा फिर से उसमें प्रवेश नहीं करेगी। वह अब व्रतस्थ होकर राजभवन के देव मंदिर में प्रवेश करेगी और सिद्धार्थ लौट आएँ तो भी उनसे उसी देव मंदिर में मिलेगी। उनके द्वारा तिरस्कृत इस रति मंदिर में नहीं। इसलिए कहती हूँ-सखी, उठाओ उन तकियों को, वह रति शय्या समेटो, उस पलंग को खड़ा करो। मेरे पहने हुए श्वेत परिधान के सिवाय अब मुझे दूसरे किसी भी वस्त्र की आवश्यकता नहीं है। इसलिए उन मूल्यवान साड़ियों आदि को तुम ले जाओ। जिनके प्रियकर उनसे ऊबकर अभी दूर नहीं गए हैं, उन्हें दे देना और यशोधरा का संदेश भी कहना कि तुम्हारे प्रियकर का स्नेहालिंगन जब तक प्रेममुग्ध है तब तक मन की मौज कर लो, क्योंकि सखियो, प्रेम से बाँधे पुरुषों के हाथ दु:खने लगकर कब वह तुमसे ऊब जाएगा, इसका कोई नियम नहीं है। ऐसा यशोधरा का अनुभव है।

सभी : देवी, स्वामिनी, सखी, यह विलास भवन?

यशोधरा : नहीं-नहीं, इस विलास भवन की सारी व्यवस्था चलाती रहो। यह मेरा अकेले का शय्या मंदिर ही बंद करो, पर यहाँ मेरे अकेले की गृहस्थी नहीं थी। वृक्ष, लता, फूल, पंछी, मदन और रति का यहाँ राज्य था। मुझ अकेली के रस का विरस हो गया, इसलिए उनका विरस न होने देना। विश्व की मनोरमता में मेरे जैसा एक दुःखी प्राणी यदि इतनी उजाड़ अव्यवस्था फैला देता है तो अनेक के संसार उच्छिन्न होने पर सिद्धार्थ जैसे कहते हैं वैसे यह जग वास्तव में केवल दुःखमय हो जाएगा। इसलिए सखियो, बहुत जतन करो, वृक्षों को पानी दो, वे मोर इस संगम स्वर चबूतरे पर पंख फैलाए जब विश्राम करते हैं या जब अपनी प्रिया के सामने पंख फैलाकर नाचने लगते हैं तब उनको विरस न होने देना, नहीं तो वे विरक्त हो जाएँगे। मैना, बुलबुल, हंस को अनारदाना समय पर खिलाया करना। मेरे भूखे मन के सामने से जैसे सुख की थाली खींच ली गई वैसे उनके सामने से नहीं खींचना। अच्छा, अब मुझे विदा करो। जिस रति मंदिर का राजा चला गया उसकी रानी भी जानी ही चाहिए। उठाओ वह सामान, गिराओ रानी यशोधरा के रति मंदिर पर अंतिम परदा, गिराओ।

दूसरा अंक

: पहला दृश्य :

चित्रगुप्त : हे स्वामिन, यमराजजी!

यमराज : चित्रगुप्त, ऐसा कौन सा महत्त्वपूर्ण समाचार लाए हो कि इतनी आतुरता और वेग से यहाँ दौड़े आए?

चित्रगुप्त : गयाश्रम में बोधि वृक्ष के नीचे राजपुत्र सिद्धार्थ गौतम अपनी चरम साधना के लिये बैठे हैं। उस साधना का परिपाक उस समाधि में होनेवाला है जिसमें प्रकट होनेवाले महान् धर्मसत्य का प्रभाव पूरी मनुष्य जाति पर स्थापित होने की संभावना प्रबल है। मनुष्य जाति का कल्याण साधनेवाले इस महान् क्षण का परिणाम युगों-युगों की कायापलट करनेवाला है। इसीलिए अध:पतन की सारी शक्तियों का स्वामी देवरिपु 'मार' वासना, तृष्णा, मोह, मत्सर आदि अपने सारे साथियों सहित उस महान् क्षण में विघ्न उत्पन्न करने के लिए सिद्धार्थ पर हमला करने जा रहा है। पहले साम-दाम-दंड-भेद में सिद्धार्थ न अटका तो अंत में दंडशक्ति की सहायता से वह देवरिपु 'मार' सिद्धार्थ का नाश करना चाहता है। आप धर्मराज हैं। इस धर्मशत्रु, कलिपुरुष 'मार' के इस पापी प्रयास को आप विफल करें।

यमराज : समय पर सूचित किया। जब तक वह देवरिपु मार केवल साम-दाम-दंड-भेद के लालच से सिद्धार्थ को भटकाना चाहता है तब तक मैं बीच में नहीं बोलूँगा, क्योंकि उससे राजपुत्र सिद्धार्थ के दृढ़ व्रत की परीक्षा ही होगी, पर यदि यह पापाचारी 'मार' सिद्धार्थ की चरम समाधि बल से भंग करना चाहेगा या उसका नाश करने का प्रयास करेगा तो मैं स्वयं उसे दंडित कर सिद्धार्थ का संरक्षण करूँगा।

: दूसरा दृश्य :

[बोधि वृक्ष के नीचे एक उच्च शिला पर सिद्धार्थ ध्यानस्थ बैठे हैं,उनके चारों ओर झीना श्वेत एवं दिव्य परदा लटक रहा है। देवरिपु मार और उसकी सहयोगिनी वासना उस पटल को दूर करके उस परदे के अंदर जाने का प्रयास कर रहे हैं।]

मार : क्या आश्चर्य है! राजपुत्र सिद्धार्थ के आगे जो उनकी पवित्रता का श्वेत परदा है उसे दूर कर मैं अंदर जा नहीं पा रहा हूँ। किसी भी तरह उसे एक ओर करके मैं सीमा का उल्लंघन नहीं कर पा रहा हूँ। इस मर्यादा के निकट जाना संभव नहीं। यहीं से उसे कुछ सुनाया जा सके तो सुनाना चाहिए। (जोर से चिल्लाकर) राजपुत्र सिद्धार्थ, राजकुलोत्पन्न क्षत्रिय हो। मैं विनाशक शक्तियों का स्वामी हूँ। मुझसे देव भी हार चुके हैं। तेरी तपस्या से मैं प्रसन्न हो गया हूँ। मैं तेरी सहायता करता हूँ। चलो, उठो। किसी भी चक्रवर्ती ने जो आज तक किया नहीं, ऐसी दिग्विजय करो। वह सागर और सागर के पार स्थित वे पुरातन द्वीप मनुष्यों को अभी अज्ञात हैं। ऐसे नूतन द्वीपांतर खंड विश्व इन सबके सम्राट् पद का राजमुकुट मैं तुम्हें प्रदान कर देता हूँ। चलो, ऐसा केवल बैठे रहकर तू बहुत हुआ तो एक वैरागी हो पाएगा, पर केवल उतने के लिए तुमने जन्म नहीं लिया है। तुम्हारे जन्मते ही राज ज्योतिषी ने भविष्य कथन किया था कि तुम चक्रवर्ती राजा होगे। लो, फिर अशेष द्वीपों के राजमुकुटों को ढालकर निर्मित यह महान् चक्रवर्तित्व का राजमुकुट मैं तुम्हें दे रहा हूँ। लो, सिद्धार्थ¨¨

सिद्धार्थ : (ध्यानावस्था में आँखें कुछ मिचमिचा कर) मेरी समाधि को कौन भंग करने की चेष्टा कर रहा है। मैं तुझे पहचानता हूँ मार! तेरे उस राजमुकुट का हर माणिक, हीरा, रत्न तृष्णा की असह्य, अशमनीय अग्नि से भरा हुआ है। जीवित अवस्था में यह ऐसी सुलगती चिता सिर पर लेकर तुम ही घूमा करो। आकाश में नया आनंददायी चंद्र उग आने पर जैसे सारा तप्त त्रिभुवन उस सुधाकर की कौमुदी में नहाकर शीतल हो जाता है। वैसे ही मेरे चिद् आकाश में इस प्रसादमय विवेक का उदय होते ही मेरी अंतरात्मा संतृप्त, शीतल एवं शांत हो गई है। एक जीव को भी मैं दुःख से, अशेष दुःख से मुक्त कर ऐसा परमानंद दे सका तो मैं अपने इस जन्म का और इस साधना का जितना सार्थक हुआ मानूँगा उतना लाखों लोगों को पीड़ा देकर प्राप्त किए हुए इस पूरे पृथ्वी के चक्रवर्तित्व की प्राप्ति से भी नहीं मानूँगा। मार, तू दूर जा, चला जा।

[तभी मार धक्का लगने जैसा होकर लड़खड़ाता पीछे आता है। वासना उसको सँभालती है और स्वयं आगे जाकर श्वेत परदे से लगकर सिद्धार्थ को कहती है।]

वासना : राजपुत्र, आपने 'मार' को जो मार दिया वह यथार्थ ही था। भीति संकुल और प्रपीड़क राज्य तृष्णा में सुख कैसे संभव है, परंतु नयनानंददायी चंद्र उदय होते ही उसकी कौमुदी में नहाते हुए जो सुख होता है ऐसा जो आपने अभी कहा, वह सुख भी उतना आह्लादकारी नहीं है। उस कौमुदी में नहाते हुए एकांत में, कमल कोमल कामिनी के कामलोलुप आलिंगन में जो सुख होता है वही सारे सुखों में सबसे आह्लादकारी होता है। आओ सिद्धार्थ, मेरे आलिंगन में वह सुख भोग लो, आओ! मैं त्रैलोक्य सुंदरी हूँ, तुम त्रैलोक्य वीर हो। मैं तुम्हारा वरण करना चाहती हूँ, मेरे आलिंगन में वह आह्लादकारी सुख चिरंतन तुम भोगो। आओ!

सिद्धार्थ : चिरंतन? आज तुम यौवन से भरी हो, पर तेरी यह लावण्यमयी काया जब बुढ़ापे से कुबड़ी, अंधी, घिनौनी, घृणास्पद¨¨!

वासना : उस डर की चिंता न करो। मेरा यौवन चिरंतन रहेगा, ऐसा मुझे वरदान प्राप्त है।

सिद्धार्थ : फिर भी क्या? तुम्हें वैसा वरदान मिला है तो भी तुम मेरा वरण करना चाहती हो, जिसको ऐसा वरदान मिला हुआ नहीं है। मैं कभी तो बूढ़ा होऊँगा ही, रोगी होऊँगा ही, मेरे सारे अंग, उपांग जीर्ण-शीर्ण, शिथिल होंगे ही। तब मेरी कामेच्छा बुझी हुई अग्नि जैसी राख की तरह हो जाएगी। तू मेरे लिए निर्माल्यवत् हो जाएगी।

वासना : परंतु¨¨

सिद्धार्थ : चुप, एक अक्षर भी अधिक मत बोलो। जिसे स्वयं के शरीर से घृणा हो जाती है, ऐसे दो घृणास्पद देह के घिनौने आलिंगन का लालच मुझे दिखानेवाली यह दूसरी-तीसरी और कोई न होकर, हाँ, पहचाना मैंने उसे, यह वासना ही होगी। वासना, तुम चली जाओ।

[वैसे ही धक्का लगकर वासना थरथर काँपती लुढ़कती मार से जाकर सट जाती है।]

वासना : हाय, हाय! पहचान लिया इसने। मार, मेरी रक्षा करो। यह मुझे जलाकर नष्ट कर देगा।

मार : कौन किसको भस्म करता है, वह अभी दिख जाता है। कांचन, कामिनी-मेरे इन दो अमोघ शस्त्रों की धार अवश्य इसके सामने भोथरी हो गई। साम-दाम से यह वश में नहीं आ रहा। फिर भी क्या है? उठो, विश्व की विनाशक शक्तियो, उठो। बादलो, आँधियो, फुफकारते, आग उगलते उठो। बिजली के चाबुक से प्रकृति की पीठ छीलते हुए उठो। यदि इसकी साधना आज भंग न हुई तो इसे मेरे नाश का उपाय मिल जाएगा और ये मुझे भस्म कर देगा। उसके पहले ही प्रलय में जलाकर भस्म कर दिया जाए इस भंगड़ को। फू-फू! फू-फू!!

[वैसे ही अकस्मात् दृश्यांतर होकर बादल,बिजली,गड़गड़ाहट का शोर मच जाता है। वन में आग लग जाती है और कड़कड़ाहट के साथ पेड़ गिरने लगते हैं। उस समय यमराज प्रकट होकर अपने दूतों से'मार'और'वासना'को धकेलते-धकेलते पीछे ले जाते हैं।]

सिद्धार्थ : गर्जन, भर्जन, देवरिपु मार चिल्लाकर मेरी साधना के इस दृढ़ासन को हिलाना चाहता है, पर प्रलय हो या प्रभव हो, यह आसन अडिग ही रहेगा। जब तक मेरी साधना का यह आसन जगत् कल्याण के रहस्य का परम मंगल ज्ञानपीठ नहीं हो जाता, अपनी साधना सफल होने तक मैं अटल रहूँगा।

इहासने शुष्यतु मे शरीरम्।

त्यगस्थिमांसं प्रलयं च यातु॥

अप्राप्य बोधिं बहुजन्मदुर्लभाम्।

नैहासनात् कायमितः चलिप्यति॥

ॐ शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः।

ॐ सर्वदिकं शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः॥

[सिद्धार्थ समाधिस्थ हो जाते हैं। आँधी शांत हो जाती है। ज्वाला पीछे हटकर सिद्धार्थ के चारों ओर इंद्रधनुष जैसी नम और शीतल प्रभा पकड़कर तैरने लगती है। सारा वन प्रफुल्ल एवं प्रसन्न दिखने लगा। किंचित् कालानंतर अंतरिक्ष से पुष्प वृष्टि होने लगी और मधुर गीत बजने लगा- 'सिद्धार्थ! तुम धन्य हो गए! तुम बुद्ध हो गए! ॐ नमो भगवते बुद्धाय। ॐ नमो भगवते शुद्धाय! ॐ नमो भगवते प्रबुद्धाय! नमो नमः।]

सिद्धार्थ : (किंचित् आँखें खोलकर, तर्जनी पर तर्जनी रखकर) मिल गया! सुख-दुःख के द्वंद्व से मुक्त होने का मार्ग मिला। छूटा, अनादि जन्म-मरण के भवचक्र से मैं छूट गया! वह समाप्त होते ही, वह स्नेहमय होते ही दीपक जैसे अपने में ही बुझ जाता है, वैसे ही वासना क्षय होते ही, क्लेश क्षय होते ही यह मेरा अहंकार मुझमें ही अपने आप बुझ गया। सविकल्प नहीं, निर्विकल्प नहीं, केवल निर्वाण! केवल शून्य!

गृहकारक दिट्ठोसि पुनर्गेहं न काहसि।

सर्वास्ते फासुका भन्ना गृहकूटं च नश्यति॥

[उस उच्च शिला के आसन से उठकर सिद्धार्थ नीचे उतरते हैं। प्रसन्न वदन से किंचित् काल इधर-उधर देखते हैं और विचार करते-करते बीच में ही खड़े रहते स्वगत बोलते हैं।]

नमक पानी में घुल जाता है, वैसे अब इस दिव्य, अमृतशील, आनंदमय समाधि में ही मुझे यह देह गल जाने तक पिघल जाने का मन होता है; परंतु जन्म, व्याधि, जरा, मृत्यु के महा दुःख से जकड़े इस जगत् को देखकर हृदय दया से द्रवित हो जाता है, करुणा से घबरा जाता है। इसलिए इस अशेष दुःख से इस प्राणिजगत् को मुक्त करने के लिए मैं अपने इस निरुपायाधिक कैवल्यानंद को भी लोक कल्याण की उपाधि यह देह है, तब तक रहने ही दूँगा। सुनो, सकल प्राणीजनो, इस अशेष दुःख से मुक्त होने का उपाय है। और वह भी स्वयं को स्वयं से ही मिल जाने जितना सुलभ! इस अशेष दुःख का मूल है-तृष्णा! उस मूल कारण का क्षय, वह तृष्णा क्षय, माने अशेष दु:खों का आत्यंतिक नाश, उसका उपाय है-त्याग!

न कर्मणा न प्रजया धनेन।

त्यागेनैकेन अमृतत्यमानशुः॥

त्याग, संन्यास, संसृति का संन्यास, स्वर्ग संन्यास, स्वत्व का भी संन्यास! अब ईश्वर की बाधा न हो, यज्ञ का बखेड़ा न हो, मानव का डर न हो, दानवों का भी डर न हो-बहुत क्या, ईश्वर का भी डर न हो। आज मनुष्य ईश्वर की दासता से भी मुक्त हो गया। यह अभयदान पूरी मानव जाति को देने के लिए और इन बुद्ध सिद्धांतों का प्रचार सारे जगत् में करने के लिए मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि-

चरिष्यामि चारिकं बहुजनहिताय

बहुजन सुखाय लोकानुग्रहाय च।

[सिद्धार्थ जाने लगते हैं। आकाश से फिर पुष्प वृष्टि होती है। अंतरिक्ष से मंजुल संगीत झरने लगता है। 'शुभास्ते पन्थान: सन्तु। सन्तु शिवाः ॐ नमो भगवते बुद्धाय, नमो भगवते शुद्धाय, नमो प्रबुद्धाय। नमो नमः॥']

[परदा गिरता है।]

तीसरा अंक

: पहला दृश्य :

[यशोधरा,मंजुला और मधुरा।]

यशोधरा : सखी मधुरा, लल्ला राहुल कहाँ खेल रहा है? उसे यहाँ बुलाओ।

मधुरा : यशोधरा, तुम्हें तो बहुत ही चिंता लग गई है अपने इस बच्चे की, राजकुमार राहुल की। अब वह आठ वर्ष का हो गया है। अब तो वह साथियों के साथ मस्त होकर ऐसे ही देर तक खेलेगा। इकलौते बच्चे को क्या माताएँ अपने पैरों से बाँधकर रखती हैं!

यशोधरा : मधुरा, दूसरी माताओं के जीवन साथी मुझ जैसी को छोड़कर गए नहीं होते। वे भाग्यवान महिलाएँ अपने पति से एकांत में निर्भयता से हँसने-बोलने के लिए अपने बच्चों को स्वयं दूर भेज देती हैं। जाओ 'साथियों के साथ थोड़ी देर तक' ऐसा कहकर, पर मधुरा, मेरा साथी, मेरा सिद्धार्थ¨¨न करूँ मैं वह स्मृति, न करूँ मैं आशा।

मधुरा : नहीं रानीजी, अब उन्हें केवल सिद्धार्थ के संबोधन से न पुकारें। अब लोग कहते हैं कि वे देवत्व पद को पाकर बुद्धत्व पा गए हैं। यज्ञ की अग्नि में भुनते पशुओं को झुलसता देखकर वे यज्ञ संस्था का निषेध कर रहे हैं, परंतु यशोधरा, जीव यज्ञ की अग्नि में ही केवल झुलसता है, ऐसा तो नहीं है। वियोग की अग्नि भी उसी तरह ही आदमी को जलाकर राख कर देती है। इसलिए वियोग की आग में धर्मपत्नी को, वृद्ध पिता को व नवजात पुत्र को और हम सब सगों को झुलसता छोड़कर उनकी यातना की सीढ़ी पर ही जो बुद्धत्व संपादन किया जा सकता है वह भी उतना ही निषेध योग्य क्यों है? मेरे हृदय में उस परमपूज्य पुरुष के लिए बहुत आदर है, पर असह्य दु:ख के कारण ऐसे क्रोध के विचार कभी-कभी चित्त में आए बिना नहीं रहते।

यशोधरा : मैं भी जब वियोग के दुःख में ऐसी ही व्याकुल हो जाती हूँ तब मन में यह कहती हूँ कि सिद्धार्थ पर तुम्हारा प्रेम है न! फिर सिद्धार्थ को, तेरे भगवान् के जी को जिस तरह से सुख हो, उसी में तू भी सुख मानती रह। लल्ला राहुल उसी की मूर्त स्मृति है। वह आया और उन्होंने संसार त्याग किया। सिद्धार्थ के वियोग के दिन गिनने की राहुल एक मणिमाला, रत्नमाला ही तो है। वह स्मरणी हाथ में लिये मैं उस देवता का जप करती रहती हूँ।

मंजुला : वियोग के दिन गिनने की जैसे वह स्मरणी है न, वैसे ही वियोग का दुःख भूलने की भी वह विस्मरणी है। मेरे इस लाड़ले भानजे के साथ हँसते-खेलते सारे दुःख क्षण में कैसे समाप्त हो जाते हैं। रोते-रोते हँसी आ जाती है। बुलाती हूँ उसे। राहुल! लल्ला राहुल!

(राहुल बगुले-बतख जैसी गरदन घुमाता आता है।)

मधुरा : यह क्या तरीका है? गरदन क्यों घुमाते आ रहे हो?

राहुल : हम सब उस सरोवर के किनारे हंस, बतख, बगुलों को दाना डाल रहे हैं। वहाँ उनके झुंड-के-झुंड ऐसी गरदनें घुमाते, ऐसे चक्कर लगाते दाना खा रहे हैं। वे जैसा करते हैं वैसा ही मैं कर रहा हूँ, सीख रहा हूँ। मौसी, मुझे किसलिए बुलाया है? यूँ ही। मैं जाता हूँ पंछियों से खेलने।

मंजुला : (हाथ पकड़कर) अरे वैसे ही तुम्हें नहीं बुलाया। जब तुम्हें खेलना होता है तब तुम नहीं बुलाते पंछियों को? वैसा ही हमें एक पंछी¨¨(उसकी ठोड़ी और हाथ पकड़ती है; वह अपने को खींचता है।)

यशोधरा : बड़ा चंचल हो गया है मेरा पुत्र। पिता के ठीक विपरीत। इसके पिता बचपन से ध्यान लगाकर बैठते थे और इसकी यह हमेशा दौड़-भाग और हुड़दंग।

राहुल : वे कौन थे, जिन्हें पिता कह रही हो, वे कैसे बैठते थे ध्यानस्थ होकर, दिखाओ मुझे। मैं भी वैसे ही बैठूँगा। कभी सिखाया मुझे वह? आप चूक करती हैं। दूसरे को दोष देती हैं।

मंजुला : अच्छा देखो, अब (मंच पर आसन लगाकर बैठती है) सामने कोई नहीं होना चाहिए था उन्हें।

राहुल : अच्छा, मैं आपकी पीठ से लगकर खड़ा होता हूँ। मैं आपके कंधे से देखता हूँ कैसे आँखें बंद करती हैं, ध्यान करती हैं। (पीठ की ओर से देखते हुए कुछ पंख उसके केश में खोंस देता है। यशोधरा को चुप रहने का संकेत करता है। सब मुसकराते हैं।) अरे, आँखें खोल लीं आपने। क्या यही है, यही है आपकी शांति।

मंजुला : फिर आप सब हँसते क्यों हैं?

राहुल : हम लाख हँसते हैं। पिताजी को ज्ञात होता था क्या यह? वाह! मौसी क्या सुंदर दिख रही हो। यवं-यवं।

मंजुला : अरे नटखट, ठिठोली करता है। क्यों यशोधरा, क्या इसने मेरी कुछ ठिठोली की? तू क्यों हँस रही है, कहो न, कहो जी।

राहुल : मत कहना, माँ।

मंजुला : यशोधरा, कहो न! तुम्हें बहन से बेटा अधिक प्यारा हो गया न!

यशोधरा : अरे, ऐसा कुछ नहीं है। उसने पीछे से तुम्हारे केश में पंछियों के पर खोंसे हैं।

राहुल : (मंजुला पकड़ना चाहती है, उससे छूटकर) माँ, तुझे बेटे से बहन का अधिक प्यारी हो गई न? ( भाग जाता है।)

दासी : रानीजी, देवियो, सुनो, सुनो! असंभव आनंद की बात सुनो। सिद्धार्थ इस कपिलवस्तु में लौट आनेवाले हैं।

मधुरा : क्या कह रही हो? अरी, तुझे किसने कहा?

दासी : अपनी सौगंध, वे लौट आनेवाले हैं। उधर अपना परम ध्येय प्राप्त कर वे बुद्ध हो गए। बड़े-बड़े राजा-महाराजा उनके शिष्य हो गए। न्यू विपुल और भल्लक, धनाढ्य व्यापारी भी। जो सुनता है वही आश्चर्य करता है। सारे लोग राजभवन में शुद्धोधन महाराज को कह रहे हैं और तुम्हें वही आश्चर्य सुनाने तत्काल उधर बुलवाया है। राजपुत्र सिद्धार्थ कृतार्थ होकर अपनी इस जन्मभूमि के लिए ग निकल पड़े हैं।

मंजुला : कितना महान् दिन है यह! अपना प्रियंकर सिद्धार्थ लौट आएगा।

यशोधरा : बालिके, भ्रम में हो। सिद्धार्थ नहीं, बुद्ध। गए थे वे प्रियंकर सिद्धार्थ। लौट रहे हैं वे संन्यासी बुद्ध।

मधुरा : कुछ भी हो, भेंट तो होगी ही।

यशोधरा : फिर भ्रम। भेंट नहीं, दर्शन। आदमी-आदमी को भेंट देता है, पर देव का होता है दूर से दर्शन! मनुष्य से वे अब देव बन गए हैं।

मंजुला : सुनें तो सही, क्या आश्चर्य है!

: दूसरा दृश्य :

[यशोधरा का अंतःपुर।]

मधुरा : यह क्या, यशोधरा? राजपुत्र सिद्धार्थ राजभवन में आकर खड़े हैं और तुम ऐसे यहीं क्यों खड़ी हो? वास्तविकता को देखने सबसे पहले तुम्हें राजमहल के महाद्वार पर जाकर स्वागत करना चाहिए था। पूरा नगर इस महान् पर्व के समय, जो बड़ी मन्नतों के बाद आया है, दर्शन करने भीड़ किए है। तब देवी, तुम्हें कौन सा ऐसा विलक्षण संकोच है जो यहीं अंतपुर में अपने को बाँधे रखे हुए हो। पगली, जिनके प्रेम में आज आठ वर्ष से तू छटपटाती रही है वे राजकुमार सिद्धार्थ स्वयं लौटकर राजभवन में खड़े हैं। तब तो उनके प्रेम की और कैसी परीक्षा लेनी शेष रह गई है?

यशोधरा : मधुरा, क्या मैं उनके प्रेम की परीक्षा ले रही हूँ? नहीं, उनके प्रेम की नहीं। मैं परख रही हूँ कि मैं उनसे वास्तविक रूप में प्रेम करती हूँ या नहीं। अरी, उनके निर्वाण सुख में मैं बाधा बनी हुई थी। इसलिए वे मुझे छोड़कर गए थे न! वे विश्व के दु:ख को दूर करने संन्यास लेकर आए हैं। जैसे उनके त्याग के मार्ग में मैं पहले एक बाधा बनी हुई थी, वैसे ही उनके इस संन्यास मार्ग में मैं बाधा बन सकती हूँ। समय आए तो स्वयं दुःख के गड्ढे में गिरकर भी प्रिय के सुख का मार्ग बाधा रहित करूँ, यही प्रेम की खरी कसौटी है। मैं यह देखना चाहती हूँ कि मेरा प्रेम उस कसौटी पर खरा उतरता है या नहीं। मैं उनके प्रेम की परीक्षा नहीं ले रही। मैं अपने प्रेम की परीक्षा करना चाहती हूँ। प्रिय के इष्ट को मेरे प्रेम की नजर न लगे। इसलिए उनका दर्शन टालने में मेरा प्रेम संयत है या नहीं, यह मैं देख रही हूँ।

मंजुला : (जल्दी-जल्दी प्रवेश कर) यशोधरा, मधुरा, यह क्या है? सिद्धार्थ का सम्मान समारोह समाप्त होने को आ गया। तब भी तुम वहाँ क्यों नहीं दिख रहीं, इसका सब लोग आश्चर्य कर रहे हैं। शुद्धोधन महाराज ने कितने संदेश भेजे। हे मानिनी, अब यह रुसवाई छोड़ दो। राजपुत्र के दर्शनों को चलो।

यशोधरा : कैसी रुसवाई? पगली, कहाँ वे राजपुत्र, मेरे वे देवता! मैं इन केशों को उनके सम्मान में बिछाते हुए उनको ले आती हूँ, चलो! मंजुला, ये जो आए हैं वे राजपुत्र नहीं, संन्यासी हैं। स्त्रियों के दर्शन भी वे नहीं करते। उसमें भी स्वस्त्री का दर्शन तो उनके ब्रह्मचर्य व्रत के लिए छूत जैसा है। तू कहती है, लोगों में आश्चर्य है मेरे न आने का, पर लोगों को क्या? मैं आई होती और संन्यासी बुद्ध ने आँखें बंद कर मुझे चले जाने का संकेत किया होता तो यही लोग कहते और कहेंगे कि यह पगलाई औरत यहाँ आई ही क्यों, इस भरी राजसभा में उस महान् संन्यासी के सामने? क्योंकि साधारण रीति यही है कि जो जितना अधिक स्त्रियों का तिरस्कार करेगा वह उतना ही अधिक महान् संन्यासी कहा जाएगा।

मंजुला : अरी जीजी, बुद्ध ने ही दो बार पूछा, यशोधरा कहाँ है?

यशोधरा : सच में पूछा उन्होंने? यूँ ही कुछ तो नहीं कह रही है। उन्हें बुद्ध बन जाने के बाद मुझे पूछना था तो सिद्धार्थ रहते मुझे क्यों छोड़ गए?

मंजुला : नहीं जी, सच में ही उन्होंने पूछा, सारा संकोच छोड़ दो (उनके साथ यशोधरा चलने लगती है।) मेरे सामने पूछा-'परंतु यशोधरा कहाँ है?'

यशोधरा : (तुरंत रुककर) सच में इतना ही पूछा न? तो फिर इसपर इतना ही सिद्ध होता है कि महा बुद्ध, संन्यासी ने जिसका नाम भी नहीं लेना चाहिए, यशोधरा कोई हतभागी, पतित नारी नहीं है, पर यशोधरा कहाँ है यह उन्होंने इसलिए भी पूछा होगा कि जिससे वह जहाँ हो वह स्थल टाला जा सके।

मंजुला : अरी, परंतु राजकुमार सिद्धार्थ का स्वभाव इस तरह शब्द-छल करनेवाला कहाँ है? यशोधरा, उनकी-तेरी क्या पहली ही भेंट है?

यशोधरा : (उच्छ्वास छोड़ते हुए) राजकुमार सिद्धार्थ की मेरी पहली पहचान मेरे जीवन नाटक के यौवन के पहले प्रवेश में ही हुई, पर सखी, बिना बुलाए आगे जाऊँ, इतनी मेरी पहचान संन्यासी बुद्ध के साथ नहीं हुई है, वह कुछ नहीं। देखो मंजुला, स्वयं होकर कोई मुझसे पूछेगा तो साफ कहना कि सिद्धार्थ की सिद्धि में उस हतभागी यशोधरा की भेंट से कुछ भी हानि पहुँचना संभव न हो तो और उसे मिलने की सिद्धार्थ की इच्छा हो तो सिद्धार्थ ही अंत:पुर के इस देव मंदिर में आएँ। यशोधरा का अंत:पुर का मार्ग यदि बुद्ध भूल गए हों तो वह राजघराने की कोई भी दासी उन्हें बता देगी। जाओ मंजुला, ठहरो-ठहरो! यशोधरा को ले आओ-ऐसा स्पष्ट कहें तभी यह कहना, अच्छा। अरी सुन तो ले पूरी तरह-यशोधरा कहाँ है? इतना ही पूछा हो तो यह भेंट-वेंट कुछ मत कहना, अच्छा। इस प्रश्न पर 'अंत:पुर' में इतना ही कहना। अरी, सिद्धार्थ, सिद्धार्थ ऐसा मत कहना, मेरी बात कहते, 'तथागत बुद्ध' यही नाम लेते चलना। जो है वह कहो, चापलूसी में दूसरा कुछ न जोड़ना।

: तीसरा दृश्य :

[बुद्ध और दो शिष्य।]

बुद्ध : शारिपुत्र मौदगलायन, हम अब देवी यशोधरा के अंत:पुर में जाकर उसकी एकांत भेंट लेंगे। उस समय मेरे अनेक शिष्यों में से केवल दो विश्वसनीय शिष्यों को मैं इसलिए साथ में ले रहा हूँ कि मैं यशोधरा की ऐसी भेंट क्यों ले रहा हूँ। इसका मर्म मैं तुम जैसे मेरे एकनिष्ठ सामान्य लोगों को ये मेरा आचरण कदाचित् अनुचित ही लगेगा।

शारिपुत्र : वैसा वह लगेगा ही महाराज कुछ लोगों को।आप यशोधरा के यहाँ अकेले जा रहे हैं, यह सुनते ही आपत्तिसूचक दृष्टिपात कर कुछ लोग उपहास करते मैंने अभी देखे हैं।

बुद्ध : और मैं यदि यशोधरा का मुखदर्शन भी न करते हुए वैसे ही निकल जाता तो यही या अन्य लोग मुझे क्रूर, कठोर, निर्दय कहकर वैसे भी दोष देते जैसे मैंने जब यशोधरा का त्याग किया और तब उन्होंने दिए थे। यशोधरा के पिता ने, मैं संन्यासी हो गया इसलिए, भरी सभा में अत्यंत अश्लील वाक्य कल ही कहे थे।

मौदगलायन : तथागत बुद्ध ने वह सारी अभद्र निंदा कितनी शांति से सुन ली। तुल्पनिंदास्तुतिर्मौनी ऐसे योगारूढ़ावस्था का जैसे कोई निश्चल सुवर्ण मूर्ति ही हो, ऐसी तथागत बुद्ध की वह शांत मूर्ति कितनी शोभा दे रही थी!

बुद्ध : यह देखो, आठ वर्षों से आज तक अपने हृदय में दबाकर रखा उसके प्रेम का ज्वार मुझे देखते ही असंयत होगा और वह भावना के आवेग में मुझसे लिपट जाएगी। ऐसा हुआ तो तुम उसे हटाना नहीं, प्रियतमा के व्यक्तिगत प्रीति के इस आलिंगन से ही संसार के श्रेयरस की कटुतम ओषधि मुझे उसे पिलानी है।

शारिपुत्र : जैसा तथागत का आदेश। यही है वह देवी यशोधरा का अंत:पुर। [परदा गिरता है। यशोधरा बुद्ध को देखते ही अश्रुविह्वल होकर पीठ फेर लेती है। मंजुला,मधुरा उसे- अरे चलो,नमस्कार करो, ऐसा मंद स्वर में कहती है।]

सिद्धार्थ : देवी यशोधरा!

यशोधरा : (सिसकते हुए एकाएक देखकर) कौन, मेरे सिद्धार्थ, मेरे प्राणपति, मेरे प्राणप्रिय! (दौड़कर गले लगते हुए) जीवन के ये सात-आठ वर्ष मैंने कैसे बिताए, इसकी तुम्हें कुछ कल्पना भी है? सिद्धार्थ काल में मुझपर जो प्रेम था वह बुद्ध काल में परिक्षीण हुआ ही होगा, फिर भी¨¨

बुद्ध : परिक्षीण नहीं, परिपूर्ण, यशोधरा। पीछे जो हमारा एक-दूसरे पर प्रेम था वह देहाधिष्ठित तृष्णा के ज्वार का प्रतिबिंब था। इसलिए तुम्हारी-मेरी देह के अनिवार्य परिवर्तन के साथ ही वह प्रेम भी ढलनेवाला था। देह से, व्याधि से, न्यूनांगता से, जरा से वह प्रेम भी न्यून और जर्जर होनेवाला था, अत: वह प्रेम घृणास्पद होनेवाला था। इसलिए मैंने अपार, अनंत और अमर ऐसे किसी प्रेम की न सूखनेवाली नई वरमाला तुम्हें अर्पण करने हेतु क्षणिक वियोग के व्रत को अपनाया। यशोधरा, तुम उस क्षणिक वियोग का दुःख अब इस चिरंतन संगम के सुख में भूल जाओ। पहले के उस दैहिक स्वयंवर में मैंने तुम्हें और तुमने मुझे जो वरमाला पहनाई-वे मालाएँ अपने स्वयंवर के अपने सूखनेवाले प्रेम की तरह सूख जानेवाले फूलों से गूँथी हुई थीं। अब इस आत्मिक स्वयंवर में यह कभी भी न सूखनेवाले निर्वाण सुख के हरसिंगार (पारिजातक) के फूलों की माला मैं तुम्हें अर्पण कर रहा हूँ। पूर्व की प्रीति केवल तृष्णा थी। अब की प्रीति तो प्रत्यक्ष तृप्ति है। प्राणिजगत् के अशेष दुःख का मूल तृष्णा का समूल क्षय ही निर्वाण है। दुःख का अंतिम जो सार है वह चरम शांति का परम मंगलास्पद मार्ग मैंने सकल प्राणियों के लिए उपलब्ध और अनावृत कर दिया है। यशोधरा, तुम तो मेरी सहधर्मचारिणी हो। तुम्हें उस निर्वाण शांति के मंगलमय मार्ग पर तथागत बुद्ध स्वयं हाथ पकड़कर सँभालकर ले जाएँगे।

यशोधरा : महाराज, ऐसी देववाणी का अर्थ मेरी मानवता की भावना से व्याकुल हुए मन के आकाश में बिजली जैसा कौंधता हुआ चमकता है, कुछ छिपता है। अतः देव! हम मानवों की अल्हड़ भाषा में मुझे एक बार स्पष्ट कहें कि सिद्धार्थ के चरणों का जैसा वियोग मुझे बीच में ही हुआ, वैसा अब कभी नहीं होगा। इतना दान तो आप मुझे दे ही दें। वही मेरी साधना है। उस साधना से ही मुझे निर्वाण की परम शांति प्राप्त हो।

सिद्धार्थ : तथास्तु! तथास्तु! तथास्तु! (चल देते हैं।)

यशोधरा : माने? मधुरा, मंजुला, अरी, ये गए भी। किसी युग जैसे सुदीर्घ अवधि के बाद मिलकर प्रस्तावना के दो शब्द समाप्त होते ही वे चले भी गए।

मंजुला : अरी, गए माने अंत:पुर से गए, इतना ही। उसके पहले हमें उनकी भेंटने की अनुज्ञा देकर गए हैं न मधुरा! (इतने में राहुल आता है।)

राहुल : माँ, माँ, वे साधुजी इधर तुम्हारी ओर आकर गए न! सच बता। मुझे क्यों नहीं बुलाया? मुझे इसलिए दूसरी ओर भेज दिया था क्योंकि तुम उनसे अकेले में मिलना चाहती थीं। क्यों? लबार कहीं की! वे कौन हैं तेरे? मेरे कौन हैं? उन संन्यासियों में से कौन से, अम्मा?

यशोधरा : लल्ला, वह देख, उन सबके आगे देवों जैसे तेजोवलय से जो मंडित हैं। पुत्र, वही पुरुषसिंह तेरे पिता हैं। अच्छा, चल उनसे मिलने। तेरा औरस अधिकार है, चल। उस अधिकार को प्राप्त कर।

संगीत संन्यस्त खड्ग

पात्र परिचय

सिद्धार्थ

कौंडिन्य

शाकंभट

क्षारा

शुद्धोदन

विक्रम सिंह

सुनास सेठ

वल्लभ

पहला अंक

: पहला दृश्य :

[तपोवन में देवी माँ का मंदिर। नाचनेवाली लड़कियाँ गाते हुए

नाच रही हैं।]

राग-यमन,ताल-एकताल,धुन-मधुमद विलसित

बनी रहे सुललित सहज-गीति

तार न खींच अति।

खींचत टूटें तनु-बीन तार

शिथिल रूठे गीति-स्वर

अतिते बिगड़े काज हर॥

[लड़कियाँ गाती जा रही हैं। गौतम और कौंडिन्य वहाँ आते हैं।]

सिद्धार्थ : कौंडिन्य, यही है वह गाना। सुना तुमने? यही गाना मैंने पहले भी सुना था। तुम्हें आश्चर्य होगा, पर नृत्यांगनाओं के इसी गीत ने गूढ़ मंत्र की तरह मेरे हृदय में दिव्य ज्योति जगाई थी। उसी जगमग ज्योति के प्रकाश के सहारे तपोवन के गहन अँधेरे से निकल, मैं निर्वाण के मार्ग पर चलते हुए, बोधि वृक्ष के तले आ बैठा। कहते हैं कि देह और इंद्रियों को पीड़ा देकर, उन्हें दंड देकर, उनकी सत्ता नष्ट कर तथा उनका बलिदान देकर ही मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। मैं चाहता था कि स्वयं अनुभव लेकर इस तपमार्ग का तथ्य जान लूँ। इसीलिए मैं निरंजना नदी के किनारे घोर देह-दंडन कर रहा था। यह तो सभी जानते हैं। कौंडिन्य, समस्त जगत् को जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि इन चार महा दुःखों में पिसते देख मैं बहुत दुःखी हुआ था और तभी मेरे दुःखी मन ने उन्हें इन दुःखों से उबारने की प्रतिज्ञा की थी।

ताल-त्रिताल

करूँगा मुक्त, यह आर्त जगत्,

जन्म-मरण से,

साधन खोज में, जन शोक हरने

त्यजो राज स्वजन, प्राण भी।

इसी दृढ़ निश्चय से मैंने इस दुःखमय संसार को त्याग दिया। अपना शाक्य राज्य, युवा पत्नी यशोधरा, नवजात पुत्र राहुल, सभी कुछ छोड़कर मैं इस वन में रहने लगा। दिन में एकाध अन्न कण खाकर रहने जैसे अनेक व्रत किए मैंने। फिर भी मुझे ज्ञान न मिला। आखिर कई दिन मरणासन्न अवस्था में भी पड़ा रहा रात-दिन, पर उससे भी कुछ हाथ नहीं आया। इसके विपरीत जो भी कुछ सोचने की शक्ति थी, वह भी जाती रही। तभी एक दिन ये नाचनेवाली लड़कियाँ यहाँ से गुजरीं। उनके होंठों पर यही आज वाला गीत था। वे गाती जा रही थीं, 'वीणा की तार ढीली मत रखो क्योंकि तब उसपर कोई गीत नहीं बजेगा और उसे बहुत न कसो अन्यथा तार ही टूट जाएगा।' यही हाल तनु-वीणा का है, इससे लाड़-प्यार जताओगे तो शांति-संगीत दूर भागेगा। इसे बहुत कठोरता से रखोगे तो भी शांति-संगीत से दूर हो जाओगे। इंद्रिय रूपी घोड़ों की देखभाल तो अच्छी तरह से करें, पर उत्तम घुड़सवार की तरह उसकी लगाम कसकर पकड़ें। ऐसा उचित उपयोग करने से सहजावस्था प्राप्त होगी। इससे न केवल ज्ञानमार्ग की यात्रा सुखकर होगी बल्कि अंत में निर्वाण की प्राप्ति भी होगी। यह विचार मुझे अँचा और मैंने शारीरिक यातना का मार्ग छोड़ दिया। मिताहार लेते हुए मैंने इस बोधिवृक्ष की छाया में समाधि लगा ली और ज्ञानमार्ग के द्वारा मैंने निर्वाण का परम सुख पा लिया। कौंडिन्य, क्या हिंसामय यज्ञमार्ग के बारे में बताया गया सिद्धांत इस देहदंडनात्मक तपोमार्ग पर भी लागू होता है? हिंसामय यज्ञमार्ग के बारे में तथागत बुद्ध का क्या सिद्धांत था? जरा, कहो तो!

कौंडिन्य : भगवान् बुद्धदेव, आपका हिंसामय यज्ञ के बारे में जो सिद्धांत है, उसे मैंने आत्मसात् कर लिया है। 'प्लवा ह्येते अदृढाः।' ढेर सारी लकड़ी इकट्ठा करो, उसकी होली जलाओ और खुशी से इठलाते मेमने या बछड़े के चारों पैर बाँधकर, मंत्रोच्चार के साथ शाक-सब्जी की तरह उसका हृदय, पैर, पूँछ काटते जाओ और इंद्र, मरुत, वरुण के नाम के साथ उन रक्त से भरे मांस के टुकड़ों को यज्ञ की अग्नि में जलाते जाओ। अगर इन लहूलुहान मांस खंडों से ही देवी-देवता प्रसन्न होते तो वे कसाईखाने से ही क्यों न प्रसन्न हों? यह कर्मकांड नहीं, हत्याकांड है और अगर इससे देवता प्रसन्न होते हों तो वे देवता नहीं, राक्षस हैं। मासूम मेमनों और बछड़ों को मारने से मोक्ष मिलता है। कितनी गलत धारणा है! और फिर यज्ञ के कारण स्वर्ग नसीब होता है तो भी ऐसा क्या है उस स्वर्ग में? देवी-देवताओं की कथाओं से यह स्पष्टतः विदित होता है कि वे मत्सर, क्रोध, भय, दुःख, असंतोष जैसी हीन भावनाओं से मुक्त नहीं हैं। फिर भगवान्! जिन्होंने भी देवताओं और पितरों की संतुष्टि एवं मोक्ष के लिए पशुबलि देने का नियम बनाया, उन्होंने यह नियम क्या दुनिया को धोखा देने के लिए ही बनाया है?

सिद्धार्थ : नहीं, मुझे नहीं लगता कि उन्होंने जान-बूझकर जगत् को धोखा दिया है। यह उनका प्रमाद था, पर वह उनसे अनजाने में हुआ होगा। मनुष्य जाति की चिरंतन और अमर सत्य की खोज तथा दुःख से पूरी तरह मुक्त होने का साधन ढूँढ़ने के प्रशंसनीय प्रयास की वह सीढ़ी थी! पर वह एक तरह का बुद्धिभ्रम था। अब जबकि अनुभव और तर्क की कसौटी पर यह विचार अनुपयोगी सिद्ध हुआ है तब कौन चिपके रहना चाहेगा उससे? देहदंड के तप से अधिक-से-अधिक यही जान सकते हैं कि आदमी के शरीर के अवयवों एवं उसकी शक्ति पर तरह-तरह के प्रयोग करने से उनका कोई उपयोग नहीं। हिंसात्मक यज्ञ अथवा देहदंड पर आधारित तप निर्वाण की तरफ नहीं ले जाते। तृष्णानाश ही निर्वाणसिद्धि का साधन है और साधना बस यही हो सकती है कि-

अकुशलस्याकरणं कुशलस्योपसंपदा।

सचित्तपरियादपनं एतद् बुद्धानुशासनम्॥

कौंडिन्य : आप मुझे इस तपोवन में देहदंड के अद्भुत प्रकार दिखानेवाले थे।

सिद्धार्थ : आओ, इस तरफ आओ। (परदा उठाता है।) यह देखो, सिर के बालों से लेकर पाँव के नाखूनों तक के देहदंड के अलग-अलग प्रकार। ये हैं केशी! एकाध केश को उखाड़ना भी ये पाप समझते हैं। सिर के बाल फैले हैं पीठ और चेहरे पर, नाक की मूँछों पर और मूँछों की दाढ़ी तक! दाढ़ी के बाल पहुँचे हैं पेट तक और काँख के पीठ की पसलियों पर! इनका शरीर क्या है, बालों की कमली है।

कौंडिन्य : पर यह कौन है? यह तो मारे गुस्से के अपने ही बाल नोच रहा है। क्या इसे कोई बुरा समाचार मिला है?

सिद्धार्थ : अरे नहीं! यह केशरक्षक के विपरीत केशलुंचक संप्रदाय का योगी है! यह शरीर पर बाल रखना पाप समझते हैं। और उस्तरे से काटने से ठीक से देहदंड नहीं मिलता यह सोच ये लोग पहले बालों को बढ़ाते हैं और फिर मुट्ठियों में भर-भरकर उन्हें नोचते हैं। चुन चुनकर एक-एक बाल को उखाड़ देते हैं।

कौंडिन्य : और ये हाथ के इशारे से किसे बुला रहे हैं? कौन हैं ये लोग?

सिद्धार्थ : उन्हें बाद में देखेंगे। पहले इन्हें देखो। ये सोचते हैं कि हाथों को उसी तरह लटकते देना चाहिए जैसे वे जन्म के समय थे। ये हाथ को ऊपर उठाते ही नहीं कभी। इससे इनकी हड्डियाँ कमजोर पड़ जाती हैं और फिर इनके हाथ आगे-पीछे, ऊपर होते ही नहीं। इसके बिलकुल उलटे ये लोग हैं। ये हाथों को हमेशा ऊपर ही उठाए रखते हैं। यही इनकी तपस्या है, पर इससे इनके दोनों हाथ ठूँठ से बन गए हैं। इन परस्पर विरुद्ध मार्गों से कौन सा पुण्यप्रद है, यह कैसे बताएँ?

कौंडिन्य : पर ये कौन हैं, जो जमीन को ही चाट रहे हैं?

सिद्धार्थ : ये मृगव्रत का अनुष्ठान कर रहे हैं। ये हमेशा चौपायों की तरह हाथ और पैर के बल चलते हैं। उन्हीं की तरह सोते हैं, बैठते हैं और जमीन पर उगनेवाली घास-पत्ती खाकर जीते हैं। और ये देखो, अगतिक जोगी। ये हमेशा एक ही जगह बैठे रहते हैं। जरा भी नहीं हिलते। बारिश में पानी के साथ बहती गीली मिट्टी इनके शरीर से चिपक जाती है। उस मिट्टी के ढेर को ही अपनी बाँबी समझ उसमें साँप रहने लगते हैं। कभी साँप उनसे प्यार करने लग जाते हैं तो कभी डँस लेते हैं। किसीको इनपर दया आई तो वह इनके मुँह में दो-चार कौर डाल देता है और ये उन्हें चबा लेते हैं। नहीं तो ऐसे ही बिना कुछ खाए-पिए ही बैठे रह जाते हैं। और ये हैं गतिक। इनकी आदतें अगतिक के ठीक विपरीत हैं। ये हमेशा चलते रहते हैं, रुकने का नाम नहीं लेते। कहीं रुक भी जाएँ तो वहीं अपने ही इर्दगिर्द चक्कर काटते रहते हैं। इस तरह हमेशा गतिशील रहते हैं। आखिर इन्हें चलते-चलते सोने की और सोते-सोते चलने की आदत पड़ जाती है। एक-दूसरे से विपरीत नियमों का पालन करनेवाले ये तपस्वी अपने-अपने नियमों को ही पुण्यकारक और मोक्षदायक समझते हैं। अब यदि गतिव्रत पुण्यकारक है तो अगतिव्रत पापदायक होना चाहिए और अगतिव्रत पुण्य है तो गतिशील रहना पाप। दोनों में से कोई एक तो गलत होगा ही या फिर दोनों ही गलत होंगे। हाँ, इन सबमें एक ही बात अच्छी है। वह यह कि परस्पर विरोधी नियमों का पालन निष्ठा से करनेवाले ये साधक एक-दूसरे से बिना लड़े, साथ-साथ बैठकर अपने इष्ट नियम का पालन करते हैं। कौंडिन्य, इतने अधिक व्रत हैं कि कहाँ तक गिनाऊँ। केवल खाने के ही पचास नियम हैं। कोई रसनैंद्रिय का निरादर करने के लिए खाने की हर चीज में कड़वा रस डाल देते हैं। कोई निरशन व्रत लेते हैं। ये कभी कुछ नहीं खाते। किसीकी सर्वाशन वृत्ति होती है। वे भूख लगते ही जो भी सामने दिखे उसे तुरंत खाना पुण्यकारक मानते हैं, चाहे मल-मूत्र ही क्यों न खाना पड़े। वे साम्य बुद्धि से खाते हैं। कोई हर क्षण पंचाग्नि तपता है तो कोई हमेशा ठंडे पानी मैं बैठा रहता है।

देखो, यह देहदंड तपस्वियों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। लकड़ी के खड़ाऊँ में जगह-जगह कील गाड़कर, उन्हीं पर पाँव रखते हुए इसने अपने पैर क्षत-विक्षत कर लिये हैं और यह उलटा लटककर मिर्चों के धुएँ से अपनी आँखों को सेंक लेता है। इसने तपते तवे पर अपना जननेंद्रिय जला डाला है। देहदंड का यह दुःख शायद कम है, इसलिए यह परम निग्रही तपस्वी काँटे खा रहा है और फिर यह कील गड़ी शय्या पर लेटनेवाला है।

कौंडिन्य : बस-बस, बहुत हो गया, बोधिसत्व सिद्धार्थ! इस अघोरी पंथ के बारे में मुझे और बातें नहीं जाननीं।

सिद्धार्थ : कहते हैं कि इस जगत् में पाप करने पर मानव को मृत्यु के बाद नरक में जाना पड़ता है और इस तरह की शारीरिक यंत्रणाएँ सहनी पड़ती हैं, पर पापों की इस नारकीय शिला को ही पुण्य समझ ये भोले-भाले लोग इसी जन्म में अपनी मृत्यु को सह रहे हैं और समझते हैं कि इन नारकीय यातनाओं को सह लेना ही स्वर्ग प्राप्ति का, मुक्ति अर्थात् मोक्ष का सबसे आसान उपाय है। कैसा बुद्धिभ्रम है यह! कौंडिन्य, क्या तुम्हारी माँ तुमसे प्यार करती थी? क्या वह ममतामूर्ति थी?

कौंडिन्य : मेरी माँ! महाराज, वह तो अत्यधिक ममतामयी थी। माँ ही थी वह। उसका प्रेम क्या बखानूँ?

सिद्धार्थ : तो फिर यह बताओ कि वह तुम्हारे भूखे पेट होने से, घास-फूस खा लेने से, चूल्हे में हाथ जला लेने से खुश होती या वह चाहती कि तुम भरपेट खाओ, हृष्ट-पुष्ट हो जाओ, सुखी-संतुष्ट रहो?

कौंडिन्य : वह तो यही चाहती थी कि मैं अच्छी तरह से खा-पीकर सुखी हो जाऊँ। खुश रहूँ। स्वस्थ रहूँ।

सिद्धार्थ : अच्छा कौंडिन्य, ये लोग भगवान् को दयालु, भक्तवत्सल, भक्तों के माता-पिता समझते हैं। है न। तो भला अपना भक्त उपवास करके कृश हो जाए, तपते तवे पर अपने आपको भून ले, यह किसी दयालु माता-पिता को अच्छा लगेगा? जो भगवान् भक्त को अधिक-से-अधिक यातनाएँ दे, वह भगवान् नहीं, राक्षस होगा। अद्भुत सिद्धियों की प्राप्ति के लिए और भी बहुत उपाय हैं, पर देहदंड या यज्ञहिंसा से दयालु भगवान् प्रसन्न हो जाएगा, फिर मुक्ति मिलेगी-इस विश्वास से ये भयानक व्रत कर लेना या उपवास से देह को दंड देना निरी मूर्खता है। मैं संसार का दुःख दूर करना चाहता हूँ। इसी से इन अघोर व्रतों की अग्नि में जन-जन को झुलसाना मुझे क्रूरता लगती है।

एक शिष्य : (प्रवेश कर) तथागत बुद्ध ने अपनी जन्मभूमि कपिलवस्तु जाने की आज्ञा दी थी। उनके अनुसार वहाँ जाने के लिए संघ सिद्ध है।

सिद्धार्थ : ठीक है। कौंडिन्य, चलो। मैं किसीको बिना बताए उस रात महल छोड़कर वन में चला गया। मेरे वृद्ध पिता महाराज शुद्धोदन तबसे इसी दुःख में तिल-तिल गलते अब जराजर्जर हो गए हैं। उनका संदेश था कि उनके आसन्नमरण होने से पहले मैं उनसे मिल लूँ। इसीलिए हमने शाक्य राष्ट्र की राजधानी अर्थात् अपनी जन्मभूमि जाने का निश्चय किया। इस व्यक्तिगत यात्रा में समूचे विश्व का कुछ काम बन जाए। हम अपने चार आर्य सत्यों का उपदेश शाक्य राष्ट्र में भी करेंगे। इसी तरह कोसल के महाराज और मगध के महाराज को भी तथागत बुद्ध के अनुयायी बनाकर हम हर संभव प्रयास करेंगे कि इस संसार से शस्त्रयुद्ध, हिंसा, आपसी कलह का नाम उठ जाए और सभी ओर शांति का धर्मराज्य स्थापित हो। हमारी इस तीव्र इच्छा को सुयश का मुकुट पहनाने हम बहुत प्रयास करेंगे। कौंडिन्य, अगर मनुष्य यह जान जाए कि इस संसार जैसा दुःख नहीं है तो फिर इस दुःखदायी संसार के दिदखावटी लाभ के लिए युद्ध और कलह होंगे ही नहीं! बुद्धिमान लोग जान-बूझकर विषैले साँप के आगे हाथ नहीं फैलाते, संसार की इस सर्व विनाशक होली में कूदने के लिए भी कोई प्राणी सहज ही तैयार नहीं होगा। कौंडिन्य, सचमुच संसार तृष्णा जैसा दुःख नहीं और वितृष्ण संन्यासी की तरह कोई सुख नहीं। देखो, उस दूर के पर्वत पर दावाग्नि कैसा जल रहा है!

गीत

देख दावाग्नि वह दूर

जीव-जंतु जल रहे भरपूर

दस दिशा ग्रस रही है आग

सुलगती पल-पल जैसे

तृषाग्नि में संसार जलता वैसे।

: दूसरा दृश्य :

[क्षारा बैठी हुई है। इतने में शाकंभट चिल्लाते हुए प्रवेश करता है।]

शाकंभट : क्षारा, क्या फिर से बैठ गई ओसारे पर? कोई भी आता-जाता यहाँ ओसारे में आ बैठता है। ओसारा माने घर का बाजार। और तू भी यहीं आकर बैठेगी। अब तुझे बाजार में बैठनेवाली कहूँ तो बोलेगी कि मुझे गालियाँ दे रहा है, पर इतना तो समझ लेती कि औरतों को रसोईघर में ही बैठना शोभा देता है।

क्षारा : चुप रहिए, बड़बोलेजी। मैं ओसारे पर न बैठूँ तो क्या करूँ! कहते हैं, औरतों को रसोईघर में ही बैठना शोभा देता है, पर जिस रसोईघर में रसोई बनाने आप अनाज का एक दाना भी नहीं कमाकर लाए, उस रसोईघर और ओसारे में क्या अंतर है हमारे लिए? बाकी कमाऊ पुरुषों की तरह आप भी ओसारे पर रुपयों का ढेर लगा देते तो औरों की तरह मैं भी रसोईघर में घुसकर अपने आपको भूल जाती, पर मेरे पल्ले तो ऐसा निठल्ला आ पड़ा है कि जिंदगी रोते गुजर रही है, वरना मैं भी किसी रानी से कम न थी!

गीत

है यह कैसा अनमेल मेल! ये ठूँठ, मैं अलबेली नार।

मैं गाय, ये गिद्ध, ये बेसुरा, मैं हूँ सुरीली तान।

मैं हूँ वह गुड़ जिसका स्वाद न जाने यह नर।

मेरे जैसा पति दे मुझे भगवान्!

शाकंभट : क्षारा, क्या बक रही है री! होश में तो है तू! तुझे लगता है कि तुझे अपने जैसा ही वर चाहिए था? ऐसा सचमुच लगता है तुझे? वैसा हो जाता तो रोती तू, क्योंकि तेरी तरह ही होता तो वह होता औरत ही न! जो भी लड़कियों को 'अनुरूप वर प्राप्तिरस्तु' का आशीर्वाद देते हैं, वे उनका अनर्थ जानते ही नहीं। अरी, स्त्री और पुरुष जन्म से ही अनमेल हैं। तभी तो आगे चलकर उनका मेल होता है। सो तेरा पति तेरे मेल का नहीं-इस बात के लिए भगवान् का आभार प्रकट कर, वरना तुझे रोना पड़ता, क्षारा, दिन रात रोना पड़ता।

क्षारा : अब भी तो वही कर रही हूँ। दिन-रात नसीब को कोसती हूँ। आपके पिताजी कितने बड़े पंडित थे! उनका कितना नाम था, पर आपने मनमानी कर उनका नाम मिट्टी में मिला दिया। अमीर यजमानों का काम तो हाथ से निकल ही गया, अब कम-से-कम इन दो-चार गँवारों को फाँसकर, उनसे संकल्प-विकल्प करवाकर ही कुछ पैसे कमा लो। बुलाऊँ उन्हें अंदर? दो बार चक्कर लगा गए हैं। घर में खाने के लाले पड़ रहे हैं। ऐसे में आपका यह हठ कि अमीर यजमान का ही काम करूँगा, ठीक नहीं।

शाकंभट : तुम्हारी बात सोलह आने सच है, पर सवाल गरीबी-अमीरी का नहीं, श्रद्धा का है। यजमान कितनी दान-दक्षिणा देता है उसी पर उसकी अमीरी और गरीबी निर्भर है। कई अमीरों की भगवान् के सामने सुपारी रखने में भी नानी मरती है और कई गरीब चाहे जिस तरह हों, मुट्ठियाँ भर-भरकर दान देते हैं। इसलिए मानव की धर्मश्रद्धा का नाप-वह कितनी दक्षिणा दे सकता है-इसपर नहीं बल्कि वह कितना देना चाहता है, इसपर निर्भर है। सो उसी श्रद्धावान को ले आ, जो भरपूर दक्षिणा दे सके। बाकी अश्रद्धों को भगा दे। जा, तेरे पति शाकंभट की आज्ञा है यह!

क्षारा : पर सिर्फ दक्षिणा की वस्तु को ही क्यों इतना तूल दिया जाता है? अगर किसीके पास दक्षिणा के लिए पैसे नहीं है तो वह...

शाकंभट : समझना चाहिए कि उसके मन में श्रद्धा ही नहीं है।

क्षारा : हम भिक्षुक हैं, इसलिए ही तो ये पाँच-दस यजमान घर चले आते हैं, पर अगर¨¨

शाकंभट : बहुत हो गया यह अगर-मगर। और औरतों को चाहिए कि वे सिर्फ अपने पति को ही यजमान कहकर पुकारें। कहती है, पाँच दस यजमान! क्या मैं अकेला यजमान तेरे लिए काफी नहीं? कहाँ चली? जरा सुन तो! जिसे भी यहाँ लाएगी, वह हमें अधिक-से अधिक दक्षिणा देनेवाला हो और निरक्षर भी हो। जैसे तुझे नाक से भारी मोती अच्छा नहीं लगता वैसे ही मुझ जैसे पुरोहित को भी अधिक पढ़ा-लिखा यजमान अच्छा नहीं लगता।

[क्षारा जाकर एक अपढ़ किसान को लाती है।]

किसान : पैर लागूँ, महाराज!

शाकंभट : कल्याण हो! (क्षारा को) तू जा अब भीतर। मैंने कहा न कि अंदर चली जा! मेरी पत्नी पर-पुरुष के सामने ओसारे में खड़ी रहे, यह मुझे पसंद नहीं है।

क्षारा : (तुनककर) लो, चली जाती हूँ मैं।

शाकंभट : (किसान को देख) निपट गँवार है। (जोर से) अब बोलो, क्या करना है-तीर्थविधि, श्राद्ध या श्राद्ध संकल्प? संस्कारों के ये संस्कृत नाम शायद तुम्हें मालूम न हों। इसलिए मैं प्राकृत में पूछता हूँ। सुनो, दक्षिणा देने हेतु कितने रुपए लाए हो? चालीस, तीस या बीस?

किसान : (स्वगत)तो यह बात है! मौका हाथ में आया है, मैं भी इसे थोड़ा-बहुत प्राकृत सिखा दूँ! (प्रकट) महाराज, पाँच रुपए दक्षिणा लाया हूँ।

शाकंभट : समूची संस्कृत में इस नाम की कोई धार्मिक विधि नहीं है। कम-से-कम दस रुपए लगेंगे।

किसान : जी, उतने किसी तरह दे दूँगा।

शाकंभट : प्राकृत में जिसे दस रुपए कहते हैं, उसी को संस्कृत में स्नानविधि कहते हैं। चलो, तीर्थसंकल्प ले लो।

किसान : पर उसके लिए तीर्थस्थान जाना पड़ेगा न!

शाकंभट : पगले, कहते हैं कि पुरोहित का घर ही तीर्थ होता है। अगर मैं दर्भ से पानी छिड़कता हूँ तो सामान्य तीर्थ का पुण्य मिलता है। अंगुली से छिड़कता हूँ तो भागीरथी स्नान का पुण्य मिलता है। चलो, तुम संकल्प ले लो। मैं पानी छिड़कूँगा। फिर तुम नदी किनारे जाकर नदी के पानी में दिन भर डुबकियाँ लगाते रहो या पूरे जन्म में एक बार भी स्नान न करो। तुम्हें स्नान का पुण्य अवश्य मिलेगा। अच्छा, पलथी मारकर बैठ जाओ। दक्षिणा निकालो और गिनकर वहाँ रख दो। अब हाथ जोड़ लो। मैं जो भी बोलूँगा, उसे तुम वैसे ही दोहराना। अगर मैं हाथ से कुछ इशारे करूँ तो तुम भी वही करो, आया समझ में? अच्छा अब बोलो, तुम्हारा नाम क्या है? बताओ तो क्या नाम है? हाँ, ॐ नमः।

किसान : बोलो, तुम्हारा नाम क्या है? ॐ नमः।

शाकंभट : पहले तुम्हारा नाम। फिर ॐ नमः।

किसान : पहले तुम्हारा नाम। फिर ॐ नमः।

शाकंभट : पहले तुम्हारा नाम। फिर ॐ नमः शिवाय।

किसान : पहले तुम्हारा नाम। फिर ॐ नमः शिवाय।

शाकंभट : पहले¨¨हिश! सिर्फ ॐ नमः।

किसान : पहले¨¨हिश! ॐ नमः शिवाय।

शाकंभट : गधा कहीं का!

किसान : गधा कहीं का!

शाकंभट : तुम पाजी हो!

किसान : तुम पाजी हो!

शाकंभट : तुम्हारा बाप पाजी है! (दक्षिणा उठाकर) अरे भागते भूत की तो¨¨!

किसान : (दक्षिणा छीनकर) अरे भागते भूत की तो¨¨!

शाकंभट : तो फिर यह लो। (मुक्का मारता है।)

किसान : तो यह लो। (वहीं पर दोनों गुत्थमगुत्था होते हैं। किसान शाकंभट का कान पकड़ता है और उसकी गरदन दबाकर उसे झुकाता है।)

शाकंभट : अरे, बाप रे! अरे कोई बचाओ मुझे! माँ, मेरी माँ! (क्षारा दरवाजे की आड़ से बाहर झाँकती है। ओसारे पर आकर फिर भागने को होती है। ) आ जा मेरी माँ! वापस क्यों जा रही हो? माँ¨¨माँ¨¨

क्षारा : आप तो माँ को पुकार रहे हैं। फिर आपकी माँ आएगी स्वर्ग से नीचे¨¨नहीं तो कहेंगे कि औरतों का ओसारे पर आना ठीक नहीं है।

शाकंभट : नहीं भागवान! मुझे सबकुछ ठीक लगता है। हाय राम! माँ नहीं! वह माँ नहीं! तू, तू ही आ जा! आइए, आइए क्षाराजी! आकर बचा लीजिए मुझे।

क्षारा : (प्रवेश कर) भैया, छोड़ दे इन्हें! मेरे लिए ही छोड़ दे! इन्होंने जो कुछ भी कहा है, सब भूल जा। इनका अपनी जीभ पर जरा भी नियंत्रण नहीं है। दया कर! (किसान शाकंभट का कान छोड़ देता है। शाकंभट घर के अंदर भागता है। क्षारा को प्रणाम कर किसान वहाँ से चला जाता है।)

शाकंभट : (पुरानी तलवार लिये धीरे से दरवाजे से झाँकता है।) क्यों री, चला गया वह? ( क्षारा हँसकर उसके चले जाने का इशारा करती है। तब शाकंभट बाहर आकर जोर से बोलने लगता है।) अरे, चला गया वह? कहाँ भागा वह कायर? सामने होता तो टुकड़े-टुकड़े कर देता उसके। क्यों जाने दिया उसे? मैंने तो यूँ ही तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए अपना कान उसके हाथ में दिया था। उसी को सच मान तूने मुझे अपने शत्रु के सामने बदनाम किया और अब उसे भागने का अवसर देकर उसे प्राणदान भी दिया। क्षारा, तेरी काली करतूत मैं जान गया। तूने उस पर-पुरुष से क्यों बात की? पत्नी के लिए पति राजा होता है। तूने अपने पति से द्रोह किया। अब राजद्रोह के अपराध के लिए मैं तेरा सिर काट डालता हूँ। तूने कहा था कि मेरी जीभ पर मेरा नियंत्रण नहीं है, पर मेरी तलवार पर मेरा पूरा नियंत्रण है। अभी मजा चखाता हूँ तुझे। काश, वह डरपोक फिर यहाँ आ जाता! ऐ डरपोक, आ जा, आ जा मेरी तलवार की नोक के सामने¨¨

किसान : (फिर से प्रवेश कर डाँटते हुए) क्या कहा?

शाकंभट : (हाथ को पीछे छिपाकर तलवार को वहीं छोड़ देता है और स्वयं क्षारा के पीछे छिप जाता है। इस बीच दबी आवाज में क्षारा से कहता है।) मैंने समझा था कि वह दूर चला गया है। अरी, अब बीच-बचाव कर, नहीं तो वह राक्षस कच्चा चबा जाएगा मुझे।

क्षारा : मैं नहीं करती बीच-बचाव। स्त्रियों को पर-पुरुषों के सामने एक शब्द भी नहीं बोलना चाहिए।

शाकंभट : पति के कहने पर सबकुछ किया जा सकता है। उसकी चारों ओर घूमनेवाली आँखों को देख, मेरा सिर भी चकरघिन्नी की तरह घूम रहा है। कहीं चक्कर न¨¨

क्षारा : भले मानुस, इनकी इस दयनीय स्थिति को देख तुम्हें तो हँसी आनी चाहिए। अच्छा, अब तुम चलो भैया यहाँ से!

[किसान सिर झुकाकर चला जाता है। इतने में बाण आ जाता है।]

शाकंभट : कौन, बाण! राजकुमार सिद्धार्थ अर्थात् आज के बुद्धजी के विलास भवन के बाहर तुम पहरा देते थे न! कैसा अभागा है न सिद्धार्थ यानी आज का बुद्ध! यशोधरा जैसी सुंदरी और फूलों की शय्या को छोड़ उसे श्मशान भूमि की राख में लेटना अधिक सुहाया।

बाण : हाँ, शायद यही बात है, पर उनकी परित्यक्ता पत्नी, देवी यशोधरा का दुःख देखा नहीं जाता। जार-जार रोती हैं। उन्हें देखकर कलेजा फटने लगता है।

शाकंभट : भागवान, सुना तूने! पति द्वारा त्यागने पर महिलाओं की क्या दुर्दशा होती है? इसलिए कहता हूँ कि मुझे जतन से रख। वरना¨¨

क्षारा : वरना क्या होगा जी? यशोधरा का पति राजकुमार था, पराक्रमी था। इसी से उसके वन चले जाने से यशोधरा शोकाकुल हुई, पर जिनके गले ऐसा खवास पति पड़ता है उन स्त्रियों को अपने पति को वन जाने की बुद्धि हो, इसलिए मनौती माँगनी पड़ती है। दुःख उसी के वन जाने से होता है जिसके साथ रहने से जीवन में खुशी छाई रहती है, पर जिन पतियों के कारण मुझ जैसी का गृहवास ही वनवास जैसा दुःखदायी हो तो वे पति कल की बजाय आज ही चले जाएँ। जाते हैं क्या अभी!

शाकंभट : चला भी जाता, पर तू जैसा कहती है गृहवास ही वनवास है। अतः अब वनवास में विशेष क्या रहा? वन में जंगली सूअर होते हैं (क्षारा की तरफ इशारा कर) और यहाँ नहीं होते क्या?

क्षारा : ( शाक भट की तरफ इशारा कर) होते है न! सिद्धार्थ, बुद्ध जैसे त्यागवार की निंदा के कीचड़ में मुँह डालने जैसा कृत्य जो अभी आपने किया, वैसा कृत्य जंगली सूअर के सिवाय कौन करेगा!

शाकंभट :त्यागवीर हुँह, जिसे तुमने त्यागवीर कहा, उस सिद्धार्थ ने ऐसा कौन सा अपूर्व त्याग किया! जिसने भी सिद्धार्थ की तरह जन्म से सुख-ही-सुख भोगे हों वह कभी-न-कभी उनसे ऊब ही जाएगा न! यशोधरा, मधुरा, मंजुला जैसी चंद्रमुखियों के शीतल आलिंगन में तीस साल तक यौवन के रंग लूटने के बाद अगर उसे ठंड सी लगे और जंगल की आग में तापने का मन करे, तो इसमें ऐसी कौन सो अचरज या वीरता की बात हुई? तीस साल तो बहुत होते हैं। अगर कोई मुझे तीस दिन के लिए ही उसी तरह के विलास भवन में सुंदरियों के दलभार का सर सेनापति बनाने की सोचे तो मैं तुरंत उस करारनामे पर हस्ताक्षर कर दूँ। मुझे तीस दिन ऐसे विलास भवन में लोटने दो। मैं उस महीने के किराए के तौर पर इकतीसवें दिन राजी-खुशी वन चला जाऊँगा। पर कोई हमें इस बारे में पूछे तो सही! हमारे पल्ले तो ऐसी भूतनी पड़ी है कि हमारे भोग विलास के अतृप्त भूत अभी भी गृहस्थाश्रम के इर्दगिर्द ही भटक रहे हैं। और अगर तू सोच रही है कि यशोधरा को छोड़ देने ही से उसने दुनिया छोड़ दी है तो तू भ्रम में पड़ी है। अरी, राजविलास के मिष्टान्न खाते-खाते उसके मुँह का जायका बिगड़ गया। इसलिए खट्टी, कड़वी, तीखी चटनी खाने वह बाहर चला गया है। दो दिन में वापस चला आएगा। राजा के तौर पर वापस आया तो यहाँ का रनिवास तो है ही और वैरागी के तौर पर वापस आया तो इसी को वैराग निवास बना देगा। अरी, पुरुष किसी-न-किसी बहाने स्त्री रत्नों को अपने शरीर की शोभा बनाकर ही रखते हैं। क्या गृहस्थ, क्या वनस्थ! कामिनी के बिना दो-चार दिन किसी तरह काट लेगा, पर पाँचवें दिन उसी को गले लगाएगा। चाहे वह जपी-तपी, शिखी या संन्यासी ही हो। कोई उसे प्रिय पत्नी के रूप में पास रखेगा तो कोई प्रिय शिष्या के रूप में। कोई उसे अनुरागिणी के रूप में स्वीकारेगा तो कोई वैरागिनी के रूप में! रामचंद्र जानकी के मुखकमल के उपासक थे तो वीर हनुमान उपासक थे उनके पदकमल के! पर मतलब वही, ललनाओं के दास। इसलिए सिद्धार्थ गौतम के वनवास को इतना महत्त्व देकर हम गृहस्थों को नीचा दिखाने की जल्दबाजी न कर। यह बुद्ध यशोधरा के पास दो-चार दिन में लौट न आया तो मेरा नाम बदल देना।

क्षारा : चुप रहिए! किसी भी महान् आदमी की निंदा करना आपकी आदत बन गई है।

शाकंभट : और मैं जिसकी भी निंदा करता हूँ उसी को महान् आदमी मान लेने की आदत तुझे लग गई है।

क्षारा : आज सिद्धार्थ की निंदा करने के बहाने ही सही, आपने मान तो लिया कि पुरुष कामिनी के दास होते हैं।

शाकंभट : हाँ, वे कामिनी के दास होते हैं, चंडिका के नहीं।

बाण : पुरोहितजी, मुझे बहुत जरूरी काम है। आप जानते ही हैं कि मैं विलास भवन का पहरेदार हूँ। मुझपर यह आरोप है कि जिस दिन सिद्धार्थ राजमहल से भाग गया उस रात मैंने महल के परकोटे का दरवाजा खुला रख छोड़ा था। सालो-साल मैंने कोई-न-कोई बहाना बनाकर काल का अपव्यय किया, पर लगता है कि इस बात का बदला काल अब लेगा। महाराज मुझे मृत्युदंड देनेवाले हैं। अक्ल काम नहीं कर रही।

क्षारा : तो क्या तुम अक्ल माँगने इनके पास आए हो?

बाण : नहीं बहनजी, क्षमा कीजिए। ऐसी चीज यहाँ माँगने की गलती भला मैं कैसे कर सकता हूँ! पर मैंने सुना है कि पुरोहितजी संकट निवारण यंत्र बना देते हैं। इसलिए यहाँ आया हूँ।

शाकंभट : दैहिक संकट से बचाने का यंत्र तैयार करने के लिए कम-से-कम पाँच तोला सोना लगेगा।

बाण : बाप रे, इतना! तीन तोला नहीं चलेगा?

शाकंभट : पगले, तू जिस देह को बचाना चाहता है, वह तीन महाभूतों की नहीं है न! पंचमहाभूतों की देह के लिए पाँच तोला सोना ही चाहिए। है तो निकाल पैसे!

बाण : सुनास सेठजी का हवाला देता हूँ।

शाकंभट : कौन सुनास सेठ? उसके तो हम कुलपुरोहित हैं। ठीक है। अच्छा, गाँव में अफवाह है कि जिस रात सिद्धार्थ भाग गया उस रात कुछ अद्भुत घटनाएँ घटी थीं। तुम्हें इस बारे में कुछ मालूम है?

बाण : हाँ-हाँ, एक बड़ी ही अद्भुत घटना घटी थी। उस रात परकोटे का दरवाजा बंद करने से पहले ही पहरे पर होते हुए भी मुझे नीचे बैठने का मन हुआ और फिर गहरी नींद आ गई, पर इस अद्भुत घटना को मैं किस मुँह से कहूँ!

शाकंभट : (हँसकर) वाह बाण! वाह! तो पहरे पर होते हुए झपकी आई और तू सो गया। यही है तेरी अद्भुत घटना! अच्छा, और कुछ अद्भुत अनहोना लगा?

बाण : नहीं, और कुछ नहीं।

शाकंभट : हुआ!

बाण : नहीं, महाराज!

शाकंभट : बाण, तुझे जीना है या मरना?

बाण : जीना है, महाराज!

शाकंभट : फिर कह, अनहोनी घटना घटी।

बाण : अच्छा, घटी थी, पर कौन सी?

शाकंभट : वह यह कि तुमने दरवाजे बंद किए थे। चटखनियाँ, ताले, आँकड़े सभी कुछ ठीक-ठाक लगा दिए थे, पर इतने में किसी देवदूत ने आकर तुम्हारी आँखों पर अपना हाथ फेरा और कहा, 'बेहोश हो जाओ।' और तुम सब लोग मूर्च्छित हो गए। सवेरे होश आने पर तुमने देखा कि सभी दरवाजे बंद हैं। इस बीच जो भी हुआ, वह तुम्हें बिलकुल स्मरण नहीं आता। तुम बस इतना करो, बाकी सारा काम मेरा यंत्र कर देगा।

बाण : पर¨¨

शाकंभट : पर-वर कुछ नहीं। अरे पगले, इन सीधे-साधे श्रद्धालु लोगों की निंदा से बचने का सिर्फ यही एक उपाय है। चमत्कार से भरी बातें कहना। कुँवारी कुंती के विवाह से पहले बच्चा हुआ। बस, लोगों की जबान चलने लगी। व्यासजी को इस बात का अंदेशा हुआ। उन्होंने तुरंत सूर्य भगवान् के दैवी अनुग्रह की बात छेड़ी, पगलाई शंका का धूर्त उत्तर से निपटारा हुआ। आज भी वही होगा। इतना ही नहीं, आगे चलकर अगर सिद्धार्थ गौतम सचमुच ही धर्म संस्थापक हो गया तो उसके अनुयायियों के नए पुराण में मेरी यह गप भी महत्त्वपूर्ण तथ्य मानी जाएगी और व्यासजी की तरह इस नए पुराण में बहकर वह शायद नई पीढ़ियों के दरवाजे तक पहुँच जाए। अच्छा, चलो अंदर, तुम्हें ताबीज दूँ।

: तीसरा दृश्य :

[शुद्धोदन महाराज खड़े हैं।]

सेनापति

विक्रमसिंह : (प्रवेश कर) शुद्धोदन महाराज की जय हो!

शुद्धोदन : आइए, सेनापति विक्रमसिंह, आइए। कल आए व्यापारियों द्वारा दिए गए समाचार क्या सच हैं? आपने ठीक से पता लगाया है कि मेरा पुत्र सिद्धार्थ, जो मुझे छोड़कर चला गया था, आज जगत्गुरु का सम्मान प्राप्त कर मुझसे मिलने आ रहा है?

विक्रमसिंह : एकदम निश्चित। आपके पुत्र सिद्धार्थ ने संसार को दुःखी देखकर सांसारिक दुःखों से मुक्ति पाने के लिए राज्य का त्याग किया। उसने देहदंड के घोर तपाचरण किए, परंतु देहदंड के तप मोक्ष के मुख्य साधन नहीं हैं, ऐसा निश्चित है। उन्होंने ज्ञानमार्ग अपनाया और समाधि का परम लक्ष्य, निर्वाण अवस्था प्राप्त की। निर्वाण अवस्था प्राप्त करने के पश्चात् जनकल्याण के लिए निर्वाणमार्ग का उपदेश देते हुए वे गाँव-गाँव घूमने लगे। उनका अटल विश्वास है कि उन्होंने मनुष्य को जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधि के चंगुल से छुड़ानेवाला मार्ग ढूँढ़ लिया है। सहस्राधिक लोग, राजा-महाराजा बुद्ध को पूजने लगे हैं। भगवान् बुद्ध के इस परमोदार और परम कारुणिक धर्म का मुख्य प्रवर्तक सूत्र है 'परिणाम-तपसंस्काराद् गुणवृत्तिविरोधाच्च सर्वमेव दु:खं विवेकिनः।' उनका सिद्धांत है कि सर्वस्व त्याग संभव है, पर मुझे लगता है कि उनका हजारों लोगों को संन्यास की दीक्षा देते जाना जनकल्याण के लिए विघातक है। मिलने पर मैं उनसे यह बात करने की सोच रहा था कि सौभाग्य से वह अवसर इतनी जल्दी आ गया। भगवान् बुद्ध अपनी राजधानी कपिलवस्तु आ रहे हैं। वे नगर के निकट आ गए हैं।

शुद्धोदन : वाह! नौ-दस सालों के बिछोह के बाद मेरा तनय सिद्धार्थ मुझसे मिलेगा। वही तो मेरे बुढ़ापे की लाठी है। उसके आते ही उसे इस मुकुट की राज-दीक्षा दे, मैं संन्यास-दीक्षा लूँगा। राजधानी को अच्छी तरह सजाया गया है न! उसके आते ही नगाड़े, तुरही, नाच-गाना सभी कुछ¨¨। देखो, नगाड़े की आवाज भी आने लगी¨¨ पर अरे, यह बंद क्यों हुआ? कैसा दीखता होगा मेरा पुत्र! कैसे बरतेगा! मुझे पल-पल युग की तरह लग रहा है। (इतने में दूत आता है।)

विक्रमसिंह : क्यों रे, यह अचानक नगाड़ा क्यों बंद हो गया? नगर के परकोटे से सिद्धार्थ दिखे क्या?

दूत : दिखे क्या महाराज, वे नगर में प्रवेश कर चुके हैं।

शुद्धोदन : तो फिर मेरे पुत्र के स्वागत में बजते वाद्यों और जय-जयकार की ध्वनि से दसों दिशाएँ गूँजती क्यों नहीं रखी गईं? अरे, यह कैसा प्रमाद!

दूत : क्षमा कीजिए, महाराज! प्रथम सूचना देने परकोटे के नगाड़े जैसे ही बजने लगे, सिद्धार्थ ने मना कर दिया जिससे नगर द्वार पर खड़े लोग भी चक्कर में पड़ गए। फिर-फिर नगाड़े बज उठते, सिद्धार्थ बंद करवाते। वैसे भी सिद्धार्थ मुख्य द्वार से नहीं बल्कि बगल के मार्ग से नगर में पधारे हैं। शोभायात्रा का नियोजित और शृंगारित पथ छोड़कर वे जान-बूझकर हीन-दीन अस्पृश्यों की गंदी, सँकरी और बहिष्कृत राहों से भिक्षा माँगते हुए और उसे स्वीकारते हुए चले आ रहे हैं। मुख्य मार्ग के पास इकट्ठा विशाल जन समुदाय आश्चर्य से वह दृश्य देख रहा है।

शुद्धोदन : क्या कहा? मेरा पुत्र, महाराज शुद्धोदन का बेटा, इस शाक्य राज्य का युवराज अपनी ही राजधानी में हाथों में भिक्षापात्र लिये अछूतों के दरवाजे पर भीख माँग रहा है। कलंकित किया इस कपूत ने मेरे पूरे कुल को। राजवंश में जन्म लेकर यह भीख माँगे, जिनकी परछाईं तक अपवित्र है, उनसे यह अन्न ले रहा है। और इन अछूतों में भी भीख देने की हिम्मत कैसे आ गई? उन्हें मेरे क्रोध का किंचित् भी डर नहीं लगा?

दूत : महाराज, बुद्ध देवता को¨¨

शुद्धोदन : कौन बुद्ध? कौन सा बुद्ध? कैसा बुद्ध? वह तो सिद्धार्थ गौतम है। कम-से-कम मेरे सामने तो उसे सिद्धार्थ ही कहना पड़ेगा।

दूत : क्षमा कीजिए, महाराज! पर सिवा आपके सिद्धार्थजी को अस्पृश्यों से अन्न लेने से कोई नहीं रोक सकता।

शुद्धोदन : प्रधानजी, मेरा घोड़ा तुरंत लाया जाए, यह अनाचार मुझे रोकना ही होगा। बूढ़ा हूँ, पर हूँ शाक्यों का राजा ही। सिद्धार्थ के उच्छृंखल वर्तन से राष्ट्र और कुल के गौरव की हानि होती है। मुझे उसे दंड देना ही पड़ेगा। जाओ, घोड़ा ले आओ और लोगों को राह से परे हटने का आदेश दे दो, वरना इसी भीड़ भरी राह पर मैं बेखटके घोड़ा दौड़ाऊँगा।

: चौथा दृश्य :

[शाकंभट का घर। शाकंभट बैठे हुए हैं। क्षारा जोर से चिल्लाते हुए बाहर आती है।]

क्षारा : सुना आपने, चावल नहीं हैं। दस दिनों से घर में चार दाने भी नहीं हैं। आज तक नैहर से लाया तुमने गटागट खाया, पर अब उन्होंने साफ कह दिया कि अब से चावल का दाना भी नहीं मिलेगा। इसलिए कह रही हूँ, प्राणनाथ! घर में चावल नहीं है। सुना न आपने!

शाकंभट : बस, प्राणप्रिये! जैसे आज-अभी धीरे से समझाकर कहा, वैसा कल ही क्यों नहीं सौजन्य से कहा। क्षारा, ठट्ठा नहीं कर रहा मैं। इस एक दिन में मैं हजार रुपया कमानेवाला हूँ। मैं, तुम्हारा पति, कमाकर लाऊँगा। राजपुत्र सिद्धार्थ के भाग जाने से बाण संकट में फँस गया है। उससे उबरने के लिए मैंने उसे संरक्षक यंत्र बना दिया है। सुनास सेठ के हवाले से मैंने वह यंत्र दिया था, पर उस बाण ने अब तक मुझे एक पाई भी नहीं दी है। उसे मैंने कैंची से पकड़ा है। अब एक हजार मागूँगा-एक हजार।

क्षारा : आप तो माँगेगे दस हजार, पर वह दे तब न! सुनास सेठ सीधा-सादा है, पर है तो पूरा मक्खीचूस। उसपर आप पर उसका हजार रुपए का ऋण है। उसी में वह पटा लेगा।

शाकंभट : अरी, वह हुंडी तो फाड़ ही दूँगा, ऊपर एक हजार रुपए भी ले आऊँगा। वैसे भी गाँव के अन्य लोगों के साथ-साथ वह भी मुझे चार सौ बीस समझता है। समझने दे उसे जो समझना है। मैं भी उसे नाकों चने चबाऊँगा। नाम भी क्या है, सुनास सेठ!

क्षारा : क्यों, क्या बुराई है इस नाम में? सुनास! नाम की तरह ही उसकी नास यानी नाक सुंदर है।

शाकंभट : पर-पुरुषों की नाक धारदार है या आड़ी-टेढ़ी हैं, आँखें तेजस्वी हैं या चिपचिपी-यह सब अध्ययन करने की तेरी लत मैं सह नहीं सकता, हाँ। तेरी आयु की पचीसी उलट गई, अब तो आते-जाते पुरुषों के मुखड़े देखने का छिछोरापन बस कर।

क्षारा : इसी बात पर गुस्सा हो तो पतिदेव शांत होइए, क्योंकि उन सेठजी की नाक सीधी और सुंदर है, यह मैंने बीसवें वर्ष ही देख लिया था। अगर हम औरतें आते-जाते पुरुष को देखती भी हों तो उसमें छिछोरापन कहाँ से आ गया। रास्ते से आते-जाते कौओं, कुत्तों और भैंसों को भी हम देखती हैं। वैसे ही पुरुषों को देखती हैं। एक-एक लड़की के चारों ओर छप्पन पुरुष इकट्ठा होकर जो स्वयंवर की गुंडागर्दी करते हैं, वह बड़ी प्रतिष्ठित होती है। उसमें कितनी मारपीट होती है। शोर-शराबा, हाथापाई होती है। सीता स्वयंवर, रुक्मिणी स्वयंवर या हमारे सिद्धार्थ बुद्ध ही का स्वयंवर ले लो! इनके सामने कुत्ते-बिल्लियों के झगड़े कुछ भी नहीं हैं। इस तरह भला किसी स्वयंवर में चालीस-पचास स्त्रियों ने इकट्ठा होकर किसी पुरुष के सामने अपना निर्लज्ज निवेदन किया है? किसी पुरुष की गाँव की गढ़ी जैसी सीधी नाक किसी स्त्री ने देखी तो वह निर्लज्ज है और तुम पुरुष लोग? सौ कौरवों ने समूची सभा के सामने अपनी भाभी को नग्न करने के लिए उसका वस्त्रहरण किया, पर वह तो पुरुषों की सभ्यता है!

धुन-अदर्ख भुजन्या खोलिए!

स्त्री को निर्लज्ज कहते, लाज न आए पुरुष को अहं!

देख द्रौपदी वस्त्रहरण पुरुष नाना

हँस पड़े निर्लज्जता से, स्त्री भी अगर यही करती।

सोचो होता क्या! हाल होता बेहाल इस पुरुष का॥

हम स्त्रियों को देख बड़े-से-बड़े ऋषियों के मुँह में जो लार टपकती है, उससे आपके सारे पुराण गीले हुए हैं। पुराण लेखक को स्त्री दिख जाए तो फिसल गए उसका वर्णन करने-सुंदर, सुकेशी, सुमुखी, सुदंती, सुमध्यमा, पृथुजघना, सिंहकटि। मानो उन्होंने स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों को नाप रखा था। सिंहकटि, पृथुजघना की क्यों अगर कोई मुझे रंभोरू कहेगा तो भी मैं पाँव की चप्पल हाथ में लेकर उसकी मरम्मत करूँगी।

शाकंभट : ठीक कहा तूने! तुझे देख कोई पुरुष सिंहकटि, रंभोरू कहने लगे तो मैं भी अपने पाँव का जूता हाथ में लिये उसकी अंधता सबके सामने प्रकट करूँगा। हाँ, सिंहमुखी कह सकते हैं वे तुझे, पर सिंहकटि, सुदंती, सुभ्रू, सुंदरी, सुकेशा! तेरे किसी भी अंग-प्रत्यंग को बखानने के लिए कोई एक बार भी 'सु' का प्रयोग करे, तो मैं उसे कई बार पछताने के लिए बाध्य करूँगा। अगर कभी तुझपर पुराण लिखने की नौबत आ ही गई तो सौभाग्य से तेरे मन के अनुकूल तेरा वर्णन करे, ऐसा एक नया ऋषि आजकल आविर्भूत हुआ है। मैं जिस नए ऋषि की बात कर रहा हूँ वह है हमारा राजपुत्र सिद्धार्थ-गौतम। उसने आजकल बुद्धत्व प्राप्त किया है। वह तेरी या अन्य किसी भी स्त्री की तरफ 'दुर्मुखी' कहलाने लायक ध्यान भी नहीं देता; क्योंकि वह तुम लोगों का मुख ही देखना नहीं चाहता। वह तो यहाँ तक कहता है कि स्त्रियों का मुख देखना पाप है। तुम्हारी टेढ़ी नाक, तुम्हारा दुर्गंध युक्त मुँह, मंगल स्त्री देह से घृणा है बुद्धदेव को! वे पापयोनि स्त्रियों को अपने पास फटकने तक नहीं देते।

क्षारा : जन्म से दो-चार साल पहले अगर कोई प्राणी स्त्रियों को पापयोनि कह दे तो मैं उसे शायद पुण्य पुरुष कहूँ, पर स्त्री के पेट से जन्म लेकर अगर वह स्त्रियों को गंदी कहता है तो वह अपने आपको गंदी नाली के कीड़े की बहुमानास्पद उपाधि दे देता है। स्त्रियों की देह अमंगल होती है। अत: उन्हें दूर ही रखना चाहिए, ऐसा कहनेवाले गुरु महाराज स्वयं शिष्याओं की मंडली में रमे होते हैं, उनकी हवा मलयानिल से बहनेवाली वायु की तरह सुगंधित ही तो होती है? और स्वयं गुरु की देह! फिर गुरु की देह की वायु को लोग क्योंकर सहें? गुरु की अपेक्षा उनके पाँव का तीर्थ लोग ग्रहण करें! स्त्रियों की नाक से श्लेष्मा बहता है तो जुकाम होने पर। व्यास, वाल्मीकि और बुद्ध ही की नाक से क्या श्लेष्मा की जगह गंगाजी का पवित्र पानी बहता है? फिर यही पानी आपको संध्या-अर्चना के लिए ले लेना चाहिए। परसों वे परमहंस आए थे न! वे ही जो स्त्रियों को हर घड़ी कोसते रहते हैं। सुना है, वे हमेशा बिस्तर पर पड़े रहते थे, देहधर्म भी वहीं करते थे। अपने मल-मूत्र को कभी खुद खा लेते थे और कभी उसे शिष्यों के मुख पर मल देते थे। पर इससे क्या? वह तो गुरु महाराज का मलप्रसाद था। मीठा ही लगता होगा। आप भी तो गए थे वहाँ। चख लिया था न थोड़ा सा! मुए सूअर ही अच्छे हैं इन जैसों से! छिः! मुझे तो घिन आती है यह सब सुनकर। अच्छा याद आया। बुद्धजी स्त्रियों के बारे में क्या कहते हैं, आपने मुझे सिर्फ यह बताया, पर आपने यह नहीं बताया कि स्त्रियाँ उनके बारे में क्या कहती हैं! कल ही मगध की एक स्त्री आई थी। कह रही थी, वहाँ बुद्धजी ने भीख माँगते-माँगते भीख देनेवाले सहृदयों के बच्चों को ही भीख में माँग लिया। उन बेचारों के तो घर ही उजड़ गए न! बुद्धजी के शिष्यों ने गप उड़ाई कि उनके गुरुजी सारे संसार को रोग और बीमारी से मुक्त कर देंगे। और मजे की बात यह कि इसी गाँव में बुद्ध गुरु सर्दी-जुकाम के इतने शिकार हो गए कि क्या कहें? तब उस गाँव की स्त्रियों ने उनपर चुलबुले गीत रचकर गाना शुरू किया। उसी स्त्री ने मुझे एक गाना गाकर सुनाया था। क्या बोल थे उसके! हाँ, याद आया-

मेरा तो गुरु है एक

भीख दे जो उसे ही

बना दे भिखारी

संसार भर को जिलाने

जग में आया

और सर्दी-जुकाम से

मर गया

जो वर दे वह

शाप हो जाए।

शाकंभट : ऐसे ही नहीं कहा मैंने तुम्हें सिंहमुखी! पर सुन अब मेरी बात, थोड़े दिन गोमुखी हो जा। वह देख, सुनास सेठ यहीं आ रहा है। उसकी माँ मरणशय्या पर है। इसी बात का लाभ उठाकर मैं एक बहुत बड़ा षड्यंत्र रच रहा हूँ। इससे मुझे काफी रुपए हाथ लगेंगे। अब तू अंदर चली जा।

सुनास सेठ : (प्रवेश कर) अब सुरक्षा यंत्र का दैवी उपाय करके देखना मेरे भैया जरा! मेरी माँ आज का दिन नहीं निकाल सकती। अब हम सबको छोड़ चली जाएगी वह। वैसे इसमें कोई हानि नहीं है। बुढ़ापे में लतर-फतर होकर पड़ी थी, उससे तो छूट हो जाएगी, पर मैं तो मातृविहीन हो जाऊँगा। (रोने लगता है।)

शाकंभट : (दहाड़ें मारकर रोने लगते हैं) और मैं भी अकेला रह जाऊँगा। अरे, मेरी तो माँ है वह! सेठजी, नहीं-नहीं, बड़े भैया! हाँ, यह बात सच है कि आप मेरे सगे-सौतेले भैया हैं और आपकी माँ मेरी सौतेली माँ है। ऐसे आश्चर्य से क्या देख रहे हो, भैया। तुम्हारा न, न, हमारे कुल का गुप्त बना रहा रहस्य आज मैं तुम पर खोलता हूँ, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अरे भैया मेरे, आपके और मेरे पिताजी एक ही थे। इसलिए आपकी सगी माँ मेरी सौतेली माँ है। ( रोता है।)

सुनास सेठ : क्या बक रहे हो? सौतेला भाई क्या? कहीं तुम पगला तो नहीं गए। शाकंभट, तुम हमारे कुल के पुरोहित हो। इसीलिए तुम्हें क्षमा कर दिया, वरना तुम्हारी ये अनर्गल बातें¨¨घरेलू संबंधों का यह अर्थ, ये चुभती बातें चुपचाप नहीं सुन सकता।

शाकंभट : मैं भी ये बातें कभी न बताता। पर भैया, हमारे संबंध सिर्फ घरेलू ही नहीं हैं बल्कि एक ही घर के हैं। मेरे पिता ने मरते समय मुझे यह सुरक्षा यंत्र दिया और कहा कि जिस दिन सुनास सेठ की माँ आखिरी साँसें गिनने लगे, उसी दिन यह सुरक्षा यंत्र खोलकर उसमें रखा पत्र तुम दोनों पढ़ लो और उस मृतात्मा को तुम दोनों ही पानी दो। उसकी चिता पर यह पत्र जला देना वरना मेरी आत्मा भूत बनकर तुम दोनों के घरों के इर्दगिर्द मँडराती रहेगी। इसलिए मैंने आज यह सुरक्षा यंत्र खोला, पत्र निकाला और पढ़ा। इसी से मुझे यह रहस्य मालूम हो गया। भैया, तुम्हारा पहला बाप मरा, तब क्या तुम्हारी माँ काशी में थी? क्या उसके मरने के बाद तुम्हारी माँ ने तुम्हें जन्म दिया?

सुनास सेठ : हाँ, तो? जो कुछ कहना चाहते हो साफ-साफ कह दो न!

शाकंभट : वही तो कह रहा हूँ। जो तुम्हारे सचमुच के पिता हैं, वही मेरे भी पिता थे। मेरे पिता काशी में एक उपाध्याय थे। वहाँ तुम्हारी माँ को मेरे पिता से एक लड़का हुआ। वह लड़का ही तुम हो। इसलिए रिश्ते से तुम मेरे भाई लगते हो, जैसे धर्मशील युधिष्ठिर दानवीर कर्ण के भाई थे। इसलिए कहता हूँ कि मेरे बाप की, नहीं हमारे पिता की¨¨

सुनास सेठ : दाँत तोड़ दूँगा तुम्हारे!

शाकंभट : तोड़ दो मेरे दाँत। पर भैया, जब तक मुँह में जबान है तब तक बुढ़िया की श्मशान यात्रा के समय मैं इसे सबके सामने पढ़ूँगा और उसे पानी दूँगा। मेरे पिता की दो इच्छाएँ थीं-उनपर तुम्हारे घर का जो कुछ पाँच-छह हजार रुपए कर्जा था, वह मैं उतार दें ताकि ऋणमुक्त हो जाने से उनकी आत्मा को सद्गति मिले और दूसरी इच्छा थी कि मैं तुम्हारी माँ को पानी दूँ। दोनों में से कोई एक इच्छा तो मुझे पूरी करनी ही पड़ेगी, अन्यथा वे प्रेतात्मा बनकर हम दोनों के आसपास मँडराते रहेंगे। अगर ऋण से मुक्ति नहीं मिली तो मैं बिना प्राणों की चिंता किए यह रहस्य सबके सामने खोलकर रख दूँगा। भैया, मेरे सगे-सौतेले भाई!

सुनास सेठ : (दुत्कारते हुए) अरे हट! (स्वगत) यह इसकी मनगढंत कहानी है या सचमुच ही इसके बाप का और मेरी माँ का कोई प्रेम-संबंध था? मेरी माँ वहाँ इसके बाप के घर में थी तो सही। और भूत-प्रेतों की कहानियाँ भी अकसर सुनने में आती हैं। शायद यही सच हो! पर¨¨पर¨¨मेरा सिर भन्ना रहा है। कल किसीको इसकी भनक भी लग गई तो लोग झूठ को ही सच मान लेंगे और मेरी माँ के शव को अग्नि देना मुश्किल हो जाएगा। पूरी जाति ही मेरे विरोध में उठ खड़ी होगी। (शाकंभट को जोर से) गधे के बच्चे!

शाकंभट : ना भैया, अपने बाप के बारे में ऐसी गाली का शब्द मत बोल रे! क्योंकि जिसका बेटा मैं हूँ उसी के बेटे तुम भी हो।

सुनास सेठ : जरा धीरे से बोलो। मेरी माँ का कितना नाम है। लोग उसको देवी मानते हैं। उसकी मौत के समय तुम ऐसी छिछोरी बातें मत बोलो। देखो, तुम्हारे बाप पर हमारा जो भी कर्जा था उसे मैं छोड़ देता हूँ। चाहो तो लिखकर दे देता हूँ जिससे वे ऋण मुक्त हों, सद्गति के अधिकारी बनें। यह इच्छा पूरी हो जाने से ही काम चल जाएगा। पर तुम्हें भगवान् की सौगंध! मेरी माँ के बारे में कोई भी गलत बात नहीं कहोगे।

शाकंभट : अरे नहीं, वह मेरी भी तो माँ है। भले ही सौतेली हो! मैं क्यों उसकी निंदा करूँगा? तुम्हारा कुल मेरा कुल। अब तुम ही तो मेरा कुल हो, भाई।

सुनास सेठ : फिर वही! मैंने कहा न कि इस बारे में एक अक्षर नहीं बोलोगे।

शाकंभट : लो, नहीं बोलता मैं इस बारे में। (उसाँस छोड़कर) हाँ, पिताजी की कोई एक इच्छा तो पूरी हुई! वरना भूत-प्रेत का भी तो डर था। अच्छा, वह ऋण मुक्ति का कागज दे दो यहाँ।

सुनास सेठ : तुम भी लिख दो कि तुम कोई अंट-शंट नहीं बोलोगे।

शाकंभट : पर इस बारे में आप भी मुझे लिख दीजिए। भीतर आइए!

सुनास सेठ : हाँ-हाँ, क्यों नहीं? यही तो रीति है। (स्वगत) क्या कर रहा हूँ मैं! पर और कोई उपाय भी तो नहीं। जो भी हो! एक बार माँ का दाह-संस्कार और अंतिम क्रिया हो जाएँ फिर देखूँगा इस उलूक की संतान को!

: पाँचवाँ दृश्य :

[बुद्ध भिक्षा माँगते हुए जा रहे हैं। नागरिक विस्मित से खड़े हैं। इतने में महाराज शुद्धोदन आते हैं।]

शुद्धोदन : कहाँ है, वह सिद्धार्थ? राजकुल को कलंकित करनेवाला वह भिखारी कहाँ है?

सिद्धार्थ : यहाँ हूँ, महाराज! पहले आपके दुःख का और अब आपके कुल-कलंक का कारण बना यह सिद्धार्थ, अपने पिता को अभिवादन कर रहा है।

शुद्धोदन : बेटा सिद्धार्थ, तुम्हें इस तरह सकुशल अपनी राजधानी में लौटे देख मेरे मन में आनंद का सागर हिलोरें लेने लगा है। उसमें तुम्हारी भिक्षावृत्ति के पागलपन से उपजा मेरा क्रोध भी डूब गया है। कितना विनयशील है मेरा पुत्र! भदंत पदवी प्राप्त कर, राजा-महाराजाओं का आचार्य बनने के पश्चात् भी उसने अपना पुत्रधर्म नहीं बिसारा। उस दूत ने मुझे ऐसा कुछ कह दिया कि मैं आपे से बाहर हो गया। तुम भिक्षाधर्म के अनुसार ही भिक्षा माँगते हुए राजधानी के राजमार्ग को छोड़ इस गली मार्ग से आए हो। है न!

दूत : (स्वगत)यही तो कहा था मैंने, पर दोष न तो क्रोध में आए बाप का है, न विनयशील पुत्र का। वह तो केवल दूत ही का है। दूत तो दोनों तरफ से थपेड़े खानेवाला मृदंग है।

शुद्धोदन : बेटे, तुमसे मिलकर मैं अपने सारे पिछले दुःख भूल गया। पर सिद्धार्थ, मेरे लाल, तुम मुझे और इस राज्य को छोड़कर तपस्या करने चले गए। तब से आज तक, पूरे दस साल मैंने सिर्फ इसी आशा से राज्य का गुरुतर भार उठाया कि एक-न-एक दिन तुम आकर इसे सँभालोगे! मेरे विनयशील पुत्र, अब अपने वृद्ध पिता के सिर से यह राज्यभार लेकर अपने समर्थ मस्तक पर उठा लो। तभी मैं इस ओर से निश्चिंत हो सकता हूँ। आओ युवराज, शाक्य राज्य का यह रत्नजड़ित मुकुट मैं अपने हाथों तुम्हें पहनाऊँगा। बेटे, तुम युवा हो। यह मुकुट तुम्हारे मस्तक पर अधिक शोभा देता है और यह तुम्हारे जैसा मुंडन मुझ वृद्ध को शोभा देता है। इसलिए तुम्हारा भरी-पूरी तरुणाई में धारण किया मुंडन और मेरा वार्धक्य में धारण किया मुकुट शास्त्र विरोधी हैं। हमारे राजकुल पर लगा यह कलंक अब मिटा दो। तुम यह मुकुट सँभालो और मैं यह कमंडल सँभालता हूँ।

सिद्धार्थ : रुक जाइए, महाराज! अगर मैंने अपने सिर पर और कोई भार नहीं लिया होता तो कदाचित् इस मुकुट का भार मैं धारण करता भी; परंतु कदाचित् यह मैं कर भी न पाता, क्योंकि बचपन ही से मैं जब भी किसी दरिद्र और परिश्रमी किसान को पसीने से तर हुआ देखता था और राजा की धन-लालसा के कारण युद्ध में घायल सैनिक को खून से लथपथ देखता था तब-तब मुझे राजमुकुट से घृणा हो जाती थी। मुझे लगता कि मुकुट का हर हीरा, हर पन्ना खेतिहरों और श्रमिकों के पसीने की यातना की बूँद है और मुकुट में लगा हर लाल रत्न उन सैनिकों के रक्त की बूँद है। राजा की तृष्णा, किसी राक्षसी की तरह परिश्रम करनेवाले श्रमिकों का खून चूसती है और यह मुकुट उस राक्षसी राजपिपासा के हाथ का रक्त का प्यासा प्याला है। हे मुकुट, तुममें जड़े रक्तबिंदुओं से यह निर्मल जलबिंदुओं से भरा कमंडल और अनाज के दानों से भरी अँजुली कहीं अधिक उपयुक्त है, क्योंकि इसे कोई भी हीन-दीन व प्यासा पी सकता है और भूखा खा सकता है, पर तुम तो ऐसे चमकीले पत्थर हो जिसे न कोई खा सकता है, न पी सकता है। क्या फायदा है तुम्हारा? हे निरुपयोगी रत्नो, तुम्हें उपयोगी मान जिस कूड़ेदान से उठाया गया था उसी में जा गिरो तुम! (मुकुट को फेंकना चाहता है। तभी राजसेवक आगे बढ़कर उसे हवा में ही पकड़ लेता है।)

पद

तुमसे ओ मुकुट, कमंडल ही भला॥धृ.॥

तुम अमोल कौड़ी मोल, यह मूल्यवान है॥

दे सभी को ताप, तुम लोगों को सुखाते।

सुजल बूँदों से हर ताप, यह सबको ही सुख दे॥

महाराज जब तक मस्तक से इस मुकुट का भार हटाया नहीं जाएगा तब तक वहाँ विश्व कल्याण का भार धारण करने का अवकाश ही नहीं मिलेगा।

शुद्धोदन : पर सिद्धार्थ, तुमने जिस क्षात्रकुल में जन्म लिया है उसका कर्तव्य ही मुकुट धारण करना है। कम-से-कम भिक्षावृत्ति तो धारण मत करो। वह हमारा कुलधर्म नहीं है।

सिद्धार्थ : महाराज, वह आपका कुलधर्म नहीं है, पर मेरा तो है ही।

शुद्धोदन : सिद्धार्थ, तुम्हारे शाक्यकुल में बाईस पूर्वजों ने मुकुट धारण कर महासामंत का गौरव पाया। उनमें भिक्षा माँगनेवाला एक भी नहीं था। तुम्हारे कुल का धर्म भिक्षा माँगना है-यह तुम किस आधार पर कह रहे हो?

सिद्धार्थ : महाराज, आप जिस बात का उल्लेख कर रहे हैं, वह बात सिद्धार्थ गौतम के कुल की है, पर अब मैं तथागत बुद्ध हूँ, सिद्धार्थ गौतम नहीं। और मेरे बुद्ध कुल में जितने भी बुद्ध हुए, वे सभी इसी भिक्षावृत्ति पर निर्भर थे।

शुद्धोदन : अगर भिक्षा ही माँगनी थी तो राजप्रासाद आकर माँगते। तुम्हारे पूरे शिष्यवृंद की भिक्षा का प्रबंध किया गया है। सबसे प्रथम वहीं चले आते। यह क्या कि आते ही अस्पृश्यों की गंदी गलियों में रोटियों के टुकड़े जुटाने में लग गए।

सिद्धार्थ : महाराज, अगर किसी वैद्य के पास किसी रोग की उत्तम ओषधि हो तो उसे लेकर वैद्य को सर्वप्रथम कहाँ जाना चाहिए? जो नीरोग है, हट्टा-कट्टा है, उसके पास या जो उस रोग से पीड़ित है, उसके पास?

शुद्धोदन : रोगग्रस्त के पास!

सिद्धार्थ : वही तो मैं भी कर रहा हूँ, महाराज! राजप्रासाद से पहले यहाँ आने का मेरा यही उद्देश्य था। मेरी महान् साधना से मुझे मनुष्य मात्र का दुःख दूर करने की ओषधि मिली है। जग में हमसब के सताए ये अस्पृश्य ही सबसे अधिक दुःखी हैं। इनके पास न खाने-पीने की चीजें हैं, न रहने का ठौर। इनकी पीठ पर ममता का हाथ धरने वाला भी कोई नहीं। मैंने कई चातुर्वर्णों को कुत्ते को पुचकारते हुए देखा है। मैंने कई त्रैवर्णिकों को कुत्ते के पिल्लों को गोद में उठाकर उनसे प्यार करते हुए देखा है, पर इन हीन-दीन अस्पृश्यों के ये सोने जैसे बच्चे! इनकी कद्र कुत्ते के पिल्लों जितनी भी नहीं की जाती। इतना ही नहीं, उन बच्चों का साया भी इन्हें अपवित्र कर देता है। मुझे लगता है कि समूची मानव जाति में इनसे अधिक दुःखी कोई न होगा। इसलिए दु:खों को दूर कर मोक्ष सुख का आस्वादन लेने का उपाय बताने हेतु मैं सबसे पहले इन्हीं के पास पहुँचा। महाराज, इसमें अनुचित क्या है?

शुद्धोदन : निस्संदेह तुम्हारे विचार बहुत उदार हैं, पर इनसे भिक्षान्न स्वीकारना अनुचित ही है। उनके अशुद्ध¨¨

सिद्धार्थ : अगर इनकी अशुद्धि के बारे में ही सोचना है तो इन अछूतों का अशुद्ध उतना ही अशुद्ध है जितना कि ब्राह्मणों और क्षत्रियों का। रक्त, वर्ण, रंग, रूप, गुण सभी में ये अन्य मनुष्यों जैसे ही हैं। धोने से उनके हाथ भी साफ होते हैं। अगर हमारी तरह धुले हाथों से चावल को धोकर ये उसे आग पर रखते हैं तो इनका पकाया चावल भी हमारे चावल की तरह ही शुद्ध और पौष्टिक होता है। इन्होंने शुद्ध भाव से शुद्ध चावल दिया और मैंने उसे ले लिया। इनकी पीठ पर मेरे हाथ फेरने से अगर इन्हें स्वर्ग तुल्य आनंद मिलता है तो मेरा ऐसा न करना मानवता का अपमान है। महाराज, वर्ण के अहंकार के कारण मानव ही मानव का शत्रु हो गया है। इसलिए तथागत बुद्ध केवल गुण और शील के आधार पर ही मानव की योग्यता को परखता है, जन्म के आधार पर नहीं। उसे जन्मजात ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों में भी पतित और अस्पृश्यों में भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य दिखाई देते हैं। बुद्ध ने अमृत बाँटने के लिए प्याऊ खोला है और वहाँ हर प्यासा जीवन का अमृत पा सकता है। वहाँ वर्णाहंकार का कोई स्थान नहीं।

गीत

वर्षा ऋतु आई। भूत-दया-घन बरसे।

तप्त लोक हरषे॥ ध्रु.॥

आ द्विज चांडाल तू जो भी है तप्त।

पात्र भर ले जीवन से। दया को न जात-पात॥

शुद्धोदन : सचमुच ही तुम कोई दिव्य आत्मा हो। तुमने मेरे घर जन्म लिया। मेरा वंश धन्य हो गया। सिद्धार्थ बुद्ध, अपने शिष्यों के साथ कम-से-कम एक बार, आप मेरे राजमहल में भिक्षा के लिए ही पधारें। कम-से-कम एक बार आप मेरी सुशील बहू से, अपनी विरहिनी पत्नी से, देवी यशोधरा से मिल लीजिए।

सिद्धार्थ : जैसी महाराज की इच्छा! (बुद्ध आगे बढ़ने लगते हैं। सभी शिष्य 'बुद्धं शरणं गच्छामि,धर्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि। कहते हुए उनके पीछे-पीछे चलते हैं।)

: छठवाँ दृश्य :

सुनास सेठ : माँ, माँ, आखिर तुम मुझे रोता छोड़कर चली ही गईं! (रोता है।)

पहली औरत : सेठजी, रोइए नहीं।

दूसरी औरत : उनका कुछ भी बुरा नहीं हुआ।

तीसरी औरत : बेटे, बहुएँ, पोती-पोते¨¨बहुत अच्छे भाग्य थे उनके।

चौथी औरत : यह तो संसार की रीति है। जो आता है, वह जाता ही है।

पाँचवीं औरत : आप रोएँगे तो हम भी अपने आपको रोक न पाएँगी, फिर ये बच्चे भी रोने लगेंगे। (सभी रोते हैं।)

सुनास सेठ : हाँ, उसका बुढ़ापा भी अच्छा ही गुजरा, पर मुझे अब माँ कहाँ मिलेगी! सुख-शांति कहाँ मिलेगी!

औरतें : (एक-एक औरत एक-एक वाक्य बोलती है।) ऐसा क्यों कहते हैं आप? हमसब हैं न आपके अड़ोस-पड़ोस में। आपकी माँ का अभाव हम आपको महसूस भी नहीं होने देंगी। रोइए मत, सेठजी! ( सब रोते हैं।)

शाकंभट : (प्रवेश कर अपने आपसे) हाँ, ठीक समय पर आ गया हूँ। इस सेठ ने अपने हाथों यह चिट्ठी लिख दी और इसी कारण यह मेरे चंगुल में फँस गया। क्या लिखा है चिट्ठी में? हाँ, 'शाकंभट, आप मेरी माँ और आपके पिता के संबंध में कहीं भी कुछ भी प्रकट न करें! हमने आपस में तय कर लिया है कि इसके बदले में मैं 'आप घर के ही हैं' यह समझ आपका सारा ऋण क्षमा कर दूँ! यह पत्र इसका सबूत है।' उसने मुझे लिखित पत्र में फाँसना चाहा, पर अब उलटे वही इस पत्र के कारण मेरे शिकंजे में फँस गया। अधिक बुद्धिमानी दिखाने का यही परिणाम होता है। (आगे बढ़कर) हरे राम! भैया, आखिर अपनी माँ चल बसी। मेरी सगी माँ तो मुझे छोड़ ही गई, अब यह सौतेली माँ भी भगवान् को प्यारी हो गई। हाय! मेरे यानी तुम्हारे पिता उससे कितना प्यार करते थे।

सुनास सेठ : (चौंक जाते हैं। अपने आपसे) यह चांडाल फिर कुछ घोटाला न कर दे! (जोर से) पुरोहितजी, शांत हो जाइए। रोइए नहीं। यह चलता ही रहता है। (उसके मुँह पर हाथ रखता है।)

शाकंभट : कैसे न रोऊँ? रोने पर किसका वश है? तुम मेरे सगे सौतेले भाई, जो मेरा बाप... (सेठजी उसके मुँह पर हाथ रख उसे दबाते हैं।) वही, भैया-तुम्हारा।

सभी लोग : यह क्या है, पुरोहितजी! शोक के कारण कोई इस तरह अनाप-शनाप बकता है? जाति-पाँत तो देखिए अपनी और सेठजी की! यह कोई नाटक है कि जो भी मुँह में आए बकते चले जाओ!

शाकंभट : आप लोगों का शोक नाटक है। जो मेरी जाति, वही मेरे इस भाई की है। अब बता ही देता हूँ सबकुछ (सेठजी उसका मुँह दबाते हैं।)

सुनास सेठ : लोगो, कुल परंपरा से यह ब्राह्मण हमारा पुरोहित है। हमारे ही घर में बड़ा हुआ है। इसलिए मेरी माँ के लिए बेटे के समान था। शोक के कारण यह पगला सा गया है। उसकी तरफ आप ध्यान न दीजिए। दाह-संस्कार की तैयारी कीजिए। चलो बहनो, आप घर के अंदर। मामा, चाचा, बाजार में जाकर अंतिम संस्कार का सामान ले आइए। अब सिर्फ रोने-धोने से कुछ नहीं होनेवाला! (सब जाते हैं।)

शाकंभट : मैं कंधा दूँगा अपनी माँ की अरथी को। यह मेरे पिता का पत्र...और यह मेरे इस भाई का।

सुनास सेठ : नीच ब्राह्मण, अब तुम और पैसा ऐंठने की कोशिश करोगे तो सीधे राजपुरुषों के हवाले कर दूँगा। कल क्या तय हुआ था?

शाकंभट : वही तो इस चिट्ठी में है। तुम्हीं ने इसमें लिखा है कि तुम्हारी माँ की गुप्त बात मैं प्रकट न करूँ। इसे मैं इनके सामने जरूर पढूँगा। तुमने ही तो उस सारी बात का हवाला लेकर मुझे डुबो दिया। ( जोर से) भाई है यह मेरा, मेरा सगा सौतेला¨¨

सुनास सेठ : कैसी दुविधा में फँस गया हूँ रे! ऐ, बस-बस, चुप भी करो। चुप बैठने के लिए क्या लोगे? बताओ तो जरा!

शाकंभट : एक हजार, पूरे एक हजार लूँगा। (जोर से) माँ, तुम्हारे काशीवास में तुम्हारा पति गुजर गया। तब मेरे पिताजी से¨¨

सुनास सेठ : चुप भी हो जाओ। मेरी मति मारी गई थी जो मैंने इस चांडाल को वह चिट्ठी लिख दी। अरे शाकंभट, मेरी जातिवालों के मन में संदेह निर्मित कर इस तरह मेरी माँ के शव की दुर्दशा मत करो। कुछ तो मानवता की बात सोचो। अभी मैं हजार मुद्राएँ कहाँ से लाऊँ! वह बात भूल जाओ। उसके बदले ये मेरे सोने के कड़े ले लो। और वह चिट्ठी दो मुझे। देखो, लोगों का आना शुरू भी हो गया है। कड़े लेकर वह चिट्ठी दे दो। हाँ, दो वह चिट्ठी। ये लो कड़े। लो, लो! दो, दो!

शाकंभट : (हँसते हुए) मेरे हाथों में जबरदस्ती कड़े पहना रहा है। क्यों न हो, मेरा सगा सौतेला भाई जो है। (एक-दूसरे को चीजें देते हैं।)

सुनास सेठ : (चिट्ठी हाथ में आते ही) जाओ, अब पल भी न रुको यहाँ।

शाकंभट : ऐसे ही खड़ा रहता हूँ। रोऊँगा नहीं। हँसूँगा, खड़ा रहूँगा।

सुनास सेठ : बिलकुल नहीं। यहाँ से निकल जाओ। अभी, इसी वक्त। जाते हो कि नहीं!

[शाकंभट हँसते हुए चला जाता है।]

सुनास सेठ : (स्वगत)नीच, गुंडा कहीं का! माँ का अंतिम संस्कार हो जाए, फिर देख लूँगा।

: सातवाँ दृश्य :

[बुद्ध,उनके शिष्य और सेनापति विक्रम बैठे हैं।]

बुद्ध : सेनापति विक्रमदेव, आप इस शाक्य राष्ट्र के सेनानी हैं। इस राष्ट्र के एकमात्र महान् ज्ञानी हैं। मैं यह भी जानता हूँ कि पूर्व वय में यज्ञ, दान, तप, साधना कर, योग युक्त चित्त से आचार में तत्त्वज्ञान के गूढ़ तत्त्वों के दर्शन कर आप सिद्ध पुरुष हो गए हैं। मेरे द्वारा प्राप्त आर्य सत्य की निधि को आपको दिखाने के विशेष उद्देश्य से मैं आपके पास आया हूँ। मैंने महान् धर्मचक्र का प्रवर्तन किया है। चाहता हूँ कि ध्रुवपद तक उसकी गति पहुँचाने में आप मेरी मदद करें। कपिलवस्तु आने का मेरा यही प्रमुख उद्देश्य था। मैं चाहता हूँ कि आप संन्यास की दीक्षा लेकर इस भिक्षुसंघ में समाविष्ट हों। यह संसार और स्वर्ग भी तृष्णा की आग में जल रहे हैं। ज्ञानी को चाहिए कि वह इसका त्याग कर दे। जंगल की आग से भागा प्राणी फिर उस आग में नहीं कूदेगा। रोगमुक्त हो जाने के बाद रोगी फिर से उसे गले नहीं लगाएगा। इसी तरह संसार की असारता जान लेने के बाद ज्ञानी का मन संसार में नहीं रमता। मेरी समझ में नहीं आता कि आप जैसा निष्काम ज्ञानी इस संसार में और उसमें भी घात-पात से दूषित सैनिक व्यवसाय में रह ही कैसे सकता है?

विक्रम : भगवन् उसी तरह, जैसे जन्म व्याधि, जरा, मृत्यु और अन्य दुःखों का अंत करनेवाले निर्वाण को प्राप्त करने के बाद भी आप इस देह में रह सकते हैं। मैं तथागत से पूछना चाहता हूँ कि क्या निर्वाण प्राप्ति के बाद, उस ज्ञान प्राप्ति और तृष्णा निवृत्ति के बाद यह भौतिक देह तत्काल पिघलकर मृगमरीचिका की तरह नष्ट होती है? अगर नहीं तो क्या उसे बलपूर्वक नष्ट करना, आत्महत्या कर देह की जंजीर को तत्काल तोड़ देना उचित है? नहीं है, तो मुक्त लोगों को, बुद्ध लोगों को देह धारण करना ही पड़ेगा। है न! अगर देहमुक्ति भी मरण की घड़ी तक संदेह ही बनी रहेगी तो ज्ञानी को भी देह धारण कर सांसारिक कर्म करते ही रहना पड़ेगा। उसमें भी आप जैसे महात्मा मुक्ति का आनंद उठाते हुए, दूसरों को चिरंतन सुख का लाभ देने के लिए यह उपदेश, प्रचार, शिष्यसंघ, वाद विवाद, मठ और मठपतित्व का बड़ा प्रपंच खड़ा करते हैं। वह क्यों?

बुद्ध : सेनापति, यह सच है कि निर्वाण प्राप्ति के बाद देह तत्काल नष्ट नहीं होती। आप पूछते हैं कि निर्वाण प्राप्ति के बाद बलपूर्वक देह त्याग करना ठीक है या नहीं। तथागत स्पष्ट रूप से कहते हैं कि बलपूर्वक देह त्याग करना एक नया कर्म होगा और वह पुनर्जन्म का कारण बनेगा। तथागत का लक्ष्य है जन्म-मृत्यु के पार हो जाना। इसलिए उन्होंने देह त्याग नहीं किया। पिछले कर्मों की देहगति अपने आप जब रुके, तब रुके! उसके लिए फिर कोई कर्म करने की आवश्यकता ही नहीं है। देहनाश तो दूर की बात है, तथागत को देहदंड भी मान्य नहीं। सुवर्ण पंथ है माध्यम पंथ। देह को निरोग और कार्यक्षम रखकर, उसे सदैव लोक कल्याण में लगाए रखना ही सच्चा दैहिक तप है। मुक्त की प्रिया दया ही है और उस दया से प्रेरित होकर दुःखार्त जनों पर निर्वाणामृत का शीतल सिंचन करते रहना ही संन्यासी की गृहस्थी है।

विक्रम : इसका अर्थ यही होता है कि संन्यासियों की भी गृहस्थी होती है। इसके कारण रूप में आपने पुनर्जन्म, जन्म, कर्म, कर्मफल आदि पारलौकिक सिद्धांतों का उल्लेख किया है। उस संबंध में जो चर्चा होगी वह मेरे प्रस्तुत उद्देश्य के लिए अप्रस्तुत है। अत: उसकी बात मैं छोड़ देता हूँ। जिन्हें निर्वाणपद आत्मप्रतीति और आत्मप्रसाद मिलता है उन्हें भी तत्काल देहनाश करना अनुचित लगता है अथवा जैसेकि आप जैसे महात्मा प्रतिपादित करते हैं, निर्वाण प्राप्ति के बाद भी सिद्ध संन्यासी देहयात्रा करते समय परोपकार प्रेरित गृहस्थी बसाते हैं। उनकी गृहस्थी बसाने के बारे में मेरा कोई आक्षेप नहीं। मैं तो सिर्फ उनकी गृहस्थी तथा देहयात्रा के ऐहिक हेतुओं की इस पहलू की और परिणामों की चर्चा करना चाहता हूँ। मुक्त व्यक्ति मठ में रहकर अशन-वसन, शयनादि व्यवहार करता है और बुद्ध उन्हीं व्यवहारों को घर में रहते हुए करता है। आपके विचार से उन दोनों के व्यवहार में यही अंतर है न कि पहला मठस्थ अनासक्ति से प्राप्तनिर्वाहार्थ और निरहंकारी परोपकारार्थ व्यवहार करता है जबकि गृहस्थ उन्हें इस तरह नहीं करता।

बुद्ध : हाँ-हाँ, ठीक कहा आपने!

विक्रम : अगर ऐसी ही अनासक्त बुद्धि से और परोपकार के लिए कोई ज्ञानी या सिद्ध महात्मा घर में रहकर ही ये व्यवहार करे तो फिर विदेहस्थिति की दृष्टि से मठस्थ और इस गृहस्थ में कोई अंतर नहीं रहा। क्यों, ठीक है न!

बुद्ध : मैं मानता हूँ कि देहमुक्त मठ की तरह घर में भी ऐसा व्यवहार कर सकता है। प्रलोभन तो मठ में भी होते हैं, पर घर में वे कुछ अधिक ही होते हैं।

विक्रम : पर प्रलोभनों का भय तो साधकों के लिए है, मुक्त या सिद्ध के लिए नहीं, क्योंकि जिसे प्रलोभन का डर है उसे हम साधक ही कहेंगे, सिद्ध नहीं और मुक्त केवल परोपकार के लिए, दुःखियों पर दया करने के लिए ही धर्मप्रसार का, लोकसेवा का कार्य करता है। अब प्रश्न यह है कि इस ऐहिक परोपकार के लिए क्या संन्यास दीक्षा ही अनिवार्य है? क्या वह गृहस्थ बने रहकर भी यह कार्य नहीं कर सकता? विदेह के संन्यासाश्रम में और गृहस्थाश्रम में केवल यही अंतर है, न कि संन्यासाश्रम में कामिनी, कृषि और कृपाण का बहुशः त्याग करना पड़ता है और गृहस्थाश्रम में उसे यह नहीं करना पड़ता? कृषि से भरण-पोषण के सारे व्यवसाय, कामिनी से संतानोत्पत्ति और कृपाण से समय आने पर शस्त्रयुद्ध में भाग लेना जाना जाता है।

बुद्ध : हाँ, जैसेकि आपने स्पष्ट किया, संन्यासी को कामिनी, कृषि और कृपाण के आत्यंतिक त्याग की प्रतिज्ञा करनी पड़ती है और यही गृहस्थाश्रम और संन्यासाश्रम का प्रमुख व्यावहारिक भेद है।

विक्रम : तो फिर तथागत, मेरा यह स्पष्ट मत है कि मुक्त भी परोपकार कार्य संन्यासाश्रम से कहीं और अधिक अच्छी तरह गृहस्थाश्रम में ही कर सकता है। केवल यही नहीं, आप पात्र-कुपात्र का विचार किए बिना ही भिक्षुसंघ में यह जो संन्यासियों की भरमार कर रहे हैं, उससे भी जग का उपकार नहीं वरन् अपकार ही होनेवाला है। कल आपने राहुल को, अपने उस आठ-नौ साल के बेटे को भी भिक्षुसंघ में शामिल कर लिया। जरा सोचिए, जिस छोटी जान को यह भी नहीं मालूम कि संसार क्या है और संन्यास क्या है, उसे भी औरों की तरह संन्यस्त भिक्षुसंघ में सम्मिलित कर लेने से कितना घोर अनर्थ होगा! इसी शाक्य राष्ट्र का उदाहरण लीजिए। स्वयं आप संन्यस्त हो गए। राजकुमार आनंद और देवदत्त को भी आपने संन्यास की दीक्षा दे दी। अंत में राजकुमार राहुल को, उस आठ साल के बच्चे को भी भिक्षुसंघ में लेकर आपने शाक्यों की आसन्नमरण राजवंश लता की आखिरी कली भी डाली से तोड़ डाली, इसी तरह सामंत वंश के भी सभी होनहार पुरुष संन्यस्त हो गए। इससे हुआ यह कि इस राष्ट्र की सद्गुणी और अभिजात बीज से उत्पन्न होनेवाली उत्तम संतति उत्पन्न होने से पहले ही नष्ट हो गई। और दुर्गुणी, निकृष्ट लोगों की संतति बिना रोक-टोक पैदा होती गई, बढ़ती गई। इस स्थिति में शाक्य जाति की वही दुर्दशा होनेवाली है जो उस किसान की फसल की होगी जो उत्तम बीज को चुन-चुनकर फेंक देता है और सड़े-गले बीज जमीन में बो देता है। आपकी पहली संन्यास धर्म व कामिनी त्याग की प्रतिज्ञा से एक ओर जहाँ अच्छी प्रजा का क्षय होगा वहीं दूसरी ओर आपके धर्मप्रसार के कारण सैकड़ों लोग अपने-अपने हल बैल छोड़कर, करघों-चरखों को तोड़कर, दुकानों को छोड़कर, दूसरों की मेहनत पर जिंदा रहनेवाले भिक्षुसंघ में आ जाएँगे, भिखमंगों की संख्या बढ़ाते रहेंगे, क्योंकि आपके धर्म की दूसरी प्रतिज्ञा कृषि त्याग जो ठहरी। दूसरा जी तोड़कर मेहनत करता रहे, संन्यास धर्म के अनुसार इसमें कोई पाप नहीं, पर स्वयं मेहनत करके खेती करना घोर पाप है, क्योंकि हल चलाने के कारण कई जीव-जंतु मरते हैं। सो खेती तो हिंसाप्रधान है। संन्यासी स्वयं पाप की ऐसी खेती नहीं करेगा, पर किसी दूसरे से यही पाप कराएगा। इस तरह के पाप का अनाज खाने से उसे कोई पाप नहीं लगेगा। अरे, इससे अच्छा तो यही है कि वह स्वयं खेती करे और इस तरह की खेती से उपजा अनाज आराम से खा ले। इस ढोंग और पाखंड से तो वह बच ही सकता है।

बुद्ध : सेनानी विक्रम, आपको नहीं लगता कि मेरे जैसे संन्यासी भी एक तरह का किसान ही है। देखिए, भवभ्रम का जंगल काटकर मैं चित्त का खेत ज्ञान रूपी हल से जोत देता हूँ। नीति-नियम मेरे हल का जुआ हैं और उद्यमशीलता उसका बैल। मैं सद्धर्म मतों के बीज बोता हूँ, सत्कर्म रूपी जल से उन्हें सींचता हूँ और उनसे दुःखों का अंत करनेवाली शाश्वत सुख की फसल आती है।

विक्रम : पर महाराज, संन्यासी संघ में आप जैसे सामाजिक सदाचार के शुभोपदेशों के अमृत फल उगानेवाले कितने लाक्षणिक किसान होंगे? संन्यासी संघ ही क्यों, पूरे जगत् में ही ऐसे कितने लाक्षणिक किसान होंगे? एक, दो या अधिक-से-अधिक तीन। अब इन इक्के-दुक्के सच्चे किसान के पीतपट के ध्वज तले ये जो सैकड़ों निरुद्योगी संन्यासी, भिक्षु, वैरागी आदि बाजारू लोग इकट्ठा होते हैं, उनके परिश्रम को तो राष्ट्र गँवाता ही है न! इससे राष्ट्र की आर्थिक स्थिति भी बिगड़ती है। घर-संसार छोड़कर संन्यासी-श्रमण बने एक-एक आदमी के पीछे समाज दो आदमियों के अर्थोपार्जन से हाथ धो बैठता है। एक तो उस संन्यस्त श्रमण के और दूसरे उसकी परवरिश करनेवाले श्रमिक के। प्रत्येक श्रमण मानो समाज के प्रत्येक उपयुक्त व्यवसाय पर लगा हुआ कर है। आप अपने संघ की ही बात लीजिए। आठ वर्षों की अवधि में उसमें सहस्त्राधिक लोग घुस गए हैं। अगर यह इसी तरह हजार वर्ष चलता रहा तो उनकी संख्या लाखों में हो जाएगी। और इन संन्यासियों की गृहस्थी के लिए भी क्या कुछ नहीं लगता? गृहस्थ की तरह रेशमी वस्त्र न सही, पर वस्त्र तो चाहिए ही। मंदिर नहीं, पर मठ तो चाहिए ही। विलास भवन न सही, विहार भवन तो चाहिए ही। लड्डू-पेड़े न सही, दाल-रोटी तो चाहिए ही। और फिर उन्हें खड़ाऊँ, चादर, वैद्य, ओषधियाँ, बरतन, चूल्हा-चौका, सभी कुछ तो चाहिए। और फिर जहाँ चार-छह आदमी इकट्ठा होंगे वहाँ लड़ाई-झगड़े भी तो शुरू होंगे। संघ के पक्ष-विपक्ष के लड़ाई-झगड़ों के कारण ही तथागत को कई बार उन उद्दंड भिक्षुओं को संघ छोड़कर चले जाने की धमकियाँ देनी पड़ी हैं। भगवन्, जिस परिवार में केवल एक भाई कमाता है और बाकी चार भाई निठल्ले बने उसकी कमाई खाते हैं, उस परिवार का टूटकर बिखरना निश्चित है। इसी तरह जिस समाज में लाखों लोग धनोत्पादन किए बिना ही औरों पर बोझ बने रहेंगे, वह समाज भी एक-न-एक दिन अवश्य डूबेगा। संन्यासाश्रम की दूसरी-कृषि संन्यास-प्रतिज्ञा का भी ऐसा ही व्यापक दुष्परिणाम होकर लोगों का कल्याण होने के स्थान पर उनका अहित ही होगा।

बुद्ध : परंतु सेनानी, भौतिक धन ही तो सच्चा धन नहीं है। हमारी विचारधारा का मूल तत्त्व है मनुष्य का पुरुषार्थ, ऐहिक उन्नति नहीं, वरन् पारलौकिक उन्नति है। आप हमारा मूल तत्त्व ही भुला रहे हैं।

विक्रम : न-न! आपने तो पहले ही मान्य किया है कि निर्वाण प्राप्ति में जो भी धर्माचरण अत्यावश्यक है, गृहस्थाश्रम में भी किया जा सकता है। अतः पारलौकिक हित, जो दोनों ही आश्रमों में समान है, उसे छोड़कर बचे हुए ऐहिक लाभालाभ की तुलना करना ही हमारा कर्तव्य है। संन्यासी की गृहस्थी के लिए भी गृहस्थ की गृहस्थी आवश्यक है। गृहस्थ चावल उगाएगा तभी तो यह 'अलख' कहकर भिक्षा माँग लेगा। अगर बुद्धि अनासक्त हो तो भीख माँगने में समय लगाना या खेती करने में समय लगाना एक जैसी ही बंधनकारक बात है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि आप जैसे मुक्त भी संन्यासाश्रम में विकृत प्रतिज्ञाओं की बेड़ियाँ न पहनकर प्रकृत परंपरा के अनुसार गार्हस्थ्य जीवन यापन करेंगे तो अधिक लोक कल्याण कर सकेंगे। फिर भी आप जैसी लोकोत्तर विभूतियों को छोड़ भी दें तो भी अन्य सब लोगों के लिए संन्यासाश्रम निषिद्ध माना जाना चाहिए। मैंने अभी-अभी सिद्ध कर दिखाया कि संन्यासी को कामिनी और कृषि त्याग की जो दो प्रतिज्ञाएँ लेनी पड़ती हैं उनसे राष्ट्र का प्रजा क्षय और धन क्षय होता है। राष्ट्र और समाज की इससे भी अधिक हानि संन्यासाश्रम की तीसरी प्रतिज्ञा-कृपाण त्याग-से होती है। आत्यंतिक अहिंसा के इस बुद्धिहीन तत्त्व से भविष्य में भी समाज की आत्यंतिक हानि होनेवाली है। भगवान्, यह आत्यंतिक अहिंसा नहीं अपितु आत्यंतिक आत्मनाश है और आत्मा का नाश भी हिंसा ही है। अतः आत्यंतिक अहिंसा अंततः आत्यंतिक हिंसा ही हो जाती है। अहिंसा की बुद्धिहीन व्याख्या का यही विचित्र तात्पर्य निकलता है।

बुद्ध : परंतु हम आत्यंतिक अहिंसा के पक्षपाती हैं ही नहीं। तथागत का मत है कि साधु की रक्षा के लिए आतंकवादी पर प्रत्याघात करना, उसका प्रतिकार करना हिंसा नहीं है अपितु हिंसा को नष्ट करनेवाला पुण्यकर्म है, पर यह कर्तव्य गृहस्थाश्रम का है, संन्यासाश्रम का नहीं।

विक्रम : इसीलिए तो मैं कहता हूँ कि जिस संन्यास में इस तरह न्याय का संरक्षण करनेवाला कृपाण से आत्यंतिक संन्यास लेना पड़ता है, वह विमुक्त द्वार संन्यासाश्रम ही किसी भी राष्ट्र पर आन पड़नेवाली सबसे बड़ी आपदा है। जिस राष्ट्र के लोग, हल नहीं चलाना है, शस्त्र को नहीं छूना है, ऐसी प्रतिज्ञाएँ लेकर मठों में पड़े रहते हैं, वह संन्यासप्रवण राष्ट्र आज या कल, अत्र-अत्र करके जरूर छटपटाने लगेगा, दुर्बल हो जाएगा और कोई भी संसारप्रवण आक्रामक राष्ट्र व्याघ्र की तरह उसपर कूदकर उसकी धज्जियाँ उड़ा देगा। इस तरह संन्यासप्रवणता का पुरस्कार करने से आप जिस लोककल्याण के लिए, इस मुक्तावस्था में भी धर्मचक्र प्रवर्तन का, संघ नियोजन का कार्य रह रहे हैं, वह संसारी जगत् भी विनष्ट हो जाएगा और आपकी यह महान् धर्मसंस्था, ये संघ, ये लाखों भिक्षुगण, यह ध्यानधारणा, ये तपोवन, यह पूरा संन्यासी जगत् ही क्रूर जंगली श्वापद और उससे भी क्रूरतर राक्षसों के रक्त रंजित हाथों से शतशः विदीर्ण हो जाएगा।

बुद्ध : पर सेनापति, संन्यासी के हाथ में भी एक कृपाण होता है। एक शस्त्र होता है। भले ही वह लोहे का न हो। और वह लोहे का नहीं है, इसीलिए वह लोहे से भी अधिक परिणामकारक है। संन्यासी के उस शस्त्र का नाम है क्षमा। विक्रम, 'क्षमा शस्त्रं करे यस्य, शत्रुस्तस्य करोति किम्?'

विक्रम : किम्? वधः। प्राणनाशः। जिसमें दंड देने की सामर्थ्य न हो, उस दुर्बल की क्षमा को शरणागति कहते हैं, क्षमा नहीं। भूखे, रक्त के प्यासे बाघ के सामने गाय मारे डर के धम से बैठ जाती है। अगर वह क्षमाशस्त्र रखती हो तो भी क्या वह बाघ उस शस्त्र के डर से उसे छोड़ देगा? वह गाय उसे क्षमा करने की बात करेगी तो भी बाघ उसे खा डालेगा और अगर वह शरणागति की बात करेगी तो भी वह उसे खाने से नहीं चूकेगा। कोई भी राष्ट्र यह पागल आशा नहीं कर सकता कि दुष्ट शत्रु क्षमा करने भर से उसे छोड़ देगा। अगर वह ऐसी गलती करेगा तो दुष्ट शत्रु इसी को अपमान समझ क्रोधित होकर मौका मिलते ही उसे तहस-नहस कर डालेगा। इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं और भविष्य में भी यही होनेवाला है। हमारा शाक्य राष्ट्र एक तरफ कोसलों के राजसत्तात्मक राष्ट्र से तो दूसरी तरफ मगधों के राजसत्तात्मक राज्य से घिरा है। जिस क्षण शाक्य राष्ट्र थोड़ा भी दुर्बल हो जाएगा, इन दोनों में से कोई एक गिद्ध उसे दबोच लेगा। ऐसी स्थिति में इस राष्ट्र के लोगों के सामने शस्त्र को न छूना उत्कृष्ट जीवन है, परम नीति है, बुद्ध की कृपा पाने का पवित्र मार्ग है, ऐसा विकृत लक्ष्य रखना मेरे विचार में आत्मघात कर लेना है।

बुद्ध : आपका यह भय तब सत्य होता जब मैं केवल शाक्य राष्ट्र को ही संन्यासप्रवण और युद्ध विमुख करता, पर आपने जिन दो आक्रामक राज्यों की बात उठाई है, उन्हें भी मैं युद्ध विमुख कर रहा हूँ बल्कि वे वैसे हो भी गए हैं। मनुष्य केवल श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए पाशवी शक्ति की होड़ लगाए और उसमें बाकी मनुष्यों को गाजर मूली की तरह तलवार से खचाखच काटता जाए, यह तो लज्जास्पद बात है न! इससे तो अच्छा है कि मानव जाति के सभी राष्ट्र इस लज्जास्पद रक्तपिपासा को छोड़ मेरे प्रेम, दया, क्षमा, शांति के अत्युदार तत्त्वों पर आधारित धर्म को स्वीकार करें। फिर किसी अकेले व्यक्ति या राष्ट्र को भयभीत होने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। देखिए न, तथागत को इस संघ की स्थापना किए अभी दस वर्ष भी नहीं हुए हैं, पर इतने में ही हम शाक्यों को जिनके आक्रमण का अत्यधिक भय है, उन कोसलराज प्रद्योत और मगधराज बिंबिसार ने तथागत बुद्ध के धर्म की दीक्षा भी ले ली है। अब वे हमारे शिष्य हैं। विक्रमजी, आप शाक्य राष्ट्र के सर्वशक्तिमान सेनापति हैं। अगर आप भी मेरा शिष्यत्व ही नहीं अपितु भिक्षुत्व भी स्वीकारेंगे और मेरे साथ इस दया मूलक धर्म का प्रसार करने चलेंगे तो इन सभी राष्ट्रों को मेरे उपदेश में और अधिक विश्वास होगा। उन्हें युद्ध अनावश्यक ही नहीं वरन् घृणास्पद भी लगेगा। इस तरह आप मानवभूमि से युद्ध को हटाने के महद्पुण्य के भागीदार बनेंगे। विक्रम, इस जगत् से युद्ध को, कलह को उखाड़ फेंकना हमारा लक्ष्य है। क्या यह लक्ष्य प्रयत्नों की, त्याग की पराकाष्ठा करने के योग्य नहीं है?

विक्रम : भगवन्, इसमें कोई संदेह नहीं कि यह एक महान् लक्ष्य है, पर संभव है और आपके बताए साधनों से संभव है, इस बारे में मुझे बड़ा भारी संदेह है।

बुद्ध : सेनापति, इस संदेह के बारे में मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ कि आप मेरे विचारों में श्रद्धा रखें। अगर आप मेरी सहायता करेंगे तो बीस-पच्चीस वर्षों में कम-से-कम भारत में आप शस्त्रयुद्ध की समाप्ति अवश्य देखेंगे। आप देखेंगे कि भारतवर्ष में शस्त्रों का युग समाप्त होकर शांति का युग स्थापित हो गया है।

विक्रम : ईश्वर करे, ऐसा ही हो। मनुष्य का संहार करनेवाला मनुष्य ही मनुष्य जाति का भयंकर शत्रु है। मनुष्य जाति पर लगा यह कलंक जितनी जल्दी हो सके धुल जाए और शांति का साम्राज्य स्थापित करने का सम्मान हमारे शाक्यसिंह तथागत बुद्ध को ही मिले। पर सज्जनो, मैं बड़े दु:ख के साथ, पर स्पष्टता से अपना यह भय प्रकट करना चाहता हूँ कि आज से पच्चीस ही नहीं पच्चीस सौ वर्षों के बाद भी इस जगत् में, जगत् के दुर्भाग्य से शस्त्रयुग का ही प्राबल्य दिखाई देगा। यहाँ तब भी 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' जैसा न्याय ही चलेगा। रक्तरंजित साम्राज्यों का विजयाश्व ही दौड़ता रहेगा और उसकी टापों के नीचे वे ही सर्वप्रथम और सबसे अधिक कुचले जाएँगे जो इस शांति युग की स्वप्नवाणी को भविष्यवाणी समझ तथा उसमें विश्वास कर सर्वप्रथम शस्त्र संन्यास करेंगे और दूसरों की दया पर निर्भर रहने जितने दुर्बल बन जाएँगे। अहिंसा के आमिष के कारण हिंसा के काँटे को ही निगल लेंगे। हर किसीको संन्यासाश्रम देना तथा इस तरह लाखों लोगों को शस्त्र संन्यास की प्रतिज्ञा से हतवीर्य करना एक बड़ी भारी भूल है और इस भयंकर भूल के भीषण परिणाम भारतवर्ष की अगली पच्चीस पीढ़ियों तक को भुगतने पड़ेंगे। तथापि अगली पीढ़ियों को यह भूल से भी न लगे कि भगवान् बुद्ध जैसे अलौकिक पुरुष को उसके पुण्य कार्य में सहायता नहीं मिली, इसलिए मैं तथागत की इच्छा का अनुसरण करता हूँ। मैं आज से इस भिक्षुसंघ में सम्मिलित होता हूँ। (कमर से कृपाण निकालकर) शाक्यों की सेवा में अर्पित मेरा यह कृपाण और मेरा इकलौता पुत्र वल्लभ, दोनों ही को मैं शाक्य जाति को सौंपकर परिव्राजक धर्म को स्वीकारता हूँ।

बुद्ध : सेनापति, देवता भी इस बात की हामी भरेंगे कि लोक कल्याण हेतु किया आपका त्याग प्रशंसनीय है। देखिए, मानव जाति के इतिहास में अगर इतना भी उल्लेख हो जाए कि शांति, दया और प्रेम का साम्राज्य स्थापित करने के लिए हमने हर संभव प्रयत्न किया तो भी हमारा कार्य सार्थक हुआ। हमारा यह प्रयोग सफल होता है या नहीं, इसका अनुभव मानव जाति को हो जाए तो भी हमारा प्रयोग निष्फल नहीं हुआ। चलिए शारिपुत्र, इन माननीय नवागत को संघागार में ले जाकर इन्हें संघदीक्षा दीजिए।

गीत

आज शस्त्र युग का अंत है-शांति युग का है प्रभात॥ध्रु.॥

दंड जिससे छीन ले, दया उसी को लौट दे।

त्याग न चाहे किसी से कुछ। कलह चले अब बुझ॥

[सब लोग 'बुद्धं शरणं गच्छामि, धर्मं शरणं गच्छामि, संघ शरणं गच्छामि' गाते जाते हैं।]


दूसरा अंक

: पहला दृश्य :

सुनास सेठ : (खुशी से ताली बजाकर) मर गई। आखिर शाकंभट की पत्नी मर गई। जब से वह हैजे से बीमार थी, मैं उसके मरने की प्रतीक्षा ही कर रहा था। मेरी माँ की मृत्यु पर इसी शाकंभट ने ऐसा चक्कर चलाया था कि उसके शव को उठाने के लिए भी कोई तैयार न हो। इसके लिए उसने मेरी माँ पर असत्य आरोप भी लगाया। उसी शाकंभट से बदला लेने का अवसर मिला है मुझे आज। अब उसका दाँव उसीपर आजमाता हूँ। माँ की अपकीर्ति और जाति बहिष्कार के भय से मैंने तब इसे अपने सोने के कड़े दिए थे। अब मैं उससे न केवल वे कड़े वापस लूँगा, वरन् उसके घर की कुर्की भी कराऊँगा। अभी चिल्लाना शुरू करता हूँ कि उसकी पत्नी क्षारा से मेरा प्रणय संबंध था और उसके प्रेमी के नाते उसकी चिता में अग्नि देने का अधिकार मेरा है। शाकंभटजी, जैसा करोगे, वैसा भरोगे।

[भीतरवाला परदा उठता है। भीतर शाकंभट क्षारा के शव के पास खड़ा है।]

शाकंभट : अंत में मर-खप गई। क्या पत्नी थी! आजीवन मुझसे लड़ती रही। और मरी भी ऐसे अचानक कि किसी दूसरे को ही क्यों, मुझे भी संदेह हो कि कहीं मैंने उसे विष तो नहीं दिया! सचमुच पतिव्रता थी। उससे विवाह करने का दंड ऐसे अचानक मरकर-उसने मुझे दिया। ये आ गईं उसकी पास-पड़ोस की सखियाँ। किसी जानवर के मरते ही जैसे उसके आसपास गिद्ध-चीलों के झुंड मँडराते इकट्ठा होते हैं वैसे ही ये नाते-रिश्तेदार कौन कब मरता है, इसकी राह देखते रहते हैं। बाकी किसी गैर के घर कोई मर जाए तो वह मजा देखने लायक होता है। अगर मुझे किसी दरिद्र के घर की बारात का आमंत्रण और किसी धनिक के घर की शवयात्रा का समाचार एक ही समय मिले तो मैं पहले उस धनिक के मृतक को देखने जाऊँगा। वह शव का स्नान, उसके बेटे-बेटियों का दहाड़ मारकर रोना, वह लोगों का डरते-सहमते हुए भी बार-बार शव दर्शन करना, बारी-बारी आँसू बहाना, प्रेत का साज-श्रृंगार करना। साज- श्रृंगार के बाद कई स्त्रियों के शव भी जीवित स्त्रियों से अधिक अच्छे दिखते हैं। कम-से-कम हमारी इस लंकासंदरी से तो वे गोरी-प्रसन्न ही दिखती हैं। कभी-कभी प्रेत यात्राएँ भी एकादशी यात्रा से अधिक सुंदर दिखती हैं। और फिर वह चिता की आग का भड़क उठना। वाह! कई लोगों ने अनुभव किया होगा कि ऐसे में हम घर-बार की सुध भूल जाते हैं। सचमुच, मनुष्य उत्सवप्रिय है। चाहे वह किसीकी मृत्यु का उत्सव ही क्यों न हो। किसी और की तो छोड़िए, जब हमारे घर में कोई मरता है तो शोक के सचमुच के आवेग के साथ-साथ वहाँ इकट्ठा लोगों पर हमारे रोने की क्या प्रतिक्रिया हो रही है, उन्हें भी रोना आ रहा है या नहीं, हमारा रोना फलानी स्त्री देखे तो कितना अच्छा हो आदि कई तरह के विचार मन में आते हैं। मुझे तो अपना प्रेत देखने का भी विचित्र शौक है। आ ही गईं ये स्त्रियाँ। अब कठिनाई में फँस गया। रोना भी नहीं आ रहा। अगर आज छाती पीटकर नहीं रोया तो लोग क्या कहेंगे! इकलौते पति की मौत पर स्त्रियाँ छाती पीट-पीटकर रोती हैं। इकलौती पत्नी की मौत पर मुझे भी तो वैसे ही रोना चाहिए। पर क्या करूँ, रो ही नहीं पा रहा हूँ। कैसी लज्जा की बात है! प्रेत संस्कार का शास्त्रोक्त आरंभ करने के लिए ही सही, पर अब मुझे गला फाड़कर रोना ही पड़ेगा। (रोने लगता है, तभी स्त्रियाँ आ जाती हैं। शाकंभट अपने आपसे बोलता है।) अरे वाह! रोते-रोते सचमुच ही रोना आने लगा है।

स्त्रियाँ : (एक-एक स्त्री एक-एक वाक्य बोलती है।) पुरोहितजी, अब मन पर काबू पा लीजिए। सुहागन मरी है। अच्छा ही हुआ उसका। क्या स्वभाव था उसका। अहा हा! चुप हो जाइए, पुरोहितजी, अन्यथा हमें भी रोना आ जाएगा! देखिए ये बच्चे¨¨कच्चे¨¨!

शाकंभट : स्त्रियो, बच्चों के बारे में कुछ न कहिए। प्रेतविधि के यह वाक्य यहाँ अनुपयोगी हैं; क्योंकि इसके कोई बाल-बच्चे नहीं थे। हाँ, आप यह कह सकती हैं कि पुरोहितजी, यही जग की रीति है। शोक न कीजिए। आपमें से कोई एक यह कह दे, मैं तुरंत अपने शोक पर नियंत्रण कर लूँगा। (फिर से रोने लगता है।)

स्त्रियाँ : (बारी-बारी से) पुरोहितजी, जग की रीति के अनुसार आप अपना शोक रोकिए। सुनास सेठ की तो माँ मर गई थी, पर हमारे कहने पर उन्होंने भी रोना बंद कर दिया। वैसे वे इतना अधिक रोए भी नहीं थे। पर आप तो¨¨

शाकंभट : बहनो, आपके याद दिलाने पर मुझे और अधिक रोना आ रहा है। सुनास सेठ को सांत्वना देते हुए आप सबने कहा था कि 'आप हम ही को माँ मान लीजिए। हम भी आपसे उसी तरह का व्यवहार करेंगी।' तब कहीं सेठजी ने रोना बंद किया था। आज मेरी पत्नी गुजर गई है, पर आपके मुँह से यह नहीं निकलता कि 'शाकंभट आपकी एक पत्नी मर गई तो क्या (रोता है) हम यहाँ इतनी हैं। हममें से किसीको भी आप क्षारा की जगह मान लीजिए।'

सुनास सेठ : (प्रवेश कर , रोते-रोते) कहाँ है, मेरी प्रियतमा? हाय! मेरी प्रिया क्षारा, मुझे छोड़कर चली गई। मुझे उसका आखिरी आलिंगन लेने दीजिए।

शाकंभट : अरे लुच्चे, क्या कह रहे हो? (स्वगत) यह तो मेरा दाँव मुझ ही पर आजमाना चाहता है। अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे। क्या करूँ? अब रोकर क्या होगा? बहादुरी से सामना करना पड़ेगा। (जोर से) सुनिए सेठजी, जरा इधर तो आइए।

सुनास सेठ : पुरोहित के बच्चे, कैसे पकड़ा तुझे! अब तेरे भी नाते-रिश्तेदार आएँगे। उनके सामने हो-हल्ला मचाऊँगा। अगर तू यह सब नहीं चाहता तो चुपचाप मेरे सोने के कड़े वापस दे दे और यह मकान भी मेरे नाम कर दे।

शाकंभट : क्या बात करते हैं, सेठजी। कड़ों की बात भूल जाइए। मैंने गलती की थी। मुझे क्षमा कीजिए। अरे, आखिर मानवता भी कोई चीज है!

सुनास सेठ : मानवता! हुँह, वह जल गई मेरी माता की चिता के साथ। अब चुपके से मेरे कड़े निकाल दे और यह मकान भी मेरे नाम कर दे। देख तेरी बिरादरीवाले आ गए। अब चिल्लाऊँ या¨¨ (लोग आते हैं।)

शाकंभट : नहीं मानता तेरी बात। तेरे जी में जो आए वह कर ले।

सुनास सेठ : (रोता-चिल्लाता है) लोगो, मुझे पागल कहिए या पापी, पर मैं शोक के मारे सचमुच ही पगला गया हूँ। क्षारा, मेरी प्रिया! आठ वर्षों से हमारा संबंध था। मेरी नाक उसे बहुत पसंद थी। हम दोनों एक-दूसरे से बहुत प्यार करते थे, पर चुपके-चुपके। मुझे उसका अंतिम आलिंगन लेने दीजिए। उसके शव के साथ मैं भी सहगमन करूँगा। छोड़िए, छोड़िए मुझे।

लोग : शाकंभट क्या कह रहा है यह? पूरे कुल को ही कलंक लगा रहा है। अगर इसका कहना सच है तो जाति को इस बारे में सोचना पड़ेगा।

शाकंभट : सोचने दीजिए जाति को। वैसे भी यह मेरा नहीं, मरे प्रेत की जात का मामला है। क्यों रे सुनास! तुझे शव का अंतिम आलिंगन लेना है न! सहगमन करना है न! तो फिर चल (अँगरखे की आस्तीने ऊपर कर) हाँ, इसे भी बाँध दीजिए अरथी के साथ! लाइए, उस शव को! (लोग शव को लाते हैं।)

सुनास सेठ : (चौंककर) आँ! पुरोहितजी, आपने तो कमाल कर दिया! कुछ तो समझदारी की बात कीजिए। यह क्या कि इतने आनन-फानन निर्णय ले लिया।

शाकंभट : पागल कहीं का! अरे इतना प्यार था तुम दोनों में! अब उसमें समझदारी की जगह ही कहाँ है? अगर तुमने उसके साथ सहगमन नहीं किया तो उसकी आत्मा तड़पेगी! चलिए, इसे भी बाँध दीजिए शव के साथ।

लोग : अरे-अरे, यह तो भ्रष्टाचार है! यह प्रेत नहीं चलेगा।

शाकंभट : यह प्रेत इसके साथ चलेगा। मैं कंधा दूंगा।

[सेठजी को खींचकर शव के पास ले जाता है।]

सुनास सेठ : अरे, बाप रे! इस प्रेत को देखकर तो पसीना आ रहा है। इसके साथ मुझे एक क्षण भी लिटाया जाए तो मैं मारे डर के ही सचमुच मर जाऊँगा। (शाकंभट के कान में) मुझे सिर्फ दस रुपए दे दो। मैं चुपचाप चला जाऊँगा।

शाकंभट : नहीं-नहीं, आज मैं तुझे जाने न दूँगा। तुझे इससे प्यार था न!

सुनास सेठ : पर आपने उसका गलत अर्थ लगाया। भगवान् की सौगंध, तेरी पत्नी, मेरे पुरोहित की पत्नी मेरे लिए अपनी भाभी या बहू जैसी है।

लोग : धूर्त कहीं का! बाँध दीजिए इसे भी! तुम्हें उसके साथ सहगमन करना था न! यही कहा था न तुमने!

सुनास सेठ : यह कहा था मैंने, पर उसका मतलब था आपके साथ उसकी शवयात्रा में जाना है। यही तो सहगमन होता है। आपने तो¨¨अरे बाप रे! छोड़ दीजिए मुझे!

शाकंभट : ऐसे ही नहीं छोड़ेंगा तुझे। उसके साथ ले जाकर उसकी चिता पर रखूँगा। तुझपर तेल उड़ेलूँगा। आग की लपटें उठेंगी। उसमें तू भाड़ में डाले चने की तरह भुन उठेगा। तड़के में डाले सरसों की तरह तेरे रक्त-मांस की बूँदें चटखेंगी।

सुनास सेठ : (उसके हर वाक्य में मानो सचमुच जलने लगा हो) हाय, हाय! मैं जल गया। मैं मर गया। मेरे भाई, मेरे बाप, मेरी माँ, छोड़ दे मुझे! तू जो भी कहेगा, मैं मान लूँगा, पर मुझे छोड़ दे।

शाकंभट : तो निकाल अपने ये सोने के नए कड़े। इन सबसे क्षमा माँग ले। अपने आपको तमाचा जड़ ले। अपने कान पकड़ ले। हाँ, अब जा यहाँ से। मेरा दाँव मुझ ही पर आजमाता है। यह जान ले कि जेनो काम तेनो ठाए, दूजो करे सो गौना खाए! अब जा, निकल जा यहाँ से, पर हाँ, कान पकड़े रख।

: दूसरा दृश्य :

[सुलोचना और वल्लभ महल में बैठे हैं।]

सुलोचना : मेरे वल्लभ, मैंने आपका नाम नहीं लिया है। मेरे पतिदेव, मेरे प्रियकर जैसा ही मेरे वल्लभ भी एक विशेषण है! मैं भी उसी अर्थ से 'मेरे वल्लभ' कह रही हूँ। आपके नाम के अर्थ में नहीं। वह तो पति का नाम न लेने की मर्यादा का भंग होना होगा। मेरे वल्लभ कहने में अगर दोष होगा तो आपके माता-पिता का, जिन्होंने भाषा का एक प्रिय विशेषण मुझसे छीनकर और मुझे दुविधा में डालनेवाले शब्द पर आपका नाम रखा। आपकी लाड़ली अंगना ने जान-बूझकर किसी मर्यादा को भंग नहीं किया। तो प्रिय, क्या मैं आपको वल्लभ कहूँ?

वल्लभ : कह दो, सुलोचना! पर मैंने भी तुम्हें सुलोचना इसलिए नहीं कहा कि मुझे तुम्हारा नाम लेना था। वह तो मैंने इन सुंदर आँखों की स्तुति में एक विशेषण में कहा है। नहीं तो कहोगी कि पत्नी का नाम न लेने के पुरुषों के शिष्टाचार का मैंने उल्लंघन किया। अगर तुम्हें दोष देना ही है तो अपने माता-पिता को दो जिन्होंने तुम्हारा नाम सुलोचना रखा। इस नाम के कारण हम जैसे गुणग्राही प्रेमी तुम्हारे लोचनों की स्तुति ही नहीं कर सकते।

सुलोचना : जाइए जी, इस तरह शब्दों के जाल में न पकड़िए मुझे। लगता है कि पुरुष मौलिक स्वतंत्र विनोद कर ही नहीं सकते। तभी तो हमारी ही बात हमीं पर उलटी जा रही है। इस तरह हमारी उक्ति न चुराइए।

वल्लभ : अगर आज हमने आपकी उक्ति चुराई है तो आप हमारा मन सौ-सौ बार चुराकर उसका बदला भी तो लेती हैं। क्यों, हिसाब बराबर हुआ न!

सुलोचना : लगता है, इसीलिए आजकल आप हमारी तरफ ध्यान नहीं देते। वल्लभ, सचमुच ही जबसे आप शाक्य राष्ट्र के सेनापति पद पर नियुक्त हुए हैं, हमारी तरफ आपका ध्यान कम हो गया है। कल से देख रही थी कि हमारे प्रीति-संगम का यह पहला वर्ष-दिन आपके ध्यान में आता है या नहीं। प्राणप्रिय, अब तो स्मरण आया? हमारे प्रीति विवाह की आज पहली वर्षगांठ है। इसलिए मैं चाहती हूँ कि आज कामदेव की पूजा की जाए। आपकी अनुमति है न!

स्वर्ग जिसने था बचाया नमन उस कामदेव का।

बल से जिसके अंगना नारी विजयी हुई, होऽऽऽ

अंबिका के ताल पर शिवशंभु जिसने नचाया होऽऽऽ

बम-बम भोला, शंभु, बम-बम भोला॥

वल्लभ : पर मैं कहता हूँ, कामदेव के बल से ललनाएँ अगर इतनी बलशाली हो गई हैं तो अबला की तरह तुम उसकी पूजा के लिए मेरी अनुमति क्यों माँग रही हो?

सुलोचना : अब आप शाक्य राष्ट्र के सेनापति हो गए हैं, इसीलिए। आपके पद का थोड़ा मान रखना चाहिए न! अतः शिष्टाचारवश आपसे अनुमति माँगी। बात बस इतनी सी है। और फिर आपके हृदय पर मेरी पहली जैसी अनन्य सामान्य सत्ता भी तो नहीं रही। जैसे ही वीर पुरुष की कटि से असिलता बँध जाती है, हम अंगनाओं की तनुलता की पकड़ उसपर से ढीली हो जाती है। पता नहीं यह मेरी सौतन मुझसे कब ईर्ष्या करने लग जाए। इसलिए सोचा कि आप दोनों से अनुमति लेकर अपनी चाह पूरी कर लूँ। तो फिर हमारे प्रीति-संगम की वर्षगाँठ के मंगल मुहूर्त पर कामदेव की पूजा कर लूँ?

वल्लभ : सखी, सचमुच ही हमारे प्रीति-संगम की वर्षगाँठ है आज! कितनी खुशी की बात है, पर प्रीति विवाह की वर्षगाँठ क्या केवल कामदेव की पूजा करने से ही मनाई जाती है! यह तो हमारे कुल की परंपरा है, पर सखी सुलोचना, प्रीति-संगम की वर्षगाँठ सही माने में दोहदपूर्ति से ही मनती है। प्रियतमा, बोलो, मेरे वंश को उदर में धारण कर तुम्हें क्या-क्या खाने की इच्छा हो रही है? अब सचमुच ही हमारा प्रेम बढ़ रहा है। पहले हमारा परिवार दुहरा था, अब तिहरा हो रहा है।

सुलोचना : देखा, यह रहा पुरुषों का फूहड़ विनोद! मुझे नहीं सुहाता ऐसा विनोद। आज अगर ससुरजी यहाँ होते¨¨

वल्लभ : तो फिर तुम्हें देखते भी न। स्मरण तो होगा ही तुम्हें कि तुम्हारे ससुरजी प्रख्यात संन्यासी हैं। और संन्यासी स्त्रियों को स्मरण करना भी पाप समझते हैं। अत: यह आशा न करना कि वे स्त्रियों के पक्षधर होते।

सुलोचना : पर मेरे ससुरजी, ऐसे औघड़ संन्यासी थोड़े न होंगे! अगर होते तो उनके आप जैसा, दासियों के हाथ मुझ जैसी उपवर कुमारिका के पास गुप्त प्रणय पत्रिका पहुँचाकर, उनके हाथों मेरा मन चुराने वाला प्रणय तस्कर बेटा न होता। वह पत्र ही मेरा साक्षी पत्र है।

वल्लभ : और यह है मेरा साक्षी पत्र। (पत्र दिखाकर) देखो, यह रहा तुम्हारे ससुरजी का अर्थात् मेरे पिताजी का पत्र। आज ही मिला है। इतने दिनों बाद पिताजी का पत्र पाकर मुझे इतनी प्रसन्नता हुई है कि बता नहीं सकता। सुलोचना, मेरे पिता, सेनापति विक्रमसिंह, इस शाक्य राष्ट्र के धुरंधर सेनानी थे। उन्हें भगवान् बुद्ध के अत्याग्रह के कारण भिक्षुसंघ में प्रविष्ट होना पड़ा। उस बात को आज चालीस वर्ष हो गए। तुमने सुना ही होगा कि उस समय मैं केवल डेढ़-दो साल का था। तब से आज तक, मेरे विचार से पिताजी के केवल दो पत्र आए हैं। पहला लगभग दस साल पहले, जब मेरी वत्सल माँ चल बसी थी, तब मुझे सांत्वना देने के लिए और दूसरा, यह आज का, मेरा अभिनंदन करनेवाला।

सुलोचना : अभिनंदन! कैसा अभिनंदन? क्या उन्हें हमारे प्रीति विवाह के बारे में पता चल गया? प्राणनाथ, बताइए न, वे गुस्सा तो न हुए इससे? तपोनिष्ठ संन्यासी का, वह भी हम स्त्रियों को आँखें दिखानेवाले भगवान् बुद्ध के भिक्षु का नाम लेते हम स्त्रियों को डर लगने लगता है। स्त्रियों के विरोध का साक्षी पत्र बनाकर आप उसे हँसी-हँसी में ही दिखा रहे हैं न! या सचमुच ही कोई विरोधी बात है उसमें? कहिए न, नाथ, किसका अभिनंदन किया है उस पत्र में?

वल्लभ : मेरा अभिनंदन किया है। चालीस वर्ष पहले पिताजी ने शाक्यों के सेनापतित्व का कृपाण नीचे रख दिया था। आज मुझे, उनके वंशज को फिर से सेनापति बनाकर शाक्य राष्ट्र ने वही उन्हें वापस लौटाया है। इसलिए पिताजी ने मेरा अभिनंदन किया है। मैंने तुमसे विवाह किया, इसलिए¨¨

सुलोचना : इसलिए क्या किया उन्होंने? वे क्रोधित हुए? कह दीजिए न! पर मुझे विश्वास है, वे मुझसे क्रोधित नहीं होंगे। होंगे तो भी मैं उनके पाँव पकड़कर उन्हें मनाऊँगी। दिखाइए न वह पत्र! जाइए, नहीं देना है तो न दीजिए। (रूठकर जाने लगती है।)

वल्लभ : ऐ पगली, सुन तो सही। वे सचमुच ही क्रोधित नहीं हुए। उलटे सुनकर कि मेरी कांता देवी यशोधरा के कुल की है¨¨

सुलोचना : नहीं, ऐसे नहीं। पत्र दिखाइए। मैं नहीं विश्वास करती आपकी कही-सुनी बात का। दिखाइए न! देखिए, फिर आऊँगी माँगने।

वल्लभ : विवाह की वर्षगाँठ का यह पहला दोहद। आपके लड़ाकू दोहद से यही लगता है कि बेटा झगड़ालू होगा-माँ जैसा। सुलोचना, सुनो तो सही। नहीं, फिर नहीं करूँगा ऐसी गलती। बेटा बाप की तरह झगड़ालू होगा। अब तो खुश! नहीं, तो फिर बेटा नहीं, बेटी ही होगी। यह लो पत्र।

सुलोचना : दीजिए। अच्छा, हम दोनों मिलकर पढ़ेंगे। नहीं जी। आप ही पढ़िए। पढ़िए न!

वल्लभ : अच्छा-अच्छा, पढ़ता हूँ, पढ़ता हूँ। (पत्र खोलकर पढ़ने लगता है।) मेरे पुत्र वल्लभ, अभी-अभी समाचार मिला है कि शाक्य प्रजा के, शाक्य प्रजासत्तात्मक राष्ट्र के नागरिकों ने तुम्हें सेनापति पद अर्पण किया है। इसके लिए मैं तुम्हारा और कोलियनों के प्रख्यात कुल में जन्मी तुम्हारी वधू का अभिनंदन करता हूँ। वैसे कामिनी और कृपाण का पाणिग्रहण संन्यासी लोग तामसी और निषिद्ध मानते हैं। अधिक-से-अधिक उसे क्षम्य मानते हैं। पर उत्तेजनार्ह कतई नहीं। इसलिए तुम दोनों को ही लगेगा कि तुम्हारी यह कृति तुम्हारे संन्यस्त पिता को समर्थनीय नहीं लगेगी, पर वल्लभ, तुम्हारा दांपत्य जीवन और सेनापति पद की प्राप्ति मुझे अभिनंदन योग्य ही लगती है। यह अभिनंदनपरक आशीर्वाद पत्र इसलिए भेज रहा हूँ ताकि यह बात तुम और शाक्य राष्ट्र के अन्य युवक जान लें।

सुलोचना : (लंबी साँस लेकर) नाथ, पतिदेव, अब मेरे मन को शांति मिली। कितने सहृदय हैं मेरे ससुर। मुझे बिना देखे ही, मेरे बारे में कितनी वत्सलता जताई है उन्होंने! अच्छा, आगे पढ़िए न!

वल्लभ : इसके आगे का भाग बड़ा गंभीर है।

सुलोचना : फिर आप भी उसे गहन गंभीर होकर पढ़िए। (मुँह बनाकर दिखाती है।)

वल्लभ : वही तो नहीं कर सकता। समुंदर के पानी को मुँह में भरकर उसे मीठा समझा जा सकता है, पर स्त्रियों के सामने खड़े होकर गंभीर नहीं रहा जा सकता। कम-से-कम तुम्हारे सामने तो मैं गंभीर हो ही नहीं सकता। बरबस मैं मुसकराने लगता हूँ।

धुन-ब्रिजपत प्रभुदीन

नारी विधि ने है बनाई, जग में हँसी फैलाने ॥ध्रु.॥

मिर्च नैनों में जले, फिर भी रुलाई रोक सके।

पर देख नारी, हँसी को रोकना, मुश्किल पड़े।

बहुत मुश्किल पड़े।

सुलोचना : हाँ-हाँ, मैं हूँ ही हँसी के लायक। तो आप मेरे सामने वह पत्र पढ़ना नहीं चाहते। पढ़िए न! मैं आपके मुँह से उसे सुनना चाहती हूँ। आपको मेरी बात माननी पड़ेगी, आपकी अर्धांगिनी जो हूँ मैं।

वल्लभ : तो फिर इसे फाड़ देता हूँ। तुम अपना आधा भाग पढ़ो, मैं अपना आधा भाग। अच्छा, इधर आ जाओ सुलोचना। अब कुछ नहीं कहूँगा तुम्हें। आओ, पिताजी आगे लिखते हैं, 'इंद्रियों का नाश ही इंद्रियों पर जय नहीं है। संन्यासी भी आँखें फोड़कर अंधा नहीं बनता, जीभ काटकर गूँगा नहीं बनता, नाक बंद कर निष्प्राण नहीं होता, हाथ-पाँव तोड़कर लूला-लँगड़ा नहीं बनता। फिर यही बात सभी देहेंद्रिय व्यापारों पर भी क्यों न लागू हो? इन सभी इंद्रियों के प्राकृतिक कार्य समान रूप से निर्दोष हैं। वे सामज धारणा के लिए आवश्यक हैं। इसका अर्थ यही है कि दांपत्य जीवन के आत्यंतिक त्याग में ही सारा पावित्र्य और पुण्य रचा-बसा है। यह कहना झूठ है कि लोकोत्तर पुरुष संन्यासी हो जाते हैं। इससे लोगों की यह भ्रामक धारणा होती है कि जो भी संन्यासी होते हैं, उन सभी को लोकोत्तर मान लेना चाहिए, पर यह सत्य नहीं है। बुद्ध जैसे महात्मा गृहस्थ बने रहते तो भी लोकोत्तर पद एवं पवित्र पूजा के अधिकारी बन ही जाते। एतदर्थ वल्लभ, तुम निस्संकोच होकर अपने दांपत्य धर्म का पालन उचित रीति से करो। तुम्हारी पत्नी की कोख से बलिष्ठ और वरिष्ठ संतान उपजे। तुमने लोक कल्याणार्थ खड्ग धारण किया है। वह दुष्टों को दंड देने के लिए सदैव समर्थ रहे और इस यज्ञस्वरूप जीवनयापन में गृहस्थाश्रम के सुख तुम्हारे पाँव की बेड़ियाँ न बनें, प्रत्युत उस यज्ञ की आहुति बननेवाले बलिदान सिद्ध हों। ऐसी गृहस्थी संन्यास की तरह ही पवित्र है। इतना ही नहीं, वह उससे भी अधिक श्रेयस्कर है।' सुना कितने उदात्त विचार हैं?

धुन-चंदा कमल बाल

संसार रति है। धर्मानुसरण में।

बेड़ी न पाँव की। बलिदान है यद्यपि॥ध्रु.॥

घर संसार है धन्य। संन्यास के सम पुण्य।

सुखभोग श्रेयस्कर। त्याग से भी बढ़कर॥

सुलोचना : इसे कहते हैं सच्चा ज्ञान। सचमुच मेरे ससुरजी के विचार कितने ऊँचे हैं। वे तो धरती पर उतरे भगवान् हैं। पर वल्लभ, ससुरजी के पत्र के अंत में संसार सुख की बेडी किसे कहा गया है?

वल्लभ : यह खूब पूछा तुमने! वह बेड़ी तो स्त्री है। स्त्रियाँ ही तो पुरुषों के पाँव की बेड़ियाँ हैं।

सुलोचना : अच्छा-अच्छा, नाथ, बुद्धदेव तो लोकोत्तर महात्मा हैं।

वल्लभ : इसमें क्या संदेह? पर उन्होंने स्त्री रूपी बेड़ी पाँव से निकाल दी तभी तो वे लोकोत्तर बन सके।

सुलोचना : मैंने यह सब नहीं पूछा था आपसे। आप मुझे केवल इतना बताइए कि अगर महाराज शुद्धोदन अर्थात् बुद्धजी के पिताजी ने बुद्धजी की माता अर्थात् माया देवी की बेड़ी पाँव से निकाल डाली होती तो आपके इन लोकोत्तर बुद्धदेव का उद्भव ही नहीं होता। इसलिए बुद्धदेव के लोक-कल्याण का आधा पुण्य उनके अस्तित्व को संभव बनानेवाली स्त्री जाति को ही मिलना चाहिए। कौशल्या के प्रेम का सुनहरा हार किसी मंत्रपूत किरण की तरह दशरथ के जीवन से जुड़ गया, तभी रामचंद्रजी की प्राप्ति संभव हो सकी। अगर वसुदेव भी बचपन में ही संन्यास ले लेते तो कृष्ण क्या घास की तरह उगते?

वल्लभ : हाँ, पर इससे केवल इतना ही सिद्ध होता है कि पुरुषों को चाहिए कि वे स्त्रियों को अनुपयुक्त न समझें! इससे यह थोड़े ही सिद्ध होता है कि वे सांसारिक पुरुषों के पाँव की बेड़ियाँ नहीं हैं। यह भी तो माना जा सकता है कि उनके न होने से कदाचित् पुरुष और अधिक सुखी होते!

सुलोचना : अच्छा-अच्छा, बहुत हो गई बहस। पर नाथ, इससे एक और बात स्मरण आ गई। विषयांतर कर रही हूँ, इसलिए हँसिए मत। अब आप सेनापति हो गए हैं। इस बारे में ही संदेह है। क्या सेना में भी सैनिक कारागृह होते हैं? कहते हैं कि उन कारागृहों में बहुत कड़ा दंड दिया जाता है, पर आप थोड़े सहृदय रहिए।

वल्लभ : वह तो मैं रहूँगा ही, पर घोर अपराधियों के पाँवों में तो तुरंत बेड़ियाँ डालनी पड़ती हैं।

सुलोचना : पर सिर्फ घोर अपराधियों के ही पाँवों में न! कहीं सज्जनों को तो इस तरह का दंड नहीं दिया जाता!

वल्लभ : नहीं-नहीं, यह तो अन्याय होगा। बेड़ियाँ केवल दुष्ट दुर्जनों के लिए होती हैं।

सुलोचना : तो फिर प्रियतम, अब आप ही कहिए कि जब मनुष्य भी केवल दुर्जनों के ही पाँवों में बेड़ियाँ डालता है, सज्जनों के पाँवों में नहीं, तब भगवान्, जो मनुष्यों से भी श्रेष्ठ है और न्यायी है, वह अगर आपके कहने के अनुसार पुरुषों के पाँवों में स्त्रियों की बेड़ियाँ डालता है, तो इसका अर्थ यही हुआ न कि पुरुष भी पूर्व जन्म में वैसे ही पापी रहे होंगे, अन्यथा भगवान् उनके पाँवों में स्त्रियों की बेड़ियाँ न डालता। किनके पाँवों में बेड़ियाँ डालते हैं आप? चोर, लुटेरे, दुष्ट, दुर्जन, अपराधी, पापी और आततायियों के पाँवों में। है न! हाँ, अगर आप पुरुष इन सब विशेषणों के हार अपने गले में डालने को सिद्ध हों तो हम स्त्रियाँ भी स्वयं को भगवान् द्वारा पुरुषों के पाँवों में डाली बेड़ियाँ कहलाने को सिद्ध हैं। समझे आप? बेड़ियाँ ही सही। हम स्त्रियाँ पुरुषों के अनर्गल जंगली स्वभाव के जंगली हाथियों के पाँवों में डाली वे बेड़ियाँ हैं जो उन्हें मानव बनाती हैं। हमारे कारण ही उनके पाँव धर्ममार्ग पर चल रहे हैं। वे बेड़ियाँ न होतीं तो किसी उन्मत्त जानवर की तरह वे चाहे जहाँ, चाहे जैसे भागते रहते। दूसरों को कुचलते रहते। क्यों हुई न हमारी जीत! और शाक्यों के विख्यात पौरुषशाली सेनापति को आखिर एक स्त्री ने हरा दिया।

वल्लभ : बड़े शुभ लक्षण हैं! हमारे प्रेम का बीज जब अंकुरने लगा तब विवाह की वर्षगाँठ पर मेरी कांता को किसीको हराने के दोहद हुए हैं, मेरा पुत्र सचमुच ही चक्रवर्ती होगा।

सुलोचना : हटिए जी, आ गए फिर उसी बात पर।

दासी : (प्रवेश कर।) एकांत भंग के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ, पर राजसभा ने सेनापति वल्लभसिंहजी को किसी महत्त्वपूर्ण काम के लिए तुरंत बुलाया है। बाहर दूत खड़ा है।

वल्लभ : प्रिये, जाना ही पड़ेगा मुझे। कोसल का वह दुष्ट महत्त्वाकांक्षी राजा विद्युतगर्भ शाक्य राष्ट्र से युद्ध छेड़ना चाहता था, पर आखिर कल उसने मित्रता की संधि करने की सूचना भेजी है। उसी के बारे में विचार-विमर्श होनेवाला होगा। अच्छा तो अब विदा दो मुझे।

सुलोचना : पल भर रुक जाइए, नाथ! कामदेव की पूजा करनी थी। यह माला पूरी हुई ही जाती है। आज¨¨

वल्लभ : देखा, कर्तव्य-पथ पर स्त्रियाँ बेड़ियाँ बन जाती हैं।

सुलोचना : (उसके मुँह पर हाथ धरकर) बस-बस। जाइए आप। हमें फुसलाकर अपना मत सिद्ध करने की पुरानी युक्ति है यह पुरुषों की, पर याद रखिए कि हर बार अपनी सफाई देने के लिए न स्त्रियाँ जन्मजात अपराधी हैं, न पुरुष ही जन्मजात न्यायाधीश! स्त्री बेड़ी है या आधार-यह समय आने पर ही पता चलेगा।

वल्लभ : तो मान लो कि अब समय आ गया है। मुझे मुसकराकर विदा कर दो।

सुलोचना : मैं नहीं मुसकराऊँगी, वरना आप आने में बहुत अधिक विलंब करेंगे। हाँ, अगर सभा समाप्त होते ही आप पूजा के लिए आ जाएँ तो मैं मुसकराकर आपका स्वागत करूँगी।

वल्लभ : अच्छा, तो काम समाप्त होते ही मैं यहाँ उपस्थित होऊँगा।

सुलोचना : चाहे जो कीजिए। मैं नहीं बुलानेवाली अब आपको। चौसर का पट खोलके रखा था। सोचा था कि एकाध बाजी खेल लेंगे। पर¨¨जाइए। हम नहीं बोलते आपके साथ!

धुन-संजील रसना

जाइए जी आप! हम न माँगेंगे वचन अब आपके ॥ध्रु.॥

चौसर का पट था हमने खोला। थोड़ा भी था अगर खेला।

उसमें न रहता बडप्पन शेष। मगर न ही खेला॥

: तीसरा दृश्य :

शाकंभट : हमारी राजधानी कपिलवस्तु में हर ओर बुद्ध-बुद्ध का शोर है। और वह इस राजधानी को उजाड़ रहा है। पहले इस पुत्र के पाँव पड़ते ही उसके पिता, हमारे शुद्धोदन महाराज भगवान् को प्यारे हो गए। संतोष केवल इसी बात का है कि संन्यस्त भिक्षु होते हुए भी इसने अपने पिता को मरते समय अपनी गोद का सहारा दिया, पर शीघ्र ही उसने पूरे राजवंश का ही सत्यानाश कर डाला। स्वयं तो भिक्षु, श्रमण था ही, कुछ ही दिनों में सिद्धार्थ ने आठ-नौ साल के युवराज राहुल को भी भिक्षु बना दिया। इतना ही नहीं भाई देवदत्त, आनंद आदि को भी इन्होंने भिक्षु धर्म की दीक्षा दी। और तो और, जिन सेनापति विक्रमदेव ने शाक्य प्रशासन को कोसल और मगध जैसे प्रबल राजाओं के क्रोध और लोभ से बचाए रखा था, उन्हें भी इन्होंने नहीं छोड़ा। पता नहीं अपने छोटे पुत्र, वल्लभ देव को अनाथ बनाकर सेनापति विक्रमदेव ने संन्यासी भिक्षुधर्म की दीक्षा ली कैसे? अपने राम की तो कुछ समझ में नहीं आता। इतना अवश्य जानता हूँ कि बुद्धदेव में कोई अद्भुत आकर्षण शक्ति है जरूर। कौन ताकंसिंह?

ताकंसिंह : (प्रवेश करता है) शाकंभट, लगता है बुद्धदेव पगला गए हैं। पहले तो उन्होंने अपनी पत्नी यशोधरा और माता महाप्रजापति को ही केशवपन कर, गेरुए वस्त्र पहनाकर भिक्षुधर्म की दीक्षा दी, पर अब तो वे हर स्त्री को श्रमण बनाकर अपने संघ में समाविष्ट करा रहे हैं।

शाकंभट : और इन भिक्षु स्त्रियों की भीड़ यहाँ मठों में संन्यासियों के साथ रहा करेगी, गाँवों में, नगरों में उनके साथ घूमती रहेगी। जब राजकुमार सिद्धार्थ अर्थात् आज का बुद्ध यशोधरा का त्याग कर वन चले गए, तभी मैंने और मेरी स्त्री ने यह भविष्यवाणी की थी कि चार दिन स्वाद बदलने के बाद यह फिर से किसी-न-किसी यशोधरा को ढूँढ़ते वापस आएगा। और यह रनिवास की तरह भिक्षु स्त्रियों का अंत:पुर फिर से बनाएगा। मेरी बात अक्षरशः सत्य हो गई। अब मुझे विश्वास हो गया कि मैं अच्छा भविष्यवेत्ता हूँ। ऐसे ही नहीं लोग मेरे यंत्र, गंडे-डोरों पर विश्वास करते हैं। ताकंसिंह, तुम भी बुद्ध की जाति के अर्थात् क्षत्रिय हो। तुम भी भिक्षु बनकर उसके साथ घूम सकते हो। तुम भी मेरी ही तरह हो, न रहने को घर, न गाँठ में पैसा।

ताकंसिंह :आज तक मुझे उस भिक्षुसंघ से डर लगता था। मुझे लगता था कि भिक्षु वही है जो भिक्षा माँगे। आज तक भिक्षु का नाम लेते ही मेरी आँखों के सामने दुबला-पतला, भुखमरा भिक्षु खड़ा हो जाता था, जिसके भाग्य में दिन में काँचन का और रात में कामिनी का अकाल हो, जिसके हाथ में न स्त्रीधन की रेखा हो, न स्वर्गधन की, पर अब देख रहा हूँ कि भिक्षुश्री का वैभव राजश्री के वैभव से कम नहीं। साधारण-से-साधारण भिक्षु भी खा-पीकर सुख-चैन से रहता है। उसका भाग्य भी मेरे भाग्य से अधिक अच्छा है।

शाकंभट : और अब तो हर मठ में शिष्याओं के सुंदर झुंड भी होंगे। सो इन भिक्षुओं के खाने-पीने के साथ सोने का भी बड़ा अच्छा प्रबंध रहेगा। जिन्हें दूसरे विवाह की कोई आशा नहीं, ऐसे हमारे-तुम्हारे जैसे विधुरों से तो ये ही अच्छे हैं। मेरी 'वह' जीवित होती तो भी जीवन के ये सुख लूटने मैं उसके साथ हो गया होता इस पंथ में!

ताकंसिंह : तुम जैसे ब्राह्मणों को भिक्षु होने में कोई कठिनाई नहीं, क्योंकि तुम्हें आरंभ से ही भिक्षा की दीक्षा मिलती है, पर राजैश्वर्य भोगनेवाले हम क्षत्रियों को यह भिक्षामार्ग बड़ा लज्जाजनक लगता है।

शाकंभट : अवश्य लगता होगा। इसीलिए यह भिक्षामार्ग राजैश्वर्य भोगनेवाले क्षत्रिय सिद्धार्थ ने शुरू किया। अरे पगले, यह पंथ क्षत्रियों को मिली मृत्युंजय यात्रा है। तुमने सुना ही होगा कि महान् बुद्ध के शिष्य घर-घर जाकर बुद्धधर्म में सम्मिलित होने का प्रचार कर रहे हैं। कह रहे हैं कि इससे मृत्यु को टाला जा सकता है। ब्राह्मणों के बारे में यह सच हो या न हो, पर क्षत्रियों के बारे में यह अक्षरश: सत्य है, क्योंकि ब्राह्मण की मृत्यु कौए की मृत्यु जैसी है। संजोग से जब होगी तब होगी, पर क्षत्रिय साँप की तरह बाहर आता है, वह या तो दूसरों को डँस लेता है या स्वयं ही दूसरों द्वारा कुचला जाता है। इसीलिए इस बुद्धपंथ में अब क्षत्रियों की ही भरमार हो रही है. क्योंकि संन्यासी के आवरण के नीचे गृहस्थाश्रम की धोती त्याग देने से कई बार कमर का कृपाण अपने आप ही नीचे गिर जाता है। अर्थात् युद्ध से नाता छूट जाता है। फिर भले ही शाक्य राष्ट्र पर कोसलराज आक्रमण करे या मगधराज। इस तरह भिक्षुसंघ के कारण क्षत्रियों को दोहरा लाभ हुआ है। बुद्ध की शरण जाने से आपकी मृत्यु सचमुच ही टल जाती है। सेनापति विक्रमसिंह भी ऐसे ही भिक्षु नहीं बने। ताकंसिंह, रुक जाओ। देखो, भिक्षुओं के टिड्डी दल का एक टिड्डा यहीं आ रहा है। जरा देखें तो कि वह अपने पंथ के बारे में क्या जानकारी दे रहा है। अरे, यह तो कृषिपल्ली गाँव का भैंगा भिखारी है। इसे क्या पहचान दिखाना!

भैंगा भिक्षु : (प्रवेश कर) बुद्धं शरणं गच्छामि, धर्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि।

शाकंभट : भिक्षु, आपके संघ में दीक्षा लेने से क्या विशेष लाभ हैं?

भैंगा भिक्षु : खाना भरपेट मिलता है और जन्म-मृत्यु, बुढ़ापा और रोगों से मुक्ति मिलती है।

शाकंभट : अच्छा, मुक्ति की भली कही तुमने। मुक्ति ही मिलनी होती तो तुम्हारे गुरु ने तुम्हें अंधेपन से मुक्त न कर दिया होता?

भैंगा भिक्षु : मैं अभी नया-नया भिक्षु हुआ हूँ। मुझे अभी मुख्य गुरु जानते ही कहाँ हैं! पर उपगुरु ने कहा है कि बेटा, तुने एक ही आँख से क्या कम दुःख देखे हैं कि तुम्हें दूसरी आँख ठीक करवानी है! तुम्हारे पूर्व जन्म के भाग्य कि तुम्हारी एक ही आँख ठीक है। वरना दूजी आँख से तुम्हें इतने दुःख देखने पड़ते कि तुम्हारी आँखें चौंधिया जातीं और उस कारण से तुम पूरी तरह अंधे हो जाते।

ताकंसिंह : पर एक बात बताओ। हट्टे-कट्टे होते हुए इस तरह भीख माँगते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती? क्या लोग तुम्हें धक्के मार-मारकर निकाल बाहर नहीं करते?

भैंगा भिक्षु : क्योंकर निकाल बाहर करेंगे? पहले मैं भिखारी था तब भीख माँगते हुए मुझे थोड़ी लज्जा आती थी। लोग भी धक्के मारकर घर से भगाते थे, पर आजकल मैं भिक्षु बनकर भीख माँगता हूँ। इसलिए लोग मुझे बुला-बुलाकर भीख देते हैं, क्योंकि भिखारी को भीख देनेवाले उसपर उपकार करते हैं, पर भिक्षु, गुसाईं या वैरागी भीख लेकर लोगों पर उपकार करता है। गुरुजी लोगों को यही उपदेश देते हैं।

शाकंभट : अच्छा, अपने धर्म का सार तो बताओ।

भैंगा भिक्षु : वेदों की निंदा करनी चाहिए, ब्राह्मणों की निंदा करनी चाहिए और ऐसे ब्राह्मणों की बात न मानकर हम जैसे भिक्षुओं की बात मानने का लोगों को उपदेश करना चाहिए।

शाकंभट : अच्छा, तो मैं भी ऐसा ही एक ब्राह्मण हूँ। इसलिए मेरे द्वार पर भिक्षा मिलने की आशा तुम छोड़ दो, अन्यथा (मारने को हाथ उठाता है) भिक्षा का यह निनाद सुनना पड़ेगा।

भैंगा भिक्षु : (दूर हटकर , अपने आपसे) अरे, मैंने देखा ही नहीं कि यह ब्राह्मण है। हाय, अगर मेरी दो आँखें होतीं तो इसके कपड़ों के अंदर से मुझे इसका जनेऊ दीखता। बुद्धं शरणं गच्छामि, धर्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि। (जाता है।)

शाकंभट : हाँ, शरणं गच्छ, जल्दी गच्छ, नहीं तो मजा चखाऊँगा, बच्चू! पर ताकंसिंह, इसने यह भरपेट खाना मिलने का जो विशेष लाभ बताया, वह संघ में शामिल होने के लिए पर्याप्त है।

ताकंसिंह : पर उसने संघ का दूसरा विशेष लाभ बताया है-वेदनिंदा। तुम ठहरे ब्राह्मण¨¨

शाकंभट : तो क्या हुआ? न वेदों ने मेरा मुँह देखा है, न मैंने वेदों का। जिनकी जान-पहचान ही नहीं उनकी निंदा और स्तुति से मुझे क्या लेना-देना? और ताकंसिंह, मैं ब्राह्मण हूँ। इसलिए स्थितप्रज्ञ भी हूँ। 'तुल्यनिंदा स्तुतिर्मौनी'-भगवत मंत्र के इस यंत्र पर मैं निंदा के सारे वार झेल लेता हूँ। और आत्मस्तुति का संकट कभी आया ही नहीं है मुझपर। यह आया दूसरा टिड्डी! आओ, इसे भी छेड़ते हैं।

दूसरा भिक्षु : (प्रवेश कर) बुद्धं शरणं गच्छामि। संघं शरणं गच्छामि।

शाकंभट : रुकिए, रुकिए! मैं संघ की शरण में आना चाहता हूँ, पर उससे पहले मुझे धर्म के बारे में अपनी जिज्ञासा पूरी करनी है। आप भिक्षु लोग कहते हैं कि धर्म के नाम पर ब्राह्मण अपना आधिपत्य जमाता है। ये नए आचार्यजी धर्म के नाम पर क्या नाम कमाते हैं? प्रथम बुद्ध, फिर धर्म। पहले बद्ध की वंदना करो, फिर धर्म की। इसी तरह हमने अभी-अभी देखा कि ब्राह्मणों की निंदा भी आपके धर्म का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है।

दूसरा भिक्षु : नहीं-नहीं, आप गलत समझ रहे हैं।

शाकंभट : हो सकता है कि मैं गलत समझ रहा हूँ, क्योंकि तब मैं एक आँखवाले भिक्षु की नजर से आपके धर्म को देख रहा था। इसीलिए आपकी दो आँखोंवाली नजर से मैं आपके धर्म का स्वरूप देखना चाहता हूँ।

दूसरा भिक्षु : हे भद्र पुरुष, बुद्ध का अनुशासन कौमुदी की तरह शीतल है। संतप्त दुरुत्तर से हम संतप्त नहीं होते, प्रत्युत उसे हम विनयशील शीतल वचनों से शांत करना चाहते हैं। भगवान् बुद्ध ब्राह्मणों की निंदा नहीं करते बल्कि वे उनका अत्यधिक आदर करते हैं। उनके कई प्रमुख शिष्य ब्राह्मण ही हैं। भगवान् केवल इतना ही कहते हैं कि सच्चा ब्राह्मण वही है जो परोपकारी, निरहंकारी और ब्रह्मविद् है। उसका आदर चराचर विश्व करेगा फिर जन्म से वह चाहे जिस जाति का हो। सम्मान गुणों का होगा, न कि जन्म के आकस्मिक संयोग का। अजी, जिन्हें लोग अस्पृश्य कहकर धिक्कारते हैं, उन्हें भी दयालु भगवान् बुद्ध आदर सहित अपनाते हैं। फिर 'किं पुनर्ब्राह्मणा, पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा!' बुद्ध की दया महासागर की तरह गहरी है, गगन की तरह असीम है। विविध तापों से मुक्ति चाहनेवाले मानवो, एक साथ बोलिए-बुद्धं शरणं गच्छामि, धर्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि।

शाकंभट : अरे, यह तो भिक्षा के लिए भी नहीं रुका।

ताकंसिंह : इसके विचार भी कितने गंभीर थे। ऐसे संघ में तुम और हम किस पेड की पत्ती हैं?

शाकंभट : क्यों? चलो, तुम और हम मिलकर गंभीरता से सोच लेते हैं कि इस संघ में जाने से हमें क्या-क्या लाभ होंगे? कहते हैं कि संघ में शामिल होने से जन्म परंपरा टल जाती है, पर उससे हमें कोई अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि यह जन्म तो हमने ले ही लिया है और अगले जन्म का भय इस जन्म में तो है ही नहीं! दूसरा क्या?

ताकंसिंह : मरण टल जाता है। हाँ, यह लाभ आश्चर्यजनक है। क्यों?

शाकंभट : हाँ-हाँ, क्षत्रियों को युद्ध में आनेवाला मरण इस तरह टल सकता है। इस संघ में शामिल होने से बिस्तर पर आनेवाला मरण भी टल सकता है? और अगर मरण टलता है तो किस-किसका? तुम्हारा, मेरा या तुम्हारे-मेरे शत्रुओं का? अगर मनुष्य मात्र का मरण इससे टल जाता हो तो उससे तो मर जाना ही अच्छा है, क्योंकि मृत्यु टलने से मेरी तरह मेरा शत्रु भी चिरंजीव होगा। और यह भी तो सोचने की बात है कि मरण टलने का अर्थ है अनंत काल तक जीवित रहना और जीवित रहने के साथ-साथ खाने-पीने का चक्कर भी तो सदा के लिए चलता रहेगा। केवल मरण टलने से लाभ नहीं। अकाल, दारिद्र्य और अन्य संकट भी टल जाने चाहिए। कुछ कठिनाइयाँ तो बनी ही रहेंगी। अगर संसार भर के सारे जीव जीवित रहेंगे तो एक दिन यहाँ पाँव धरने को भी जगह न बचेगी। मैं, तुम, हमारे पुत्र-पौत्र, प्रपौत्र, उनके बच्चे, उनकी बहू-बेटियाँ, उन सबके बाल-बच्चे, बहू-बेटियाँ! अरे, एक-एक घर में सात सात नहीं, सत्तर-सत्तर पीढ़ियों के पूर्वज एक पंक्ति में भोजन के लिए बैठेंगे। ताकंसिंह, है न मजे की बात! और घर की सबसे बड़ी बहू के नाते उन सबका खाना पकाएगी सत्तरवीं पीढ़ी की परदादी की परदादी की परदादी की¨¨परदादी। और उसके पीछे-पीछे घूमेंगे उसके इतने सारे परपोते के-परपोते के-परपोते। बाप रे! सोचकर ही मेरा सिर चकराने लगा है। इन सबके रिश्ते के नाम जुटाने में ही मेरी नानी मरने लगी है। फिर उनको ठीक से पुकारना और उन सबके अन्न-वस्त्र का प्रबंध तो दूर की बात है। अगर बुद्ध ने मनुष्य मात्र का मरण टालने का मार्ग खोजा हो तो मनुष्य मात्र को मरण ही गले लगाना पड़ेगा। मरण न रहा तो मरणोपरांत दहन की लकड़ी बेचनेवालों का क्या हाल होगा? उन्हें तो अपने दाह-संस्कार की लकड़ियाँ जुटाने का भी पैसा नहीं मिलेगा। मुझे तो बुद्ध धर्म में इतने सारे दोष दिखाई दे रहे हैं कि लगता है, प्रतिबुद्ध बनकर एक नया धर्म ही स्थापित करूँ। अरे, मेरे विचार तो बहुत ही अधिक गंभीर होने लगे हैं। क्यों?

ताकंसिंह : इसीलिए कहता हूँ कि अब वह विचार छोड़ देते हैं। इतने सारे विचारों का बोझ हमारे मज्जा तंतु उठा नहीं सकेंगे। वे टूट-टाट जाएँगे। और फिर इसी कारण कल आनेवाला मरण हमें आज ही दबोच लेगा। अच्छा, तो फिर क्या तय हुआ? यही न कि संघ में शामिल नहीं होना है।

शाकंभट : इतना सिर खपाने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि हमारा मुख्य लक्ष्य मरण टालना नहीं वरन् उसके आने तक आराम से जीना है। और वह साध्य होगा संघ में शामिल होकर ही। जरा सोचो तो, हम जैसे ही संघ में शामिल होंगे, वहाँ हमें भरपेट भिक्षा अर्थात् भोजन मिलेगा, बहुत सी भिक्षु स्त्रियों का संग मिलेगा और काम, जरा भी नहीं। हमारा उदर भरण का लक्ष्य प्राचीन प्रवृत्ति मार्ग से नहीं वरन् अर्वाचीन निवृत्ति मार्ग से ही सिद्ध होगा। क्या प्रवृत्ति, क्या निवृत्ति! वृत्ति तो दोनों में समान है। ब्राह्मणी प्रवृत्ति में हम 'प्र' यानी ऐसे हाथ फैलाकर वृत्ति अर्थात् दक्षिणा माँगते हैं और ये बौद्ध भिक्षु निवृत्ति में 'नि' यानी संसार को दूर हटाते हुए वृत्ति अर्थात् भिक्षा माँगते हैं। दोनों का अर्थ एक ही है-वृत्ति। मैं तो हो जाऊँगा संघ में शामिल।

ताकंसिंह : मैं भी हो जाऊँगा शामिल। भिक्षु हो गया तो क्षत्रियत्व के कारण मुझे जो युद्ध में जाना पड़ता है वह टलेगा। युद्ध में यमराज से पकड़े जाने का डर भी नहीं रहेगा।

शाकंभट : तो फिर चलो, बुद्धं शरणं गच्छामि, धर्मं शरणं गच्छामि, पर ताकंसिंह, तुम्हारे द्वारा लाया, बुद्धदेव के संघ में स्त्रियों को लेने का, समाचार सही है न!

ताकंसिंह : मैं अपनी स्वर्गवासी धर्मपत्नी की स्मृति की सौगंध खाकर कहता हूँ कि यह समाचार सत्य है, वरना भिक्षुत्व के लिए इस तरह तरसनेवाला अविचारी पुरुष नहीं हूँ मैं।

शाकंभट : अच्छा, तो बाकी बची प्रतिज्ञा भी पूरी कर लो। बोलो-संघं शरणं गच्छामि।

: चौथा दृश्य :

[सेनापति वल्लभसिंह महानामा महाराज की वंदना कर रहे हैं।]

वल्लभ : महाराज महानामा और शाक्य प्रशासक की जय हो।

महानामा : आइए सेनापति, आप सोच भी नहीं सकते कि इतना बड़ा सकंट शाक्य राष्ट्र पर आ गया है। यह पत्र कहता है कि जिसने कल तक मैत्री संधि करने का झाँसा दिया था और हमें मोह निद्रा में सुलानेवाला कोसलराज विद्युत्गर्भ अचानक दो-तीन तरफ से हमें घेरकर किसी तूफान की तरह आगे बढ़ता आ रहा है। लगभग चालीस वर्ष पहले राजा शुद्धोदन, शाक्य राष्ट्र के नृपति दिवंगत हुए। उनके पुत्र सिद्धार्थ अर्थात् भगवान् बुद्ध पहले ही संन्यास लेकर चले गए। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने बेटे राहुल, भाई आनंद, चचेरे भाई देवदत्त, पत्नी यशोधरा, राजमाता, बड़े-बड़े शूरवीरों, सरदारों और धनिकों को भी भिक्षुधर्म की दीक्षा दी और वे अपने संघ में ले गए। पर इससे भी अधिक हानि तब हुई जब गौतम बुद्ध के अत्यधिक अनुरोध पर सेनापति विक्रमसिंहजी ने संसार का कृपाण नीचे रखकर संन्यास का कौपीन स्वीकार किया, क्योंकि बुद्धदेव ने तब प्रतिज्ञा की थी कि यदि सभी राष्ट्र अपने-अपने कृपाण, अपने शस्त्र स्वयं ही नीचे रख देंगे और सारे लोग शस्त्र धारण के क्रूर कर्म को पाप की तरह त्याज्य मानेंगे तो उस पीढ़ी के लोगों के सामने ही इस पृथ्वी तल से युद्ध का नामोनिशान मिट जाएगा और यहाँ शांति व दया का साम्राज्य स्थापित होगा। बुद्धदेव के दिखाए भव्य सपने से सभी की आँखें ऐसे चकाचौंध हुईं कि शाक्य राष्ट्र के सभी कर्तव्य दक्ष पुरुषों ने बुद्ध की तरह ही संन्यास का आश्रय लिया। यह राजधानी पराक्रमहीन हुई। पराक्रम को पाप समझा जाने लगा। दंडशक्ति को उदंडता का निम्न दर्जा दिया गया। ऐसी स्थिति में हमें आपके इस गणतंत्र ने, इस प्राजक ने, शुद्धोदन महाराज के राजसिंहासन पर बैठाया, पर हम भी तो भगवान् बुद्ध के शिष्य बने थे। इसलिए हमसे भी चालीस सालों तक अस्त्रबल की अक्षम्य उपेक्षा होती रही। उसी का कड़वा फल हमें आज चखना पड़ रहा है।

वल्लभ : शाक्यो, चिंता न कीजिए। अभी भी शत्रु के आरंभ किए इस शस्त्रयुद्ध में हम शत्रु को हरा सकते हैं। प्रथमतः हमें उस पुरुष को युद्धकाल के लिए सर्वाधिकार सौंप देने चाहिए, जिसके पराक्रम और प्रामाणिकता पर शाक्य राष्ट्र को पूरा विश्वास हो। युद्धकाल में बहुमुखी विकेंद्रित अधिकार से केंद्रित एकाधिकार के रूप में राष्ट्रशक्ति अधिक सशक्त और सुरक्षित होती है। इससे हमारे बिखरे शक्ति बिंदु एकत्र होकर शक्ति पुंज बन जाएँगे और वह शक्ति पुंज किसी भी बाहरी शक्ति को कुचलकर चकनाचूर कर देगा। अब आवश्यकता है ऐसे लौहपुरुष की जिसकी आज्ञा को पूरा राष्ट्र निर्बंधवत् मानेगा।

एक सरदार : हमारे सौभाग्य से अभी भी शाक्यों में एक ऐसा लौहपुरुष है जिसके खड्ग की धार के सामने कोसल का सैन्य काँपने लगता है और जिसकी एक पुकार पर आज भी इस शाक्य राष्ट्र में आत्मविश्वास की एक ऐसी लहर उठेगी कि वह संग्राम की आग में बेझिझक कूद पड़ेगा; पर दुर्भाग्य, वह पुरुष संन्यासी हो गया है। उसका नाम है सेनापति विक्रमसिंह-हमारे भूतपूर्व सेनापति जी-हमारे इन युवा सेनापति वल्लभजी के वृद्ध पिता। हमारे इस शाक्य राष्ट्र के भीष्म पितामह!

महानामा : मुझे पूरी आशा है कि हमारी इस संकट की वेला में वह प्रतापी पुरुष हमें जरूर कोई-न-कोई मार्ग दिखाएगा। मुझे आज भी वह दिन अच्छी तरह स्मरण है जब सेनापति विक्रमसिंह ने शस्त्र को शास्त्र की तरह परम पूज्य तथा लोक धारणा के लिए अत्यंत आवश्यक साधन मानते हुए भी भगवान् बुद्ध के अनुरोध पर उसका त्याग कर दिया था। उसी दिन से शाक्य राष्ट्रसभा अपनी कृतज्ञता का प्रतीक जानकर उस खड्ग को इस भवन में देवता की तरह पूजने लगा। इसी खड्ग से विक्रमसिंहजी ने हमारे राष्ट्र के शत्रुओं के दाँत कई बार खट्टे किए थे। इसलिए यह खड्ग इस राष्ट्र का स्फूर्ति स्थान है। सामंतो और सभ्य गृहस्थो, मुझे उचित लगता है कि इस विकट वेला में हम विक्रमसिंहजी को ही सर्वाधिकारी नियुक्त करें। किसी दूत के हाथों हम उन्हें इस अर्थ का संदेश भेज सकते हैं। जिस हृदगत को बताने में हमारी मानवी जिह्वा असमर्थ है उसे यह खड्ग की लौह जिह्वा बताएगी। सेनापति विक्रमसिंहजी को यही भाषा अधिक परिचित, प्रामाणिक और आदरणीय लगेगी। इसलिए हम अभी राजमुद्रांकित आमंत्रण के साथ इस खड्ग को अपने दूत के रूप में उनके पास भेज रहे हैं। वे संन्यासी हैं। इसलिए शायद शस्त्र हाथ में न लें! यह हमारा दुर्भाग्य है। फिर भी युद्ध के संकट से निकलने का कोई-न-कोई मार्ग अवश्य खोज लेंगे। उनके स्फूर्तिदीप्त मुख से लड़ने का संदेश मिले तो वह ब्रह्मास्त्र की तरह शाक्य तरूणों को अपराजेय बना देगा। इस समय हमारे शाक्य राष्ट्र को भगवान् बुद्ध के आशीर्वाद की तथा विक्रमसिंहजी की आज्ञा, दिग्दर्शन और सैन्य-संचालन की अप्रत्यक्ष सहायता नितांत आवश्यक है। और वह मिलेगी ही, क्योंकि बुद्ध और विक्रमसिंह दोनों ही इसी शाक्य राष्ट्र की संतति हैं। इसी भूमाता की गोद में उन्होंने उसका स्तनपान किया है। माँ के दुध का ऋण उन्हें चुकाना ही पड़ेगा। उसके प्रति अपनी कृतज्ञता उन्हें दिखानी ही पड़ेगी। और फिर शाक्य राष्ट्र पर यह भयानक छाया इसलिए भी पड़ी है कि विद्युत्गर्भ बुद्धजी का घोर द्वेष्टा है। उसने यह युद्ध बुद्धजी की जाति को धूल में मिलाने के लिए ही छेड़ा है। ( किसीकी आहट सुनकर) कौन? दूत! क्या है?

दूत : क्षमा करें, महाराज, राजधानी से चार योजन दूर, आपके सेना शिविर में अत्यधिक कोलाहल मचा है। विद्युत्गर्भ की सेना ने हमारा आधा राज्य पादाक्रांत किया है और वह तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है। बीच में जो भी शाक्य उनके सामने आता है उसे वे काटकर रख देते हैं। गाँव-के-गाँव जलाते हुए, स्त्रियों और बालकों तक को मारते हुए विद्युत्गर्भ आगे बढ़ता चला आ रहा है। संत्रस्त लोगों के झुंड-के-झुंड राजधानी की तरफ भागते चले आ रहे हैं। इन समाचारों से हमारे सैनिकों का मनोबल कम हो रहा है। वैसे भी लोगों को सेना में भरती कराने जाओ तो वे हमारे मुँह पर कहते हैं कि लड़ना पाप है; हम शस्त्र धारण नहीं करेंगे। इतना ही नहीं, वे सैनिक पेशे को कसाई का पेशा कहकर हमारी निंदा तक करते हैं। जो लोग सेना में भरती हुए भी हैं, वे निरे डरपोक हैं। कोसल सेना के अत्याचारों के समाचार सुनकर वे बजाय आगे बढ़ने के आज्ञाभंग कर पीछे भागने लगे हैं। उन्हें आक्रमण करने को बाध्य किया गया तब तो कोलाहल ही मच गया। अगर आज ही इस बारे में कुछ न किया गया तो...

वल्लभ : आज ही क्यों, अभी अनुशासन स्थापित करने मैं वहाँ पहुँच जाता हूँ। महाराज, हमारे नगरगृह में, हमारे उस संधागार में संकट का घंटा बजने दीजिए। सभी नागरिकों को एकत्र कर सर्वाधिकारी नियुक्त कीजिए की राष्ट्रीय संकट के बारे में सतर्क कर नागरिक सेना की स्थापना कीजिए। जब तक सेनापति विक्रमसिंह से कुछ संदेश नहीं आता, मैं सेना को संगठित कर शत्रु का सामना करता हूँ। प्रयास हमारा है, यश ईश्वराधीन है। स्त्री-पुरुष, संसारी, संन्यासी, हर एक शाक्य शस्त्र लेकर खड़ा हो। आपको इस शाक्य जाति की, इस प्राजक की, हमारे इस राष्ट्र की शपथ है। उठिए, मैं चला। शत्रु को यह जता दूँगा कि मैं शाक्य राष्ट्र के प्रख्यात सेनापति विक्रमसिंह का पुत्र, शाक्य राष्ट्र का विद्यमान सेनापति हूँ, तभी अपने आपको वल्लभसिंह कहलाऊँगा।

: पाँचवाँ दृश्य :

[सुलोचना माला गूँथते हुए गाना गुनगुना रही है।]

माला गूँथते, गाऊँ मैं कवन, कौन गूँथे कैसी माला॥१॥

जगदंबा डाले त्रिगुणातीत को, त्रिगुणी बिल्वदल माला॥२॥

गूँथती प्रकृति, विराट् देवता के हित, नव-नव सूर्य मालिकाएँ॥३॥

प्रलयंकर काली, गूँथती महाकालहित, नरमुंड चुंड माला॥४॥

उद्भव के हित, हित उद्भव के, सृष्टि रचे भूकंप माला॥५॥

गूँथे सत्यभामा, श्रीहरि के हित-प्राजक्त पुष्पमाला॥६॥

रानी राजा के हित गूँथे-रुचिर मौक्तिक माला॥७॥

आलिंगन दे रति अनंग को ले सुघड़ पुष्पमाला॥८॥

बिरहन पर, प्रिय स्मरण काल में, गूँथे आँसू जलमाला॥९॥

हाय, अभी तक नहीं आए, कांत! कहकर गए थे कि अभी उलटे पाँव लौट आता हूँ। उन्हें मैंने जान-बूझकर हँसकर विदा नहीं किया था। बस, यही कह दिया था कि मैं उनका स्वागत हँसकर करूँगी। सोचा था कि मेरा रूठना ही याद रख वे शीघ्र लौट आएँगे। (फिर से गाना गाती है।) पर वे तो अभी तक नहीं लौटे। मैंने वरमाला गूँथ भी ली। फिर भी वे वापस नहीं आए। पुरुषों की अधिकार प्राप्ति का पहला चिह्न यही है कि उन्हें घर में पत्नी से बातें करने का समय नहीं मिलता। इससे तो यही अच्छा है कि वे साफ-साफ कह दें कि मैं अब अधिकार में बड़ा हो गया हूँ। घर की औरतों से बात करने में मेरा मान घटता है, पर असल गलती तो औरतों की ही है। वे क्यों जाती हैं ऐसे लोगों की चापलूसी करने! बस, तय हो गया। आज वे लौटें तो उनका हँसकर स्वागत नहीं करूँगी। सिर्फ उनकी अगवानी के लिए आऊँगी, पर हँसूँगी बिलकुल नहीं। उनसे बात भी नहीं करूँगी। (माला को निहारकर) न-न, उनसे न बोलना भी ठीक नहीं, क्योंकि पूजा का समय होने को आया है। रूठने-मनाने के लिए एक घटिका भी न मिलेगी। बस, कुछ पल सोने के पूजा उपकरण पोंछने का नाटक करूँगी। उनकी तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखूँगी। (थोड़ा रुककर) हाय, मेरी बात सुनकर कोई हँस न दे! मेरी इस तरह की बातों के कारण प्रियतम मुझे बच्ची की तरह रूठूँ या हँसूँ, दुःख या संकट के दिनों में मैं किसी विदुषी या स्त्री राज्य की स्त्री सेनानी की तरह निडरता से अडिग रहते-संकट का सामना करूँ, तब मैं बच्ची नहीं, बड़ी-बूढ़ी लगूँगी। (आईने में देखकर) शाक्यों के सेनापति की सुयोग्य पत्नी लगूँगी। (दासी प्रवेश करती है।)

दासी : बाहर सेनापतिजी का संदेश लेकर कोई घुड़सवार आया है।

सुलोचना : आया नहीं, दासी, आए हैं कहो। मैं जानती हूँ कि आए तो वे स्वयं होंगे, पर मुझे बाहर निकालने के लिए कहला भेजा होगा कि कोई संदेशवाहक घुड़सवार आया है।

दासी : नहीं मालकिन, सचमुच ही कोई घुड़सवार संदेश लेकर आया है।

सुलोचना : तू भी बड़ी शैतान है। पैसे तो लेगी मुझसे और शामिल होगी मेरे शत्रु के पक्ष में। (कमल के डंठल से उसे मारती है।) मुझे मालूम है कि सेनापति ही आए हैं। जा, उनसे कह दे कि इतनी जल्दी क्यों आए हैं! और थोड़ी देर बाद आते।

धुन-न पयाम आता है

समय पर न आए पिया। थक जाऊँ निहार राह॥

अब न सुनूँ मनुहार हाय। युद्ध पुकारूँ मैं भरके आह॥

मिलते ही गलबाँह डाल। रोकूँ अपने प्रिय की राह॥

जा कह दे वे लौट जाएँ। न बोलूँ है प्रिय की सौंह॥

दासी : स्वामिनी, सचमुच ही ये सेनापति नहीं हैं। अचानक संकट आन पड़ने से सेनापति राजधानी छोड़ सेना शिविर में गए हैं। यही संदेश देकर उन्होंने घुड़सवार को यहाँ भेजा है। कहला भेजा है कि दो-चार दिनों में लौटेंगे और लौट न भी सके तो अपनी खबर भेजते रहेंगे।

सुलोचना : क्या कह रही है? ( घंटा बजने की आवाज सुनती है।) और यह क्या? यह तो नगरभवन का, हमारी राजधानी के संधागार का संकट-घंटा! यह कैसा संकट है? और वह घुड़सवार! हाय, मैंने वल्लभ के लिए थोड़ी देर बाद आने को कहा और वही सच हुआ। मैं भी कैसी निगोड़ी हूँ! क्योंकर कहा मैंने वह अशुभ वाक्य? हाय! उनसे मैंने ठीक बात तक नहीं की आज। (फिर से घंटी बजती है।) उस मुए कोसल के विद्युतगर्भ ने कहीं फिर से आक्रमण न किया हो!

: छठवाँ दृश्य :

[बुद्धदेव,सेनापति विक्रमसिंह (भिक्षु विक्रम) और अन्य भिक्षु बैठे हैं।]

विक्रम : चालीस साल पहले का मेरा डर अंत में सच निकला। केवल कारुण्य से क्रोध, अहिंसा से हत्या और शास्त्र से शस्त्र सदैव और सर्वत्र वश में नहीं होते। वे सर्वथा नष्ट नहीं किए जाते। आज यही सत्य दृष्टि के सामने खड़ा है हमारे। जन्म, जरा, व्याधि और मृत्यु से मनुष्य मात्र को विनिर्मुक्त करने के लिए मनुष्यों में अगर किसी ने अधिक-से-अधिक त्याग किया होगा तो भगवान् वह आप हैं, तथागत बुद्ध हैं। ऐहिकवादी लोगों का आपके विविध तापों का अशेष नाश करनेवाले आपके आर्य पंथ पर, तृष्णा नाश करने से मनुष्य जन्म-मृत्यु की कैंची से छूट जाता है, इस आपके तात्त्विक पक्ष पर तथा आपकी पारलौकिक स्वरूप की मुक्ति पर विश्वास नहीं है, पर वे भी आपके त्याग की प्रशंसा ही करते हैं। कम-से-कम आपने यह तो सिद्ध कर ही दिया है कि जन्म, जरा, व्याधि तथा मृत्यु इन चार संकटों से मनुष्य अपने आपको मुक्त नहीं ही कर सकता। कितना भी दु:खमय हो तो भी बद्ध को या बुद्ध को इस जग में जब तक देह है तब तक रहना ही होगा और जग में हैं तो भौतिक अर्थ में इन चार व्याधियों का सामना करना ही पड़ेगा। फिर वह पारलौकिक अर्थ में बुद्ध रहे या मुक्त रहे-यह कठोर सत्य अब भी आशंका के घेरे में है, ऐसा कहने की हिम्मत मानवी आशा में नहीं है। आपने मानवी प्रयत्नों की पराकाष्ठा की, पर आपको भी प्रकृति के आगे घुटने टेकने ही पड़े। यह भी कुछ कम लाभ नहीं है, पर ऐसी पराजय सही-सही माने में आंशिक जय ही है। शूर वीर, निराशा के आँसुओं में डूबते नहीं वरन् अपरिहार्य चुनौती देकर उससे लड़ते हैं। इस भौतिक अस्तित्व में जब चार शत्रुओं का सामना करना ही है तो शूर को ऐसी युद्धनीति' प्रयोग करना चाहिए जिससे मनुष्य जाति की कम-से-कम हानि हो, उसे अधिक-से-अधिक लाभ हो। मेरे मत में वह युद्धनीति है कर्मयोग है, जिसमें मनुष्य जाति अधिक-से-अधिक सुख पाने के लिए अथवा कम-से-कम दुःख पाने के लिए सांसारिक कर्म यथावत् करती है। आपके मत में संसार का, कामिनी, कृषि और कृपाण का आत्यंतिक त्याग करनेवाला कर्म संन्यास ही मरने तक जीने का प्रशंसनीय मार्ग है, पर अब यही सिद्ध हुआ है कि इन तीनों त्यागों में से आत्यंतिक शस्त्रत्याग लोकहित का बाधक है; क्योंकि आपका शस्त्रत्याग का उदात्त उपदेश केवल सत्प्रवृत्त लोग ही मानेंगे। केवल वे ही दया, अहिंसा, क्षमा जैसी उच्च भावनाओं के सहारे जीवनयापन करने की कोशिश करेंगे, पर दुष्ट, दुर्जन आपके उपदेश को ताक पर रखकर शस्त्रशक्ति से प्रबल बनने की कोशिश करेंगे। इस प्रकार सुष्ट और दुष्टों की लड़ाई में शस्त्रों के फौलादी पाँव धर्मग्रंथों के पन्नों की ढाल को रौंदकर उसे चूर-चूर कर देंगे। याद है, यही बात मैंने चालीस वर्ष पहले कही थी। आज वही सत्य सिद्ध हुई है, पर मुझे इससे खुशी नहीं अपितु दुःख ही है। मेरा यह अनिष्ट भविष्य असत्य निकले, इसी आशा से मैंने इच्छा न होते हुए भी आपके मार्ग का अनुसरण किया था। शस्त्र संन्यास लेकर मैंने भिक्षु धर्म स्वीकार किया था, उसका पूरे मन से पालन भी किया, पर आखिर शांतिमय जगत् से शस्त्रयुद्ध समाप्त नहीं हुए। और अब तो शस्त्रयुद्ध के कोलाहल से वह शांति ही नामशेष होने जा रही है। एक तरफ मगध का राजा बिंबिसार आपका शिष्य हुआ; क्षमा और अहिंसा का भक्त हुआ, पर उसका पुत्र अजातशत्रु आपका वैरी हुआ। उसने बाप के विरुद्ध युद्ध छेड़ा और वह बाप को मारकर सिंहासन पर¨¨नहीं, हम सबकी छाती पर विराजमान हुआ। मगध का यह समाचार अभी नया-नया ही था कि कोसल से समाचार आ धमका कि विधुत्गर्भ ने भी अपने पिता को मृत्युद्वार की ओर धकेलकर राज्यश्री को हड़प लिया है। विद्युत्गर्भ का पिता प्रसेनजित भी आपका शिष्य था। आपकी दया, शांति, अहिंसा पर उसका भी दृढ़ विश्वास था, पर आपके उपदेश का परिणाम उसके पुत्र पर विपरीत हुआ। वह आपका कट्टर वैरी हुआ। इस पुत्र ने भी पिता के विरोध में तलवार उठाई। शस्त्र संन्यास का अभिमानी सुष्ट पिता अपने प्राण बचाने भाग निकला, पर आखिर पुत्र के हाथों मारा गया। राजा बिंबिसार, राजा प्रसेनजित, शाक्य आदि जिन-जिन लोगों ने आपका उपदेश सुना, उसका अनुसरण किया, वे सब काल के गाल में समा गए और जो उपदेश का तिरस्कार कर शस्त्र को पूजते रहे, वे सब दुष्ट अपने जीवन में सफल होते गए। आखिर निर्बल कारुण्य को क्रोध ने और दुर्बल दया को दुष्टता ने नष्ट कर दिया।

बुद्ध : भिक्षु विक्रमसिंह, तो क्या आप यह कहना चाहते हैं कि मेरे संन्यास संघ के कारण आज तक कोई लोक कल्याण नहीं हुआ?

विक्रमसिंह : भगवन्, न केवल इस संन्यास संघ ने, अपितु संन्यासाश्रम ने ही जीव मात्र पर अनंत उपकार किए हैं। वन में रहनेवाले संन्यासी का हर शब्द पूरी मानव जाति का नीतिशास्त्र बन गया है। 'धर्मो हि विश्वस्य प्रतिष्ठा'। कई महान् विभूतियों के पद-स्पर्श से यह संन्यासाश्रम स्वर्ग के समान पूजनीय हुआ है। हम अपने इस संघ की अर्थात् आपकी ही बात लेते हैं। भगवन्, आपके सरल, शीतल, करुणापूरित धर्मोपदेश से पूरे चालीस साल सहस्त्राधिक मानवों के मन की अशांति मिट गई है। आपने यज्ञ को व्यर्थ सिद्ध किया, आपने और आपके भिक्षुओं ने गाँव-गाँव जाकर सदाचरण और लोकप्रेम को सच्चे धर्म साधन के रूप में प्रतिष्ठित किया। आपके भिक्षु गाँव-गाँव जाकर रोगियों की सेवा करते हैं, संकटग्रस्त लोगों को संकटों से मुक्ति दिलाते हैं। घर-घर तक आप निर्मत्सर होने का परस्पर दयाभाव एवं क्षमाभाव का संदेश पहुँचाते हैं। इस उदात्त उपदेश से घर-घर में संतोष-समाधान का शीतल वातावरण उत्पन्न होता है। हे दयामय भगवान, आपके इन अमृतमय उपदेशों का यह संसार सदैव ऋणी रहेगा, पर आप जैसे महान् विभूति के चालीस साल के दृढ़ प्रयास भी, शस्त्रबल की उपेक्षा हानिकारक है, यह सत्य असिद्ध नहीं कर सके-पर यह ऊपरी तौर पर नजर आनेवाला अपयश ही उन प्रयासों का यशस्वी परिणाम है।

आनंद : (प्रवेश करता है।) बुद्धं शरणं गच्छामि, धर्मं शरणं गच्छामि, संघ शरणं गच्छामि। शाक्य गणतंत्र का राजदूत तथागत बुद्ध और भिक्षुवर विक्रमजी से मिलने आया है। वह शाक्य गणतंत्र के बारे में एक बुरा समाचार लाया है। कोसलराज विद्युतगर्भ असावधान शाक्य प्राजक पर अचानक धावा बोल उसकी दुर्दशा कर रहा है।

विक्रम : तो बात यहाँ तक आ पहुँची! आनंद, जाओ और उस शाक्य प्रतिनिधि को भगवान् बुद्ध के समीप ले आओ। जाओ, जाओ जल्दी। (आनंद जाता है।) भगवन्, देखा आपने! आपके आत्यंतिक अहिंसामय उपदेश से कुछ व्यक्ति भले ही करुणामय हों, पर सभी तरफ यह परिणामकारक नहीं हो सकता। आपकी दैदीप्यमान उपस्थिति में अगर संसार की यह स्थिति है तो आपके बाद इसका क्या होगा? क्रूर प्रवृत्ति के असुर इस संसार में व्यक्ति और देश के रूप में अवश्य रहेंगे। यह व्यवहारतः तो सिद्ध हो ही रहा है, पर तत्त्वतः भी इसमें कुछ दोष रहते हैं। मान लें कि आप आज की पूरी-की-पूरी पीढ़ी को संन्यस्त बना देंगे, पर अगली पीढ़ी में जन्म लेनेवाले कोटि-कोटि जीवों के पूर्व संचित कर्म अलग-अलग होंगे और पूर्व कर्म के अनुसार ही उनकी जन्मजात प्रवृत्ति भी अलग-अलग होगी। इसलिए एक ही उपदेश से कोई दयालु होगा तो कोई क्रूर। उन कोट्याधिक जीवों के मनोविकास के भी कोट्याधिक स्तर होंगे। तदर्थ अगर वे दया से द्रवित हों तो अच्छा ही है, पर जिन दुष्टों पर दया का कोई परिणाम नहीं होगा, उन्हें दंड से, बल प्रयोग से उस परोपद्रवी दुष्टता से परावृत्त करना पड़ेगा। पागल कुत्ते को दंड से नियंत्रित करना भूत दया ही मानी जाती है। हम मान लेते हैं कि अधिक-से-अधिक सुष्ट प्राणियों के हित के लिए एक दुष्ट प्राणी को दंड देना ही सच्चा धर्म है। हिंसा के दाँत और नाखून शस्त्र से काट देना ही सच्ची अहिंसा है।

शाक्य राजदूत : (प्रवेश कर) बुद्धं शरणं गच्छामि, धर्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि। भगवन्, शाक्य राष्ट्र पर प्राणघातक संकट आन पड़ा है। इसलिए मैं बिना प्रश्न की प्रतीक्षा किए, स्वयं ही शीघ्रातिशीघ्र आपको सबकुछ बताना चाहता हूँ। सेनापति विक्रमसिंह, कोसलराज विद्युत्गर्भ बिजली की तरह शाक्य राष्ट्र पर टूट पड़ा है। इससे हमारी सेना के सैनिक तितर-बितर हो गए हैं। केवल एक ही सैनिक ने अभी तक विद्युत्गर्भ को रोके रखा है और वह सैनिक है वल्लभसिंह, आपका पुत्र। मरणासन्न शाक्य राष्ट्र के हृदय में केवल एक ही आशा-दीप जल रहा है, वह है शाक्यों के वीर धुरंधर भीष्म पितामह से सेनापति की सहायता और भगवान बुद्धदेव के आशीर्वादों की आशा। हम जानते हैं कि आप संन्यासी हैं। अतः आपसे यह प्रार्थना करना अनुचित है। फिर भी विक्रमसिंहजी, हम हाथ जोड़कर आपसे विनती करते हैं कि शाक्य राष्ट्र के इस प्राणांतक संकट में आप उसकी रक्षा कीजिए। गजेंद्र-मोक्ष के समय जैसे भगवान् विष्णु गजेंद्र की सहायता के लिए दौड़ पड़े थे वैसे ही आप संकट की इस घडी में शाक्य राष्ट्र की रक्षा करने हेतु दौड़ पड़िए। श्रीकृष्ण की तरह 'आर्तपरित्राणार्थ प्रतिज्ञाभंग' भी उचित ही समझना चाहिए। विद्युतगर्भ को जीतने से ही शाक्य राष्ट्र बच सकता है और उसे जीतने की सामर्थ्य विक्रमसिंहजी, केवल आप ही में है।

बुद्ध : राजदूत, शाक्य राष्ट्र को तू हमारा संदेश पहुँचा दे। उसे बता कि शाक्यों के दु:ख से तथागत को बहुत दुःख हुआ, पर उतना ही दुःख उन्हें विधुत्गर्भ और कोसल राज्य के बारे में भी हो रहा है। अगर शाक्य अत्याचार और यंत्रणाओं की आग में जल रहे हैं तो कोसल क्रोध और मत्सराग्नि में जल रहे हैं। बुद्ध के लिए दोनों ही एक से हैं। हमारा अनुशासन है कि दोनों ही राष्ट्र वैर भावना को मन से निकाल दें।

विक्रमसिंह : पर वैर भावना को तो वही हृदय से निकाल सकता है जिसके हृदय में वैर भावना हो। वैर भावना छोड़ने का आपका आदेश शायद बाघ या शेर भी पालने लगें, पर दुष्ट-दुर्जन इस तरह का आदेश कदापि नहीं पालेंगे, इसलिए ऐसे दुष्टों का दमन दंड से ही किया जा सकता है।

बुद्ध : दंड से किया दमन स्थायी नहीं होता। दुष्टों को सुष्ट करने का एकमात्र प्रभावशाली उपाय है उन्हें दुष्टता से परावृत्त करना।

विक्रमसिंह : यह उपाय केवल कल्पना में ही ठीक है। मृत्यु के बाद मिलनेवाला स्वर्ग का अमृत प्यास को बुझाने के लिए अति उत्तम है, पर इस जगत् के प्यासे जीवों के लिए गाँव की पहाड़ी से बहनेवाले झरने का पानी ही बहुत है। काव्य में कल्पवृक्ष सर्वोत्तम है, पर कड़ी धूप में हमारे काम आते हैं सीधे-सादे बरगद और पीपल के पेड़। दुष्टों को सत्प्रवृत्त बनाने का प्रथम अचूक उपाय होता है दंडशक्ति का पर्याप्त मात्रा में प्रयोग। आपका चालीस वर्षों का अनुभव बताता है कि दुष्टता की एक ऐसी स्थिति भी होती है जहाँ बुद्धदेव का साधुवाद भी असाधु सिद्ध होता है। विद्युत्गर्भ भी परले दर्जे का दुष्ट है। इसलिए दंड से उसका हृदय परिवर्तन न भी हो तो भी उसकी दुष्ट शक्ति को कम जरूर किया जा सकता है। उपदेश से यह तात्कालिक लाभ भी नहीं होता। दुष्ट के क्रोध के नाखून काट देने से, दाँतों को उखाड़ देने से उसका क्रोध भले ही शांत न हो, पर उसकी प्राणघातक, रक्तरंजित महत्त्वाकांक्षा से यह जग तो मुक्त हो जाएगा, शांति से जी पाएगा।

बुद्ध : भिक्षुप्रवर विक्रम, मैं आपके भाषण का मर्म जान गया हूँ, पर हम हैं संन्यस्तकाम संन्यासी। संन्यास धर्म अहिंसा का पुरस्कर्ता है। आपका कथन है कि मनुष्य के लिए आत्यंतिक अहिंसा का आचरण असंभव है और जब प्रबल तथा दुष्ट दुर्जनों से पहले सुष्ट-सुजन उसका आश्रय लेते हैं तब यह आत्यंतिक अहिंसा हिंसा जितनी ही लोक घातक हो सकती है। आपका यह तर्क अकाट्य है। अतः मैं अपने गृहस्थाश्रमी अनुयायियों को न्याय युद्ध में आततायियों के विरुद्ध लड़ने की अनुमति देता हूँ। विद्युत्गर्भ के अत्याचारी आक्रमण का प्रतिकार करने के लिए शाक्य राष्ट्र शस्त्र धारण कर सकता है। इस हिंसा का पाप उस सदाचारी प्रतिकारी को नहीं, प्रत्युत अत्याचारी आक्रामक को लगेगा। 'मन्युस्तन् मन्यु मृच्छति'। हे राजदूत, जाकर शाक्यजनों को मेरी अनुज्ञा बता दो। इस धर्मयुद्ध में आपकी असिलता को मेरे आशीर्वाद सहायक हों।

राजदूत : भगवन्, इस आशीर्वाद के लिए समूचा शाक्य राष्ट्र आपका आभारी है। अभी-अभी आपने शाक्यों की असिलता की सहायता के लिए दैवी आशीर्वाद दिए। अब भगवान् मुझे शाक्यों की वह असिलता भी दे दें ताकि मैं उलटे पाँव शाक्यों के पास लौट जाऊँ। जी हाँ, शाक्यों की वह असिलता चालीस सालों से आपके चरणों के पास कोशबद्ध हो गई है।

बुद्ध : शाक्यों की कोशबद्ध असिलता! कहाँ है वह? यहाँ, मेरे पास?

राजदूत : जी हाँ, भगवन्, वह यहीं आपके पास है। शाक्यों के विगत सेनापति के देहकोश में गुप्ती की तरह गुप्त रूप से रहनेवाली वीरता हमें सौंप दीजिए। जैसे ही खड्गहस्त सेनापति विक्रमसिंह का रणसिंहा रणांगण में बजेगा, शाक्यों के वन में छिपे सियार भी सिंह हो जाएँगे।

बुद्ध : क्या? भिक्षुवर विक्रम तलवार चलाएँ? संन्यासी अपने वस्त्रों को रक्त में भिगोकर उन्हें केसरिया बनाएँ? असंभव! राजदूत, हम संन्यासी, विरक्त हैं, समदर्शी हैं। हमें आपके सांसारिक विवादों में नहीं उलझना है। हमारे लिए आप सभी एक जैसे हैं। यह आपने कैसे सोचा कि संन्यासी के शस्त्र ग्रहण का, नरसंहार करने का हम समर्थन करेंगे? संन्यस्त भिक्षुधर्म की दो मूलभूत प्रतिज्ञाएँ हैं-आत्यंतिक ब्रह्मचर्य और आत्यंतिक शस्त्रत्याग। यही तो संन्यस्त भिक्षुधर्म की दो मूलभूत प्रतिज्ञाएँ हैं, उन्हें कैसे तोडा जा सकता है!

विक्रम : भगवन्, शायद आप मुझे क्षमा न करें, पर मुझे अब यह कहना ही पड़ेगा कि अगर संन्यासी, विरक्त सांसारिक विवादों से मुँह मोड़ेंगे, न्यायी और अन्यायी दोनों को एक समान मानेंगे तो तथागत बुद्ध के अनुशासन को भंग करनेवाले भी तथागत बुद्ध हो जाएँगे। भगवन, कई वर्ष पहले, जब आप राजगृह में थे तब वहाँ सैकड़ों पशुओं को मारनेवाला यज्ञ होनेवाला था। राह में बलि चढ़ानेवाले पशुओं का झुंड जा रहा था। आपने देखा कि उनमें से एक छोटा सा मेमना अलग पड़ गया था। वह लँगड़ाते-लँगड़ाते उनके पीछे जा रहा था। उसे देखकर आपका दिल पसीजा और उसे गोद में उठाए आप उस झुंड के पीछे राज्य के यज्ञागार में गए। विप्रों से वाद-विवाद कर आपने उन्हें समझाया कि यज्ञ में जीव हिंसा करना पाप है और इस तरह आपने उस मेमने के साथ-साथ उन सभी पशुओं को भी मुक्त कराया। उन दिनों भी आप संन्यस्त थे। फिर भी मेमने के साथ-साथ उन सैकड़ों पशुओं को हिंसा से बचाने के लिए आप सांसारिक वाद-विवाद में उलझ गए। अब यहाँ हजारों निरपराध बच्चों के, अनाथ कन्याओं के, निरीह लोगों के जीवन का प्रश्न है और आप कहते हैं कि संन्यासी की दृष्टि में अत्याचारी विद्युत्गर्भ और निरपराध शाक्य एकसमान हैं। संन्यासी को समदर्शी होना चाहिए, पर संन्यस्त गन्ने को छिलका निकालकर चूसते हैं, भूसा फूँककर चावल खाते हैं, गंदा जल छोड़कर बहती नदी का पानी पीते हैं। दुधारू गाय का दूध पीते हैं, साँप की बाँबी में हाथ नहीं डालते। हम शहद खाते हैं, पर बिना मक्खियों को छोड़े। अगर यह सब सच है तो यह भी सच है कि हम अच्छे और बुरे को पहचानते हैं।

बुद्ध : तो फिर आपकी राय में ऐसे समय में संन्यासी का क्या कर्तव्य है?

विक्रमसिंह : कर्तव्य? यही कि गाय की गरदन चबानेवाले बाघ के सामने धम्म पद का अनुष्टुप न गाएँ, क्योंकि उसके पूरा होने से पहले ही बाघ गाय के कंठनाल को तोड़कर उसका रक्त पी चुका होगा। हमें तलवार के एक वार से उस बाघ का मस्तक काट देना चाहिए। इसी तरह सच्चे संन्यासी को इस दुष्ट विद्युत्‍गर्भ की सेना पर तत्काल हमला कर उसे मार देना चाहिए। इससे सहस्राधिक निरपराध शाक्यों की पत्नियाँ और उनके बच्चों को जीवनदान मिलेगा। अगर भिक्षु को स्वर्ग प्राप्ति के लिए पशु हत्या निर्दयता लगती है तो अहिंसा के पागलपन के लिए नरहिंसा का प्रचलन जारी रखना संन्यासी के लिए कलंक है। वह तो पशु हत्या से सौ गुना अधिक निर्दयता है। भगवन्, मुझे युद्ध करने की आज्ञा दीजिए। मुझमें अभी भी उन दुष्टों को शमित करने की शक्ति है। कम-से-कम उनकी भविष्य की क्रूरता को तो मैं निर्बल कर ही सकता हूँ। अभी भी शाक्य राष्ट्र उस अत्याचारी के दाँत खट्टे कर सकता है, विजय प्राप्त कर सकता है।

बुद्ध : उससे क्या होगा? आज विद्युत्गर्भ ने शाक्यों पर विजय पाई, कल शाक्य विद्युत्गर्भ पर विजय पाएँगे। विजय किसीकी भी हो, उनका आपसी वैर चलता ही रहेगा। पराजित दुःखी ही रहेगा। इसलिए संन्यस्तकाम मनुष्य जय और पराजय की बातों को छोड़कर शांत रहता है, सुख की नींद सोता है।

'जयो वैरं प्रसवति दुःखं शेते पराजितः।

उपसंतः सुखं शेते हित्वा जयपराजयम्॥'

विक्रमसिंह : हाय! यह मैं क्या सुन रहा हूँ? भगवन्, निर्वाण पद प्राप्त करने के बाद भी आप दुःख तप्त जगत् की करुणा के कारण देह कर्म करते रहे। वह क्या इसी वचन के आधर पर? केवल 'सुखं शेते'-सुख की नींद सोना ही क्या संन्यासी का प्रमुख गुण है? अगर है, तो अच्छा होता कि आप निर्वाण पद की नींद ही सो जाते, देह त्याग कर देते। और अगर आपके 'सुखं शेते' का लाक्षणिक अर्थ स्थितप्रज्ञता, कर्मफल का अंतस्त्याग हो तो वह शस्त्र संन्यास की तरह शस्त्र धारण में भी संभव है। संन्यासी काँटे को शरीर से कुरेदकर निकालने के लिए सूई को हाथ में लेता है। इसी तरह खलकंटक को समाज-शरीर से निकालने के लिए वह हाथ में खड्ग क्यों न ले? दस कोस की दूरी पर किसीके पैर में काँटा चुभ जाए तो आपका दिल पसीज उठता है। तब भी तो आपकी लाक्षणिक या तात्त्विक अर्थ से न सही, पर शाब्दिक अर्थ से नींद टूट ही जाती है। आपके अनुसार, जय वैर को पालना है और पराजित दुःखी होता है। कुछ अंशों में यह सत्य है, पर अन्यायी की पराजय का दुःख टालने के लिए न्याय को पराजित होने दें, यह कहाँ का न्याय है? चोर को चोरी न कर सकने का दुःख न हो, इसके लिए क्या भले लोगों को घर के दरवाजे खुले रख छोड़ने को बाध्य करें? या फिर पराजित को पराजय का दुःख उसके अन्यायी कर्मों के दंड के रूप में भुगतने दें? अन्यायी, आततायी का पराजय का दुःख बुरा है, पर इसके लिए अगर हम दुर्जनों का उद्दंड अन्याय चलने देंगे तो निरपराध सुजनों को अपार यातनाएँ सहनी पड़ेंगी। इससे पूरी मानव जाति संत्रस्त और दु:खी होगी और यह दुर्जनों की पराजय के दुःख से हजारों गुना बुरा होगा। दुष्ट को मिला दंड ही उसका प्रायश्चित्त है और वही उसकी दुष्ट प्रवृत्ति की रोकथाम कर सकता है। उसकी दुष्प्रवृत्ति कम होगी। तब सदुपदेश और अच्छी आदतों से उसे पूरी तरह मिटाया भी जा सकता है। कभी-कभी पर दुःख ही पर कल्याण का अपरिहार्य मूल्य बन जाता है। आपने घरबार और गृहस्थी छोड़ दी। तब आपकी पत्नी यशोधरा को क्या कम दुःख हुआ होगा? पर पिता या पत्नी के लिए आप घर नहीं गए। जो भी युवक या युवती संन्यास ग्रहण कर आपके संघ के सदस्य बन जाते हैं, उन्हीं के घर में दु:ख का सागर उमड़ता है। इसीलिए कई नगरों ने आपका बहिष्कार कर दिया। देवदत्त ने नया धर्मपंथ निकाला। आपके विरोध से वह दु:खी हो गया, क्रुद्ध हो गया। आखिर आप दोनों का यह वैर इतना अधिक बढ़ गया कि देवदत्त ने आपको मारने के लिए हत्यारा तक भेजा, पर न आप देवदत्त के संघ के सदस्य बने, न देवदत्त के दुःख को दूर करने के लिए बुद्ध संघ का विसर्जन ही किया। क्या इसका कारण यही नहीं था कि देवदत्त का दुःख और यह आपसी वैर लोक कल्याण के लिए दिया गया अपरिहार्य मूल्य था? एक अपराधी का दुःख लाखों निरपराधों को दुःख में डालकर दूर नहीं किया जा सकता। यही न्याय संन्यासी के शस्त्र संन्यास पर भी लागू हो सकता है। जिस राष्ट्र का अन्न खाकर संन्यासी का शरीर प्रतिदिन पोषण पाता है, उसी राष्ट्र पर एक उदंड राक्षस-ऐसा राक्षस जो राजसत्ता के लिए अपने बाप को भी मार सकता है-सहस्राधिक सैनिकों के साथ धावा बोल रहा है। ऐसे समय अपनी नींद खराब न हो, इस डर से जो संन्यासी सक्षम होते हुए भी उस राक्षस पर तलवार से वार न करे, उस संन्यासी को धिक्कार है! राष्ट्र के लाखों आबाल-वृद्धों को जब मौत के घाट उतारा जा रहा हो और उनकी चीखों से आकाश गूंज रहा हो तब जो संन्यासी अपने कानों में निरर्थक और अनर्थकारी प्रतिज्ञाओं के बोल ठूँस लेता हो और चैन की नींद सोता हो, उस संन्यासी को शतधा धिक्कार! क्या आराम की नींद सोना ही उपसंतों या संन्यासियों के जीवन का लक्ष्य है? नहीं, यह लक्ष्य किसी स्वार्थी या आलसी का हो सकता है, संन्यासी का नहीं। इसलिए भगवन्, मुझे युद्धभूमि में जाने की आज्ञा दीजिए। वैसे भी अब शाक्यों की आशा और आयु की घड़ी मंद होती जा रही है। अतः अविलंब मुझे जाने की आज्ञा दीजिए। मैं तुरंत आकाश में गरुड़ की तरह उड़ान भर शाक्यों के प्राणों से लिपटे उस कोसल के अत्युग्र भुजंग को काटकर फेंक दूँगा। कहीं मुझे देर हो गई तो वह भुजंग शाक्यों को डँस न ले।

बुद्ध : भिक्षुवर विक्रम, आप जैसे तत्त्वज्ञानी संन्यस्त भिक्षु का इस तरह एकाएक उत्तेजित हो उठना बड़े आश्चर्य की बात है! चाहे जो हो, मैं अपने संघ के प्रमुखतम भिक्षु को शस्त्र लेकर युद्ध में कूद पड़ने की आज्ञा नहीं दे सकता। आत्यंतिक शस्त्र संन्यास की शपथ बौद्ध संघ और संन्यास की मूल भित्ति है। मैं किसी भी भिक्षु को उसे तोड़ने न दूँगा।

विक्रम : यह तो इस राष्ट्र का दुर्भाग्य है कि यह दुर्बल संन्यास धर्म यहाँ का सर्वोच्च धर्म समझा जा रहा है। शाक्य दूतो, जाओ। जाकर राजसभा में कह दो कि विक्रमसिंह जान गए हैं कि उनकी आत्यंतिक शस्त्र संन्यास की प्रतिज्ञा अदूरदर्शिता थी, गलती थी। उससे लोक कल्याण की हानि हो रही है। वे मानते हैं कि इस गलती को न सुधारने से उनके दृढ़ निश्चय का मूल्य बढ़ता नहीं, वरन् घटता है। फिर भी उन्हें यह गलती सुधारने के लिए भगवान् बुद्ध की अनुज्ञा नहीं है। अतः उनकी स्थिति वैसे ही मंत्रबद्ध नाग की तरह हो गई है, जो मंत्र की परिधि को लाँघ नहीं सकता। विक्रमसिंह भी शाक्यों की रक्षा के लिए खड्ग धारण कर समर में कूद पड़ने को आतुर है। फिर भी वे ऐसा कर नहीं सकते।

राजदूत : ऐसा मत कीजिए। आपने एक कान से बुद्धदेव की इच्छा का अंतिम शब्द सुना। अब साथ ही दूसरे कान से आप इस आर्त, त्रस्त, मरणोन्मुख शाक्य राष्ट्र की व्याकुल पुकार भी सुन लीजिए और तभी अंतिम निर्णय लीजिए। इस भयंकर संकट में शाक्य राष्ट्र की आत्मा छटपटा रही है। वह छटपटाहट किसी एक की जिह्वा प्रकट नहीं कर सकती। इसलिए यह शाक्यों की जातीय जिह्वा ही आपके सम्मुख राष्ट्रीय करुणा व्यक्त करेगी। (विक्रमसिंह का खड्ग निकालकर उनके सामने रखता है।)

विक्रमसिंह : (चौंककर) अरे, यह तो मेरा ही खड्ग है। चालीस साल पहले शस्त्र संन्यास लेते समय मैंने इसे त्याग दिया था। यह वही खड्ग है जिससे मैंने बारह बार शाक्य-शत्रुओं को धूल में मिलाया था।

राजदूत : सेनापति, उन बारह विजयों के प्रतीक के रूप में हमने इस खड्ग की मुट्ठी पर बारह रत्न जड़े हैं और हम शाक्य इसे राष्ट्रीय सत्ता के रूप में राजसभा में टाँगकर रखते हैं। शाक्यों ने इसे अपने प्रतिनिधि के रूप में संदेश देने के लिए, हमारी प्रार्थना सुनाने के लिए और आपको मनाने के लिए भेजा है। शाक्य राष्ट्र को अगर मरना ही होगा तो वह वीरोचित प्रतिकार करते हुए मरेगा, पर वह भी अगर आप इस खड्ग को हाथ में लिये रणभूमि में उतरेंगे तभी संभव होगा। महाराज, क्षण भर के लिए आप मेरी आँखों से यह दृश्य देखिए। देखिए, कोसलों की लगाई आग से आमपल्ली, केदनावती, लींबणीस¨¨और इसी तरह और भी कई गाँव जल रहे हैं। जलते मकानों की टूटकर गिरती छतों और दीवारों के नीचे दबकर बूढ़े और बाल-बच्चे जलकर राख हुए जा रहे हैं। उनके जले हुए मांस की उग्र गंध दूर-दूर तक फैल रही है। कोसल के सैनिक नंगी तलवार हाथ में लिये 'मारो-काटो' की धूम मचाते सामने पड़नेवाले हर शाक्य को निर्दयता से मार रहे हैं। शाक्यों के गाँवों-के-गाँव लूटे जा रहे हैं, कुचले जा रहे हैं। देखिए, उन स्त्रियों के झुंड पर घोड़े दौड़ाते हुए उन राक्षसों को जरा भी लज्जा नहीं आई। देखिए, बेचारे निरपराध बच्चे उनके पैरों तले रौंदे जा रहे हैं। वे खून के फव्वारे, वे कटकर जमीन पर गिरते सिर, वे चीखें, यह भाग रहा है, वह कराह रहा है! महाराज, शाक्य राष्ट्र आपका बच्चा है। कसाई विद्युत्‍गर्भ और उसका दुष्ट सेनापति उसकी पीठ में छुरा भोंकना चाहते हैं। यह सहमा हुआ, रोता हुआ बच्चा आपसे लिपटकर अपनी जान बचाना चाहता है। आप दया कर उसे बचाइए।

विक्रमसिंह : बचाऊँगा, जरूर बचाऊँगा मैं उसे। राष्ट्र की इस दुर्दशा में अगर किसी शाक्य संन्यासी को सुख की नींद आती हो तो आए। पर मैं तो इस तरह निश्चिंत होकर नहीं सो सकता। भगवन्, आप सुन रहे हैं न! तो फिर उठा लूँ यह खड्ग!

बुद्ध : यह संन्यास धर्म के, भिक्षु धर्म के सर्वथा विरुद्ध है। इससे अधिक कुछ भी नहीं कहना चाहता मैं।

विक्रमसिंह : तो फिर बिना आपकी आज्ञा के ही मैं इस दुर्बल, जातिघातक, मानवहित विरोधी संन्यास धर्म से ही संन्यास लेता हूँ। देखिए, मैंने यह कर्तव्य-कृपाण उठा लिया। ऐ मेरे शाक्य राष्ट्र, हे संत्रस्त मानवो, यह संन्यासी राष्ट्रधर्म, मनुजधर्म और भूतदया के लिए यह शस्त्र अपरिहार्य साधन के रूप में उठा रहा है। इससे मैं विद्युत्गर्भ की क्रूरता को पराजित न कर सका तो न सही, पंगु तो बना ही सकता हूँ, और इस तरह मैं सहस्राधिक लोगों को बचा सकता हूँ। गत चालीस वर्षों के शस्त्र संन्यास से मैं जितने साधुओं का परित्राण और जीवों का उद्धार न कर सका, उतना लोक कल्याण में शस्त्र धारण के चालीस दिनों में कर सकूँगा। मैं जाता हूँ। एक-एक क्षण के विलंब से शाक्यों के गले में मृत्यु का फंदा और कसता जा रहा है। फिर भी हे चराचर तत्त्व, तुम साक्षी हो, लोकहित के बाधक और प्रतिकूल प्रतिज्ञाओं से पंगु बने इस संन्यासाश्रम का मैं त्याग कर रहा हूँ। जिस आत्यंतिक अहिंसा से दुष्टों का परित्राण और साधुओं का विनाश होता है, वह अहिंसा धर्म नहीं प्रत्युत अधर्म है। इसीलिए मैं इसे छोड़कर जा रहा हूँ, बुद्धदेव को नहीं।

तीसरा अंक

: पहला दृश्य :

[विद्युत्‍गर्भ और कोसल का सेनापति।]

सेनापति : कोसलेश्वर विद्युत्गर्भ महाराज! शाक्य राष्ट्र पर आपकी चढाई की सफलता तो शिखर तक पहुँच गई। शाक्यों का सेनापति वल्लभसिंह आज आपके हाथ लगा, इससे अधिक अपने कोसल राष्ट्र के पराक्रम को अधिक भूषणभूत और कौन सी बात हो सकती है? पर वह वल्लभसिंह योद्धा बड़ा दृढ़ और वीर है! कल उसने कोसल की सेना के छक्के छुड़ा दिए थे, पर महाराज विद्युत्गर्भ का भाग्य बलवतर सिद्ध हुआ।

विद्युत्गर्भ : और कोसल सेनापति, इसका श्रेय आपके पराक्रम को भी जाता है। आपके कारण ही वल्लभ हमारे हाथ लगा। अब इस अवसर का लाभ भी उसी कुशलता से पूरा उठाना चाहिए। देखिए, शत्रु पक्ष से ये दो पत्र मिले हैं आज। यह पहला पत्र है गौतम बुद्ध का। ये अनाड़ियों के आचार्य 'छू-मंतर' करके संसार से युद्ध का नामोनिशान मिटानेवाले थे। सिंह के दाँतों को बुढ़िया के मसूड़ों की तरह कमजोर और लचीले बनानेवाले थे। ये आज मुझे वैर को छोड़ देने की आज्ञा दे रहे हैं। कहते हैं कि शस्त्र त्याग करो, क्योंकि दंडबल से अधिक हितकारी क्षमा है। हमारे पिताजी इनके पीछे पागल हो गए, इसीलिए कोसल राष्ट्र का दंडबल इतना दुर्बल हो गया कि शाक्यों जैसे हमारे अधीनस्थ सामंतों में भी हमारी उपेक्षा करने का साहस आ गया। बुद्ध शाक्य जाति के हैं। इसलिए पिताजी ने शाक्यों की बेटी से विवाह करना सम्मानजनक समझ विवाह के लिए उसका हाथ माँगा, पर उन्होंने शाक्य कन्या की जगह पिताजी को एक दासी दे दी और उसी से मेरा जन्म हुआ। शाक्यों के इस कपट के कारण मेरे माथे पर आजीवन 'दासीपुत्र' का कलंक लग गया। उसका स्मरण होते ही तन जल उठता है। इन शाक्यों को मैं कोसल के घोड़ों के पाँवों तले रौंद दूँगा। ये बुद्ध कहते हैं कि वैर से वैर बढ़ता है। शस्त्र से अपनी ही अंगुलियाँ कट जाती हैं।

सेनापति : शस्त्र सँभालने की सामर्थ्य न होने से अपनी ही अंगुलियाँ कटवानेवाले हमारे कोसलेश्वर कायर बुद्धधर्मीय नहीं हैं। नाखूनों से अपना ही खून निकलेगा या पूरे वन के पशुओं से वैर हो जाएगा, यह सोचकर कहीं शेर भी अपने नाखून काटता है? महाराज, आप अपने पिताजी की तरह बुद्ध की बातों में नहीं आएँ। आपने अपना सैन्य और शस्त्र बल सजग रखा। इसीलिए आज कोसल शक्तिशाली राष्ट्र है, अन्यथा आज जो स्थिति हम शाक्यों की कर रहे हैं वही सीमा प्रांत के बर्बर राष्ट्र हमारे कोसल की करते। बुद्ध का उपदेश सुनकर अगर सिंह अपने नाखून और दाँत निकाल दे तो बंदर उसकी पीठ पर सवारी करने लगें। वन्य मृग उसी की मृगया करने लगें। एक बात निश्चित है कि हम दिग्विजय कर कोसल का साम्राज्य स्थापित करेंगे।

विद्युत्गर्भ : इसीलिए इस उपदेश पत्र का जवाब इसे फाड़कर ही देना चाहिए। अब यह है दूसरा पत्र। यह पहले से एकदम अलग है, क्योंकि यह शब्दनिष्ठ संन्यासी का नहीं प्रत्युत शस्त्रनिष्ठ संन्यासी का है। ये भिक्षु हो गए। इसीलिए शाक्य इस तरह दुर्बल हो गए कि हम उन्हें अपने अधीन कर सके। अब इनके शस्त्र हाथ में लेकर रणांगण में उतरते ही शाक्यों में अपूर्व उत्साह का संचार हो गया। ये हमें इस देश को छोड़ देने की आज्ञा दे रहे हैं। इन्हें थोड़ा पुचकारना पड़ेगा।

सेनापति : इससे तो अच्छा है कि हम प्रचार करें कि इस संन्यासी ने अपनी आत्यंतिक शस्त्र संन्यास की प्रतिज्ञा को तोड़ने का जघन्य अपराध किया है। इससे ये शाक्यों में अपूज्य और अप्रिय होंगे।

विद्युत्गर्भ : हाँ, यह ठीक रहेगा, पर इसके साथ-साथ हमें इस तरह का प्रचार करना चाहिए जिससे बुद्ध शाक्यों में पूज्य और प्रिय हों, क्योंकि इससे शाक्य संन्यास प्रवण बौद्ध धर्म का पालन करेंगे और जैसाकि होता आ रहा है, शाक्य राष्ट्र का कृषि क्षय, प्रजा क्षय और शक्ति क्षय होता रहेगा। वह अधिकाधिक दुर्बल होता जाएगा। शाक्यों के राज्य में मैं घोषणा करूँगा कि कोसलेश्वर को गौतम बुद्ध के लिए असीम आदर है। गौतम बुद्ध को कोई भी सांसारिक मोह संन्यास धर्म से डिगा नहीं सका। ऐसे कठिन समय में भी उन्होंने शस्त्र संन्यास की, अहिंसा की, दयामयता की प्रतिज्ञा का पालन किया। सच्चा निरीच्छ, विमुक्त ऐसा ही होता है। इसीलिए शाक्यों के शत्रु भी उनका आदर करते हैं। ऐसी महान् विभूति की आज्ञा का विक्रमसिंह ने उल्लंघन किया है। संन्यास की पवित्र प्रतिज्ञा को तोड़ उन्होंने महापाप किया है। हमें खेद है कि शाक्य समाज ऐसे पापी का अनुसरण कर रहा है। अगर शाक्य समाज बुद्ध भगवान् का अपमान करनेवाले विक्रम का तिरस्कार करेगा और आठ दिनों के अंदर-अंदर अपनी राजधानी हमें सौंप देगा तो हम उसका नाश नहीं करेंगे। एक भी रक्त बूँद गिरने नहीं देंगे, अन्यथा विक्रम को दंड देने के लिए उसके बेटे सेनापति वल्लभसिंह, जो हमारी विजयी सेना में कैद है, का तत्काल वध कर देंगे। उत्तर तुरंत दिया जाए।

सेनापति : वाह! एकदम उचित। इधर यह घोषणापत्र प्रेषित करेंगे और विक्रमसिंह रोकी हुई अपनी सेना को वैसा ही खड़ा रखेंगे। उधर गुप्त मार्ग से सेना की दूसरी टुकड़ी अचानक राजधानी कपिलवस्तु पर आक्रमण करेगी। शाक्य शरणागति स्वीकार करते हैं तो हम बड़ी आसानी से उन्हें मारकर उनका नामोनिशान मिटा सकते हैं।

विद्युत्गर्भ : इस शरणागति के जाल में शाक्य फँसे तो मेरा दाँव सहज में पूरा होगा और वे लड़े तो भी पूरा होगा। कुछ भी हो, अब छल से तृप्त न हुई अपनी संताप तृष्णा मैं शाक्यों की राजधानी के गले का घूँट पीकर ही तृप्त करूँगा।

: दूसरा दृश्य :

[नलिनी और सुलोचना।]

सुलोचना : सखी, यह क्या सुन रही हूँ मैं? मेरे प्राणप्रिय वल्लभ, शाक्यों के सेनापति वल्लभसिंह, शत्रु के हाथ लग ही गए। उस वीर केसरी ने पराक्रम की पराकाष्ठा की थी। उसने शाक्यों की बिखरी हुई सेना को एकत्रित किया और बिजली की तेजी से टूट पड़नेवाली कोसल सेना पर ऐसा जबरदस्त आघात किया कि कोसल सेना हठात् लड़खड़ा गई। शत्रु की दूसरी टुकड़ी ने उन्हें अकस्मात् दूसरी तरफ से घेर लिया, पर वह इससे जरा भी नहीं डरे। जुझारू हाथी की तरह मेरे वल्लभ रण में डटे रहे। शत्रु के हाथों उनके पड़ने का कारण भी उनकी पराक्रमहीनता नहीं बल्कि उनके राष्ट्र की दुर्बलता थी।

धुन-रे कहाँ जा निसार

सखी, पराभूत सेनानी, ना बलाभाव से।

बलहीन रहा यह राष्ट्र, अपजयी इसी से॥

नलिनी, समझ में नहीं आता कि अपने वल्लभ की वीरता के अभिमान में डोलूँ या उनके बिछुड़ने से दुःखी मन को सांत्वना दूँ! या जिस विद्युत्‍गर्भ ने मेरे वल्लभ को रणबंदी बनाया उसका शिरच्छेद क्रोधांध शेरनी बनकर करूँ! नलिनी, वह कोसल का राक्षस मेरे प्रियतम को असह्य यंत्रणाएँ देगा। वे लोग मेरे सेनापति को वाग्बाण मारेंगे, उनका अपमान करेंगे, उन्हें शारीरिक दंड देंगे। ऐसे में उन्हें धीरज देने के लिए उनके पास कोई अपना नहीं होगा। नलिनी, सोच तो, जरा सा सिरदर्द होते ही वे तुरंत मेरे पास आ जाते थे। सेनापति पद की जिम्मेवारी जब उन्हें बहुत थका देती तो काम के बीच ही में थोड़ा समय निकालकर वे मेरे पास आते, क्षण भर के लिए मेरी छाती पर मस्तक रखते, अपने सिर पर मेरा हाथ रखकर कहते देख, तेरे वक्ष पर सिर रखते ही मेरी सारी थकान मिट गई। मन खिल उठा। उनकी वाणी इतनी मधुर थी जैसे मिस्री की डली हो। उन क्रूरों के सताए उनके मस्तक पर अब कौन आँसुओं का अभिषेक करेगा? किसकी बातों से उनका क्लेश दूर होगा?

नलिनी : पगली, वह तो वीर पुरुषों का लाड़ होता है, न कि कमजोर। रणभूमि में वीरों की थकान मिटती है रण दुंदुभी की ताल पर मरण को मारनेवाली चीखों से। हम ललनाओं की लोरियाँ वीर संगीत नहीं बन सकतीं। सुंदर अंगनाओं के मांसल वक्ष पर मस्तक टेकना केवल उनके मन की एक सनक होती है, आवश्यकता नहीं। सखी, मदमस्त हाथी का पाँव फूलमालाओं से बाँधना संभव हो सकता है, पर सूरमाओं के पाँव लंपट लोभ की रस्सी से घर गृहस्थी के द्वार पर बाँधना असंभव है। सांसारिक भोगों के रंग भले ही उनमें प्रतिबिंबित से लगें, पर उनकी आत्मा स्थितप्रज्ञ की भाँति स्फटिकवत् निर्लिप्त, नि:स्पृह और निस्संग होती है। वीर वल्लभ की ही बात लें। रूठना नहीं, पर तू ही सोच। यहाँ वे तुझसे बिछड़कर एक क्षण तक नहीं रह सकते थे, पर परसों कर्तव्य का रणसिंहा बजा और उन्होंने तत्क्षण तेरे जैसी लावण्य-लतिका को अंक से दूर किया। यहाँ तक कि उन्होंने क्षणमात्र के लिए यहाँ आकर तुझसे विदा तक नहीं ली। जहाँ संदेश मिला वहीं से वे स्वदेश के लिए, लोकहित के लिए, प्राण हथेली पर लेकर रणांगन में, मौत के मुँह में चले गए। उस वीर वल्लभ से अधिक मनोजयी और संन्यस्तेंद्रिय भी कोई और संन्यासी होगा?

धुन-सुमरण तोरा

संन्यासी कौन उस वीरात्मा बिन।

निस्संग, जितकाम॥ ध्रु.॥

रणशृंग बजते ही, रति आलिंगन से।

छटक परे, जा कूदा देवकार्य रण में।

सुलोचना : सखी, इसलिए वे क्षण भर में हमें छोड़ जाते हैं, इसका हमें गुस्सा नहीं करना चाहिए। ऐसे नि:स्पृह कर्तव्यवीर क्षणमात्र के लिए ही सही, हमसे प्यार करते हैं। यही हम ललनाओं की परम विजय है। यही सोचकर हमें कृतज्ञ धन्यता होनी चाहिए। ऐसा त्यागमय प्रेम ही लंपट प्रेम की अपेक्षा हम ललनाओं को कहीं अधिक लोलुप बना देता है। मैं ऐसे वीरवर की अर्धांगिनी हूँ, मुझे इस बात पर गर्व है। संकट की इस वेला में मैं उसके त्यागमय प्रेम के योग्य बन सकूँ, ऐसा प्रयास करूँगी। नलिनी, मैं सेनापति वल्लभ की पत्नी हूँ; विक्रमसिंह की स्नुषा हूँ और कोलियन क्षत्रिय कुल की कन्या हूँ। मैं उस दुष्ट विद्युत्गर्भ की सेना को और हो सके तो उसी को विषैली नागिन की तरह डँसूँगी। सैनिक वेश धारणकर मैं शाक्य सेना में घुस जाऊँगी। कर्तव्य का रणभंग बजने पर वीर वल्लभ ने मुड़कर मेरी तरफ देखा तक नहीं। अब मैं भी अपनी सजी-सँवरी गृहस्थी की तरफ मुड़कर नहीं देखूँगी। देख, यह चौसर का पट वैसे ही बिछा है, कामदेव की पूजा के लिए गुँथी माला भी वैसी ही पड़ी है। आठ दिन भी नहीं बीते उस बात को। हमारे प्रीति संगम की पहली वर्षगाँठ थी। यहीं बैठी मैं वल्लभ से आग्रह कर रही थी। यह चौसर का पट भी मैंने उन्हीं के लिए बिछाया था। तब मैं नहीं जानती थी कि विधि के चौसर पर हमें खिलाया जा रहा है। अगर जानती तो अंतिम भेंट में मैं उनसे रूठने का बचपना न करती। संसार पट का आखिरी खेल जी भरके खेल लेती। अब मैं उसे बिखेरकर चल दी¨¨

धुन-आँखों में तेरे गम है

शत जन्म खोजने में। शत आर्ति व्यर्थ हो गई।

शत सूर्यमालिका की दीपावली ही बुझ गई॥ ध्रु.॥

तभी प्रियतम क्षणमात्र की ही भेंट में।

सुख साधना युगों की अंतिम सिद्धि लाए ॥१॥

हा हाय, बह न जाए। प्रिय आलिंगन को छोड़।

क्षण वह क्षणों में मिल गया ।

सखी, हाथ आके खो गया ॥२॥

नलिनी : इस तरह हताश न हो, सखी। शायद अभी भी हमारा मनचाहा हो जाय। हमारे शाक्य पितामह, विक्रमसिंह के रणांगण में उतरते ही विजयश्री भी हमारे साथ हो सकती है। वल्लभ मुक्त भी हो सकते हैं। तब खेल लेना प्रीति-रति का अधूरा दाँव। वियोग के बाद का यह खेल और भी रंगीन हो जाएगा। इस संसार में इससे भी अधिक आश्चर्यजनक व सुखांत घटनाएँ घटी हैं।

सुलोचना : और बहुत बार ऐसी सुखांत घटनाएँ घटती भी नहीं। क्या विधि इष्टलोलुप दर्शकों के पैसों का प्यासा नाटककार है? अगर होता तो वह अपने नाटकों को अनैसर्गिक विपर्यास के मोड़ों पर घुमाता सुखांत ही कर देता।

नलिनी : वह तो ठीक है, पर कभी मन की बात भी सुन लेनी चाहिए। मन को ऐसी ही आशा दिखाकर धीरज देना पड़ता है।

सुलोचना : मनचाही बात होने तक मैंने अपने मन के मुख पर विवेक की मुहर लगा दी है। उसे सिर्फ मेरा वल्लभ ही हटा सकेगा, वह भी मरने से पहले अगर वह मुझसे मिल सका तो। अभी तू मुझे मन की बात न बता, केवल कर्तव्य की बात बता।

नलिनी : हे वीरांगना, फिर सुन, कर्तव्य यही कहता है कि जब वल्लभ शत्रु के हाथों पकड़े गए हैं और शाक्य प्रजा विद्युत्गर्भ की तलवार से निर्ममता से काटी जा रही है, हम क्षत्रिय कन्याएँ अंत:पुर में बैठकर आठ-आठ आँसू न रोएँ, वरन् तुम्हारी बताई पद्धति से सैनिक वेश धारण कर शत्रु से यथासंभव बदला लें। उन्हें चाहिए कि वे खड्गों से निकली लपटों में प्रिय स्मृतियों के साथ कूद पड़ें, सती हो जाएँ!

धुन-मज द्या हो जगीं आदरा

मृतकाष्ठ तृष्णाग्नि में जल। सती जाएँ वीरांगनाएँ सब॥ ध्रु.॥

शस्त्रसंघर्ष में ले चेतना। उस रणभूमि में दारुणा।

बदले की भावना से भर। सती जाएँ वीरांगनाएँ।

सुलोचना : तो तुम्हें भी मेरी सोच ठीक लगी। जनहित को हानि पहुँचानेवाले विचारों से संन्यास लेकर मेरे ससुर विक्रमसिंह सुदूर शाक्यों की लड़ाई लड़ रहे हैं। हम दोनों पुरुष वेश पहनकर वहाँ जाएँगी। वहाँ हमें कोई नहीं पहचानेगा। ससुरजी ने तो मुझे कभी देखा ही नहीं है। चल, यह बिखरा दिया मैंने गृहस्थ जीवन का पट और उठा ली असि-लता। मेरे साथी ने अभी-अभी रणांगन का खेल शुरू किया है। मैं भी वहीं खेलूँगी। सखी, मेरे रतिरंग के आचार्य ने ही मुझे रणरंग की विद्या सिखाई है। पहली विद्या से मैंने रतिपति कामदेवता को प्रसन्न कर दिया। आज दूसरी विद्या से मैं रणपति भगवान् कार्तिकेय को रिझाऊँगी। मैं अपने आचार्य की प्रिय शिष्या हूँ। मैं इन दोनों वेदों में उत्तीर्ण होऊँगी और उनकी यह दोहरी कीर्ति संसार भर में फैल जाएगी।

धुन-नन्नु ब्रूवनी

रतिरंग में कामदेव ज्यों अभिसिक्त किया अश्रुसिंचन से।

रणरंग में रक्तवर्षा कर, अर्घ्य दूँगी कार्तिकेय को॥

: तीसरा दृश्य :

[भिक्षु शाकंभट और एक भिक्षुणी।]

शाकंभट : मैं तुम्हें सच कहता हूँ कि बुद्धदेव जो कहते हैं कि गृहस्थी जैसा दुःख नहीं और संन्यास की तरह सुख नहीं, वह सोलहों आने सच है। मेरी दरिद्र गृहस्थी से बुद्धसंघ जैसे धनिक संघ का संन्यास सैकड़ों गुना अधिक सुखकर है। इस बात में दो मत हो ही नहीं सकते। फिर भी मुझे अभी तक दोयम विहार की दोयम टोलियों में साधारण भिक्षु के तौर पर ही रखा गया है। इस संन्यास में सांसारिक सुखों के लिए जी-तोड़ परिश्रम करने का जो परम दुःख था उसका यहाँ साया तक नहीं। इसमें तो बिना खेती किए ही अनाज मिल जाता है, बिना चूल्हा जलाए ही खाना और बिना पेड़ लगाए ही फल मिल जाते हैं। उन्हें खाकर निगलने भर की मेहनत हम भिक्षओं को लोक कल्याण के लिए करनी पड़ती है। इतना ही नहीं, जाप की ढाल के नीचे छिपने का कौशल प्राप्त करते ही संन्यासाश्रम में आलस्य भी पुण्य हो जाता है। मेरा तो यही अनुभव है।

भिक्षुणी : आपका होगा, पर मेरा अनुभव ऐसा नहीं। घर में खाने की कमी थी, इसलिए थोड़े न मैं भिक्षुणी बनी हूँ! बात यह है कि मुझे पेट शूल रहता था। और मेरे घर के पड़ोस की एक दरिद्र बुढ़िया की भयानक दुर्दशा देखकर बुढ़िया हो जाने का डर मुझे सताता था। एक दिन आप जैसे चार लफंगे भिक्षुओं ने हमारे गाँव में आकर उपदेश दिया कि बुद्ध धर्म की शरण लेने से मुनष्य सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। उसे न बीमारी आती है, न बुढ़ापा, न मृत्यु ही। यह सुनकर मैं हुलस गई। मुझे लगा कि मैं सीधी कमर, बड़ी-बड़ी आँखें, हिरणी-सी चाल¨¨ऐसी तरुणाई की प्रतिमूर्ति बनी रहूँगी, पर भिक्षु बन सब बेकार हो गया। देखती हूँ कि किसी अच्छे भिक्षु का साथ चाहा तो तुम्हारी जोड़ी का साथ मिला। इस दुःख में मेरा पेट शूल दुगुना हो गया।

शाकंभट : अरी, दुगुने पेट शूल की बात पूछोगी तो दोहरे संग-साथ का यह परिणाम तो होगा ही, पर मुझे तो इसमें प्रकृति का दोष दिखता है। इसमें बुद्धदेव भला क्या कर सकते हैं? और बुढ़ापा टालने का एक और उत्तम उपाय था ही।

भिक्षुणी : बताइए शाकंभट, बुढ़ापा टालने का वह उत्तम उपाय कौन सा है?

शाकंभट : यौवन में ही आत्महत्या करना। इस सूई से पाँव में चुभा बुढ़ापे का काँटा आराम से निकाला जा सकता था, पर तुमने उसे बौद्ध धर्म की कुल्हाड़ी से निकालना चाहा। अब इसमें भिक्षुओं का क्या दोष? रही अन्य आशाओं की बात। तुमने इतना भी नहीं जाना कि संसार का हर धर्म लोगों को दु:ख मुक्ति, जन्म, जरा, व्याधि और मरण से उबारने की जो भी वचन चिट्ठियाँ लिख देता है, वे सब पारलौकिक परिभाषा में होती हैं, इस लोक की भाषा में नहीं। जिस जन्म में यह सब टलेगा, वह जन्म यह जन्म नहीं वरन् अगला जन्म होता है। यह जन्म तो ऐसे ही काट लेना पड़ता है। सभी धर्मों की इन आशाओं की हुंडी परलोक की कोठी पर ही भुनाई जा सकती है। उसपर लिखा दिव्य पता खुली आँखों से पढ़ते ही आँखें चौंधिया जाती हैं। इसलिए मृत्यु के बाद आँखें बंद होने पर उन्हें वह दिखाई देता है। सभी धर्मों की ये कामधेनुएँ यमराज की गोशाला में बँधी हुई हैं और इन सभी के स्वर्ग तो मृत्यु के बाद दिखाई देनेवाले होते हैं। पगली, अगर जगत् में इस जन्म के दुःखों का निवारण करनेवाला, कुपथ्य करने पर भी रोगों से बचानेवाला और मृत्यु को हमेशा के लिए रोक देनेवाला कोई धर्म निकले तो उसके प्रचार के लिए हजारों भिक्षुओं को तुम्हारे द्वार तक भेजने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। ऐसे धर्म का अनुयायी बनने के लिए इस लोक के ही नहीं, चंद्रलोक के लोग भी इस धर्म मंदिर तक स्वयं चले आते और अत्यधिक भीड़ के कारण आप उस धर्म मंदिर के दरवाजे बंद भी करने लगते तो लोग जोर-जोर से नारे लगाते कि 'इस धर्म को प्राप्त करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।' पर दुःख की बात तो यह है कि इन सब धर्मों की वचन चिट्ठियों की रकम इस जन्म में काम आनेवाले पैसों में दिलानेवाला कोई साहूकार इनमें नहीं है। ये गणित तो ऐसे हैं जिनके उत्तर को जाँचा नहीं जा सकता। ये सभी धर्म सच भी हो सकते हैं और झूठ भी।

भिक्षुणी : हिश्! शाकंभट, जरा सोचिए कि अगर मैं भगवान् बुद्ध से जाकर कहूँ कि आप भिक्षु स्त्रियों से धर्म विरोधी बातें कहते हैं और उनसे इस तरह निकटता का संबंध रखते हैं तो क्या स्थिति होगी आपकी?

शाकंभट : कुछ नहीं। स्त्रियों की निर्दयता और छल-कपट बुद्ध भगवान् से छिपा नहीं है। उस चिंचाबाई ने तो बुद्ध भगवान् के बारे में ही ऐसी छिछली बात कही थी। सो तुम्हारे निकटतावाले आरोप को मैं निडरता से सह लूँगा। धर्म विरोधी बातों की भली कही तुमने! जन्म, व्याधि, जरा और मृत्यु से मुक्ति दिलाने की किसी भी धर्म की प्रतिज्ञा असत्य है, यह मैं साक्षात् बुद्धदेव के उदाहरण से ही सिद्ध कर दूँगा। पहली बात है जन्म की! वह तो बुद्धदेव को लेना ही पड़ा है। आरंभ में वे श्मशान का विकीर्ण श्वेत वस्त्र पहनते थे, पर उससे भयानक रोग होने लगे तो उन्होंने भिक्षुओं को नए वस्त्र पहनने का आदेश दिया और स्वयं राजा का दिया हुआ बहुमूल्य चोला पहनने लगे। पहले ओषधि लेना उन्हें पाप लगता था, पर बाद में राजवैद्य भी आने लगे। और अब अपनी देह बचाने के लिए ये अहिंसा के भोक्ता शल्य चिकित्सक से लाखों जीवाणुओं की हत्या तक कराने लगे हैं। युवावस्था में वे कितने सुंदर लगते थे। अगर उनका अवतार तभी समाप्त होता तो भोले-भाले लोग निस्संकोच कह सकते थे कि वे बुढ़ापे से बचे रहे, पर नियति मानो उन्हें यह संतोष भी नहीं देना चाहती थी, इसलिए उन्हें लंबी आयु देकर उसने उन्हें बुढ़ापे को सौंप दिया है। अब किसी भी अन्य बूढ़े की तरह उनके दाँत गिरने लगे हैं। अंग-प्रत्यंग ढीले-ढाले हो गए हैं। इन्होंने जरा को इस संसार से हटाने का प्रण किया था। इन्हें इस तरह जर्जर कर मानो जरा ने ही इनसे बदला ले लिया है। और मृत्यु की क्या कहें! स्वयं भगवान् बुद्ध ही मृत्यु समीप आने का उल्लेख भिक्षुओं से करते हैं और उनके मरण के बाद धर्म अक्षुण्ण रहे, इस हेतु संघ की व्यवस्था कर रहे हैं। भगवान् ने निर्वाण पद प्राप्त किया है और भोले-भाले लोगों का विश्वास है कि वे सदेह स्वर्ग आते-जाते हैं, पर उनकी इस दुर्दशा में उनकी शुश्रूषा के लिए किसी अप्सरा को स्वर्ग से आते देखा है तुमने? इसीलिए अप्सराओं की बारात की प्रतीक्षा न कर, तुम जैसी जो भी, जैसी भी ऐरी-गैरी भिक्षुणी मिले, उसी को गले लगाकर इस जन्म की बारात सजाना ही मुझे बुद्धिमानी लगती है।

भिक्षुणी : अरे, मुझे ऐरी-गैरी समझता है ऐरे-गैरे!

शाकंभट : ऐरी-गैरी माने दूसरों के लिए, मेरे लिए नहीं। जो सबको प्रिय लगती है, वहाँ हमारा हाथ कैसे पहुँचेगा, इसलिए सब जिसे छोड़ दें, वह नरोटी ही हमारे लिए सत्पात्र है। (घंटी बजती है।)

भिक्षुणी : बाप रे, झाड़ बुहारने और सफाई कामों की घंटी बज गई!

शाकंभट : अच्छा, तो मेरे ध्यान का समय भी हो गया। जाओ, तुम सब चले जाओ अब।

भिक्षुणी : मेरे नाम का डंका पीटा जा रहा है। अच्छा, अब मैं जाती हूँ। जल्दी ही वापस आऊँगी।

शाकंभट : अब मुझे जल्दी से ध्यान लगाना चाहिए, अन्यथा इस विहार का मुख्य मठाधीश, स्थविर यानी बुढ़ऊ मुझे भी झाडू बुहारने के काम में लगा देगा। वैसे यह महास्थविर महानंदी ही है। जो कोई भी आँखें मूँद लेता है, उसी को ध्यानमग्न मान लेता है। उसे फिर कोई काम नहीं देता। इसीलिए मठ के काम का समय ही मेरे ध्यान का समय होता है। भिक्षु का मुख्य लक्ष्य है सभी कामों से संन्यास! अब झाड़ू बुहारना भी तो काम ही है। इसलिए उसे भी टालकर मैं पूर्णरूपेण निष्काम होने का यथाशक्ति प्रयत्न कर रहा हूँ। यह भिक्षु वर्ग के सिद्धांतों के अनुकूल भी है। कोई बुलाने आ रहा है। अब जल्दी से आँखें मूँदकर ध्यान धारणा नहीं करूँगा तो आँखें खोलकर झाड़ू धारण करनी पड़ेगी। मजे की बात तो यह है कि मठ के सारे काम खत्म होने तक, आँखें मूँदकर बैठने की आदत करते-करते मुझे ध्यान समाधि की न सही, निद्रासमाधि की सिद्धि है ही। बाप रे, आ ही धमका यह तो! (आँखें मूँदता है। तभी वहाँ एक भिक्षु आ जाता है। भिक्षु जैसे ही वहाँ से आगे निकल जाता है , शाकंभट अधमुँदी आँखों से इधर-उधर देखने लगता है। तभी बीच में भिक्षु पीछे देखता है। शाकंभट झट से आँखें बंद कर लेता है। बाद में आँखें खोलकर शाकंभट बोलने लगता है।) चलो, चला गया, पर लगता है, उसे मुझ पर संदेह हो गया है। आज मैंने कभी आँखें मूँदी, कभी खोलीं, पर ध्यान इस तरह नहीं होता। ध्यान की पहली परीक्षा है आँखें मूँदे रहना और अंतिम परीक्षा है, उस निर्लज्ज भिक्षुणी के गुदगुदाने पर भी आँखें मूँदे रहना। आज इन दोनों परीक्षाओं में खरा उतरना है। उसका अमोघ उपाय यही है। (भंग की गोली निकालकर) यह है मेरी पूर्व परिचिता। यह गुरुबाजी की तरह गप नहीं मारती। यह इसी देह में, इसी क्षण सकल दुःखों का नाश कर देती है। बड़े ही काम की वस्तु है यह गुटिका। चल भगवती भंग, कुएँ में पड़ी मेढकी की तरह तू मेरे गले के भीतर उतर जा! (गोली को निगलता है।) ओऽऽम्! वाह! मन की बाहरी आँखें बंद होने लगी और भीतरी आँखें धीरे-धीरे खुलने लगीं। कैसी चित्र-विचित्र तरंगें हैं! मैं हलका होकर हवा में तैरता जा रहा हूँ। कहीं यह अलौकिक दर्शन देनेवाली सविकल्प समाधि तो नहीं! उपाय भिन्न, पर परिणाम वही। कहीं सचमुच ही मेरी योगशास्त्र में प्रगति न हो रही हो! पर मैं¨¨मैं तो खो जाने लगा! अरे, कोई मुझे पकड़ लो मैं निर्विकल्प समाधि से फिसल रहा हूँ¨¨(जमीन पर पसर जाता है।) नींद री, मठ के काम समाप्त होते ही तू मुझे जगा देगी न! कौन कहता है कि शास्त्र वचन झूठे होते हैं! यह बस वही अनुभव है। सभी काम टल जाएँ। नैष्कार्य सिद्धि परमा अचिरेणाधिच्छति। (पूरी तरह लेट जाता है।)

भिक्षुणी : अरे, ध्यान का स्वाँग भरते-भरते यह भला मानुस सो गया! गुदगुदी कर अभी इसकी पोल खोलती हूँ। (गुदगुदी करती है।) नहीं, यह तो सचमुच का ध्यान है। गुदगुदी से भी भंग नहीं होता। कहीं अभंग समाधि न हो! फिर तो स्थविरजी से कहना पड़ेगा। जो भी अभंग समाधि लेता है, उसकी देह की रक्षा स्वयं स्थविरजी करते हैं। (पुकारती है) स्थविरजी, जरा इधर तो आइए। शाकं भिक्षु ने अभंग समाधि लगाई है, अभंग समाधि।

शाकंभट : (चौंककर खड़ा हो जाता है।) कौन कहता है कि यह अभंग समाधि है? यह अभंग नहीं, सभंग समाधि है। भगवती भंग के प्रसाद से लगी हुई सभंग समाधि। उसे अभंग का नाम देकर मैं भंग के प्रति कृतघ्न नहीं हो सकता। इसे सभाँग समाधि कहो, सभाँग समाधि।

भिक्षुणी : (अपना और उसका मुँह बंद करते हुए) चुप, धीरे से बोल! शाकं भिक्षु, कहीं स्थविरजी सुन न लें! भिक्षुजी, अजी होश में आइए।

ताकंसिंह : (प्रवेश कर) रुकिए, इस चोर को होश में लाने में आया हूँ। नीच भट, बोल, यह खड़ाऊँ किसकी है? चोर, मेरी खड़ाऊँ चुराई न तूने! पहले मेरी झोली चुराई! उसे तो पचा लिया तूने, पर यह समझ ले कि अब मैं जान ले लूँगा। ला, मेरी खड़ाऊँ ला!

शाकंभट : (सीनाजोरी करते हुए)वह तो मेरी ही खड़ाऊँ हैं और तुम्हारी हो भी तो क्या? भिक्षु हो गए हो और खड़ाऊँ पर जान देते हो?

ताकंसिंह : अवश्य दूँगा। अपने पाँव की खड़ाऊँ के लिए मैं अपने प्राण भी दे सकता हूँ। (दोनों एक-एक खड़ाऊँ लेकर एक-दूसरे को मारने लगते हैं।)

भिक्षुणी : हाय राम! पुराण काल में सुंद, निसुंद मोहिनी के लिए लड़े थे। ये दोनों इस खड़ाऊँ के लिए मरने-मारने पर उतारू हो गए हैं। अरे, अरे, शाकं भिक्षुजी, ( वह हाथ झिड़कता है।) अजी ताकं भिक्षु, ( वह भी उसे दुत्कारता है।) अब करे तो क्या करे?

लड़की : (परदे के पीछे से) बचाइए, मुझे बचाइए! (प्रवेश कर) भिक्षुओ, मुझे बचाइए। मैं शाक्यों के राजकुल की कन्या हूँ। कोसल सेना के दैत्य मुझे सेनापति चंड की दासी बनाने या मार डालने के लिए मेरा पीछा कर रहे हैं। मुझे बुद्ध विहार में अभय मिलना ही चाहिए।

शाकंभट : डरना मत, बेटी, ( खड़ाऊँ उठाकर) इस विहार में अगर कोई सैनिक घुस गया तो मैं मार डालँगा उसे।

सैनिक : (प्रवेश कर) क्या कह रहे हो भिखमंगे!

शाकंभट : (काँपते हुए) कुछ नहीं। बुद्ध विहार के नियम के अनुसार यहाँ सशस्त्र सैनिक आ ही नहीं सकते। यह स्थान निरापद होने से ही मैंने उसे वैसा कहा था। आप यहाँ आनेवाले हैं, यह ज्ञात होता तो मैं कदापि वैसा न कहता।

सैनिक : गप उड़ाते हो? डरपोक¨¨औरत!

शाकंभट : (भिक्षुणी को) ऐ, तुम्हें पुकार रहा है वह।

भिक्षुणी : नहीं जी, मैं नहीं हूँ इन सबमें।

सैनिक : डरपोक, उसे नहीं, मैं तुम्हें ही पुकार रहा हूँ। गप उड़ाते हो?

शाकंभट : शिव-शिव! हम भिक्षु हैं। हमारा व्रत है अहिंसा। हम मारपीट, मार डालना, ऐसे हिंसात्मक शब्दों का उच्चारण करना भी पाप मानते हैं। इसलिए वीरवर, इस मामले में हम गपबाजी करेंगे ही कैसे? नहीं जी, हम अहिंसा व्रत का इतना कड़ा पालन करते हैं कि हम गप भी नहीं मारते। क्षमा कीजिए। आप इस लड़की को आराम से ले जाइए। हम भीतर चले जाते हैं। यह हमारा अहिंसा की माला जपने का समय है।

लड़की : पर भिक्षुओ, अहिंसा की तरह ही दया भी तो आपका व्रत है। आपको मुझपर दया नहीं आती?

शाकंभट : दया तो हमें बहुत आती है तुमपर बेटी, पर हम तुम्हें छुड़ाएँगे तो इन्हें क्रोध आएगा और सेनापति चंड का काम अतृप्त रहने से उन्हें दुःख होगा। उनपर भी तो दया आती है हमें। दोनों ही पर दया आने से हम किसी एक का दुःख दूर करने का जिम्मा नहीं ले सकते। हम भीतर जाते हैं। हमारी दया की माला जपने का समय हो गया है।

सैनिक : अरे, वह भिक्षुणी के पीछे कौन छिप रहा है? बाहर खींचो उसे।

ताकंसिंह : वह मैं हूँ। मैं इस शाकंभट की तरह डरकर भागनेवाला ब्राह्मण नहीं हूँ। मैं क्षत्रिय हूँ। आपका जाति बांधव हूँ। मैं आपके सामने हाथ जोड़ता हूँ।

सैनिक : अरे रे! तुम डरपोक और बातूनी ब्राह्मण होते तो विदूषक समझ शायद जीवित छोड़ भी देता तुम्हें, पर तुम तो शाक्य क्षत्रिय हो। अरे, तुम्हारा यह शाक्य राष्ट्र आज हम कोसलों के घोड़ों के पैरों तले कुचला जा रहा है। राष्ट्र के अपमान से क्रोधित हो तुम रण में हमारे विरोध में लड़ते तो कदाचित् तुम्हें जिंदा छोड़ भी देता, पर¨¨

शाकंभट : पर मैं क्षत्रिय तो पहले था, अब नहीं है। मेरे क्षत्रिय रहते युद्ध शुरू ही नहीं हुआ था और युद्ध शुरू होने के बाद से मैं भिक्षु हूँ। हम भिक्षुओं की कोई जाति नहीं होती। राष्ट्र नहीं होता। शाक्य और कोसलों के युद्ध में चाहे जो जीते। हमें उससे क्या? जिसकी जय होगी उसी को हम राजा कहेंगे। हमारे लिए जय-पराजय का इससे अधिक कोई अर्थ नहीं। भगवान् बुद्धजी का कथन है कि संसार परम दु:ख है, उसके लिए लड़ने का पाप नहीं करना चाहिए और कोई करे तो भी-

जयो वैरं प्रसवति, दुःखं शेते पराजितः।

उपसंतः सुखं शेते, हित्वा जयपराजयम्॥

इसलिए हम तो 'सुखं शेते'-सुख से सोते हैं।

सैनिक : हर-हर! नीचो, बुद्धदेव के सभी विचार मुझे मानने योग्य नहीं लगते। फिर भी मैं इतना अवश्य जानता हूँ कि तथागत बुद्ध की स्थितप्रज्ञता हिमालय जैसी ऊँची है और उसमें से उनकी पवित्र वाक् भागीरथी निकली है। उसके तुषार इन नीचों के मन के गंदे तालाब में गिर इतने गंदे हो गए हैं कि उन्हें सुन मेरा भी मस्तक लज्जा से झुक जाता है। अभी एक घड़ी पहले मैंने तुम दोनों को यःकश्चित् खड़ाऊँ के लिए लड़ते हुए देखा था। अपने राष्ट्र और जाति का सर्वनाश टालने के लिए लड़ना, तुम लोगों के लिए पाप है और यहाँ तुच्छातितुच्छ वस्तु के लिए तुम लोग लड़ते हो। तुम लोगों की कायरता भरी, स्वार्थ से लिपटी ओछी बातें सुन अपने आपको बुद्ध की अहिंसा की ढाल के नीचे छिपते देखकर मेरा मन तुम दोनों का शिरच्छेद करने को हो रहा है। अहिंसा धर्म के इस अधर्म को हम समूल उखाड़ना चाहते हैं।

शाकंभट और

ताकंसिंह : पर हम भिक्षु हैं, अवध्य हैं। आपको शास्त्र मालूम ही है। नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि।

सैनिक : हे मिथ्याचारियो, मैं कोई दुष्ट दया और अनर्थक अहिंसा के लंबे कान रखनेवाला बुद्धू गधा नहीं हूँ जो तुम जैसे मिथ्याचारियों को सिर्फ भिक्षु होने के कारण ही छोड़ दूँ। पकड़ लो इन्हें। और इनकी नाक में नकेल डालकर बारात निकालो। फिर लड़ाई के मोरचे पर इन्हें खड़ा कर शत्रु के बाणों को व्यर्थ करने के लिए इनके शरीरों का उपयोग करो। इनके शरीरों को बाणों से छलनी हो जाने दो।

ताकंसिंह : (शाकंभट के गले से लिपटते हुए।) हाय मित्र! मृत्यु मठ में भी क्षत्रियों का पीछा नहीं छोड़ती।

शाकंभट : फिर भी हे क्षत्रिय, पहले तुम मत रोना। रोना तो पहले मुझ जैसे ब्राह्मणों को चाहिए। हाय, मैं मर गया रे! ऐसे घसीटना नहीं रे! हाय, हाय रे! शाक्य राष्ट्र पर संकट आ गया रे! (सैनिक धक्के मारते हुए उन्हें ले जा रहे हैं। दोनों बीच ही में मुड़कर।) अरे, तुम लोगों ने उस भिक्षुणी को छोड़ दिया। उसे तो ले लो साथ में...

भिक्षुणी : अरे मुए शाकं भिक्षु, तेरे साथ सती होने जाऊँगी क्या? मुझे अपनी ब्याहता औरत समझ रखा है क्या?

: चौथा दृश्य :

[समरसभा-विक्रमसिंह, सुलोचन (वेशांतर में सुलोचना) और दो सेनानी।]

विक्रमसिंह : हे शाक्यों की उर्वरित सेना के सेनानायको, आप जानते ही हैं कि ऐन लड़ाई में यह समर सभा मैंने कोसलेश्वर विद्युतगर्भ के इस पत्र के कारण बुलाई है। इस पत्र का उत्तर हमें इसी क्षण देना पड़ेगा। यह क्षण ही हम शाक्यों के राष्ट्रीय जीवन का अंतिम क्षण है, क्योंकि अगर हम विद्युत्गर्भ की माँग के अनुसार हथियार डालकर बिना शर्त उसकी शरण जाने का निर्णय लेते हैं तो इसी क्षण शाक्यों का राज्य मर जाता है और अगर लड़ने का निश्चय कर हम लड़ते हैं तो भी किसी तरह और चार-छह दिन हम स्वाधीन राष्ट्र का दर्जा प्राप्त कर सकते हैं, पर उसके बाद लड़ना हमारे बस की बात नहीं है। राष्ट्रीय स्तर पर हमने शस्त्र बल की घोर उपेक्षा की। यह एक तरह का पाप ही था। अब लाख कोशिश करने पर भी हम इस पाप के प्राण घातक परिणामों से बच नहीं सकते। हमने विद्युत्‍गर्भ की प्रमुख सेना को यहाँ रोक रखा है, लेकिन उसके पास कई उपसेनाएँ हैं। अभी-अभी हमें एक गुप्त समाचार मिला है कि उन्हीं उपसेनाओं में से एक उपसेना हमारी राजधानी पर धावा बोलने वाली है। इसलिए युद्ध जारी रखने पर भी हम विजय की आशा नहीं रख सकते। बस इतना ही समाधान पा सकते हैं कि हमने शत्रु को आसानी से जीतने नहीं दिया। अपनी मृत्यु से पहले उसे भी अधमरा कर दिया। अर्थात् यह भी वीरोचित कर्तव्य है। इस क्षण आप जो निर्णयात्मक बात कहेंगे वही हमारे राष्ट्र का अंतिम वाक्य होगा। अंतिम निर्णय लेने की जिम्मेवारी मैं आप पर डालता हूँ। अपने इस चिरंतन उत्तरदायित्व का विचार कर आप अपना निर्णय दें। विद्युत्गर्भ का पहला विधान है कि बुद्ध भगवान् के बारे में उनके मन में अपार भक्ति है। इसका कारण देते हुए वह कहता है कि बुद्धदेव ने केवल शस्त्र संन्यास, अहिंसा और दया इन तत्त्वों का निरा उपदेश ही नहीं दिया वरन् चारों ओर फैले युद्ध के विध्वंस में भी उससे दूर रहकर वे अपने तत्त्व का स्थिर निष्ठा से पालन कर रहे हैं। विद्युत्गर्भ के अनुसार बुद्धदेव की यह शस्त्र-संन्यासी, संन्यासनिष्ठा अत्यधिक आदरणीय है। बुद्ध संसार के सर्वश्रेष्ठ वीर हैं।

पहला सरदार : अगर विद्युत्गर्भ को शस्त्र संन्यास सचमुच ही अभिनंदनीय लगता हो तो प्रथमतः वह स्वयं दया की हिंसा करना छोड़ दे और वैसा शस्त्र संन्यास लेने की दया करे।

सुलोचन : एक तरह से शस्त्र संन्यास आदरणीय ही है। शाक्य उसे अनुकरणीय भी समझने लगे हैं, क्योंकि दुष्टों के कंठ का भेद करनेवाला शस्त्र का न्यास अर्थात् शस्त्र को फेंकना ही शस्त्रन्यास है। बाण को निशाने पर मारना, पट्टे को लहराना, खड्ग का आघात करना हमें भी आदरणीय लगता है। हम उसका अनुकरण भी करेंगे।

विक्रमसिंह : विद्युत्गर्भ का दूसरा विधान यह है कि हमने इस आदरणीय व्रत को छोड़ दिया। मैंने संन्यासी होते हुए भी, शस्त्र संन्यास की प्रतिज्ञा लेकर भी उसको भंग किया। शस्त्र धारण कर मैं हिंसामय युद्ध में शामिल हुआ। इसलिए मुझे भगवान् बुद्ध की आज्ञा भंग करने और व्रत च्युति का कठोर दंड मिलना चाहिए।

सुलोचन : आपको दंड मिल भी गया है। हे सशस्त्र संन्यासी, आपने जैसे ही शस्त्र धारण की सिद्धता दिखाई, शाक्यों ने आपको सभी दंडों की संहतमूर्ति राजदंड ही दे दिया। आपको राष्ट्र का सर्वाधिकारी अनन्यशास्ता मान लिया गया है।

पहला सरदार : हे युवा वीर, तुमने ठीक कहा है। और जैसाकि विद्युत्‍गर्भ का कहना है, सशस्त्र संन्यासी को राजदंड देने में सेनापति ही नहीं, हम सब भी व्रत च्युत हो गए हैं। कोसलों के अचानक आक्रमण से, वल्लभ को छोड़कर हम सभी डर गए थे। (शस्त्र बल को हीन समझकर हम शाक्य हीनतर हो गए और बिना लड़े भाग जाना या लड़ाई में मारा जाना ही एक प्रकार से हमारा व्रत हो गया ,पर जैसे ही संन्यासी सेनापति विक्रमसिंह ने युद्ध की बागडोर सँभाली, हमने भाग जाना अर्थात् अपना व्रत छोड़ दिया।) हे वीरवर, आप आ गए और हमने चार ही दिनों में कोसल सेना के छक्के छुड़ा दिए। उस क्रूरकर्मा विद्युत्गर्भ को भी हमने नीचा दिखाया। हमारी व्रत च्युति निश्चय ही हो गई।

दूसरा सरदार : जब चार बार भगवान् बुद्ध को मार डालने की कोशिश करनेवाला शत्रु डंके की चोट पर उन्हें संसार का सर्वश्रेष्ठ पुरुष घोषित करता है तब यही सिद्ध होता है कि प्रतिकारहीन आत्यंतिक अहिंसा इन हिंसकों के लिए बहुत लाभदायक है। वह भगवान् बुद्ध का आदर्श हमारे सामने रखता है, अपने सामने नहीं। हम सभी इस तरह के प्रतिकारहीन बौद्ध संन्यासी हो जाएँ तो शाक्यों की वसुंधरा उसे अनायास ही मिल जाएगी और अगर हम आपकी बताई प्रतिकारी सशस्त्र अहिंसा के अनुयायी हो जाएँ तो जैसे पहले उसका बाप इसे छीन न सका, वैसे ही विद्युत्गर्भ भी इसे छीन न सकेगा। अपने इस डर के कारण ही विद्युत्‍गर्भ हमारे मन में आपके बारे में अनादर उत्पन्न करना चाहता है। अपने इस उद्देश्य को सिद्ध करने के लिए ही वह बुद्धभक्ति का ढिंढोरा पीट रहा है। विद्युत्गर्भ से कहिए कि अगर उसकी दृष्टि में बुद्ध संसार के सर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं तो वही अहिंसावादी संन्यासी बन उनका शिष्य हो जाए।

विक्रमसिंह : इन दो विधानों के बाद विद्युत्गर्भ कहता है कि शाक्य तत्काल बिना शर्त शरणागति लेकर अपना राज्य उसे सौंप दें, अन्यथा वह उसके हाथ आए शाक्य सेनापति वल्लभ का शिरच्छेद करेगा और शाक्यों की राजधानी पर अधिकार कर शाक्यों को आज तक दिए दंड से कई गुना अधिक भयंकर दंड देगा। उन्हें बाल-बच्चों सहित मार डालेगा। उसकी इस नृशंस धमकी का क्या उत्तर दें? वल्लभ मेरा बेटा है। ऐसी स्थिति में मेरा मन ममता से विचलित होगा और मेरे मत का प्रभाव आप पर पड़ेगा। इसलिए मैं अपना कोई मत नहीं दूँगा। मैं बहुमत के आधार पर निर्णय लूँगा। अगर संघ का निर्णयात्मक एकमत न हो तो ही मैं सर्वाधिकारी के नाते अपना मत निर्णयात्मक मानूँगा। सज्जनो, यह राष्ट्र के सर्वनाश की घड़ी है। अत: आप अविचारी वीरता और अविचारी भीरुता, इन दोनों दुर्वृत्तियों की ओर मन को न झुकने दें। अपना स्पष्ट मत दें।

पहला सरदार : सेनापति, तीन दिनों की घमासान लड़ाई में आपने देखा होगा कि मैं मृत्यु से नहीं डरता। मेरी इन आँखों ने अपने चार बेटों को लडते-लड़ते मरते देखा है, पर अब मेरे सामने प्रश्न है शाक्य जाति का। क्या मैं इसे मरते और समूल नष्ट होते देख लूँ? सेनापति, हम चाहे जितनी वीरता से लड़ें, राजधानी शत्रु के हाथ जाएगी ही। शत्रु अत्यंत प्रबल है। उसके सामने हमारी वीरता धरी रह जाएगी। विधि-विधान के आगे मानव की कब चली है? हमने पिछले तीन-चार दिनों में पराक्रम की पराकाष्ठा की, पर अब शत्रु का प्रतिकार करने की शक्ति हममें नहीं है। ऐसी स्थिति में सहस्राधिक शाक्य सैनिकों की बलि चढ़ाकर उनके बाल-बच्चों को अनाथ व असहाय करना पाप है। मेरे इन विचारों के लिए मुझे यह वर्तमान पीढ़ी और इसके आगे आनेवाली एकाध पीढ़ी डरपोक कहेगी, पर मुझे उसका कोई दुःख नहीं। केवल स्वयं को वीर कहलाने के लिए राष्ट्र के हजारों लोगों को मौत के घाट उतारनेवाली देशप्रेम की भावना देशप्रेम नहीं अपितु देशद्रोह है। जब तक युद्ध से शाक्यों का हित होने की संभावना दिखाई दे रही थी, मैं लड़ाई का समर्थन करता रहा। अब शाक्यों की दुर्दशा शत्रु की शरण में जाने से ही कुछ अंशों में कम होनेवाली है। इसलिए बिना शर्त विद्युत्गर्भ की शरण में जाना ही मैं अपना सच्चा कर्तव्य समझता हूँ।

दूसरा सरदार : जब इन अभिजात शाक्य सरदार को ही शाक्यों की शरणागति के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं दिख रहा है तब मैं ही कौन सा अलग मार्ग सुझा सकता हूँ!

विक्रमसिंह : आप दोनों का मत ही बहुमत है। तो यही रहा हमारा निर्णय। प्राप्त परिस्थिति में शत्रु की शरण में जाना ही हमारा कर्तव्य है। क्यों, ठीक है न!

दूसरा सरदार : नहीं-नहीं। मेरे विचार से यह ठीक नहीं है, पर हाँ, उसे अपरिहार्य कह सकते हैं। शाक्यों की शरण में जाने का अर्थ है हमारे गणतंत्र की स्वतंत्रता को खो देना, सूर्यवंश की इक्ष्वाकु शाखा का राजवेश उतार लेना। बावन पीढ़ियों का यह राजमुकुट विद्युत्गर्भ के पैर से हमारे मस्तक से नीचे लुढ़क जाएगा और फिर वह खिलौने की तरह राजधानी में किसी प्रदर्शनी में रखा जाएगा। शरणागति के बाद हमें किसी जानवर की तरह रस्से या बेड़ियों में बाँधकर, कड़े पहरे में विद्युत्गर्भ के सामने लाया जाएगा और वह घमंडी अपनी मूँछों पर ताव देकर पूछेगा, 'क्यों चोरो, थक गए लड़ते-लड़ते!' फिर उसकी गुस्सैल लात से लड़खड़ाते हुए हम कहीं दूर जा गिरेंगे। हर गाँव, हर शहर, हर चौक और हाट-बाजार में लोग कहेंगे, 'शाक्यों का राज्य डूब गया। मूर्ख थे। संसार में अहिंसा की स्थापना करना चाहते थे, पर अंत में अपनी ही हिंसा कर बैठे। बिना लड़ाई लड़े ही राज्य को गँवा बैठे। डरपोक कहीं के।' हम जहाँ भी जाएँगे, ये शब्द हमारा पीछा करेंगे। नहीं, शरण में जाना ठीक नहीं है। वह अनुचित है। अपरिहार्य होने पर भी उसे टालना चाहिए, पर फिर वल्लभ जैसा हीरा¨¨वल्लभ सा हीरा¨¨क्या कह रहा था मैं? शरण न जाने की जिद के कारण क्या वल्लभ जैसे हीरे को हम गँवा दें? और यह जिद भी कितनी खोखली है! एक-न-एक दिन शाक्यों का छत्र, वह राजमहल, वह मुकुट विद्युत्‍गर्भ के घोड़े की टापों तले चकनाचूर होगा ही। संसार तो यही कहेगा कि शाक्य राष्ट्र मर गया। फिर व्यर्थ ही वल्लभ का बलिदान क्यों दें? वल्लभ-हमारा पराक्रमी सेनापति-शाक्यों के डरे-सहमे अस्त-व्यस्त बिखरे सैन्य को एकत्र कर उसने न वीरता को ललकारा, न लड़ाई लड़वाई। शत्रु को रोकने के सारे उपाय व्यर्थ हुए। तब मारो-काटो का घोष करते हुए वह वीर शत्रु सैनिकों पर टूट पड़ा, पर कुछ ही देर में वह चारों ओर शत्रु सैनिकों से घिर गया, बंदी बना लिया गया। क्या शाक्य उस जुझारू वीर से कृतघ्न हो, उसके शिरच्छेद का संदेश विद्युत्गर्भ को भेज सकते हैं? इस तरह विश्वासघात कर हम उसकी युवा पत्नी को क्या मुँह दिखाएँगे? सेनापति, आपके घर में हुतात्माओं की तीन पीढ़ियाँ हुई हैं। शाक्य राष्ट्र आपके वंश का ऋणी है। क्या हम उस ऋण को आपके वंश को निस्संतान करके चुका दें? कदापि नहीं! वैसे बचे हुए शाक्य भी शत्रु की क्रूरता से अधिक देर तक नहीं बच सकते। शरण जाना ही अच्छा है, पर शरण जाने में भी राष्ट्र-हानि होती है। शरण जाना या न जाना, दोनों ही समान रूप से त्याज्य हैं और ग्राह्य हैं। निश्चित रूप से कुछ भी ठीक नहीं लगता। पितामह, मैं निर्णय का काम आपको सौंपता हूँ। मेरा कोई निश्चित मत नहीं है। इसलिए आपका मत ही मेरा मत है।

विक्रमसिंह : हे वीर युवक, अब तुम अपनी बात कहो। तीन दिन पहले एक अज्ञात सैनिक के नाते तुमने सेना में प्रवेश किया। इन तीन दिनों में तुमने असीम पराक्रम दिखाया। तुम्हारी तेज घुड़दौड़, बाणों का अचूक निशाना और घोर साहस के कारण तुम तीन ही दिनों में सैनिकों के सेनानी हो गए। मैं तुम्हें शाक्यों की युवा पीढ़ी का प्रतिनिधि मानता हूँ। बोलो, अब तुम्हारे मत पर सबका निर्णय निर्भर है, क्योंकि तुम तीनों में से एक ने कोई मत प्रकट नहीं किया। एक का मत है कि शरण जाना ही योग्य है। अब अगर तुम्हारा समर्थन भी शरणागति को मिले तो तुम लोगों का बहुमत शरणागति के पक्ष में होगा। अब सेनापति वल्लभ के प्राण विद्युत्गर्भ की तलवार की नोक पर नहीं वरन् तुम्हारी जीभ की नोक पर हैं। वल्लभ की प्रिय पत्नी उसकी राह देखते हुए व्याकुल मन से दरवाजे पर खड़ी है। उसका स्मरण कर लो। राजधानी के हर मार्ग में शाक्यों के बाल-बच्चों के रक्त से रँगे, नशे में झूमते कोसलों के खड्ग अबाध गति से घूम रहे हैं। उनका भी स्मरण करो और फिर अपना निर्णयात्मक मत दो। तुम्हारी तारुण्य सुलभ वृत्ति तुम्हें युद्ध के लिए उकसाएगी। इसीलिए मैं दूसरे पक्ष को अधिक विस्तार से तुम्हारे सामने रखना चाहता हूँ। अब बोलो, युद्ध और शरणागति के बारे में तुम्हारे क्या विचार हैं?

सुलोचन : राष्ट्रपितामह, सर्वाधिकारी, मैं अपना निश्चित मत सुस्पष्ट शब्दों में कहता हूँ। हम अगर आज हथियार डालकर बिना शर्त विद्युत्गर्भ की शरण में जाते भी हैं तो वह हमें ऐसा कौन सा विशिष्ट वरदान देनेवाला है? उसके पत्र से इस बात का कोई संकेत नहीं मिलता। किसी भी स्थिति में वह राजधानी हथिया ही लेगा। वह शाक्यों के मुकुट को कोसल के सिंहासन के तले रौंदेगा। इतना ही नहीं, वह जैसे आज तक शाक्यों के गाँवों को जलाता रहा है, उन्हें गाजर-मूली की तरह काटता रहा है, इस देश को उजाड़ता जा रहा है, वैसे ही सबकुछ वह राजधानी को हथियाने के बाद भी करेगा। मेरे इन वरिष्ठ सेनानियों की दृष्टि से यह बात छूट गई है कि विद्युत्‍गर्भ ने ऐसा न करने का कोई वचन इस पत्र में नहीं दिया है। लिखा है तो केवल इतना ही कि आप शरण नहीं आएँगे तो आप पर और अधिक भयंकर आपत्ति आएगी, पर क्यों कोई आतंक आज तक के सहे आतंकों से भी अधिक भयावह होगा? फिर हमें इस बात की भी गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि एक तरफ शांतिपूर्ण वार्तालाप करते हुए जो असावधान शत्रु पर इस तरह आक्रमण करता है, उस विद्युत्गर्भ का वचन, वंचना है। कुल मिलाकर शाक्य राष्ट्र का विनाश आज अटल सा लगता है। माना कि हम विजय की आशा नहीं कर सकते, पर अभी भी यथासंभव बदला लेने का निश्चय तो कर ही सकते हैं। मृत्यु अवश्यंभावी है। फिर भी शत्रु को मारते हुए तो मरा ही जा सकता है।

पहला सरदार : आपका यह मत क्रोध की अंधी प्रतिक्रिया लगता है।

सुलोचन : जी, ठीक कहा आपने, पर यह दबाए हुए क्रोध की प्रतिक्रिया ही उन्माद के हाथी का अंकुश होती है। साँप की पूंछ पर पाँव पड़ते ही साँप फुफकार कर उसे रौंदनेवाले को काट लेता है। मरते-मरते भी वह शत्रु को मरणोन्मुख कर देता है। यह प्रतिक्रिया विजय के लिए नहीं, प्रतिशोध के लिए होती है। साँप की बदले की भावना से ही आदमी डरता है। इसीलिए चींटी या पतंगे को मसलनेवाले बालक की तरह वह साँप को जान-बूझकर पाँवों तले नहीं रौंदता। बाण से बींधने पर भी शेर बौखलाकर शिकारी पर टूट पड़ता है। वह मर भले ही जाए, पर शिकारी के शरीर पर अपनी शक्ति का, अपनी प्रतिशोध की भावना का चिह्न अवश्य छोड़ देता है। इसीलिए मनुष्य जैसे शौक के लिए खरगोश का शिकार करता है, वैसे शेर का शिकार नहीं करता। चींटी तक मरते-मरते उसे रौंदनेवाले को काट खाती है। दंड के उस भय के कारण ही आदमी तो आदमी, साँप तक ऐसी काट खानेवाली चींटियों की बाँबी में नहीं घुसता। मधुमक्खियों की ही बात लीजिए। उनके छत्ते के गिराए जाने पर वे उस शहद की या अन्य मधुमक्खियों की चिंता छोड़, छत्ते को गिरानेवाले आदमी के पीछे-पीछे उसके गाँव तक पहुँच जाती हैं। आखिर उसे काट खाती हैं, तभी उसका पीछा छोड़ती हैं। उसे काट खाने पर वे स्वयं भी जीवित नहीं बचतीं, पर मरते समय उसे अपमानित जीवन का प्रतिशोध लेने की खुशी होती है। इसीलिए मनुष्य ऐसी एक मक्खी से इतना अधिक डरता है जितना रेशम के कीड़ों की पूरी बस्ती से नहीं डरता। प्रकृति ने ही प्राणिमात्र के मन में प्रतिशोध की यह सहज प्रवृत्ति उत्पन्न की है। इससे आततायियों को पापकर्म करने का साहस सहज ही नहीं होता। जगत् की सुरक्षा का यही विधान है। आतंकवादियों से शेष विश्व बचे, इसके लिए अगर शाक्य राष्ट्र का मरण अनिवार्य ही है तो अपने जीवन के लिए नहीं बल्कि उस शेष विश्व के लिए शाक्यों को शेर की तरह विद्युत्गर्भ पर टूट पड़ना चाहिए। एक-एक शाक्य पाँच-पाँच कोसलों को मौत के घाट उतारते हुए, उनसे प्रतिशोध लेते हुए मृत्यु को गले लगाए। इससे विद्युत्गर्भ हम जैसे छोटे-छोटे प्राजकों पर इस तरह सशस्त्र आक्रमण करते हुए हिचकेगा और आक्रमण करेगा भी तो उसे विजय आसानी से नहीं मिलेगी। ऐसे समय में प्रतिशोध लेना न केवल सहज प्रतिक्रिया होगी, प्रत्युत वह परोपकार के लिए किया गया परम कर्तव्य भी है। इसीलिए आपके प्रश्न का मेरा उत्तर है-प्रतिशोध लेना, न कि शरणागति।

विक्रम : हे वीर युवक, मैं तुम्हारे निर्णय का विरोध करना नहीं चाहता, पर मैं यह भी नहीं चाहता कि तुम्हारे वीरोचित एवं उत्स्फूर्त तर्क प्रणाली में कोई कमी रह जाए। इसीलिए मैं तुम्हें चेतावनी देना चाहता हूँ कि बाकी कार्य-कारण संबंध ठीक होने पर भी एक बात की तरफ तुम्हारा ध्यान ही नहीं गया। तुम्हारे प्रतिशोध के निर्णय को सुनते ही उसकी प्रतिध्वनि के रूप में विद्युत्गर्भ की तलवार वल्लभ की गरदन पर जा गिरेगी और उसका शिरच्छेद कर देगी। इस बात को कैसे भूले तुम? हाँ, अगर इस परिणाम को तुम महत्त्वपूर्ण नहीं मानते हो तो बात अलग है।

सुलोचन : राष्ट्रों के चिरंतन हानि-लाभ के विमर्श में व्यक्ति की क्या गति? पितामह, इस विचार को सोचने का अविचार मैं नहीं कर सकता।

पहला सरदार : किसी अज्ञात युवक का विचार और अविचार, हमारे लिए दोनों एकसमान हैं। इसे क्या मालूम कि सेनापति वल्लभ की क्या महत्ता है? युवक, तुम वीर हो, पर गँवार भी हो। तुम्हें राजनीति से क्या लेना-देना? तुमने कभी उस धैर्य धुरंधर को देखा भी है। अगर तुमने सेनापति वल्लभ का प्रियदर्शी, दिव्य मुखमंडल देखा होता तो तुम्हारे मनश्चक्षुओं के सामने विद्युत्‍गर्भ की तलवार से कटकर गिरता वह प्रिय मुख आता और उस काल्पनिक चित्र से तुम्हें मूर्छा आने लगती। तुम पूछते हो कि व्यक्ति की क्या गति! माना कि राष्ट्र महत्त्वपूर्ण है, पर असामान्य गौरव से दीप्त, राष्ट्रीय सेनापतित्व से मंडित सेनापति वल्लभ जैसा व्यक्ति, राष्ट्र की मूर्तिमंत अभिव्यक्ति होता है। शाक्यों के विगत तीन शतकों के इतिहास में दो वंशों का इतिहास बहुत महत्त्वपूर्ण है। एक तो है राजवंश। उसे भगवान् बुद्ध की संन्यासवादी जिह्वा ने काटकर निर्वंश कर दिया। शाक्य राजवंश के बाद का दूसरा राष्ट्रीय वंश है पितामह विक्रमसिंह का कुल। अब यह वंश भी तुम्हारी शस्त्रवादी जिह्वा से कटकर निर्वंश हो रहा है। जरा वल्लभ की उस नवयुवती वधू सुलोचना की तरफ तो देखो। महाराज, वह मेरी भानजी है। नन्ही सी थी वह, जब मैंने उसे देखा था। चाँदनी की तरह प्यारी थी वह। बाद में हम दूर देश चले गए। कई सालों से उसे देखा ही नहीं। अभी बीस की भी नहीं हुई होगी वह। उसके प्रीति-विवाह को डेढ़ साल ही हुआ होगा। उसकी यौवन लतिका में अभी-अभी बहार आई होगी। इतने में ही तुम उसे उजाड़ना चाहते हो? उसकी माँग में चमकता सिंदूर मिटाना चाहते हो? ऐसा सोचने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी? उस कोमल मन की कन्या से विश्वासघात न करो। युवक, क्या तुम्हारा कोई प्रिय नहीं इस दुनिया में? अगर हो तो मन की आँखों के सामने उस प्राणप्रिय मूर्ति को लाओ और सोचो कि किसी कसाई की छुरी से वह प्रियतम मस्तक कंठनाल से अलग हो रहा है। चारों तरफ रक्त की बूँदें गिर रही हैं। इस दृश्य की कल्पना ही से तुम्हें जो मर्मांतक वेदना होगी, उससे सौ गुना अधिक वेदना वल्लभ के शिरच्छेद की वार्ता सुनकर उसकी नववधू को होगी। यह सब भली-भाँति सोच लो और फिर अपना निर्णय सुनाओ।

सुलोचन : मैंने पहले ही कहा है कि राष्ट्रीय अथवा जागतिक हित-अहित के परिप्रेक्ष्य में व्यक्ति का सुख-दुःख गौण है, पर अगर आप इस गौण प्रश्न पर भी मेरा मत सुनना चाहते हैं तो सुनिए, मान लीजिए कि हमने हथियार डाल दिए। शत्रु ने वल्लभ को जीवित रखा। अब सोचिए कि वह वल्लभ को जीवित क्यों रख रहा है। इसलिए न कि इस शाक्य राष्ट्र को नष्ट कर विद्युत्गर्भ जब विजेता बनकर कोसल में प्रवेश करे, तब वह शाक्यों के विजित सेनापति की, वल्लभ की शोभायात्रा निकाले, उसकी अवहेलना करे। यह तो बाघ के दाँतों को उखाड़कर उसे औरतों और बच्चों में घुमाने जैसा अपमान होगा। यानी सेनापति वल्लभ को ऐसे अपमानजनक जीवन से मरकर हुतात्मा बनने का अधिकार अधिक वांछनीय लगेगा। मैं तो यही मानता हूँ। सरदार, इस जगत् में मेरा भी एक प्रिय व्यक्ति है। (रूँधे कंठ से) राष्ट्रहित के लिए मैं उसे ऐसे संकट में डाल रही हूँ कि संभव है, मैं उससे इस जन्म में मिल भी न सकूँ। फिर भी जिन कारणों से मैं अपने प्रिय को, वल्लभ को शिरच्छेद की तरफ धकेल रहा हूँ, उन्हीं कारणों से मैं सेनापति वल्लभ को भी¨¨ (चौंककर अपने को संयत कर) महाराज, क्षमा कीजिए, इन व्यक्तिगत मामलों में मुझे न उलझाइए! वल्लभ की नववधू पलक-पाँवड़े बिछाकर वल्लभ की राह निहार रही होगी। उसकी पलकों से अनवरत आँसू भी बह रहे होंगे, पर वहाँ रहकर रोते-रोते जी हलका न करने की बजाय उसे यहाँ आकर शत्रु के रक्त में नहाना चाहिए। उसे चाहिए कि वह पति के प्रतिशोध की मशाल को जलाकर विरह के अंधकार को चीर, अपने प्रियतम से जा मिले।

पहला सरदार : हे युवा सेनानी, तुम्हारा यह ओजस्वी भाषण वीररस का नाटक करनेवाली नाटकी नायिका का समाधान भले ही कर सके, पर वल्लभ की प्रणयाकुल, स्नेहकोमल पत्नी का समाधान कदापि नहीं करेगा। मान लो कि वल्लभ की शोकाकुल नववधू अभी तुमसे आ मिलती है और भर्राए गले से तुम्हें कहती है कि 'मत मारो मेरे स्वामी को राष्ट्र के लिए, क्योंकि इससे राष्ट्र तो बचेगा ही नहीं और मेरे स्वामी नाहक मारे जाएँगे। अपने वीररसपूर्ण भाषण पर दर्शकों की तालियाँ जुटाने के लिए मेरे प्रियतम को मृत्यु के मुख में मत झोंको। मेरी और मेरे प्रियतम की विनती पर एकाध अश्रु बहा लो।' बोलो, इसपर तुम क्या कहकर उस विरहन को दिलासा दोगे?

सुलोचन : यही कहकर मैं उसको शांत करूँगा कि बहन, आज इस शाक्य राष्ट्र के हर दूसरे घर में तुम जैसी ही कोई नवोढ़ा विद्युत्‍गर्भ द्वारा मारे गए अपने प्रियतम की मौत पर आठ-आठ आँसू रो रही है। उन सब नवोढ़ाओं के दुःख पर रो-रोकर शाक्य राष्ट्र हलकान हो गया है। अब उसकी आँख में एक भी आँसू नहीं बचा। पितामह, अभी इस सैन्य में दाखिल होने से चार दिन पहले, मैं भी इसी तरह दरवाजे पर खड़ी होकर¨¨ अपने प्रिय की राह तक रही थी। (रुलाई को रोकते हुए अपने आपसे) हाय, क्या कह गई मैं! मेरे मन ने मुझसे विद्रोह किया है। मैंने उसे कठोर निश्चय के कारागार में बंद कर रखा था, पर अब वह बलात् निकल भागना चाहता है। हे विवेक, पकड़ लो, पकड़ लो उसे, भागने न पाए!

विक्रमसिंह : हे वीर युवक, मन पर काबू करके स्थिर बुद्धि से तुम अपने मन की बात कहो।

सुलोचन : (अपने आपको सँभालकर) महाराज, क्षमा कीजिए। मेरा मन थोड़ा बहक सा गया था, पर जैसे राजा लोग समरांगण में कूद पड़ने से पहले अंत:स्थ विद्रोहियों को पकड़कर कारागृह में डाल देते हैं, वैसे ही मैंने अपने मन को बुद्धि के कारागृह में डाल दिया है और उसपर सद्विवेक-बुद्धि का पहरा बैठाया है। इसलिए अब मेरा मन चाहे जो बात नहीं कह सकता। मैं शाक्य राष्ट्र का सैनिक होने के नाते अपना मत स्पष्ट रूप से कहता हूँ। मुझे तो यही युक्तिसंगत लगता है कि केवल सेनापति वल्लभ के प्राणों के लिए राष्ट्र जीवन को कायरतापूर्ण शरणागति का कलंक लगाने की अपेक्षा हमें वल्लभ के और अपने प्राणों की हँसते-हँसते बलि चढ़ानी चाहिए। मेरी निश्चित धारणा है कि स्वयं वल्लभ भी पितामह के पुत्र हैं। अतः स्वभाव से वीर हैं, वे एक वीरांगना के पति भी हैं। मैं उनके शिरच्छेद का सम्मान इसीलिए करता हूँ कि बाद में मुक्त होने पर वे यह सोचकर क्रोधित न हों कि आप उनके शिरच्छेद से डर गए। उस स्थिति में वे आप ही का शिरच्छेद करना चाहेंगे। शरण नहीं, रण-यही मेरा आखिरी निर्णय है।

विक्रमसिंह : साधु, साधु! हे वीर गृहस्थ, अपने मनोनिग्रह में तुमने हम जैसे वृद्ध संन्यासियों को भी नीचा दिखाया। मनुष्य फटे-पुराने कपड़ों से बनी गेंद को आसानी से फेंक देता है। जो गृहस्थ वीर इसी सहजता से अपने धर्म के लिए, राष्ट्र के लिए, भलाई के लिए छिड़े न्याय युद्ध में अपने सिर को कट जाने देता है वह महान् संन्यासी है। उससे बढ़कर भी क्या कोई जितेंद्रिय, निस्संग, निर्लिप्त संन्यासी हो सकता है? सेनानियो, इस समर सभा का अंतिम निर्णय सुनिए, अगर इस तरुण सेनानी का मत शरणागति के हक में जाता तो तीन में से दो मत होने से बहुमत शरणागति के पक्ष में हो जाता, पर उसका मत युद्ध करने के पक्ष में है और एक ने अपना कोई मत नहीं दिया, अतः शरणागति और युद्ध के पक्ष में एक-एक ही मत है। इसलिए अब अंतिम निर्णय मुझपर निर्भर है। मेरा यही निर्णय है कि इस युवा सेनानी की तरह शाक्य भी रण के अर्थात् युद्ध के पक्ष में हों, न कि शरणागति के। चार दिन तक लगातार लड़ते रहने से सेना थकी हुई है। उसे कल सुबह तक विश्राम करने दीजिए। कल भोर होते ही वह आकाश से गिरे वज्र की तरह शत्रु सेना पर टूट पड़ेगी। शाक्यों के निर्णय को दोहराते हुए यह समर सभा विसर्जित करते हैं। आइए, जोर से बोलिए।

सब लोग : शरण नहीं, रण। शरण नहीं, रण। मारते-मारते मरेंगे। मरेंगे, पर मारते-मारते।

: पाँचवाँ दृश्य :

[सुलोचना और नलिनी पुरुष वेश में।]

सुलोचना : (इधर-उधर देखकर) नलिनी, देख तो सही, मेरे हृदय पर रक्त के दाग दिखाई दे रहे हैं क्या? मैंने बड़ी निर्ममता से एक हत्या की है।

नलिनी : क्या कहती हैं आप? तीन दिनों से रणांगण में देश शत्रुओं के साथ खून की होली खेल रही है। आश्चर्य नहीं कि ऐसी वीरांगना के वक्ष पर शत्रु के रक्त से रँगे लाल वस्त्र हों।

सुलोचना : मैं उस वस्त्र की बात नहीं कर रही। मैं वक्ष में विराजमान हृदय की बात कर रही हूँ। हर रोज राष्ट्ररिपु विद्युत्गर्भ की आतंकवादी सैन्य को मौत के घाट उतारते हुए, उसके छींटे मेरे वस्त्रों पर उड़ ही जाते हैं, पर इससे मेरे हृदय की विमल धवलता तनिक भी कलुषित नहीं हुई थी; किंतु नलिनी, आज मैं एक निरपराध, निष्पाप की हत्या कर आई हूँ। मैंने आज किसी दुष्ट की गुप्त या प्रकट हत्या नहीं की बल्कि विश्वास से गोदी में सिर रखकर लेटे एक सुष्ट की गुप्त हत्या की है। मुझे लगता है कि उस रक्त के छींटे मेरे हृदय पर पड़े हैं। उस भयानक हत्या का स्मरण आते ही मैं सिहर उठती हूँ और डरती हूँ कि कोई मुझ हत्यारन का पीछा न कर रहा हो। इसीलिए कहती हूँ कि इस हत्या का नामोनिशान भी न रह पाए। अगर उस निष्पाप हत्या का एक दाग भी हृदय पर रह गया तो मेरे प्राण कठिनाई में पड़ जाएँगे। ऐसे नहीं दीखेगा तुम्हें मेरा हृदय! मेरी आँखों में झाँककर देख, तभी तुम मेरे हृदय को देख पाओगी। विश्वासघात के कारण भी हत्या का रक्तिम दाग हृदय पर पड़ जाता है। वह रक्त भी सखी, एक अनुरक्त का था।

धुन-बोल,भावेंदा बोल

हाय सखी, लुटाया जो मैंने था,

वह रक्त प्रेमी का था॥ध्रु.॥

थी कभी गोद में सुलाती

चूम जिसे,

उसी को मार दिया मैंने,

निर्मम, कठोर बन,

सखी, था वह अनुरक्त रक्त॥

नलिनी : सुलोचनाजी, यह आप क्या कह रही हैं? किसकी हत्या? कौन प्रेमी था? वीरांगना होते हुए आप अचानक इस तरह विचलित क्यों हो उठीं? आपकी बातें सुनकर मुझे सचमुच बहुत डर लग रहा है।

सुलोचना : तुम नहीं जानती कि वह कौन प्रेमी है। देख, मैं जिसपर अनुरक्त थी वही तो मुझपर अनुरक्त था। मेरे वल्लभ, नलिनी। मैं उन्हीं के बारे में बोल रही हूँ। नलिनी, आज मैं वल्लभ की हत्या करके आई हूँ। वह भी तलवार से नहीं, विश्वासघात से! विश्वासघात के आगे तलवार की धार भी कुंद हो जाती है। इसी जीभ से मैंने वह विश्वासघाती आघात किया है। नलिनी, मेरी जीभ ने मेरे वल्लभ का शिरच्छेद किया। मैंने अपने हाथों अपने प्रियतम का गला घोंट दिया। (थरथर काँपते हुए मंच पर लेट जाती है।)

नलिनी : कैसी अशुभ बातें कर रही हैं आप? कहीं पागल तो नहीं हो गईं? महाराज, महाराज, हमारे शिविर में कोई अचानक आ जाए तो हमारा यह वेशांतर तो धरा रह जाएगा।

सुलोचना : अरे, वेशांतर को तो मैं भूल ही गई। नाटक के मंच से ही दर्शकों के बीच अपने मित्र को देख उसे पुकारनेवाले भुलक्कड़ नट की तरह मेरा बरताव भी हास्यास्पद हो रहा था, पर अब तुम मेरा यह नाटकी भेस उतार दो, पर तुम अपने इसी पुरुष वेश में हमारी छावनी के प्रवेश-द्वार पर पहरा देती रहो। मैं भीतरी कक्ष में जाकर कुछ पल अपने आपसे बातें करती हूँ। पुरुष वेश पहनकर जब हम युद्ध के लिए रवाना हुईं तब मैंने अपने अबला मन को अंतर्मन में बंद कर रखा था। सोचा था कि उसे वहाँ से मेरे वल्लभ ही निकालेंगे, पर अब मैंने ही अपनी सोच को झुठला दिया; क्योंकि नलिनी केवल मैंने शरणागति का विरोध किया, इसलिए शाक्य विद्युत्गर्भ की शरण में नहीं गए। अब उस क्रूर विद्युत्‍गर्भ ने आज्ञा दी है कि शाक्यों के शरण न जाने पर वल्लभ को जान से मार दिया जाए। आज की रात विश्राम की रात है। कल भोर होते ही शत्रु पर अंतिम आक्रमण होगा, जैसे ही हमारा यह रण निर्णय विद्युत्‍गर्भ के कान में पहुँचेगा, उसके हाथ का खड्ग मेरे वल्लभ के कंठ का छेदन कर डालेगा। हाय! मेरे वल्लभ अब मुझसे कभी नहीं मिलेंगे। मेरे मन की बातें सुनने वे कभी मेरे पास नहीं आएँगे। मेरा बुद्धिवाद सारी दुनिया सुनेगी, पर मन की बातें मन ही में रह जाएँगी। उसे सुनूँगी तो सिर्फ मैं ही। इसीलिए मैं अपने अंतर्मन की बातें सुनना चाहती हूँ। थोड़ी देर के लिए मैं, मैं ही हो जाऊँगी। मेरे नाटक के अन्य सभी दृश्य समाप्त हो गए। अब केवल अंतिम दृश्य बचा है। नाटककार के लिए वाक्य मंच पर बोलकर, दो दृश्यों के बीच नट रंगमंच के पीछे जाकर अपनी बातें कहते हैं, उसी तरह मैं यह अंतराल अपने आपसे बातें करने में गुजारूँगी। विवेक विरचित वीर रस के भाषणों को छोड़ अब मैं अपनी सीधी-सरल भाषा में अपने मन से वार्तालाप करूँगी। एकांत! हाँ, मेरे अनन्य प्रियतम का, उस एकमेव का अंत करके मैंने यह एकांत पाया है। नलिनी, भीतरी कक्ष में आकर मेरा यह नाटकी वेश उतार लो। फिर पहरा देने बाहर चली जाओ।

[दोनों अंदर जाती हैं। अंदर का परदा ऊपर उठता है।]

सुलोचना : (स्त्रीवेश में आईने के सामने) हाँ, अब पहचाना मैंने अपने आपको। यही है वह सुलोचना यानी कि मैं। आठ-दस दिन पहले कामदेव की माला गूँथते समय, माला का गीत गुनगुनानेवाली, अपने वल्लभ की प्रतीक्षा में रत, शयन मंदिर के एकांत में बैठी ऐसे ही दीख रही थी मैं। ऐ मेरे मन, आगे जो भी हुआ, वह हुआ ही नहीं, ऐसा समझकर मुझसे बातें कर। विवेक-बुद्धि की सास कुछ क्षणों के लिए सोई है। वह उठे, इससे पहले ऐ मेरे मन, कुछ देर खुलकर बातें कर लें या फिर घर के दिन भर के कर्तव्य कर्म समाप्त होने पर शाम के समय सास कुछ देर उन्हें मंदिर जाने के लिए या आराम करने के लिए कहती है। ऐसे समय कुल-वधुएँ खुले मन से हँस- बोल लेती हैं। मेरे जीवन की शाम अब समीप है। रे मन, क्षण-दो क्षणों के लिए मंदिर हो आएँ। (वल्लभ का चित्र निकालकर) यह रहे मेरे भगवान्। मेरे भगवान्, मेरे वल्लभ, मेरे प्रियतम, आइए, सीने से लग जाइए।

धुन-ख्वाजा के कदम पे

जाते-जाते ओ रे सजन। सीने से लग तू एक बार॥ ध्रु.॥

जहाँ आयु, धन, मृत्यु ना। प्रिय तेरा-मेरा एकांत वहाँ।

प्राणवल्लभ शीघ्र आ। सीने से लगा एक बार॥

आह! प्रियतम से एकांत में बतियाने में कितना आनंद है! क्यों जी, आप तो जल्दी लौट आनेवाले थे। हमारे प्रीति-विवाह के पहले वर्षदिन पर हम रति उत्सव मनानेवाले थे। उस मंगल कार्य के लिए हमें मंगलास्पद कामदेव की पूजा करनी है। जल्दी आएँगे न आप! ऐसे ही रूठकर समय गँवाने की गलती मैं दोबारा नहीं करूँगी। झूठ-मूठ का मान भी नहीं करूँगी। ज्यादा-से-ज्यादा मैं इतना ही पूछूँगी कि वल्लभ, अब बताइए कि स्त्री पुरूषों की शृंखला है या प्रेरणा? प्रियतम, आपने जिस युद्ध में अत्याचारी शत्रु का दमन किया, उस युद्ध में मैंने, आपकी प्रिया ने भी उसका उसी तरह दमन किया। आपके हाथ से कृपाण गिरते ही मैंने इतनी तत्परता से उसे उठाया कि शत्रु को पता तक न चला कि वह गिरा भी है। मेरे वल्लभ, आप वीर हैं तो मैं वीरांगना हूँ। जँचती हूँ न मैं आप जैसे वीर की पत्नी! अब बताइए, श्रीमान कि स्त्री पुरुषों के पैरों की बेड़ी है या उनकी साधना की पूर्ति? मैं जानती हूँ कि आपका उत्तर मुझे फिर से चक्कर में डालेगा। आप पूछेगे कि बोलो, शिष्या किसकी हो? हाँ गुरुजी, मैं आप ही की शिष्या हूँ। वीरत्व और कर्तव्याकर्तव्य के सरल सूत्र आप ही ने तो सिखाए हैं मुझे। धर्माधर्म विचारों का वर भी आप ही का दिया हुआ है, पर ऐ मेरे भोले शंकर, भस्मासुर की तरह आपका दिया हुआ वर आप ही के लिए घातक सिद्ध हुआ। अभी-अभी हुई समर सभा में मैंने आप ही के मस्तक पर विनाशक हाथ रखा। इंद्रिय जय, इंद्रिय नाश नहीं, अपितु यथाकाम इंद्रिय सुख लेते हुए भी समय आने पर लोकहित के लिए अपने व्यक्तिगत सुखों को तिलांजलि देना है। आपके पिता विक्रमसिंह का, उस संन्यस्त सेनापति का धर्मसूत्र है कि ऐसा कर्मयोगी गृहस्थ, संन्यासी की तरह ही विदेह मुक्ति का अधिकारी है। इसका न केवल आपने पालन किया बल्कि आपने मुझे भी वह धर्मसूत्र सिखाया और उसका मैंने भी पालन किया। इसमें कोई गलती हुई हो तो उसका दायित्व सेनापतिजी, आपके कडे सैनिक अनुशासन का है, क्योंकि उस समर सभा में वह घोर निर्णय मैंने नहीं बल्कि शाक्य सेनापति वल्लभ की शिक्षा और अनुशासन में मँजे एक राष्ट्रीय सैनिक ने लिया था, पर अब इस एकांत में मैं वही सुलोचना हूँ। अपने वल्लभ की नटखट, चुलबुली सजनी! आप यहाँ से गए, तब मैं भगवान् कामदेव की पूजा के लिए फूलों की माला गूँथ रही थी। हाय! ये फूल तो सूख गए, पर इसमें इनका भी क्या दोष! इस मर्त्य जगत् में फूल सूखेंगे ही, उनकी पंखुड़ियाँ गिरेंगी ही, सुगंध भी मिट ही जाएगी। इसका दोष मैं इस मर्त्य जगत् को भी नहीं देती फिरूँगी, क्योंकि फूल खिलते भी हैं इसी जगत् में, उनकी पंखुड़ियाँ भी हौले से यहीं खुलती हैं और सुगंध भी इसी जगत् में फैलती है।

धुन-मैं मनको फसिया

पंखुड़ी-पंखुड़ी गिर, मुरझाते गर फूल इस जग में।

कली-कली बन फूल लहराती भी इसी जगत् में॥

खोल पंखुड़ी-घूँघट, कली यहीं मुसकाती है।

मत भूल तू यह पागल मन विराग-ज्वर में॥

गलती तो मुझी से हुई। फूलों के खिलते ही मुझे पूजा सजानी चाहिए थी। उस दिन जब वे चल पड़े, तभी माला गूँथकर मुझे उनके गले में डालनी चाहिए थी, पर मैंने रूठकर वह अनमोल अवसर खो दिया, पर अभी भी मौका है। भक्तिमय अंत:करण से बनाई यह माला मैं अभी भी उनके गले में डाल सकती हूँ। कहते हैं कि धर्मयुद्ध में काम आए वीर स्वर्ग जाते हैं। मेरे वल्लभ भी स्वर्ग जाकर देवता बने होंगे। युद्ध में अपनी बलि चढ़ाकर मैं भी उनके पीछे-पीछे स्वर्ग सिधारूँगी। तब भी यह सूखी माला मेरे हाथ में होगी, स्वर्ग जाकर मैं उन्हें यह माला पहनाऊँगी। स्वर्ग जाकर हमारे पार्थिव शरीर दिव्य शरीर में परिवर्तित हो जाते हैं। इसी तरह ये सूखे हुए फूल भी स्वर्ग के पारिजातक बन जाएँगे। कल रात इसी समय मैं स्वर्ग में अपने वल्लभ के साथ होऊँगी और वहाँ अपनी अधूरी कामदेव पूजा पूरी करूंगी। अपने वल्लभ को माला पहनाकर मैं कहूँगी-नाथ, मुझे अपनी बाँहों में भर लीजिए और अपने विशाल बाहु फैलाकर मुझे सीने से लगा लीजिए। अपने हाथ उनके बलिष्ठ कंधों पर रखकर मैं उनके सीने से लग जाऊँगी और आँखें मूँदकर प्रेम समाधि में लीन हो जाऊँगी। (इतने में वल्लभ उसको फैली हुई बाहों में आ खड़ा होता है।)

वल्लभ : सखी सुलोचना!

सुलोचना : कौन, वल्लभ! बड़े ही आश्चर्य की बात है। कहते हैं कि भक्ति की तीव्रता के कारण भक्तों को उनके इष्ट देवता के दर्शन होते हैं। उसी का अनुभव ले रही हूँ मैं आज। समझ में नहीं आ रहा कि मैं स्वर्ग में हूँ या स्वप्नलोक में! हे मेरे देवता, कहीं यह मेरे मन का आभास तो नहीं! पर जिसे मैं सत्य मानती थी वह आभास हो गया, देखते-देखते दृष्टि से ओझल हो गया। अच्छा हो कि यह आभास मूर्तिमंत होकर सत्य बन जाए। वल्लभ, आप आभास हैं या सत्य! कहिए न बताइए न कि क्या सत्य है और क्या आभास? हम भूलोक में हैं, स्वर्गलोक में या स्वप्‍नलोक में?

वल्लभ : प्रिये, मैं सचमुच ही वल्लभ हूँ। मेरी भी समझ में नहीं आ रहा कि मेरा पुनर्जन्म है या वही पुराना जन्म बस सत्य है तो यही कि इस आश्चर्यजनक आवर्त में इस पल हम दोनों एक-दूसरे से मिले हैं। आओ, हम दोनों ही आलिंगनबद्ध होकर सुख के सागर में डूब जाएँ।

सुलोचना : वल्लभ!

वल्लभ : क्या यह सच है कि तुमने मेरे शिरच्छेद का खतरा होते हुए भी शाक्यों की शरणागति का विरोध किया?

सुलोचना : हाँ, मेरे प्रियतम!

वल्लभ : इसी से मैं तुमसे नाराज हूँ।

सुलोचना : आप मुझसे गुस्सा हैं? नहीं, यह नहीं हो सकता। जल्द ही लौटने का वादा कर आप उस दिन राजसभा गए और राष्ट्र-रण का रणसिंहा बजते ही आप मुझसे विदा लिये बिना ही युद्ध पर चले गए।

वल्लभ : हाँ प्रिये! वीर कर्तव्य ने मुझे लौटने ही नहीं दिया।

सुलोचना : मुझे भी आपकी इस बात पर बहुत गुस्सा आया था।

वल्लभ : यह ठीक नहीं। तुम तो वीरांगना हो।

सुलोचना : इसी तरह वीरवर, आप भी मुझसे गुस्सा नहीं हो सकते, पर अब भी मेरी समझ में नहीं आ रहा कि हमारे मिलन का यह शुभ संयोग हुआ भी तो कैसे! शत्रु की कैद से आप मुक्त कैसे हुए और आपको मेरे यहाँ होने का पता कैसे चला? सारी कहानी संक्षेप में बताइए, क्योंकि उसे विस्तार से सुनने से कहीं अधिक अच्छा लगेगा मुझे अनंत जन्मों के पुण्यफल सा आपके आलिंगन में खो जाना।

वल्लभ : आहत होने के बाद मैं शत्रु के हाथ लग गया। उसके बाद के इन चार दिनों में आप सबने युद्ध में वह वीरता दिखाई कि विद्युत्गर्भ की सेना को छठी का दूध याद आ गया। कोसल की सेना मारे डर के तितर-बितर हुई। मुझपर पहरा देनेवाले सैनिक भी घायल ही थे। पीड़ा और थकान के कारण कई बार उन्हें भी नींद आ जाती। एक रात ऐसी ही एक शाक्य किसान वहाँ आया। उसे जबरदस्ती अपना सारा अनाज वहाँ लाना पड़ा था। उसने मुझे पहचाना और पहरेदारों की आँखें लगते ही वह बड़ी मुश्किल से मुझे वहाँ से निकाल लाया। उसके सेवक के वेश में मैं विद्युत्गर्भ की सेना से भाग निकला। अपनी सेना में पहुँचने पर मुझे पिताजी अर्थात् सेनापति विक्रमसिंहजी से समर सभा का निर्णय मालूम हुआ। शरणागति को धिक्कारकर शाक्य राष्ट्र को उस घोर कलंक से बचानेवाले, अभिमान और पराक्रम की मूर्ति उस युवा सेनानी के दर्शन करना चाहता था। अतः मैंने इस शिविर का रुख किया। यहाँ आया तो तुम्हारे उस पहरेदार ने मुझे रोकने के बजाय मेरे पाँव पर अपना सिर रखा। उसका सिर उठाकर देखा, तो वह और कोई नहीं तुम्हारी नलिनी थी। उसी से पता चला कि वह शाक्य सेनानी तुम ही हो। मेरी नटखट, चुलबुली सुलोचना! अब कल के अंतिम रण क्रंदन में मैं सेनापति बनकर नहीं बल्कि तुम्हारे पथक का एक सैनिक बनकर लड़ूँगा।

सुलोचना : कल की बात कल पर छोड़िए। अभी तो आनेवाले भीषण कल और बीते हुए कठोर कल की कैंची से छूटे इस आज के पल का आनंद उठा लें। मुझे तो मेरे वल्लभ और उनके आलिंगन में पिघलती यह सुलोचना, बस यही कुछ याद रखना है। वल्लभ, जाने कैसा लग रहा है मुझे! आपका उस दिन का जाना और आज का आना दोनों ही आकस्मिक, असत्य हैं। प्रिय, मुझे अपनी गोदी में ले लो, ताकि उस दिन की कामदेव पूजा की मुरझाई माला आपके गले में डाल सकूँ। आइए, नैनों के दीप से आपकी आरती उतार लूँ। नाथ, मेरी आँखें नींद से बोझिल हुई जा रही हैं। भगवान् कामदेव, मेरे इस प्रीति-संगम की अंतिम रात में ही मेरे जीवन का भी अंत हो, पर नहीं, मुझे कल के युद्ध के लिए जागना है। रति शय्या की तरह रण शय्या पर पति के संग सह शय्या करूँ, यह मेरा सपना है। उसे पूरा करने के लिए मुझे जीना पड़ेगा। नाथ, कहाँ हैं आप!

वल्लभ : सुलोचना, मैं यहीं हूँ।

सुलोचना : पता नहीं मुझे क्या हो रहा है! नशा सा हो गया है। यह मोहक मूर्च्छना है या फिर मधुर मृत्यु!

वल्लभ : अरे, मेरी सखी, बोलते-बोलते मूर्च्छित हो गई। इसकी नाड़ी, इसके जीवन का सूत्र कहीं¨¨नहीं¨¨ऐ मेरे भोले प्रेम, पागल मन, यह मूर्च्‍छा भी नहीं है। मेरी इस कांता के जीवन का सूत्र मृत्यु अपने हाथ झिंझोड़कर तोड़ना चाहती है, पर हे मृत्यु, मैं नहीं ले जाने दूँगा इसे। मुझे शत्रु के जाल में फँसाकर तूने अपना पाश मेरे गले में डाला था, पर मैंने जबरदस्ती उसे गले से निकालकर फेंक दिया था। क्यों इसी बात पर क्रोधित होकर मेरा पीछा करते-करते तू यहाँ तक आई है? पर धृष्ट, मेरा गला तो यह रहा, तूने जिसे पकड़ रखा है वह मेरी प्रिया का गला है। तू तो कच्ची निशानेबाज निकली। ठीक निशाना लगाकर अपना फंदा मेरे गले में डाल¨¨हाय! मेरी प्रिया मुझे छोड़ चली। मेरे आलिंगन से वह मृत्युपाश में खिंचती चली जा रही है। अब क्या करूँ? इसकी साँस, इसके प्राण मेरी रत्न मंजूषा है। इसके मुख पर चुंबन का ताला लगा देता हूँ जिससे कि वह सुरक्षित रह सके। हाय! फिर भी इसकी साँस रुकने लगी है। प्रिये, सुलोचना, तुम्हें बचाने के लिए मैं क्या करूँ? नलिनी, नलिनीऽऽऽ!

नलिनी : (प्रवेश कर) स्वामी, क्या हो गया? आप अचानक इतने विह्वल क्यों हो गए?

वल्लभ : मेरी सखी मूर्च्‍छा के फिसलन भरे उतार से मृत्यु के अथाह जल में डूब गई।

नलिनी : महाराज, यह कैसे हुआ?

वल्लभ : कुछ ही देर पहले हुई समर सभा में उसने मेरे वध की सम्मति दी थी। मैं सचमुच ही पागल था जो मैंने उससे बदला लेना चाहा। नहीं समझी! नलिनी, तुम्हें याद है, मैं इसे अकेला छोड़ अचानक युद्ध के मृत्यु मुख में चला गया था। उस आकस्मिक वियोग दुःख से मेरी सखी के दुःख का ओर-छोर न रहा। मेरी वही प्रेममयी सखी मुझे मृत्यु मुख से सुरक्षित लौट आया देख इतनी खुश हुई कि मारे खुशी से उसने अपने प्राण त्याग दिए। नलिनी, इसके चिर बिछोह का दुःख मन में दबाया नहीं जा सकता। मन करता है कि सेना के अनुशासन को ताक पर रख फूट-फूटकर रो लूँ।

नलिनी : (सुनकर) अरे, कहीं पर बहुत शोर हो रहा है।

वल्लभ : वह शोर नहीं वरन् मेरे शोक की प्रतिध्वनि है। छावनी से दूर जाकर, मेरा मन अनुशासन से परे हो गया है। उसी का शोर है यह-

धुन-कौन खेले तोसे

शोक से भर आए उर। रुदनध्वनि बन पड़े उमड़।

साथ मेरे रो पड़े। वृक्ष, आकाश, वनदेवी, भूधर॥

[रणसिंघा बजता है। शत्रु के हमले का प्रतिकार करने के लिए, 'चलो,उठो,लड़ पड़ो'कहते हुए शाक्य सैनिक उमड़ पड़ते हैं।]

शाक्य सैनिक : हमला, शत्रु का हमला। शत्रु सेनापति चंड ने उत्तर की ओर से हमारी छावनी पर जबरदस्त हमला किया है। कल हम शत्रु पर आखिरी आक्रमण करनेवाले थे। उससे पहले उसी ने अचानक आक्रमण किया। सर्वाधिकारी विक्रमसिंह ने इसी को आखिरी रण समझ शत्रु का पूरी शक्ति से सामना किया। उनकी आज्ञा है कि हम सभी लड़ते हुए उसी दिशा में बढ़ें।

वल्लभ : आज्ञा शिरसावंद्य! यह मैं चला, तलवार उठाकर। हमारे जाति शत्रु के साथ का यह आखिरी युद्ध होगा। लोक कल्याण के लिए न केवल व्यक्तिगत जीवन सुख का बल्कि व्यक्तिगत मरण सुख का भी त्याग करना चाहिए। (फिर से 'दौड़ो,शस्त्र उठाकर दौड़ पड़ो' का कोलाहल।) अब नहीं रुक सकता मैं, नलिनी। इस युद्ध में आहत होकर मरने के लिए मैं यहीं अपनी प्रिया के पास आऊँगा। तब तक मेरी प्रिया की मृत देह को जतन से रखो। अगर मैं लौट न सका तो इस शिविर के साथ ही उसकी देह को अग्नि को सौंप देना। और अब जाते-जाते प्रिये, मैं तुम्हारा वल्लभ तुमसे मौन विदा लेता है।

धुन-उठो पिया जागो

प्रियतम चल पड़ा तुम्हारा। सजनी दे दो उसे विदा।

अबके गए न लौटेंगे। फिर भी सजनी दे दो विदा॥१॥

नैन आँसू, रुंधा गला। मुँह से फूटे न बोल।

निःशब्द मौन यह विदा। सजनी है आखिरी विदा॥२॥

( उसे चूमता है।) चलिए, रणसिंघा बजाइए। रणांगन चलिए। ( सैनिकों के साथ जाता है।)

सुलोचना : (चौंककर उठती है।) यह क्या हो रहा है? यह रणसिंघा¨¨ (हाथ से इशारा करती है।) वल्लभ, मुझे उठाइए। हाथ का सहारा दीजिए। (चौंककर उठ खड़ी होती है।) वल्लभ चले गए या वे आए ही नहीं थे! कहीं वह सपना तो नहीं था!

नलिनी : अरे, यह तो पुनर्जन्म हो गया मेरी सखी का। पहले मुझे गले मिलने दो। सखी, इस तरह चकित न हो। वल्लभ सचमुच ही यहाँ आए थे, पर उस अतिसुख से तुम मूर्च्छित हो गईं। हमें लगा कि तुम हमेशा के लिए हमें छोड़ गई हो। हमारे दुःख का पार न रहा, पर तभी हमपर उत्तर दिशा से शत्रु का जबरदस्त हमला हुआ। उसी का सामना करने वल्लभ उस ओर गए हैं।

सुलोचना : मुझे यहीं छोड़कर वे चले गए! मैंने कहा था उनसे कि युद्ध के समय मुझे जगाएँ, पर वे इस बार भी मुझे धोखा देकर चले गए।

नलिनी : उन्हें क्या पता कि लड़ाई के लिए लोग मौत के मुँह से भी वापस आते हैं!

सुलोचना : उन्हें मालूम होना चाहिए था। मूर्च्छित होते हुए मैंने मृत्यु से संधि की थी कि वह अंतिम युद्ध के लिए मुझे छोड़ दे, ताकि मैं रण शय्या पर वल्लभ के साथ सह शय्या कर सकूँ! (रणसिंघा बजता है।)

नलिनी : लगता है कि युद्ध की उद्दाम लहर हमारे शिविर में भी घुस आई है।

सुलोचना : देख क्या रही हो? शस्त्र निकालकर उसमें कूद पड़ते हैं।

नलिनी : पर¨¨मूर्छा के कारण तुम थकी हुई हो।

सुलोचना : अब भी नहीं समझी? मैं मूर्च्‍छा से थकी हुई नहीं, मृत्यु के हाथों मरी हुई हूँ, पर तुमने क्या यह नहीं सुना कि मस्तक काटे जाने पर भी शूरवीरों के कलेवर लड़ते हैं? नलिनी, मैं भी ऐसे ही लड़ूँगी। मेरा यह प्राणहीन शरीर, शाक्यों का बदला लेते हुए, शत्रुओं के सिर काटते हुए वल्लभ के पास जाएगा।

नलिनी : तो फिर यह पुरुष वेश तो पहन लो।

सुलोचना : नहीं। बस, हो गया अब वह नाटक। तब मैं नट के रूप में लड़ती थी। अब मैं अपने असली रूप में, स्त्री रूप में लड़ूँगी। दुर्गा स्त्री रूप में ही लड़ी थीं। शूर स्त्री को अपने मूल रूप में ही लड़ने का दस गुना उत्साह होता है। मैं स्त्री वेश में ही लड़ूँगी।

धुन-बोला बोला-बोलो

मुक्त-खड्ग-कर ले लेकर। स्त्रीरूप में लड़े भवानी।

महिषासुरमर्दिनी रण में जैसे॥ध्रु.॥

वीरसुता मैं वीरवल्लभा। दुष्ट दैत्य दल मारूँ वैसे॥

[इतने में'कोसल की जय' 'मारो,काटो,लूट लो'का शोर मचाते हुए कोसल सैनिक आते हैं।]

नलिनी : सखी, सावधान, शत्रु¨¨

सब सैनिक : मारो-काटो।

एक सैनिक : पर यह तो स्त्री है।

दूसरा सैनिक : जो भी हो, है तो शाक्य ही।

सब सैनिक : तो उसे भी मारो।

सुलोचना : वह लड़ रही है। इसलिए उसे भी मारना ही चाहिए।

[लड़ाई शुरू होती है।]

सब सैनिक : कोसल की जय। (गर्जना करते हुए लड़ते हैं।)

सुलोचना और

नलिनी : यह रहा शाक्यों का प्रतिशोध। (आवेश में लड़ती हैं।)

[कुछ सैनिक मर जाते हैं,कुछ पीछे हटते हैं,कुछ लड़ते-लड़ते दूर चले जाते हैं।]

: छठवाँ दृश्य :

[एक तरफ से सेनापति चंड और दूसरी तरफ से उसके अनुचर आते हैं।]

चंड : क्या, हमारी सेना के इतने ही सैनिक बच पाए?

अनुचर : जी सेनापति चंड, आपकी आज्ञा के अनुसार रणांगन में इधर-उधर बिखरे सारे सैनिकों को गुप्त रूप से इकट्ठा किया गया है। युद्ध की इस कराल रात्रि में केवल इतने ही सैनिक जीवित बचे हैं। शत्रु पक्ष भी पूरी तरह विनष्ट हो चुका है। शाक्य सेनानी सुलोचन और कोई नहीं, शाक्य सेनापति वल्लभ की पत्नी सुलोचना ही थी। वह स्त्री¨¨

चंड : स्त्री! रात के हमले में सभी शाक्यों ने असीम पराक्रम किया, पर सबसे अधिक पौरुष था उस स्त्री में। पुरुष वेश में वह कराल काल की तरह लड़ी और स्त्री वेश में भयंकर कृत्या की तरह। अँधेरे में भी वल्लभ को पहचानकर मैंने उसपर प्राण घातक वार किया। तब मैंने दूर से उसे भी घायल अवस्था में लड़ते हुए देखा था¨¨आगे न जाने क्या हुआ!

अनुचर : लगता है, वह वहीं गतप्राण हो गई। शाक्यों की पूरी सेना में केवल घायल विक्रमसिंह ही कुछ सैनिकों के साथ रण मशाल जलाकर आपका पीछा करते हुए दिखाई दिया था¨¨बाकी शाक्यों के सारे सैनिकों ने वीरगति पाई। सेनापति चंड, हमारे भी अन्य सभी सैनिकों ने वीरगति पाई।

चंड : शाक्यों की वीरता अनपेक्षित थी। आरंभ से ही वे इस तरह लड़ते तो उनपर आक्रमण करने की हमारी हिम्मत ही न होती। फिर भी महाराज का सौंपा काम मैंने पूरा कर दिया। शाक्यों का आखिरी सैनिक मार दिया, पर अच्छा हो अगर हम महाराज विद्युत्गर्भ के चरणों पर इस विजय से भी अधिक मूल्यवान पुरस्कार चढ़ाएँ। शाक्यों का नामोनिशान तभी मिट जाएगा जब बुद्ध का नाम मिट जाएगा। उसे नष्ट कर देना चाहिए। चौंको मत। आज भी वह अन्य जाति के लोगों के मन में हमारे बारे में विद्वेष भर रहा होगा। विशेषतः हमने शाक्यों की मिट्टी पलीद की। इसलिए उसका मन हमारे बारे में अधिक कलुषित हुआ होगा। इसीलिए इस हमले में मैं उसे भी जान से मारनेवाला था। अभी भी मेरी यही कोशिश है।

अनुचर : पर हमें अपनी जान बचाकर यहाँ से जाना भी मुश्किल हो रहा है।

चंड : हमने पहले ही बुद्ध को आमंत्रण दिया था कि वे शाक्यों को हिंसा से परावृत्त करें। उस स्थिति में हमने शाक्यों से संधि करने का निश्चय प्रकट किया था। इसपर प्रसन्न होकर बुद्ध ने आज रात यहाँ आने का निमंत्रण स्वीकार भी किया था। पौ फटने से पहले उसके इस पहाड़ी की ओर से विहार की तरफ जाने की संभावना है। उसे पकड़ने के लिए हमें घात लगाकर बैठना चाहिए। इस राह से वह आ जाए तो मैं उसका सिर काटकर अपने सिर पर विजय का सेहरा बाँधूँगा। फिर भले ही उसके लिए बाकी बचे सैनिक मर क्यों न जाएँ। शस्त्र बल की उपेक्षा का उसका दुर्बल उपदेश कोसल को भी दुर्बल बनाएगा। उसे जीवित न रखने में ही हमारी भलाई है। इन बिखरे शवों के ढेर के पीछे छिपकर बैठते हैं। ( जाते हैं।)

सुलोचना : (रक्तरंजित मुक्तकेश अवस्था में आती है।) इस अँधेरे में आँखें फाड़-फाड़कर मैंने पूरी रणभूमि छान मारी, पर मेरे वल्लभ कहीं नहीं मिले। मेरी नलिनी युद्ध में जब गतप्राण हुई तब मेरे उस वीरसिंह की, मेरे वल्लभ की घन-गर्जना यहीं-कहीं से सुनाई दे रही थी। ऐ मेरे प्राण, कोसलों से यथासंभव प्रतिशोध लेने का तुम्हारा काम खत्म हुआ। इसलिए मुझे तुम्हें जाने देना चाहिए, पर एक क्षण और¨¨एक बार मैं रणक्षेत्र में धराशायी हुए अपने वल्लभ की पगधूलि माथे पर लगा लूँ। फिर मैं खुशी से तुम्हारा मोह छोड़ दूँगी। (शवों को देखते हुए।) वल्लभ, किससे पूछूँ आपके बारे में? एक भी मनुष्य नहीं दिखाई दे रहा। सारे-के-सारे युद्ध में मारे गए। हे देवी-देवताओ, वनदेवियो, रणदेवियो, जो भी मेरा प्रश्न सुन रहे हों, मेरे प्रश्न का उत्तर दें-शाक्यों के घायल सेनापति वीरसिंह वल्लभ ने किस स्थान पर अंतिम साँस ली? वल्लभ, आपको मेरे साथ रण शय्या पर सह शय्या करनी थी न! फिर आप अकेले कहाँ लेटे हैं! मैं आपका साथ देने आई हूँ। तनिक रुक जाइए वल्लभ, मेरे प्यारे वल्लभ¨¨

वल्लभ : (रणांगन में थोड़ा सा उठकर) यह तो सुलोचना पुकार रही है, पर वह तो यमलोक सिधारी थी। तो क्या मैं भी यमलोक के इतने समीप आ गया हूँ? मूर्च्‍छा की नौका मुझे लेकर वैतरणी पर कितनी जल्दी-जल्दी जा रही है!

सुलोचना : वल्लभ, आप कहाँ हैं? वल्लभ¨¨

वल्लभ : सुलोचना, प्रिये, क्या सचमुच तुम ही पुकार रही हो मुझे?

सुलोचना : (उस तरफ दौड़कर) हाँ, मैं ही हूँ नाथ, सुलोचना आपका पीछा इतनी आसानी से नहीं छोड़ेगी। मैं तो मर चुकी थी, पर मुझे अंक से उतारकर आप लड़ने चले तो मैं चौंककर क्षणमात्र के लिए जाग गई और अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार शत्रु को पछाड़ती आपके पास चली आई। ओ मेरे रति शय्या के साथी, मुझे तनिक रण शय्या पर भी जगह दीजिए। यही मेरी आखिरी माँग है।

धुन-अब दिन भर आया।

अंगना रतिरंग की, सखि रतिसेज की। रणसेज भी सजाए।

न जागूँगी फिर मैं नाथ। नींद से बोझिल पलकें न खोलूँगी॥१॥

खिसक जरा उस तरफ। सोने दे रणशय्या पर मुझे।

देखिए जी मेरी तरफ। बाँहों में भर लीजिए॥२॥

वल्लभ : मेरे प्राण, इंद्रियों की बुझती लौ, थोड़ी और जलने दे, ताकि उस उजाले में मैं अपनी प्रिया को देख सकूँ।

सुलोचना : आह, मेरे प्रिय, काम की रति शय्या की तरह ही यह कर्तव्य रण शय्या भी मुलायम, मोहक लग रही है।

वल्लभ : सुख और दुःख हमारे मानने पर है। लोक कल्याण के लिए मरना ही हमारी इच्छा थी। वह पूरी हुई। इसलिए हमारी मृत्यु की घटना सुखांत ही है। आऽऽऽ! सुलोचना, तुम हो न मेरे समीप! मेरे प्राण, सुलोचना, यह मेरी आखिरी पुकार है।

सुलोचना : और मैं भी आखिरी बार आपकी पुकार का उत्तर दे रही हूँ, जी। मेरे वल्लभ! (उसके सीने पर सिर रखकर गिर जाती है। इतने में मशाल लेकर विक्रमसिंह और सैनिक प्रवेश करते हैं।)

विक्रमसिंह : यहीं से किसीकी आवाज आ रही थी। इधर देखिए, हाँ, यही है मेरा वीरपुत्र। शाक्यों का वीर सेनानी वल्लभ। हाय! नहीं। धन्य, धन्य हुआ है यह! और यही है मेरी पुत्रवधू, वल्लभ की वल्लभा। शाक्यों की रणदेवी सुलोचना। आज रात जब मुझे मालूम हुआ कि शाक्य सेना में लड़ता वह वीर युवक और कोई नहीं, मेरी बहू ही है तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। बहू, मैं तुझे दूर ही से बिजली की तेजी से लड़ते हुए देख रहा था और खुश हो रहा था, पर उससे भी अधिक खुशी मुझे तुम्हें इस तरह मरणशय्या पर भी अपने प्रियतम से लिपटे हुए देखकर हो रही है। इस वीरात्मा प्रणयिनी की यह नैष्ठिक कामचर्या संन्यासी के नैष्ठिक ब्रह्मचर्य से कण भर भी कम पवित्र नहीं है। परोपकार में तो यह उससे थोड़ा बढ़कर ही होगी। शाक्यों की देवी यशोधरा, संन्यस्त भिक्षु स्त्रियों की अग्रणी कहलाती है। युवा पर इस तरुण कन्या का, सुलोचना का, इस कामदेव की पुजारन का त्याग, इंद्रिय निग्रह, कर्तव्य तत्परता महान् देवी यशोधरा की तरह ही तीव्र है और हौतात्म्य भी अवर्णनीय है। कामदेव के पूजको, धन्य है तुम्हारा निष्काम, विरक्त, निस्संग काम! बेटी सुलोचना, मेरी शूर, सुंदर बहू, तुम्हारा रणमंच पर वीर वल्लभ को दिया आलिंगन, तुम दोनों की काम पूजा का आखिरी काम्य संस्कार था और वह धर्म संस्कार की तरह ही पवित्र भी है। मंगल भी है। यच्च यावत तरुण कन्याओं और कुमारों के लिए यह कल्याणप्रद है।

चंड : (अपने सैनिकों के साथ दबे पाँव आता है।) नायक, विक्रम के साथ बहुत ही कम लोग हैं। और फिर वह घायल भी है। अब समय न गँवाइए, चलिए, आगे बढ़िए। बुद्ध से पहले इस शिकार को मार डालेंगे। (कोसलेश्वर महाराज की जय! गर्जना के साथ वे विक्रम पर टूट पड़ते हैं।) व्रतभ्रष्ट विक्रम, मैं कब से तुझे ही ढूँढ़ रहा था! (वार करता है।)

विक्रमसिंह : दुष्ट चंड, मुझे भी तुम्हारी ही खोज थी।

बुद्धशिष्य : (बुद्ध के साथ प्रवेश कर) हाँ-हाँ, भगवान् बुद्ध आप दोनों ही को शांत होने का आदेश दे रहे हैं। वे शांति प्रस्थापित करने के लिए ही यहाँ पधारे हैं।

चंड : अरे, तुम शेर के मुँह से उसका शिकार छीनना चाहते हो? ( विक्रम पर टूट पड़ना चाहता है।)

बुद्ध : (बुद्ध विक्रम को नियंत्रित करना चाहते हैं।) विक्रम, सेनापति चंड रणोन्मत्त हो गए हैं। क्रोध फुँकारते साँप की तरह होता है। वह किसीकी नहीं सुनता, पर आप तो सुज्ञ हैं। आपको हमारा धर्मसूत्र मालूम ही है-'अक्रोधेन जयेत् क्रोधं असाधु साधुना जयेत्।'

चंड : नीच बुद्ध, तुम मुझे असाधु कहते हो! कोसल सेनापति को असाधु कहते हो! तुम्हारी जीभ काटके रख दूँगा। (बुद्ध पर टूट पड़ना चाहता है।)

विक्रमसिंह : (चंड पर वार कर उसे घायल कर देता है, उसे नीचे गिराकर उसकी छाती पर पाँव रखकर खड़ा होता है।) भगवन्, क्या आपके अक्रोध से ही इसका क्रोध शांत हुआ? या यह उससे और ही बौखलाया? साधु का परित्राण करनेवाला यह खड्ग बीच में न आता तो अभी दुष्ट चंड सुष्ट बुद्ध को परलोक भेज देता।

बुद्ध : जो भी हो, आपको यह हत्या शोभा नहीं देती। आप संन्यासी हैं।

विक्रमसिंह : इसीलिए इस असुधारणीय लोककंटक दुष्ट का शिरच्छेद करनेवाला प्रथम और अत्यंत प्राण घातक वार मेरे इस संन्यस्त खड्ग का ही होना चाहिए। लीजिए, संन्यस्त खड्ग के वार से मैंने इस चांडाल का काम तमाम किया। युद्ध के घावों से क्षत-विक्षत मेरी देह एकाध घटिका में धराशायी होगी, पर इस क्षण मैं इस दुष्टवध से अपने को और अधिक कृतार्थ अनुभव कर रहा हूँ। उसके रक्त की धार से मेरा संन्यासी वेश तथा संन्यस्त खड्ग और चमक उठे हैं।

बुद्ध : नहीं, वे अक्षालनीय पाप से कलंकित हो गए हैं। कालिमा से मैले हो गए हैं।

विक्रमसिंह : भगवन्, आप वास्तविकता के प्रकाश में आकर देखिए। कोई अंधा भी यही कहेगा कि यह सुर्ख लाल रंग है, काला नहीं। उस दुष्ट के लाल रक्त से रँगकर इस संन्यासी वेश का मूलत: फीका, रोगिष्ठ, पीलापन उगते सूरज की आरक्त तेजस्वी लालिमा में परिवर्तित हुआ है। चालीस साल के निःशस्त्र संन्यास में मैंने जितना परोपकार एवं पुण्य नहीं कमाया, उतना मैंने एक क्षण में, असंख्य निरपराध लोगों को जीवदान देनेवाले संन्यस्त खड्ग को चलाकर पाया है। अगर संन्यासी का ऐहिक कर्तव्य लोक कल्याण की तत्परता हो तो उसे मैंने आज से पहले कभी इतने लगाव व निष्ठा से नहीं किया। इसलिए वस्तुतः आज मैं एक सच्चा संन्यासी और भिक्षु बन गया हूँ।

बुद्ध : हे महामना विक्रम, हो सकता है कि ऐहिक लाभ-हानि की दृष्टि से तुम्हारा कथन युक्तिसंगत हो, पर पारलौकिक दृष्टि से संन्यास धर्म के अहिंसा के महाव्रत से तुम च्युत हो गए हो। वितृष्ण, परमज्ञानी एवं त्यागी भिक्षुप्रवर होने के नाते आप निर्वाण के निकट पहुँच चुके थे, पर आज अधर्म आचरण कर आप निर्वाण पद से च्युत हो गए हैं।

विक्रमसिंह : चंड के अत्याचार से असंख्य स्त्री-पुरुषों को मुक्त करने के लिए मैंने उसका वध किया है। अगर इस दोष के कारण मुझे निर्वाण पद नहीं मिलता तो न सही। ऐसे निर्वाण पद को धिक्कार है! लाखों लोगों के संकट की उपेक्षा से मिलनेवाला निर्वाण निर्वाण नहीं, नरक है, नाटक है।

धर्म : (प्रकट होकर) हे महाकर्मयोगी, वीरवर, तुम निर्वाण च्युत बिलकुल नहीं हुए। इसके विपरीत इस हौतात्म्य के कारण ही तुम्हें निर्वाण पद की प्राप्ति हुई है। क्योंकि-द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्य मंडलभेदिनौ।

परिव्राट् योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखे हतः॥

विक्रमसिंह : हे दिव्य पुरुष, तुम कौन हो, देव या देवदूत?

धर्म : मैं सर्वमानव धर्म का अधिष्ठान, धर्म हूँ। हे बुद्धदेव, आप परिव्राट् में श्रेष्ठ हैं। मनुष्य पर आपके अनंत उपकार हैं। यह शाक्य राष्ट्र और शाक्य जाति आज गतप्राण हो गई है, पर इससे पहले इसने अपना मुख्य जीवन कार्य पूरा किया है। उसने तथागत बुद्ध को जीवन दिया। इसीलिए एक अर्थ से वह चिरंजीव हो गई। तुम्हारे शीतल और सरल धर्मोपदेश से देव-दानव, दक्ष-तक्षक, आर्य अनार्य अर्थात् समस्त मानव जाति मंत्रमुग्ध हो गई है। ये सब तुम्हारी जन्मभूमि को पुण्यतम भूमि समझ, अपने भक्तिभाव की पुष्पांजलि अर्पित करने के लिए द्वीप-द्वीपांतर से यहाँ आएँगे। इस शाक्य जाति का इतिहास धर्मशास्त्र की तरह पढ़ा जाएगा। तुम्हारी मूर्ति पर राजा-महाराजा अपने मुकुट, सातों सागरों के रत्न, जगमगाते हीरे-जवाहरात न्योछावर करेंगे। तुम्हारी ध्यानमग्न मूर्ति के चरणों तले कोटि-कोटि मानव युगों-युगों तक नतमस्तक होंगे। हे परिव्राजक, महाकर्मसंन्यासी बुद्ध, तुम निर्वाण पद के अधिकारी हो, पर हे महाकर्मयोगी वीर विक्रम, तुम भी उसी निर्वाण पद के अधिकारी हो, क्योंकि धर्म का मर्म है, मनुष्यों का आत्यंतिक हित। इसके लिए तुमने सर्वस्व त्याग दिया। रणाभिमुख होकर लोक कल्याण के लिए लड़ते-लड़ते तुमने लोक हिंसकों का नाश किया। इसके लिए तुम प्राण त्याग करने में भी नहीं हिचकिचाए। दुर्भाग्य से तुम्हारी स्मृति व्यक्ति रूप से बुद्ध की तरह चिरंजीव नहीं होगी, पर लौकिक मान-सम्मान संयोग की बात है। वह योग्यता-अयोग्यता का मापदंड नहीं है। तुम्हारे कर्मयोग की महत्ता की विस्मृति का भयानक दंड शाक्य जाति को भुगतना पड़ा, शस्त्र बल की उपेक्षा और कृषि, कामिनी और कृपाण के आत्यंतिक संन्यास के अतिरेक से इस दुर्बल शाक्य राष्ट्र को प्रबल दुष्टों की हिंसा का शिकार बनना पड़ा। इसी तरह और लगभग इसी कारण से यह पूरा आर्यावर्त यवन, हूण और शकों के राक्षसी आक्रमण से विनष्ट होगा। शाक्य राज्य का आज का विनाश पूर्व सूचना है पूरे आर्यावर्त पर आनेवाले उस भावी संकट की। यह महाकाल का छोटा सा प्रयोग था। निष्क्रिय संन्यास के ऐहिक और पारलौकिक लाभ हैं; लेकिन वीरवर विक्रम, संकट मुक्त होने के लिए तुम्हारा आजमाया शक्तिपूजक सक्रिय कर्मयोग ही उपयुक्त है। यही लोकहित साधक है। धर्म का मुख्य स्वरूप और उद्देश्य है मानव मात्र का ऐहिक और पारलौकिक उद्धार। यह कर्मयोग से ही अधिक मात्रा में हो सकता है। अतः हे मानवो, मेरा निश्चित और उत्तम मत है- यद्यपि संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ। तथापि-तयोस्तु कर्मसंन्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते। अर्थात् यद्यपि संन्यास और कर्मयोग-दोनों ही श्रेयस्कर हैं। फिर भी कर्मसंन्यास से कर्मयोग ही अधिक श्रेष्ठ है।

संगीत उत्तरक्रिया

पात्र परिचय

माधवराव

पगली

घोंडण्णा

कोंडण्णा

महादजी शिंदे

लुकोजी होलकर

यशवंतराव

सुशीला

नंदिनी

सुनीति

बिनीवाले

नजीब खान

पहला अंक

: पहला दृश्य :

[पहले माधवराव पेशवा शनिवारवाड़ा [1] प्रासाद के आँगन में खड़े हैं। बाहर की तरफ से शोरगुल सुनाई देता है।]

माधवराव : पहरेदार, दरवाजे के बाहर क्या शोरगुल हो रहा है?

पहरेदार : कोई विशेष नहीं है, सरकार। पिछले दिनों से एक पगली आ रही है। भीख दो तो लेती नहीं, पर महल के अंदर घुस आने की जिद करती है। आते-जाते बच्चे उसका मजाक उड़ाते हैं। हँसते रहते हैं। बस इतनी सी बात है।

माधवराव : क्या कहा, भीख लेने से मना करती है? महल के अंदर घुसना चाहती है? आखिर कहना क्या चाहती है वह?

पहरेदार : सरकार, पगली जो ठहरी! कुछ-न-कुछ बड़बड़ाती रहती है। कहती है, 'इस शनिवारवाड़े का मालिक कौन है? मैं उससे मिलना चाहती हूँ। भगवान् ने सपने में आकर मुझे आदेश दिया है कि एक बार उसकी ठीक से खबर ले।' बस बार-बार यही कहती है और फिर कभी हँसती है, कभी रोती है तो कभी चीखती-चिल्लाती है। भगवान् जाने उसे यह भी खबर है कि वह आई कहाँ से है, जाएगी कहाँ और किसकी कौन है? पर उसका रंग-रूप तथा भाषा देखकर यही लगता है कि किसी भले घर की है।

माधवराव : अच्छा, तो जाओ और बुला लाओ उसे यहाँ। उस पगली की हरकतें देखने का पागलपन हमपर भी सवार हो गया है।

[ पहरेदार जाकर पगली को ले आता है।]

माधवराव : बहनजी, क्या चाहिए आपको?

पगली : (कहकहा लगाकर) तू, मुझे तू ही तो चाहिए था। सपने में दिखाई दिया था, वैसा ही है रे तू! तू ही तो शनिवारवाड़े का मालिक है। अच्छा, नाम क्या है भला तेरा?

पहरेदार : खबरदार! जो सरकार को तू-तेरा किया तो।

माधवराव : न-न, डाँटो मत उसे इस तरह। उसे हमारा नाम बता दो। और फिर जब तक हम उसे खुद ही नहीं रोकते, उसे जो भी पूछना है, पूछ लेने दो।

पहरेदार : बहनजी, ये ही हैं श्रीमंत माधवराव पेशवा पंतप्रधान!

पगली : पेशवा? माधवराव? अच्छा, इनके पिता का नाम क्या है?

पहरेदार : बालाजीपंत अर्थात् नाना साहब पेशवा।

पगली : उनके पिता का?

पहरेदार : बाजीराव बल्लाल पेशवा।

पगली : उनके पिता का?

पहरेदार : बालाजी विश्वनाथपंत भट। ये ही आगे चलकर पहले पेशवा हए।

पगली : (खुशी से तालियाँ बजाकर) भट! भट! माने तू मूलतः पुरोहित है। बस, मेरा काम हो गया। पुरोहित, अभी मुझे पेशवा, मराठा प्रधानमंत्री नहीं, एक पुरोहित ही चाहिए, क्योंकि मुझे एक उत्तरक्रिया करनी है। जी हाँ, उत्तरक्रिया-अंतिम संस्कार। और इसलिए मुझे एक पुरोहित चाहिए।

माधवराव : किसकी उत्तरक्रिया करनी है आपको, बहनजी? जरा थोड़ी शांति से साफ-साफ कहिए।

पगली : किस-किसकी उत्तरक्रिया के बारे में बताऊँ तुझे? पानीपत के रण मैदान में ढेर हो चुके उन हजारों शूरवीरों की अतृप्त आत्माएँ मेरे सपने में आती हैं। चिल्ला-चिल्लाकर कहती हैं, 'शनिवारवाड़े का मालिक' भट है, पुराहित है। उसी को बुलाकर हमारी उत्तरक्रिया करा ले। तभी अंतरिक्ष में छटपटाती हमारी आत्मा को शांति मिलेगी, हमें अच्छी गति मिलेगी। वह देख, मेरे पतिराज। वहाँ देख, मेरा बेटा। दोनों लड़ते-लड़ते मिट गए। वह देख, मेरी बेटी! हाय, उसे घायल कर दिया। लहूलुहान कर दिया रे उन राक्षसों ने! उत्तरक्रिया करनी है अपने उस पति की, बेटे की, बेटी की! (पहरेदार की तरफ अंगुली दिखाकर) तेरे बाप की, तेरे चाचा की ( माधवराव की तरफ अंगुली दिखाकर) और तेरे भी चाचा की!

माधवराव : (चौंककर) क्या कहा? हमारे चाचाजी की? भाऊ साहब की उत्तरक्रिया?

पगली : हाँ, तेरे उसी चाचा की, तेरे बाप की और तेरे भाई की, विश्वासराव की। बस, इतने में ही चौंक गए? और सुन, पर हाय! यह क्या चुभा मेरे पैर में? काँच! काँच के टुकड़े। मैं जहाँ पग रखती हूँ, वहीं टूटी-फूटी चूड़ियों के टुकड़े बिखरे हैं। ढेर-के-ढेर टुकड़े। घर-घर में कइयों की चूड़ियाँ दरकीं। चूड़ियों के उन्हीं टुकड़ों ने मेरे पैर छलनी कर दिए। मेरा दिल लहूलुहान हो गया उन्हीं से। ब्राह्मण, दरकी हुई उन लाखों चूड़ियों की उत्तरक्रिया करनी है मुझे। लाखों का एक ही नाम है-पानीपत! उसी पानीपत की उत्तरक्रिया करनी है मुझे। और पानीपत की उत्तरक्रिया का संकल्प लेगा तू-शनिवारवाड़े का भट!

माधवराव : बहनजी, आप कौन हैं? कहाँ से आई हैं? समझ में नहीं आता कि आप पागल हैं या सयानी? पर अगर आप सचमुच ही पागल हैं तो निस्संदेह आपका यह पागलपन, पेशवाई के सभी सयाने मंत्रियों के सयानेपन से ज्यादा सयाना है। हमारे दादा साहब1 और सखाराम बापू पर भी आजकल एक पागलपन सवार है। पूरे राज्य को ले डूबने का। अच्छा हो कि उनपर उस पागलपन की बजाय पानीपत की उत्तरक्रिया का यह पागलपन ही छा जाए, पर उन्होंने तो आज पुणे में ही पानीपत मचा दिया है। बहनजी, पानीपत में हमारी हार हुई और उसी दिन से मुझपर भी एक पागलपन सा सवार हुआ है पर क्या करूँ? इन सयाने मंत्रियों के पागलपन की बेड़ी मेरे पाँव में पड़ी है। इसी से मैं शक्तिहीन हो गया हूँ। लूला-लँगड़ा हो गया हूँ; पर अभी, इसी क्षण मैंने वह बेड़ी तोड़ दी। मैं अब देख लूँगा, सँभाल लूँगा सबकुछ। आप निश्चिंत हो जाइए। पानीपत की उत्तरक्रिया मैं करूँगा। आप जाइए और सिर्फ अपने रिश्तेदारों की विधिवत् उत्तरक्रिया कीजिए। इसके लिए आपको दर्भ आदि जो भी सामान चाहिए, हमारे भंडारघर से मिल जाएगा।

पगली : दर्भ! पगले, मुझे दर्भ नहीं, दलभार, सेनादल चाहिए। एकाध आदमी की उत्तरक्रिया करनी हो तो उसके लिए दर्भ ही काफी है, पर किसी पानीपत की उत्तरक्रिया करनी हो तो उसके लिए दलभार चाहिए-दलभार, दर्भ नहीं। हाऽ हाऽ हा! उत्तरक्रिया का मतलब ही नहीं समझा हमारे पुरोहित ने! पहरेदार, दिल्ली-पानीपत पुणे की किस दिशा में है?

पहरेदार : उत्तर दिशा में।

पगली : हाँ, ठीक कहा तूने! बस, उस उत्तर दिशा को जीतने की क्रिया ही उत्तरक्रिया है। उन राक्षसों से उत्तर जीतते हुए, पानीपत के रण में जो-जो लड़े, जो वहाँ धराशायी हुए, उनकी अधूरी रही क्रिया यानी कार्य पूरा करना ही पानीपत की उत्तरक्रिया है। अब आया समझ में उत्तरक्रिया का अर्थ!

माधवराव : बहन, कहीं आप पानीपत की लड़ाई में तो नहीं थीं?

पगली : क्या यह भी मुझसे पूछोगे? मेरे ये बिखरे हुए केश दिखाई नहीं देते? ( चीखकर) पिशाच! नरपिशाच! राक्षस! ये देख, वे राक्षस मुझे और मेरी बेटी को झोंटा पकड़कर घसीट रहे हैं, ये रक्त के दाग, यह पीड़ा, ये टूटे, कुचले, मसले, बिखरे बाल! इन्हीं से पूछ कि मैं कहाँ-कहाँ हो आई हूँ? उत्तरक्रिया के लिए मुझे तेरे रूप में एक ब्राह्मण तो मिल गया, पर अभी और थोड़ा रुकना पड़ेगा। पहले उत्तरक्रिया के लिए सामग्री जुटानी पड़ेगी। इसलिए बजाओ। पहले नगाड़े, रणभेरियाँ बजाओ। रणसिंघा बजाओ। जोर से और जोर से! पहले उन राक्षसों को कुचल डालो। यह है नजीब, यह सादुल्ला, यह हाफिज, यह बंगश। पहले उनकी एक-एक हड्डी मेरे सुपुर्द करो। ये ही समिधा बनेंगी, मैं हूँ आग और तू ब्राह्मण। हाँ, अब कर डाल उत्तरक्रिया। वाह! सारा मामला ठीक-ठाक तय हुआ। (जोर-जोर से हँसती है, तालियाँ बजाती है।) पागलपन की यह धुन भी कितनी मजेदार होती है, पर अब¨¨अब नहीं सही जाती यह मुझसे, फिर भी जब तक समूचे पुणे में, पूरे महाराष्ट्र में नाचते-गाते नहीं घूमूँगी तब तक इस पागल खुशी का दर्द सहना ही होगा।

[डमरू बजाते हुए गाती है,नाचती है।]

सोनीपत, पानीपत-हमारी-तुम्हारी गई रे पत!

पादशाह हिंदूपत, ले लो, ले लो झूम के बदला!

साँप-बिच्छू, छिपकली, नेवला!

उठो मरहट्टो, चलो करो दो-दो वार!

मुगलों की तोड़ के रख दो ढाल!

दिल्ली सलतनत को मिला दो धूल में!

फिर करो उत्तरक्रिया। बदला लो भाऊ का!

विश्वासराव का! बदला लो पानीपत का!

माधवराव : किससे मिला हूँ मैं आज? यह कोई पगली है या पानीपत के घाव से घायल महाराष्ट्र के हृदय में छिपी पीड़ा? किसकी चीखें सुनी हैं मैंने? उस पगली की या पानीपत की पराजय का बदला लेने के लिए तड़पती अपनी ही अकुलाहट की? भाऊ साहब की उत्तरक्रिया! भाऊ साहब की सचमुच की उत्तरक्रिया अब तक न हो पाई। चाची के पागल, आस भरे प्यार की जिद है कि भाऊ, उनके पति मरे नहीं हैं, सो उनकी उत्तरक्रिया, अंतिम संस्कार कभी न किया जाए! वह अंतिम संस्कार चाचाजी चाहे करें या न करें, पर उत्तर हिंदुस्थान में हिंदुओं की सत्ता स्थापित करने की जरीपटका ध्वज में बाँधकर मैं उत्तर की तरफ जरूर निकलूँगा। पानीपत का बदला लेकर अब्दाली की छाती पर मूँग दलूँगा। उत्तर हिंदुस्थान को जीतने का भाऊ साहब का कार्य मैं पूरा करूँगा। भाऊ साहब की इस महाराष्ट्रीय उत्तरक्रिया को मैं यथाविधि संपन्न करूँगा। आज तक महाराष्ट्र की तलवार कायर सयानेपन के कारण कुंद हो गई थी। अब उसपर पानीपत के बदले की सान चढ़ाकर उसे इस पगली की ही तरह जोशीली, मतवाली बना दूँगा।

पद

अतिघोर संकट, विकट झंझावात!

निविड़ पंथ, बुद्धि तमसावृता!

धर्मरक्षा काज बुद्धि ही है बुद्धिहीन!

पागलपन की बिजली चमके

पथ को करे उजियार रे!

: दूसरा दृश्य :

कोंडण्णा : हालात बहुत बुरे हैं। माधवराव बल्लाल की पेशवाई यानी कठोर पुरुषों का निर्दय राज! इसमें न खुलकर हँस सकते हैं, न जहाँ चाहें, जब चाहें आराम से बैठ सकते हैं, न गा ही सकते हैं। उठो और लड़ो! बस यही कुछ सूझता है इस लड़वैए को। वैसे, इसे तो जन्म लेना चाहिए था किसी सिरफिरे, झगड़ालू घुड़सवार के घर। वह गलती से श्रीमंत नाना साहब के वंश में उत्पन्न हुए, इसलिए यह राजपाट इनके हाथ आया, वरना राजशाही का एक भी लक्षण नहीं है इनमें। अरे, इनके दादा बाजीराव भी क्या कम लड़वैए थे! पर लड़ने के साथ-साथ मस्तानी के रंगमहल के जलवे लूटने का रसियापन भी था उनमें। इनके पिता नाना साहब? वाह, वाह! उनके पिता क्या कहने? परमप्रतापी वीर! अटक से कटक तक की कर उगाही, सेना का संचालन केवल संदेशों से होता था-स्वयं सरकार कितना रँगीला, कितना रसिक था! पर ये माधवराव? उफ, ऐसा नीरस पेशवा अब तक नहीं हुआ। शनिवारवाड़े में ये रहें तो समझो वहाँ की सारी रौनक ही चली जाए। अरे, राजा हो महल में तो दसियों गानेवालियाँ, नाचनेवालियाँ, बीसियों गवैए, बजवैए, मसखरे, विदूषक, दास-दासियाँ यहाँ-वहाँ घूम रहे हैं, हँसी-ठिठोली कर रहे हैं। यहाँ नाच-गाना हो रहा हो तो वहाँ चुटकुलों का दौर! और कहीं गपशप की दुकान! और इन सबका आनंद लेते हुए राजा साहब गद्दी पर लेटे हैं। ऐसे राजा तो अब शायद दादा साहब ही पैदा करें। शनिवारवाड़े में जब दादा साहब होते हैं तब हम जैसे विदूषकों, मसखरों के गुणों की कदर होती है, पर हमारे इन माधवरावजी के हाथ में शनिवारवाड़े का राज आया तो समझ लो कि शनिवारवाड़े का रँगीला राजमहल उद्गीर के वीरान रणमैदान में बदल गया। हरेक के सिर पर इनकी चढ़ी हुई भौंह की कँटीली तलवार। अरे, राजाओं को लड़ाइयाँ लड़नी भी हों तो वे किराए के घोड़ों के बल पर लड़ें। यह क्या कि स्वयं ही उसमें उलझ जाएँ! अगर राजा ही हमेशा मुहिम में उलझे तो फिर राजगद्दी पर कौन लेटे? मक्खियाँ? अरे, यह कौन आ रहा है? हाँ, दादा साहब का पुजारी, धोंडण्णा शास्त्री। आइए-आइए, शास्त्रीजी!

धोंडण्णा : (अंदर आकर) अरे कोंडण्णा शास्त्री, कुछ मालूम भी है तुम्हें?

कोंडण्णा : क्यों, क्या हुआ जी?

धोंडण्णा : बस, यही समझ लो कि तुम सबकी अब खैर नहीं। पानीपत का प्रतिशोध लेने, माधवराव उत्तर हिंद की मुहिम पर जा रहे हैं। पक्का ठान लिया है उन्होंने।

कोंडण्णा : जाते हैं तो जाने दो, मरने दो उनको। हुँह, पानीपत का प्रतिशोध लेंगे। जैसेकि पानीपत में मरी-खपी पूरी-की-पूरी पीढ़ी को ही फिर से जिलाएँगे। बीस-तीस की ही उम्र में मरने लायक ये जनकोजी, विश्वासराव, भाऊ साहब, यशवंतराव पवार! महाराष्ट्र में ऐसी प्रजा की आबादी बहुत बढ़ गई है। जाने दो इन सबको दिल्ली। मरने दो वहाँ जाकर, पर दादा साहब, ताराबाई साहब या हम जैसे उपयुक्त लोग! हमारे पास पिछले जन्म के ढेर सारे पुण्य हैं। हमारे जीवन की डोर काफी मजबूत है। पेशवाई के होते हम जैसों को स्वयं मृत्यु भी नहीं छू सकती। और वह यह चाहेगी भी नहीं। वैसे भी हम हैं राजमहल के शास्त्री, ज्योतिषी! अधिक-से अधिक मुहिम पर चलने का मुहूर्त निकालकर दे देंगे।

धोंडण्णा : पर शास्त्रीजी, आप केवल राजज्योतिषी ही नहीं बल्कि लड़वैए जागीरदार भी हैं। माधवराव ने फरमान निकाला है कि ऐसे सारे परोपजीवी जागीरदार, जागीर के करार के अनुसार जंग के लिए कूच करें।

कोंडण्णा : फिर भी वह आदेश हम पर लागू नहीं होता। मूलतः बाजीराव पेशवा हमारे दादाजी को बुंदेलखंड से यहाँ लाए थे शनिवारवाड़े का ज्योतिषी बनाकर। आगे चलकर हमारे पिताश्री चार आवारा घुड़सवारों के साथ-साथ मोरचे पर जाने लगे और फिर उन्हें सौ-दो सौ घुड़सवारों का प्रमुख बनाकर, उनके खर्चे-पानी के लिए जागीर दी गई, पर दादाजी ने मुझे उस आवारा पेशे से दूर ही रखा। उन्होंने मुझे सिखाई अपने वंश की ज्योतिष विद्या और शास्त्र ज्ञान। यही क्यों? घोड़े पर ब्राह्मण का बैठना धर्मबाह्य है, यह सोचकर उन्होंने मुझे घोड़े पर बैठने नहीं दिया। नाना साहब के दिनों में उन्होंने मुझे महल में ज्योतिषी के रूप में नियुक्त करवाया। आगे चलकर मेरे मसखरे स्वभाव के कारण नाना साहब के मनोरंजन का अंतःस्थ काम भी मेरे ही हिस्से आया। फिर आए दादा साहब। उन्होंने मुझे साफ-साफ बता दिया कि तुम्हें पेशवाओं के मसखरों और विदूषकों का तथा दास-दासियों का विश्वासी सरदार नियुक्त किया गया है। तुम महल छोड़कर कहीं मत जाना। पुरुषों में ज्योतिष और स्त्रियों में पोथी-पुराण सुनाया करो। खाओ तथा खिलखिलाओ और मुझे वाड़े के सारे षड्यंत्रों की सूचना दिया करो।

यही है हमारा काम और जब तक यह काम हम निष्ठा से कर रहे हैं तब तक हमें युद्ध पर भेजने या हमारी जागीर जप्त करनेवाले ये माधवराव कौन होते हैं!

धोंडण्णा : पर शास्त्रीजी, यह समझदारी माधवरावजी को कौन समझाए? कहते हैं कि दादा साहब सयाने लोगों की बात नहीं सुनते, पर भई, वे हम जैसे शागिर्दो की बात तो सुन ही लेते हैं। पर इन राव साहब के आगे न सयानों की, न शागिर्दो की, किसीकी नहीं चलती। वे राघोबा तो फिर भी ठीक, पर ये राघोबा किसीके बस में नहीं। क्या आप ही में माधवराव से यह सब कहने की हिम्मत है?

कोंडण्णा : हिम्मत? अरे, उसके बाप के, स्वयं नाना साहब के साथ इकट्ठा बैठकर हँसी-मजाक करने और चौपड़ खेलने तक का संबंध था मेरा। मेरे लिए यह माधवराव तो कल का छोकरा है। और फिर दादा साहब की ही तरह राव साहब की भी ज्योतिष पर श्रद्धा है। इसलिए मेरे ज्योतिष ज्ञान के होते वे मुझे कभी निकम्मा नहीं समझते।

धोंडण्णा : पर जागीर का पैसा डकार, ऐन समय युद्ध पर जाने से मुकर जाना, मरने से डरना¨¨ क्या यह आपके लिए शर्मनाक बात नहीं? हाँ, यदि हम जैसे निरे ब्राह्मणों या ज्योतिषियों को युद्ध पर जाने की जबरदस्ती करते तो माधवराव को दोष दिया जा सकता था।

कोंडण्णा : धोंडण्णा, तो तुम समझते हो कि मैं मृत्यु से डरता हूँ, इसलिए युद्ध पर जाने में आनाकानी कर रहा हूँ। नहीं रे! जन्मपत्रिका को देखने के बाद मैं छाती ठोंककर कह सकता हूँ कि मैं पूरे १०२ साल, २ महीने, २ घटिका, २ पल और २ अधपल जीनेवाला हूँ। ज्योतिष में लिखा है यह! इसलिए स्वयं यमराज भी मेरा बाल तक बाँका नहीं कर सकते। फिर अब्दाली तो किस खेत की मूली! पर उत्तर हिंदस्थान को उस युद्ध की बात तत्त्वतः ही ठीक नहीं लगती। मुझे जान-बूझकर दिल्ली में घुसकर उन गिलचों के मुँह लगाना शोभा नहीं देता। यह खुराफात किसलिए? अपना घर भला, वैसे ही नगर 'पुणे' भला। हम बिना कारण न टकराएँ। इसलिए तो हमारे सहनशील, सत्वशील और परम पूज्य पूर्वजों ने हम हिंदुओं के पाँव में बेड़ी डाली थी कि हम सिंधु नदी के पार न चले जाएँ! अब पृथ्वीराज की ही बात ले लो। अगर मोहम्मद गोरी काबुल से दिल्ली जा सकता था तो क्या पृथ्वीराज दिल्ली से काबुल नहीं जा सकता था? जरूर जा सकता था, पर वह ठहरा सच्चा हिंदू। अपनी तरफ से उसने अटक को पार नहीं किया। जब गोरी ही अटक [2] शहर को पार कर दिल्ली से भिड़ गया, तभी पृथ्वीराज ने उसे अपनी तलवार का मजा चखाया। इसी तरह गिलचों को पहले पुणे तक तो आने दीजिए। फिर देखिए, यह कोंडण्णा ज्योतिषी सिर हथेली पर लेकर बिजली की तेजी से उन दुश्मनों पर कहर ढाता है या नहीं। ऐसी ही कोई विपदा आन पड़ी तो हम भी जी-जान से लड़ेंगे ही। लड़ेंगे, खूब लड़ेंगे, पर इस तरह की नाहक लड़ाई में तो तुम जैसे पखालची, पुजारियों को ही मरना चाहिए। अरे, तुम मर जाओ तो पूजा करने ब्राह्मणों के बच्चे घर-घर मिलेंगे, पर मुझ जैसा ज्योतिषी मरे तो ज्योतिष विद्या ही विधवा हो जाएगी। वैसे ही हमारे धर्मकारों ने हिंदू धर्म के लिए जैसे सिंधु नदी की सीमा बाँध दी वैसे ही महाराष्ट्र धर्म के लिए भी कोई मुला-मुठा [3] की सीमा बाँध देता तो अच्छा होता। सच कहें तो पेशवाओं के लिए पुणे का राज्य ही पर्याप्त है। पानीपत जैसे व्यर्थ के बखेड़े में पड़ने के लिए मेरे पास समय भी नहीं है और खुराफाती बुद्धि भी नहीं है।

धोंडण्णा : देख लो, तुम मेरे मित्र हो, इसलिए यह बात मैंने समय रहते ही तुम्हारे कानों में डाल दी। मैं भी चाहता हूँ कि तुम यहीं शनिवारवाड़े में रहो। जिन दादा साहब के पक्ष में मैं हूँ, उसी पक्ष में तुम भी तो हो। अच्छा, अब चलता हूँ। पूजा का समय हो गया। (जाता है।)

कोंडण्णा : इस सियार ने ही मेरी चुगली माधवराव के पास की होगी। दादा साहब मेरी बात मानें, यह इससे देखा नहीं जाता। तभी लड़ाई में मरवाने का षड्यंत्र रचा है इसने। ठीक है बच्चमजी! मैं भी माधवराव के पास जाकर ऐसा पासा फेंकता हूँ कि यह मुहिम ही रद्द हो जाए या फिर मुझे लड़ाई पर न जाना पड़े। अगर यह सब न हो सका तो भी ऐसा चक्कर चलाऊँगा कि मेरे साथ इसके गले में भी लड़ाई का फंदा पड़ जाए। दादा साहब के दोनों कान अकेले इसी के हाथ में नहीं आने दूँगा।

: तीसरा दृश्य :

[माधवराव पेशवा और विसाजी पंत बिनीवाले दरबार में बैठे हैं।]

चोबदार : (भीतर आकर) सरकार की आज्ञा के अनुसार अहमदशाह अब्दाली के जो वकील आए हैं, उन्हें लेकर महादजी शिंदे दरबार में पधार रहे हैं।

माधवराव : आने दीजिए उन्हें। (चोबदार जाता है।) विसाजी पंत पानीपत की लड़ाई के बाद, दो साल के अंदर-अंदर अब्दाली ने खुद अपना वकील हमारे पास भेजा था और मराठों के साथ मित्रता का समझौता करा लिया था। सात साल तक उसने समझौते की शर्तों का पालन कर हमारे साथ कोई बखेड़ा नहीं किया। अब पानीपत के समय बिगड़ी स्थिति को ठीक करने, मराठे उत्तर हिंदुस्थान की तरफ कदम बढ़ाना चाहते हैं। उससे नजीब खान, बंगश, हाफिज रहमत, सुजा, अंग्रेज जैसे घबराकर मराठों के सारे कट्टर दुश्मन अब्दाली को मराठों पर हमला करने को उकसा रहे हैं। अब्दाली को यह वकील हमें डराने-धमकाने के लिए ही भेजा जा रहा हो कि मराठे दिल्ली पर फिर से हमला करके पानीपत का घाटा पूरा करना चाहते हों तो अब्दाली ये करेगा, वह करेगा-ऐसी धमकी से डरकर उत्तर हिंदुस्थान की यह मुहिम मराठे रद्द कर दें तो अच्छा हो। हमें यह भी गौर करना होगा कि यह वकील भले ही अब्दाली ने भेजा हो, पर इसे पढ़ाया है नजीब खान ने। इसलिए जहाँ तक हो सके, मित्रता अन्यथा विग्रह, ऐसी निडरता से अब्दाली से राजनीतिक बातें कर ली जाएँ।

[महादजी शिंदे वकील के साथ आते हैं। बिनीवाले उठकर उन्हें आसन पर बैठाते हैं।]

माधवराव : वकील महोदय, जब से खबर मिली है कि पेशवाओं के मित्र, काबुल के शहंशाह अमहदशाह अब्दाली गाजी की तबीयत नासाज है, हमारा मन बेचैन है। इसलिए पहले हमें यह बताइए कि शाहजी की तबीयत अब कैसी है? उनकी खैरियत के लिए हम दुआ करते हैं, हमारी यह दुआ आप उन तक पहुँचाइए ही। इसके बाद आप निस्संकोच होकर कहिए कि आपने यहाँ तक आने का कष्ट क्यों किया?

वकील : ऐ हिंदुओं के सरताज, आप महाराष्ट्र के प्रधानमंत्री हैं। आपकी शमशीर के आगे हिंदुस्थान के तमाम राजा, नवाब, निजाम थर्राते हैं। आपकी दुआओं के लिए इसलामी शेर शहंशाह अहमदशाह आपके अत्यधिक आभारी हैं। उन्होंने भी आपकी खैर-खबर पूछी है। हमें खुशी है कि श्रीमंत पेशवा को शाह अब्दाली से किया हुआ समझौता केवल याद ही नहीं है बल्कि वे उसका आदर भी करते हैं। अहमदशाह गाजी पेशवा को उसी मित्रता का वास्ता देते हैं, पर खबर मिली है कि भाऊ साहब की ही तरह दिल्ली में हिंदू पदपादशाही स्थापित करने के उद्देश्य से माधवराव उत्तर हिंदुस्थान की मुहिम करना चाहते हैं। मराठी सेना की हलचलें और जमाव उसी के लिए हो रहा है, यह सच है क्या? पानीपत के समय जिन-जिन मुसलमान सरदारों ने शाह अब्दाली की मदद की, उन सबको जड़ से उखाड़ मराठा दिल्ली से इसलामी सलतनत को साफ मिटा देने का साहस पुनः करना चाहते हैं। इसलिए नजीब खान जैसे बादशाही सरदारों ने शाह अब्दाली के दरबार में शिकायत की है कि वे अटक पार कर इसलामी सलतनत की रक्षा के लिए दौड़कर आएँ और फिर एक बार मराठों का दूसरा पानीपत बनाएँ। अहमदशाह गाजी समूची इसलामी सलतनत के सरताज हैं। उस शिकायत को टालना असंभव है, अत: इस बारे में श्रीमंत पेशवा के क्या विचार हैं-यह वे उन्हीं के मुँह से सुनना चाहते हैं और इसीलिए मुझे यहाँ भेजा है। पानीपत में मराठों की अपरिमित हानि हुई थी। यह मराठों को भूलना नहीं चाहिए।

महादजी शिंदे : वकील महोदय, शाह अब्दाली ने यह संदेश दोस्ती के नाते भले ही भेजा हो, पर उसमें पहलेवाली दुश्मनी की गूँज होने से ही इतने घमंड के साथ आप कह सके हैं। पानीपत में मराठों की हुई अपरिमित हानि मराठे भूले नहीं हैं। इसलिए प्रतिशोध लेने वे आज फिर एक बार पानीपत जा रहे हैं, पर लगता है कि शाह अली गिलचे पठानों की मनुष्य-हानि भूल गए हैं अन्यथा वे इतनी आसानी से दूसरे पानीपत की बात न करते। शायद अब्दाली भूल गए हैं कि मराठों ने दिल्ली और कुंजपुरा में मार-काट मचाकर गिलचों के दाँत खट्टे किए थे। पानीपत के मैदान में एक बार शिंदे होलकर ने और एक बार मेंहदले ने अब्दाली की सारी सेना को दो बार दो घमासान मुठभेड़ों में पीटकर छावनी में वापस लौटाया था, तब दस हजार मुसलमान काटे गए थे, वह अब्दाली को स्मरण है न! अब्दाली को यह भी याद होगा कि आखिरी जंग में, एक ही दिन में रणबाँकुरे भाऊ साहब ने गिनकर पचहत्तर हजार गिलचे पठान और रोहिलों को मौत के घाट उतारा था। जब तक जंग में शामिल थे तब तक जान के बदले जान और सिर के बदले सिर-यही मराठों का उसूल था। मराठा सैनिक मरे भी तो बहादुरी से लड़ते-लड़ते। हाँ, लड़ाई खत्म होने पर जो भगदड़ मची उसमें मराठा बाजारू सिपाही तथा औरतों और मासूम बच्चों का कत्लेआम आपने बेरहमी से किया। और आपकी इस कायर क्रूरता से मराठों को आपसे ज्यादा ही मनुष्य हानि हुई। ऐसी कायर क्रूरता का अभिमान अगर अहमदशाह गाजी करना चाहें तो शौक से करें, पर ध्यान रखें कि पानीपत अब्दाली से भी एक लाख गिलचे और रोहिलों की बलि ले लेता है।

वकील : पानीपत की लड़ाई में हमने सिर्फ बाजारू सिपाहियों को ही मारा, यह विधान शिंदे करें, यह उनकी भुलक्कड़ी ही है, पर दत्ताजी शिंदे तो खासे सरदार थे, बाजारू नहीं थे। उनका भी सिर तो हम ही ने काटा था। क्या शिंदे यह भी भूल गए?

बिनीवाले : शायद अहमदशाह भी भूले नहीं होंगे कि जिन कुतुबशाह और समद खान ने लड़ाई में घायल हुए रणशूर दत्ताजी का सिर काटने की बुजदिली की, उन्हें भाऊ साहब ने कुंजपुरे में हाथी के हौदे से गिरा जिंदा गिरफ्तार कर कुत्ते की मौत मारा। इस तरह उन्होंने दत्ताजी की मौत का बदला लिया।

वकील : आपके दूसरे नामी सरदार गोविंद पंत बुंदेले? उन्हें तो हमने लड़ाई में ही मारा।

बिनीवाले : उन्हें मारा था आततायी खान ने। वह भी आपका नामी सरदार था। उसे पानीपत की जंग में मार गिराया, मराठा सरदारों ने गोविंद पंत की मौत का बदला लिया।

वकील : और जनकोजी शिंदे, पेशवाओं के सरदारों के सरताज! उन्हें पानीपत में गिलचों ने ही मार गिराया था न!

बिनीवाले : और आपके वजीर का बेटा। अहमदशाह की आँख का तारा! उसे पानीपत में सिर से पाँव तक चीरकर किसने शाह को दिन में तारे दिखाए? मराठों ने ही न!

वकील : और विश्वासराव? पेशवा के युवराज! उन्हें हौदे ही में उड़ा दिया हमारे गिलचों ने। जरा इस बात की तो शर्म कीजिए।

बिनीवाले : वे धन्य हुए! आमने-सामने के समर में शत्रु पर सीधे वार करते एक पैर भी पीछे न लेते धारातीर्थ पर वीर देह रख वे स्वर्ग गए, पर आपके तोमर शाह! शाह अब्दाली के युवराज! चले थे दिल्ली के बादशाह की बेटी से ब्याह रचाकर बादशाह बनने, पर जैसे ही वे लाहौर पहुँचे, उनकी मुठभेड़ हुई रघुनाथ रावजी से। मराठों से शिकस्त खाकर उलटे पाँव भागे अटक की तरफ। मराठों ने भी अटक तक उनका पीछा किया और वे खेमे, शिविर, औरतों, बच्चों को छोड़-छाड़कर, जान मुट्ठी में लेकर भागते रहे। हमें शर्म आती है, पीठ पर वार लेकर भागे पठानों के शहजादे पर, आखिरी पल तक लड़े मराठों के युवराज पर नहीं।

वकील : अब इसी न्याय से शायद आप यह भी कह दें कि पानीपत युद्ध में मराठों के सरसेनापति, खुद भाऊ साहब लड़ते-लड़ते गिलचों के हाथों मारे गए। इसलिए सिर्फ वे ही सच्चे शूरवीर थे और मराठों की तलवार शाह अब्दाली का बाल भी बाँका न कर सकी। इसलिए जिंदा बचे शाह अहमदशाह गाजी, भगोड़े!

बिनीवाले : अगर कोई मराठा लेखक ऐसा लिखता तो वह भी आपके मुसलमान तवारीखकारों की तरह चापलूस कहलाता, पर जिसकी पीठ पर मराठों का शस्त्र नहीं चला, वह अहमदशाह अब्दाली योद्धा भाऊ साहब की ही तरह पराक्रमी था। पूरे महाराष्ट्र की यही मान्यता है। मराठों का सरसेनापति पानीपत में मारा गया और पठानों का नहीं मारा गया। इसलिए आखिर में मराठों ने मैदान छोड़ दिया और पठानों ने मैदान मार लिया। हमारी मान्यता है कि केवल इसी एक अर्थ में और इसी कारण पठानों ने पानीपत की लड़ाई जीत ली और मराठे हारे!

वकील : वल्लाह! कम-से-कम आप यह तो मानते हैं कि मराठे पानीपत के युद्ध में हार गए।

शिंदे : ना-ना! यह सच है कि हम पानीपत की लड़ाई हार गए, पर पानीपत के युद्ध में हम अभी तक नहीं हारे हैं।

वकील : शाबाश! शाबाश सरदार! कुश्ती में चित होकर भी नाक मेरी ही ऊँची हुई, ऐसा कहनेवाला पहलवान आज ही पहली बार देखा हमने।

शिंदे : और, लड़ाई और युद्ध-इन शब्दों का अर्थ जाने बिना ही मराठा पठानों के महाभारत की चर्चा करनेवाला नासमझ इतिहासकार भी आज ही हमने देखा। वकील महोदय, हारी हुई लड़ाई का बदला लेने के लिए फिर से लड़ने की हिम्मत जिसमें न हो, वही कमजोर अपनी हार को मानने से डरेगा, पर पानीपत की जंग में हम पहले बताए गए अर्थ में हार गए हैं। और इस एक हार को स्वीकार करते हुए महाराष्ट्र जरा भी नहीं हिचकता, क्योंकि जिस कार्य के लिए हमने वह लड़ाई लड़ी, उसमें हम जब तक सफल नहीं होते तब तक ऐसी सैकड़ों लड़ाइयाँ लड़ने की शक्ति महाराष्ट्र के बाजुओं में है। जब शाह अब्दाली ने अटक पार कर मराठों पर हमला किया था, तब वे किसी एक के साथ लड़ाई लड़ने के लिए नहीं आए थे। वे आए थे, दिल्ली के यानी हिंदुस्थान के तख्त पर हिंदू पदपादशाही के प्रधानमंत्री का अधिकार हो या काबुल के अहमदशाह गाजी का, इस अहम सवाल का निर्णय करने। उस मुहिम में समूचे हिंदुस्थान के सभी मुसलमानों की फौजें इकट्ठा हो गईं और इस तरह शाह अब्दाली के झंड़े तले मुसलमानों की बहुत भारी फौज जमा हो गई। मराठों के साथ उस फौज की कई लड़ाइयाँ हुईं, कई मुठभेड़ें हुईं। वे सारी जिस महासंग्राम की अंग-उपांग थीं, उसी को महाराष्ट्र एक छोटा सा नाम देता है 'पानीपत का युद्ध'। इस युद्ध की सबसे बड़ी लड़ाई थी पानीपत की। इसमें भाऊ साहब और अब्दाली ऐसे लड़े जैसे एक तूफान से दूसरा तूफान लिपटे। एक झंझा पर दूसरी झंझा झपटे। दोनों ही मानो बब्बर शेर थे। एक-दूसरे पर पूरे जोश से टूट पड़े थे। दोनों ने एक-दूसरे के पेट में अपने पंजे गाड़कर आँतें बाहर निकालने की कोशिश जी-जान से की थी। इसमें मराठा शेर ने घायल होकर दम तोड़ दिया और पठानी शेर घायल हो चिंचियाता हुआ काबुल की कंदरा में जा छिपा। युद्ध का मूल कारण अनिश्चित ही रहा। इसलिए युद्ध भी अनिर्णीत ही रहा। दिल्ली के तख्त पर आसीन होने के मनसूबे अब्दाली के मन ही में रह गए।

वकील : और मराठा भी तो दिल्ली में बादशाहत स्थापित करना चाहते थे। उनकी इच्छाओं का क्या हश्र हुआ? दिल्ली का तख्त तो खुदा ने मुगल बादशाहों को बक्शा था। भाऊ साहब ने उसे तोड़ने का अत्याचार किया। वहाँ औने-पौने घंटे के लिए हिंदू पदपादशाही विश्वासराव ने स्थापित की। बस, यही था न मराठों का करिश्मा!

शिंदे : अर्थात् औने-पौने घंटों की मराठों की उस करामात ने ही मुसलमानों की आठ सदियों की करामात को मिट्टी में मिला दिया। वह अत्याचार प्रत्याचार था। वास्तविक दिल्ली हिंदुस्थान का सिंहासन था तो हिंदुओं का ही। मोहम्मद गोरी की तलवार के बल पर मुसलमानों ने उसे पृथ्वीराज यानी हिंदुओं से जीत लिया। इसी को आप खुदा का बख्शा तख्त मानते हो तो शिवाजी महाराज का रायगढ़ का तख्त भी भगवान् का बख्शा हुआ था-यह आपको मानना ही पड़ेगा, क्योंकि उसे भी तो शिवाजी महाराज ने तलवार के बल पर बनाया था। औरंगजेब बादशाह दक्खन में आया और उसने रायगढ़ का सिंहासन तोड़ा। वह अपमान का काँटा हमारे सीने में गहरे घुसा। अंत में हमारे भी दिन पलटे। शिवाजी के मराठे दिल्ली में घुसे और भाऊ साहब ने औरंगजेब के तख्त पर वज्राघात किया। अत्याचार का प्रतिशोध प्रत्याचार से लिया। औने-पौने घंटे के उस आघात से आठ सदियों से चली आई मुसलमानी सलतनत का मृत्यु-घंटा पहले घनघना उठा। पहला घंटा बजाया। पानीपत में बहती मराठों की रक्तधारा चाहे सूख ही जाए, वहाँ पर गिरे डेढ़ लाख कंकाल भी चाहे मिट्टी में मिल जाएँ, पर हिंदू वीर भाऊ आठ सदियों का प्रतिशोध लेते हुए औरंगजेब के तख्त पर प्रहार कर रहे हैं और उस प्रहार में मिल रहा है यह दृश्य, यह चित्र, हिंदू राष्ट्र की आँखों के आगे युगों-युगों तक बना रहेगा। नैमिषारण्य में दीप्तिमान किसी द्वादश वर्षीय यज्ञ कुंड की तरह उसके सामने स्फूर्ति की ज्वालाएँ उगलता रहेगा। वह औना-पौना घंटा ही आठ सदियों की इसलामी सलतनत की समाप्ति का प्रारंभ था। ऐसी एक घड़ी को प्राप्त करने महाराष्ट्र एक ही क्यों, दसियों पानीपत का मूल्य देने को सदा तत्पर है, पर एक बात याद रखना। पानीपत में जिन लोगों ने मराठों से धोखा किया उन सबके सिर कुचलकर पानीपत प्रतिशोध लेकर दिल्ली की बादशाहत को हथियाकर ही रहेंगे। हम चाहे पानीपत की लड़ाई हारे हों, पर पानीपत का 'युद्ध' हम जीतकर ही रहेंगे।

वकील : अच्छा, पर वहाँ भी नजीब खान, बंगश, सुजाउद्दौला और हाफिज रहमत एक लाख की फौज लिये मराठों से पानीपत का मूल्य वसूलने की राह देख रहे हैं। शाह अब्दाली भी शायद फिर एक बार आपसे मिलेंगे ही। श्रीमंत सरकार स्वयं हमें संदेश दे दें तो हम भी चल दें।

माधवराव : वकील महोदय, पानीपत की लड़ाई के बाद शाह अब्दाली दो दिन भी दिल्ली की बादशाहत अपने हाथ न रख सके। पचास हजार मराठों के साथ नाना साहब नर्मदा पार कर आ ही रहे थे। अब, अब्दाली के घर में बगावत, बाहर दगाबाजी, आगे बारिश के दिन, पीछे मराठों का दबाव। इन हालात में अब्दाली खुलकर सामने आते तो भी उनका विनाश तय था। इसलिए शक्ति क्षीण होने से वे तुरंत काबुल लौट गए। अब्दाली जैसे जुझारू वैसे ही दूर दृष्टि रखनेवाले थे। वे मन-ही-मन समझ गए कि पानीपत जीतना, पुणे जीतना एक जैसा नहीं है। इसलिए पुणे में अपना वकील और नजराने भेज पेशवा के साथ सुलह कर ली। उसमें उन्होंने दिल्ली की बादशाहत का चाहे जो हश्र करने का पेशवाओं का अधिकार पूर्णतः मान लिया है। तय हुआ था कि सिर्फ पंजाब अब्दाली के पास रहेगा, पर उसे भी सिखों ने यानी हिंदुओं ने ही फौरन अब्दाली के पंजे से छुड़ा लिया। अब्दाली ने पानीपत का युद्ध छेड़ा था, हिंदू सत्ता जिसे आप काफरशाही कहते हैं, मटियामेट कर दिल्ली को हथियाने के जिस खयाल से पानीपत का युद्ध अब्दाली ने लड़ा, उस राजनीति में मुँह की खा गए। और आज तो खुद दिल्ली के बादशाह ने ही मराठों से विनती की है कि वे उन्हें रोहिलों और पठानों के चंगुल से छुड़ा लें। यह देखिए, बादशाही पत्र, हम हिंदुस्थान के हिंदू-मुसलिम चाहे किसी भी तरह अपनी बादशाहत का मामला सुलझाएँगे। मराठों के साथ हुए समझौते के अनुसार इसमें दखल देने का अहमदशाह अब्दाली को जरा भी हक नहीं है। इसपर भी अगर उन्हें समझौता तोड़कर झगड़ा खड़ा करना हो तो बेशक करें। हम अब्दाली के साथ दोस्ती का रिश्ता रखना चाहते हैं, पर अगर उन्हें ही दुश्मनी करनी है तो हम उससे निपटेंगे। यह है हमारा संदेश। यही है हमारा अंतिम उत्तर! (वकील उठकर चले जाते हैं।)

पद

लड़ूँगा लड़ाई मैं हथेली पे ले के जान!

शत्रु सैकड़ों-चाहे मुझे गर मारना!

लड़ूँगा समर मैं, निःशंक भगवान्,

मारूँगा या मर ही जाऊँगा!

[माधवराव चले जाते हैं। परदा गिरता है।]

: चौथा दृश्य :

[सरदार विसाजी पंत बिनीवाले,शास्त्रीजी,धोंडण्णा शास्त्री और कोंडण्णा शास्त्रीजी बैठे हुए हैं।]

शास्त्रीजी : हम साफ-साफ पूछते हैं कि इस पुणे में श्रीमंत पेशवा का ब्राह्मणी राज्य है या किसी औरंगजेब का मुसलमानी राज्य? अजी, यह यशवंतराव ठेठ समुद्र पार कर गया। ईसाई और मुसलिम लोगों के देश में रह उनके साथ खाना खा आया। उसका धर्म भ्रष्ट हो गया और उसे श्रीमंत सरदार के खास वस्त्र देकर उसका सम्मान करते हैं।

कोंडण्णा : अरे, म्लेछों के देश में खा-पी भी आया तो स्वदेश आते ही चुपचाप अपने हाथ धो डालता और इन सबसे मुक्त हो जाता। चुपचाप चाहे जो करो, पर इस तरह का किया-धरा भला जिस-तिसको कहते जाना! अब्राह्मण्यम्। अजी, सुना है कि फिरंगी लोगों की टोपी तक पहन लेता था।

बिनीवाले : यह सच है कि उसने समुद्र गमन किया है, पर वह उसके सरदार बनने के आड़े कैसे आ सकता है? वह हिंदू वीर है। हिंदू पदपादशाही का एकनिष्ठ सेवक है।

शास्त्रीजी : अरे रे! आप, सरदार विसाजी पंत बिनीवाले भी यही कहते हैं। राम-राम! अजी, जिसने भी समुद्र गमन किया, वह हिंदू रह ही नहीं सकता।

धोंडण्णा : जी हाँ, वह मुसलिम हो गया।

कोंडण्णा : वह ईसाई हो गया।

बिनीवाले : तो क्या हुआ, जन्मतः मुसलिम या टोपीवाले [4] ईसाई को भी हम मराठी राज्य में सरदार बना देते हैं। फिर यशवंतराव जैसे जन्मजात हिंदू को सरदार बनाने से क्या बिगड़ा! हाँ, जाति-पाँत का कोई बहिष्कार हो तो अलग बात है। वह देखिए, वे स्वयं ही हमारी ओर आ रहे हैं। पहले उनकी बात तो सुन लें। (यशवंतराव आ जाते हैं।) आइए, पधारिए। आइए, रावराजे यशवंतरावजी! फ्रांसीसी गवर्नर जनरल साहब ने यूरोप में किए गए आपके कार्यों के बारे में प्रशंसात्मक पत्र आपके साथ दिया था। उसे देख श्रीमंत फूले न समाए। उन्होंने हमसे खास तौर से कहा था कि हम आपसे यह जान लें कि आपने किस तरह समुद्र पार कर पृथ्वी की प्रदक्षिणा की। उन्होंने हमसे यह भी कहा था कि हम आपके मुँह से सुनें कि आपने यूरोप के अनेक देशों में क्या-क्या देखा, अनुभव किया, कमाया। कृपया हमारी इस जिज्ञासा को किंचित् पूरा करें।

यशवंतराव : सरदार महोदय, मूलत: मैं शिंदेजी का आश्रित था। उनकी सेना में घुड़सवार था। पानीपत के समय में शिंदेजी की सेना में शामिल था। मेरी युवा पत्नी और सास भी उस मुहिम में अंत:पुर की राजस्त्रियों की परिचारिका थीं। अंतिम लड़ाई में मराठों की सेना में भगदड़ होने पर स्त्रियों के बचाव के लिए काफी मार-काट मची। उसी में घायल होकर मैं मैदान में गिरा। मेरी युवा पत्नी और उसकी माँ भी खंजर हाथ में लिये लड़ते घायल हो गईं। उनका कोई पता नहीं, शायद वे मर ही गई हों। दूसरे दिन मुझे होश आया और संयोग से मराठा दल के कुछ सैनिकों के साथ मैं एक गाँव में पहुँचा। मेरी जवानी और रूप देख एक पठान मुझे गुलाम बनाकर काबुल ले गया। वहाँ मुझे खरीदा एक अरबी सौदागर ने और बेच डाला एक फ्रांसीसी सरदार के हाथों। उस फ्रांसीसी सरदार का दिल अच्छा था, गुणग्राही था। उसी ने मुझे फ्रांसीसी सेना में भरती कराया और फिर कई लड़ाइयों में बहादुरी से लड़ने के कारण मेरा सब जगह नाम हो गया। इंग्लैंड आदि कई यूरोपीय देशों में मैं घूमा। अमेरिका भी गया। वहाँ जाकर मेरे उदार फ्रांसीसी मालिक ने मुझे गुलामी से मुक्त किया। उसके बाद चीन, जापान आदि देशों को देखता हुआ मैं पांडिचेरी पहुँचा, जो अपने ही देश में फ्रांसीसियों के अधिकार में है। उधर फ्रांसीसी गर्वनर जनरल ने मुझे 'रावराजे' का खिताब दिया और मेरी इच्छानुसार मुझे श्रीमंत पेशवा के पास भेज दिया। और इस तरह मैं उनकी सेवा में हाजिर हुआ।

बिनीवाले : आपने कहा कि आप अमेरिका गए थे। भला कहाँ है यह देश? यहाँ कभी सुना नहीं उसके बारे में। क्यों शास्त्रीजी, क्या पुराणों में इसकी चर्चा है?

शास्त्रीजी : सबकुछ है, जी। 'व्यासोच्छिष्टम् जगत् सर्वम्' हिमालय के बाद आता है उत्तरकुरु। उसी को अमरकुरु भी कहते हैं। देहाती लोगों ने इसी अमरकुरु का भ्रष्ट रूप बनाया अमेरिका। और क्या!

यशवंतराव : जी नहीं। यह अमेरिका हिमालय के उत्तर में उसके बिलकुल विरुद्ध हिस्से में है। कह सकते हैं कि यह हमारे पैरों के नीचे है। शायद पुराणों में 'पाताल' नाम से जिसका उल्लेख आता है। वह इसी के बारे में है। क्यों शास्त्रीजी!

शास्त्रीजी : हो सकता है क्या, है। उसे नए ढंग से बताने की जरूरत ही नहीं है। पाताल में राज है नागराज का। वहाँ बड़े-बड़े फण्यार, मण्यार, फुरस, घोणस, जानेरी, अजगर आदि साँप रहते हैं। उनके बड़े ही विशाल राजमहल की तरह सुंदर सुरंग होते हैं। इनमें से कोई साँप पूँछ मुँह में दबाकर गोल-गोल चक्कर काटते रहते हैं। बड़े-बड़े पीले नाग कुंडली मारकर, फन निकालकर झूमते रहते हैं। पाताल लोक में सूरज की रोशनी कहाँ! पर इन नागों के फन पर चमकते तेज पुंज मणियों के कारण वहाँ चारों ओर चकाचौंध रोशनी होती है। साँपों की बाँबियाँ इतनी लंबी और गहरी होती हैं कि उनका एक मुहाना होता है पाताल में और दूसरा पुणे में। पाताल के नाग पृथ्वी पर आकर कभी-कभी धूप सेंकते रहते हैं, पर उनके दर्शन सिर्फ पुण्यात्माओं को ही होते हैं। ये महाशय पातालखंड में होकर आए हैं, यह तो मुझे सफेद झूठ लगता है। नाग लोक में भी कभी कोई मनुष्य जा सकता है? अजी, पाताल में द्वापर युग में सिर्फ भीम और अर्जुन ही गए थे। कलयुग में कोई पाताल में जा भी सकता है? नहीं, यह तो हो ही नहीं सकता।

कोंडण्णा-

धोंडण्णा : जी हाँ, यह तो हो ही नहीं सकता।

यशवंतराव : हो सकता है कि आप जिस पाताल की बात कर रहे हैं वहाँ कोई न जा सके, पर मैं बात कर रहा हूँ अपने देखे पाताल के बारे में, न कि पुराणों के पाताल की। वहाँ हम जैसे ही लोग रहते हैं, और रोशनी भी हमारेवाले सूरज से ही होती है, न कि नागों की मणि से। अंतर बस इतना है कि जब यहाँ दिन होता है तब पृथ्वी के उस हिस्से में सूरज न होने के कारण रात होती है। वहाँ सूर्य तब दिखाई देता है जब यहाँ वह डूब जाता है, अर्थात् रात होती है।

बिनीवाले : इसका मतलब है कि यहाँ तो अभी दिन है और वहाँ रात! वहाँ के लोग गहरी नींद में सो रहे हैं। कितना आश्चर्य!

शास्त्रीजी : आश्चर्य नहीं पाखंड। वाह! आकाश के सूर्यनारायण पाताल में! पाताल लोक में सूरज का प्रकाश होता है। वाह! यह तो वर्णाश्रम धर्म के एकदम विरुद्ध है।

कोंडण्णा-

धोंडण्णा : एकदम विरुद्ध है।

बिनीवाले : अच्छा, यह तो बताइए कि वहाँ राज किसका है?

यशवंतराव : यूरोपीय लोगों का। इन्हीं अंग्रेज, पुर्तगीज और स्पैनिश लोगों का।

बिनीवाले : क्या कहा! वहाँ भी अंग्रेजों का ही राज है। आखिर ये अंग्रेज हैं कितने और गए कहाँ-कहाँ हैं! बाप रे, बड़े ही उत्पाती हैं ये लोग! बड़ा विस्मय है!

यशवंतराव : सरदार, अंग्रेजों का राज अमेरिका में भी है, इस बात से आपको इतनी हैरानी होती है? अगर मैं पूरे साक्ष्य के साथ कहूँ कि आर्यवंशी तथा आर्यधर्मीय लोगों के राज सिर्फ अमेरिका में ही नहीं बल्कि चीन, जावा और थाइलैंड में भी फैले थे तो आप क्या कहेंगे?।

शास्त्री : कुछ नहीं कहेंगे। कुछ कहने की बात ही नहीं है। रघु, दिलीप से लेकर युधिष्ठिर तक हमारे सभी आर्य राजाओं ने इस पृथ्वी पर कई बार दिग्विजय की थी।

यशवंतराव : अगर समुद्र गमन को आप पाप मानते हैं तो तय है कि हमारे सभी पराक्रमी पूर्वज इस पाप के भागीदार थे।

शास्त्रीजी : बिलकुल नहीं। उन्होंने पृथ्वी को जीत लिया, पर समुद्र गमन नहीं किया, क्योंकि उस समय धरातल पर समुद्र थे ही नहीं। धरती अखंड थी। हर एक दिग्विजयी वीर यही कहता कि 'प्रतष्थे स्थलवर्त्मना! प्रतस्थे स्थलवर्त्मना!'

[भूमि पर बने रास्ते पर चलें! बढ़ते चलें।]

कोंडण्णा-

धोंडण्णा : जितम्, जितम्!

यशवंतराव : वाह शास्त्रीजी! आपने कम-से-कम यह तो मान लिया कि जब तक धरती अखंड है तब तक चाहे जिस देश में जाओ, पाप नहीं होगा, जाति नहीं जाती। इस बात के लिए आपके आभारी हैं हम। तो अब सिंधु नदी की सीमा की अटक तो कम-से-कम टूट गई! 'स्थलवर्त्मना' ही सही, अरबस्तान से ठेठ फ्रांस तक जाने में तो कोई पाप नहीं लगेगा। है न!

शास्त्रीजी : ना-ना! ऐसा तो हमने नहीं कहा। असत्यम्! अनृतम्!

कोंडण्णा-

धोंडण्णा : मनृतम्! मनृतम्!!

यशवंतराव : ऐसा ही कहा था आपने। अखंड पृथ्वी पर घूमने की सीमाएँ टूट गईं। यही स्थिति समुद्री सीमाओं की भी है। कम-से-कम इस बात को तो आप मना कर ही नहीं सकते कि दस योजन में फैले समुद्र को पारकर श्रीराम लंका में गए थे और रावण से लड़े थे।

शास्त्रीजी : आप जैसे बंदरों के मुँह देवी-देवताओं की बातें शोभा नहीं देती। न देवचरितं चरेत्! न देवचरितं चरेत्!!

यशवंतराव : अच्छा, यह भी मान लिया। पर हम जैसे बंदर बंदरों के बरताव का अनुसरण तो कर ही सकते हैं। लाखों बंदर भी समुद्र पार कर लंका में गए थे, पर न उन्हें किसीने पंचगव्य पिलाया, न किसीने उनपर अंगुली ही उठाई।

बिनीवाले : क्यों शास्त्रीजी, आपका युक्तिवाद आपके ही गले पड़ा!

शास्त्रीजी : भाड़ में जाए बुद्धिवाद और युक्तिवाद। वचनात् प्रवृत्तिर्वचनान्निवृत्तिः। परदेशगमन 'समुद्रयातुः स्वीकारः' कलयुग में वर्ज्य है, यह है धर्म। बाकी कुछ हम नहीं जानते।

कोंडण्णा : हम कुछ नहीं जानते।

धोंडण्णा : हम कुछ नहीं जानते।

यशवंतराव : बिलकुल ठीक कहा आपने। आप वाकई कुछ नहीं जानते। पहले तो जितना हो सके उतना युक्तिवाद करते हैं आप, पर युक्तिवाद में हार होती देख अब तुरंत कहते हैं कि हम युक्तिवाद करते ही नहीं।

बिनीवाले : शास्त्रीजी, जो भी हो, म्लेच्छ यशवंतराव को जबरदस्ती पकड़कर परदेश ले गए थे। समुद्र गमन पाप हो तो भी म्लेच्छों ने उन्हें गुलाम बनाकर उनसे यह पाप जबरन कराया।

शास्त्रीजी : पर लौटते समय तो ये स्वतंत्र थे। फिर ये समुद्र मार्ग से ही क्यों वापस लौटे? अगर दूसरा रास्ता था ही नहीं तो उन म्लेच्छों के देश में ही रहते। अगर वे वहीं रहते तो हम इस बारे में कुछ भी नहीं कहते।

कोंडण्णा : जी, ये वहाँ मुसलिम ही क्यों नहीं बन गए! फिर भले ही वे समुद्र मार्ग से वापस चले आते। वह वर्णाश्रम धर्म के विरुद्ध न होता।

धोंडण्णा : जी हाँ, वे ईसाई ही क्यों न बने! हिंदू ही क्यों बने रहे! इस तरह उन्होंने धर्म का अपमान क्यों किया?

बिनीवाले : क्या बात करते हैं जी आप? इन्होंने सनातन धर्म का अपमान नहीं किया है, उलटे यूरोप में इतनी सेवा करनी चाही-यह हिंदू राष्ट्र का गौरव है। थोड़े काल के लिए इन्हें खोकर भी हमने इन्हें फिर से पा लिया-यह हिंदू राष्ट्र का सौभाग्य है। मुझे ऐसा लगता है कि जाति दोष को दूर करने के लिए रावराजे यशवंतरावजी से थोड़ा-बहुत प्रायश्चित्त कराकर यह झगड़ा निपटा लेना ही राज्य के हित में है।

यशवंतराव : प्रायश्चित्त? सरदार, जिसने पाप किया हो वही तो प्रायश्चित्त करेगा। आपकी सदिच्छा के लिए मैं आभारी हूँ, पर अपने हिंदू राष्ट्र की भलाई के लिए मैं उस सदिच्छा के लोभ की भी बलि चढ़ाऊँगा। परदेश जाना पाप नहीं है बल्कि मेरी तो यह राय है कि हिंदू राष्ट्र के लिए वह एक अपरिहार्य और पुण्यप्रद कर्तव्य बन गया है। इसलिए समुद्र यात्रा के लिए मैं और तो और तुलसी दल का प्रायश्चित्त भी नहीं करूँगा।

पद

कामना जो मन की पाप नहीं किंतु सयाना पुण्य ही लगे,

इसी कारण न डरूँगा ललकारूँगा जनधारणा को।

गरल जन के दूषणों का, विषकंठ हो धारण करूँगा।

सरदार, जैसे आज इंग्लैंड का साम्राज्य दूर-दूर तक फैला है,

उसी तरह भारतीय आर्यों का साम्राज्य भी मिस्र से लेकर मैक्सिको तक फैला था। उसके भग्नावशेष साम्राज्य? प्रमुखतः परदेशगमन के बंदिश की बेड़ी पाँवों में डाल लेने से यहाँ से सेना, राजा लोग, प्रचारक और नाते-रिश्तेदार का समुद्र के पार जाना बंद हो गया। गंगा के प्रवाह का संबंध टूट जाने से उसपर बनी नहरें भी सूखकर मर जाती हैं। इसी तरह समुद्र पार के हिंदू राज्य और हिंदू लोग मूल स्रोत के संबंध विच्छेद से प्राणहीन हो गए। अहिंदुओं ने उन्हें मार डाला, चबा डाला। महाराज, कभी हमारे जलपोत यूरोप तक जाते थे। हमारी जलसेना उन किनारों पर भी निगरानी रखती थी। पूरी दुनिया का व्यापार हमारी मुट्ठी में था। सभी सागरों-महासागरों पर हिंदू ध्वज फहराते हुए हमारे हिंदू व्यापारी निडरता से आवागमन करते थे। वह सारा व्यापार और हजारों हिंदू सिंधुपोत कहाँ पर डूब गए! महासागर के किसी भयानक तूफान में? नहीं। वे डूबे संध्या वंदना की इतनी सी आचमनी में। परदेश के पानी से हमारी संध्या वंदना अपवित्र हो जाती है। हमारे पूजा के रेशमी वस्त्र भ्रष्ट हो जाते हैं। विजातियों के साथ बैठकर खाना खाने से हमारी जाति चली जाती है। धर्म खराब हो जाता है। इस पागलपन के कारण ही हमने स्वयं अपने पाँवों में बेड़ियाँ डाल लीं। पहले रोटीबंदी और बाद में समुद्रबंदी की। तभी हमारी प्रगति के कदमों में भी बेड़ियाँ पड़ गईं। और इसी से हमने अपने हाथों अपने राज्य और सामुद्रिक व्यापार को गँवाया। महज पूजा के वस्त्रों के लिए हमने राजपाट गँवाया।

शास्त्रीजी : पर इससे हमारा धर्म तो बना रहा। संस्कृति की शुद्धता बनी रही। हमने अरबस्तान या पुर्तगाल के अहिंदुओं की अपवित्र छाया हिंदुओं पर, हिंदुस्थान पर पड़ने नहीं दी।

यशवंतराव : दुःख तो इसी बात का है कि आपसे यह भी न हो पाया और इसका कारण है समुद्रबंदी। समुद्र के पार कहीं जाने पर लगी पाबंदी। मुसलमानों की हिंदुस्थान जीतने की हवस का मूल था अरबस्तान में। अगर तभी हमारे पाँच-सात गुप्तचर वहाँ होते तो उन्हें इस हवस की भनक मिलती और फिर हमारा तत्कालीन हिंदू राष्ट्र अरबस्तान पर टूट पड़ता और उन मुट्ठी भर मुसलमानों को वहीं पर मसल देता। अरबों के मोहम्मद कासिम ने सिंध देश पर हमला किया। यही काम सिंध देश के हिंदू राजा दाहर ने अरबस्तान में क्यों नहीं किया? मोहम्मद गजनवी ने सोमनाथ को लूटा। फिर भला आप मक्का जाकर उसे अपने काबू में क्यों नहीं कर सके? इसकी वजह थी परदेश गमनबंदी। समुद्र यात्रा पर रोक और रोटीबंदी। कहीं हिंदुस्थान भ्रष्ट न हो जाए, इस भय से हम अरबस्तान या पुर्तगाल नहीं गए। पर परिणाम क्या हुआ? पूरा हिंदुस्थान ही अरबस्तान में बदल गया? परशुराम क्षेत्र-गोवा-पुर्तगाल बन गया। पुण्यक्षेत्र मथुरा में मसजिदें आईं और दिल्ली में औरंगजेब आया। काशी और गोकुल में गो हत्याएँ काफी बढ़ गईं। रोटीबंदी और समुद्रबंदी के कारण जैसे हमने बाहर के राज्य गँवाए, बाहर का व्यापार नष्ट किया, वैसे ही हमने देश के अंदरूनी राज्यों और व्यापार की भी हानि की। और फिर पूजा के जिन पवित्र वस्त्रों के कारण हमने यह सब अनर्थ किया, वे भी न बच पाए। वे अपवित्र ही नहीं हुए बल्कि म्लेच्छों ने उन्हें जबरन उतार लिया। मुसलमानों के घर में खाने से धर्म चला जाता है, इस पागल विचार के कारण ही लाखों हिंदू धर्मांतरित होकर मुसलिम-ईसाई हो गए। इसलिए जैसे हथौड़े के प्रहार से भाऊ साहब ने दिल्ली का मुगलई तख्त तोड़ा वैसे ही किसी युग प्रवर्तक हथौड़े से हमें इस रोटीबंदी और समुद्र की बेड़ी को भी तोड़ देना चाहिए। यही हमारा धर्म-कर्तव्य है, पुण्य कार्य है। और यह पुण्य कार्य मैं बार-बार करूँगा। मौका मिला तो मैं बार-बार समुद्र यात्रा करूँगा। सरदार, उत्तर हिंदुस्थान की यह मुहिम कामयाब हुई नहीं कि समझ लीजिए, सारे मुसलमान राज्य मिट्टी में मिल गए। इसके बाद निश्चित ही हमारी मुठभेड़ अंग्रेजों से होगी। इसलिए पेशवाओं को चाहिए कि वे आज से हजारों व्यापारी, विद्यार्थी, भूसेना और नौसेना को यूरोप में भेजना शुरू कर दें। अपने वकील पेरिस, लंदन, लिस्बन, रोम आदि जगहों में जाकर यूरोप की राजनीति से अच्छी तरह से परिचित हो जाएँ और फिर अंग्रेजों को फ्रांसीसियों के विरोध में और फ्रांसीसियों को पुर्तगीजों के विरोध में उकसाएँ। उनकी आपसी फूट का लाभ उठाकर हमें अपना उल्लू सीधा करना चाहिए। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे, उनकी युद्धकला, मुद्रणकला, देशभक्ति, संघटना, दाँव-पेच सीखकर उन्हीं के दरवाजे को नहीं खटखटाएँगे तो अंग्रेज पेशवाओं पर हावी होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। जब तक जान में जान है, मैं श्रीमंत को समझाने का प्रयास करूँगा कि वे रोटीबंदी और समुद्रबंदी जैसी हानिकारक रूढ़ियों को तोड़ दें। सरकार, अंग्रेज अमेरिका में राज करें, इसमें कोई आश्चर्यजनक बात नहीं। आज भी राज्यशक्ति में मराठा अंग्रेजों पर भारी हैं। अभी तक अमेरिका वीरान है। वहाँ की सोने की खानों और बहुत सारे राज्यों को हम आसानी से जीत सकते हैं। बहुत नहीं, सिर्फ बीस हजार मराठा सैनिक और सौ सामरिक नौकाएँ मेरे हाथ दे दीजिए। मैं अमेरिका में न केवल राज्य स्थापना करूँगा बल्कि उन सारी नौकाओं को सोने से लादकर वापस ले आऊँगा, पर इसके लिए जरूरी है कि हम रोटीबंदी और समुद्रबंदी की बेड़ी को तोड़ डालें।

बिनीवाले : आपके इस अद्भुत भाषण ने हमारी आँखें खोल दी हैं। जल्द ही आपकी भेंट श्रीमंत पेशवा से होगी। तब आप स्वयं ही उन्हें ये बातें समझाइए। उत्तर हिंदुस्थान की इस मुहिम में आपको एक प्रमुख सरदार का पद दे दिया गया है। मैं इस तलवार को भेंट कर आपके प्रति अपना आदर प्रकट करता हूँ। कृपया इसे स्वीकार करें। और अब मैं आपसे अनुमति चाहता हूँ।

[यशवंतराव झुककर तलवार ले लेते हैं। सब उठ जाते हैं। परदा गिरता है।]

: पाँचवाँ दृश्य :

[स्थल :कोंडण्णा का घर।]

कोंडण्णा : हाय रे, मेरी किस्मत फूट गई! मेरी कमर टूट गई। बाप रे बाप! यह माधवराव मुझे लड़ाई में भेजकर ही रहेगा। मुझे तलवार चलानी पड़ेगी। घोड़े पर बैठना पड़ेगा। घोड़ाऽऽ! बाप रे बाप! कितना भयानक जानवर है! उसका नाम लेते ही मेरी आँखों के सामने अँधेरा छाने लगता है, चक्कर सा आने लगता है।

धोंडण्णा : (अंदर आकर) अरे, अरे! यह क्या हो रहा है! ज्योतिषीजी, सीना क्यों पीट रहे हैं? क्या हो गया ऐसा?

कोंडण्णा : दोस्त, आखिरकार मुझे लड़ाई पर जाने का कठोर आदेश हो ही गया। अब आठ दिनों के अंदर-अंदर मुझे घोड़े पर बैठना सीखना पड़ेगा। जिस चांडाल ने माधवराव के पास मेरी चुगली की है उसका सत्यानाश हो!

धोंडण्णा : और उसका भी सत्यानाश हो जिसने माधवराव के पास मेरी चुगली की है। दोस्त, लड़ाई पर जाने का आदेश मेरे नाम भी निकला है। थोड़ी-बहुत पोथी-पुस्तक पढ़कर हम दादा साहब के पुजारी हो गए, पर उससे पहले हम शनिवारवाड़े के मुदपाकखाने में रसोइया थे। बस, उसी पुरानी बात को उकेरकर हमें सेना में रसोई बनाने के लिए भेजा जा रहा है। राव साहब मुझसे जलते हैं। तभी न मेरे शास्त्रीपन का ऐसा भद्दा मजाक उड़ाया उन्होंने। जब से यह खबर आई है, मैं अधमरा सा हो गया हूँ।

कोंडण्णा : पर इसी से मेरी जान में जान आ गई है। तुम जैसे प्रिय मित्र को यहाँ अकेले ही छोड़कर जाना मुझे अखर रहा था, पर अब लड़ाई पर जाना मुझे इतना भारी न लगेगा। चलो, साथ-साथ लड़ाई पर जाकर साथ-साथ ही मरेंगे।

धोंडण्णा : तभी मैं सोच रहा था कि यह काम तुम्हारा ही होगा। तुम्हें मरना भी होगा तो भी मुझे साथ लिये बगैर थोड़े न मरोगे! कोंडण्णा, अब साफ-साफ ही पूछता हूँ तुमसे, क्या तुम अकेले में माधवराव की चापलूसी नहीं कर रहे थे न! उस समय तुमने यह बात माधवराव के कानों में डाली होगी कि मैं दादा साहब के साथ कुछ षड्यंत्र कर रहा हूँ। सच-सच बताओ वरना गला घोंट दूँगा तुम्हारा।

कोंडण्णा : अरे-अरे, तुम क्या कर रहे हो मित्र! मान भी लिया जाए कि मैंने चापलूसी की है तो भी उस छोटी सी बात के लिए तुम मेरा गला घोंट दोगे? न्याय-अन्याय का तो कुछ विचार करो। अच्छा, छोड़ दो अब ये सारी बातें। देखो, हम दोनों अब एक ही संकट में फँसे हैं। पिछली सारी बातें भूलकर, हम दोनों एक साथ रहेंगे तो आगे का रास्ता भी किसी तरह सूझ ही जाएगा। दादा साहब की सहायता से पेशवा को राजगद्दी पर बैठाने-उतारने के काम भी हम कर चुके हैं। फिर एक बार दादा साहब के कान भर देते हैं। शायद इसी से लड़ाई की बला को टाल सकें।

धोंडण्णा : ना-ना! अब वह संभव नहीं होगा। मुहिम पर तो जाना ही पड़ेगा। और मुहिम में जाने में भी ऐसा कोई डर नजर नहीं आता। उलटे कभी-कभी वहाँ ऐसा मजा आता है जो पूरी जिंदगी रसोई में बिताने पर भी न आए। डर मुहिम पर जाने में नहीं है वरन् लड़ाई पर जाने में है। वह टालने का एक बड़ा ही नामी उपाय सोचा है मैंने। कम-से-कम साल भर तो हम बुंदेलखंड और गोकुल-वृंदावन तक ही रहेंगे। तब तक तीर्थक्षेत्र, लूटमार, गोप-गोपी यही सब चलता रहेगा। मजे-ही-मजे होंगे सैनिकों के। उसके बाद कहीं आएगी दिल्ली की और फिर लड़ाई की बारी। तब हम पीछे से चुपचाप रफूचक्कर हो जाएँगे। यह भी निश्चित ही है कि जैसे ही माधवराव की सेना दिल्ली की लड़ाई में जुट जाएगी, यहाँ शनिवारवाड़े में दादा बगावत करेंगे। और यह भी निश्चित है कि जैसे ही वे बगावत करेंगे, अपने सारे चेलों को वापस पुणे में बुला लेंगे। इसलिए अब तुम उठो और सच्चे जागीदार की तरह तलवार कसकर घोड़े पर चढ़ो।

कोंडण्णा : क्या कह रहे हो? तलवार कस लो। घोड़े पर चढ़ जाओ! अरे, शायद कैलाश पर्वत पर किसी-न-किसी तरह चढ़ जाऊँ, क्योंकि वह स्थिर है, पर तेजी से दौड़ते घोड़े पर सवारी करूँ! कैसे होगा भई यह? और वह भी आठ दिनों के अंदर सीखना है।

धोंडण्णा : अरे, डरते क्यों हो? मैं जो हूँ यहाँ। मैं सिखा दूँगा तुम्हें घोड़े पर सवारी करना। तुम तो भली-भाँति जानते हो कि शिकार के समय तलवार चलाने और घोड़ा दौड़ाने में मैं दादा साहब तक से नहीं हारता। मुझे भरपूर पगार दोगे तो तुम्हें पाँच दिन में घुड़सवारी में माहिर कर दूँगा। उठो, उठो! अब रोकर क्या होगा?

पगली : (अचानक आकर) अरे, इस घर में कोई पुरुष है भी या नहीं? दैया री! यहाँ तो औरतों का ही जमघट लगा है।

कोंडण्णा : अरे, यह तो वही पगली है। धक्के मारकर निकाल बाहर करो इस मुसीबत को।

धोंडण्णा : जरा रुक जा। कहते हैं कि इस पगली को पानीपत में भूत बाधा हुई है और इसी रौ में कभी-कभार किसीका हाथ देखकर, भूत-भविष्य एकदम ठीक-ठाक बताती है। चलो, हम भी देखें, यह क्या कहती है हमारा हाथ देखकर!

पगली : (नाचती हुई विभिन्न क्रिया-कलाप करती है।)

सोनपत-पानपत। ले डूबा हमारी पत।

पादशाह हिंदूपत। ले ले इसका बदला तो तू।

पर यहाँ कहने से क्या फायदा? यहाँ तो सिर्फ औरतों का ही जमघट है। अरे-अरे, मत रो मेरी गुड़िया! (कोंडण्णा के मुँह पर हाथ फेरती है।)

कोंडण्णा : चल हट, जा परे।

धोंडण्णा : बहनजी, आपको चावल और पैसे देंगे। जरा हमारा हाथ देखकर हमारा भविष्य तो बताइए।

पगली : हाँ-हाँ, क्यों नहीं! दिखाओ अपने हाथ। (दोनों के एक-एक हाथ को पकड़कर) पर यह क्या? कैसी अशुभ बात! तुम्हारे हाथ की चूड़ियाँ कहाँ गईं, किसने तोड़ी? चूड़ीवाले हाथ और चूड़ी नहीं! कौन देखेगा ऐसे कुलक्षणे हाथ! अच्छा, तुम्हारा माथा ही देखें हाय! (चीखकर) माथा भी सफेद-बिना बिंदी का! किसने पोंछी तुम्हारी बिंदिया? ( धोंडण्णा को) मेरी अच्छी गुड़िया! चुप हो जा, चुप हो जा! अरे, कैसी औरत है तू?

कोंडण्णा : अब एक झापड़ लगा दूँगा! तुमने मुझे औरत कहा, कोई बात नहीं, पर हमारे चट्टान जैसे चौड़े हट्टे-कट्टे धोंडण्णा शास्त्री को भी औरत कहती हो तुम! यह देख तगड़ा मरदाना हाथ¨¨

पगली : निगोड़े, इतना ही गरूर है अपनी ताकत पर तो आजमाके देख उस तेरे बाप पर, नजीब पर। उस बँगठा पठान पर, सादुल्ला रोहिले पर! पर अगर अपने हाथ दिखाना चाहते हो तो उनमें चूड़ियाँ ही भरनी होंगी। (कोंडण्णा को) अरे लो, तुम तो हाथी पर बैठ गए। पेशवा के सरसेनापति तुम्हें हौदे में बैठाकर फूलमाला पहना रहे हैं। तोपों की सलामी हो रही है। तुम्हारे सम्मान में (चौंककर) पर यह क्या? अरे, भागो-भागो! आग! आग! तुम दोनों ही उस आग में जल रहे हो। कीड़े-मकोड़े झुलस रहे हैं। बाप रे! धमाके से फट गया सिर और उसमें से मगज बाहर आया! उइ माँ! जल जाओ, जल जाओ सालो! जिस जान को इतनी हिफाजत से रखते हो, उसके साथ जल मरो।

कोंडण्णा : (भय से कातर होकर) धोंडण्णा¨¨

धोंडण्णा : (भयभीत होकर) कोंडण्णा¨¨

कोंडण्णा : अरे, डर गए तुम?

धोंडण्णा : (काँपते हुए) ना, ना! डरा नहीं मैं, पर हाँ, ऐसी पिशाची को देखकर डर तो लगेगा ही न थोड़ा, पर उसकी बक-बक पर क्या ध्यान देना! कहती है कि हम दोनों जल रहे हैं। पर पगले, मेरी जेब में भरी हुई चिलम पड़ी है। एक चिनगारी तक नहीं उटी उसमें से। ऐसे ही कहा होगा उसने। चलो, उठो। हिम्मत करो। अब डरेंगे तो काम से जाएँगे। हाँ, खानदानी जागीरदार की तरह तनकर खड़े हो जाओ। वह दुशाला बाँध लो कमर में। हाँ, अब जमीन को थर्राते हुए मेरे पीछे-पीछे चले आओ और घोड़े पर बैठना सीख लो।

कोंडण्णा : ठीक है। पर यार, कहाँ सिखाओगे मुझे घुड़सवारी? खुले में नहीं सिखाना। कहीं गिर गया तो बच्चे तक मखौल उड़ाएँगे मेरा। इतने जोर से हँसेंगे मुझपर कि शनिवारवाड़े में बैठे पेशवा तक सुन लेंगे। देखो, वह सही जगह है, वहीं पर सिखाओ मुझे। घोड़ा भी बहुत ऊँचा न हो। तब तक मैं जागीरदार की तरह शान से चलने का अभ्यास करता हूँ। (धोंडण्णा जाता है।) आहा! यह दुशाला खूब जँच रहा है मुझपर, मगर लड़ाई पर जाते वक्त, जागीरदार कमर में खंजर खोंसते हैं। यह क्या पड़ा है यहाँ खंजर की तरह? ( उठाकर) अरे बेलन? बहुत अच्छे! सीखते समय हाथ कटने का डर नहीं। सुना है कि नाई के बच्चे भी शुरू-शुरू में कुंद उस्तरे से मटके पर हाथ चलाते हैं। हाँ, ऐसे तनकर चलना चाहिए। वाह, क्या चौड़ा सीना है! वाह मेरे सीने! और पैरो, तुम जुझारू जागीरदार के पैर हो। (जोर से पटककर) हाँ, ऐसे। (शान से चलता है। इतने में भीतरी परदे की तरफ धोंडण्णा घोड़े को साथ लिये दिखता है।)

धोंडण्णा : आइए, आइए जागीरदार! वाह! ठेठ भाऊ साहब की तरह चलते हो यार, पर इस दुशाले में क्या लगा रखा है तुमने?

कोंडण्णा : हाँ-हाँ, होशियार! कहीं हाथ न कट जाए! मेरा खंजर है यह, खंजर। सचमुच के खंजर से पाला पड़ने तक इसी खंजर से मराठों के सारे शत्रुओं के सीने चीरके रख दूँगा, पर यह कैसा घोड़ा लाए हो तुम?

धोंडण्णा : तुम्हें सवारी करने में आसानी हो, इसलिए छाँटकर नाटा और सीधा-सादा घोड़ा लाया हूँ। बहुत ही नाटा है क्या?

कोंडण्णा : नाटा! क्या बात करते हो, यार? यह नाटा लग रहा है तुम्हें? मुझे तो इतना ऊँचा लग रहा है कि जाँबाज घुड़सवार भी इतनी ऊँचाई देखकर गश खाकर गिर पड़े। यह कोई घोड़ा है या जहाज का मस्तल है या नारियल का पेड़? बलि राजा को पाताल लोक में घुसेड़ते समय वामन भगवान् की पीठ की रीढ़ भी ऐसे ही आकाश में उठी होगी। दया करो मेरे दोस्त। बस, ऐसा घोड़ा लाओ कि जिसपर से मैं गिरा भी तो मेरे पैर आसानी से जमीन तक पहुँच जाएँ। और वह बिदककर बेतहाशा दौड़ने भी लगे तो मैं उलटा लटककर उसके पैरों के बीच से खिसक सकूँ। कोई-न-कोई नस्ल होगी ही ऐसे घोड़े की!

धोंडण्णा : ऐसी एक ही नस्ल है घोड़ों में!

कोंडण्णा : है न!

धोंडण्णा : है तो सही, पर उसे गधा कहते हैं। अगर तुम्हें उसपर सवारी न करनी हो तो इसी घोड़े पर घुड़सवारी सीखनी पड़ेगी। हाँ, चलो, मेरा हाथ पकड़ो और कूदकर बैठ जाओ घोड़े पर।

कोंडण्णा : (कूदकर घोड़े पर बैठने की कोशिश करता है। फिसलकर गिर जाता है।) देखो मेरे बाप, कुछ तो सुनो मेरी! मेरे दादाजी घोड़े पर सिर्फ एक बार, वह भी अपनी बारात में बैठे थे। तब वे जिस यक्ति से घोड़े पर बैठे थे वही युक्ति सबसे अच्छी है। नौसिखिए भी उसे आसानी से आजमा सकते हैं।

धोंडण्णा : डरपोक कहीं का! चाहे जिस युक्ति से हो, पर बैठो तो सही घोड़े पर! बताओ तो, कौन सी युक्ति है वह?

कोंडण्णा : अभी बताता हूँ। (अंदर जाकर तिपाई ले आता है।) हाँ, धोंडण्णा, जरा इधर तो हो जाना। खबरदार जो दाँत दिखाकर मेरी हिम्मत पस्त की तो! इसी खंजर से चीरके रख दूँगा तुम्हें। मेरे दादाजी का घोड़े पर चढ़ने का रकाब है यह। इसमें हँसने जैसी क्या बात है? हाँ, देखो, यह चढ़ा मैं घोड़े पर। (घोड़े पर चढ़ता है, धोंडण्णा तिपाई को दूर हटाता है।) अरे, अरे, कहाँ ले जा रहे हो वह रकाब? देखो, मैं गिर रहा हूँ। धोंडण्णा रे धोंडण्णा, ले आओ तिपाई को।

धोंडण्णा : जागीरदारजी, राम-राम करो अब अपने दादाजी के रकाब को। अपना ध्यान रखो। यह घोड़ा भागा। हट! हट!

कोंडण्णा : अरे कम-से-कम शुभ मुहूर्त पर तो हट बोलो। एक पल रुको। एक पल बाकी है शुभ घड़ी में कलमुँहे! भगा दिया न घोड़े को! बचाओ, बचाओ, गिरा जा रहा हूँ मैं। (घोड़े की गरदन कसकर पकड़ लेता है। धोंडण्णा'हट' कहकर घोड़े को मारता है। तभी परदा गिरता है।)

: छठवाँ दृश्य :

[स्थल :यशवंतराव का अंत:पुर।]

नंदिनी : आज रावराजे यशवंतराव चढ़ाई पर चले जाएँगे। उनके बिछोह के विचार से उनकी नवोढ़ा पत्नी सुशीला व्याकुल है। देखी नहीं जाती उसकी यह स्थिति। क्यों न हो, हाल ही में तो हुआ है उसका विवाह और अभी पति उसे छोड़कर लड़ाई में जा रहा है। अब किस तरह सांत्वना दूँ उसे! रावराजे के आने तक इसके साथ मनचाही बात कर इसका ध्यान बँटाना पड़ेगा। (सुशीला आती है।) सुशीला, अभी तक नहीं आए रावराजे! आ जाएँगे। चढ़ाई के प्रस्थान का दूसरा नगाड़ा भी तो नहीं बजा अभी। मुँह अँधेरे ही पहली बार नगाड़ा बजा था। तभी सेना को सज्जित करने गए थे वे। सेना को तैयार भी तो करना है। चाहे जो हो, चढ़ाई पर चलने का तीसरा नगाड़ा बजने से पहले जरूर आएँगे वे यहाँ। तुम ही तो अपनी दीदी की, सुनीता के धैर्य की तारीफ करती हो। फिर तुम स्वयं क्यों धैर्य खोती जा रही हो? सुनीता दीदी की छोटी बहन हो। उसी की तरह धीरज रखो। सच सुशीला, तुम जब से यहाँ, पुणे में आई हो तब से यानी पिछले दो-तीन महीनों में हमारी इतनी गहरी दोस्ती हुई है, पर मैंने तुमसे कभी ये न पूछा कि तुम्हारी दीदी की और तुम्हारी यशवंतरावजी से कैसे पहचान हुई? तुम्हारे पहले तुम्हारी दीदी से ही विवाह हुआ था न यशवंतरावजी का! तब तुम्हारी आयु कितनी थी? सबकुछ बताओ न सखी मुझे!

सुशीला : प्यारी नंदिनी, मेरी छोटी सी जिंदगी का वह छोटा सा इतिहास कभी से मेरे मन में उठ रहा है। तब मेरी दीदी थी पंद्रह-सोलह की और मैं रही होऊँगी दस साल की। यशवंतरावजी, सरदार शिंदेजी के यहाँ घुड़सवार थे। उनका और दीदी का विवाह हुआ और साल भर ही में पानीपत की लड़ाई हुई। मुझे मेरे पिताजी ने मेरी मौसी के पास छोड़ा। फिर वे और यशवंतरावजी सरदार शिंदेजी के घुड़सवारों में चले गए और मेरी सुनीता दीदी और माँ राजस्त्रियों की परिचारिका बन गईं। वहाँ पानीपत में प्रलय हो गया। पिताजी लड़ाई में काम आए। यशवंतराव घायल हो गए। गिलचे पठानों ने स्त्रियों पर हमला किया। तब उस मुठभेड़ में मेरी माँ और सुनीता दीदी भी शायद मारी गईं या फिर लापता हो गईं। लड़ाई में घायल मेरी दीदी ने तभी एक घुड़सवार के हाथों मेरी मौसी को संदेशा भेजा था कि वे उनकी आशा छोड़ दें और अगर यशंवतराव लड़ाई से लौट आएँ तो मेरी यानी उसकी छोटी बहन का विवाह उन्हीं से करा दें। उसने अपनी पहचान के लिए उस घुड़सवार के साथ यह अँगूठी भी भेजी थी। मौसी को वह अँगूठी और संदेशा मिल गया, पर दस साल तक यशवंतरावजी लापता थे। बाद में अपनी शूरता से 'रावराजे' खिताब पाकर वे अचानक ही घर आए। तब मौसी मरणोन्मुख अवस्था में थी। फिर भी उसने यशवंतरावजी को तुरंत पहचान लिया। दीदी का संदेशा सुनाकर मौसी ने मेरा हाथ उनके हाथ में दिया और उसने अंतिम साँस ली। अब मेरे प्रियतम भी मुझे छोड़कर रण में जा रहे हैं। पहले मेरी दीदी को छोड़कर और आज मुझे भी छोड़कर वे पानीपत जा रहे हैं। यह भी उसी तरह की भयानक लड़ाई होगी¨¨

पिया छोड़के मुझे, जंग में है जा रहा,

खयाल विरह का सताए सखि पल-पल मुझे।

दे दूँ उसे मुसकराके कैसे विदा,

मन रोए जा रहा हाय जार-जार!

पर सखि वह देखो, रावराजे यहीं आ रहे हैं। तुम तनिक अंदर तो हो जाओ। (नंदिनी चली जाती है। यशवंतराव आते हैं।)

यशवंतराव : सुशीलाजी, ओ सरदारनी, सरदार को शोभा दे, ऐसी उत्तम विदाई दो अब अपने पतिदेव को! चढ़ाई पर जानेवाली सारी सेना शस्त्रास्त्रों से सज्जित हो गई है। एकाध घंटे की अवधि में प्रस्थान के लिए तीसरी बार नगाड़ा बजेगा और तब हमें चढ़ाई के लिए कूच करना होगा उत्तर हिंद की तरफ! बस, बीच का बचा समय तुम्हारा और मेरा। आ जा मेरी प्राणसखि, वीर कर्तव्य पर जाने से पहले घड़ी दो घड़ी प्यार की मधुर बातें कर लें। आ जाओ। हाँ, वैसे ही खड़ी रहो। ओह! एक खुशखबरी देना तो भूल ही गया मैं। प्यारी, तुम्हारी खोई हुई दीदी फिर से मिल गई है मुझे। सचमुच अगर तम्हें भी दिखा दूँ तो क्या दोगी मुझे?

सुशीला : आप तो सचमुच अनोखी बात बता रहे हैं, प्राणनाथ!

यशवंतराव : अनोखी क्यों भला, स्वयं ही देख लो अपनी दीदी को। फिर तो विश्वास करोगी? इधर इस तरफ आ जाओ। (दर्पण दिखाते हुए) देखो, देखो अपनी दीदी को। सुघड़ ठुड्डी! मुसकराता मुखकमल! देखो, देखो, लगी न लजाने! हट गई दर्पण के सामने से! दिखा दी पीठ।

सुशीला : चलिए, हटिए जी! इस तरह किसीको धोखा देना अच्छी बात नहीं है।

यशवंतराव : वाह! बहुत अच्छे! धोखा तुम मुझे दे रही हो। सच, तुम्हारी इस गुलाबी रंगत में तुम्हारी दीदी पूरी तरह से रची-बसी है। खिल-खिल रही है। मानो काँच के सफेद प्याले में गुलाबी मदिरा छलक रही हो या फिर आसमान में उषा हँस रही हो।

पद

जैसेकि उषा आसमान में खिली हो

मदिरा के चषक में मय छलक रहा हो,

मोती में लाल कांति झलक-झलक रही हो।

नवयुवती, तव तनुलता महक-महक रही है।

विरत तपस्या भी इस रतिसुख पे ललचाए॥

सुशीला : क्या सचमुच मैं दीदी जैसी, पानीपत में काम आई आपकी उस वीरांगना की तरह दिखती हूँ?

यशवंतराव : हूबहू, वैसी न भी दिखती हो तो क्या हुआ? पानीपत में सदाशिवरावभाऊ पेशवा, जनकोजी या यशवंतराव पवार जैसे लोगों ने वीरगति प्राप्त की, पर कई छद्मवेशी उनका स्वाँग भरकर आए और दावा करने लगे कि वे सचमुच के सदाशिवरावभाऊ जनकोजी या यशवंतराव पवार हैं। वे भी तो हूबहू उन्हीं की तरह नहीं थे। इसी तरह तुमने अपनी दीदी का छद्मवेश धारण किया है। फर्क इतना ही है कि इन सारे छद्मवेशियों में सुनीति का छद्मवेशी परले दरजे का चालाक निकला। वह सुनीति का ही सरदार होने का हक ले बैठा।

सुशीला : झूठ नहीं बोलने दूँगी जी। माना कि मुझमें दीदी जैसा रूप या उसके जैसे गुण नहीं हैं, पर मैंने उसका छद्मवेश धारण करने की बिलकुल कोशिश नहीं की। अजी, मैं तो उसकी प्रतिनिधि हूँ। देख लीजिए, उसकी यह अँगूठी! इसके साथ-साथ उसने अपने सारे अधिकार मुझे दे दिए हैं।

यशवंतराव : अच्छा, तो उस वीरांगना को जो शोभा दे, उसी तरह अपने अधिकारों और कर्तव्यों का पालन करो। मैं पानीपत जा रहा था, तब उसने मुझे हँसते हुए विदा दी थी। अब फिर से वैसा ही समय आ गया है। मैं पानीपत का बदला लेने जा रहा हूँ। इस समय भी प्राणसखि, उसी तरह विदा दो तुम। वीरांगना की तरह हँसते-हँसते मुझे लड़ाई पर भेजो।

सुशीला : वीर सरदार, मैं वीरांगना की तरह ही आपको चढ़ाई पर भेज रही हूँ, पर इस समय मैं मुसकरा नहीं सकती; क्योंकि आपने मुझे ठोक-पीटकर वीरांगना बना दिया है। मैं तो हूँ एक अंगना-अबला ही। साजन मेरे, आपके जाने की बात सोचते ही मेरा दिल बैठने लगता है। और इसपर कोई बस नहीं मेरा। मेरे कानों को बार-बार आपकी 'सुशीला' यह प्यारी पुकार सुनने की आस है। आँखों को आपको बार-बार निहारने की आस है और मन को आपके प्यार की। तीनों तरह की आस आपके जाते ही निराश हो जाएँगी। भला कैसे सह पाऊँगी मैं उस तीव्र निराशा को! मेरी आँखों में उभरता पानी आज आप पोंछ रहे हैं। कल से कौन पोंछेगा वह? और फिर जिन्होंने अपने साजन का प्यार जी भरकर लूटा है, शायद वे उन्हें हँस-हँसकर दूर देश भेज भी दें, पर मैंने अभी तक प्रणय का पूरा परिचय भी नहीं पाया। अपने प्रणयराज को मैं कैसे मुसकराकर विदा कर सकती हूँ! नहीं, नहीं होगा यह मुझसे!

पद

दूर देश तुम जाते प्रियतम,

अकुलाते हैं मेरे प्राण।

जोबन की मदिरा का चाहूँ करना ज्यों पान

बिरहा के पैरों से लुढ़क जाए हाय!

प्रियतम, आपको देने के लिए मेरे पास खुशी के आँसू नहीं हैं बल्कि धीमे-धीमे झरनेवाले आँसुओं से भरा यह हृदय का प्याला है। बस, यही है मेरी आपको भेंट। बाकी देने के लिए कुछ भी नहीं बचा मेरे पास।

यशवंतराव : सुशीला, बिछोह के कारण मेरे दिल में भी दुःख की बाढ़ सी आ रही थी, हास-परिहास का बाँध डालकर अब तक किसी तरह मैं उसे रोके हुए था, पर अब वह बाढ़ बाँध को ढहाकर मुझे भी डुबोने लगा है और उससे उबरने का कोई उपाय भी नहीं है। तुम्हें छोड़कर जाना मुझे भी बहुत कठिन लग रहा है, पर अगर इसलिए मैं यहीं रह जाता हूँ तो¨¨

सुशीला : ना, ना! मेरे बहादुर प्रियतम! ऐसे बोलना भी पाप है। अगर आप यहाँ रहने की सोचें भी तो मैं रहने न दूँगी आपको। आपके वियोग के कारण मेरे नैनों में आँसुओं की बाढ़ आएगी, पर उससे क्या? पानीपत में म्लेच्छों ने हिंदुओं को पछाड़ा है। [उसका प्रतिशोध लेना छोड़ हिंदू वीर घर में ही घुसे रहें , ऐसा जन-जन में हो और मन-मन में कहे तो लज्जा से मेरी आँखों से रक्त के आँसू निकलेंगे।] हम अबलाएँ आपको मुसकराकर लड़ाई के लिए विदा न कर सकें तो भी हे बलिष्ठ वीरो, जिस प्रकार भी हम विदा करें, उसी को स्वीकार कर आप कूच करें। शतद्रु-सिंधु की अपार बाढ़ को लाँघकर आगे निकल जानेवाले वीर अबलाओं के आँसुओं की सूत जैसी जल धारा तुम्हारा रास्ता क्या रोकेगी? पार करो हृदय की पीड़ा का यह चुहू भर पानी और जाओ भाऊ साहब का प्रतिशोध लेने, पानीपत का प्रतिशोध लेने जाओ और टूट पड़ो उन हृदयहीन म्लेच्छों पर!

यशवंतराव : शाबाश सुशीला! अब तुम अपनी दीदी की, एक वीरांगना की सच्ची प्रतिनिधि लग रही हो। (कूच का इशारा देनेवाला नगाड़ा बोलने लगा।) सुनो, नगाड़ा बजने लगा। अब कूच करने का समय आ गया। जाना ही पड़ेगा अब। प्यारी, अब छोड़ दो मुझे। जा रहा हूँ मैं।

सुशीला : रुकिए जरा, पंचारती कर लूँ! (पंचारती कर) अच्छा, हो आइए अब! पर प्राणनाथ, लड़ाई में भी सँभलकर रहिएगा। चढ़ाई के हर पड़ाव से मुझे अपनी खबर भेजते रहिएगा। एक घड़ी रुक जाइए। मुझे अपनी पगधूलि लेने दीजिए। और अब आपकी सुशीला की यह आखिरी विदा-

पतिदेव लीजिए आखिरी वंदना मेरी,

मुझ दासी पर बनी रहे कृपा आपकी।

पतिदेव, लीजिए आखिरी वंदना मेरी॥१॥

दूँ विदा, पर याद रहे यह स्नेह हमारा, प्रिय पतिदेव॥२॥

वीरश्री के वीर, वीरभद्र जले आपसे, पूज्य पतिदेव॥३॥

न देखिए पीछे मुड़कर, आगे का कदम रण में रखें पूज्य पतिदेव॥४॥

हिमालय पर हिंदू ध्वज गाड़िए हे वीर पतिदेव॥५॥

सती का व्रत ले निहारूँगी मैं राह, प्रिय पतिदेव॥६॥

आँसुओं से तर है यह विदा, पोंछिए आँसू प्रिय पतिदेव॥७॥

लीजिए यह वंदना, ऐ मेरे प्रिय पतिदेव॥८॥

[फिर एक बार नगाड़ों की ध्वनि। यशवंतराव हाथ से इशारा कर चले जाते हैं। परदा गिरता है।]

: सातवाँ दृश्य :

[चढ़ाई के कूच करने का इशारा देता नगाड़ा बज रहा है। मैदान के बीचोबीच ध्वज फहरा रहा है। उसके पास जाकर सैनिक रणसिंघे बजाते माधवराव पेशवा,महादजी,बिनीवाले,होलकर,यशवंतराव आदि सरदारों के साथ आते हैं।]

माधवराव : चोबदार, पौ फटते ही प्रस्थान का पहला नगाड़ा बजा था। क्या उसके साथ ही पूरी छावनी हड़बड़ाकर जाने की तैयारी करने लगी? क्या आपने देख लिया कि सब सज्जित हो रहे हैं या नहीं?

चोबदार : जी सरकार! उत्तर हिंद की चढ़ाई पर जाने के लिए मराठा सेना आतुर हो गई है। कूच का पहला नगाड़ा बजते ही दस हजारी, पाँच हजारी, एक हजारी, पथकों के सरदार सिर पर कलंगी, बदन पर कवच, हाथ में पटा, भाला, तलवार और कमर में दुशाला कसकर तथा रणशस्त्रों से सज्जित अपनी-अपनी सेना का निरीक्षण करने लगे हैं। अनगिनत घुडसवार सिर पर पगड़ी बाँधकर और सीने पर तमगे लगा, बरछी, कटार और बंदूकें सँवारकर खड़े हो गए। घोड़े की पीठ पर जरी-गोटेवाली चादर बिछाकर वे उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगे। उनके घोड़ों के पैरों में चाँदी के कड़े पहनाए हुए हैं। चढ़ाई पर जाने के लिए वे इतने आतुर हो गए हैं कि बेचैनी से जमीन पर पैर पटककर नाच रहे हैं। जगह-जगह पर हाथी झूम रहे हैं। हाथियों की पीठ पर हौदे सजाए जा रहे हैं। मोतियों और रत्नों की झालरों तथा माथे पर झूलते चित्र-विचित्र आभूषण उनकी शान में चार चाँद लगा रहे हैं। तोपखानों की हजारो-हजार जेजाला, सुतलीनाला, बोगुनी, दशघ्नी, शतघ्नी जैसी तोपें गाड़ियों पर सवार होकर यंत्र व्यूह की रचना कर रही हैं। सभी ध्वजधारी मार्गदर्शक जरी के गेरुए ध्वजों को ऊँचा उठाकर, सीना तानकर खड़े हैं। सिंध और सौराष्ट्र के व्यापारी और बनजारे सौदागर अपना-अपना माल ऊँटों, घोड़ों और बैलों पर लाद रहे हैं। घोड़ों पर जीन बिछाकर अग्रिम सेना के अधिकारी मोरचे पर चलने को तैयार हो गए हैं। जगह-जगह पर तरह-तरह के नगाड़े तथा रणसिंघे बज रहे हैं और वीरों को युद्ध पर जाने के लिए उकसा रहे हैं। अब पैदल सेना, घुड़सवार दल, तोपखाना, सैनिक, सरदार, हर कोई उत्तर हिंद की चढ़ाई के लिए कटिबद्ध हो गया है। हर मराठा के रक्त में वीर श्री, मन में पानीपत का प्रतिशोध और हाथ में तलवार चमक रही है।

माधवराव : बहुत अच्छे! सरदारो, हमने भगवान् के सामने माथा झुकाकर यह निर्णय लिया है। उत्तर हिंद की इस चढ़ाई का सेनापति पद हमने अपने जाँबाज सरदार गणेश कानडे को दिया है। चढ़ाई की देखभाल विसाजी पंत बिनीवाले करेंगे। सरदारो, एक लाख की यह सेना लेकर अब आप कूच कीजिए। म्लेच्छों के दाँत खट्टे कीजिए। पानीपत की लड़ाई भी कठिन ही थी, पर पानीपत के प्रतिशोध की यह लड़ाई लड़ना उससे भी कठिन है, महाकठिन है। पानीपत से पहले उत्तर हिंद में मराठों का दबदबा था, पर पानीपत की लड़ाई में हमारी सेना की हार हुई और तब से उत्तर हिंद में मराठों को नीचा दिखाया जा रहा है। नजीब खान बिलकुल साँप की तरह है। ऊपर से वैसा ही नरम, लचीला, लुका-छिपी खेलनेवाला। उसका दंश भी वैसा ही जहरीला है। कह नहीं सकते कि कब हाथ से फिसले और हमें डँस ले। पानीपत का हमारा कट्टर दुश्मन वही है। अगर बंगश और हाफिज हमारी राजनीति के लिए अनुकूल हुए तो उन्हें मंत्रबल से जकड़के रखना। उनका लाभ पूरी तरह से उठाना और फिर उन्हें साफ डुबो देना। शाह अब्दाली को सिखों का डर है, पर वह है जुझारू, साहसी, वीर। संभव है कि अटक पार कर वह अचानक ही बिजली की तेजी से हमारी सेना पर टूट पड़े। इस बार दिल्ली की राजनीति में एक बिलकुल ही नया शत्रु हमारे विरुद्ध उठ खड़ा हुआ है। वह है चालाक, घाघ अंग्रेज! वह अंदर-ही-अंदर पठान और रोहिलों की मदद कर रहा है। खुद बादशाह ही अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली बन गया है। चाहे युक्ति से हो चाहे शक्ति से, हमें एक को समर्थन देकर तथा दूसरे को दबाकर बादशाह को उससे अलग करना है। कहीं बादशाह अंग्रेजों के ही साथ रहा तो वे उसे आगे कर मराठों के विरोध में हमला मचाएँगे। दिल्ली में घुस जाएँगे। अंग्रेज की ताकत धीरे-धीरे बढ़ रही है। अगर वह दिल्ली में घुस गया तो हम उसे उखाड़ न सकेंगे, पर अंग्रेज मौके की नजाकत को खूब समझता है। मराठों की पूरी सेना के साथ लड़ने वह आज ही मैदान में नहीं उतरेगा। फिर भी वह जूझने पर आमादा हो ही गया तो उसका पूरी शक्ति से मुकाबला करना। जो भी सामने आए, उसीको काटकर रख देना। वह देखिए, शुक्रतारा। पानीपत में जब भाऊ साहब ने तलवार खींची और 'मारो-काटो' चिल्लाकर गिलचों पर वार करने के लिए मैदान में कूद पड़े तब उनकी आँखों में भी गुस्से का ऐसा ही तेज था। उसी तेज को लेकर यह शुक्रतारा आप लोगों की तरफ निहार रहा है। देखिए, हिंदू पदपादशाही का यह हिंदू ध्वज। इसीके सम्मान की रक्षा के लिए भाऊ पानीपत में शहीद हुए थे। आज मराठों के इतिहास का अंतिम वाक्य है-'मराठा पानीपत की लड़ाई हार गए।' यह आखिरी वाक्य इसी तरह बना रहा तो हिंदुओं की जो भी पीढ़ी यह वाक्य पढ़ेगी, उसका मुँह उलटे तवे जैसा स्याह पड़ जाएगा। मुसलमानों के सामने लज्जा से झुक जाएगा। इसलिए आज पानीपत का बदला ऐसी मर्दानगी से तो लो कि मुगल तख्त सदा के लिए मिट जाए और इतिहासकारों को फिर से लिखना पड़े कि 'मराठा' पानीपत की लड़ाई हार गए थे, पर आखिर में उन्होंने दिल्ली की मुगलिया सलतनत को खाक में मिलाकर पानीपत का युद्ध जीत लिया। अगर हमने यह यश पा लिया तो हम और आप छत्रपति शिवाजी के सच्चे वंशज कहलाएँगे। इसी आशा के साथ छत्रपति का यह हिंदू ध्वज आज हम आपके हवाले कर रहे हैं। अब इसका मान और शान आपके हाथ में है।

[सभी सरदार'हर-हर महादेव'का जयघोष करते हैं और हिंदू ध्वज को खड्ग की वंदना देते हैं।]

बिनीवाले : हम सभी सरदार मन-ही-मन यह प्रण करते हैं कि जिस किसीने पानीपत में मराठों के विरोध में तलवार चलाई, दगाबाजी की, उसी का समूल नाश कर दें। समूची मुगलिया सलतनत को हिंदूमय कर भाऊ साहब पेशवा की अतृप्त इच्छा पूरी करें। पानीपत का बदला लेंगे तभी दक्षिण में लौटेंगे। हमारे सिर-माथे पर है शिवछत्रपति का आशीर्वाद, शरीर में है श्रीमंत पेशवाजी की वीर श्री और हाथ में है हिंदू पदपादशाही का यह गेरुआ जरीपट का ध्वज। ऐसे में अटक' के पार भी बेखटके जाएँगे। सूबेदार मल्हार राव होलकर हमेशा कहते थे कि हिंदुओं से मुसलमान होकर धावा बोल देंगे।

यशवंतराव : मैं तो कहता हूँ कि अटक पार करते ही हिंदुओं में मुसलमान हो जाने का जो डर है, उसे भी हम झूठा साबित करेंगे। अगर रूमशाम के अहिंदू अहिंदू रहकर ही सिंधु नदी को पार कर हिंदुस्थान में आ सकते हैं तो भला हिंदू ही हिंदु रहकर अटक पार कर रूमशाम पर हमला क्यों नहीं कर सकते? हमने अपने हाथों हिंदुत्व के पाँवों में अटक पार न करने की, सागर पार ने करने की, अहिंदुओं की रोटी न खाने की बेड़ी डाली हुई है। अगर हम इसे तोड़ दें तो हम हिंदू भी बने रहेंगे और रूमशाम पर हमला भी बोल सकते हैं।

'सबै भूमि गोपाल की, वामे अटक कहाँ! जाके मन में अटक है वो ही अटक रहा।'

माधवराव : शाबाश वीरो! इसी निष्ठा से समर में जी-जान से लड़ो। इसके बाद जो भी सफलता या असफलता मिलेगी उसे ईश्वर की मरजी समझकर कबूल करो। उसके लिए आप और हम दोषी नहीं। चलिए, यही ठानकर इस शर्त का बीड़ा उठाइए, गर्जना कीजिए 'हर-हर महादेव' और हमारी विदा लीजिए।

[नगाड़े,रणसिंघे बजने लगते हैं। सरदार बीड़े लेकर'हर-हर महादेव'का घोष करते हैं। परदा गिरता है।]

दूसरा अंक

: पहला दृश्य :

[नजीब खान,हाफिज रहमत,अहमद खान बंगश दिल्ली के बादशाही खल्बतखाने में बैठे हैं।]

नजीब खान : रोहिलों के मातबार सरदार हाफिज रहमत खान और पठान सरदारों के सरताज अहमद खान बंगश साहब! पानीपत की घमासान लड़ाई में भाऊ साहब पेशवा के डर से शाह आलम बादशाह दिल्ली से रफूचक्कर हो गए। उस बात को अब दस साल हो गए। फिर भी बादशाह शाह आलम इलाहाबाद में ही टिके हुए हैं। पानीपत में मराठों को जबरदस्त मुँह की खानी पड़ी और अहमदशाह अब्दाली की फतह हो गई, पर उससे भी दिल्ली का इंतजाम न हो सका। मुगल सलतनत के इस खादिम ने बादशाह की गैरहाजिरी में भी शमशीर के जोर पर दिल्ली में इसलामी झंडा फहराए रखा, पर उन मराठों ने पानीपत की पराजय को हजम कर लिया है और अब मुँहजोर होकर उन्होंने फिर से उत्तरी हिंद पर हमला कर दिया है। उनकी राह में मैंने जाटों का अडंगा लगाया है, पर उधर इलाहाबाद में मारे डर के बादशाह मराठों की ही मदद लेना चाहते हैं। अगर बादशाह फिर से मराठों के हाथ लग गए तो हममें से जिन्होंने भी पानीपत में उनसे दुश्मनी मोल ली है, उन सबका खात्मा हो जाएगा, इस बात को ध्यान में रखो। अब आप ही बताइए कि इस संकट को कैसे टाला जाए?

अहमद खान : नजीब खान साहब, आप तो इसलामी सलतनत के इज्जतदार तथा ताकतवर सरदार हैं। आपकी बाजुओं में मुगलिया तख्त पर बादशाहों को चढ़ाने और उतारने की ताकत है। फिर भला आप क्यों डरते हैं मराठों के नाम से? और फिर जब तक मेरे पचास हजार पठान जिंदा हैं तब तक मरहट्टे हमारा बाल भी बाँका नहीं कर सकते। दिल्ली का नामर्द मुगल बादशाह अगर सचमुच ही मराठों से जा मिला तो मैं भी दिल्ली के तख्त से मुगल खानदान को हटा दूँगा। और दिल्ली के इसलामी तख्त पर पठानों के सरताज शाह अब्दाली को बैठाऊँगा या फिर अपनी पठानी बादशाहत ही कायम करूँगा। वैसे भी पानीपत पठानों ने ही जीता है। इसलिए यह बादशाहत भी असल में पठानों की ही है।

हाफिज रहमत : खामोश! बंगश खान, जब तक मेरे हाथों में रोहिलों की शमशीर चमकती है तब तक दिल्ली में अगर बादशाहत होगी तो सिर्फ रोहिलों की, तुम पठानों की नहीं! पानीपत की लड़ाई हम रोहिलों ने जीती है, पठानों ने नहीं।

नजीब खान : सच तो यह है कि पानीपत की लड़ाई अब तक किसीने भी नहीं जीती है। जब तक मराठों में पानीपत का बदला लेने की हिम्मत है तब तक पानीपत की जंग आप लोगों ने जीती ही नहीं। इसलिए, ओ सच्चे दीनदार मुसलिम बहादुरो! हमें आपसी झगड़े छोड़कर, एक होकर काफिरों को पूरी तरह से कुचल देना चाहिए।

बंगश : अगर ऐसी ही बात है तो मैं भी आपसे एक सवाल साफ-साफ पूछना चाहता हूँ। सुना है, मराठों की मदद के लिए आपने एक छोटी सी फौज भेजी है। क्या यह बात सच है? पहले एक बार मराठों ने आपको कैद कर फिर जिंदा छोड़ दिया था। और तब से आप मराठों से खौफ खाते हैं। इसलिए हमें शुबहा हो गया है कि अंदर-ही-अंदर आपने होलकरों की सहायता से उनसे सुलह कर ली है और इस तरह आप अपने आपको बचाना चाहते हैं। आपका छल-कपट दुनिया भर में मशहूर है।

नजीब खान : मेरे प्यारे बंगश खानजी, मैंने कभी कोई छल-कपट किया भी तो सिर्फ इसलाम के दुश्मनों से। मैंने अपने आपको होलकर का मुँहबोला बेटा कहलवाया, तभी न मैं उनके दाँत खट्टे कर सका! इसी तरह वैसे ही मैंने मुट्ठी भर फौज भेज दी कि इस तरह और मुझे अपना दोस्त समझकर बेखबर होकर मेरी तरफ आएँगे। और पहले जैसे मैंने दत्ताजी शिंदे को बंद किया, वैसे ही इस मराठा फौज को फुसलाकर फिर जैसे भोले-भाले बेखबर जानवर को शेर की गुफा में लोमड़ी ले जाती है, वैसे ही मैं मराठों को आपके शिकंजे में फँसा दूँगा। अब रहा बादशाह का प्रश्न। जैसे ही मैंने सुना कि उन्होंने मराठों को बुलाया है, मैंने अंग्रेजों को उकसाया। उन्होंने बादशाह को मराठों के चंगुल से बचाने का आश्वासन दिया है। इससे सुजाउद्दौला का भी हौसला बढ़ा है। अत: जब तक जाटों ने मराठों को उलझाए रखा है, आप पूरी फौज के साथ उनपर हमला कीजिए। एक तरफ से अब्दाली, यहाँ आप-हम और नीचे से बादशाह के साथ सुजा और अंग्रेज। ऐसा हमला होने पर मराठों की चटनी पिस जाएगी।

बंगश खान : शाबाश! ऐ वफादार, शाबाश! बस, अपनी पचास हजार पठानों की फौज मैं अभी दोआब में ला खड़ी कर देता हूँ। मरहट्टे दिल्ली में काफिरशाही कायम करना चाहते हैं। उनको अभी पता चलेगा कि दिल्ली इसलामी शेर की माँद है।

हाफिज : इसके सामने आते ही मरहट्टे मेमने बन जाएँगे। मराठे¨¨! (दाँत पीसकर) बुतपरस्त काफिर! क्या इन पत्थर पूजनेवालों को भी कभी दीनदार बुतशिकन मुसलिमों पर फतह मिल सकती है?

नजीब खान : कभी नहीं। ओ दीने इसलाम के बहादुरो, अब आप जाइए। और अपनी-अपनी फौजों को सजा-धजाकर इस मुसलिम सलतनत को बचाने के लिए बिजली की तेजी से दौड़ आइए। जाइए।

: दूसरा दृश्य :

नजीब खान : (स्वगत) शाह अब्दाली को इतने मिन्नत भरे खत भेजे, पर अभी तक जवाब नहीं आ रहा। खैर, जवाब न आए तो भी कोई बात नहीं। अब्दाली के आने की महज अफवाह फैलाते रहने से भी मराठों को दबाकर रखा जा सकता है, पर अब्दाली आएगा ही नहीं, कहीं ऐसा जवाब आ गया तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। जब तक जाटों ने उन्हें इधर आने से रोका है, तभी तक-

चोबदार : (प्रवेश कर) खान साहब, मराठों की छावनी से पक्की खबर आई है कि अब्दाली ने मराठों के सरसेनापति कानड़ेजी को आश्वासन भेजा है कि वे मराठों से दोस्ती निभाएँगे और सुलहनामे का पालन करेंगे।

नजीब खान : छोड़ो। गप मारते हो! ये मराठे बड़े घाघ हैं। हमें नाउम्मीद करने के लिए हर वक्त झूठी खबरें फैलाते रहते हैं।

चोबदार : और आप के लिए भी अब्दाली की तरफ से यह सरकारी लिफाफा आया है। (खत देकर चला जाता है।)

नजीब खान : (खत को पढ़कर) क्या? अब्दाली जैसा शहंशाह भी मरहट्टों से डर गया? अब्दाली ने जवाब में लिखा है कि दिल्ली की राजनीति में मराठे और आप लोग आपस का मामला खुर्द सुलझा लो। काबुल की सरकार इसमें दखल देकर मराठों से वैर मोल लेना नहीं चाहती। एक तरह दिल्ली को मराठों पर ही छोड़ देना था, तो उस वक्त ही दिल्ली की राजनीति में क्यों दखलंदाजी की थी? हमें मराठों से दुश्मनी मोल लेने को उकसाकर अब इस तरह हमसे दगा करता है यह अब्दाली। खैर, जाट बहादुर किसी तरह और तीन चार महीने मराठों को उलझाकर रखेंगे ही। तब तक अंग्रेजों के साथ-साथ बादशाह को भी दिल्ली में लाया जाए। अपनी बड़ी-बड़ी फौजों के साथ बंगश और हाफिज भी तब तक चले जाएँगे।

चोबदार : (प्रवेश कर) हुजूर, बाजार में तमाम मुसलमान बड़ी खुशी से नाच रहे हैं। जोरों की अफवाह है कि किसी बड़ी लड़ाई में जाटों ने मराठों को नेस्तनाबूद किया है।

नजीब खान : शाबाश! अब जाओ। जाट सचमुच ही बड़े दिलेर हैं। अब मराठों से दोस्ती का नाटक खेलना छोड़, खुलकर जाटों से जा मिलना ही अच्छा है। जिस खबर को हम बाजारू खबर या अफवाह कहते हैं वह कई बार तेजी से फैली असली खबर होती है। जाटों ने सचमुच ही मराठों को पछाड़ा होगा। यह बाजारू गप सच भी हो सकती है।

दूसरा चोबदार : हुजूर, बाजार में हिंदू लोग कह रहे हैं कि किसी बहुत बड़ी लड़ाई में मराठों ने जाटों को पछाड़ा है।

नजीब खान : अरे जाहिल, बाजार में सच्ची-झूठी बीसियों खबरें फैलती हैं। क्या तुमने जाँच-पड़ताल की कि यह खबर सच्ची है या झूठी! तो कमबख्त, जाकर दरियाफ्त कर आओ। हम बाजारू खबरों पर एकाएक यकीन नहीं करते।

पहला चोबदार : (फिर से प्रवेश कर) हुजूर की सेवा में आगरे से यह सरकारी चिट्ठी आई है। (चिट्ठी देकर चला जाता है।)

नजीब खान : (पढ़कर) या अल्लाह! या खुदा! इतनी सी देर में मराठों ने जाटों की जबरदस्त सेना का कचूमर कैसे कर डाला! क्या? नवलसिंह जाट ही मराठों के कब्जे में आ गया और मराठों ने दिल्ली तक को रौंद डाला? ऐ नजीब खान! अब तेरी खैर नहीं! मराठे तेरी जान लेकर ही रहेंगे। क्या करें, क्या न करें! कहीं भाग चला जाए, पर जाएँ भी तो कहाँ! बंगश के पास, पर मेरे पीछे-पीछे मराठों के खूखार दरिंदे वहाँ भी आ जाएँगे। मुझे नोच डालेंगे। कहाँ छिप जाऊँ? दिल्ली के लिए लड़ूँ? यह तो निरी बेवकूफी होगी। मराठा फौज की हहराती बाढ़ में दिल्ली की नामर्द बादशाही फौज तिनके की तरह बह जाएगी और फिर उस लड़ाई में कहीं मैं उनके हाथ आया तो कोई भी ऐरा-गेरा मराठा 'पानीपत का बदला, पानीपत का बदला' चीखकर मेरे शरीर की धज्जियाँ उड़ा देगा। अफसोस! अफसोस! अब दूसरा कोई तरीका नहीं बचने का! ऐ नजीब खान, अब अगर तुम्हें अपनी जान बचानी ही है तो मरहट्टे के पाँव पर अपनी तलवार और म्यान रख दो। और कोई उपाय नहीं बचने का। हाँ, होलकरजी की शरण ले ली जाए। कम-से-कम वे मेरा शिरच्छेद तो नहीं होने देंगे। दोस्त के नाते भेजी मेरी फौज की ही यह आंशिक जय है, ऐसा दिखाकर मैं मराठों से जा मिलूँगा। अगर फिर भी वे मुझपर उफन पड़े तो उनके पैर पकड़कर गिड़गिड़ाऊँगा। जान बची लाखों पाएँ। अगर जिंदा रहा तो इस शरणागति का बदला माधवराव की मौत से ले लूँगा, पर वह तो आगे की बात है। बहुत आगे की!

: तीसरा दृश्य :

[महादजी शिंदे बिनीवाले और तुकोजीराव होलकर जाटों की छावनी में बैठे हैं।]

बिनीवाले : सरदार, पुणे से हमें उत्तरी हिंद की मुहिम पर निकले कोई एक साल होने को आया। इस अवधि में हमारे सरसेनापति कानडेजी ने बुंदेलखंड के विद्रोह को कुचला। शिंदेजी ने जयपुर-जोधपुर तक जाकर राजपूतों के दाँत खट्टे किए और उनसे साठ लाख की बाकी खंडनी वसूल की। तुकोजीराव, आपने भी बूँदी-कोटा पर हमारा रोब जमाकर वहाँ से भी बारह लाख की बाकी खंडनी वसूल की। बारिश में यह सारा काम निपटाकर हमारी सेना फिर से इकट्ठा हो गई और उसने जाटों से लोहा लिया। जाट लड़ाकू हैं, लड़े भी बहादुरी से। जाटों के पास थे फ्रेंच जनरल माडेक और सुमरू। उनकी कवायदी सेना को जीतना असंभव था, पर उसे पीटकर आपने जाटों को पूरी तरह तोड़ा, अब आए हुए जाटों के राजा नवलसिंह जाट स्वयं हमारी शरण में मिलने आ रहे हैं। सरसेनापति कानडे की आज्ञा है कि नवलसिंह पराजय का दुःख भूलकर हमारे अपने बनें, ऐसी ममता उन्हें मिल जाए। देखिए, रावराजे यशवंतराव उन्हें लिये आ भी गए।

[अधोवदन नवलसिंह को यशवंतराव ले आते हैं,सब खड़े हो जाते हैं।]

बिनावाले : आइए! वीरवर नवलसिंहजी, इधर हमारे पास आइए। आप इस तरह सिर क्यों झुका रहे हैं? आप जाट हैं, हिंदू हैं। हम भी हिंदू हैं। जाट हमारे भाईबंद हैं। आप जैसे हिंदुओं के साथ हमें लड़ना पड़ा। इसके लिए हम शर्मिंदा हैं। वैसे देखा जाए तो शुरू से हमारी यही इच्छा रही है कि हिंदुस्थान को हिंदूमय करके स्वधर्म का राज्य स्थापित किया जाए। इसके लिए मराठों की तीन-तीन पीढ़ियाँ यवनों के साथ लड़ी हैं, पर सूरजमल जाट ने पानीपत के समय अपना वचन तोड़ दिया। अकेले भाऊ साहब को यवनों के मुँह में छोड़कर वे चले गए, यह बड़ी ही अनुचित बात हुई थी, पर क्या उससे सूरजमल स्वयं बच सके? नहीं न! जिस नजीब खान के बहकावे में आकर सूरजमलजी ने यह अनुचित काम किया, उसी नजीब खान ने मराठों की पराजय के बाद आपके सूरजमलजी को भी अकेले पाकर बेरहमी से मार दिया। खैर, जो हो गया सो हो गया। रणभूमि में सूरजमलजी ने हमारा साथ छोड़ा, पर पानीपत की हार के बाद जो सैनिक पानीपत से लौटे, सूरजमलजी ने भी स्वयं उनकी मदद की। हमें उनके वे उपकार भी याद हैं। बदकिस्मती से आज तक हम लड़े, पर कम-से-कम आज के बाद ही हम सब हिंदू, हिंदू पदपादशाही के कार्य में इकट्ठे हों इसे अपना ही कार्य समझ, सहकार्य करें! यही उचित भी है।

यशवंतराव : पर राजपूत जैसे हिंदुओं ने यवन बादशाह से अपनी बेटियाँ तक ब्याहीं। इतना ही नहीं, शिवाजी महाराज के जमाने से लेकर आज तक इन्होंने राजा जयसिंह की तरह मराठों से लड़ाइयाँ ही लड़ीं। पानीपत में हमें धोखा देकर राजपूतों ने यवनों को बचा लिया। बंगाल से लेकर सिंध तक समूचे हिंदुस्थान में एकछत्र हिंदुस्थान करनेवाला एक भी हिंद वीर नहीं बचा। ऐसे में सिर्फ मराठों ने यह साहस किया। लगभग पूरे हिंदुस्थान में एकछत्र हिंदू राज्य स्थापित किया। क्या यह झूठ है? औरंगजेब जैसे म्लेच्छ बादशाहों की प्रजा कहलाने में जितनी शर्मनाक बात है, कम-से-कम उतनी तो हिंदू छत्रपति की कहलाने में राजपूत, जाट आदि हिंदुओं को नहीं ही होनी चाहिए। इसलिए अब तक जो भी हुआ हो, उसे भूल जाइए। अब यही उचित होगा कि आप मराठों को इर्दगिर्द के पूरे मुल्क के साथ आगरे का किला और पचास लाख रुपए खंडनी दे दें और भविष्य में जब भी मराठे दिल्ली पर हमला करें या म्लेच्छों से लड़ें तो आप मित्रता की भावना से, बंधुभाव से उनकी सहायता करें।

पद

खलदमन है मानव हितकर!

न करें आप अगर!

स्वधर्म राज्य स्थापना। दे दें हम ही कर!

नवलसिंह : आपकी ये सारी शर्ते हमें स्वीकार हैं। आज से जाटों के राजा श्रीमंत पेशवा सरकार के उपकृत मित्र हो गए।

चोबदार : (प्रवेश कर) सरकार, कोई बहुत बड़ा मुसलमान सरदार दिल्ली से बादशाही खत लेकर आया है। वह पैदल ही छावनी में आया है और आपसे तुरंत मुलाकात करना चाहता है।

बिनीवाले : अच्छा, ले आ उसे। (चोबदार जाता है।) बादशाह मराठों के पास आनेवाले थे। मुझे लगता है, उसी बारे में कोई संदेश लेकर आया है। (नजीब के अंदर आते ही) कौन? आप! (चौंककर) आप और यहाँ, अभी यहाँ?

नजीब खान : परम प्रतापी पेशवा बहादुर की पूरी तरह से शरण आया हुआ, ( घुटने टेककर) उनका अपराधी नजीब खान!

महादजी : कौन? नजीब खान! दत्ताजी को धोखे से शिकंजे में फँसाकर, उसे जान से मारनेवाला नजीब खान! सूरजमल जाट को मारनेवाला नजीब खान। अब्दाली को हिंदुस्थान में बुलाकर पानीपत का षड्यंत्र रचनेवाला, मराठों का जानी दुशमन, कुटिल नजीब खान! और तुम हमारी शरण लेना चाहते हो? टसुए बहाने से कोई फायदा नहीं। जाओ, उलटे पाँव लौट जाओ और लड़ने के लिए तैयार होकर सामने आओ। बोलो, अब कहाँ है तुम्हारा अब्दाली! जाओ और उसकी शरण ले लो। तुम्हें मराठों के पैरों तले ले ही आएँगे, लेकिन मृत्यु का पाश डालकर खींचते हुए। इस तरह शरणागति की ढाल के नीचे रख, तुम्हारी रक्षा करने के लिए नहीं। कहाँ है हमारे सरसेनापति कानडेजी? इसे मार डालने की आज्ञा फौरन दीजिए वरना मेरी यह तलवार, राज अनुशासन की फौलादी म्यान को तोड़कर, भिन्नाती हुई टूट पड़ेगी श्रीकृष्णजी के सुदर्शन चक्र की तरह इस शिशुपाल के सिर पर। देखिए, यह मेरे हाथ से फिसल ही गई।

[नजीब खान को मारने के लिए कदम बढ़ाते हैं तभी होलकर आगे आकर रोकते हैं।]

तुकोजीराव

होलकर : हाँ-हाँ, महादजी! शांत हो जाइए। पहले मुझे खत्म करो और फिर राजसभा के कड़े अनुशासन को।

महादजी : तुकोजीराव, पहले भी मराठों की गिरफ्त में आने पर इस मायावी ने यही रोने-धोने का नाटक किया था। तब मल्हार राव होलकर ने इसे मुँहबोला बेटा बनाकर इसकी रक्षा की थी। उन्होंने इसकी तरफदारी की और भोले दादा ने इसे जिंदा छोड़ दिया, पर उससे क्या हुआ? हमारे और आपके अंत:पुर पर हमला करने से भी यह न चूका। लगता है कि आप उस बात को भूल गए। इस बगलाभगत को आप सचमुच का भगत मानने की भूल कर रहे हैं। आपको इसका चोला भले ही सफेद लग रहा हो, पर मुझे यह पानीपत में मरे एक लाख लोगों के खून में रँगा खूनी लाल लग रहा है। पानीपत में मैं इसकी गरदन मरोड़कर रख दूँगा। स्वयं पेशवा बीच-बचाव करने आएँ तो भी उनकी एक नहीं सुनूँगा।

बिनीवाले : महादजी, सरदार शिंदेजी! कम-से-कम मेरे कहने ही से तलवार म्यान में रख लीजिए। जरा सब्र से काम लीजिए। यह कहीं भागा तो नहीं जा रहा। पहले इसकी बात सुन लेते हैं। फिर यथाविधि इसे मौत के घाट उतार देंगे।

महादजी : छि:-छिः। यह कैसा अनर्थ है! नजीब, तुम ऐरावत के चमड़े की ढाल बनाकर आते तो भी बदले की तलवार घुमाकर मैं तुम्हारी गरदन काट देता, पर तुम तो कायर हो। शरणागति की ढाल के पीछे छिपकर आए हो। उसके सामने बदले की तलवार कुंद हो गई। कहाँ मिली तुम्हें यह शरणागति की अभेद्य ढाल! शायद होलकर के शस्त्रागार से ही तुम्हें चुपचाप दे दी गई हो! तुम मल्हार राव के मुँहबोले बेटे हो। लगता है, सारे हिंदुओं में मुँहबोला बेटा बनने की योग्यता रखनेवाला एक भी हिंदू नहीं मिला होलकरजी को, इसलिए मुसलमानों से ही मुँहबोला बेटा चुनने की परंपरा बना दी है होलकर घराने ने।

तुकोजीराव : पाटीलजी, अब आप आपे से बाहर हो रहे हैं। यह गुस्सा भी जैसे बहादुरों पर जँचता नहीं है, इसलिए आपके गलत शब्दों का हम बुरा नहीं मानते। उलटे उनकी तारीफ ही करते हैं। नजीब खान, आप तो मराठों से लोहा लेनेवाले थे।

नजीब खान : जब लड़ना था तब लड़े भी थे हम मराठों से, पर अब तो आपकी शरण में आया हूँ। मुझ जैसे शरणागत को धिक्कारकर आप मराठा शायद उसी का बदला ले रहे हैं, पर जो बीत गई, बात गई। मेहरबानी करके मुझे अपनाइए। मेरी रक्षा कीजिए। शरणागत को मराठा लोग हमेशा उदारता से क्षमा करते आए हैं। यही उनकी उदार परंपरा है।

बिनीवाले : नहीं, नजीब खान, शरण में आए हुए शूर से और षंड से, सच्चे से और झूठे से एक ही तरह की उदारता से पेश आना राजपूती दस्तूर है। उसे हम गौरव का नहीं बल्कि लज्जा का विषय मानते हैं। शूर और सच्चे शरणागत का हम सम्मान करते हैं-इन नवलसिंह जाट की तरह। और क्रूर और कपटी शरणागत से हम किस तरह पेश आते हैं यह देखना हो तो नजीब खान, तुम अपनी तरफ देखो। एक ही समय दीखनेवाले ये अलग-अलग दृश्य! मराठों की नीति के ये दो पहलू हैं।

नजीब खान : नजीब सच्चा है या झूठा, यह तो उसके काम ही बताएँगे। अगर वह सच्चा साबित हुआ तो मराठों की उदारता के काबिल होगा। है न! अपनी पूरी फौज मराठों के सरसेनापति को सुपुर्द कर मैं उनके लिए दिल्ली के दरवाजे खोल देता हूँ। इस बीच अपना सारा मुल्क भी मैं मराठों के हाथों सौंपता हूँ। अंग्रेजों ने बादशाह को पटाकर अपने संरक्षण में ले लिया है। मैं उसे भी आपके हवाले कर देता हूँ। आप केवल मेरी जान बख्श दें। बस, हममें और आपमें यह करार हो गया। अब उलटे पाँव दिल्ली लौटकर अपनी फौजें और दिल्ली की चाबियाँ ले आता हूँ। क्यों, जाऊँ न दिल्ली वापस!

बिनीवाले : तुम और वापस चले जाओगे? नहीं, मराठों की छावनी से अब तो तुम जिंदा नहीं मुरदा वापस लौटोगे। नजीब, इस क्षण से तुम मराठों के कैदी हो गए हो। अब तुम्हें हमारी सेना में ही एक कैदी की हैसियत से रहना पड़ेगा। और अगर तुम अपने बताए करार के अनुसार न बरतोगे तो उसी क्षण तुम्हारा सिर काट दिया जाएगा। जाइए, रावराजे यशवंतरावजी, नजीब को गिरफ्तार कर पूरी सावधानी से रखिए। हम भी अभी सरसेनापति कानडेजी के पास जाकर इस बारे में उनका क्या हुक्म है, यह पूछ आते हैं। तो सरदारो, हम सीधे दिल्ली पर हमला करेंगे। हमारे लिए दिल्ली जीतना अब और आसान हो गया है। कुल्हाड़ी का काम सुई से हो गया।

[सब जाते हैं। यशवंतराव नजीब को सिपाहियों के सुपुर्द करते हैं। परदा गिरता है।]

: चौथा दृश्य :

कोंडण्णा : लोग कहते हैं, 'जाको राखे साइयाँ मार सके ना कोई!' पर मैं कहता हूँ, 'जिसको पंचांग राखे उसको कौन मारे!' माधवराव पेशवा ने मुझे जान से मारने के लिए चढ़ाई पर भेजा, पर इस पंचांग के सहारे मेरे प्राण पेशवा की रसोई में जितने सुरक्षित और मजे में थे, उतने ही इस चढ़ाई में भी हैं। पेशवा के शनिवारवाड़े की महिलाएँ जितनी भोली-भाली और ज्योतिष में विश्वास करनेवाली थीं उतने ही, बल्कि उससे भी ज्यादा ज्योतिष में विश्वास करते हैं चढ़ाई में आए सैनिक और उनके सरदार भी। हर कोई मेरे पीछे पड़ा रहता है कि मेरी जन्मकुंडली देखिए, मेरा हाथ देखिए। लगता है कि बिना किसी भविष्यवाणी के ही वे जान गए हैं कि अगर मैं लड़ाई में मरा तो यह बतानेवाला कोई ज्योतिषी नहीं बचेगा कि वे लड़ाई में जीवित रहेंगे या मरेंगे और अगर मरेंगे तो भी कब! इस तरह सबकी सिफारिश से मैं सेना की पिछाड़ी में पंचांग के पन्ने पलटता सुरक्षित बैठा हूँ। जब तक सेना की अगाड़ी जीत रही है तब तक पिछाड़ी शनिवारवाड़े की तरह सुरक्षित है। अच्छा, हारकर अगाड़ी इधर-उधर भागने लगे तो भी कोई हर्ज नहीं। सैनिक बनने के बाद मुझे तलवार चलानी न भी आती हो, घोड़े पर बैठकर उसे सरपट दौड़ाना जरूर आता है। वैसे सचमुच घोड़ा काम आता है इस तरह भागने के अवसर पर ही! हमारे मल्हारबा होलकरजी का यही दस्तूर था। पानीपत की लड़ाई हाथ से गई और भाऊ साहब घोड़े से नीचे उतर गए। तभी मल्हारबा घोड़े की पीठ पर ऐसे जमकर बैठ गए कि सबसे पहले पुणे पहुँच गए। सच्चे घुड़सवार! अच्छा, मैं पिछाड़ी में हूँ, इससे यह न समझना कि मराठा लोगों का पानीपत का बदला लेने का प्रण भूल गया हूँ। पानीपत में दुश्मनों ने मराठों की जान ली और उनका माल लूट लिया। इन दो चीजों का बदला है पानीपत का प्रतिशोध। इनमें से दुश्मन की जान लेने का काम करता है अगाड़ी का सैन्य। बाकी बचा मराठों की लूट का बदला लेने का काम। वह मैं और मेरा दोस्त, चढ़ाई के रसोईघर का विश्वासपात्र वीर धोंडण्णा जी-जान से करते हैं। छोटी-मोटी लड़ाइयाँ खत्म होते ही रात के अँधेरे में हम दोनों जा धमकते हैं रणक्षेत्र और उसके आसपास की राहों पर! वहाँ पड़ी दुश्मनों की लाशों को उलट-पलटकर सोना, मोती, कीमती वस्त्र, जो भी हाथ आता है, हम हथियाते हैं और इस तरह मोरचे के लोगों का अधूरा छोड़ा काम हम पूरा करते हैं। यह देखिए, किसी दुश्मन की पोटली इस बियाबान जंगल में राह में पड़ी है, पर आसपास तो कोई नहीं है। वरना यह चोरी कहलाएगी (देखकर) हुँह! कोई नहीं है यहाँ। तो इसे हथियाना लूट कहलाएगा। (तलवार निकालकर) हर-हर महादेव! पानीपत का प्रतिशोध! (तलवार पोटली में घुसाकर) बस, रणधर्म के नियम से यह पोटली मेरी हुई, पर इसे खोलने से पहले जरा मुहूर्त देख लूँ। (पंचांग देखकर) पाँच-दस घड़ियाँ ही बची हैं शुभ वेला! झट से उड़ा लेना चाहिए। जय देवा। (पोटली खोलकर) अरे वाह! जेवर! नथ, मोतियों के हार, रत्नों के हार, कंगन, लहँगा-चुनरी। कपड़े तनिक पुराने लगते हैं, पर यह कमरबंद! वाह! (वह पोटली की वस्तुएँ देख रहा है। तभी दो-तीन जाट धीमे से पीछे की तरफ से आकर देखते हैं।)

पहला जाट : (फुसफुसाता है।) अबे रामप्रसाद, कोई पक्का भुक्खड़ मरहट्टा दिखता है। रासलीला में राधा बननेवाले उस नर्तक ने साज-सिंगार और कपड़े बाँध रखे थे उस पोटली में। पोटली पेड़ के नीचे रख पानी पीने झरने पर गया। इतने में इसने उसीको कीमती माल समझकर चुरा लिया। हाऽ हाऽ हा! पहले इसकी एक तरफ पड़ी तलवार उठा लेते हैं। फिर इस भुक्खड़ को ही लूट लेते हैं। (धीरे से तलवार उठाकर) ऐ! कौन है? चोर, मरहट्टा चोर! ठहरो, तुम्हें जाट के लंबे हाथ दिखाता हूँ।

कोंडण्णा : (डरते-डरते) जी हाँ, जरूर दिखाइए अपना हाथ जाटजी! पर आपने कैसे पहचाना कि मैं एक माना हुआ ज्योतिषी हूँ! मैं तो सबका भूत-भूविष्य बिना एक पाई लिये धर्मार्थ बताता हूँ। दिखाइए, दिखाइए अपना हाथ!

दूसरा जाट : अरे, दिखा भी दो उसे अपना हाथ! (कोंडण्णा को दोनों पीटते हैं।) चुप, जरा भी चूँ-चपड़ की तो गरदन ही काट डालेंगे। चल, चुपचाप उतार दे यह गले की माला, हाथ के कड़े, अँगूठियाँ और ये कीमती वस्त्र! अच्छा, इसे इसी पेड़ से बाँध देते हैं। इसकी चोटी ठीक से बाँध दो। हाँ, ठीक है। अच्छा भाई साहब, अब चलते हैं हम! गुस्सा मत होना, अच्छा!

कोंडण्णा : ना, ना! गुस्सा काहे का! वैसे भी अभी जाट और मराठों की लड़ाई जारी है। इसलिए आप जाटों का मुझ मराठे को लूटना बिलकुल स्वाभाविक है, पर ओ सज्जन लुटेरों, कम-से-कम मेरा वस्त्रहरण तो न कीजिए। और इस पेड़ से बाँधकर तो न रखिए। युद्ध जायज है, पर धर्मयुद्ध¨¨! आपके पाँव पड़ता हूँ, मेरी विनती पर ध्यान दीजिए।

तीसरा जाट : धर्मयुद्ध की भली कही तुमने, पर अगर तुम कहते हो तो हम मान ही लेते हैं। ऐसा करते हैं, जो हमने लूटा है वह हम ले जाते हैं और जो तुमने लूटा है वह तुम रख लो! अब तो हो गई तुम्हारे मन की! पर जरा जतन से रखो सबकुछ। उसमें जो सोना जैसा लगता है, वह पीतल है और वे चमकते मोती नकली हैं। रही तुम्हें छोड़ देने की बात। तो वह भी हो जाएगी जल्दी ही। इस जंगली राह की तरफ और तो कोई आता-जाता नहीं। हाँ, आपके मांस को सूँघते-सूँघते आधी रात में बाघ मामा जरूर आएँगे। उन्हें कह देंगे तुम्हें छोड़ देने के लिए। अच्छा, भाई साहब, राम-राम! राम-राम!

[हँसी-ठिठोली करते चले जाते हैं।]

कोंडण्णा : बाप रे! यहाँ बाघ आएगा। इन्होंने मेरा वस्त्रहरण किया। अब बाघ प्राणहरण करेगा। संकट की इस घड़ी में कौन बनेगा मेरा तारनहार! मेरा साथी धोंडण्णा, मेरे साथ ही दुश्मन की लाशों को लूटते हुए पानीपत का बदला ले रहा था। शायद वही मुझे ढूँढ़ते हुए इधर आ जाए, पर वस्त्रहरण की गई द्रौपदी की तरह ही मैं विवश खड़ा हूँ यहाँ। वह दुष्ट दुर्योधन मेरी और भी दुर्गति करेगा। हे भगवान्, हे कृष्ण कन्हैया, अब तू ही मेरा रखवाला है! मेरी मौसी संकट की घड़ी में कृष्ण कन्हैया को बुलाने के लिए एक मनुहारवाला गाना गाती थी। वही अब भक्तिभाव से गाना चाहिए। वह कहती थी कि उसे सुनते ही कन्हैया दौड़े चले आते थे और संकट को दूर कर देते थे। मैंने अपनी आँखों से देखा है कि कैसे चूल्हे में डालते ही गीली लकड़ियाँ ढेर सारा धुआँ उगलने लगती थीं। तब मेरी मौसी कन्हैया को बुलाती थी इस गाने से और गीली लकड़ियाँ अपने आप धड़धड़ाकर जलने लगती थीं। इसलिए हे कृष्ण कन्हैया, मैं पूरी लगन से वही गाना गाकर तुम्हें बुलाता हूँ। आओ और मैं ही अपनी मौसी हूँ, ऐसा समझकर मेरी रक्षा करो-

[बेसुरी आवाज में गाना गाता है।]

पद

संकट में है द्रौपदी। हो द्रौपदी। कृष्णा, दौड़ के आ जा जल्दी।

हुआ रे मेरा वस्त्रहरण! वस्त्रहरऽऽण! मैं आई तेरी शरण।

मेरी रे उसने खींची है यह चोटी! रे यह चोटी!

दुखते हैं केश वनमाली।

मैं तो हूँ रे अबला! जी हूँ मैं अबला!

दुःशासन की भारी है यह बला!

[इतने में परदे के पीछे से आवाज आती है-किसके केश खींचे जा रहे है?अरे,कौन है रे तू ?]

कोंडण्णा : अरे, लगता है कि कृष्ण कन्हैया दौड़ आया मेरा गाना सुनकर! आओ कन्हैया, आओ!

पगली : (प्रवेश कर) कहाँ हो तुम अबला नारी! किसने खींची तुम्हारी चोटी? ( उसे देखकर) हाऽऽ हाऽऽ हाऽऽ! मत रो मेरी कोंडू दीदी!

[उसे पुचकारना चाहती है।]

कोंडण्णा : (गुस्से से) चल हट! राक्षसी, भतनी! यह यहाँ कैसे आ गई!

पगली : कोंडू दीदी, उन दुःशासनों ने तुम्हारा वस्त्रहरण किया? अरे, पर यहाँ कैसे कपड़े पड़े हैं? कपड़े भी हैं और जेवर भी। अभी पहनाती हूँ तुम्हें। अच्छा! (उसे वह पुराना लहँगा और चुनरी पहनाती है। नथ ,गले का हार, कान की बालियाँ पहनाते हुए ठहाका मारकर हँसती है।) कितनी अच्छी लग रही है मेरी कोंडू दीदी! कृष्ण कन्हैया ने आकर तुम्हें संकट से उबारा है न!

कोंडण्णा : अब बस भी कर मेरी दुर्गति बनाना। मुझे छोड़ दे मेरी माँ! डर मत मैं मारूँगा नहीं तुझे। हम मराठा वीर स्त्रियों पर हाथ नहीं उठाते।

पगली : सच कहते हो। छोड़ देती हूँ तुम्हें। एक बार फिर वही भगवान् को बुलानेवाला गाना गा दो। तुम्हारे इन कपड़ों में वह ज्यादा जँचेगा। छोड़ दूँगी तुम्हें। सचमुच, पर वह गाना गाओ।

कोंडण्णा : अच्छा, फिर से गाता हूँ वह गाना। गाने लगता है...संकट में है द्रौपदी। हो द्रौपदी!

पगली : वाह! उत्तम! अति उत्तम! क्या गाना है! अरे, वह देखो, तुम्हारी गुहार सुनकर कृष्ण कन्हैया आ गए। हाऽऽ हाऽऽ हाऽऽ! (हँसते हुए चली जाती है।)

धोंडण्णा : (प्रवेश कर) यह कैसा शोर है वहाँ? अरे कौन? कोंडण्णा! वाहवा! तुमने तो अर्धनारी नटेश्वर का स्वाँग भर लिया है।

कोंडण्णा : धोंडू, तुम्हें शर्म नहीं आती न! देखो, कैसी बेशर्मी से दाँत दिखा रहे हो! पहले यहाँ आकर मेरी रस्सियाँ खोल दो। मुझपर टूट पड़े मेरे दुश्मन ने मेरे साथ गद्दारी की। लाशों को लूटने में तुम मेरे साथी थे। कम-से-कम तुम्हें तो मेरी इस हालत पर तरस आना चाहिए।

धोंडण्णा : (उसे छुड़ाते हुए) हाऽऽ हाऽऽ हाऽऽ! पर तुम्हारे हाथ में तलवार नहीं थी? उनमें से एक-दो को तो मार गिराते! कितने कायर हो तुम!

कोंडण्णा : (छूटते ही) अरे मूर्ख, मेरे हाथ में तलवार होती तो अब्दाली भी मेरे सामने नहीं टिक सकता, पर उन छिछोरे चोरों से तलवार के बूते उलझैं? छि:! मैं कोई रसोइया थोड़े ही हूँ, तुम्हारी तरह! मैंने मारे जोश के तलवार को परे फेंक दिया। तभी न वे उसे ले भागे! समझे! अरे किसी टक्कर के दुश्मन सरदार को आने दो सामने। फिर दिखाऊँगा तुम्हें कि जागीरदार मराठा तलवार कैसे चलाई जाती है? फिर पछताओगे कि व्यर्थ ही तुमने मुझे कायर कहा।

धोंडण्णा : अच्छा यार, अब पहले उस झुरमुट के पीछे जाकर अपना यह वेश बदल डालो। मेरे दूसरे कपड़े पहन लो। कहीं छावनी में जाने में देर हो गई और हमारी इस लूट की बात किसी पर खुल गई तो हम दोनों ही के सिर कंधे पर नहीं रहेंगे। चलो, चलो जल्दी से।

: पाँचवाँ दृश्य :

[स्थल :पुणे में यशवंतरावजी के महल का अंत:पुर।]

सुशीला : हाय! यह नंदिनी आज इतनी देर क्यों लगा रही है? मैंने उसे भेजा था, आज की उत्तरी हिंद की डाक में मेरे पति का पत्र आया है या नहीं, यह पता करने। यह अपने आपको मेरी प्राणप्यारी सखी कहलाती है और वहाँ से लौटने में इतनी देर करती है। पिया बिना नीरस बने इस महल में कितनी मुश्किल से समय कटता है मेरा!

पद

चढ़ाई जीतकर आएँगे लौट पिया कब तलक?

अँसुवन को पोंछ दिल को चैन देंगे कब तलक?

मदनविह्वल मुझ अंगना को लगाएँगे अंग कब?

नवरस नवसुख सरग में ले जाएँगे वीर कब?

अरे! यह तो आ गई। पर हाथों में पत्र-वत्र कुछ दिखाई नहीं देता। निगोड़ी ने कहीं पर छिपा रखा होगा। बड़ी शैतान है। कहीं यह न कह दे कि पत्र आया ही नहीं। भगवान्! ऐसा बुरा संदेशा देने की नौबत न ला बेचारी पर। जैसे-जैसे यह पास आ रही है, मेरा दिल जोरों से धड़क रहा है। विरहन का प्यार भी किस तरह कायर और शर्मीला होता है! पिया की खबर सुनने चाहे जितना बेताब हो, पर खुलकर दूती से पूछने में घबराता है, लजाता है। आ ही गई यह। कहीं सचमुच ही पत्र न आने की खबर न दे दे! मैं इस तरह पीठ घुमाकर बालों में फूल लगाती खड़ी हो जाती हूँ। ऐसे दिखाऊँगी जैसे मैंने इसे देखा ही नहीं। इससे यह जो भी खबर लाई है, फौरन बता देगी।

नंदिनी : (प्रवेश कर) क्यों सखी, बालों में फूल लगा रही हो। पर हम उनकी माला न बना दें?

सुशीला : कौन? नंदिनी! सचमुच रावराजे की तसवीर के लिए एक माला ही बना देंगे। (अपने आपसे) शैतान की नानी! पत्र के बारे में एक शब्द नहीं बोल रही।

नंदिनी : वह टोकरी दे दे मुझे। कब चुने तुमने ये फूल? भला किस क्यारी में से चुने, मेरी बनाई क्यारी से?

सुशीला : मुझे नहीं मालूम। (स्वगत) कैसी फालतू बातें कर रही है! यह नहीं कि पत्र के बारे में ही कुछ बता दे। निर्लज्ज होकर, गिड़गिड़ाकर मुझे ही पूछना होगा इससे।

नंदिनी : (स्वगत) अभी तक नहीं पूछा इसने पत्र के बारे में। क्या मैं ही ढीठ होकर कह दूँ? पर मुझमें नहीं है इतनी हिम्मत। (जोर से) तूने मुझे पत्र के बारे में पूछने के लिए भेजा था न!

सुशीला : गनीमत है, तुझे याद तो आया। नंदिनी, अपने प्रिय की चिट्ठी पाते ही मैं पहले उनके अक्षरों को चूम लूँगी और तब कहीं चिट्ठी को खोलूँगी। दे दे न वह चिट्ठी! पर तू खामोश क्यों है? विरही जनों की व्याकुलता की हँसी उड़ाने में क्या तुझे भी आनंद आने लगा? नहीं न! फिर आते ही क्यों न दी मुझे उनकी चिट्ठी? ऐसी क्रूर ठिठोली मत कर मुझसे सखी!

नंदिनी : मेरी प्यारी सहेली, क्या ऐसी क्रूर ठिठोली मैं तुझसे कर सकती हूँ? सचमुच ही नहीं आई री रावजी की चिट्ठी। देख, कुछ है भी मेरे हाथों में।

सुशीला : कहीं पर छिपा रखी होगी तूने। (टोह लेती है) पहले भी एक बार इसी तरह छला था तूने।

नंदिनी : नहीं री! तब चिट्ठी आई थी, इसलिए पल भर के लिए ठिठोली की थी। कौतूहल बढ़ने से या पल भर की असह्य निराशा से भी प्रिय की वार्ता और प्रिय हो जाती है। इसलिए निपुण सखी थोड़ा-बहुत सताने के बाद ही प्रियवार्ता देती है, पर आज तेरी शपथ, डाक में रावराजे यशवंतरावजी की कोई चिट्ठी नहीं।

सुशीला : (फूलों की टोकरी नीचे फेंककर) जा, बात न कर मुझसे। (पलंग पर सिरहाने के नीचे सिर छिपाकर) बता दिया न कि मुझसे बात न कर।

नंदिनी : पर मुझसे क्यों गुस्सा होती है? अगर मैं डाकिया होती तो रावराजे के पीछे पड़, उनसे एक चिट्ठी लिखा लाती।

सुशीला : चल हट! यहाँ खैर-खबर लाने में आनाकानी करती है और कहती है कि मैं यह करती और वह करती। राजमहल में जाकर ही खोज-खबर ले आती। श्रीमंत पेशवा की डाक में ही हमारे सरदार के कारनामे और अते-पते मालूम हो जाते।

नंदिनी : वहाँ शनिवारवाड़े में भी मैं हो आई। इसलिए यहाँ आने में इतनी देर हुई। वहाँ बस इतनी ही खबर मिली कि दिल्ली की सरकारी डाक तो आई है, पर उससे पहले पड़नेवाले देश की यानी जहाँ मराठे लड़ाइयों में उलझे हैं, वहाँ की कोई डाक नहीं। वहाँ के शत्रु मराठों की डाक को हड़प रहे हैं, आगे पहुँचने ही नहीं देते।

सुशीला : अच्छा? इसका मतलब हुआ कि वहाँ के मैदानों में मराठा सेना शत्रुओं के चंगुल में फँस गई है।

नंदिनी : हाँ, वह दुष्ट नजीब खान मन में चोर लिये मराठों की शरण में आया था, पर उसे अपनी ही सेना में नजरबंद कर मराठों ने उसकी बाजी उसी पर उलट दी। उसे गिरफ्तार करने से उसकी सेना चूँ भी न कर सकी और खून की एक बूँद भी गिराए बिना मराठों के लिए दिल्ली के दरवाजे खुल गए। यहाँ तक की खबर तो तू जानती ही है। नजीब खुद कुछ नहीं कर सकता था, पर उसने मैदानों में फैले पठान और रोहिलों से किसी तरह संपर्क कर लिया और मराठों को दिल्ली जाने से रोकने के लिए कोई आड़ी चाल चली। पठान और रोहिलों की कोशिशों ने और धुआँधार बारिशों ने मराठों के आगे जाने के सारे प्रयास असफल कर दिए। अब वे गंगा-यमुना के हहराते जल प्रवाह के बीच फँस गए हैं। पहले भी इस शत्रु ने दत्ताजी शिंदे और मराठा सेना को इसी तरह कैंची में पकड़ा था।

सुशीला : तो यही कारण था कि मेरे प्रियतम का दो महीनों में एक भी पत्र नहीं आया। रावराजे यशवंतरावजी मैदान में फँसी मराठा सेना में होंगे और इसी संकट में घिर गए होंगे। मेरे प्रियतम के प्राण संकट में हैं। नंदिनी, पानीपत की लड़ाई के समय जब वे संकट में थे तब रणभूमि में दीदी उनके साथ थी। दीदी की प्रतिनिधि होते हुए यहाँ मैं असहाय सी आँसू बहाती रहूँ। नंदिनी, मैं अपने प्राणसखा के पास जाऊँगी। मैं हिंदू अंगना हूँ, वीरांगना हूँ। मैं अपने पति से अलग नहीं रह सकती। हिंदू सेना संकटों से घिरी है, ऐसे में मुझ जैसी हिंदू स्त्री मुलायम गद्दों पर आराम नहीं कर सकती। मेरे प्यार और मेरे धर्म की तथा मेरे सुख और कर्तव्य की दोनों राहें इसी राह से जा मिली हैं। मैं भी अब वही राह लूँगी।

नंदिनी : पर पगली, तू अबला है। एक लाख वीर योद्धा जिस धर्मयुद्ध में जूझ रहे हैं, उसमें अकेली जाकर तू विशेष क्या कर सकती है?

सुशीला : कम-से-कम एक लाख सेना एक लाख एक तो हो ही सकती है। प्रभु रामचंद्रजी लंका जाने के लिए जब सेतु बाँध रहे थे तब एक गिलहरी ने उनकी मदद गीले शरीर से रेत में लेटकर और रेत के उन कणों को सेतु के स्थान पर गिराकर सहायता की थी। उससे समुद्र थोड़े ही पटने वाला था? पर उससे उसका कर्तव्य पूरा हो गया।

नंदिनी : पर इस चढ़ाई में स्त्रियों का जाना पूरी तरह मना है। तुम सेना में प्रवेश कैसे करोगी?

सुशीला : अरी पगली, वहाँ स्त्री पर नहीं, स्त्रीवेश पर बंदी है। मैं पुरुष वेश में जाऊँगी। सेना में किस तरह घुसना है, यह वहीं जाकर सोचूँगी। देख, हिमालय से आए ऋषिकुमार का वेश बनाकर दिल्ली की छावनी तक तो जाया ही जा सकता है। यह मैं वहीं करूँगी।

नंदिनी : ऐसे सत्साहस से मैं तुझे कैसे रोकूँ! सखी, तू जो आज्ञा देगी मैं उसका पालन करूँगी।

सुशीला : तो चल फिर। मुझे ऋषिकुमार का पहनावा पहना दे। आह! मेरी सारी चिंता उड़न-छू हो गई। मन ऐसे हुलस रहा है मानो मैं किसी विवाह में जा रही हूँ। चल, चल!

पद

हूँ मैं बाला अबला, पर चली हूँ रण में आला!

प्रिय सखा बिछोह ग्लानि त्यज। बन गई हूँ नागिन चपला!

है हाथ में असिलता सखि। जिसपर है परवान चढ़ा अबला॥१॥

: छठवाँ दृश्य :

[इलाहाबाद में बादशाह शाह आलम और अंग्रेज वकील बैठे हैं]

अंग्रेज वकील : (अंग्रेज लहजे में) Mighty Emporor बादशाह शाह आलम, अंग्रेज बहाडुर की टरफ से हम आपको अर्ज करटे हैं कि इन मरेहट्ठों का विश्वास नहीं रखना। आज उनका वकील आपको ले जाने के लिए आया हय। आप उनके साठ डिल्ली जाएगा फेर वो टुम को गिरफ्तार करेगा। कैड करेगा। मरहट्ठे बहोट Cunning people हैं। बड़े लुच्चे लोग हैं।

शाह आलम : वकील, तुम अंग्रेज बहादुर हमारे वफादार सेवक हो इसलिए तो हमने कंपनी सरकार को बंगाल-बिहार का बादशाही दीवान, नवाब बनाया। भाऊ साहब और अब्दाली, ये दोनों ही मेरे बादशाही के दुश्मन थे। वे दिल्ली के इर्दगिर्द लड़ने लगे। तब जान बचाने तख्त छोड़कर हम वहाँ से भागे। दस सालों से भिखारी की तरह दर-दर की ठोकरें खाते हुए हम आखिर यहाँ इलाहाबाद में सुजाउद्दौला की पनाह में आ गए, पर हमें दिल्ली ले जाकर तख्त पर बैठाने की हिम्मत कोई नहीं जुटा सका। तब हमने पुणे के पेशवा सरकार से हमें दिल्ली लिवा ले जाने की बात की। अब अगर ना कहेंगे तो डूब जाएँगे। इस आफत का कोई उपाय नहीं। हाय रे कमनसीबी! पर करें तो क्या करें! हमारे अपने बड़े-बड़े सरदार पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारी खिदमत में हैं, पर पानीपत के बाद हमें दिल्ली ले जाने की बजाय वे खुद ही बादशाही खा रहे हैं। मराठा एक काफिर तो मुसलमान सात काफिर! अब हम किसके बूते पर मराठों को नाराज कर सकते हैं?

अं. वकील : हमारे! अंग्रेज बहाडुर के बल पर। अभी भी मुसलिम सल्टनट इन काफिर मराट्ठाओं के हाठ से बच सकटी हय। Just see! पठान रोहिला मुसलिम भी टुमारे दुश्मन। मरेट्ठा हिंदू टो टुमारा दुश्मन है ही, पर हम अंग्रेज ना हिंदू ना मुसलिम। इसलिए टुमारा सच्चा डोस्ट!

चोबदार : (प्रवेश कर) जहाँपनाह! मरहट्ठों के वकील-ए-मुतालिक रावराजे यशवंतराव पधार रहे हैं।

बादशाह : आने दो उनको। अंग्रेज बहादुर के वकील भी इधर ही ठहरेंगे। ( यशवंतराव के आते ही।) आइए, वकील साहब! फरमाइए, क्या अर्ज है?

यशवंतराव : और क्या अर्ज होगी बादशाह सलामत! नजीब खान आपका पूरा सहारा। उसका स्वभाव जहरीला, साँप की तरह! पर अब वह मराठों के फौलादी जूते के नीचे कुचला पड़ा है। अब किसके बलबूते पर बादशाह मराठों के साथ दिल्ली जाने में आनाकानी कर रहे हैं। अच्छा होगा, अगर आप साफ-साफ बताएँगे वरना आज ही के दिन बादशाह को हमारे साथ चलना होगा। कोई तीसरी बात नहीं होगी।

अं. वकील : हाँ-हाँ! यशवंटराव, टुम किसके साठ बाट कर रहा हय? खुद टुमारे बाडशाह के साठ टुमारी यह बगावट! Shame! Shame!

यशवंतराव : मराठों को मुगल बादशाह से कैसे पेश आना चाहिए, यह हमें अपने जॉन बादशाह को भालों की कैंची में पकड़नेवाले और चार्ल्स बादशाह को फाँसी देनेवाले अंग्रेज नहीं सिखाएँगे तो और कौन सिखाएगा? साहब, बादशाह और हम एक-दूसरे के साथ चाहे जिस तरह पेश आएँ, वह आपका प्रश्न नहीं है।

अं. वकील : वाह! क्यों नहीं? हम मरहट्ठों के डोस्ट, बाडशाह के भी डोस्ट हैं। डोस्टी के नाटे हम आपकी भलाई की ही बाट करटे हैं। देखिए यशवंटराव, नजीब खान मर गए टो भी बंगश खान और हाफिज खान टो जिंडा हैं। उनकी फौजों ने आपको पानीपट में हराया ठा। आज डोआब में आपकी वही गट बना रहे हैं वे। इसलिए डिल्ली की टाकद आप में है, इसपर बाडशाह कैसे यकीन करें? जिसको फटह मिलेगी उसीके बूटे पर आगे जा सकटे हैं। टब टक यहीं रहने का मनसूबा है बादशाह का। अगर मराठा आज ही बादशाह को ले जाने की जबरदस्टी करेंगे टो मुझे डर हय कि उनपर कंपनी सरकार खफा हो जाएगी।

यशंवतराव : यह सच है कि बारिश के दिनों में मराठों को गंगा-यमुना के दोआब में रोक लेने की बंगश की मंशा है, पर बादशाह और मराठों के बीच की राजनीति में अंग्रेज बिना मतलब टाँग अड़ाएँगे तो उनके साथ ही मराठों की मित्रता के हाथ में अंग्रेज विरोधी तलवार आ जाएगी, यह मुझे डर है।

अं. वकील : हाऽऽ हाऽऽ हाऽऽ! यशवंटराव, मरहट्ठों की टलवार आप मुसलमानों को दिखाइए। वे डर जाएँगे उससे! पर हम ब्रिटिश उस टलवार से जरा भी नहीं डरते। टुम हिंदू लोग¨¨इटने बँट गए हो¨¨इसलिए टो सबके गुलाम¨¨मुसलमानों के भी गुलाम हो गए हो, पर ब्रिटेन कभी किसीका गुलाम-Slave नहीं बना¨¨आज भी किसीका गुलाम नहीं हय वह!

यशवंतराव : आज अगर ब्रिटेन किसीका गुलाम नहीं है तो महाराष्ट्र भी कम-से-कम आज किसीका गुलाम नहीं है, पर पहले कभी ब्रिटेन किसीका गुलाम नहीं था, यह शेखी कम-से-कम मेरे सामने तो मत ही बघारिए। जरा बताइए तो कि रोमन लोगों ने ब्रिटेन को गुलाम बनाया था या नहीं? और वही रोमन सेना जब ब्रिटेन छोड़कर जाने लगी तब कौन पैर पकड़कर गुलाम की तरह गिड़गिड़ाया था कि 'हमें छोड़कर मत जाइए क्योंकि We shall find ourselves between the devil and the deep sea! वह ब्रिटेन ही था न? सैक्सन्स ने किसे जीता था? डचों ने किसे गुलाम बनाया? ब्रिटेन को। नॉर्मन ने किस पर हमला किया? ब्रिटेन पर। नॉर्मन लोग जिसे गंदी-से-गंदी गाली देना चाहते थे, उसे 'इंग्लिशमैन' यानी गुलाम कहकर पुकारते थे। अंग्रेजों को वे उन दिनों का विस्मरण नहीं होना चाहिए। साहब, मैं आपका देश देख आया हूँ। आपके घर के कितने खंभे खोखले हैं और कितने मजबूत, यह भी गिन आया हूँ। आज इस अति विशाल हिंदुस्थान के हिंदू लोग जातिभेद, प्रांतभेद के कारण बँट गए हैं, पर आपका बित्ते भर का इंग्लैंड जिन सात राज्यों में बँटा था, उन Heptarchy को याद कीजिए। और यह भी जान लीजिए कि बँटे हुए हिंदुस्थान की दुर्बलता भी कम-से-कम आज की तारीख तक राज्यशक्ति में आपसे कहीं बढ़कर ही है। जिसपर भी लड़ाई का भूत सवार हो, वही हिंदूपति मराठों से टक्कर लेकर देखे!

अं. वकील : Well यशवंटराव, मराठों के बाजू आज भले ही हिंदुस्थान में अंग्रेजों से मजबूत हों, पर क्या कल भी वे वैसे ही रहेंगे?

यशवंतराव : रहेंगे भी या नहीं भी रहेंगे। हर उदय का अंत अस्त में होता है और हर अस्त का अंत उदय में। Heptarchy वाला इंग्लैंड बाद में एक राष्ट्र में बदला। उसी तरह आज रोटीबंदी, समुद्रबंदी और जातिबंदी से जकड़ा हुआ यह हिंदुस्थान कल इन बेड़ियों को तोड़कर एक अति प्रबल राष्ट्र भी हो सकता है। आज जिस तरह अटक तक जाकर उसने मुसलमानों के आक्रमण से महाराष्ट्र को बचाया, उसी तरह समुद्रबंदी और रोटीबंदी की बेड़ी को तोड़कर कल वह लंदन तक पहुँचकर हिंदुस्थान को भी बचा सकता है। साहब, यदि इंग्लैंड से आप हिंदुस्थान आ सकते हैं तो बंबई से हमारा इंग्लैंड जाना क्या असंभव है?

अं. वकील : But the moment, a Hindu crosses the sea. He ceases to be a Hindu.

यशवंतराव : पर मैं सात समुंदर पार करके आया हूँ, फिर भी हूँ तो हिंदू ही। कई हिंदू मेरी तरह से सोच सकते हैं।

अं. वकील : (स्वगत) God forbid! How I bless this course that lays stupid Hindus under a religious injunction which forbids them to cross the seas over to our lands but allows us to cross them over to their lands! (जोर से) Well, well, Yashawantrao, We have met here neither as historions nor as prophets but as practical men to deal with practical politics of today! अच्छा यशवंटराव, अगर मरहट्ठा अपने आपको इतने टाकटवर समझते हैं टो फिर इस मुसलमान बाडशाह को दिल्ली क्यों ले जाना चाहटे हैं? हिंदुओं के साटार के छट्रपटि को आज ही उस बाडशाही तख्त पर क्यों नहीं बैठाते?

यशवंतराव : आप अंग्रेज अपने आपको बहुत ताकतवर समझते हैं। फिर भी आज ही बंगाल के स्वाधीन अधिपति न बनकर इसी मुसलमानी बादशाह के दीवान होने का बहाना कर रहे हैं उसी कारण से। क्यों लगा तीर निशाने पर! और इसलिए शाह आलम बादशाहजी, कल की कल पर छोड़िए। कम-से-कम आज तो पूरे हिंदुस्थान में मराठा ही सबसे प्रबल हैं। उनकी बाँहों का सहारा लेकर उठिए और दिल्ली चलिए। इस तरह बाबर के तख्त पर बैठने का जो सम्मान अभी तक आपके हिस्से बचा है, उसका उपभोग कीजिए। मराठों के इन्हीं हाथों ने दक्षिण की पाँच मुसलमान सलतनतों को मिट्टी में मिलाया; पुर्तगालियों के दाँत खट्टे कर उनसे ठाणे, वसई ले ली, सिद्दी का सिर काटकर कोंकण को आजाद कराया और अंग्रेजों को कलकत्ते में 'मराठा डिच' के अंदर बंद कराया। औरंगजेब, नादिरशाह और अब्दाली जैसों को नाकों चने चबवाए। कटक लिया और अटक भी।

पद

जित शरण है यह। छत्रपति हिंदू पदपादशाही का।

म्लेच्छ निवहहंता। मानधन। सुजनशरण!

खलवर्ग हरण! आहा!

पाँच पादशाहियाँ। दक्खन की। उन्हें रौंद डाल।

विंध्याचल पार कर। जीतते चंबल और गंगा तीर।

सागर पर मुठभेड़। पुर्तगिजांग्ल फिरंगी। तुर्कमद ध्वज भंग।

मुक्त हिंदू जगत् करे। जित शरण है यह छत्रपति॥

बादशाह शाह आलम, मराठों का यह प्रबल हाथ मैं आपके सामने दोस्ती के लिए बढ़ाता हूँ। बोलिए, आप उसे एक दोस्त के नाते पकड़ेंगे या दुश्मन के नाते दुत्कारेंगे? बस, एक शब्द में उत्तर दीजिए।

बादशाह : मैं दोस्त समझकर यह हाथ पकड़ता हूँ। बेशक मराठा बहादुर हैं। मेरी बादशाहत वे ही सलामत रख सकते हैं। (उठकर दाहिना हाथ फैलाकर यशवंतराव का हाथ पकड़ने धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं।)

अं. वकील : (स्वगत) My god! How I must strike boldly! Now or never! (जोर से) हा हा! बाडशाह! वह मरहट्ठों का हाठ हय। अंग्रेज बहाडुर का हाठ इढर है। इसमें कोई शक नहीं कि बंगश और हाफिज के घेरे में मरहट्ठे धूल में मिल जाएँगे। फिर आप कहीं के नहीं रहेंगे। हम अंग्रेज आपको खुड डिल्ली ले जाएगा। इढर आइए। मराठों को हिंडू पडपाडशाही करना माँगटा है। हम अंग्रेज कुछ नहीं माँगटा। (बादशाह का बायाँ हाथ पकड़ता है। बादशाह हैरान सा खड़ा रहता है।)

बादशाह : या खुदा! अकबर, औरंगजेब के तख्त का मालिक हूँ मैं। मेरी यह दुर्दशा! अब क्या करूँ? ( थोड़ी देर रुककर) यशवंतराव, रोहिले हमारे हैं, हम मुसलिम उन्हें नहीं छोड़ सकते। जब तक मराठा उन्हें पराजित नहीं करते तब तक हमारा आपके साथ न होना ही बेहतर है (अंग्रेजों की तरफ झुकता है।)

यशवंतराव : अच्छा, तो शाह आलम को बादशाह की हैसियत से यह मेरा आखिरी सलाम! करार आपने तोड़ा है। अब मराठा जिसे चाहें दिल्ली तख्त पर बैठा सकते हैं या फिर किसी और को न बैठाकर स्वयं ही बैठ सकते हैं। मैं चला।

बादशाह : क्षमा! क्षमा! यशवंतरावजी, मेरी बात तो सुनिए।

अं. वकील : (धीरे से) जाने डेव जी!

चोबदार : (प्रवेश कर) जहाँपनाह, गुनाह माफ! पर जो भी खबर आती है, आप तक पहुँचाना मेरा फर्ज है। क्या कहूँ। आफत! मराठों की और बंगश-हाफिज की बड़ी जोरदार लड़ाई हुई। दोनों तरफ डेढ़ लाख फौज लड़ी, लेकिन मराठों ने पठान और रोहिलों को पूरी तरह डुबो दिया। बंगश और हाफिज भाग खड़े हुए। फौज के सारे पठानों को मराठों ने काट डाला। पूरे दोआब में बाकी पठान, रोहिले जान मुट्ठी में लिये भाग रहे हैं और 'पानीपत का बदला-पानीपत का बदला' चिल्लाते हुए मराठा सेना और घुड़सवार उनके पीछे हाथ धोकर पड़े हैं।

यशवंतराव : हर-हर महादेव! हर-हर महादेव!

बादशाह : अफसोस! अफसोस! आखिर असली पानीपत तो काफिरों ने ही जीता। या खुदा!

दुश्मन ने वैर चुकाया, तकदीर फूट गई।

अब क्या लड़ें, जो हाथ की तलवार टूट गई।

अं. वकील : (स्वगत) My god! Events have taken a different turn! We English are not yet prepared to face the Marathas single handed. I must leave this fellow to the fate and beat a clever retreat.

[बादशाह के हाथ से जबरदस्ती अपना हाथ छुड़ाकर थोड़ा सा घूमकर खड़ा होता है। बीच ही में कनखियों से,बादशाह क्या करता है,यह देखता है।

बादशाह : यह देखिए, हमने मराठों का दोस्ती का हाथ पकड़ लिया। यशवंतराव, औरंगजेब के वंशज ने अपनी गरदन मराठों के हाथ में दे दी। अब अगर उसे काट भी दें, तो भी कोई नहीं पूछेगा आपको।

यशवंतराव : अब भी आप मराठों के साथ ईमानदारी से पेश आएँगे तो मराठे आपकी बातों को अन्यथा नहीं लेंगे। चलिए।

[बादशाह यशवंतराव का हाथ पकड़कर जाते हैं। अंग्रेज वकील तिरछी नजर से उस तरफ देख सीटी बजाते खड़ा रहता है। परदा गिरता है।]



१. शनिवारवाड़ा-पेशवाओं के रहने का पुणे का शाही महल।

१. अटक-पश्चिमी पाकिस्तान में पंजाब का एक शहर।

2.मुला-मुठा-पुणे शहर स्थित दो नदियों के नाम।

[4] उस समय महाराष्ट्र में ईसाई विदेशियों को, विशेषकर अंग्रेजों को फिरंगी या टोपीवाला (उनकी ऊँची टोपियों के कारण) कहा जाता था।

: सातवाँ दृश्य :

[फत्तरगढ़ में रोहिलों के हाथ में पड़ी सुनीति।]

सुनीति : (इधर-उधर की आहट लेती हुई धीमे से आती है।) महल में अकेली हूँ मैं अब। उस मुए सादुल्ला की मुसलमान पहरेदारनियों की नजर बचाकर आज बहुत दिनों बाद मैंने बड़ी शान से यह मराठा पैठनी [1] साड़ी पहनी है। पानीपत में रोहिला राक्षसों ने मराठा स्त्रियों पर हमला किया। तब उनसे जूझते हुए मैं और मेरी माँ, दोनों ही घायल हो गईं। उधर मेरे प्रिय पति रणभूमि में पहले ही से घायल पड़े थे। इधर मैं घायल पड़ी थी। तभी सादुल्ला खान मुझे यहाँ उठा लाया। मेरे पति और मेरी माँ के क्या हाल हुए होंगे, भगवान् ही जाने। इस सादुल्ला ने मुझ मरी को जिलाया, जबरदस्ती मुसलमान बनाया और मुझसे निकाह कर मुझे जीते-जी मार डाला। तब से मैं मर-मरकर जी रही हूँ। उसकी कड़ी आज्ञा है कि मैं सिर्फ मुसलमानी पोशाक ही पहनूँ। जिस पहनावे में कफन में प्रेत दिखे, उसमें मैं उसे अच्छी दिखती हूँ। यह शरीर बिलकुल बेजान है, जिंदा लाश की तरह। अगर मैंने अपनी जान को, अपनी खुद्दारी को कहीं जतन से छिपा रखा हो तो वह इस मेरी प्यारी पैठनी की तहों में छिपा रखा है। मेरी मराठी पैठनी! कितनी प्यारी है यह! इसे गले से, अंग से लगाकर रखने का मन करता है। सचमुच, तू तो मेरी सहेली है। माँ का लाड़, बहन का-मेरी सुशीला का दुलार, हँसी-खुशी सभी कुछ तेरे ताने-बाने में छिपा है। मेरी प्यारी हिंदू पैठनी, तह खोलते ही तेरे आँचल में सितारे जगमगाते हैं। सखी, मेरे प्रियतम ने, यशवंतराव ने मेरे खिलते यौवन का हाथ जब अपने हाथ में थामा था तब दिल में प्यार का सागर लहराया था। प्यार के उस ज्वार में मैंने शर्म के मारे इस पल्लू से सीने में इसी तरह छुपाया था। याद है तुझे!

पद

प्रिय ने अचानक जो पकड़ा हाथ

सखी, मदनज्वर का उठा वो ज्वार

कामविह्वल औ' देह थरथर

विद्युत् सी चमकी तन-मन के भीतर।

( आश्चर्य से) अरे, मेरी यह अम्मा उत्तेजित दौड़ती मेरी ओर ही क्यों आ रही है। बेचारी बुढ़िया। इसके भरे-पूरे हिंदू ससुराल और मायके से एक रोहिला सिपाही इसे भगा ले आया, मुसलमान बनाया और फिर सादुल्ला खान के घर की दासियों में उसे भी धकेला। अम्मा, अंदर आना।

अम्मा : सुनीता, सुना तुमने? अरे, पर यह क्या? वाह! कितने दिनों बाद तुमने पहनी है पैठनी! सच सुनीता, उस दलिद्दर मुसलमानी पोशाक को छोड़कर तुम जब यह हिंदू पोशाक पहनती हो तब ग्रहण से मुक्त हुई चंद्रकला की भाँति तुम्हारे सौंदर्य में चार चाँद लग जाते हैं, पर अब मैं जो भी कुछ कहने आई हूँ, उससे तुम्हारी काया का या मन का ही नहीं, पूरे जीवन का ग्रहण मिट जाएगा। जो दिन देखने के लिए हम आत्महत्या से बची रहीं, वही दिन आ गया है अब। 'पानीपत का प्रतिशोध-पानीपत का प्रतिशोध' चिल्लाते हुए मराठा सैन्य, आँधी-तूफान की तरह दसों दिशाओं को धूमिल करता दिल्ली में, गंगा-यमुना के दोआब में घुसा है। आज तक किलेदार सादुल्ला खान ने यहाँ इस बात की कानोकान खबर नहीं होने दी, पर मराठों की मार-काट से भयभीत होकर रोहिलों के झुंड-के-झुंड गंगा पार कर पीछे अपने-अपने गाँव लौट आए हैं। इसलिए बाजार में आज यह खबर खुल गई।

सुनीति : पर अम्मा, इतनी अच्छी खबर शायद ही सच निकले। क्या बाजारू गप के अलावा भी कोई ठोस सबूत है इस खबर का?

अम्मा : अरे, मैं भूल ही रही थी। सचमुच तुझे खुश करनेवाली खबर नहीं दी मैंने। सुनीता, पर इसे झूठ बताकर मुझे मायूस न करना। तुम्हें मेरी कसम! अरी, इस मराठा सेना में रावराजे यशवंतराव नाम के कोई बड़े पराक्रमी नए सरदार हैं। कहीं यह तुम्हारा प्रियतम यशवंत ही न हो!

सुनीति : अम्मा, बड़ी भोली है तू! मैंने अपनी इन्हीं आँखों से देखा था कि पानीपत में लड़ते-लड़ते मेरे पति शहीद हुए थे। इतने ही भाग होते मेरे¨¨

अम्मा : और एक बात बताना भूल ही गई मैं। ये रावराजे यशवंतराव भी पानीपत में बुरी तरह घायल हुए पड़े थे, पर किसी वैरागी ने संजीवन मंत्र से मंत्रित पानी उनपर छिड़का, उन्हें जिलाया। इतना ही नहीं, कहते हैं कि उनकी पहली पत्नी भी पानीपत में ही काम आई। वे अब भी उसकी स्मृति सीने से लगाए आँसू बहाते हैं।

सुनीति : उन सरदार को एकांत में आँसू बहाते फत्तरगढ़ के बाजारू लोगों ने देखा और उन्होंने इस बात की पूरी खबर तुम्हें दी। है न! तू सचमुच ही भोली है, अम्मा!

अम्मा : उसमें क्या मुश्किल है? किसीने ठीक ही कहा है कि भरे बाजार में औरतों की चीख-चिल्लाहट पास के लोगों को नहीं सुनाई देती, पर ऐसे बड़े लोगों की एकांत में फूटी आह पीढ़ी-दर-पीढ़ी लगातार सुनाई देती है। बड़ों के एकांत की बातें उनकी दीवारें सुनती हैं और हवा बोलती है, अँधेरा देखता है।

सुनीति : अम्मा, अम्मा री! अपने अद्भुत सुनहरे खंजर से तू भी मेरे हृदय को चीरने लगी! अम्मा, तेरे भोले साथ से मेरा मन भी अभिभूत हो गया। मेरा हृदय धड़क रहा है। मैंने तो समझा था कि अद्भुत रंग सिर्फ देवताओं के जीवन में ही होते हैं। क्या आजकल विधाता मनुष्यों के जीवन भी अदभुत रंगों से रँगने लगा? पर¨¨पर¨¨ये यशवंत शायद¨¨वे यशवंत कैसे होंगे! मैंने अपनी आँखों से अपने प्रियतम को रण में दम तोड़ते देखा था। वे निश्चित ही स्वर्ग सिधारे थे। यह अलग बात है कि देवताओं ने ही स्वर्ग के पट खोल इन्हें वापस लौटाया हो¨¨मेरे इस घरेलू मामले को एक तरफ कर भी दिया जाए तो भी इन खबरों से साफ पता चलता है कि मराठों ने पानीपत का बदला लेने के लिए तूफान उठा दिया है। इन खबरों में इतना भी सच हो तो हमने इस देह को आत्महत्या की सूखी पत्तियों की चिता में न जलाकर इन राक्षसों की बलि लेनेवाली रणकुंड की यज्ञाग्नि के लिए बचाकर रखा, यह सार्थक हो गया। (कुछ देर सोचकर) अम्मा, हमें इतने दिनों से इसी तरह के अवसर की ताक थी। अगर हमें इसका पूरा-पूरा लाभ उठाना है तो एक बहुत बड़ा षड्यंत्र रचना पड़ेगा। पहले इस सादुल्ला से प्यार का नाटक खेलना पड़ेगा। थोड़ा सा प्यार दिखाते ही इसकी लार टपकने लगती है। होशो-हवास गुम हो जाते हैं। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि वह कोई गुप्त खबर ही उगल दे। जैसे-जैसे वह मेरा विश्वास करने लगेगा वैसे-वैसे आगे की बातें तय करते जाएँगे।

अम्मा : पर तुम्हें उसे दुत्कारने की आदत जो है! उसका क्या होगा? देख, यहीं आ रहा है मुआ! जाओ, जाकर यह मराठा पहनावा बदलकर आ जाओ। जाओ, जल्दी करो! (दोनों चली जाती हैं।)

सादुल्ला : (प्रवेश कर) सोनपती, ऐ मेरी प्यारी सोनपती! आँ? आज महल में आने में मेरी प्यारी ने इतनी देर क्यों कर दी! मगरूर मराठों ने दिल्ली दोआब में गजब करके हम मुसलमानों को उखेड़ दिया है। उसकी बात तो उसने नहीं सुनी? उसको सुने तो मराठों की यह बच्ची और भी मगरूर बन जाएगी। कैसी अजीब बात है! इसे मुसलमान बने दस साल हो गए। उसे पुरानी बातें याद न आए इसलिए उसके मूल नाम सुनीति को बदलकर मैंने अपनी सोनपत-पानीपत की बहादुरी की स्मृति के रूप में इसे नया 'सोनपती' नाम दिया। उससे निकाह कर अपने जनानखाने में रानी बनाकर रखा, पर अभी इसकी मराठा आन और मेरे प्रति दुश्मनी खत्म नहीं होती। कोई बात नहीं। वह मुझसे दुश्मनी करे या यारी! श्री और स्त्री, दौलत और औरत इन दोनों की पसंदगी या नापसंदगी की परवाह कायर लोग करें। ये दोनों ही बेजान चीजें हैं। इनका क्या मन और क्या बेमन! जवान औरत मर्दो के इश्क का तख्तेताउस है। जैसे तख्ताउस का कोई मन नहीं होता वैसे ही जवान औरतों का कोई मन नहीं होता। उसको जो जीतेगा वही उसपर बैठेगा। वह प्यार नहीं करती, न करे! वैसे भी प्यार करने पर वह ऐसी कौन सी चीज मुझे बहाल करेगी जो मैं पराक्रम से उससे पहले ही छीन न सकूँ। वाह! आ गई मेरी प्राण प्यारी!

[सुनीति मुसलमानी पोशाक में आती है।]

ऐ प्यारी सोनपती, आओ! तू नहीं आती तो मैं बल से तेरे को ऐसे पकड़ लाता! आँ, ये क्या अजब बात हुई? अरे, ये क्या? मैंने तेरा हाथ पकड़ा, फिर भी तूने हमेशा की तरह उसे झिड़का क्यों नहीं। इससे मेरा हाथ ढीला पड़ रहा है और हमारी मुलाकात भी फीकी लग रही है। देख, कामशांति के आनंद की तरह ही क्रोधशांति का आनंद भी बड़ा मीठा होता है। डरी-सहमी भेड़ को खाते शेर की फीकी और सुस्त डकार और कहाँ जोरदार टक्कर लेनेवाले मदमस्त हाथी का मस्तक तोड़ और उसका गरम-गरम लहू पीते समय की, क्रोधशांति के उन्मत्त आनंद से भरी उसकी दहाड़? अगर तूने स्वयंवर में मुझे माला पहनाई होती तो मुझे सिर्फ कामशांति का ही आनंद मिलता, पर तू है काफिरों की लड़की। पानीपत में खंजर उठाकर तू मुझपर टूट पड़ी थी तब तुझे जिस तरह दबोचकर, मसलकर मैंने सीने से चिपकाया था, उसमें कामशांति के साथ साथ क्रोधशांति का नशीला आनंद भी मिल गया था और वह मजा आया था कि बस! क्यों प्यारी सोनपती, सुन रही है न सारा!

सुनीति : जी हाँ, जिस धिक्कार से सीताजी रावण की बकबक सुनती थीं उसी धिक्कार से मैं भी आपकी शेखियाँ सुन रही हूँ।

सादुल्ला : अच्छा ही किया सीताजी ने, जो रावण को दुत्कार दिया। वह भी अक्ल का दुश्मन था। अरे, बरजोरी से उसे प्यार करता, पर नहीं, वह तो उसकी विनती करता रहा, लेकिन मैं तो बिना जबरदस्ती के बात तक नहीं करता। बोल, मैं रावण से बड़ा हूँ या नहीं?

सुनीति : जी हाँ, आप तो रावण से भी ज्यादा अत्याचारी हैं। छोटे से अत्याचार के लिए राक्षस रावण के दसों सिर काट दिए गए थे। आप जैसे महाराक्षस के बड़े अपराध के लिए¨¨

सादुल्ला : यह एक भी सिर नहीं काटा गया।

सुनीति : जी हाँ, शैतान की कितनी कृपा है!

सादुल्ला : शैतान की क्यों? भगवान् की मेहरबानी है मुझपर!

सुनीति : राक्षसों के भगवान् को ही मराठे शैतान कहते हैं।

सादुल्ला : मरहट्ठे! अब किधर हैं तेरे मरहट्ठे?

सुनीति : यहाँ बंदीगृह में कैसे जानूँ? पर मेरा सपना बड़ा ही डरावना था। क्या कहूँ आपके सिर जैसा ही एक सिर भाले की नोंक पर गड़ाकर महादजी शिंदे ने फत्तरगढ़ में जुलूस निकाला है। और आपका सिर इस मोटी गरदन से ज्यादा अच्छा उस भाले की नोंक पर ही लग रहा था। नहीं¨¨सपने में देखा था मैंने!

सादुल्ला : (चौंककर) अबे शैतान की बच्ची! फिर कभी ऐसी वाहियात बकी तो तेरे गले की सुंदर डंठल से तेरे सिर को अलग कर फूल की भाँति मसल डालूँगा। याद रख!

सुनीति : अब क्यों चिढ़ने लगे? कुछ देर पहले मैंने आपका हाथ झिड़ककर परे नहीं हटाया। तब आपने कहा कि मुझसे मुहब्बत नहीं, झगड़ा करो। और अब मैं आपसे झगड़ा करने लगी तो इतना डरते हैं। रंग क्यों स्याह पड़ गया हैं? अब आप ही कहिए कि आपसे प्यार से बोलूँ, सुनो तो खानजी, मराठे मेरे कौन लगते हैं? मेरा धर्मभ्रष्ट हो गया। उनके पास चली भी जाऊँ तो भी वे हिंदू मुझे मुसलमान ही समझेंगे। मुझे दुत्कार देंगे। अब आपके सिवा मेरा कोई अपना नहीं। इसलिए आपको परेशान जान, मैंने आपके सामने अपना प्यार प्रकट किया था। अब बताइए कि आप तब से इतने डरे हुए क्यों हैं? क्यों आप बार-बार चौंक रहे हैं?

सादुल्ला : वाह! मैं क्या सुन रहा हूँ आज? तू मेरी प्यारी सोनपती, तेरा मुँह मैं रोज देखता था, लेकिन दस बरसों में आज पहली बार तेरा दिल देखा। बेशक तेरा दिल तेरे चेहरे से भी अधिक खूबसूरत है। तू दिलदार है जानेबहार, तभी तो तूने मेरी परेशानी जान ली। सोनपती, क्या कहूँ, मरहट्टे दिल्ली लेकर रोहिलखंड की तरफ बढ़े चले आ रहे हैं। मेरी जान खतरे में है। इसी से मैं फिक्र में हूँ और कुछ आराम पाने के लिए तेरे महल में आया हूँ। बाकी सबकुछ फिर कभी बता दूँगा; पर प्यारी, छोड़ भी इन सब बातों को। अभी इन तमाम बेचैनियों को तेरे इश्क के प्याले में डुबो देंगे। चल, मरना तो सभी को है, सिंकदर भी मरा है। पी डाल झट से यार, जो इश्क का प्याला भरा हुआ है।

सुनीति : बिलकुल सही। सचमुच प्याला छलक रहा है।

पद

जिसे जो भी पसंद आए। पीने दो उसे वही प्याला।

मदहोश कर दे मय से। जीने-मरने से है कोई कभी डरा।

विष को पीकर, शंभु अमर हो गया।

अमृत पीकर भी राहू कट गया।

जो सुरा लागे, उसी को पी ले यार।

हलाहल से भरा मैं भी पी लूँ यह प्याला।

वैर से मतवाले जग का कर दूँ भला।

[चले जाते हैं।]

तीसरा अंक

: पहला दृश्य :

[हाफिज रहमत और सादुल्ला खान तोप में गोला-बारूद भरकर सेना के साथ खड़े हैं।]

सादुल्ला खान : (दूरबीन से देखते हुए) नामर्द, कायर, कैसे डरपोक हैं ये मरहट्टे! देखिए जनाब हाफिज रहमत खान साहब, हमारे रोहिलों की तोपों से डरकर वे फिर से पीछे हट गए हैं। हमसे बदला लेने के लिए हमारे रोहिलखंड पर एक लाख मराठा सिपाही टूट पड़े थे, पर गंगा पार करते ही उनका पाला पड़ा हम रोहिलों के बड़े-बड़े मोरचों और तोपों के धमाकों से! उन्होंने ऐसी जबरदस्त मुँह की खाई कि पानी के मार्ग से उलटे पाँव लौट गए। मुसलिमों के दुश्मनों के छक्के छुड़ाने के लिए खुदाताला फरिश्तों को मैदाने जंग में भेजते हैं। ऐसी दास्तानों से हमारी तवारीख भरी पड़ी है। शायद ऐसी ही कोई फरिश्तों की फौज आसमान से इस मैदान में उतर आए और हमारी मदद करे। अल्लाह मूर्तिपूजकों की फतह हरगिज नहीं होने देगा।

हाफिज : सादुल्ला खान साहब, दिल्ली की मुसलमान सलतनत काफिरों के हाथ में पड़ने में अब कोई कसर रह गई है क्या! वहाँ तो आज ही काफिरशाही हो गई है। नजीब खान और बंगश खान अल्लाताला को प्यारे हुए। मराठों ने दिल्ली-दोआब में एक लाख पठान और रोहिल्लों को मौत के घाट उतारा, पर अल्लाताला के फरिश्तों को कोई पता नहीं। लगता है कि खुदा भी इन मूर्तिपूजकों के पक्षधर हो गए हैं और मराठों के सामने हम मुसलमान शेर के सामने गीदड़ की तरह हो गए हैं। (दूरबीन में देखकर) सादुल्ला, देखिए, फिर से आगे बढ़े मरहट्टे!

सादुल्ला : तोपचियो, देखते क्या हो! फिर से तोपों की मार शुरू करो। आग उगलो। भून डालो दुश्मन को। (तोपों से गोले बरसने लगते हैं।) (दूरबीन से देखकर) कितने हिम्मतवाले हैं ये मरहट्टे! इस भयंकर आग को पीकर ऊपर चढ़े आ रहे हैं।

एक जमादार : (प्रवेश कर) जनाब, उधर की बात छोड़िए। पहले इधर देखिए। सरदार बिनीवाले मराठों की प्रमुख फौज के साथ गंगा पार कर रहे थे। हमारी पूरी फौज उनसे लड़ने में जुटी थी। तब महादजी शिंदे किसी दूसरे चोर मार्ग से गंगा पार कर आए और उन्होंने हमारी सेना पर पिछाड़ी से हमला किया। इधर, इस तरफ देखिए। सब तरफ मानो मराठों का बादल छाया हो। मराठा शमशीर रोहिलों को घास-पात की तरह काट रही है।

[इतने में'हर-हर महादेव की गर्जना करते हुए एक तरफ से महादजी की सेना आती है। घमासान लड़ाई शुरू होती है। तोपों की गड़गड़ाहट से दसों दिशाएँ गूँज उठती हैं। मराठा सैनिक थोड़े पीछे हटते हैं। तभी मुसलमानों की पिछाड़ी की तरफ से'हर-हर महादेव'की गर्जना करते यशवंतराव और बिनीवाले सेना के साथ आते हैं। मुसलमान दोनों तरफ से हिंदू सेना के शिकंजे में फँसते हैं। जोरदार लड़ाई होती है। रणसिंघे बजते हैं। सबके बीच पगली डमरू बजा-बजाकर नाचती है,गाती है।'सोनपत,पानपत,हम सबकी गई थी पत। पादशाह हिंदूपत। बदला लो,बदला लो,भाऊ का बदला लो,दत्ताजी का बदला लो,पानीपत का बदला लो। ']

पगली : (अचानक रुककर) मिल गया रे! यही है वह सादुल्ला! हम औरतों को इसी ने बालों के बल खींचा था। पानीपत में भ्रष्ट किया था। भाग गया मुआ। पकड़ो उसे। भागने न पाए। (चीखती हुई सादुल्ला के पीछे भागने लगती है। इतने में मुसलमानों के बीच से 'भागो-भागो'की आवाज उठती है। कुछ सिपाही और हाफिज रहमत भागने लगते हैं। भाग-दौड़ में कुछ सिपाही गिर पड़ते हैं। किले के बुर्ज पर चढ़कर मराठा सिपाही तोपों पर अपना केसरी ध्वज लगाते हैं'हर-हर महादेव' की गर्जना करते हैं।)

बिनीवाले : शाबाश बहादुरो, दुश्मनों का पूरी तरह सफाया कर दिया तुम लोगों ने! सरदार कानडेजी के बाद श्रीमंत पेशवा ने हमें सरसेनापति बनाया। तुम्हारी बहादुरी से वह सार्थक हुआ।

महादजी : सरसेनापति, सरदार बिनीवाले, यही है न रोहिलखंड! पानीपत के दुश्मनों का, उस नजीब का, हाफिज का, सादुल्ला का और रोहिलों का रोहिलखंड! इस रोहिलखंड के सीने में मराठा तलवार घुसेड़कर आज मैं शान से खड़ा हूँ। शूरमाओ, जाओ, मराठों को लूटकर इकट्ठा किया गया माल या उनकी औरतें जिस घर में भी मिलें, उसी को जलाकर राख कर दो। हर एक किला मटियामेट कर दो। गाँव-के-गाँव काटके रख दो। इस बहादुरी से पानीपत की लड़ाई का बदला लो कि पानीपत के नाम से किसी मराठा को सिर नीचा न करना पड़े। उलटे पठान और रोहिले ही उस नाम से काँपने लगे।

बिनीवाले : लेकिन सबकुछ सतर्कता से करना, क्योंकि रोहिलों की एक बड़ी भारी फौज फत्तरगढ़ में मोरचा लगाकर खड़ी है। और फिर, जिसने पानीपत में मराठा स्त्रियों पर अत्याचार किया, वह नराधम सादुल्ला भी आज हमारे हाथ से छूट गया है। पहले उसी की बलि चाहिए मुझे। जो भी मराठा वीर सादुल्ला को जिंदा पकड़कर या फिर उसका सिर काटकर मेरे सामने पेश करेगा, उसी को मैं गजांत लक्ष्मी बहाल करूँगा। चलो, रणसिंघे और जयवाद्य बजाते हुए फत्तरगढ़ का रुख करें।

['हर-हर महादेव'की गर्जना करते हुए सब चले जाते हैं।]

: दूसरा दृश्य :

सुनीति : पर मुझे यह बता कि फत्तरगढ़ के मुसलमानों की गतिविधियों की जो गुप्त बातें मैं तेरे द्वारा उस गुप्तचर को कहला भेजती हूँ, वे सारी रावराजे यशवंतरावजी के पास ही पहुँचती हैं या किसी ऐरे-गैरों के पास!

अम्मा : क्या पूछती हो तुम? वह निश्चित ही स्वयं रावराजे का ही गुप्तचर है।

सुनीति : पर अम्मा, कहीं तूने रावराजे के गुप्तचर को मेरा असली नाम तो नहीं बताया? क्या पता, मेरी प्रशंसा हो, इसलिए तू यह भी कर दे।

अम्मा : नहीं री, जैसा तुमने कहा था, ठीक वैसे ही किया है मैंने। मैंने कहलाया है कि दुर्गावती नाम की एक मराठा औरत मुसलमानों की पटरानी है। वही मेरे हाथ मुसलमानों की गुप्त गतिविधियाँ आप तक पहुँचानेवाली है। रावराजे कह रहे थे कि उस महिला से मिलकर वे उसका सम्मान करेंगे, पर सुनीति, तुम अपना नाम क्यों नहीं बताना चाहतीं? अपनी प्रियतमा को पाकर यशवंतराव का आनंद गगनव्यापी हो जाएगा।

सुनीति : कैसे मान लिया तूने? अम्मा, वे जब भी यह जानेंगे कि उनकी प्रियतमा पतित हो गई है, तब शायद उनका आनंद नहीं बल्कि क्रोध सातवें आकाश को छू लेगा। अम्मा, वे सोचते होंगे कि उनकी प्रियतमा, सुनीति पानीपत में मर गई है। उन्हें यही समझने दे। यह पतिता सोनपती उनकी स्मृति पर अपनी अमंगल छाया डालकर उन्हें भ्रष्ट नहीं करना चाहती। जाने दे इन बातों को! तू मुझे कल तक की लड़ाई की बात बता। परसों हमने यह कहला भेजा था कि मुसलमानों का तोपखाना किस जगह कमजोर है। मराठों ने उसका लाभ उठाया या नहीं?

अम्मा : मैं तो भूल ही रही थी। हमारी खबर के अनुसार मराठों ने कल सबेरे से फत्तरगढ़ की तरफ तोपों की जोरदार बौछार शुरू कर दी है। उस तरफ की मुसलिम तोपों का मुँह अब बंद हो गया है।

सुनीति : सच! फिर आते ही तुझे यही खबर देनी चाहिए थी मुझे। यह क्या कि पूछे जाने तक तू इस बारे में मुँह भी न खोले! अच्छा, अब सेनापति जबेता खान का क्या हाल है? क्या तुम हमेशा की तरह उसके पास हो आई। अम्मा, भूलने से पहले जरूरी बात पहले बतानी चाहिए। आजकल तेरी स्मृति बहुत दुर्बल होने लगी है।

अम्मा : तुम क्या कह रही हो, सुनीता! कब भूली थी मैं? हाँ, कभी-कभी कुछ बातें बताना भूल जाती हूँ। पर एक बात पहले कहती हूँ तो दूसरी रह जाती है और दूसरी बात पहले कहती हूँ तो पहली बात रह जाती है। भला एक साथ सभी बातें कैसे कह सकती हूँ मैं, नहीं कह सकती एकदम।

सुनीति : रूठो मत, मेरी अम्मा! भले ही तुम कोई बात भूल जाती हो, पर मानवीयता को कभी नहीं भूलती हो। बाकी बातों का लेखा-जोखा रख सिर्फ मानवीयता को भूलनेवाले इन मरे राक्षसों की लंका में एक तू ही तो इनसान मिली मुझे। मेरी अयोध्या की पहचान देनेवाली, खबर देनेवाली मूक मुद्रिका हो तुम। तेरे सच्चे हृदय के सहारे जितना हो सके उतना काम करवाना है मुझे। उन पहरेदारों की दौड़-धूप से लग रहा है कि सादुल्ला खान यहीं आ रहा है। कहने लायक कोई खबर रह गई हो तो तुरंत बता, नहीं तो हट जा।

अम्मा : कहने लायक की अच्छी कही तूने। मैं भूल ही रही थी, पर इस खबर को एकदम गुप्त रखना। किसीको कुछ मालूम नहीं इस बारे में। अरी, कल रात सुरंग के रास्ते जबेता खान भाग गया। सच! उसकी औरतों में कानाफूसी हो रही थी। वही सुन ली मैंने। खबर पक्की है। जाते समय उसने सादुल्ला खान को इस फौज का सरसेनापति बनाया है।

सुनीति : (ताली बजाकर) अम्मा, क्या कह रही हो? अगर यह खबर सच्ची होगी तो अम्मा, तू समझ ले कि मैंने इस किले को अपनी भयानक फुफकार से तहस-नहस कर डाला। बहुत ही अघोरी योजना बनी है मेरे मन में। पर अम्मा, हम ऐसी अभागिनें हैं और काम इतना जोखिम भरा कि जब होगा तब कहें कि हो गया। तब तक ऐ मेरे मन, मन के लड्डू खाते मूर्खों जैसे वाचाल न होना। तू पत्थर की भाँति निश्चल रह, साँप की भाँति चालबाज और शैतान की तरह पापी हो जा। तभी तू यह भगवान् का पुण्य कार्य कर सकेगा। आज का रंग तो बढ़िया है, पर कल का हाल कौन जाने!

अम्मा : अरी, कल की सही-सही बात बतानेवाली एक डायन जाने कहाँ से आ गई है किले में! नाम पूछो तो कहती है 'पगली', पर वास्तव में सभी मुसलमान सिपाहियों और अफसरों को उसी ने पागल बना दिया है। जहाँ भी जाती है, मराठों को गालियाँ देती है। उसे कोई रोकता-टोकता नहीं। उलटे हर कोई उसे हाथ दिखाने की कोशिश करता है। वह सभी का भूत और भविष्य एकदम सही बताती है। लो, मैं भूल ही चली थी। मेरे पीछे भी पड़ी थी कि मैं उसे सादुल्ला खान के पास ले चलूँ। कल तो सीधे इस महल के जीने तक आई थी वह।

सुनीति : अम्मा, अम्मा, सादुल्ला खान आ रहा है। जा, जा! (अम्मा जाती है।)

सादुल्ला : (प्रवेश कर) सोनपती, अफसोस! ऐ मेरी प्यारी सोनपती, अफसोस! मेरी जान खतरे में है। बचाओ, बचाओ मुझे। मेरी यह फौलादी तलवार आज भोथरी हो गई है। अब मुझे मेरे प्यार की तलवार, मेरी प्यारी सोनपती ही बचा सकती है। उस दिन तूने शपथ लेकर वचन दिया था कि तू मेरे विश्वास और प्रेम पर कभी घात नहीं करेगी।

सुनीति : जी हाँ, सादुल्ला खान साहब! आप मेरे साथ जिस विश्वास और प्यार से आज तक पेश आए, उसी विश्वास और प्यार से मैं भी आपके साथ मृत्यु तक पेश आऊँगी। कहिए, आज कौन सा नया संकट आ गया है और उससे आपको बचाने के लिए भला मैं क्या करूँ?

सादुल्ला : सुन प्यारी, सुन! नजीब के बेटे जबेता खान और मैंने मिलकर इस फत्तरगढ़ में जबरदस्त मोर्चा लगाया था। मराठों ने हमें चारों तरफ से घेर लिया था, फिर भी परसों तक हमारे गोलों की मार में वे तिनके बराबर भी आगे नहीं सरक सके थे, पर न जाने कैसे मराठों ने हमारी कमजोर जगह पता करके हमारी वहाँ की तोपें बंद कर डाली हैं। उस तरफ के परकोटे में बड़े-बड़े छेद हो गए हैं। तब हमारे मालिक और सरसेनापति जबेता खान इतना घबरा गया कि गुप्त सुरंग से किले से जान बचाकर भाग गया।

सुनीति : क्या कहा, इतनी बड़ी फौज का सेनापति और बहादुर नजीब खान का शूरमा बेटा जबेता खान मराठों से डरकर भाग गया! और इतनी बड़ी खबर मुझे मालूम तक नहीं हुई!

सादुल्ला : प्यारी, एक तू ही नहीं, इस खबर को सिवाय मेरे और कोई अभी नहीं जानता। इसीलिए तो मेरी जान बचने की कुछ आशा है मुझे। जाते समय वह मुझे इस फौज का सरसेनापति बनाकर गया है। यहाँ की सारी सरकारी चाबियाँ देकर, आखिरी दम तक लड़ने का हुक्म देकर वह चंपत हो गया। नामर्द है तो क्या हुआ! मालिक है वह। उसके मुँह पर उसके हुक्म को मानने से इनकार थोड़े न कर सकता हूँ मैं। मैंने हामी भरी, पर मुझे मालूम है कि जिन मराठों के डर से रोहिलों के ये सारे मोतबर सरदार जंगलों में जा छिपे हैं, उनसे टक्कर लेना मेरे भी बस की बात नहीं। यही सोचकर मैंने भी उसी उपाय से अपनी जान बचाने का निश्चय किया है। प्यारी, अभी भी मैं मौत से नहीं डरता हूँ। पर हाँ, मराठों से डरने लगा हूँ। इसलिए मैं आज ही सुरंग से भाग जाऊँगा।

सुनीति : अच्छा, आपकी जान इस तरह बचाने में मैं आपकी क्या मदद कर सकती हूँ?

सादुल्ला : वही तो बता रहा हूँ। प्यारी सोनपती, सुरंग की बात सिर्फ जबेता खान ही जानता था, पर भागते समय उसे मेरी मदद की जरूरत थी, इसलिए उसने मुझे वह दिखा दी। प्राणप्यारी, वही अब मैं तुझे दिखाऊँगा। सुरंग का मुहाना किले से बहुत दूर एक झुरमुट में खुलता है। वहाँ मेरे सौ-सवा सौ अनुयायी छिपे रहेंगे। उनके साथ मैं चुपचाप अपने जागीर के गाँव चला जाऊँगा। इसमें दो दिन लग जाएँगे। तब तक इस बात की किसीको कानोकान खबर न हो। तू ऐसा जता कि मैं तेरे महल में बीमार पड़ा हूँ। अभी एक चिट्ठी लिख देता हूँ मैं। इसमें अपने मातहत फौलाद खान को सरसेनापति बनानेवाली बात लिखता हूँ। दो दिन बाद तू यह चिट्ठी और खजाने तथा बारूदखाने की चाबियाँ फौलाद खान के पास दे आ और शोर मचा कि ये सब चीजें तेरे महल में छोड़कर मैं कहीं लापता हो गया हूँ। बाद में मौका मिलते ही तू भी उसी सुरंग से फरार हो जा और मुझसे आ मिल। वहाँ अपनी छोटी सी जागीर में हम फिर अपने प्यार का स्वर्ग बसाएँगे। तब तक ऐ मेरी प्यारी, इस मुसीबत का सामना¨¨

सुनीति : मैं बड़ी खुशी से करूँगी। आप किसी प्रकार की झिझक न करें।

सादुल्ला : आह! तू है तो काफिरों की छोकरी, पर अब किसी देवता की तरह लगती है। देख, रात घिरने लगी है। आधी रात में मैं तेरी पालकी में बैठकर तुझसे विदा ले लूँगा। तुझे छोड़कर जाते हुए मेरा दिल डूबा जा रहा है। आ, प्यारी, आ! कम-से-कम आज के दिन मैं तेरे आलिंगन से अपने प्राणों की प्यास बुझा लूँ। मेरे गले में प्यार से अपने सुनहरे बाहु लपेट दे।

[कहते हुए वह उसे बाँहों में भरना चाहता है। तभी जीने से पगली आती है। उसके बाल बिखरे हुए हैं,मुट्ठियाँ भींची हुई हैं। बहुत डरावनी दीख रही है वह! एक अँधेरे कोने में निश्चल खड़ी होकर वह आँखें तरेरकर यह देख रही है।]

पगली : (स्वगत) क्या देख रही हूँ मैं! मेरी मरी हुई बेटी या उसका भूत है यह, मेरी सुनीति और सादुल्ला की बाँहों में? तुलसी दल नरक के कुंड में? और यह निगोड़ी फिर भी जिंदा है?

सुनीति : (पगली की तरफ नजर जाते ही चौंक उठती है।) वहाँ¨¨वहाँ क्या दिखाई दे रहा है? कोई औरत? मेरी मरी या मेरे हृदय में रहनेवाली माँ तो नहीं? पर लगता है, मेरे पापाचरण से चिढ़कर वह मेरे दिल से भी निकल गई है। गुस्से से बिगड़ा हुआ उसका चेहरा¨¨ (सादुल्ला को परे धकेलकर) छोड़ दे मुझे। जरा पीछे मुड़कर देख। कोई तुझे आँखों से खा जाना चाहती है! देख, देख वहाँ!

सादुल्ला : या अल्ला! यह कौन है? कोई हैवानी बला या पागल औरत? या जिसके डर से मैं यहाँ से भाग जाना चाहता हूँ, वही मेरी मौत! बोल, कौन है तू? औरत या भूतनी? ऐसे चुपचाप क्यों खड़ी है? कौन चाहिए तुझे?

पगली : (दाँत पीसते हुए,दबी आवाज में एक-एक शब्द पर जोर देते हुए, एक-एक कदम आगे बढ़ती है।)।

तू, तू ही तो चाहिए मुझे! पानीपत में मेरे और मेरी बेटी के बालों को खींचकर घसीटा था न तूने! पर नासपीटे उन्हीं बालों ने तेरा गला काट दिया। ले! (डर से काँपे सादुल्ला पर अचानक कूदकर वह उसका गला दबाती है। उसे पलंग पर गिरा उसपर खंजर का वार करती है। फिर एक बार उसके सीने में खंजर भोंकना चाहती है। तभी सुनीति पगली का हाथ पकड़ लेती है।)

सुनीति : माँ, चाहे तू मेरी जिंदा माँ है या उसकी मृतात्मा, मैं तेरी बेटी हूँ, तेरी सुनीति हूँ। पानीपत में मैं बुरी तरह घायल हो गई थी। वहीं रणभूमि पर गिर पड़ी थी। तब यह राक्षस मुझे यहाँ उठा लाया, माँ¨¨

पगली : चुप! जबान काट डालूँगी, अगर मुझे माँ कहा तो! तेरी माँ और तेरे पिता पानीपत में ही चल बसे। तेरी पिता की आत्मा बदला हो गई और माँ की आत्मा पागलपन! वहाँ से हमारा विभव हो गया। मैं हूँ पागलपन और बदले का भाव, मेरा पति। मेरे उस पति के नाम से, बदले से मैं माथे पर सिंदूर भरना चाहती हूँ, पर सिंदूर की डिबिया ही कहीं खो गई! हाँ, पर अब मिल गई है। इस पापी के सीने से बहता यह खून डिबिया में भरा सिंदूर! खंजर से निकालकर यह लगाया मैंने अपने माथे पर! (छीना-झपटी कर सुनीति उसके हाथ से खंजर छीन लेती है।) बस, मेरा काम हो गया। अब कहीं और चली जाऊँगी। और तू, जिसने तेरे बाप को मारा, तेरी माँ का गला दबाया, उसी के गले में बाँहें डालकर रंगरेलियाँ मना रही है! सोनपत, पानपत! सोनपत, पानपत! (इसी ताल पर पाँव पटककर जाने लगती है। उसे सुनीति रोक लेती है।)

सुनीति : माँ, पल भर रुक जा, माँ! मेरी माँ लापता हो गई है। फिर कभी नहीं मिलेगी, इसी गम से मैं दुःखी थी, पर आज वह मिल गई है। अब एक बार गले तो मिल ले, माँ!

पगली : दूर हो जा मेरी नजरों से, वरना तेरी जान ले लूँगी।

सुनीति : ले ले, ले ले मेरी जान! तेरी ही दी हुई है यह। इसपर तेरा ही अधिकार है। आखिर मैं क्या हूँ? तेरे जीवन की दूधगंगा का घूँट भर दूध। तुझी पर अर्पित करती हूँ उसे। माँ, प्राण भले ही ले ले, पर एक बार गले तो मिलने दे। (पगली के गले लगती है। पगली रोते हुए उसकी ठुड्डी पकड़कर।)

पगली : पर बेटी, क्यों करती रही तू यह पाप? न, डरकर दूर मत जा! तेरे मुलायम होंठों के स्पर्श से दिल में वही पुराना प्यार हिलोरें लेने लगा है। जीवन भर की आदत ऐसे थोड़े ही छूटेगी! आ बिटिया, आ जा। इस प्यार की गंगा में सराबोर हो ले। पर¨¨पर¨¨नहीं। जा, पीछे हट! सुनीति, लगा था कि तू मुझे स्वर्ग में मिलेगी। वहीं ढूँढ़ने निकली थी, पर तू तो इस नरक में तिल-तिल गल रही है। इससे अच्छी तो तेरी मृत्यु ही है।

सुनीति : माँ, और दस-बीस दिन रुक जा, मेरा विश्वास कर। हमारी हिंद पदपादशाही को आज मेरी और इस नीच सादुल्ला की जिंदगी हमारी मौत से हजार गुना जरूरी है। इसलिए मैंने तुम्हें इसे यहीं खत्म करने से रोका। तीन दिन बाद तुझे पता चलेगा कि मैं क्यों जिंदा रही और इसे भी मैंने क्यों बचाया। उसके बाद तू जिस प्रकार चाहे मुझे मार सकती है। (सादुल्ला कराहता है।) देख, उसे होश आ रहा है। अभी चली जा तू। इस किले के नीचे मैं एक सुरंग में जा रही हूँ। तुम्हें देखकर मेरी आँखों में आँसू भर आएँगे और मैं अपना काम न कर सकूँगी। इसलिए माँ, अब तू चली जा, पर बाद में जरूर मिल मुझसे।

पगली : (जाते हुए) मिलूँगी। अभी तो तूने मेरा खंजर छीन लिया है, पर फिर मिलूँगी। तब ऐसा ही दूसरा खंजर होगा मेरे हाथ में। तेरी बात झूठी निकली तो फिर से सोनपत! फिर से सोनपत फिर से पानपत!

[ताल पर बड़बड़ाती-नाचती चली जाती है।]

सादुल्ला : हाय! सोनपती, डर के मारे जान निकली जा रही है। इसी क्षण मुझे किले से बाहर निकालने की तरकीब करो, वरना मैं तो यहीं मर जाऊँगा।

सुनीति : खान साहब, डरिए मत। वह डाकिनी चली गई। दवा बनाकर अभी यह जख्म भर देती हूँ। (जख्म में दवा भरकर उसे बाँधते हुए) सरकार, आपको सुरंग तक ले जाने के लिए जब तक मैं पालकी न लाऊँ तब तक आप अंदर जाकर लेट जाइए। आपकी सेवा अम्मा करेगी, पर फौलाद खान को देने के लिए चिट्ठी और बारूदखाने तथा खजाने वगैरह की चाबियाँ फौरन निकाल दीजिए।

सादुल्ला : मेरे खास महल में जा। इस चाबी से वहाँ की संदूक खोल। उसमें पड़ी चाबियाँ ले ले। तब तक मैं चिट्ठी भी लिख देता हूँ। (सुनीति सादुल्ला के महल में जाती है। फिर से बाहर आती है।)

सुनीति : (स्वगत) बड़ा ही दुविधाजनक संकट था वह। अगर यह सादुल्ला वहीं पर टें कर देता तो मेरे हाथों में वह चिट्ठी और चाबियाँ न आतीं। और वह अच्छी तरह से जीता-जागता यहाँ से निकल जाता तो भी मन में खटका रहता, पर इसकी अधमरी हालत से मेरे दोनों ही काम बन गए। इस जानलेवा चोट के कारण अब यह जिंदा नहीं बचेगा। बाहर जाकर भी कहीं मर-खप जाएगा। यही ठीक भी रहेगा। कहीं किले के अंदर दम तोड़ देता तो मैंने ही उसे मार डाला, ऐसी खबर फैलाकर ये रोहिले मुझे जान से मार डालते। अब दो-तीन दिन बाद, मौका पाते ही मैं सादुल्ला की लिखी यह चिट्ठी फौलाद खान को दे आऊँगी और सादुल्ला कहीं भाग गया है, ऐसी खबर फैला दूँगी। इस तरह बिना कहीं फँसे मैं आगे की गुप्त योजना अमल में ला सकूँगी। अचानक ही आए इस नए मोड़ के कारण मैं अपनी मंजिल तक और जल्दी पहुँच गई।

पद

यह विकट-दाँव, विकट संकट से बचाए।

शिवसम विष कंठ, शिर गंगा उपकारी॥ध्रु.॥

पापों में ढूँढ़ पुण्य-

मैं अबला करूँ कार्य-

हूँ मैं अकेली, पर दशसहस्र दैत्यों को निचोड़के रख दूँ॥

: तीसरा दृश्य :

कोंडण्णा : (इधर-उधर देख शव को खींचता है।) सुना था कि जान के डर से यहाँ पर छिपी मुसलमान टोली से गश्त करती मराठों की टोली जा टकराई। लगता है कि खबर सच्ची थी। ये रहे भगोड़े रोहिलों के शव। अरे, शव के गले में यह क्या चमक रहा है! कहीं हीरा तो नहीं! पर यह मरा हुआ आदमी प्रेतावस्था में ही है या भूत बनने की प्रक्रिया में? ( पत्थर मारकर) हाँ, यह निश्चेष्ट शव ही है। (पास जाकर गले का कंठ हार निकालकर) यह है रत्नहार और यह हीरे की अँगूठी! हो न हो, कल मुठभेड़ में मराठों के हाथ अनजाने में ही रोहिलों का कोई सरदार मारा गया है। शायद अँगूठी पर ही नाम हो। सादुल्ला खान! अरे, यह तो हमारा पानीपत का कट्टर दुश्मन है। जिसका सिर काटनेवाले को गजांत लक्ष्मी की जागीर देने की मुनादी सरसेनापति ने करवाई थी। उसका, सादुल्ला का शव है यह! और अब इसका सिर काटकर गजांत लक्ष्मी पानेवाला लक्ष्मीकांत मैं हूँ! विश्वास ही नहीं होता कि ऐसा असंभव सौभाग्य अचानक ही मेरी झोली में आ गया है! हाँ, शमशीर! आ, निकल आ मेरे म्यान से! दुष्ट सादुल्ला, अब बचा अपने आपको! शिरच्छेद के डर से तू मृत्यु के मुँह में कल ही घुस गया है, पर कायर, तुझे मृत्यु के मुँह से खींच निकालकर मैं आज तेरा शिरच्छेद करूँगा। इसलिए अगर हिम्मत है तो उठ और द्वंद्व युद्ध के लिए तैयार हो जा, क्योंकि शव का सिर भी मैं बिना लड़े नहीं काटूंगा और शव को भी बिना आगाह किए मैं अधर्म से नहीं मारूँगा। यह आया मैं। हर-हर महादेव! (शव का सिर काटता है।) ऐ चराचर ईश्वर, तू ही मेरा साक्षी है। मैंने पानीपत का बदला ले लिया। भयानक द्वंद्व युद्ध में मैंने सादुल्ला खान को मार गिराया है। हर-हर! मैं इतने दमखम से चिल्ला रहा हूँ, पर मेरे साथ इन झुरमुटों की टोह लेनेवाला मेरा साथी, धोंडण्णा मेरे शौर्य को देखने अभी तक नहीं आया। कोई और भी तो आ सकता है यह पूछने कि भई, क्या हो गया!

[इतने में परदे में आवाज-भागो,भागो,मराठे आए,मराठे आए और मुसलमानों का एक झुंड भागते हुए वहाँ आता है।]

कोंडण्णा : (डरकर वह सिर वहीं छोड़ देता है।) अरे, ये तो मसलमान सिपाही हैं। कहीं जान पर न आ बने। बाप रे! इसी तरफ आ रहे हैं। भागने लगूँगा तो ये मुझे पकड़ लेंगे। यहीं पर खड़ा रहूँगा तो भी ये मुझे मार डालेंगे। इसलिए लाश बनकर इन्हीं लाशों में लेट जाता हूँ। शायद इसी उपाय से जान बचे! आगे बहुत सालों तक जीने के लिए थोड़ा मरना ही पड़ेगा। (शवों में पड़ा रहता है।)

पहला

मुसलमान : आए, मराठे आए, भागो।

दूसरा

मुसलमान : लेकिन पता तो चले कि किस तरफ से आ रहे हैं। बोलो, किस तरफ भागें!

पहला

मुसलमान : अरे, चारों तरफ से आ रहे हैं वे, इसलिए चारों तरफ भाग चलो। सुना नहीं तुमने उनका हर-हर महादेव!

तीसरा

मुसलमान : लेकिन मरहट्टे (मराठे) कल इधर से पचास मील दूर चले गए थे न! क्या उनका हर-हर महादेव नारा पचास मील की दूरी से सुनाई देता है।

पहला

मुसलमान : बेशक, अबे गधे, मरहट्टे जब तक पचास मील की दूरी पर हैं, तभी भाग जाने में खैरियत है। अगर जान प्यारी है तो भाग चल पगले! सुना है कि मरहट्ठों के घोड़ों के पंख होते हैं, पंख!

कोंडण्णा : भगवान्, कहीं ये धक्कामुक्की करते हुए मेरे सीने पर न चढ़ जाएँ! बाप रे बाप! मारे डर के मेरे मुँह से चीख न निकल जाए! हम्म! अब नहीं रहा जाता।

[इतने में उस भागते झुंड में से किसीका पाँव कोंडण्णा के पाँव पर पड़ता है और वह जोर से चीखता है।]

अयाऽऽया! नहीं, मैंने नहीं काटा था उसका सिर। मैं तो शव न हूँ! भला एक शव दूसरे शव का सिर काट सकता है? मुझे यूँ ही चुपचाप पड़ा रहेने दे, वरना मैं शव से भूत बन जाऊँगा!

[मुँह खोलकर बत्तीसी दिखाता है।]

सब रोहिले : भूत-भूत, पानीपत के गुस्से के कारण मुरदे भी भूत बनकर रोहिलों को चबा डालते हैं। सुना है ना कि फत्तरगढ़ में सादुल्ला खान को ऐसे ही किसी मराठे का भूत लगा था! भागो¨¨भागो¨¨

[सब चारों तरफ भाग जाते हैं।]

कोंडण्णा : डरपोक कहीं के! मुझसे डरकर भाग गए! मुझे मालूम ही नहीं था कि रोहिलखंड में मेरे नाम की इतनी दहशत फैली है! जबकि मैं स्वयं डरा हुआ था। नहीं तो ये दोनों प्रतापी हाथ इस तरह जोड़ने की बजाय उसमें दो पट्टे लेकर रणरंग में झूमने-नाचने लग जाता तो...तो...क्या होता भला? समूचा रोहिलखंड अकेले ही जीत लेता। अरे! यह कौन है! हाँ, कोई मराठा सिपाही! भोला-भाला लगता है। भगवान्, मेरा पराक्रम देखने के लिए मुझे जैसा एक गवाह चाहिए था, बस वैसा ही भेज दिया है तूने!

मराठा : (सहमते हुए आगे बढ़कर) क्यों जी, अभी चीखने की आवाज आई थी। क्या वह यहीं से आई थी। मराठों का दूत, संदेशवाहक हूँ मैं। इस तरफ की मराठा टोली को संदेश देकर बाहर के घेरे की तरफ जा ही रहा था कि 'हर-हर महादेव' और 'भागो-भागो' की आवाजें सुनीं मैंने। बहुत से मुसलमान गिरते-पड़ते भागे जा रहे थे। आप मराठा हैं। आपको देखते ही मैं इस ओर लपका।

कोंडण्णा : अच्छा, यानी कि तुमने हमारी लड़ाई नहीं देखी? पहले 'हर-हर महादेव' की गर्जना की मैंने। मुझ अकेले मराठे पर झुरमुट में छिपे हथियारों से लैस सौ-सवा सौ रोहिले 'दीन-दीन' करके अचानक टूट पड़े। गदा, तलवार, बाण, बंदूक, गोफन, पूछो मत! हथियारों की वह मार पड़ी कि बस, खून से लथपथ हो गया मैं, पर जरा भी पीछे न हटा! भुट्टों की तरह उन दुश्मनों को काटता गया। और आखिर...आखिर...ध्यान से सुनो...ये सिर उड़ाया। किसका? अपने आपको सँभाल लो दोस्त! उस भंयकर शत्रु का नाम सुन चौंककर नीचे न बैठ जाना! सीधे होकर सुनो दोस्त! जिसका शिरच्छेद महादजी शिंदे, बिनीवाले, होलकर, बर्वे या स्वयं पेशवा भी न कर सके, उस (जोर से) सादुल्ला खान का सिर मैंने काट दिया! विकट द्वंद्वयुद्ध में, अफजल खान की तरह भयंकर दुश्मन का सिर मैंने उसके कंधे से उखाड़ दिया। तब उन सैकड़ों सिपाहियों में से बचे-खुचे हजारों सिपाही 'या अल्ला-या अल्ला' करके दसों दिशाओं में भाग गए। सुन लिया, तुमने मेरा कारनामा! मेरे वीरता के कारनामे के तुम साक्षी हो। शाबाश! सरसेनापतिजी के आगे अगर तुम यह सच बात बताओगे तो इस साक्ष्य के लिए मैं अपनी लूट में से ये दो कीमती रत्न इनाम में दे दूँगा तुम्हें।

मराठा सिपाही : जी हुजूर, बाकी सबकुछ वैसे ही बता दूँगा, पर उस भयंकर लड़ाई में आप खून से लथपथ हो गए थे। यह भी बताना है क्या? क्योंकि आप तो खून से नहीं बल्कि पसीने से नहा रहे थे।

कोंडण्णा : पगले, पसीना, तुम सोचते हो कि मैं पसीने से नहा रहा हूँ। नहीं रे, आदमी के स्वभाव की तरह उसका खून भी तीन तरह का होता है। सात्त्विक, राजसी और तामसी। तामसी वीर का खून होता है काला, राजसी वीर का लाल और मुझ जैसे सात्त्विक वीर का खून होता है सफेद, गंगाजल की तरह सफेद! उसे तुमने पसीना समझ लिया। कौन धोंडण्णा? मुझपर आई कठिन वेला में कहीं पर मुँह छिपाकर अब आए हो यहाँ? कायर कहीं के!

धोंडण्णा : हाँ, कोंडण्णा, अब जरा जीभ को लगाम दोगे, तो जो भी हुआ है सच लगेगा। मैंने सबकुछ देखा है। मुझे पता है, मुझे पता है। हम दोनों को यह मनचाहा साक्षी भी मिल गया है, पर अचानक हाथ आई इस संपदा को बचाना है तो सैकड़ों, हजारों, लाखों की भाषा छोड़नी पड़ेगी, जीभ पर लगाम देनी पड़ेगी! तू सरसेनापति को अगर बिना आडंबर सीधे और सही शब्दों में अपना पराक्रम बयान करेगा तो हमारी बात बन जाएगी, अन्यथा बना-बनाया काम बिगड़ जाएगा; क्योंकि तू भाग्यवान है, पर बुद्धिमान नहीं। तू तो शंख है, ढपोरशंख!

कोंडण्णा : हाँ-हाँ, धोंडण्णा! जबान काबू में रख। मुझे भले ही शंख कह ले, पर यह भी जान ले कि भगवान् की पूजा से पहले शंख की पूजा करनी पड़ती है। गीता का पहला अध्याय निरी शंख महिमा ही है। कृष्ण ने पांचजन्य, अर्जुन ने देवदत्त, भीम ने पौंड्र इस तरह शतशः वीर, महावीरों ने 'शंखान् दध्मुः पृथक् पृथक्' का घोष किया और देवताओं ने भी कई बार मेरे जैसे शंखों की मदद से ही कई देवकार्य पूरे किए हैं।

धोंडण्णा : पर उन शंखों को देवता बजाते थे। इसलिए उचित फल भी मिलता था। शंख फूँकने का काम मेरे हिस्से छोड़। तभी कल इस समय तक तू गजांतलक्ष्मी का स्वामी बनेगा। फिर हाथी पर बैठकर घूमेगा उस पगली का भविष्य सच हो जाएगा।

कोंडण्णा :धोंडण्णा रे, कैसा अशुभ नाम लिया तूने इस शुभ वेला में! हाथी पर बैठने का संजोग अगर उसकी भविष्यवाणी से ही आनेवाला है तो नहीं चाहिए तुझे वह हाथी और वह गजांतलक्ष्मी भी; क्योंकि फिर उस भूतनी की दूसरी भविष्यवाणी भी सच हो जाएगी। मैं और तू, अंत में जलने लगेंगे...जलकर राख हो जाएँगे। यही बताया था न उसने? धोंडण्णा, उसका नाम सुनते ही मेरे हाथ-पाँव ठंडे पड़ने लगते हैं।

: चौथा दृश्य :

[फत्तरगढ़ के मराठा घेरे के पास एक एकांत स्थल।]

ऋषिकुमार : जी हाँ, यही जगह निश्चित थी। यहीं आपकी भेंट फत्तरगढ़ के सरदार के साथ होगी। किले में मुसलमानों की कैद में होते हुए भी दुर्गावती नाम की एक मराठा स्त्री ने गुप्त रूप से मराठों की मदद की थी। वही बहादुर स्त्री अब आपके साथ जरूरी विचार-विमर्श करने के लिए अपने विश्वासपात्र सरदार को यहाँ भेजने का जोखिम उठा रही है।

रावराजे : ऋषिकुमार, बिना अपना नाम बताए और बिना लालच के आपने भी आज तक ऐसे ही बहुत से जोखिम भरे काम किए हैं।

पद

लोकमंगल की आपसे

सब छोड़ संग, साधू हुए हैं आप।

ऋषिकुमार : देखिए, आ ही गए वे सरदार।

सरदार : (प्रवेश कर। स्वगत) अहा! यही तो है मेरे मनमंदिर की मूरत!

ऋषिकुमार : सरदार साहब, आप आते ही सकुचा क्यों गए? ये ही हैं रावराजे यशवंतरावजी।

यशवंत : सरदार साहब, वीरांगना दुर्गावती ने हमारे लिए क्या संदेश भेजा है? उसने सुरंग से सादुल्ला के भाग जाने की जो गुप्त खबर भेजी थी उसका पूरा-पूरा लाभ उठाया हमने। मराठा टोली ने उसकी नाकेबंदी कर, खूब खबर ली। उस लड़ाई में हमारे कोंडण्णा जागीरदार ने द्वंद्वयुद्ध में उस रोहिला राक्षस का सिर काट दिया। शायद आपको पता चल गया होगा कि उस जागीरदार को हाथी पर बैठाकर उसका सम्मान किया गया और मराठों के जानी दुश्मन सादुल्ला का सिर भाले की नोंक पर लगा मराठा सेना में उसको घुमाया गया।

सरदार : हाँ, इस बात का पता चल गया है मुझे, पर मुझे संदेह है कि यह खबर बिलकुल सच है! यह सच है कि सुरंग से निकलते ही सादुल्ला मर गया, पर यह किसी द्वंद्वयुद्ध का परिणाम नहीं था। सादुल्ला मरा था शरीर पर लगी गहरी चोट के कारण। हुआ यह कि सुरंग से निकलते ही रोहिला सैनिकों पर मराठों का हमला हुआ। तब सादुल्ला वैसे भी कमजोर हो गया था, क्योंकि किले के अंदर एक मराठा हत्यारन ने सादुल्ला को गंभीर रूप से घायल कर दिया था। किले के बाहर आते ही उसी घाव के कारण सादुल्ला ने दम तोड़ दिया। दूसरे दिन संजोग से कोंडण्णा ने उसके शव को पहचाना। उसका सिर काटकर उसने सरसेनापति से यह गप मारी कि उसी ने द्वंद्वयुद्ध में सादुल्ला का सिर काट दिया है।

यशवंत : तो उस चालबाज ने सरसेनापति को भी लपेट में ले लिया। उसकी धोखेबाजी को साबित कर उसे अच्छी सजा देनी चाहिए। अच्छा, अब यह बताइए कि क्या रोहिले अभी भी किले से लड़ना चाहते हैं?

सरदार : जी, सादुल्ला के बाद फौलाद खान रोहिलों का सरसेनापति हो गया। किला मजबूत है और वहाँ बारूद का अच्छा-खासा भंडार भी है। रोहिले आखिरी दम तक लड़ना चाहते हैं। किले में बहुत सी मराठा औरतें रोहिलों की गुलाम हैं। बहुत ही मुश्किल पड़ी तो वे उन्हें कत्ल करेंगे, पर अंतिम रोहिला के मरने तक वे किले को न छोड़ेंगे।

यशवंत : फिर तो बड़ी मुश्किल है। अच्छा, कोई ऐसा उपाय बताइए जिससे किले में स्थित मराठा औरतें बच जाएँ और हमारे हाथ भारी लूट भी आए और किला भी झट से हमारे हाथ आए! यानी कि साँप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे।

सरदार : हाँ, एक ऐसा उपाय है, और उसी को बताने के लिए मैं यहाँ हाजिर हुआ हूँ। हमारा इशारा होते ही रात के गहरे अँधेरे में आप कुछ चुनिंदा लोगों के साथ सुरंग के मार्ग से किले में घुस जाएँ और किले में अचानक छापा मारें। दुर्गावती के पास बारूदखाने तथा किले के और भी महत्त्वपूर्ण स्थानों की चाबियाँ हैं। आपके आते ही हम बारूदखाने में आग लगाएँगे। हर तरफ शोर मच जाएगा। बस, उसी समय मराठों की भारी फौज किले के बाहर से भी जोरदार हमला करे।

यशवंत : ठीक है। फिर यह तय हुआ। सरसेनापति बिनीवाले ने आपके साथ मिलकर आगे की योजनाएँ बनाने तथा उन्हें अमल में लाने का अधिकार मुझे दिया है। इसलिए आप देवी दुर्गावतीजी से कह दीजिए कि आपका संकेत मिलते ही मराठा सेना किले पर हमला करेगी। उन्हें यह भी कह दीजिए कि हिंदू पदपादशाही के प्रधानमंत्री श्रीमंत पेशवा बड़े ही दानी हैं। दुर्गावती जैसी वीरांगना की इस सेवा का मोल वे धन, सम्मान और दान के रूप में मुझ सेवक की इच्छा से भी अधिक करेंगे। इसलिए देवी दुर्गावती बेझिझक अपनी इच्छा प्रकट करें। उसे पूरी करने के लिए हमारे स्वामी समर्थ हैं।

सरदार : रावराजे, क्या कह गए आप! जिस वचन की पूर्ति करना श्रीमंत की साम्राज्यलक्ष्मी के लिए भी असंभव है, वह आप मुझे दे रहे हैं? महाराज, देवी दुर्गावती को सैन्यदल या राजकाज के किसी मान-सम्मान की कामना नहीं है। उस वीरांगना को इच्छावर की नहीं बल्कि इच्छा-वर की चाह है।

ऋषिकुमार : क्या कहा? इच्छा-वर! मेरी उस वीर भगिनी की यह इच्छा पूरी करने में भी भला क्या कठिनाई आ सकती है? सरदार, दुर्गावती के इच्छा-वर की बात करते समय आपका गला क्यों रूँध आया? कहीं आप दोनों के हृदय एक ही दुःख से दुःखी तो नहीं?

सरदार : हाय, ऋषिकुमार। आपने वही पूछा जो नहीं पूछना चाहिए था और आप जैसे पुण्यशील और यशवंत की दुर्लभ सहानुभूति पाकर मुझे वही कहने का मोह हो रहा है, जो कहना नहीं चाहिए। महाराज, दुर्गावती एक युवा मराठा सिपहसालार की पत्नी थी। उसका प्रिय पति, उसका इच्छा-वर पानीपत की लड़ाई में गया। तब यह किशोरी भी मराठों की छावनी में, उनके अंतःपुर में काम कर रही थी। अंतिम लड़ाई में उसका प्रिय पति रणभूमि में घायल होकर गिर गया। यह खबर सुनकर उसके हृदय को भारी दुःख पहुँचा। आँसू थे कि रुकने में नहीं आ रहे थे। तभी इस दुष्ट सादुल्ला खान ने मराठों के अंत:पुर पर धावा बोल दिया। यह वीर किशोरी बड़ी वीरता से लड़ी, पर लड़ते-लड़ते घायल होकर वह बेहोश हो गई। निगोड़े रोहिले उस अवस्था में भी उसे अन्य स्त्रियों के साथ उठाकर फत्तरगढ़ ले आए। सबके साथ इसे भी मुसलमान बनाया गया। बाद में रोहिलों ने उन स्त्रियों को आपस में बाँट लिया। तब उस सुंदर किशोरी को सरदार सादुल्ला खान ने अपने लिए रख लिया। उसकी सुकोमल तनु को सादुल्ला की काम-लालसा किसी साँपिन की तरह डँसती रही। बार-बार डँस लिये जाने पर भी वह वीर किशोरी रही। कई बार उसके मन में आता कि अपने बलात्कारित पतित शरीर के आत्महत्या की तलवार से टुकड़े-टुकड़े कर डाले, पर फिर वह सोचती कि आत्महत्या भी बलात्कार के घिनौने धब्बे को मिटा नहीं सकती। और संभव है कि आगे कभी मराठा सेना इस तरफ आ जाए! तब मौके का फायदा उठाकर वह इसी शरीर के सहारे उन आततायियों का नाश कर देगी और उस पुण्य कार्य से पिछले सभी पापों को धो देगी...यही सोचकर वीर कन्या देवी दुर्गावतीजी उचित समय की प्रतीक्षा करती रही। उस कालसर्प का दंश सहते हुए भी वह जीती रही।

यशवंत : मानो तपस्या में लीन रही! इस तरह का देह से किया पापाचार भी मनःकृत तपस्या ही है। मनस्कृतं कृतं कर्म, न शरीरकृतं कृतम्!

ऋषिकुमार : पर उसका पति पानीपत की रणभूमि में घायल होकर गिरा था न! या आप यह कहना चाहते हैं कि उसके पति ने रणभूमि में दम तोड़ा।

सरदार : उसने रणभूमि में ही दम तोड़ा होता तो आज मैं आपके सामने खड़ा न होता।

यशवंत : यानी कि...आप...?

सरदार : जी, महाराज, मैं ही हूँ वह अभागा पति! दुर्गादेवी और सबने समझ लिया कि मैं मर गया हूँ, पर मैं अत्यधिक खून बह जाने से बेहोश हो गया था। मुझे जब होश आया तब मैं दुश्मन के हाथ पड़ चुका था। बाद में मुझे विदेश ले जाया गया। दसियों मुसीबतों का सामना करना पड़ा, पर आखिर में बहुत सारा मान-सम्मान प्राप्त कर मैं स्वदेश लौट आया। तब दुर्गावती की आखिरी इच्छा पूरी करने के लिए उसकी मौसी ने दुर्गावती की छोटी बहन का भी मुझसे ब्याह करवाया। पर यह क्या? रावराजे, ऋषिकुमार लगता है, मेरी रामकहानी सुनकर आपका मन भी किन्हीं स्मृतियों से विह्वल हो गया है। अगर मेरी कहानी से आपको दुःख पहुँचता हो तो मैं चुप हो जाता हूँ।

यशवंत : ना, ना! दोस्त, तुम्हारी कहानी मेरी कहानी से इतनी मिलती-जुलती है कि-

तेरी शोककथा दोस्त

मेरा हाल कह गई।

देख व्यथा तेरी

मेरे आँसुओं में तर हुई।

बस, इस मोड़ पर आकर हमारी कहानियाँ अलग-अलग हो जाएँगी। तुम्हें तो अपनी प्रियतमा मिल गई, पर मेरी मुझसे सदा के लिए रूठ गई। तुम्हारे हिस्से आया संयोग, मेरे हिस्से वियोग। जाओ, अपनी प्रियतमा से मिल लो। वह तुम्हारे वसंत वन की बहार है। मैंने श्रीमंत की तरफ से उसे इच्छा-वर देने का वचन दिया है और उसका इच्छा-वर तुम हो! सो मैं श्रीमंत की तरफ से तुम्हें उसकी इच्छा पूरी करने की राजाज्ञा देता हूँ। लंका में राक्षसों की कैद में रही सीता को भी श्रीरामचंद्रजी ने अंगीकार किया था।

सरदार : महाराज, देवी सीता का नाम लेकर आपने मेरी उसी दुविधा को प्रकट किया है. जिसे मैं जीवन पर लाते घबराता हूँ। महाराज, स्वदेश लौटने पर मुझे पता चला कि मेरी दुर्गावती जिंदा है और फत्तरगढ़ में कैद है। मैंने मारे खुशी के यही समझा कि वह भी सीताजी की तरह पवित्र है, निष्कलंक है। उसे कैद से छुड़ा लाने के लिए मैं नौकर के वेश में फत्तरगढ़ पहुँचा, पर वहाँ जाने के बाद उसके अजीब बरताव के बारे में सुनकर मेरा सिर चकरा गया। समझ में नहीं आया कि वह सुमंगल है या अमंगल, साध्वी है या व्यभिचारिणी, बुद्धिमती है या बुद्धिभ्रष्ट! आज तक उसी दुविधा में हूँ मैं। इसी से न मैं उसे स्वीकार सका हूँ, न धिक्कार ही सका हूँ। सिर्फ हिंदू पदपादशाही की जोखिम भरी सेवा में मैं बिना अपनी पहचान जताए उसकी मदद कर रहा हूँ। महाराज, देवी सीता रावण की कैद में भले ही थी, पर उनके मन या शरीर की पवित्रता भ्रष्ट नहीं हुई थी। है न! पर...

ऋषिकुमार : पर क्या? दुर्गावती का मन सीता देवी के मन की तरह ही पवित्र है। अब रही शरीर की पवित्रता की बात। सरदार साहब, क्षमा कीजिए, देह की अपवित्रता से भी दुर्गावती की पवित्रता पर कोई आँच नहीं आई है। मैं तो कहता हूँ कि सीताजी को अकेले में पाकर भी जो उनके शरीर को छू नहीं सका, वह रावण कायर था। अगर वह भी इस क्रूर मुसलमानी रावण, सादुल्ला की तरह बलात्कार को ही धर्म कार्य मानता तो सीताजी पर भूखे भेड़िए की तरह झपटता। तब शायद सीताजी भी अपने शरीर की पवित्रता को उससे बचा न पातीं। वैसे भी रावण उन्हें पंचवटी से लंका ले जा रहा था। तब वे उसकी बलिष्ठ बाहु से घिरी ही हुई थीं और लंका आने पर उन्हें रावण की लिजलिजी काम याचना से मुक्ति नहीं मिली थी। इस तरह सीताजी की देह भी थोड़ी-बहुत तो अपवित्र हो ही चुकी थी। फिर भी बिना आत्मघात किए वे जीती रहीं। देवी सीता का मन गंगाजल की तरह पवित्र था। तभी न स्वयं वैश्वानर ने भी उनके निष्कलंक चरित्र की साक्षी दी।

सरदार : ऋषिकुमार, आपका उपदेश हमारी अमूल्य धरोहर है और रावराजे जैसे धर्मवीर जो भी आचरण करेंगे वही हमारी निष्ठा के पात्र हैं। इसलिए रावराजे, मैं आपसे आखिरी प्रश्न पूछना चाहता हूँ। पर साथ-ही-साथ मुझे इस बात का डर भी है कि कहीं मेरे इस भक्तियुक्त साहस का आप बुरा न मान लें! रावराजे, अगर मेरी दुर्गावती ही आपकी पानीपत में खोई हुई प्रियतमा होती और वह दुर्गावती जैसा बरताव कर, आपको फिर से मिल जाती तो क्या आप उसके अखंड प्रेम को स्वीकार करते? अगर आप ही उसके इच्छा-वर होते तो क्या आप उसकी इच्छा पूरी करते? बोलिए, आपका जवाब सुनने के लिए मैं बेचैन हूँ।

यशवंत : दोस्त, यह कैसा सवाल किया तुमने? सभी प्रियतम तुम्हारी तरह भाग्यशाली नहीं होते। तुम पूछ रहे हो, इसलिए बता रहा हूँ। अगर मेरी सुनीति भी वीरांगना दुर्गावतीजी की तरह देवताओं का कार्य करने के लिए स्वयं नरक की अग्नि में जलती-तपती और असंभव भी संभव हो जाता, यानी सात्त्विक गुस्से के सुरंग से उस दैत्य की लंका को भस्मसात् करते हुए वह मुझसे मिलती तो तुम्हारी सौगंध जैसे प्रभु रामचंद्रजी ने सीताजी को अपनाया था वैसे ही मैं भी उसे अपनाता। इतना ही नहीं बल्कि जैसे देवालय में देव प्रतिमा पूजी जाती है वैसे ही मैं उसे अपने मनमंदिर में स्थापित कर प्रेम से पूजता। अरे, पर यह क्या? ( वह युवा सरदार धीरे-धीरे पुरुष का वेश उतारता जा रहा है।) ऋषिकुमार, इस युवा देह के फलक से उस सरदार की आकृति मिटती जा रही है और मेरी कल्पना की तूलिका उसपर एक कमनीय कामिनी का, मेरी प्रियतमा का चित्र तेजी से बना रही है। अरे, पूरा भी हो गया वह चित्र। निस्संशय यही है, मेरी सुनीति मुझे मिल गई। बोल, वही है न तू! मेरी प्राणप्रिय सुनीता!

सुनीति : जी, महाराज। मैं ही हूँ आपकी वह दुष्ट प्रियतमा, पापी पतिव्रता, दंडनीय पर दयनीय, दुर्विनीता सुनीति! नाथ, जिसने युवा सरदार के बहाने आपसे छल किया, जिसे आज तक आप देवी दुर्गावती के नाम से सम्मानित करते रहे, वह दुर्गावती मैं ही हूँ। जिसे आपने इच्छा-वर देने का वचन दिया था, वह भी मैं ही थी। मेरा इच्छा वर प्रियसखा, आपकी हूँ मेरे अनन्य!

यशवंत : तो मानो भगवान् से जो वर मैं अपने लिए माँगता, वही दूसरे को देने की सामर्थ्य भगवान् ने मुझे दे दिया! अहा! काश इस आनंद का स्वाद लेने के लिए हमारी लाड़ली सुशीला भी यहाँ होती, पर अभी तक इतनी दूर क्यों है तू? आ प्रिय, समीप आ जा।

सुनीति : ना-ना। आपके गले में अब मेरी प्रिय और मासूम बहन सुशीला की कुसुम कोमल वरमाला सज रही है। कहीं इस पापन के आलिंगन से वह कुम्हला न जाए, अपवित्र न हो जाए! स्वामी, आपका आलिंगन अब उसका अधिकार है। जब तक वह इसके लिए अनुमति न दे, तब तक...

सुशीला : उसकी अनुमति क्यों चाहिए, दीदी? ( ऋषिकुमार का वेश त्यागकर) यह देख, तेरी सुशीला तुझे अनुमति दे रही है। मुझे नहीं चाहिए ऐसा अधिकार, जिसके कारण तुम्हारा अधिकार खंडित हो। दीदी, जिस सुख में तू साझी हो सकती है, वही मेरे लिए सच्चा सुख है। इस तरह का सुख बँटेगा नहीं बल्कि अनजाने में ही दुगुना हो जाएगा। हम दोनों को कृतार्थ करेगा वह। प्राणनाथ, पहचाना आपने मुझे?

यशवंत : बड़ी हैरानी की बात है! सुशीला, तो ऋषिकुमार के वेश में इतने दिन तू ही रह रही थी मेरे साथ? तूने पुणे से यहाँ आने का साहस किया। बड़ी शैतान निकली तू! इस तरह छला तूने मुझे!

सुशीला : गुस्सा आ गया आपको? पर मुझे क्षमा कीजिए। नाथ, आपकी असि-लता रण में जूझ रही थी। ऐसे में मेरी तनु-लता घर में आराम करे, यह मुझे अच्छा नहीं लगा। इसलिए आ गई। अब जाने भी दीजिए इस बात को। अंत भला तो सब भला। दीदी, आ गले लगा ले मुझे। मैं छोटी हूँ तेरी। आ, मन का क्लेश मिटा लें। (दोनों गले मिलती हैं।)

यशवंत : आखिर दोनों बहनों का मिलाप हो गया और हम पराए की तरह अलग खड़े रहे। तुम दोनों बहनें...

सुशीला : सखा, हम दो नहीं (गले मिलते हुए) एक हैं। एक प्राण, एक जान! नाथ, अब प्रेम प्रयाग में मिला हमारे गंगा-जमुनी संजीवनी को अपने हृदय के क्षीर सागर में मिलने दीजिए।

सुनीति : एक डाली पर खिले ये दो फूल अपने चरणों तले पड़े रहने दीजिए। हम दोनों घुटने टेककर आपके दो चरणों पर अपने आपको अर्पित करती हैं।

यशवंत : पर ऐसे सुकुमार, सुमंगल फूलों को पाँवों तले पड़े रहने दें! न, भगवान् भी ऐसे अरसिक नहीं। गोपीवल्लभ गोविंद गोकुल की वनमालाओं की वैजयंती ऐसे गले लगाते थे। (दोनों को दोनों तरफ से अपने पास खींचता है।)

[इतने में परदे में रणसिंघा बजता है। गोलियों की आवाज आती है।]

सुनीति : (चौंककर) प्रियतम, समाप्त हो गया मेरा सुखस्वप्न! शायद यही अंतिम हो। सुनो, सुनो, गोकुल की मुग्ध रासलीला को भंग करनेवाले कर्तव्य-अक्रूर की पुकार! जा रही हूँ नाथ! लाड़ली सुशीला, मैं जा रही हूँ!

सुशीला : पर दीदी, थोड़ी देर के लिए रुक जा दीदी...मेरी दीदी...

सुनीति : नहीं बहना, पहले अपनी योजना को हमें अमल में लाना है। अब फिर से मैं दुर्गावती हूँ, तू अनजान ऋषिकुमार और रावराजे मराठा सरसेनापति के प्रतिनिधि। जब तक फत्तरगढ़ की समूची मुसलमान सेना भस्मसात् नहीं हो जाती तब तक यही हमारी अंतिम भेंट है। अगर जीवित रहे तो फिर मिलेंगे। अगर जीवित न रहे तो (तलवार निकालकर) हर-हर महादेव! हर-हर महादेव!

[वह चली जाती है। परदा गिरता है।]

चौथा अंक

: पहला दृश्य :

कोंडण्णा : (किसी बड़े अधिकारी की तरह अकड़कर) हाँ, हाँ, पीछे हट! पीछे हट! धोंडण्णा, अब मैं हूँ गजांतलक्ष्मी का स्वामी और तू, तू मेरा सिर्फ दीवान! इसलिए पहले की तरह मुझसे सटकर मत चल। देख, रावराजे यशवंतराव आ ही गए। सुना है, मुझसे बात करना चाहते हैं।

यशवंत : (सिपाहियों के सूबेदार के साथ प्रवेश कर) कोंडण्णा, द्वंद्वयुद्ध में सादुल्ला को मार, उसका सिर काटकर लानेवाले वीर आप ही हैं न!

कोंडण्णा : अब अपनी वीरता का बखान मैं स्वयं ही कैसे करूँ! अजी, सादुल्ला था लंका का राक्षस। अत्याचारी राक्षस। लंबा इतना कि अपना सिर खुजाने के लिए स्वयं उसे भी नीचे बैठना पड़ता था। तभी उसका हाथ सिर तक पहुँच पाता। ऐसा ऊँचा-तगड़ा राक्षस अपने कम-से-कम सौ और ज्यादा-से-ज्यादा हजार साथियों के साथ मुझपर टूट पड़ा। और उस समय मैं था निपट अकेला। अजी, क्या बताऊँ आपको!

यशवंत : बस, अब कुछ मत बताइए। आपका मतलब है कि निपट अकेले होते हुए भी आपने उन सबके छक्के छुड़ाए। आपकी इस बहादुरी को देखते हुए एक जोखिम का काम आपपर सौंपा है। कल आपको मुसलमानों के सशस्त्र पहरे से निकलकर फत्तरगढ़ के बारूदखाने में आग लगानी है। विस्फोट में फँस जाने पर शरीर चिंदी-चिंदी हो जाएगा। ऐसा साहस आपके बिना कौन कर सकता है; क्योंकि आप ही ने अभी-अभी बताया था कि आपने कम-से-कम सौ और ज्यादा-से-ज्यादा हजार रोहिलों का अकेले ही...

कोंडण्णा : नहीं, वैसे इस बारे में ठीक से नहीं बताया जा सकता, क्योंकि अँधेरे में हुई मुठभेड़ में कहाँ गिन पाता! मुझपर टूट पड़ी उस शत्रुओं की टोली में शायद वे पाँच-दस ही हों!

यशवंत : जो भी हो। आपने सादुल्ला जैसे रावण को तो मार ही डाला न! आप वीर हैं। सचमुच, बड़े बहादुर हैं। इसलिए यह प्राण संकट का काम आप ही को करना होगा।

कोंडण्णा : क्षमा कीजिए सरकार, पर प्राण संकट का काम करने में मेरे प्राण पर बन आती है। आपके हाथ जोड़ता हूँ। सचमुच, उतना बहादुर नहीं हूँ मैं।

यशवंत : देखिए, मना करेंगे तो यहीं आपका सिर काट दिया जाएगा। सादुल्ला खान को कोई शूरवीर ही मार सकता है।

कोंडण्णा : मुझ गरीब पर कैसा आरोप लगा रहे हैं आप! मैंने नहीं मारा सरकार सादुल्ला को, सच कहता हूँ।

यशवंत : तो फिर किसका सिर काट लाए थे आप? बताइए तो।

कोंडण्णा : सरकार, मैंने झूठमूठ ही कह दिया कि मैंने सादुल्ला खान को मार दिया है। सिर सादुल्ला का नहीं था, उसके शव का था। उसकी जान किसी और ने ही ली थी। सरदार साहब, मैं निरपराध ब्राह्मण हूँ। पूरी जिंदगी मैंने कभी किसीको नहीं मारा। इसमें भी मैंने जो भी पाँच-दस सिर काटे हैं, वे जीवित आदमियों के नहीं बल्कि शवों के ही थे। यह धोंडण्णा गवाह है मेरे सारे कारनामों का। इसी से पूछ लीजिए।

यशवंत : वैसे इस अपराध के लिए अभी आपका सिर काट देना चाहिए, पर आपको एक और मौका देता हूँ। आपको जो काम बताया गया है उसे करके आप जल्दी ही वहाँ से भाग निकले तो आपको जीने का और एक अवसर मिल सकता है। सूबेदार, पकड़ लो इन दोनों को। कल बारूदखाने को आग लगाने के लिए इन दोनों को मशालें देकर सुरंग में भेज दो और आनाकानी करें तो भालों से खदेड़कर अंदर ठूँस दो इन चोरों को।

[सूबेदार पकड़कर ले जाते हैं। परदा गिरता है।]

: दूसरा दृश्य :

[फत्तरगढ़ के बारूदखाने के पास।]

पगली : अँधेरा! दुश्मन के बारूदखाने के पास, पर मेरी पागल, उल्लू-सी आँखों से मुझे न केवल अँधेरे में बल्कि अँधेरे के पार तक का सभी कुछ साफ-साफ दिखाई दे रहा है। ये देखिए, भविष्य में उठनेवाली आग की भयानक लपटें (सीटी बजती है) आहा! लगता है, अचानक छापा मारने के लिए मराठा वीर आ गए। उस गुप्त सुरंग से किले के अंदर सुरक्षित उतर गए। कौन? सुनीति! आओ बेटी, आओ! (सुनीति कोंडण्णा, धोंडण्णा और अन्य सैनिकों के साथ आती है।) देख, मैंने अपना काम कितना अच्छा कर दिया है। दुश्मन के बारूदखाने के पठान पहरेदारों को मैंने इतनी शराब पिलाई कि बेचारे नशे में धुत होकर गिर गए और तुरंत खंजर की धार से उन्हें सीधे परलोक पहुँचा दिया। बेटी, इन तीनों बारूदखानों के ताले खोल दे अब। तब तक मैं मशालें जला आती हूँ। (वह जाती है। सुनीति ताले खोलती है। तभी जलती तीन मशालें लेकर पगली फिर से आती है। मशालों को कोंडण्णा और धोंडण्णा के चेहरों के आगे कर) अच्छा, ये ही बाँके हैं! अच्छा हुआ जो इनके मुँह जबरन ताले ठोंककर लाए हो।

सुनीति : कोंडण्णा, वह मशाल लेकर तू इस सुरंग में घुस जा और धोंडण्णा, तू इस सुरंग में घुसकर बारूद भंडार को आग लगा। काम करके दोनों फटाफट भाग निकलो तो जीवित लौट सकते हो।

पगली : कोंडूबाई, डरो मत। मैं भी यह तीसरी मशाल लेकर तुम दोनों का साथ देने के लिए इस तीसरी सुरंग में तीसरे भंडार में लगाने घुस रही हूँ। चलो, घुस पड़ो। ये लंबे भाले तुम्हें ठीक जगह तक पहुँचाएँगे। (भालेदार उन्हें भाले की नोंक से सुरंग में धकेलते हैं।) बेटी सुनीति, जा। यहाँ धमाका होते ही तुम लोग शत्रु पर टूट पड़ो।

सुनीति : माँ, इस भयानक अग्नि में घुसते हुए ईश्वर का नाम तो ले लो, जिससे भभक उठी अग्नि से वह दयामय तुम्हें अपने अदाह कवच के नीचे छिपाकर सकुशल वापस लाए।

पगली : हट पगली, ऐसे मौकों पर कुछ पाने की लालसा से लिया भगवान् का नाम नहीं, बल्कि चाहे जो हो ठीक है, यह कहनेवाली निडर निराशा ही काम आती है। इसलिए बोलो-सोनपत, पानपत!

[मशाल लेकर सुरंग में घुसती है। परदा गिरता है।]

: तीसरा दृश्य :

[फत्तरगढ़ में मुसलमान सिपाही मुनादी दे रहे हैं।]

मुसलमान

मुनादीवाले : होशियार! होशियार! फत्तरगढ़ के रोहिले बहादुरो, हथियारों से लैस होकर जंग के लिए निकलें। बारूदखाने में बहुत बड़ी आग लगी है। बहुत बड़ा धोखा करके मराठा फौज ने अचानक किले में घुसकर छापा मारा है। घमासान लड़ाई जारी है। किले के बाहर भी मराठों ने चारों ओर से हमला किया है। फौरन हथियारबंद होकर दौड़ो। सारी कैदी मराठी औरतों को काटकर दुश्मन को रोकने दौड़ो। अल्ला हो अकबर!

[ढोल पीटते हुए जाते हैं।]

: चौथा दृश्य :

[बारूदखाने से निकली आग की लपटें आसमान को छू रही हैं। धमाके हो रहे हैं। पगली ऊँचे चबूतरे पर आग से घिरी खड़ी है।]

पगली : जल उठ री अग्नि! बारूद के सारे भंडार-के-भंडार तेरे जलते जबड़े में झोंक दिए। बेचारे धोंडण्णा और कोंडण्णा कभी के किसी कपास की बाती जैसे जल गए। फिर भी तू जलती चल। जी भर के जल ले। पुणे के उस पुरोहित ने, पेशवा ने डेढ़ लाख पठान और रोहिलों की आहुति...समिधा तेरे नाम भेज दी है। मैं भी नजीब, बंगश, सादुल्ला और अब्दाली की दौलते शान की लाखों हड्डियाँ तोड़-तोड़कर लाई हूँ। ये सब तुझी को अर्पित करती हूँ...स्वाहा! स्वाहा! बसानसा स्वाहा! मुगल पादशाही स्वाहा! उसके खेमे, रजवाड़े, ताज-तख्त भी स्वाहा! कौन? फौलाद खान? आइए, बच्चमजी, आप भी स्वाहा!

फौलाद खान : (सिपाहियों के साथ प्रवेश कर) तोबा, तोबा! यही है वह पागल भूतनी! यहाँ भी कुछ मंतर फूँक रही है। मार डालो इसे गोली से।

पगली : कायर, मार दे, मार दे मुझे! बदले की जलती शराब से धुत हूँ जब तलक, मजा मरने का है सिर्फ तब तलक!

बदले के बाद मिले यश का स्वाद है फीका!

है चाहिए किसे वह स्वाद बेतुका!

शांत हो जाओ पानीपत में कलपती आत्माओ,

शांत हो जाओ अतृप्त, अशांत आत्माओ।

तुम्हारी उत्तरक्रिया का आखिरी निधनशांतिहोम।

बदले की आग में बदले की ही पूर्णाहुति।

दुश्मनो, दागो गोलियाँ। मेरे बेताल नाच को तुम्हारी बेताल बंदूकों का ताल। (मुसलमान गोलियाँ दागने लगते हैं। पगली डमरू बजाते हुए नाच रही है।)

सोनपत पानपत

मराठों की गई थी पत।

पर पादशाह हिंदूपद

करे मुगल सलतनत को चूर

रण में की उत्तरक्रिया।

भाऊ का बदला लिया।

[गोलियों की बौछार में ही आग में कूद पड़ती है।]

: पाँचवाँ दृश्य :

सुनीति : पानीपत विजय की स्मृति में दुष्ट नजीब खान के बसाए हुए ये नजीबाबाद शहर और फत्तरगढ़ भी जलकर राख हो गए। महाराष्ट्रीय वीरो, अब देखते क्या हो? नजीब खान की कब्र को भी तोड़कर मटियामेट कर दो। (मराठा वीर कब्र को तोड़ देते हैं।) नजीब, तुम्हारी इस बुलंद कब्र पर बड़ी शान से लिखा गया था कि यह पानीपत के विजेता की कब्र है। देखो, उसी के टुकड़े-टुकड़े कर यह महाराष्ट्रीय सुनीति उसपर किस खुशी से नाच रही है! क्या कहा, मुरदे को मारना कुनीति है? अरे, रण में मरे दत्ताजी के सिर को लात मारनेवाला और पानीपत में पराभूत हजारों मराठों को जानवरों की तरह रस्सी से बाँध, उनके सिर उड़ानेवाले क्रूर कसाई हो तुम लोग! तुम्हें नीति-अनीति की बात करने का कोई अधिकार नहीं।

सुशीला : (लड़ाई के वेश में प्रवेश कर) दीदी, रोहिलों के बंदीखाने से सभी मराठा स्त्रियाँ मुक्त हो गईं। यही नहीं, खानदानी मुसलमान स्त्रियों को भी हमने बंदी बनाया है। देख, मेरे सैनिक उन्हें तुम्हारे पास ला रहे हैं।

[सैनिक मुसलमान औरतों को ला रहे हैं।]

सुनीति : कौन? ये तो रोहिलों के राजा नजीब खान और जबेता खान की स्त्रियाँ, राजपुत्रवधुएँ और राजकन्याएँ हैं। अरे वाह! ये रहीं बीबी साहिबा। बीबी साहब, पहचाना मुझे! मराठों से जीतकर लाई हुई दासी, बाँदी, काफरानी कहकर आपने जिसकी दस साल तक खिल्ली उड़ाई, जिसे आपने हिंदू से मुसलमान बनाया, भ्रष्ट किया, वही सुनीति हूँ मैं! बीबी साहब, उसी मराठा बाँदी की आप सब गुलाम हैं आज! कहिए, मराठों ने बढ़िया बदला लिया न! कोई नाटककार अपने कल्पित कथानक में भी इस तरह की क्रिया-प्रतिक्रियाओं की, घटना की रचना न कर पाता! कभी-कभी इतिहास भी नाटक और कविता से भी अधिक अद्भुत हो जाता है। पानीपत का शत-प्रतिशत बदला लेने के लिए क्या मैं भी मराठों से आपकी खिल्ली उड़वाऊँ? उसी तरह तुम्हें भी भ्रष्ट करूँ, धर्मांतरित करूँ? तुम्हें शारीरिक और मानसिक यंत्रणा हूँ?

कौन? सरदार महादजी शिंदे? आइए, आइए!

[महादजी शिंदे आते हैं,सुनीति उन्हें प्रणाम करती है।]

बीबी अम्मा : आइए, आइए, सरदार महादजी साहब! सुनीतिजी के गुस्से से हमें बचानेवाली ढाल बन जाइए आप। दुश्मनों की औरतों को स्पर्श तक से भ्रष्ट न करना, यही हिंदू धर्म है।

सुनीति : यह सिर्फ हिंदुओं का ही नहीं, सच्चे मुसलमान का भी धर्म होना चाहिए, क्योंकि यह मानवता का धर्म है। जो भी भला मुसलमान इस धर्म को मानेगा, उसकी पगधूलि को मैं हिंदू साधुओं की भभूत की तरह माथे पर लगा लूँगी, पर मुझे ऐसे रोहिले मिले जो पानीपत की मुसलमानी विजय की पूर्णता इसी में समझते थे कि हिंदुओं की औरतों को भ्रष्ट किया जाए, उनका उपभोग किया जाए। अब हम हिंदू भी उसी आसुरी मानदंड का प्रयोग करेंगे। सरदार, इनकी एक न सुनिए। हम मराठा स्त्रियों को इन दुष्ट रोहिलों ने, जिनमें ये बीबी साहिबा भी हैं, रोहिलखंड के बाजार में शाक-सब्जी की तरह बेचा। हम भी रोहिलों की इन औरतों का जुलूस पुणे के बाजार में निकालेंगे। जब तक इन अहिंदू असुरों को अपनी औरतों के सताए जाने का डर नहीं होगा तब तक वे हिंदू औरतों से इसी तरह का व्यवहार करते रहेंगे। हमें त्राटिका वध करनेवाले और शूर्पणखा के नाक-कान काटनेवाले पुरुषोत्तम रामचंद्रजी के दुर्जनभंजक हिंदू धर्म का पालन करना चाहिए, न कि दुर्जनरंजक हिंदू धर्म का।

महादजी : हे वीरांगना, जिस तरह शेरनी की क्रुद्ध आवाज दूर की गुफा को प्रतिध्वनित करती है, उसी तरह तुम्हारे ये क्षुब्ध शब्द मेरे हृदय में प्रतिध्वनित हो रहे हैं, पर क्या करूँ, श्रीमंत पेशवा की आज्ञा को मैं तो क्या, सरसेनापति भी नहीं लाँघ सकते। उन्होंने पहले ही पराजित शत्रु की औरतों और बाल-बच्चों को सिर्फ जीवनदान ही नहीं, अभयदान भी दे दिया है। (इतने में परदे में 'दीन-दीन' की पुकार उठती है।) क्यों, यह कैसा शोर है?

सिपाही : महाराज, होशियार! आप पर प्रतिघात करने के लिए फौलाद खान की एक टोली छिपकर बैठी थी। आपको यहाँ अकेले पाकर वह आपपर हमला करने को उतारू हो गई है।

[मराठा'हर-हर महादेव'के घोष के साथ ही तलवारें भाँजते हैं। इतने में'दीन-दीन'का घोष कर फौलाद खान अपनी सेना के साथ महादजी की सेना पर टूट पड़ता है। इससे पहले कि महादजी को चोट आए,सुनीति और सुशीला उनसे लोहा लेकर फौलाद खान को जान से मारती हैं। इस बीच सुनीति को भी गहरी चोट लगती है।]

सुनीति : (फौलाद खान के सीने पर पाँव गड़ाकर) मार दिया! मराठों के पानीपत के दुश्मनों में सिर्फ यही एक बचा था। आज उसको भी मार डाला। आज मेरा जीवन कृतार्थ हुआ। सुशीला, अपना हाथ तो दे दे मेरे हाथ में। आऽऽ आऽऽ! (इतने में यशवंतराव और सरसेनापति आ जाते हैं।)

सुशीला : नाथ, जल्दी से आइए। देखिए, दीदी बुरी तरह घायल हो गई है।

यशवंत : सुनीति, मेरी प्रिय सखी! हाय! हाय!

सुनीति : नाथ, यह हाय-हाय क्यों? आत्महत्या की क्षुद्र चिता पर मैं कभी की जल जाती, पर मुझे सुबुद्धि आई। आज मराठों के इस कट्टर दुश्मन से वैर चुकाकर आपके श्रीचरणों में मैं अंतिम निद्रा में सो जाऊँगी। और कौन सी मृत्यु इससे बढ़िया होती? ऐ हिंदू पदपादशाही के सरसेनापति सरदारो और सैनिको, शत्रु के स्पर्श से मेरी देह मलिन हो गई थी। उसे मैंने शत्रु के ही खून से धो लिया। क्या आप दया कर मुझे हिंदू धर्म के पवित्र झंडे तले, एक हिंदू के रूप में चिरनिद्रा लेने की अनुमति देंगे? मेरी तलवार कहाँ है? वही इस अनुमति के लिए मेरी अनुशंसा करेगी।

सरसेनापति

बिनीवाले : हे हिंदू वीरांगना, महाराष्ट्र का यह सरसेनापति तुम्हारे सिर पर हिंदू धर्म के ध्वज का वीर छत्र ताने खड़ा है और रत्नों से जड़ी अपनी तलवार तुम्हारे हाथ में देकर तुम्हारी महत्त्वपूर्ण राष्ट्रसेवा का सम्मान कर रहा है।

सुनीति : मैं धन्य हो गई। अब विदा का समय आ गया है। परमप्रतापी श्रीमंत माधवराव पेशवा के चरणों में मेरा प्रणाम पहुँचाइए।...मेरी यह चिट्ठी मेरे महाराष्ट्र में, मेरे मायके में भी पहुँचे। मैंने पूरी जिंदगी हिंदुत्व की पराजय का दुःसह दुःख सहते हुए गुजारी है। अब हिंदू धर्म के जयवाद्य के निनाद में सुख से मरना चाहती हूँ!

[जयवाद्यों के निनाद में अंतिम साँस लेती है। परदा गिरता है।]

: छठवाँ दृश्य :

[स्थल :शनिवारवाड़ा,पुणे।]

माधवराव : क्या कहा, फड़नीस? सुनीतिजी रण में जूझते हुए चल बसीं। अमूल्य स्त्रीरत्न थीं वे! तुरंत सरसेनापतिजी को खबर कीजिए कि उस साध्वी की अस्थियाँ और रक्षा, उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार महाराष्ट्र लाई जाएँ और हिंदू धर्म के अनुसार समाधि पर भव्य छत्र बाँध दिया जाए। इसी तरह मराठों ने जिन मराठा स्त्रियों को रोहिलों के बंदीखाने से छुड़वा लिया, उन सभी को फिर से हिंदू धर्म की दीक्षा दी जाए तथा सरकार की ओर से उनके जीवनयापन की व्यवस्था भी की जाए। अच्छा, और क्या लिखा है सेनापति के पत्र में?

फड़नीस : दिल्ली के बादशाह ने दक्षिण और उत्तर के सभी सूबों के साथ पूरी मुगल बादशाहत श्रीमंत सरकार के नाम कर दी है। करार के अनुसार एक प्रधान को छोड़कर बादशाही के सभी अधिकारियों को मराठे ही तैनात करेंगे। ईरान, तुरान और बदख्शान तक खबर पहुँची है कि दिल्ली में वस्तुत: हिंदू पदपादशाही की स्थापना हो गई है।

माधवराव : क्या सरदार ने यह शुभ समाचार सरकारी पत्र के द्वारा काबुल के शाह, अहमदशाह अब्दाली को भेजा?

फड़नीस : सरकारी पत्र ही क्यों, साथ में मुँह मीठा करने के लिए मिठाई भी भेज दी है। सरदार ने कहलाया है कि हिंदुस्थान की जिस मुगलिया बादशाहत की व्यवस्था करने के लिए और स्वयं उस तख्त को धारण करने के लिए आप पानीपत पधारे थे, उसकी व्यवस्था आखिर मराठों ने कर दी है। प्रबंध यह हुआ कि शाह आलम सिर्फ बादशाह का खिताब धारण करेगा और बादशाहत पर हक होगा श्रीमंत पेशवा साहब का! इस बँटवारे के नाम आपको मिठाई भेज रहे हैं। उसे स्वीकार करें। अगर आप इंतजाम की इस खुशी को देखना चाहते हैं तो फिर एक बार सिंधु नदी को पार कर मराठों से मिल लें।

माधवराव : अब बादशाह को हमारा दोस्ताना संदेश भेजिए कि वे आइंदा मराठों से वैर न करें। अगर हमारी दोस्ती कायम हुई तो शायद हम दोनों मिलकर किसी ऐसे भारतीय साम्राज्य की स्थापना कर सकते हैं जिसमें हिंदू और मुसलमान समान रूप से राजी-खुशी रहें। हिंदुओं की सहमति से जो भी बादशाह बने, वह धर्म से मुसलमान हो या न हो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इसके बाद अगर मुसलमान भारतमाता को माता और हिंदुओं को बंधु समझेंगे तो हिंदू भी उनको बंधु ही समझें। अगर उन्हें हमारे साथ रहना है तो हम उनके साथ हैं, पर अगर उन्हें हमसे अलग ही रहना है तो वे शौक से अलग रहें। इस बात से हम भी नहीं डरते। फड़नीस, मेरे शूर सरदार जब पुणे लौटें तब उन्हें विजय प्रवेश के जुलूस का सम्मान मिले और सरसेनापति बिनीवाले पर सोने-चाँदी के फूलों की बौछार हो। अब आप जाइए। हमें एकांत की आवश्यकता है। (फड़नीस जाते हैं।) आखिर अपनी पीढ़ी का दायित्व हमने निभा दिया। हमने पानीपत का बदला ले लिया। इस जगत् में चिरस्थायी कुछ भी नहीं है। अर्थात् इस स्वधर्मराज्य को बढ़ाना या डुबोना अगली पीढ़ियों का काम है। तपेदिक मेरे इस जर्जर शरीर को आज ही क्यों न मिटा दे, मुझे कोई चिंता नहीं।

पद

आत्मा सुख में डूबी हुई है आज,

बदला पानीपत का हो चुका पूरा।

वृद्धिगत हुआ महाराष्ट्र, महा-राष्ट्र।

तपेदिक ग्रस ले सुख से तू मेरा शरीर!

अरे, यह क्या? सामने का सारा दृश्य धुंधला हुआ जा रहा है।

यह कौन सा नया, दिव्य जगत् मेरे सामने खुल रहा है!

[मधुर संगीत के साथ दिव्य राजपुरुष आसमान से जमीन पर उतरते हैं। माधवराव घुटने टेककर प्रमुख पुरुष से कहते हैं।]

हैं कौन दिव्य पुरुष आप

देवों के आगे इंद्रसम

जँच रहे आप इन पुरुषों के

अग्रभाग, धन्य हैं प्रभु!

दाहिर : हिंदूभूषण,

सिंधु देश का नृप दाहिर हूँ मैं

जब यवनों ने सिंधुनद को पारकर

किया भरतभू पर पहला वार

मैंने ही अपने विशाल वक्ष पर

समरभूमि में झेला था आगे बढ़!

हिंदूश्री यवनकारों से पतित हुई

प्रथम दुर्दिन था वह हाय, हाय!

तब से अपमृत्यु से असह्य अपजय

सहता रहा अगणित नृपतिगण।

पर म्लेच्छों से लड़ते रहे,

शताधिक दुर्जय जन! सात सदियों से लड़ते रहे

जूझते रहे अजय धर्मवीर! जयपाल पंचनदनृप, यह नृप अनंगपाल,

ये पृथ्वीराज, राणा सिंह, प्रताप औ,

हरपाल श्री गुरुगोविंद वीर्यवान्

शत-शत ये हिंदू-हुतात्मा स्वप्राणों की दे दी बलि, पर न

आने दी आँच हिंदू राष्ट्र प्राण को!

इन सबकी बस एक है अपेक्षा,

क्षमता प्रतिशोध की हो प्रबल से प्रबलतर!

सकल वीरों की यही एक है कामना!

सब राजपुरुष : हम सब पूर्वज करें अभिनंदन

हिंदू-वंश भूषण एक नरवीर माधव।

सतत स्वर्ग में भी उर हमारे

धर्म-शत्रु विजय से, स्वपराजय से

छिलते रहे, रिसते रहे सात शतक।

आज तूने उन घावों को,

झट भर दिया ओ नरवर

मुसलमान सत्ता का सिर काटकर

तूने कर दी आसिंधु सिंधु हिंदुमय धरा

अभिनंदन! अभिनंदन! तव धुरंधर॥

[इतने में प्रकट उन राजपुरुषों के बीचोबीच सदाशिवराव भाऊ प्रकट होते हैं।]

भाऊ : ले ले प्रेमाशीष हमारे तू

लिया पानीपत का बदला

माधव, रिपुरुधिर से कर तर्पण,

हिंदू हुतात्माओं की तूने आज

कर दी वीरोचित उत्तरक्रिया!

माधव : कौन? अरे ये तो भाऊ हैं! सदाशिवराव भाऊ!

पर कीर्तिकेय सम,

प्रबल विक्रम पानीपत में जिनका,

वे हिंदू राष्ट्र सेनानी वीरवर थे॥

[सब अदृश्य होने लगते हैं।]

मत जाओ चाचा! पल भर के लिए तो मुझसे मिल लो!

भाऊ : जल्दी ही मिलेंगे हम! इस बार वीरस्वर्ग में!

[राजपुरुष अंतर्धान होते हैं। परदा गिरता है।]

प्राचीन-अर्वाचीन

महिलाएँ

मनुस्मृति में महिलाएँ

लेखांक-१

मनुस्मृति ही वह ग्रंथ है जो वेदों के पश्चात् हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए अत्यंत पूजनीय है तथा जो प्राचीन काल से हमारी संस्कृति, आचार, विचार एवं व्यवहार की आधारशिला बन गया है। यही ग्रंथ सदियों से हमारे राष्ट्र की ऐहिक एवं पारलौकिक यात्रा का नियमन करता आया है। आज भी करोड़ों हिंदू जिन नियमों के अनुसार जीवनयापन तथा व्यवहार-आचरण कर रहे हैं, वे नियम तत्त्वतः मनुस्मृति पर आधारित हैं। आज भी मनुस्मृति ही हिंदू नियम (हिंदू लॉ) है। वही मूल है। हमारे हिंदू नियम शास्त्र का सुप्रतिष्ठित संकेत है कि अन्य स्मृतियाँ, सदाचार एवं रूढ़ियाँ उन्हीं का विस्तार हैं या होनी चाहिए। स्मृतिकार बृहस्पति भी कहते हैं-

वेदार्थोपनिबद्धत्वात्प्राधान्यं हि मनोः स्मृतेः।

मन्वर्थविपरीता तु या स्मृतिः सा न शस्यते॥

यह ग्रंथ जिस तरह पूजनीय है, उसी तरह प्राचीन भी है। उसके काल के संबंध में निश्चित निर्णय अभी तक नहीं हुआ है। यह भी एक तरह से इसकी प्राचीनता का प्रमाण है। हमारे इस संविधान के लिए बस इतना ही प्रतिपादन पर्याप्त है कि आज जो पुस्तक मनुस्मृति के रूप में हमारे सामने आ रही है उसमें भी कुछ अंश अति प्राचीन अर्थात् ईसापूर्व आठवीं शताब्दी का है-अर्थात् पूरे ढाई हजार वर्ष पूर्व का है और यह पुस्तक लगभग दो हजार वर्ष पूर्व की है। महाभारत का भी उल्लेख उसमें ढूँढ़ना कठिन है।

हमारी परदादी की परदादी की दो सौवीं परदादी

हमारे हिंदू राष्ट्र के इस प्रकार के गुण विशेष पूजनीय तथा प्राचीन स्मृति में, संविधान की पुस्तक में, प्राचीन काल में हमारा नारी समाज किस तरह अपना जीवनयापन करता था, किस तरह अध्ययन करता था, किस प्रकार व्यवहार करता था उसके अधिकार, कर्तव्य, समाज का नारी विषयक दृष्टिकोण, कन्या, पत्नी, माता की स्थिति आदि विषयों से संबंधित प्राप्त जानकारी आधुनिक नारी समाज के लिए भी आकर्षक एवं उद्बोधक सिद्ध होगी। हमारी परदादी की परदादी की दो सौवीं परदादी! उसका नाम क्या होगा, उसका उपनयन संस्कार कब हुआ था, उसका विवाह कैसे हुआ था, श्राद्ध के दिन वह क्या भोजन पकाती थी, किस प्रकार उसकी संतान उसे प्रणाम करती थी, किस तरह उसका पति उसके साथ व्यवहार करता था, किस तरह पास-पड़ोस की महिलाएँ वार्तालाप करती थीं, उनका आचरण पश्चात् वैधव्य दशा में वे किस प्रकार कालयापन करती थीं या पुनर्विवाह करती थीं, कहीं कोई उन्हें जली-कटी तो नहीं सुनाता था, उनकी अलंकार मंजूषा कितनी बड़ी होती थी, अपनी परदादी की परदादी की परदादी की दो सौवीं परदादी के उस घर में जाकर उससे इसी तरह ममतामयी मनोमय भेंट करना और आँखों में बसाकर न सही, लेकिन जी भरकर उसे देखना किसीको भी प्रेमपूर्ण और संतोषजनक ही प्रतीत होगा। समाजशास्त्र के साधकों के लिए तो मनुस्मृति एकमात्र चलचित्र है, जिसके द्वारा दो-ढाई हजार वर्ष पूर्व की हिंदू नारी के जीवन का यथावत् प्रत्यक्ष दर्शन होता किया गया था, जब चित्रपट-कला अस्तित्व में भी नहीं थी।

महाराष्ट्र के पाठकों के लिए एतदर्थ उस परम पूज्य तथा प्राचीन चित्रपटांतर्गत मनुस्मृति में महिला नामक एक चित्रावली 'स्त्री मासिक' पत्रिका के पटल पर हम प्रदर्शित कर रहे हैं।

ये शब्दचित्र हम अपने शब्दों में न देते हुए मनुस्मृति के शब्दों में ही देंगे जिससे कि अपनी अर्वाचीन नारी भावना विषयक भाव-भावनाओं के रंगों के छींटे जाने-अनजाने में उनपर न उड़कर उसके विरुद्ध ऐतिहासिक स्वरूप का लोप होने का भय ना रहे। मनुस्मृति के श्लोक ही यथासंभव करके फिर प्रत्येक स्थल पर उसका स्वतंत्र रूप में अलग उल्लेख करेंगे, जो हम विशेष रूप में कहना चाहते हैं। मूल श्लोक हमारे सामने होने से यदि किसीको हमसे अलग अर्थ अथवा अनुमान सूझ अथवा जँच गया तो इस व्यवस्था के कारण उसे स्वीकारना भी अधिक सुविधाजनक होगा।

अपौरुषेय,त्रिकालाबाधित,अनुल्लंघनीय'धर्मशास्त्र'के रूप में नहीं अपितु बुद्धि-मीमांसा स्वरूप केवल ऐतिहासिक जानकारी के रूप में।

इस लेख के आरंभ में कुछ और विधेयों का उल्लेख करना आवश्यक है। मनुस्मृति हिंदू समाज का एक ऐसा 'धर्मशास्त्र' है जो आज भी कम-से-कम तत्त्वतः बहुतांश में प्रमाणभूत माना जाता है। धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः' को आधुनिक परिभाषा में स्पष्ट करना हो तो इस तरह कहा जा सकता है कि विधि तथा आचार इन दोनों का समावेश उसमें होता है। पुरातन धर्म रचना के अनुसार यह दोनों समान रूप में ही अनुल्लंघनीय समझे गए हैं और मनुस्मृति वर्णित धर्मशास्त्र को त्रिकालाबाधित तथा अपरिवर्तनीय समझा जाता है। मनुस्मृति की यह प्रतिज्ञा है कि वह ऐसा कुछ भी कथन नहीं करती जो वेदबाह्य हो। वह स्पष्ट रूप में प्रतिपादन करती है।

यः कश्चित्कस्यचिद्धर्मो मनुना परिकीर्तितः।

स सर्वोऽभिहितो वेदे सर्वज्ञानमयो हि सः॥

-अ. २:७

या वेदबाह्याः स्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टयः।

सर्वास्ता निष्फलाः प्रेत्य तमो निष्ठा हि ताः स्मृताः॥

-अ. २ : ९५

वेद अपौरुषेय हैं और मनुस्मृति में वही प्रतिपादित है जो वेदो में है। अर्थात् मनुस्मृति प्रतिपादित धर्मशास्त्र भी अपौरुषेय आज्ञाओं की तरह त्रिकालाबाधित तथा अनुल्लंघ्य है। यह 'श्रुतिस्मृति पुराणोक्त' प्रवृत्ति धुर मनुस्मृति काल से प्रचलित है। मनुस्मृति का प्रतिपादन है कि उसमें जो धर्मशास्त्र है वह अनुल्लंघनीय क्यों है? ग्राह्य क्यों है, इसलिए कि वह श्रुति पर आधारित है। वह उपयुक्त है या नहीं, किन स्थितियों में वह उपयुक्त है, यदि किसी विशेष स्थिति में वह उपयुक्त न हो हानिकारक सिद्ध हो गया हो तो उसमें परिवर्तन करना है या उसे स्थगित करें या नहीं-आदि सभी प्रश्न गौण ही नहीं, उपमादर्शक हैं। उसी तरह चर्चा, मीमांसा में भी संदेहार्थ है। अतः सर्वथा निषिद्ध है। वह अनुल्लंघनीय, त्रिकालाबाधित है क्योंकि वह श्रुति में है। वही स्मृति में है। अत: वह भी अनुल्लंघनीय, अमीमांस्य है। यह स्वयं स्मृति का ही नियम है। उपयुक्त वचनों के साथ-साथ निम्नांकित वचनों को भी पढ़ें-

श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः।

ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ॥१०॥

योऽवमन्येत् ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः।

स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिंदकः॥११॥

-अ. १

हमारी प्राचीन परंपरा के अनुसार जो स्मृति मानी जाती है और जो निश्चित रूप में प्राचीन है- यह 'श्रुतिस्मृति पुराणोक्त' प्रवृत्ति का स्पष्ट रूप में अभिमान परस्पर स्वीकृत किए जाने पर, प्रोफेसर आल्तेकर जैसे कुछ विद्वान् 'केसरी' जैसे समाचार-पत्रों में कैसे प्रतिपादित करते हैं कि उसको मुसलिम काल से स्वीकार किया गया था, यह समझ में नहीं आता। यह प्रवृत्ति भली है या बुरी, उसे रखकर भी सुधार हुए हैं या नहीं, उसके परिणाम हितकारी हुए या अनिष्ट आदि प्रश्न स्वतंत्र हैं। प्रश्न यह है कि यह प्रवृत्ति कुल मिलाकर धर्मशास्त्र की आधारशिला बनती है या नहीं। और हम सुधारवादी जन क्रमशः उस प्रत्येक प्रवृत्ति के अस्तित्व के साक्षीभूत हैं, उससे भी शतगुना अधिक प्रबलतापूर्वक हमारे लक्षाधिक सनातन शास्त्रीजनों के साक्ष्य का पलड़ा इस प्रकरण में हमारी ओर ही है; क्योंकि स्मृति में वही है जो श्रुति में है और इसलिए वह अनुल्लंघनीय धर्मशास्त्र है। वही स्मृति में और वही पुराणों में है। उसमें सुधार होना असंभव है, क्योंकि वह 'असुधारणीय' 'अपरिवर्तनीय' है। वह व्यक्ति सनातनधर्मी हो ही नहीं सकता जो इस प्रतिज्ञा को नकारेगा।

आज भी यही धारणा बहुसम्मत है कि धर्मशास्त्र का उपर्युक्त 'श्रुतिस्मृति पुराणोक्त' भावना से ही पठन करना चाहिए। ऐसी धारणा अभी अधिसंख्य लोगों की होने से हम इस लेख में सभी वर्ग के संबंध में मनुस्मृति के क्या नियम हैं, इस संबंध में उसका क्या कथन है, यह स्पष्ट करने के लिए उसके जो श्लोक देनेवाले हैं, वे उसी तरह आज भी स्त्री से संबंधित विचारों तथा आचारों का, अधिकारों का और कर्तव्यों का नियमन होना चाहिए-इस बुद्धि से ही हम कह रहे हैं, यह बहुतों की भावना हो सकती है। इसके विपरीत कइयों की यह भी धारणा हो सकती है कि यही सिद्ध करने के लिए हम ये वचन प्रस्तुत कर रहे हैं कि ये विचार और आचार जो दो-ढाई हजार वर्ष पूर्व उस काल में उचित और अत्यंत ऊँचे प्रतीत हुए, आज भी महिला वर्ग का वैसे ही नियमन करने के लिए कितने अप्रस्तुत, असमर्थ तथा हानिकारक हैं। परंतु लेख में हमारा इस तरह कुछ भी सिद्ध करने का उद्देश्य नहीं है। मनुस्मृति काल में महिला वर्ग विषयक कैसी कल्पनाएँ, भावनाएँ तथा नियम हुआ करते थे, बस इसी यथार्थ का प्रदर्शन करने के लिए यह लेख लिखा गया है। इसलिए नहीं कि यह श्रेयस्कर है। मनुस्मृति को धर्मशास्त्र न मानते हुए वह एक तत्कालीन समाज का चित्र प्रदर्शन करता सामाजिक इतिहास ग्रंथ है। बस, इसी नाते हम इस लेख में उसका उपयोग करेंगे। मनुस्मृति काल में महिला कैसी थी, बस इतना ही उल्लेख यह लेख करेगा। उसका वह स्वरूप भला था या बुरा, आज भी, वर्तमान में भी उसका स्वरूप उसी तरह होना चाहिए या नहीं-आदि प्रश्नों की चर्चा इसकी कक्षा में बिलकुल नहीं आती। मनुस्मृति को हम अनुल्लंघनीय धर्मशास्त्र के रूप में स्वीकार करते हैं, इसलिए नहीं कि उस महान् ग्रंथ के संबंध में जनमानस में मान्यताएँ कम थीं, प्रत्युत इसलिए कि वह महानता अपने यथार्थ रूप से रत्ती भर भी कम ना हो।

हमारे वेदस्मृति प्रभृति महान् ग्रंथों का औचित्य इतना महान् है कि उसे अक्षुण्ण रखने के लिए इस तरह का अर्थवाद अथवा व्यर्थवाद का अंटसंट ढकोसला रचना कि ये ग्रंथ अपौरुषेय, त्रिकालाबाधित अथवा सर्वज्ञ हैं, तो उतने ही अनावश्यक, अनिष्टकारी एवं हास्यास्पद भी हैं, जितना नगाधिराज हिमालय की उपत्यका को बाँस का आलंबन देना, ताकि हिमालय डाँवाँडोल न हो। इतना ही नहीं, उन्हें वे जैसे हैं वैसे ही पौरुषेय, परिस्थिति सापेक्ष तत्कालीन भाव-भावनाओं, नियम, निबंध, आचार, विचार प्रदर्शक अपने प्राचीन ग्रंथों के रूप में ही संबोधित करने से उनकी पूज्यता चिरकालीन हो सकती है, जगत्मान्य हो सकती है। अपने मूर्खतापूर्ण हठधर्मी स्वभाव वश त्रिकालाबाधित नहीं मानें तो भी उसकी मान्यता त्रिकालाबाधित रहेगी।

जिस तरह राजाओं के सचमुच ही महाराज हुआ करते थे, उस समय उन्हें शोभित महाराज उपाधि को बाद में वे स्वयं ही अन्य के अधीनस्थ नरेश हो जाने पर भी उपयोग करें तो उस उपाधि की तरह विडंबना ही होती है कि आज अधीनस्थ नरेश होते हुए भी प्राचीन महाराजा का तुर्रा जता रहे हैं। तब वह 'महाराज' शब्द अधीनस्थ नरेश का पर्याय होता है। प्राचीन परिस्थितियों में अनुल्लंघ्य धर्मशास्त्र उस समय सर्वज्ञ प्रतीत होते थे। वर्तमान युग में भी यदि अनुल्लंघनीय धर्मशास्त्र त्रिकालाबाधित निर्बंध ग्रंथ 'सर्वज्ञानमयो हि सः' इस तरह उसका डंका पीटा जाए तो वैसी ही दयनीय अवस्था हुए बिना नहीं रहेगी। वेद, मनुस्मृति, कुरान, बाइबिल, अवेस्ता तौलिद आदि ग्रंथों को पौरुषेय मानने से इस सत्य पर गौर करने पर कि उनके कर्ताओं ने उन परिस्थितियों में कितना विकास किया, कितना जनहित साध्य किया-विस्मय से बुद्धि दंग रह जाती है, उनके प्रति उचित आदर से मन गद्गद हुए बिना नहीं रहता और उनका अधूरापन न केवल क्षमता योग्य, प्रत्युत सर्वथा मानवसुलभ एवं सहज प्रतीत होता है। उससे उनकी योग्यता में रत्ती भर भी न्यूनता नहीं आती, परंतु इन वेद-अवेस्ताओं को, कुरान-पुराणों को, लौलिद-बाइबिलों को ईश्वरी आदेश कहने से, उनका एक-एक अक्षर त्रिकालाबाधित, सत्य, अनुल्लंघनीय, ईश्वरी आज्ञा कहने से इन ग्रंथों को ईश्वरीय पूर्णता प्राप्त नहीं होती प्रत्युत ईश्वर ही किसी मनुष्य की दुर्बलता, सहनशीलता का भागी बन जाता है। वह ग्रंथकर्ता मनुष्य ईश्वर प्रेषित होने के बाद भी उपहास के पात्र एवं हानिकारक बन जाते हैं। इसका बोध कराने के लिए कि यह कैसे होता है, उस मनुस्मृति का ही उदाहरण लेते हैं जो इस 'मनुस्मृतीय महिला' शीर्षक लेखमाला पर सर्वथा लागू होगा।

महिलाओं के नाम कैसे हों और कैसे न हों

इस संबंध में विवेचन करते समय कि किस कन्या से परिणत होना उत्तम पक्ष है-अध्याय तीन के ९, ११ श्लोकों में भगवान् मनु ने इसका भी उल्लेख किया है कि स्त्रियों के कौन से नाम उचित हैं।

नर्भवृक्षनदीनाम्नी नान्त्यपर्वतनामिकाम्।

न पक्ष्यहिप्रेष्यनाम्नीं न च भीषणनामिकाम्॥९॥

अव्यङ्गाङ्गी सौम्यनाम्नी हंसवारणगामिनीम्।

तनुलोमकेशदशनां मृद्वङ्गमुद्रहेत्स्त्रियम्॥११॥

-अ.३

वह कन्या जिसका नाम नक्षत्र, वृक्ष, नदियाँ, पर्वत, सर्प, सेवक तथा भीषणता वाचक है-विवाह के लिए अयोग्य है-उस कन्या से विवाह करना उचित है जिसका नाम सौम्य है। यही श्लोक का भावार्थ है। यदि इसका एक सरल उपदेश के रूप में पठन किया जाए तो इसमें कुछ भी असंगत प्रतीत नहीं होता। यह बात कितनी मधुर है कि नारियों के नाम भीषण न हों, कन्याओं के नाम ऐसे ही सौम्य हों जो वत्सलता, कोमलता, मृदुता आदि विशेष गुणों की सहजतापूर्वक अभिव्यक्ति करें। यह सत्य ही प्रशंसनीय है कि मनु सदृश दार्शनिक राजर्षि धर्मशास्त्र जैसी गंभीर ग्रंथ-रचना करते समय भी कोमल तथा सुंदर भावों की भी विचारणा करें तथा लोगों को इतनी सूक्ष्मतापूर्वक सौम्य सूचना देने में सतर्क रहें। मन में यह विचार कौंधे बिना नहीं रहता कि यह कितना उचित होगा कि आज भी हम भगवान् मनु की सुंदरता की रुचि पूरी करते हुए अपनी कन्याओं के नाम रखें। अच्छा, इस श्लोक का यह कठोर चरण कि नदी, पर्वत, भीषणता प्रभृति वाचक कन्याओं से विवाह करना अनुचित है-इस श्लोक की ऐतिहासिकता पर गौर करें तो कुछ अधिक विपरीत तथा आपत्तिजनक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि मनुस्मृति काल में 'पाप लग जाएगा', 'नरक में पड़ोगे' आदि वाक्य ऐसे पर्याय थे जो निषेधसूचक होते थे। आज भी कोई माता जिस तरह दिन में दस बार अपनी संतान को झट से 'मर जा निगोड़े' कह देती है, परंतु इन शब्दों को शब्दश: लेने की बात वह माता तथा हम सपने में भी नहीं सोच सकते। इसी तरह यह समझकर कि वह तो बस एक बोलचाल की तत्कालीन परिपाटी थी, उसे उपेक्षणीय समझा जाए, यह न कहते हुए उन श्लोकों का सीधा अर्थ स्पष्ट करने से श्लोक प्रशंसनीय प्रतीत होते हैं। यदि इस ऐतिहासिक दृष्टि से उन श्लोकों का पठन किया जाए तो एक प्राचीन ग्रंथकार द्वारा सहजतापूर्वक दी हुई वह विशेष रूप से लागू होती है तो ये श्लोक प्रशंसनीय प्रतीत होंगे।

परंतु यदि मनुस्मृति के हर शब्द को त्रिकालाबाधित, अनुल्लंघनीय अर्थात् 'सनातन' धर्म के रूप में मानते हुए इन दो सरल श्लोकों पर आचरण करना हो तो घर-घर में कितना विकट अनर्थ हो जाएगा! और वह भी सुधाकरों के घरों में नहीं अपितु सनातन बंधुओं के घरों में भी; क्योंकि इस संबंध में मनुस्मृति के नियमों का पालन सुधारक ही अधिक मात्रा में करते हैं। उनमें प्रायः कन्याओं के नाम वत्सला, शालिनी, मंजुला इस तरह सौम्य स्वरूप के होते हैं। उन सनातनधर्मियों में ही जो मनुस्मृति को सर्वथा त्रिकालाबाधित समझते हैं, मनुप्रणीत श्लोकों को पैरों तले रौंदकर, इतना ही नहीं, वही नाम जो मनु को प्रिय हैं, उन्हें ओछे समझकर और उन नामों को जिन्हें मनु ने निषिद्ध समझा है-धर्मानुकूल समझकर प्रायः रखा जाता है। मनु के अनुसार कन्याओं को नदियों के नाम देना इतना घोर पाप है कि उस योग से कन्या का वरण भी निषिद्ध हो जाता है; परंतु हमारे सनातन बंधुओं के घरों में जल से लबालब भरी गंगा, गोदावरी, सिंधु, कृष्णा, कावेरी, नर्मदा, जमुना उमड-उमड़कर बहती हैं। इसी प्रकार नक्षत्र नाम भी मनु निंदनीय मानते हैं, परंतु हमारे घरों में दिन-दहाड़े भी निरंतर 'रोहिणी' जगमगाती है। उनमें भी उन उलटे तवे सदृश काली-कलूटी कन्याओं को भी, जिनके लिए कृष्ण रजनी नाम ही सार्थक हो सकता है, 'तारा' संबोधित करते हुए उन बेचारियों का व्यर्थ ही उपहास किया जाता है। आँख का अंधा और नाम नयनसुख। उधर उन गोरी-चिट्टी बालाओं को 'कृष्णा' नाम से संबोधित किया जाता है। मनु जैसों की वेदाभ्यास कठोर श्रुति को भी आते-जाते ललनाओं के ललित नाम श्रवण करने की इच्छा होती है; परंतु उन कट्टर सनातनियों, जो उनके प्रत्येक शब्द को अनुल्लंघनीय मानते हैं, के घर में बस पग रखते समझिए 'अक्का, दगड़े, धोड़े, भिके, भीमे' इस तरह कर्कश नाम आपके कान में पड़ेंगे।

यद्यपि कन्याओं को वृक्षों के नाम न दिए जाएँ, ऐसा मनु भगवान् कहते हैं तथापि उसमें कुछ अधिक रस न होने के कारण सुधारवादी उधर कान न देने के लिए मुक्त हैं। यह सत्य है कि वृक्षों, जो स्वयं हृष्ट-पुष्ट अथवा नीरस हैं, के नाम सुकुमार कोमल ललनाओं को शोभा नहीं देते। भला किसी कन्या को 'अरी ओ पीपली, अरी नागफनी, अरी सुपारी' इस तरह पुकारना शोभा नहीं देता है। हाँ, परंतु फूल-पत्ती सी कोमल कन्याओं को चंपा, जूही, बेला, मालती, गुलाब आदि फूलों के नाम ऊंचते ही हैं। तारा, रोहिणी, चंपा, इंदु-ये नाम भी उन्हीं कन्याओं के रखना संतोषजनक होता है जो गोरी, चंचल, चुलबुली तथा सुंदर हों।

परंतु उन सनातनी बंधुओं का, जो इसलिए सुधारवादियों को पाखंडी कहते हैं कि वे मनु को आज भी स्वीकार नहीं करते, इस बात का चयन करना असंभव है। उन्हें चाहिए कि वे तुरंत मनुस्मृति की इस स्पष्ट आज्ञा के पालनार्थ गंगा, गोदावरी, कृष्णा, भागीरथी, रोहिणी, चंपा, दगड़ी, धोंड़ी, भिकी प्रभृति सभी नामों में परिवर्तन करने के लिए पुनः नामकरण विधि करें। इस श्लोक को शब्दशः त्रिकालाबाधित मानने से जो प्रचंड अनर्थ होगा, वह यह कि मनुस्मृति के अनुसार ऐसी कन्याएँ आजन्म विवाह के लिए निषिद्ध होती हैं जिनके नाम इस प्रकार रखे गए हैं। यह जो भूल उनके नामकरण के समय हुई वह भूल मृत्युपर्यंत उनका पीछा न छोड़ेगी। उस कन्या का वरण न किया जाए जिसके नाम नदी, वृक्ष, नक्षत्र, भित्ति वाचक हैं (नोद्वोत्)। राजयक्ष्मा, विकलांगता, पागलपन प्रभृति अवरणीय कन्या-दोषों में ही कन्या का इस तरह निषिद्ध नाम रखा जाने का दोष भी मनुस्मृति में एक ही पंक्ति में रखकर उनके लिए एक समान दंड कथन किया है-नोद्वेहेत्। अर्थात् समस्त परिणेया गंगा, गोदा, भागीरथी का प्रतिजीवन सूखकर वीरान बनेगा। सभी परिणेया ज्योतियाँ बुझ जाएँगी। चंपाकली की आशाएँ जलकर भस्म बनेंगी। हमारी भिमी ही क्यों घोड़ी भी पसीजकर दहाड़ें मारकर रोने लगेगी। इस तरह के नाम विशेषतः महाराष्ट्र में ही होने के कारण वर्तमान विवाह योग्य कन्याओं की संपूर्ण पीढ़ी ही विवाह-वेदी पर आरूढ़ होते-होते अचानक नीचे खींची जाकर आजीवन अविवाहिता की खाई में ढकेली जाएगी-यदि भगवान् मनु का प्रत्येक श्लोक अनुल्लंघनीय धर्माज्ञा ही मानने की ठान ली तो इतना ही नहीं हमारी सहस्रों माता-भगिनियों के जिनके एवं गुणविशेष नाम हैं-संपन्न हुए विवाह भी अधर्म्य ही सिद्ध होंगे।

यह सारा अनर्थ क्यों? इसलिए कि उन बेचारी कोमल निष्पाप कुमारियों, कन्याओं अथवा परिणिताओं ने स्वयं कोई घोर अपराध किया है? नहीं। उनके नामकरण के दिन उनके माता-पिता ने उनके नाम धोंडी, कृष्णा अथवा कावेरी रखे थे, इसलिए! अतः कोई भी उनका वरण न करे। नामकरण के दिन उनके बस में यह तो नहीं था कि उनका नामकरण क्या होगा, जैसे अपना रंग गोरा या काला, अपना रूप सुंदर या विरूप होना उनके बस में नहीं था। परंतु अपने माता पिता की भूल के लिए इन निरपराध कन्याओं को आजीवन अविवाहित रहने का दंड भुगतना होगा-नोद्वहेत्।

और इस तरह नामकरण करने में उनके माता-पिताओं से भला ऐसी कौन सी भूल हो गई कि उनका गला घोंट दिया जाए? नामकरण क्या चीज है और इस साधारण भूल के लिए दंड ऐसा है, जैसे ककड़ी के चोर को कटारी से मारा जा रहा हो। भिमी नाम हो तो कर डालो उसका नाम भामा। बस इतनी सरल सी बात का परिवर्तन करना उचित है या उन कन्याओं की पंक्ति में भी जो राजयक्ष्मा पीड़ित, विकलांग, चोर, हत्या जैसे महादोषों के कारण अवरणीय बताई गई हैं-किसी निरालस, निश्छल चंपा, रोहिणी, गंगा, जमुना को भी सम्मिलित किया जाए; क्योंकि उनका अपराध सिर्फ इतना ही है कि उनके गुण विशेष नाम जो रखे गए हैं-इसे महादोष समझकर इसके लिए नाम परिवर्तन के सुलभ उपाय का सुझाव देने के बदले उस कन्या को 'नोद्वहेत्' जैसा कठोर धर्मादेश देना कहाँ का न्याय है? मनुस्मृति की यह कैसी विवाह व्यवस्था या वैधव्यावस्था है?

सनातनी भाष्य इस तरह हमारी श्रुति स्मृतियों को हास्यास्पद बनाते हैं

उपर्युक्त श्लोक जो सहजतापूर्वक सूचित करते हैं कि कन्याओं के नाम कैसे हों-ऐतिहासिक दृष्टि से पढ़ो तो उस प्राचीन ग्रंथकार की ललित रुचि देख मन प्रशंसा से भर जाता है। उन्हीं मनुस्मृति के शब्दों को त्रिकालाबाधित, अनुल्लंघनीय, धर्मशास्त्र समझकर सनातनी दृष्टि से उनका पठन करने से कितने अड़ियल या निरर्थक प्रतीत होते हैं-हमारे विचार से इसका बोध उपर्युक्त स्पष्टीकरण से हो सकता है। जिस तरह इन चार श्लोकों की दुर्गत बनी, उसी तरह सनातनी दृष्टिकोण ने मनुस्मृति के सैकड़ों श्लोकों की दुरवस्था की है। इस प्राचीन तथा पूज्य ग्रंथ को अनावश्यक महत्त्व देने से उसका अवास्तव डंका बजाने की मूर्खता से उस ग्रंथ के मत्थे भी अनावश्यक मूढ़त्व मढ़वाकर उसे निपट हास्यास्पद ही नहीं, वर्तमान विकास के लिए बाधक भी बनाया है। अतः उस ग्रंथ की अप्रतिष्ठा न हो, उसकी वास्तविक योग्यता भी कोई हीन न समझे, इसलिए और उस प्राचीन और पूजनीय धर्मशास्त्र के संबंध में जो यथायोग्य आदर होना चाहिए, वह भी बिना कारण न्यून न हो जाए, इसलिए मनुस्मृति की तत्कालीन महिलाओं की स्थितिदर्शक श्लोक आज भी अनुल्लंघ्य ऐसा धर्मशास्त्र है, यह मानकर नहीं दे रहे हैं। मनुस्मृति के स्त्री संबंध के नियम, निबंध, भाव और भावना ऐसी थी, इतनी जानकारी भर देने के विचार से दे रहे हैं, परंतु यद्यपि हमारा यह अनुरोध है कि उन्हें केवल ऐतिहासिक दृष्टि से ही पढ़ा जाए, तथापि इसलिए कि उन लोगों को-जिन्हें उनका धार्मिक एवं सश्रद्ध निष्ठा के साथ ही पठन करना है-कुछ कठिनाई न आ जाए, इसलिए हम मूल श्लोक क्रमशः प्रस्तुत करके उनके सामने उनका सरल भावार्थ भी प्रस्तुत करेंगे। स्मृति के अंतर्गत श्लोकों में ही उसके शब्दों तथा अर्थों की खींचातानी के साथ उसे ठूँसने का प्रयास नहीं करेंगे।

इसके अधीन सभी श्लोकों को किस कसौटी से परखा जाए, यह घड़ी-घड़ी कथन करने की अपेक्षा किन्हीं दो या तीन श्लोकों को इस कसौटी से परखकर शेष श्लोकों को भी इसी तरह कसौटी पर लगाया जाए। इसलिए इस प्रास्ताविक लेखांक लिखने के पश्चात् अब अगले लेखों में नारी-वर्ग संबंधी मनुस्मृति के उन अत्यंत उद्बोधक तथा आकर्षक श्लोक क्रमशः प्रस्तुत किए जाएँगे जो इस लेखमाला के हेतु को मिथ्या न सिद्ध होने दें।

लेखांक-२

प्रथम लेखांक में इस लेखमाला की भूमिका का जो विवेचन किया गया, उसके अनुसंधानार्थ सारांशस्वरूप इतना कहना आवश्यक है कि इसके पश्चात् मनुस्मृति के जो श्लोक हम यहाँ दे रहे हैं, वे त्रिकालाबाधित अथवा अनुल्लंघनीय नियम के रूप में नहीं दे रहे, वरन् एक ऐसे ऐतिहासिक वृत्त के रूप में दे रहे हैं कि मनुस्मृति काल में हमारे महिला वर्ग की स्थिति कैसी थी! उस काल में हमारे समाज में जो नियम तथा निर्बंध उचित एवं हितकारी प्रतीत हुए, वे आज भी उचित अथवा हितकारी होने ही चाहिए, इस तरह प्रतिपादन करने से उनके अनेक नियम तथा निर्बंध अकारण ही हास्यास्पद बनते हैं अथवा समाज-हानि का कारण बन जाते हैं। यदि उन्हें ज्यों-का-त्यों स्वीकारा गया तथा उनमें से इस तरह का अर्थ निकालने का व्यर्थ प्रयास किया गया कि जिससे वे वर्तमान परिस्थितियों के लिए हितकारक बनें तो उन श्लोकों की खींचातानी के साथ एक-एक करके ग्यारह भाष्यकार उनमें से ग्यारह अर्थ निकालते हैं। कुल मिलाकर एकमत तो कभी होना ही नहीं है। अतः इन श्लोकों का केवल ऐतिहासिक दृष्टि से ही पठन किया जाए। वर्तमान परिस्थितियों में भी उनमें विपुल हितकारी तथा उपलब्ध श्लोक होंगे, उसे हितकारी समझकर उसका अनुसरण करें, न ही अनुल्लंघनीय शास्त्र के रूप में आज उसका अनुसरण किया जाए, जो आज हानिकारक एवं हास्यास्पद है, परंतु इसके लिए इस तरह विपरीत धारणा न बनाएँ कि यह स्मृति हानिकारक अथवा हास्यास्पद है। इसके विपरीत जिन अन्य संस्कृतियों के धर्मग्रंथ आज उपलब्ध हैं, उन बेबिलोन, मिस्र, ज्यू ग्रीक, रोमन आदि प्राचीन महाग्रंथों से तथा निबंध ग्रंथों से तुलना करें तो हमारी यह प्राचीनतम स्मृति अग्रपूजा के सम्मानार्थ सर्वथा ही पात्र है, यह सिद्ध होता है। उस प्राचीन स्मृति का हमें इसी तरह सादर ममता के साथ सम्मान करना चाहिए कि हमारे हिंदू राष्ट्र के ऊँचे-ऊँचे बलशाली राजप्रासाद की नींव का, जो तत्कालीन विश्व को अपने महापराक्रम से आश्चर्यचकित एवं कंपित करता था, वह एक पूजनीय विशेष है। यह है हमारी श्लोक-पठन की ऐतिहासिक दृष्टि। परंतु यदि कोई इन श्लोकों को अनुल्लंघनीय त्रिकालाबाधित धर्मशास्त्र के रूप में भी अध्ययन करना चाहे तो उसकी सुविधा के लिए हम मूल श्लोक तथा उनका भावार्थ किसी भी उपपत्ति अथवा तर्क को बीच में न घुसेड़ते हुए दे रहे हैं। हमें यदि कुछ विशेष सूचित करना है तो वह हम श्लोक के नीचे कोष्ठक में अलग सूचित करेंगे।

जिसे मनुस्मृति कहा जाता है वह भृगुस्मृति है।

आज हमारे पास जो मनुस्मृति नामक ग्रंथ है, उसकी रचना भगवान् मनु ने नहीं की। प्राचीन काल में जो शास्त्र कथन किया गया था उसमें से महर्षि भृगु को जो स्मरण रहा, उसे अपने शब्दों में इस ग्रंथ में उन्होंने ग्रंथित किया, यह तथ्य प्रथमाध्याय में स्पष्ट शब्दों में प्रकट किया गया है।

यथेदमुक्तवांछात्रं पुरा पृष्टो मनुर्मया।

तथेदं यूयमप्यद्य मत्सकाशान्निबोधत॥११९॥

-अ. १

प्रत्येक अध्याय का अंतिम वाक्य भी यही कहता है कि इति मानवे धर्मशास्त्रे भृगुप्रोक्तायां संहितायां (अमुक) अध्यायः।

अर्थात् प्रस्तुत मनुस्मृति का उत्तरदायित्व प्रथमतः तथा प्रत्यक्ष रूप में महर्षि भृगु का है। भगवान् मनु के उपदेश का महर्षि भृगु द्वारा विरचित यह एक संस्करण है। अतः यथार्थ रूप में इस ग्रंथ को भृगुसंहिता की कहना चाहिए।

मनुस्मृति का कालखंड

प्राचीन ग्रंथ के-फिर वह अपना हो या अन्य जनों का-कालखंड का विवाद छाती तानकर सामने खड़ा हो ही जाता है। हमारे इस लेख का इस विवाद के पचड़े से कुछ अधिक संबंध न होने के कारण हमारा सिर्फ इतना ही कहना पर्याप्त है कि आज जो पांडुलिपि प्रसिद्ध है, उसमें से कुछ अंश अत्यंत प्राचीन त्रैवर्णिक आर्य राष्ट्र की समाज-स्थिति का निदर्शक है और कुल पुस्तक भी चाहे कुछ भी हो-प्रक्षिप्त, अपवाद छोड़कर ईसापूर्व के अर्थात् दो हजार वर्ष पूर्व के आसपास की समाज-स्थिति का वर्णन करती है। इतने विशाल ग्रंथ में रामायण, महाभारत अथवा महाभारतादि ग्रंथों में किसी प्राचीन मनुस्मृति का उल्लेख बार-बार मिलता है। जैसे-

'तेषां धर्मान् यथापूर्व मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत्॥'

-आदि पर्व, अ. ९६

इस स्थूल वास्तविकता से यही दिखाई देता है कि यह ग्रंथ वर्तमान स्वरूप में भी कितना प्राचीन है। अब मनुस्मृति के महिलाओं से संबंधित श्लोक क्रमशः लेते हैं-

कन्याओं के नाम

स्त्रीणां सुखोद्यमक्रूरं विस्पष्टार्थं मनोहरम्।

मंगल्यं दीर्घवर्णान्तमाशीर्वादाभिधानवत्॥३५॥

-अ. २

कन्या का ऐसा नामकरण करें कि जिसका उच्चारण सरल, अर्थसूचक, मंगलमय, मधुर, आशीर्वादात्मक होते हुए अंत्यवर्ण में दीर्घ हो-जैसे यशोदा, विदुला, सीता, रमा।

नारियों के संस्कार

अमन्त्रिका तु कार्येयं स्त्रीणामावदशेषतः।

संस्कारार्थं शरीरस्य यथाकालं यथाक्रमम्॥६९॥

वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः।

पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोऽग्निपरिक्रिया॥७०॥

-अ. २

नारियों के जातकर्मादि संस्कार उचित समय पर यथाक्रम किए जाएँ, परंतु वे मंत्ररहित हों। विवाह ही उसका वैदिक संस्कार, पति-सेवा ही गुरु-ग्रहवास, गृहकृत्य ही होमादिक अग्निसेवा है।

नारियों का अभिवादन

परपत्नी तु या स्त्री स्यादसम्बद्धा च योनितः।

तां ब्रूयाद्भवतीत्येवं सुभगे भगिनीति च॥१३२॥

मातृष्वसा मातुलानी श्वश्रूरथ पितृष्वसा।

सम्पूज्या गुरुपत्नीवत्समास्ता गुरुभार्यया॥१३४॥

-अ. २

परनारी को यदि वह संबंधी न हो तो भवती, सुभगे, भगिनी संबोधित करें। मौसी, मामी, सास ,फूफी को गुरु पत्नी की तरह पूजनीय माना जाए।

गुरुपत्नी से व्यवहार

गुरुवत्प्रतिपूज्याः स्युः सवर्णा गुरुयोषितः।

असवर्णास्तु सम्पूज्याः प्रत्युत्थानाभिवादनैः॥२१४॥

-अ. २

गुरु की सवर्ण पत्नी को गुरुसदृश ही माना जाए, गुरु की असवर्ण पत्नी को उत्थान तथा अभिवादन, बस इतना ही सम्मान दिया जाए।

(इस श्लोक में यह स्पष्ट होता कि प्राचीन काल में गुरु की ब्राह्मण पत्नी होते हुए भी कुछ क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र जातीय पत्नियाँ भी हो सकती थीं। ब्राह्मण गुरु की इन ब्राह्मणेतर पत्नियों का केवल धर्म विरुद्ध विवाह बाह्य संबंधों के प्रीति पात्रों के रूप में उल्लेख नहीं है, वे तो धर्मानुकूल विवाह की धर्मपत्नियाँ ही होती थीं, उनकी संतति भी गृह में विवाहित संतति की तरह एक साथ ही पलती थी। ब्राह्मणों की ब्राह्मणेतर भार्या से उत्पन्न संतति किसी हाल में ब्राह्मण ही समझी जाती थी और इसी तरह यथाक्रम क्षत्रिय वैश्यों की भी व्यवस्था की गई थी-आगे चलकर यह बात अनुलोम विवाह विषयक श्लोक में स्पष्ट होगी।)

अभ्यञ्जनं स्नापनं च गात्रोत्सादनमेव च।

गुरुपत्न्याः न कार्याणि केशानां च प्रसाधनम्॥२१५॥

गुरुपत्नी तु युवतिर्नाभिवाद्येह पादयोः।

पूर्णविंशतिवर्षेण गुणदोषौ विजानता॥२१६॥

-अ. २

परंतु गुरुपत्नी को नहलाना, तेल मर्दन करना, हाथ-पाँव दबाना, उसकी कंघी-चोटी करना आदि सेवा न करें। गुरुपत्नी यदि युवा हो तो युवा शिष्य उसका चरण स्पर्श कर प्रणाम न करे। (परंतु आगे २९७वें श्लोक में पुनः यह विधि साधारण विधि बताई गई है कि जब वह यात्रा से वापस लौटे तो उसका पादस्पर्श के साथ वंदन करे।) इस मर्यादा पालन का कारण यह है कि

स्वभाव एष नारीणां नराणामिह दूषणम्।

अतोऽर्थान्न प्रमाद्यन्ति प्रमदासु विपश्चितः॥२१७॥

अविद्वांसमलं लोके विद्वांसमपि वा पुनः।

प्रमदा युत्यथं नेतुं कामक्रोधवशानुगम्॥२१८॥

मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा नाविविक्तासनो भवेत्।

बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति॥२१९॥

-अ. २

(क्योंकि) नारी का स्वभाव धर्म ही है कि वह पुरुष को दोष-प्रवण करती है। अतः बुद्धिमान् पुरुष को आमोद-प्रमोद के मोह में न फँसने की सावधानी बरतनी चाहिए। युवा रमणी केवल अविद्वान् को ही नहीं तो विद्वान् पुरुष को भी काम-क्रोध के द्वारा सहजतापूर्वक उत्पथ की ओर ले जा सकती है (अन्य जनों की तो बात ही नहीं परंतु) माता, भगिनी अथवा अपनी कोखजाया पुत्री के साथ भी एकांत में न बैठे; क्योंकि इंद्रियों का प्रबल आवेग विद्वज्जन को भी खींच लेता है।

माता की योग्यता

यं मातापितरौ क्लेशं सहेते सम्भवे नृणाम्।

न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं वर्षशतैरपि॥२३१॥

त एव हि त्रयो लोकास्त एव त्रय आश्रमाः।

त एव हि त्रयो वेदास्त एवोक्तास्त्रयोऽग्नयः॥२३४॥

यावत्त्रयस्ते जीवेयुस्तावन्नान्यं समाचरेत्।

तेष्वेव नित्यं शुश्रूषां कुर्यात्प्रियहिते रतः॥२३९॥

त्रिष्वेतेष्विति कृत्यं हि पुरुषस्य समाप्यते।

एष धर्मः परः साक्षादुपधर्मोऽन्य उच्यते॥२४१॥

-अ. २

हमें जन्म देते समय माता-पिता को जो कष्ट होते हैं, उसका ऋण सौ वर्षों में भी हम नहीं चुका सकते। गुरु, माता, पिता ही तीनों आश्रम, तीनों लोक, तीनों वेद एवं तीनों अग्नियाँ हैं। उनकी आजीवन सेवा करें। वही जीवन की इतिकर्तव्यता है। यह धर्म साक्षात् तथा श्रेष्ठ है, शेष सभी उपधर्म है।

स्त्री रत्नं दुष्कुलादपि

श्रद्दधानः शुभां विद्यामाददीतावरादपि।

अन्त्यादपि परं धर्मं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि॥२४२॥

स्त्रियो रत्नान्यथो विद्या धर्मः शौचं सुभाषितम्।

विविधानि च शिल्पानि समादेयानि सर्वतः॥ २४४॥

-अ. २

निम्न जातियों से भी विद्या, चांडाल से भी मोक्ष धर्म और नीच कुल से भी यदि कन्या की उपलब्धि होती है तो भी उनको ग्रहण कर लेना चाहिए।

विवाह विचार

असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः।

सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने॥५॥

हीनक्रियं निष्पुरुषं निश्छंदो रोमशार्शसम्।

क्षय्यामयाव्यपस्मारिश्वित्रिकुष्ठिकुलानि च॥७॥

नोद्वहेत्कपिलां कन्यां नाधिकाङ्गी च रोगिणीम्।

नालोमिकां नातिलोमां न वाचालां न पिङ्गलाम्॥८॥

नर्क्षवृक्षनदीनाम्नीं नान्त्यपर्वतनामिकाम्।

न पक्ष्यहिप्रेष्यनाम्नीं न च भीषणनामिकाम्॥९॥

अव्यङ्गाङ्गीं सौम्यनाम्नी हंसवारणगामिनीम्।

तनुलोमकेशदशनां मृद्वङ्गमुद्वहेत्स्त्रियम्॥११॥

-अ.३

माता तथा पिता के सपिंडी एवं सगोत्रीय कन्या का वर्जन (वर्णित) करके विवाह करना द्विजातियों के लिए प्रशस्त है। ऐसी कन्याओं से जो संस्कारविहीन, जिनकी मात्र स्त्री-संतति ही होती है, वेदाध्ययनशून्य, बवासीर, राजयक्ष्मा, अग्निमांद्य, अपस्मार, कोढ़ आदि रोगों से ग्रस्त कुल की है, जिनके केश भूरे हैं, जिनके अधिक अंग हैं, रोगी, केशविहीन, बातूनी, जिनके नेत्र पीले हैं, उसी तरह जिनके नाम नक्षत्र, वृक्ष, नदी, पर्वत, सर्प, सेवक अंत्यजादि अर्थसूचक हैं अथवा भीषण हैं-विवाह न करें।

भिन्नवर्णीय विवाह

(उस समय यह शर्त नहीं थी कि वर-वधू एकवर्णीय ही हों।)

शूद्रैव भार्या शूद्रस्य सा च स्वा च विशः स्मृते।

ते च स्वा चैव राज्ञश्च ताश्च स्वा चाऽग्रजन्मनः॥१२॥

सवर्णाग्रे द्विजातीनां प्रशस्ता दारकर्मणि।

कामतस्तु प्रवृत्तानामिमाः स्युः क्रमशोऽवराः॥१३॥

पाणिग्रहणसंस्कारः सवर्णासूपदिश्यते।

असवर्णास्वयं ज्ञेयो विधिरुद्वाहकर्मणि॥४३॥

शरः क्षत्रियया ग्राह्यः प्रतोदो वैश्यकन्यया।

वसनस्य दशा ग्राह्या शूद्रयोत्कृष्टवेदने॥४४॥

-अ. ३

प्रथम विवाह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों द्वारा सवर्ण स्त्री से करना उत्तम है। आगे चलकर अन्य वर्णीय नारी से भी इस तरह विवाह करें-शूद्र केवल शूद्राणी से विवाह करे, वैश्य-वैश्य से तथा शूद्र दोनों वर्णीय नारी से विवाह करे। क्षत्रिय के लिए क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इस तरह त्रिवर्णीय स्त्रियों से विवाह करने में कोई आपत्ति नहीं है और ब्राह्मण तो ब्राह्मणी की तरह ही क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन वर्गों की स्त्री से विवाह कर सकते हैं। सवर्ण विवाह में (अर्थात् ब्राह्मण का ब्राह्मणी से आदि) वधू का पाणिग्रहण करें। असवर्ण विवाह में (अर्थात् ब्राह्मण वर तथा क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र वधू आदि।) क्षत्रिय वधू वर के तीर को, वैश्य वधू क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण वर के हाथ के प्रतोद या कोडे के सिरे के और शद्र कन्या, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर के शरीर के वस्त्र के धागों को थामकर विवाह संस्कार पूर्ण करें। इस स्मृति के अंतर्गत ये श्लोक जो इस बात का प्रतिपादन करते हैं कि त्रिवर्णियों को आपस में तथा शूद्रों के साथ असवर्ण विवाह धर्मसंस्कारपूर्वक करने में कोई आपत्ति नहीं है-वैदिक कालखंड के आगे-पीछे अपने राष्ट्र की पारिवारिक परिस्थितियों का चित्र उकेरते हैं। अतएव वे अवश्य अति प्राचीन हैं। ब्राह्मण के घर में ब्राह्मण स्त्री के साथ ही शूद्र पत्नी भी एक पत्नी के धर्मसंगत अधिकार के साथ रच-बस जाती है।

इसका अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र स्त्री से संबंध रखे-तो ये असवर्ण नारियाँ ब्राह्मणादिकों के घरों में केवल 'रखैल' के नाते नहीं रहतीं, अपितु उनकी धर्मपत्नी के नाते विवाहित भार्या के रूप में, जिसका वैदिक धर्मसंस्कार द्वारा वरण किया गया है, यह सत्य उनके विवाह संस्कारों को पाणिग्रहण, शरग्रहण प्रभृति जो अंतिम श्लोक में विशद करके बताया है, उससे निर्विवाद रूप में दिखाई देता है। इतना ही नहीं, आगे चलकर उस काल में ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय को वैश्य, शूद्र स्त्री से उत्पन्न संतति ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वर्ण में ही अर्थात् अपने पिता के वर्ण में ही समाविष्ट होती थी। यह आगे चलकर एक अध्याय में जो श्लोक आ रहे हैं उनसे स्पष्ट होगा। एक ही ब्राह्मण-गृह में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र-ये चारों वर्णीय नारियाँ भार्या के नाते एक साथ उठती बैठती, भोजन करतीं, कंघी-चोटी करती और उनकी संतति ब्राह्मण के रूप में ही ब्राह्मण के अधिकार का समान रूप में भोग करती थीं। किसी ब्राह्मण को ब्राह्मण स्त्रियों से प्राप्त संतति के साथ-साथ उसकी अन्य शूद्र स्त्रियों से प्राप्त संतति की भी एक ही वेदी पर उपनयन विधि संपन्न होती थी। उनकी उपनयन विधि एक साथ वेदोक्त मंत्रों से संपन्न होती। एक ही वेदशाला में वे एकवर्णीय रूप में वेद-पठन करते थे। ब्राह्मण की सगी न सही, पर सौतेली मौसी, मामी, माता, भगिनी शूद्र परिवार में भी होती थी। ब्राह्मणों के ननिहाल शूद्रों के घर होते थे। वही स्थिति क्षत्रिय-वैश्यों की होती थी। कठिनाई होती थी केवल शूद्रों के लिए। शूद्र अपनी पुत्री ब्राह्मण को देते हुए उसका वेदोक्त ससुर बन सकता था, शूद्र अपनी भगिनी ब्राह्मण को अथवा वैश्य को देकर उसका सगा साला बन सकता था। परंतु ब्राह्मण को अपना ससुर होने का सम्मान नहीं दे सकता था। ब्राह्मण के घर ब्याही हुई शूद्र महिला की माता का उस ब्राह्मण की सास के रूप में भलीभाँति स्वागत किया जाता। उस शूद्र महिला को 'नानी माँ' कहते हुए ब्राह्मण संतान लाड़ से दौड़कर लिपट सकती थी, शूद्र नारी का नाती ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हो सकता था। वहीं उलट-पलट रक्त मिश्रण क्षत्रिय वैश्यों के परिवार में चलता रहता। आज महाराष्ट्र कोंकणस्थ ब्राह्मण की नानी अथवा मामा देशस्थ ब्राह्मण होना जहाँ दुःसाध्य एवं आचार बाह्य है, वहाँ उपर्युक्त वस्तुस्थिति की विलक्षणता का बोध होते हुए भी 'सनातन' पक्षीय बंधुओं के लिए भी उसकी भूतपूर्व यथार्थता नकारना असंभव है; क्योंकि उन्हीं का तो आदर्श है कि मनुस्मृति का हर अक्षर त्रिकालाबाधित सत्य है, सुधारवादियों का नहीं। मनु द्वारा लिखित इन श्लोकों की रचना जाति-पाँत तोड़क सुधारवादी के नाते हो रही सुधारणाओं के उपदेश के तौर पर नहीं हुई, वे श्लोक तत्कालीन प्रचलित समाज-स्थिति के नियंत्रक एवं वर्णित 'निर्बंध' हैं।

तत्कालीन वैदिक एवं वर्णित पौराणिक-ऐतिहासिक कथाओं द्वारा सन्निकट हो जाता है कि ऐसी ही समाज-स्थिति थी। अनुलोम विवाह तथा पितृसावर्ण्य जैसे दोहरे निर्बंधों वश उस काल में किसी ब्राह्मण का मामा क्षत्रिय, मामी वैश्य, ममेरा भाई शूद्र तथा माता शूद्राणी हो सकती थी। ठीक यही स्थिति क्षत्रिय-वैश्यों की रहती। अर्थात् अनुलोम द्वारा क्यों न हो, परंतु चातुर्यों का रक्त ऊपर से नीचे तक प्रत्येक की नस-नस में सतत प्रवाहित होकर संपूर्ण रक्त-संबंध की निकटता से एकजीव हो गया था तथा अत्यंत आत्मीय सगे बंधु-भगिनियों के रिश्ते-नाते से एकहृदय बन गया था। जहाँ विवाह भी धर्मसंगत, नैर्बंधिक थे, वहाँ शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण पत्नियों की संतति भी ब्राह्मण ही समझी जातीं। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि एक ही पलने में पले-बढ़े-बंधु-भगिनी होने के नाते परिवार में उस वर्ण में 'रोटीबंदी' का प्रश्न भी नहीं था। जहाँ शूद्र पत्नी का पुत्र ही ब्राह्मण होता, वहाँ उसकी पत्नी के अथवा उसके पुत्र के हाथ का जलग्रहण करने से अथवा भात खाने से जातिवंचित होना ही असंभव था। मनुस्मृति के अंतर्गत ये श्लोक तो कम-से-कम जाति-पाँत रक्षक वर्णाश्रमी सनातनियों की जाति के नहीं अपितु जाति-पाँत भंजक उन सुधारवादियों के निकट हैं जो बेटीबंदी या रोटीबंदी नहीं मानते। कम-से-कम इस श्लोक से तो यही दिखाई देता है कि भगवान् मनु 'जाति-पाँत भंजक' मंडल के पट पर अपना नाम लिखेंगे, उनका वर्णाश्रमी रोटीबंद तथा बेटीबंद मंडल के सदस्य होने की कोई संभावना दिखाई नहीं देती। यह बात नहीं कि भगवान् मनु के ये श्लोक वर्तमान वर्ण-विवाह के लिए अनुकूल हैं, कुछ सुधारवादी लोग रोटीबंदी तथा बेटीबंदियों की बेड़ियाँ, जिनकी आज बहुत धूम मची है, तोड़ डालते हैं। यदि यह श्लोक भी इसके विपरीत होते, तो भी यह देखते ही कि आज ये बेड़ियाँ हानिकारक हैं, वे उन्हें तत्काल तोड़ डालते।

और अब वही विस्मयजनक दृश्यांतरण (ट्रांस्फर सीन) पाठकों को निम्न श्लोक में दिखाई देगा। यह स्पष्ट करते हुए कि ब्राह्मण को शूद्र भार्या करने में कोई आपत्ति नहीं है तथा इसका भी वर्णन करते हुए कि विवाह का धर्मसंस्कार किस तरह हो, देखिए, निम्नलिखित श्लोक एक के पीछे एक और बीच में ही किस तरह धींगामुश्ती के साथ घुस रहे हैं-

न ब्राहाणक्षत्रियोरापद्यपि हि तिष्ठतोः।

कश्मिंश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भार्योपदिश्यते॥१४॥

शुद्रां शयनमारोप्य ब्राह्मणो यात्यधोगतिम्।

जनयित्वा सुतं तस्यां ब्राह्मयादेव हीयते॥१७॥

वृषलीफेनपीतस्य नि:श्वासोपहतस्य च।

तस्यां चैव प्रसूतस्य निष्कृतिर्न विधीयते॥१९॥

-अ.३

सभी शास्त्रों का यही प्रतिपादन रहा है कि कोई भी ब्राह्मण, क्षत्रिय चाहे कुछ भी हो, शूद स्त्री से कभी ब्याह न रचाए। शूद्र स्त्री के साथ शयन करते ही ब्राह्मण अधोगति को प्राप्त होता है। उसकी कोख से पुत्र उत्पन्न होते ही वह अपने बाह्मणत्व से वंचित हो जाता है। इतना ही नहीं, शूद्र नारी के साथ संभोग तो दूर की बात, उसके अधर चूमने से, उसके इतने निकट जाने से कि उसकी साँस का स्पर्श हो, ब्राह्मण पतित हो जाता है। उसकी कोख में सुत उत्पादन करने का पाप तो इतना भोर होता है कि उसके लिए प्रायश्चित्त भी नहीं है।

एक ही लेखक द्वारा कथित तथा ग्रंथित ये परस्पर विरोधी निर्बंध कितने अविश्वसनीय हैं, यह कहने की आवश्यकता नहीं है। यदि इच्छा हो तो शूद्राणी से विवाह करो, इतना ही नहीं, उसकी कोख से उत्पन्न तुम्हारी संतान को ब्राह्मण ही समझा जाएगा, प्रथम श्लोक में यह व्यवस्था देने के पश्चात् तुरंत दूसरे श्लोक में इस तरह का प्रतिपादन कि तुमने शूद स्त्री के साथ विवाह किया है, अब तुम तथा तुम्हारी संतति पतित होकर तुम्हारा ब्राह्मणत्व भी नष्ट हो गया। वह धर्माध्यक्ष अथवा धर्मकार हो नहीं जो इस प्रकार के कृत्य करता है। परंतु वह ग्रंथकार भी, जो इस तरह केवल लिखता है-अवश्य पागल होगा। अर्थात हमारे जैसे लोग जिनसे इस ग्रंथ के पूज्य लेखक को पागल या सनकी कहने का पातक नहीं हो सकता, जो इस ग्रंथ को ऐतिहासिक दृष्टि से ही पड़ते हैं-यही धारणा बनाएँगे कि इन श्लोकों में से प्रायः प्रत्येक शोक की रचना विभिन्न कालखंड में भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा करवाके इस ग्रंथ में सम्मिलित करके कहिए अथवा घुसेड़कर कहिए प्रक्षेपित किया गया है। किस तरह भूभर्ग में उत्खनन करते समय एक-एक संस्कृति की रचना के नगर एक-एक तह के नीचे दबे होते हैं, उसी तरह विभिन्न कालोन विभिन्न समाज-स्थितियों को पर जो अलोक के गर्भ में सकर एक के ऊपर एक चढ़ती हैं-वही एक-एक श्लोक बन जाती हैं। संक्षेप में उस परतों को परंपरा इस प्रकार है-

१. प्राचीनतम काल में आर्यों की यह धारणा थी कि त्रैवर्णिक नारी रत्नों का (समोदयानि सर्वशः) जहाँ भी उपलब्ध हो, स्वीकार करें। त्रैवर्णिकों के लिए शूद्र स्त्री से परिणय सर्वथा धर्मसंगत समझा जाता था। इतना ही नहीं, शूद्र धर्मपत्नी की कोखजाया संतति की गणना पिता के वरिष्ठ वर्ण में अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य वर्ण में ही की जाती थी। इससे हो सकता है, ब्राह्मणादिकों में शूद्रादिकों का रक्त संकर होता गया। वर्तमान ब्राह्मण वर्ण में कई वंशों की पीढ़ियों की माताएँ शूद्राणियाँ भी हों। अर्थात् वर्तमान चातुर्वर्ण्य हिंदू राष्ट्र एक रक्त बीज की ही संतति है-सर्वथा रक्त संबंध से संलग्न एक ही जाति है।

२. परंतु उस प्राचीनकाल में यह देखकर कि शूद्र कृष्णवर्णीय, ऊबड़-खाबड़, मोटे, मंद बुद्धि के होने के कारण उनकी यह हीनता आर्यों में माता की ओर से घुल-मिलकर तत्कालीन आर्यों का श्वेततर वर्ण आदि गुण बिगड़ते हैं, एक ऐसा पक्ष प्रबल होता गया, जिसे यह अच्छा नहीं लगता था। इस पक्ष ने यह प्रतिपादन करते हुए कि अनुलोम विवाह विघातक हैं, यह निश्चय किया कि इस तरह के विवाह से उत्पन्न संतति पिता के श्रेष्ठ वर्ण में न ढकेलते हुए माता के निम्न वर्ग में ढकेली जाए! यही है मातृसावर्ण्य! अर्थात् इससे पूर्व ब्राह्मण का शूद्र भार्या की कोख से उत्पन्न पुत्र ब्राह्मण सिद्ध होता, जो अब इस अगले खंड में शूद्र घोषित किया गया। यही बात अन्य वर्णीय विवाहों की थी।

३. आगे चलकर यही वर्ण शुद्धि की रक्षा की प्रवृत्ति अधिकाधिक अन्यमनस्का व दूषित होती गई और इस प्रकार कठोर हठ या आग्रह आरंभ हो गए कि आर्य शूद्रा नारी से ब्याह ही न करे, ब्राह्मणों को तो उसकी साँस से भी परहेज करना चाहिए और धीरे-धीरे इसी न्याय के साथ ब्राह्मण का क्षत्रियादिकों से भी विवाह एकदम अप्रशस्त और पश्चात् धर्मवाह्य प्रमाणित होने लगे। वही आग्रह अन्य वर्गों को भी लागू होते-होते विशुद्ध सवर्ण विवाह ही (अर्थात् ब्राह्मण से ही आदि) आरंभ हो गए जो धर्मसंगत प्रमाणित हो गए, पर उनमें ब्राह्मणादि वर्गों में देशस्थ, कोंकणस्थ, बंगाली, पंजाबी, शैव, वैष्णव प्रभृति अनेक उपजातियों की भरमार होते ही उस एक ही वर्ण उपजाति में भी विवाह करना निषिद्ध घोषित किया गया और आज का यह 'घर-घर ढोलकी घर-घर तान, उसका नाम हिंदुस्थान' वाला हास्यास्पद वाहियात ढंग से फैल गया है।

इस तरह हर सीढ़ी पर समाज के चढ़ते ही-उस काल की विधि-आग्रह-संबंधित धर्मकार ने ही अनुष्टुप् छंद में बाँधकर मनुस्मृति में घुसेड़ रखा है; परंतु पहले विरुद्ध अर्थवाले श्लोकों को डालते हुए, क्योंकि उनको टालना दुःसाध्य था। उसमें और जोड़ना ग्रंथ की अन्य प्रतियों को तैयार करते हुए सरल था। ऐसे हर नए अनुष्टुप् के रचनाकार ने अपने काल की परिस्थितियों में वे अनुष्टुप् लोकहित के हैं, ऐसा समझकर उनकी रचना की; क्योंकि उदाहरण के लिए ब्राह्मणों को पहले चाहे जिस वर्ण की स्त्री को स्वीकार करने का अधिकार मिला, जो इन नए निबंध के कारण छोड़ना पड़ा। उनके उपयोग की और सुख की कक्षा सीमित हो गई। उन्होंने अपने ऊपर संयम का अधिकतर बोझ लाद लिया, वह उनका प्रामाणिक त्याग वर्णशुद्धि के लिए था। उनको जो उचित लगा, वह उस काल के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों ने किया। इस तरह उन्होंने अपना प्रश्न जैसा उचित लगा, हल कर लिया।

प्रमाद उनका नहीं अपितु उस 'श्रुतिस्मृति पुराणोक्त' सनातन प्रवृत्ति का है जो उनके इन अस्थायी एवं परस्पर विरोधी निर्बंध को सुसंगत एवं त्रिकालाबाधित मानकर एक ही ग्रंथकार के नाम पर एक ही ग्रंथ में घुसेड़े है। जो 'सनातनी' यह मानते हैं कि मनुस्मृति का प्रत्येक शब्द आज भी स्वीकृत होना चाहिए और वह सर्वथा सुसंगत श्लोकों से ही भरी है, एक मनु द्वारा लिखित है, इस बात का विस्मरण होता है कि उस ग्रंथ को सुसंगत प्रमाणित करने के लिए यह प्रतिपादन करते ही कि वह एक ही ग्रंथकार द्वारा लिखी गई है-वह ग्रंथकार ही पागल या सनकी सिद्ध होता है। ग्रंथ का सम्मान बढ़ाने की धाँधली में इस बात का विस्मरण होता है कि ग्रंथकार को ही मूर्खता में खींचा जा रहा है।

ऐतिहासिक दृष्टि से यह सारी आपत्ति टल सकती है। ये श्लोक एक ही ग्रंथकार द्वारा लिखित अथवा एक ही कालखंड में लिखित नहीं हैं अपितु विभिन्न कालखंड के निर्बंध आगे चलकर किसीने संकलित करके इस 'संग्रह' में पिरोए हैं। यह प्रत्येक श्लोक परस्पर विरोधी होते हुए भी एक-एक कालखंड के इतिहास का पृष्ठ है और सभी का सुसंगत पठन करने से इस 'वर्ण' तथा 'विवाह' विषय का क्रमश: विकास तथा इतिहास चलचित्रवत् हमारे सामने आकर्षक और सुसंगत रूप में उभरता जाता है।

लेखांक- 3

पिछले लेखांक में अनुक्रम उस श्लोक तक पहुँचा था जो यह प्रतिपादन करता है कि ब्राह्मणादि के द्वारा शूद्रा स्त्री के साथ अनुलोम विवाह धर्मसंगत एवं रूढ़ थे। विवाह विधि-ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गांधर्व, राक्षस तथा पैशाच ये आठ विख्यात विधाएँ तथा उनके लक्षण जो कथन किए गए हैं उनमें से-

षडानुपूर्व्या विप्रस्य क्षत्रस्य चतुरोऽवरान्।

विट्शूद्रयोस्तु तानेव विद्याद्धान्नराक्षसान्॥२३॥

-अ. ३

प्रथम छह विधाएँ ब्राह्मणों के लिए, अंतिम चार क्षत्रियों के लिए तथा आसुर, गांधर्व, पैशाच, वैश्य-शूद्रों के लिए धर्मसंगत हैं। अर्थात् प्रत्येक की विशिष्ट विधाएँ छोड़ने से यह स्पष्ट होता है कि चारों वर्गों को आसुर तथा गांधर्व ये दो प्रकार के विवाह धर्मसंगत हैं। इनमें से कन्या का अथवा उसके निकट संबंधियों को धन प्रदान करके उसका वरण करना असुर विवाह है और गांधर्व विवाह का लक्षण इस प्रकार है-

इच्छयाऽन्योन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च।

गांधर्वः स तु विज्ञेयो मैथुन्यः कामसम्भवः॥३२॥

-अ. ३

परस्पर अनुमति से अथवा परस्पर कामसंभोग होने के पश्चात् भी कन्या तथा वर-दोनों स्वयं ही विवाह में एक-दूसरे का वरण करते हैं, वह सहवासोत्तर नहीं अपितु संभोगोत्तर विवाह भी गांधर्व विवाह है। ब्राह्मण से लेकर शूद्रों तक सर्व वर्णियों के लिए यह वैध तथा धर्मसंगत है और पैशाच विवाह जिसमें सुप्त, मन तथा बेसुध कन्या का बलपूर्वक भोग किया जाता है, वह अधम विवाह है।

स पापिष्ठो विवाहानां पैशाचः प्रथितोऽधमः॥३४॥

-अ. ३

ऋतुकाल विचार-रजोदर्शन के पश्चात् सोलह दिवसों तक स्त्रियों का ऋतुकाल माना जाता है। प्रथम चार संसर्गार्थ अनुचित हैं। ग्यारहवीं तथा तेरहवीं रात्रि समागमनार्थ निषिद्ध हैं। शेष रात्रि उक्त हैं-

ऋतुः स्वाभाविक: स्त्रीणां रात्रयः षोडश स्मृताः।

चतुर्भिरितरैः सार्धमहोभिः सद्विगर्हितैः॥४६॥

युग्मासु पुत्रा जायन्ते स्त्रियोऽयुग्मासु रात्रिषु॥४८॥

-अ. ३

छठवीं, आठवीं, दसवीं इस तरह समसंख्यांक रात्रि में समागम होने से पुत्र प्राप्ति होती है-विषम संख्यांक रात्रि में कन्या। दूसरा कारण-

पुमान्पुंसोऽधिके शुक्रे स्त्री भवत्यधिके स्त्रियाः।

समेऽपुमान्पुंस्त्रियौ वा क्षीणेऽल्पे च विपर्ययः॥४९॥

-अ. ३

पुरुष वीर्य अधिक होने से पुत्र तथा स्त्री वीर्य की अधिकता से कन्या प्राप्ति होती है। समवीर्य होने से नपुंसक अथवा एक पुत्र और एक पुत्री इस तरह जुड़वाँ संतति प्राप्त होती है। सत्वविरहित वीर्य से गर्भ नहीं ठहरता। (यद्यपि विज्ञान के विकासवश इसके संबंधित अभिप्राय असत्य सिद्ध हो गए तो 'यन्मनुरवदत् तद्भेषजं' इस सूत्र के अधीन मनुस्मृति के जो मत हैं, वे प्रयोगों से भी असत्य सिद्ध होने पर भी क्या उन्हें सत्य समझना चाहिए? 'वचनाप्रवृत्ति' की शब्दनिष्ठ परंपरावश वे मिथ्या प्रमाणित होने पर भी उन्हें सत्य मानना ही होगा। यह प्रयोग सिद्ध होने पर भी कि ग्रहणों का कारण राहु-केतु का युद्ध नहीं है। आज भी 'दे दान छूटे गिन्हान' चल ही रहा है। परंतु अद्यतन [2] (अप-टू-डेट) प्रवृत्ति कालीन ज्ञानानुरूप उन्हें जो सूझे वही सिद्धांत लिखे। दो सहस्र बरसों में मनुष्य की अनुभूति-वृद्धि होकर प्रयोगों से अधिक तथ्य नियम प्राप्त होते ही उन्हें स्वीकार कर पूर्वकालीन सदोष मतों का त्याग करना-यही विकास का, उन्नति का लक्षण है। पूर्वजों के ज्ञान में वृद्धि करना ही पुरखों का यथार्थ सम्मान है, जो पूर्वजों को भी इष्ट प्रतीत होगा। इस अत्याधुनिककाल में हिंदू राष्ट्र का वास्तविक कल्याण साध्य होकर उसमें विश्व के आगे दो पग बढ़ाने का साहस उत्पन्न हो सकता है; परंतु मनु को त्रिकालाबाधित मानने की श्रुतिस्मृति पुराणोक्त प्रवृत्तवश दो हजार बरसों के विज्ञान की पिछड़ी हुई स्थितियों से आगे पग बढ़ाने की संभावना ही रुक जाती है।)

गृहिणी की योग्यता-इसके आगे सात-आठ श्लोकों में नारी की योग्यता का रसपूर्ण वर्णन प्रस्तुत है। उदाहरण के लिए निम्नांकित श्लोक देखिए-

पितृभिर्भ्रातृभिश्चैता पतिभिर्देवरैस्तथा।

पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभिः॥५५॥

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।

यत्रैस्तास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥५६॥

सन्तुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्रा भार्या तथैव च।

यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम्॥६०॥

यदि स्त्री न रोचेत पुमांसं न प्रमोदयेत्।

अप्रमोदात्पुनः पुंसः प्रजनं न प्रवर्तते॥ ६१॥

-अ. ३

पिता, भ्राता, पति, देवर-ये सभी स्त्रियों का आदर करें, उन्हें अलंकृत करें। जिस कुल में नारी पूजनीया समझी जाती है वहाँ देवता भी निवास करते हैं, जिस कुल में नारी पूजनीय नहीं होती, वहाँ सभी धर्म-क्रियाएँ निष्फल होती हैं। जहाँ पति-पत्नी एक-दूसरे को संतोष देते हैं, उस कुल का कल्याण होता है। पति-पत्नी परस्पर प्रसन्न हों तो संतान भी प्रसन्न रहती है। जहाँ वे अप्रसन्न रहते हैं, वहाँ संतति होती ही नहीं।

श्राद्ध दिवस और मांसाशन-इस स्मृति से निर्विवाद रूप में दिखाई देता है कि प्राचीन काल में ब्राह्मण सहित सभी वर्ण मांस-मत्स्य भक्षण करते थे। उसे धर्मविरुद्ध आचरण नहीं समझा जाता था। इतना ही नहीं, धर्मानुसार यज्ञ, श्राद्ध प्रभृति हव्य-कव्य प्रसंग में तो मांस-मत्स्य का भोजन ब्राह्मण के लिए भी अनिवार्य था। आज हमारी द्रविड़ ब्राह्मण महिलाएँ यह पढ़कर सकते में आ जाएँगी, परंतु आज भी अनेक जातीय ब्राह्मणों में मांस विशेषकर बंगाली प्रभृति ब्राह्मणों में नित्य भक्षण करते ही हैं। यदि केवल यही स्वीकार करना कि वही धर्म है जो मनुस्मृति प्रणीत है तो वर्तमान युगीन ब्राह्मण ही जो मांस-मत्स्य भक्षण को सर्वथा जाति बहिष्कृत महान् अधर्म समझते हैं--पाखंडी प्रमाणित होते हैं, जो 'सनातन' धर्म के सर्वथा विपरीत आचरण रखते हैं और मांस-मत्स्य भक्षक सारस्वत प्रभृति ब्राह्मण ही वास्तविक पतित पावन सनातनी ब्राह्मण ही सिद्ध होते हैं। मनुस्मृति काल में ब्राह्मण महिला के लिए मात्र दाल-चावल बनाना ही पर्याप्त नहीं था, प्रत्येक सदाचारी ब्राह्मण स्त्री को बकरे का मांस, पंक्षियों की कढी तथा मछलियों के नानाविध व्यंजन युक्त भोजन किस तरह तैयार करना अनिवार्य था, इसकी थोड़ी सी कल्पना के लिए श्राद्धविषयक कुछ श्लोक नीचे दे रहे हैं-

भक्ष्यं भोज्यं च विविधं मूलानि च फलानि च।

हृद्यानि चैव मांसानि पानानि सुरभीणि च॥२२८॥

हविर्यच्चिररात्राय यच्चानन्त्याय कल्पते।

पितृभ्यो विधिवद्दत्तं तत्प्रवक्ष्याम्यशेषतः॥ २६७॥

द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन्मासान् हारिणेन तु।

औरभ्रेणाथ चतुरः शाकुनेनाथ पञ्च वै॥२६९॥

षण्मासांश्छागमांसेन पार्षतेन च सप्त वै।

अष्टावैणेस्य मांसेन रौरवेण नवैव तु॥२७०॥

दशमांसास्तु तृप्यन्ति वराहमहिषामिषैः।

शशकूर्मयोस्तु मांसेन मासानेकादशैव तु॥२७१॥

कालशाकं महाशल्काः खङ्गलोहामिषं मधु।

आनन्त्यायैव कल्प्यन्ते मुन्यन्नानि च सर्वशः॥२७३॥

-अ.३

(श्राद्ध समय ब्राह्मणों के लिए) नानाविध फल, कंद-मूलों, मछलियों के नानाविध स्वादिष्ट व्यंजन तथा सुगंधितद्रव्य परोसे जाएँ। इसकी एक सारिणी तैयार की जाती थी कि पितरों को कौन से व्यंजन अर्पण करने से कितने दिनों तक वे तृप्त रह सकते हैं-मत्स्य मांस से दो मास, मृग मांस से तीन मास, मेढ़े के मांस से चार, पक्षी मांस से पाँच, बकरा, चित्र मृग, एण मृग, रुरु मृग से क्रमश: छह से नौ मास तक तृप्ति होती है। जंगली सूअर तथा जंगली भैसे के मांसार्पण से पितर दस महीनों तक तृप्त रहते हैं, खरगोश तथा कछुए के मांस से ग्यारह महीनों तक। गाय का दूध अथवा उसकी खीर महाशल्क मत्स्य, लाल बकरा, गैंड़े के मांस से, मधु तथा मुनियों के अन्नों से अनंत काल तक पितर तृप्त रहते हैं।

(तत्कालीन ब्राह्मण कुलीन स्त्रियाँ भी सामिष भोजन के विविध व्यंजन बनाना जानती होंगी। आज श्राद्ध के दिवस पर नानाविध साग-सब्जियों को काटते, साफ करते समय जिस तरह पाकशाला में धूमधाम होती है, उसी तरह उस समय ब्राह्मणों की पाकशाला में मछलियाँ तथा मांस काटने, धोने तथा साफ-सफाई करने में हमारी पवित्र माता-भगिनियाँ किस तरह व्यस्त रहती होंगी, इसका चित्र नेत्रों के सामने आ जाता है। यदि मनु का प्रत्येक शब्द त्रिकालाबाधित मानना हो तो कम-से-कम इस मामले में तो सुधारवादियों से अधिक सनातन ब्राह्मण ही अत्यधिक धर्मध्वंसक तथा अपराधी प्रमाणित होंगे। उपर्युक्त मांस-मछली युक्त नानाविध स्वादिष्ट व्यंजनों का चस्का केवल हमारे पितरों को ही नहीं लगता। जंगली सूअर आदि का मांस उनके द्वारा अदृश्य रूप से सूँघने से काम नहीं चलता अपितु उन ब्राह्मणों के, जिन्हें उन पितरों को व्यंजन पहुँचाने के लिए नियुक्त किया जाता--पेट की पेटी में, पत्र जैसे पत्र पेटी में डालते हैं, डालना पड़ता; क्योंकि इसके अतिरिक्त परलोक में उस भोजन को पहुँचाने के लिए अन्य कोई सुविधा नहीं होती। इसके लिए श्राद्ध में जिस किसी पवित्र निष्कपट, स्नानसंध्या शील विप्रवर को आमंत्रित किया जाता था, उसे अनिवार्यतः मांस तथा मछली का भक्षण करना पड़ता था।) भगवान् मनु का यही कठोर नियम इस श्लोक में उद्घोषित किया गया है-

नियुक्तस्तु यथान्यायं यो मांसं नात्ति मानवः।

स प्रेत्य पशुतां याति सम्भवानेकविंशतिम्॥३५॥

-अ. ५

वह मनुष्य जो श्राद्ध में बुलाने पर भी हठपूर्वक मांस भक्षण नहीं करता, वह मर जाने के पश्चात् इक्कीस जन्म पशु योनि प्राप्त करता है। यज्ञ अवसर पर मांस भक्षण करना विप्र का कर्तव्य था। इतना ही नहीं, वह पक्षी भी, जिसका वध किया गया है, सद्गति प्राप्त करता है। उदाहरण के तौर पर इस अर्थ के अनेक श्लोकों में से दो-तीन उद्धृत कर रहे हैं

प्रोक्षितं भक्षयेन्मांसं ब्राह्मणानां च काम्यया।

यथाविधि नियुक्तस्तु प्राणानामेव चात्यये॥२७॥

नात्ता दुष्यत्यदन्नाद्यान्प्राणिनोऽहन्यहन्यपि।

धात्रैव सृष्टा ह्याद्याश्च प्राणिनोऽत्तार एव च॥३०॥

क्रीत्वा स्वयं वाप्युत्पाद्य परोपकृतमेव वा।

देवान् पितॄश्चार्चयित्वा खादन्मांसं न दुष्यति॥३२॥

यज्ञार्थं पशवः स्रष्टा स्वयमेव स्वयम्भुवा।

यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः॥३९॥

ओषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणस्तथा।

यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युच्छ्रितीः पुनः॥४०॥

-अ. ५

प्रोक्षण विधि से साफ करके भक्षण करने से मांस भक्षण में कोई आपत्ति नहीं है। श्राद्ध में, प्राण संकट में अथवा इच्छा होने पर ब्राह्मण मांस भक्षण करे। जिस तरह भक्षक वर्ग को ईश्वर ने उत्पन्न किया, उसी तरह खाद्य प्राणियों को भी भक्ष्य के रूप में उसी ने उत्पन्न किया है। अतः भक्षक यदि बार-बार उस खाद्य प्राणी का मांसादि भक्षण करे तो भी दोष नहीं होता। (यज्ञ संबंधित तो बात करना ही अनावश्यक है, क्योंकि) स्वयं भगवान् ने पशुओं की उत्पत्ति यज्ञ कार्यार्थ की है। यज्ञ जो सर्व कल्याणार्थ किया जाता है, पशु की हिंसा ही वास्तविक अहिंसा है। यज्ञ में मारे गए पशु जन्मांतर में श्रेष्ठता पाते हैं।

ऐसे कई श्लोक हैं जो इस बात के प्रदर्शक हैं। हमारी वर्णीय माता-भगिनी मांस भक्षण धार्मिक कर्तव्य समझकर करती थी, इन श्लोकों में जैसे इस स्मृति में हमेशा होता है, इस अर्थ के श्लोक भी घुसे हैं कि-चाहे कुछ भी हो, कोई भी मांस भक्षण न करें। ऐतिहासिक दृष्टि से पहले ब्राह्मण बेखटके मांस भक्षण करते थे। आगे चलकर उन्हें दुःख होने लगा। तब कुछ लोगों ने तय किया कि केवल वैदिक धर्म प्रसंग में श्राद्ध, यज्ञादि मंत्रपूत मांसाशन किया जाए, न कि किसी अन्य प्रसंग में। और आगे दया, करुणा, अहिंसा आदि भावनाओं के वश यही मत मान्य होने लगा कि मांसाशन सर्वथा न करें। यही धर्म है। जिस-जिसने अपने-अपने श्लोक इस स्मृति में गूँथ दिए। उदाहरण के लिए निम्नांकित श्लोक देखिए, जो मांसाशन के विरुद्ध हैं-

मधुपर्के च यज्ञे च पितृदेवतकर्मणि।

अत्रैव पशवोहिंस्याः नान्यत्रेत्यब्रवीन्मनुः॥४१॥

एष्वर्थेषु पशून् हिंसन्वेदतत्त्वार्थविद्विजः।

आत्मानं च पशुं चैव गमयत्युत्तमां गतिम्॥४२॥

नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित्।

न च प्राणिवधः स्वय॑स्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्॥४८॥

समुत्पत्तिं च मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम्।

प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्॥४९॥

-अ. ५

मधुर्पक, यज्ञ, श्राद्ध और देवपूजा के समय ही पशु हिंसा की जाए। अन्यत्र कभी भी नहीं करनी चाहिए। जो वेदमूर्ति ब्राह्मण इन चारों में पशु वध करता है वह न केवल अपने आपको, प्रत्युत उस पशु को भी उत्तम गति उपलब्ध कराता है। (परंतु तुरंत इसके विरुद्ध पलटी खाकर प्रतिपादन करते हैं।) प्राणी की हिंसा करने पर ही मांस भक्षण संभव होता है। हिंसा कदापि स्वर्ग दिलानेवाली नहीं होती। अतः जिन्हें उत्तम गति की कामना हो, वे मांसाशन न करें। प्राणी की दारुण यातनाएँ तथा मांस की उत्पत्ति (जो शोणितादिक से होकर घिनौनी होती है) की चिंता करके किसीका भी मांस भक्षण वर्जित समझा जाए।

(इस तरह इस प्रकरण में अनेक परस्पर विरोधी श्लोकों की खिचड़ी पक गई है। यदि यह एक ही ग्रंथकार का कार्य है तो निश्चित ही वह झक्की होगा अथवा इन परस्पर विरोधी श्लोकों के रचयिता अनेक जन होकर इस स्मृति में केवल उनका संकलन किया गया है। इन दों स्पष्टीकरणों में से भगवान् मनु पर पहला (सनकी होने का) अनुचित आरोप करने की अपेक्षा प्रामाणिक सुधारवादी दूसरे मार्ग को स्वीकार करते हैं। और यह प्रश्न कि मांसाशन करे या न करे, आधुनिक वैद्यकीय ज्ञान से जो प्रयोग सिद्ध होने से स्वीकृत किया जा सकता है, सुलझाते हैं, न कि केवल पोथी-ज्ञान शास्त्राधार से कि हजारों वर्ष पूर्व अमुक महर्षि की यह राय थी कि 'मांसाशन से उस भक्ष्य पशु के साथ वह मांसभक्षक स्वर्ग प्राप्त करता है', 'मनुष्य के प्राण भले ही चले जाएँ, पर पशु के न जाएँ, अत: मांसाशन वर्जित समझें।' जो इस तरह के शास्त्राधार परस्पर विरोधवश ही एक-दूसरे को मिथ्या प्रमाणित करते हैं, उनके अनुसार आज अधिक-से-अधिक ग्राह्य वही है जो प्रत्यक्षनिष्ठ, प्रयोगक्षम तथा अद्यतन विज्ञान द्वारा प्रतिपादित है।) अब यह कहते समय कि ब्राह्मण वर्ग के लिए कौन सा पदार्थ वर्जित है, मनुस्मृति कठोर आदेश देती है-

छत्राकं विड्वराहं च लशुनं ग्रामकुक्कुटम्।

पलाण्डं गृञ्जनं चैव मत्या जग्ध्वा पतेद् द्विजः॥१९॥

-अ. ५

द्विज जानबूझकर यदि कुकुरमुत्ता, ग्राम-वराह, लहसुन, ग्राम-कुक्कुट, प्याज तथा शलजम भक्षण करे तो वह तत्काल पतित होता है। (अज्ञानवश भक्षण करने पर भी प्रायश्चित्त के बिना शुद्धि नहीं। जिनके मतानुसार मनुस्मृति अपरिवर्तनीय है। देखिए, हमारे उन सनातन बंधुओं का ही वर्तमान आचरण मनुस्मृति से कितना दूर चला गया है। वह मांस, मत्स्य जिसके संबंध में मनुस्मृति कहती है कि यह निषिद्ध नहीं, इसका भक्षण किया जाए-आज सनातन ब्राह्मण के अत्यंत निषिद्ध तथा मनुस्मृति के अनुसार जिसके भक्षण से ब्राह्मण तत्काल पतित होता है-राष्ट्रहितार्थ अस्पृश्योद्धार, शुद्धि आदि सुधार करना चाहनेवाले लोगों को 'मनुस्मृति का सनातन धर्म नष्ट करनेवाले पाखंडी' आदि कहकर थक जाने पर अपने अड्डों पर थवावट दूर करने के लिए प्याज भाजियाँ, सब्जी, चिउड़ा खा रहे हैं और खाए जा रहे हैं। सिर ऊँचा करके चलते-चलते कच्चे शलजम चबा-चबाकर लरज-गरज रहे हैं कि 'हमारा श्रुतिस्मृति पुराणोक्त धर्म अपरिवर्तनीय है। वचनात् प्रवृत्तिर्वचनान्निवृत्तिः।

नारी स्वभाव तथा सुरक्षा

अस्वतन्त्राः स्त्रियः कार्याः पुरुषैः स्वैर्दिवानिशम्।

विषयेषु च सज्जन्त्यः संस्थाप्याः आत्मनोवशे॥२॥

पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।

रक्षन्ति स्थविरे पुत्राः न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति॥३॥

अरक्षिता गृहे रुद्धाः पुरुषैराप्तकारिभिः।

आत्मानमात्मना यास्तु रक्षेयुस्ताः सुरक्षिताः॥१२॥

नैता रूपं परीक्षन्ते नासां वयसि संस्थितिः।

सुरूपं वा विरूपं वा पुमानित्येव भुञ्जते॥१४॥

एवं स्वभावंज्ञात्वाऽऽसां प्रजापतिनिसर्गजम्।

परमं यत्नमातिष्ठेत्पुरुषो रक्षणं प्रति॥१६॥

नास्ति स्त्रीणां क्रियामन्त्रैरिति धर्मे व्यवस्थितिः।

निरिन्द्रियाः ह्यमन्त्राश्च स्त्रियोऽनृतमितिस्थितिः॥ १८॥

- अ. ९

नारियों को उनकी विषयासक्ति से सुरक्षित रखने के लिए पुरुष को चाहिए कि वह उन्हें दिन-रात अपने अधीन रखे। कौमार्यावस्था में पिता, यौवनावस्था में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र ही उसका अभिभावक है। वह उन्हीं के अधीन रहे। नारी स्वतंत्रता के योग्य नहीं है। पुरुष चाहे उसे घर में बंद करके रखे तथापि वह सुरक्षित नहीं रह सकती। वही वास्तविक अर्थ में सुरक्षित है जो आत्मरक्षा करेगी; क्योंकि प्रजापति ने नारी स्वभाव इस तरह बनाया है कि वे न रूप देखती हैं न आयु। चाहे सुरूप हो या विरूप, पुरुष की उसे कामना रहती है। इसी कारण परपुरुष से उसे दूर रखने की पराकाष्ठा करें। स्त्रियों के जातकर्मादि सारे संस्कार मंत्रहीन होते हैं, न ही उन्हें मंत्रोच्चारण का अधिकार है। शास्त्रानुसार नारी स्वभावत: ही झूठी है। (इन्हीं विचारों के स्त्री दोष विषयक अनेक श्लोक हैं जो इससे भी कठोर भाषा में लिखे गए हैं। इस अध्याय में बस इसी बात पर गौर करें कि शास्त्रकार पुरुष थे। यदि स्त्री शास्त्रकार होती तो पुरुष दोषों का वर्णन करते समय यही श्लोक यथातथ्य रूप में मत्थे मढ़ने में वे कभी नहीं चूकतीं, पर ऐसे भी कुछ श्लोक हैं जिनमें नारी की महानता का भरपूर वर्णन किया गया है, जो इन स्त्री निंदापरक श्लोकों के सर्वथा विपरीत हैं। उनके उदाहरण पहले दिए ही गए हैं। इन परस्पर विरोधी दोषों का कारण यही है कि ये अभिमत विभिन्न काल में विभिन्न श्लोककारों के होते हुए भी मनु के नाम पर ही थोपे गए हैं। अतः यह कहना महा कठिन है कि इसमें मनु का अभिप्राय कौन सा है। उनका उपयोग बस इतना ही है कि इनसे यह जानकारी प्राप्त होती है कि उस काल में महिला विषयक पुरुष वर्गों के मत-प्रवाह कितने प्रकार के थे। इसका भी विस्मरण न हो कि बाइबिल के तौरे या तौरान (ओल्ड टेस्टामेंट) से लेकर इंजील (न्यू टेस्टामेंट) तक स्त्री वर्ग विषयक ऐसे ही और इससे भी अधिक निंदक विचार प्रायः सभी ग्रंथों में इधर-उधर बिखरे पड़े हैं।) स्त्रियाँ स्वभाव से ही इस तरह 'चंचल' तथा 'अशुभ' होने पर भी यदि उनका उचित संरक्षण किया जाए तो-

यादृग्गुणेनभर्ता स्त्री संयुज्येत यथाविधि।

तादृग्गुणा सा भवति समुद्रेणेव निम्नगाः॥२२॥

अक्षमाला वसिष्ठेन संयुक्ताऽधमयोनिजा।

शारंगी मन्दपालेन जगामभ्यर्हणीयताम्॥२३॥

एताश्चान्याश्च लोकेऽस्मिन्नपकृष्टप्रसूतयः।

उत्कर्ष योषिताः प्राप्ताः स्वैः स्वै:भर्तृगुणैः शुभैः॥२४॥

-अ. ९

भर्ता की संगति से स्त्री का उत्कर्ष होता है, जैसे सागर से नदी। वसिष्ठ ने अक्षमाला का वरण किया, जो नीच जाति की थी। महर्षि मंदपाल से शारंगी का संयोग हो गया। इस प्रकार अनेक चांडाल प्रभृति हीन जातीय स्त्रियों को उत्तम पति प्राप्त होने से इतना उत्कर्ष हो गया कि वे जगत्वंदनीय हो गईं। वसिष्ठ ने चांडाली से विवाह किया। 'वशिष्ठश्चांडालीमुपयेमे' इस तरह श्रुति भी है। वसिष्ठ सदृश पति प्राप्ति से चांडाली भी महान् पद तक पहुँच गई। अरुंधती, जिसने सप्तर्षियों के साथ पूजनीय स्थान प्राप्त किया, ही चांडाल कन्या अक्षमाला है। स्कंद पुराण में भी यही कथा है। इस श्लोक में उन कन्याओं का, जो चांडालादि हीन समझी जाती थीं-ब्राह्मणों से ब्याहना-इसलिए कि वह जातिबाह्य है-निंदनीय नहीं समझा गया। इतना ही नहीं, हितपरिणामी होने के नाते उनका प्रशंसापूर्वक उल्लेख किया गया है। ये विवाह इक्के-दुक्के ही नहीं थे, अपितु इसका स्पष्ट निर्देश किया गया है कि इस प्रकार के अनेक हितपरिणामी 'स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि' यही परिणाम होता होगा। चांडाल स्त्रियाँ भी ब्राह्मणादिकों से धर्मविधि युक्त ब्याह रचातीं और उनकी जाति वही निश्चित की जाती जो पति की होती और वे उस ऋषि तुल्य महानता तक पहुँचकर ऋषिवत् पूजनीय बन सकती थीं। हमारे पूर्वजों का अपरिवर्तनीय सनातन धर्म यही है कि देशस्थ ब्राह्मण कन्या कोंकणस्थ ब्राह्मण के घर नहीं ब्याही जाए, बंगाली ब्राह्मण के घर त्रिवार नहीं। इस तरह हमारे सनातनी धर्मीबांधव जो मनुस्मृति के ही बलबूते शपथपूर्वक कहते हैं, क्या यह प्रतिपादन करने का साहस करेंगे कि वशिष्ठादिक पूर्वज जिनकी मनु ने जी भरपूर प्रशंसा की है और जिन्होंने चांडाल कन्या का वरण किया है 'हमारे पूर्वजों में से नहीं हैं?' यह स्पष्ट है कि वसिष्ठादि गोत्रज ब्राह्मणों की कोई-न-कोई प्रपितामही चांडाल कन्या थी, हम ब्राह्मणों में चांडालों का रक्त है। 'हीन योनि अस्पृश्यादिक ब्राह्मणों के मौसेरे बंधु हैं।'

लेखांक-४

पिछले सभी लेखांकों में प्रायः मनुस्मृति के अध्यायों का ही अनुक्रम किए जाने से महिला के विवाह, योग्यता, रहन-सहन आदि से संबंधित जानकारी विषयानु क्रम से एक स्थान पर सुसंगत नहीं दी जा सकी, क्योंकि मनुस्मृति में प्रत्येक विषय के सारे विधान एक साथ दिए ही नहीं गए हैं। वैसे उन अध्यायों के नामकरण से तथा कुल मिलाकर श्लोकों से स्पष्ट होता है कि प्राचीनकाल में मनुस्मृति के मूलभूत ग्रंथ में प्रत्येक विषय की चर्चा क्रमशः उससे संबंधित अध्याय में संकलित रूप में हो; परंतु सदियों से जिसे जो अभिमत उचित प्रतीत हुआ, उसे आगे-पीछे प्रक्षिप्त श्लोक डालकर जोड़ते-जोड़ते विभिन्न अभिमतों की खिचड़ी इस ग्रंथ में पाई जाती है-यही अनुमान लगाना अनिवार्य है। जैसे नौवाँ अध्याय देखिए। इसमें प्रथम श्लोक में ही स्त्री-पुरुषों के संयोग-विप्रयोग में कैसे संबंध हों, इस संदर्भ में यही प्रतिज्ञा की गई है कि 'धर्म्यात् वक्ष्यामि शाश्वतान्।' उसके अनुसार उस अध्याय में प्रथम व्यवस्था होते हुए अचानक द्यूतादि प्रकरण, शूद्र प्रकरण, राजा को कैसे दंड देने होंगे, गुप्तचर कैसे हों आदि सर्वथा भिन्न प्रकरणों के राजधर्मों से यह अध्याय खचाखच भरा हुआ है।

इसी कारण यद्यपि ऐसा प्रतीत होता है कि महिला से संबंधित विभिन्न अध्यायों में स्त्रियों की प्रशंसा-निंदा विषय पुनः-पुनः आए हैं। तथापि अध्यायों के अनुक्रम का अनुसरण तो अपरिहार्य था। तथापि विषय की पुनरुक्ति होने पर भी अभिमत तथा विधि निषेध, पिछले अध्याय से जो नवीन हैं, बस उनका ही चयन करने के कारण इस लेखमाला में परिचय की पुनरुक्ति सहसा नहीं होने पाई है।

पुनर्विवाह-निषेध

नारी अपने पति की ईश्वर जैसी सेवा करे। भले ही वह शील-गुण विरहित, स्वेच्छाचारी हो और उसके मरणोपरांत भी यदि पुत्र न हो तो आमरण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अविवाहित रहे।

अशीलः कामवृत्तो वा गुणैर्वा परिवर्जितः।

उपचर्यः स्त्रिया साध्व्या सततं देववत्पतिः॥१५७॥

कामं तु क्षपयेद्देहं पुष्पमूलफलैः शुभैः।

न तु नामापि गृह्णीयात्पत्यौ प्रेते परस्य तु॥१६०॥

मृते भर्तरि साध्वी स्त्री ब्रह्मचर्ये व्यवस्थिता।

स्वर्गं गच्छत्यपुत्राऽपि यथा ते ब्रह्मचारिणः॥१६३॥

-अ. ५

अपने पति की मृत्यु के पश्चात् ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करे। फल-मूल-पुष्पादि खाकर भले ही अपने शरीर को सुखा दे, पर भूलकर भी पर-पुरुष के संग की कामना न करे। यह है नारी का सुशील धर्म; परंतु अपनी सुशील स्त्री की मृत्यु के पश्चात् पुरुष किस तरह आचरण करे? वे तुरंत कहते हैं-

भार्यायै पूर्वमारिण्यै दत्त्याग्नीनन्त्य कर्मणि।

पुनर्दारक्रियां कुर्यात्पुनराधानमेव च॥१७१॥

-अ. ५

पत्नी की मृत्यु के पश्चात् उसका यथाविधि दाह संस्कार करके पति पुनः विवाह रचाए और गृहस्थाश्रम की अग्नि होत्र आदि पुनः यथापूर्व चलाए।

अब उपर्युक्त विधवा धर्म के सर्वथा विपरीत विधवा धर्म देखिए। वे अध्याय नौ में क्या कहते हैं-

नियोग विचार

यदन्यगोषु वृषभो वत्सानां जनयेच्छतम्।

गोमिनामेव ते वत्साः मोघं स्कन्दितमाषभम्॥४९॥

तथैवाऽक्षेत्रिणो बीजं परक्षेत्रप्रवापिणः।

कुर्वन्ति क्षेत्रिणामर्थं न बीजी लभते फलम्॥५०॥

फलं त्वनभिसन्धाय क्षेत्रिणां बीजिनां तथा।

प्रत्यक्षं क्षेत्रिणामर्थो बीजाद्योनिर्गरीयसी॥५१॥

देवराद्वा सपिण्डाद्वा स्त्रियासम्यङ् नियुक्तया।

प्रजेप्सिताधिगन्तव्या सन्तानस्य परिक्षये॥५८॥

विधवायां नियुक्तस्तु घृताक्तो वाग्तोनिशि।

एकमुत्पादयेत्पुत्रं न द्वितीयं कथञ्चन॥५९॥

-अ. ९

जिस तरह दूसरे की गायों से सौ बछड़े पैदा करने पर भी वृषभ अथवा उसका स्वामी उन बछड़ों का स्वामी नहीं हो सकता, उन बछड़ों का स्वामी तो गाय के स्वामी को ही समझा जाता है, उसी तरह किसीके भी बीज से हो, स्त्री की संतति उसकी ही समझी जाती है, जिसकी वह स्त्री हो। क्षेत्र-बीज का न्याय ही यहाँ पर लागू होता है। अनाज उसी का जिसके खेत में वह उगता है। उसका बीज (उड़ते पंछी, हवा का झोंका।) इनमें से किसीने भी डाला हो। संतति के स्वामित्व के प्रश्न में 'बीज से योनि ही श्रेष्ठ' यही न्याय यथार्थ है। एतदर्थ-अपने बीज से जब पुत्र प्राप्ति नहीं होती हो तब उस पर पुरुष के बीज से जो अपनी स्त्री के लिए नियुक्त किया गया हो-जो पुत्र जन्म लेता है, उस परपुरुष का न होते हुए, उस स्त्री के पति का ही अधिकार होना चाहिए, क्योंकि पत्नी पति का क्षेत्र है। उस क्षेत्र के उत्पादन का स्वामी वह पति ही है। अतः वंश-क्षय का संकट टालने के लिए अधिकृत अनुज्ञा से देवर से अथवा सपिंडांर्गत पुरुष से वह परपुरुष होते हुए भी पति सदृश संबंध रखकर संतानोत्पादन करे। (पति के जीवित रहते स्त्री का यह विचार हो गया। वही न्याय विधवा पर भी लागू है। वह गुरुजनों की अनुज्ञा से संतति-क्षय टालने के लिए नियुक्त पुरुषों का बीज धारण करे।) इस प्रकार जो पुरुष नियुक्त होगा, वह परस्त्री के साथ समागम करते समय सर्वांग घी मलकर, मौनव्रत का पालन करते हुए रात्रि में तब तक उस परस्त्री से रत रहे जब तक वह एक पुत्र को जन्म नहीं देती। इस मर्यादा का उल्लंघन करके दूसरा पुत्र होने तक उससे संबंध कदापि न बढ़ाए। (न द्वितीयं कथंच) इस श्लोक में इतनी कठोर मर्यादा रखकर भी कि एक ही पुत्र उत्पादन तक संबंध बनाने को कहा है, तुरंत निम्नांकित श्लोक में इसके ठीक विपरीत श्लोक आता है-

द्वितीयमेके प्रजनं मन्यन्तेस्त्रीषु तद्विदः।

अनिर्वृत्तं नियोगार्थं पश्यन्तोधर्मतस्तयोः॥६०॥

-अ. ९

एक पुत्र होकर भी न होने के समान ही है, क्योंकि यदि वह तुरंत मर जाए तो पुनः वंश क्षय का भय। इस यथार्थ को जानकर इस भय को यथासंभव निश्चित रूप में दूर करने के उद्देश्य से कुछ धर्माचार्यों के अनुसार उस परस्त्री के साथ तब तक रत होने के लिए धर्म की कोई आपत्ति नहीं है जब तक द्वितीय पुत्र का जन्म नहीं होता। इसके पश्चात् उन दोनों को पुनः पूर्ववत् पृथक् होना अनिवार्य है। उसके आगे भी यदि उन्होंने काम-संबंध रखा तो वे पतित होंगे।

उपर्युक्त अध्याय में नियोग विधि का क्षेत्र बीजादि तात्त्विक विस्तृत सिद्धांत (तर्क) के साथ समर्थन करते हुए उसे स्पष्ट शब्दों में धर्मानुकूल कहा है; परंतु तुरंत उसके पीछे-पीछे ही देखिए, किस तरह उसके विरुद्ध श्लोक आते हैं-

अन्यस्मिन्विधवा नारी नियोक्तव्या द्विजातिभिः।

अन्यस्मिन्हि नियुञ्जाना धर्मं हन्युः सनातनम्॥६३॥

नोद्वाहिकेषु मन्त्रेषु नियोगः कीर्त्यते क्वचित्।

न विवाहविधावुक्तं विधवावेदनं पुनः॥६४॥

अयं द्विजैर्हिविद्वद्भिः पशुधर्मो विगर्हितः।

मनुष्याणामपि प्रोक्तो वेने राज्यं प्रशासति॥६५॥

स महीमखिलां भुजन् राजर्षिप्रवरः पुरा।

वर्णानां संकरं चक्रे कामोपहतचेतनः॥६६॥

विधवा नारी के लिए किसी भी पुरुष की नियुक्ति न करें। नियोग की सहायता से विधवा को परपुरुष से रत होने की अनुमति देना सनातन धर्म के लिए विघातक है। (श्रुतियों ने) विवाह मंत्र में कहीं भी नियोग का प्रतिपादन नहीं किया, न ही विधवा विवाह का समर्थन। विधवा विवाह और नियोग ये केवल पशुधर्म हैं। मनुष्य जाति में 'राजर्षि प्रवर' वेनराज ने इस दुष्ट रुढ़ि का आरंभ किया, जब काम लोलुपतावश उसका बुद्धिभ्रंश हुआ था। इस दुष्ट रुढ़ि द्वारा वर्णसंकर हो गया, परंतु 'विगर्हंति साधवः' सज्जन उसे अत्यंत निंद्य, अधर्म्य समझते हैं।

'पशुधर्म' के रूप में नियोग की इतनी कठोर निंदा करते हुए भी पुनः न केवल इसी अध्याय में, प्रत्युत अन्यत्र भी 'धर्म्य' के रूप में इस विधि का प्रपंच किया हुआ है। इस प्रकार किस तरह उलटे-सीधे अभिमतों का गोलमाल सतत चल रहा है, इसके उदाहरणस्वरूप इस अध्याय के उपर्युक्त श्लोक के उपरांत आए हुए श्लोक देखिए-

यस्तल्पजः प्रमितस्य क्लीबस्य व्याधितस्य वा।

स्वधर्मेण नियुक्तायां सपुत्रः क्षेत्रजः स्मृतः॥१६६॥

औरसः क्षेत्रजश्चैव दत्तः कृत्रिम एव च।

गूढोत्पन्नोऽपविद्धश्च दायादा बान्धवाश्च षट्॥१५८॥

औरसक्षेत्रजौ पुत्रौ पितृरिक्थस्य भागिनौ।

दशापरे तु क्रमशो गोत्ररिक्थांशभागिनः॥१६४॥

हरेत्तत्र नियुक्तायां जातः पुत्रो यथौरसः।

क्षेत्रिकस्य हि तबीजं धर्मतः प्रसवश्च सः॥१४४॥

-अ. ९

पति का निधन हुआ हो तो उस विधवा का नियोग विधि से उत्पन्न पुत्र ही नहीं अपितु पति के जीवित होते हुए भी यदि वह क्लीब अथवा व्याधिग्रस्त हो तो गुरुजनों की अनुज्ञा से उसकी स्त्री को परपुरुष से नियोग निधि द्वारा समागम के साथ जो पुत्र प्राप्ति होती है, उसे भी क्षेत्रज पुत्र ही समझा जाए। वैध पुत्र के समान ही यह क्षेत्रज पुत्र भी धर्मोचित है, उसे भी पुत्र के श्राद्धादिक सभी अधिकार हैं, क्योंकि वह 'दायाद' है। इतना ही नहीं, यह क्षेत्रज पुत्र दत्तक पुत्र से श्रेष्ठ है।

मनु ने दस पुत्र बताए हैं-वैध, क्षेत्रज, दत्त, कृत्रिम-अर्थात् पुत्रवत् माना हुआ, गूढ़ोत्पन्न अर्थात् विवाह के पश्चात् स्त्री को किसी अज्ञात मनुष्य से पति को बिना बताए प्राप्त पत्र, उसपर पति की सत्ता होने से वह पुत्र कहलाता है। विवाह के पूर्व स्त्री की कन्यावस्था में उसे किसी से जो गुप्त रूप में पुत्र प्राप्त होता है, उसे भी उसी पति का समझा जाता है जिससे उस स्त्री का विवाह होता है, इस पुत्र को 'कानीन' कहा जाता है। विवाह समय यदि स्त्री गर्भवती हो तो होनेवाला पुत्र उस पति का ही समझा जाता है, चाहे पति यथार्थ से परिचित हो या न भी हो। वह पुत्र 'सहोढ़' कहलाता है। जिसे मोल देकर खरीदा जाता है, वह 'क्रीत' पुत्र कहलाता है। विधवा यदि पुनर्विवाह करे तो उसे पौनर्भव, त्यक्त तथा अन्य व्यक्तियों द्वारा पोषित पुत्र अपविद्ध है।

इन दस विधाओं के पुत्रों में वैध तथा क्षेत्रज श्रेष्ठ हैं। पुत्रों की इन विधाओं में स्त्री-पुरुष संबंधों में उस सत्ययुग में भी मनुष्यों की प्रवृत्ति कलयुग से किसी भी तरह से अधिक संयत थी, ऐसा दिखाई नहीं देता। स्त्रियों के इस प्रकार के संबंध अपवादस्वरूप भी इतने विरल नहीं थे कि शास्त्रकार उनकी उपेक्षा करें। इतना ही नहीं, उपर्युक्त संबंध इतने बार-बार घटते थे कि उनका स्वतंत्र वर्गीकरण करते हुए पितृसंपत्ति के बँटवारे में उस प्रत्येक पुत्र का हिस्सा निश्चित करने के लिए धर्मकार भी बाध्य हो।

यदि यह कहा जाता कि विवाह संबंध जितने संयत तथा एकांतिक हों, उतनी ही उस समाज की वैवाहिक नीति प्रशस्त होती है, तो यह मानना अनिवार्य है कि आज की कलयुगीन वैवाहिक नीति उस सत्य, त्रेता, द्वापर युगीन नीति की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है। कानीन, सहोढ़, गूढोत्पन्न, क्षेत्रज आदि पुत्रों को पूर्ववत् मात-पितरों को नरक से तारक नहीं समझा जाता, वरन् वर्तमान युग में इस तरह के संबंध माता-पितरों को नरक में ढकेलते हैं, ऐसा समझा जाता है; परंतु सत्ययुगादिक चीन युग में तो क्षेत्रज, गूढ़ोत्पन्न, सहोढ़, कानीन इस प्रकार के संबंधों के पुत्र भी श्रेष्ठ समझे जाते थे। जो उन्हें नरक से निकालकर उनके तारक बनते थे। क्षेत्रज तथा गूढोत्पन्न पुत्रों की गणना तो 'दायादों' के प्रशस्त वर्ग में होती थी और उन्हें श्राद्ध का प्रकट अधिकार प्राप्त होता था। कम-से-कम इस प्रसंग में तो यह स्वीकार करना अनिवार्य है कि कलयुग ही सत्ययुग से अधिक संयत तथा धर्मशील है। इन दस पुत्रों के वर्गीकरण में तथा सत्ययुगीन स्त्री-पुरुष संबंधित उस वैवाहिक नीति से, जो गांधर्वादि विवाह में व्यक्त होती है, स्पष्ट रूप में यह कहना पड़ता है कि रूस स्थित जो वर्तमान स्त्री-पुरुष संबंधी नीति, जो 'नवीन नीति' कहलाती है, वह कुछ अधिक नई नहीं है-स्वैराचरण में तो वह लगभग 'प्राचीन नीति' ही है-सनातन ही है। कम-से-कम किसी भी 'सनातनी' गृहस्थ का, जो मनुस्मृति को सनातन धर्म का अपरिवर्तनीय आधार ग्रंथ मानता है-उस नूतन नीति पंथ को पाखंड कहकर नाक-भौंह सिकोड़ने का अधिकार नहीं है। यदि पाखंड ही है, तो वह कुछ नया पाखंड नहीं है-निपट, मनुप्रणीत, सत्ययुगीन, सनातन पाखंड है।

कन्यादान विचार

काममामरणात्तिष्ठेत् गृहे कन्यतुमत्यपि।

न चैवेनां प्रयच्छेत्तु गुणहीनाय कर्हिचित्॥८८॥

त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत् कुमायूतुमती सती।

उर्ध्वं तु कालादेतस्माद्विन्देत सदृशं पतिम्॥८९॥

पित्रे न दद्याच्छुल्कं तु कन्यामृतुमतीं हरन्।

स हि स्वाम्यादतिक्रामेदृतूनां प्रतिरोधनात्॥९२॥

त्रिंशद्वर्षेद्वहेत्कन्यां हृद्यां द्वादशवार्षिकीम्।

त्र्यष्टवर्षोष्टवर्षां वा धर्मे सीदति सत्वरः॥९३॥

-अ. ९

कन्या को विवाह में गुणहीन, अयोग्य वर को केवल कर्तव्य के रूप में कदापि न दिया जाए, भले ही वह ऋतुमयी होकर आजन्म वैसी ही रहे। ऋतु प्राप्ति के पश्चात् तीन वर्षों तक पिता द्वारा विवाह निश्चित होने की प्रतीक्षा करने के पश्चात् कुमारी समगुणशील पति का स्वयं चयन करे, उसका वरण करे। इस तरह कुमारी के पिता को उस वर द्वारा किसी भी तरह का शुल्क देने का कारण नहीं है। यथासमय उसका ब्याह न रचाने से और ऋतुप्राप्ति के पश्चात् भी उसे संभोग सुख से वंचित रखने से, उसके पिता का उसपर कोई अधिकार नहीं रहता।

विवाहित जीवन का आदर्श धर्म

अन्योऽन्यस्याव्यभिचारो हि भवेदामरणान्तिकः।

एष धर्मः समासेन ज्ञेयः स्त्रीपुंसयोः परः॥१००॥

तथा नित्यं यतेयातां स्त्रीपुंसौ तु कृतक्रियौ।

यथा नाभिचरेतां तौ वियुक्तावितरेतरम्॥१०१॥

-अ. ९

पति पत्नी से तथा पत्नी पति से किसी भी तरह का बिना व्यभिचार किए चाहे पास हों या चाहे दूर रहें-परंतु आमरण परस्पर निश्छल व्यवहार करें-संक्षेप में यही विवाहित जीवन का आदर्श धर्म है।

स्त्री-पुरुष धर्म का यह उत्कट समापन हो गया। इस संपूर्ण अध्याय में एक बात पर तुरंत ध्यान दिए बिना नहीं रहा जाता कि पतिनिधनोपरांत नियोग अथवा पुनर्विवाह अथवा आमरण ब्रह्मचर्य युक्त जीवनयापन करना-ये विधवा के लिए तीन धर्मसंप्रदाय का करते हुए भी यहाँ पर इस विधि का कहीं भी बेझिझक समर्थन नहीं किया गया है कि विधवा पति के साथ सतीगमन करे, वह पति के पश्चात् जीवित न रहे। भगवान् जाने सती प्रथा प्रचलित होने के पश्चात् भी सती के किसी अभिमानी शास्त्रकार ने अपनी इस राय के भी पाँच-पच्चीस श्लोक इस स्मृति में कैसे घुसेड़ नहीं दिए। कूचित् तब तक मनुस्मृति की यह अंतिम संकलित पांडुलिपि जो भृगुसंहिता इतनी नाप-तौल कर, लिखित तथा मौखिक रूप में सर्वप्रसिद्ध होगी कि उसके अनुक्रम अध्याय की ताला लगी हुई बंद फौलादी मंजूषा में बाहरी अक्षर की एक चींटी तक घुसना असंभव हो।

पुत्र तथा पुत्री

यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा।

तस्यामात्मनि तिष्ठन्त्यां कथमन्योधनं हरेत्॥१२९॥

-अ. ९

पुत्र हमारी ही आत्मा है। पुत्री भी पुत्रवत् ही है। अत: कन्या के जीवित होते हुए भी पुत्र रूपी पराया धन भला कौन ले सकता है?

अपुत्रोऽनेन विधिना सुतां कुर्वीत पुत्रिकाम्।

यदपत्यं भवेदस्यां तन्मम स्यात्स्वधाकरम्॥१२६॥

-अ. ९

पुत्र विहीन व्यक्ति विवाह के समय निश्चित की गई विधि से कन्या से उत्पन्न पुत्र मेरा श्राद्धादि संस्कार संपन्न करे, कहते हुए कन्या को वे अधिकार दे-

पौत्रदौहित्रयोर्लोके विशेषोऽस्ति धर्मतः।

तयोर्हि मातापितरौ सम्भूतौ तस्य देहतः॥१३२॥

-अ. ९

पुत्र का पुत्र और कन्या का पुत्र-इनमें धर्मदृष्टि से कोई अंतर नहीं है, क्योंकि वे दोनों ही अपने पितामह की देह से ही उत्पन्न होते हैं। (कुछ ऐसे वचन भी हैं जो इसके विपरीत हैं।)

स्त्री-वध

मनुस्मृति में, जैसे कि वह आज जिस भृगुसंहिता के रूप में हमारे सामने है, उसी अवस्था में स्त्रियों को ब्राह्मणों की तरह ही एक विशेष सुविधा सर्वथा स्पष्ट रूप में और लगभग विरुद्ध श्लोकों के अभाव में एकमत होकर दी जाती हुई दिखाई देती है। वह इस तरह है-स्त्री अवध्य है, उसका वध करना घोर पाप है, उसके हाथों महान् अपराध होने पर भी उसे वध-दंड नहीं होना चाहिए। इस प्रकार कठोर नियम करना, ऐसा प्रतीत होता है कि इस मामले में स्त्रियों को वर्तमान दंड विधान से (क्रिमिनल लॉ) मनुस्मृति का प्राचीन दंडविधान ही अधिक उचित था। उदाहरण के लिए निम्नांकित श्लोक देखिए-

बालघ्नांश्च कृतघ्नांश्च विशुद्धानपि धर्मतः।

शरणागतहंतृंश्च स्त्रीहंतृंश्च न संवसेत्॥१९॥

-अ. ११

उस मनुष्य से, जो बालहत्या करता है, जो कृतघ्न है, जो शरणागत की हत्या करता है, जो स्त्रीहत्या करता है-उस घोर पापी से कोई भी किसी प्रकार का संबंध न रखे, भले ही उसने प्रायश्चित्त क्यों न किया हो।

फुफेरी,मौसेरी भगिनियों के साथ विवाह न करें

पैतृऽवसेयीं भगिनीं स्वस्त्रियां मातुरेव च।

मातुश्च भ्रातुस्तनयां गत्वा चान्द्रायणं चरेत्॥१७१॥

एतास्तिस्रस्तु भार्यार्थे नोपयच्छेत्तु बुद्धिमान्।

ज्ञातित्वेनोपनेयास्ताः पतितो ह्युपयन्नधः॥१७२॥

-अ. ११

फुफेरी, मौसेरी, ममेरी बहनों (अथवा भानजी, भतीजी) और भगिनीवत् महिलाओं से जो ब्याह रचाता है (अथवा संभोग करता है), उस पुरुष को अधोगति प्राप्त होती है अथवा वह पतित होता है। आज अन्य जातियों में ही नहीं, परंतु साक्षात् ब्राह्मण जाति में भी इस तरह की कुछ प्रथाएँ बेझिझक जारी हैं और उन जातियों में जो इन रीतियों का पालन करते हैं ऐसे अनेक ब्राह्मण-ब्राह्मणेतर सनातनी हैं, जो इसलिए सुधारवादियों पर टूट पड़ते हैं कि वे मनुस्मृति प्रणीत अस्पृश्यतादि आचारों का उल्लंघन करते हैं। वे स्वयं ही पतित कहना छोड़कर मनुप्रणीत आचार परिवर्तनीय मानें। वही अवस्था कन्या के शुल्क से संबंधित है। शूद्र भी शुल्क न ले, शुल्क ग्रहण करना प्रच्छन्न कन्या विक्रय का पाप ही है, इसी तरह मनुस्मृति में अनेक निषेधात्मक श्लोक होते हुए भी-कई ब्राह्मण जातियों में भी धर्मसंस्कारवत् धड़ल्ले से शुल्क ग्रहण किया जाता है। फिर भी वे 'मनुप्रणीत प्रत्येक अक्षर त्रिकालाबाधित धर्म है'-इस तरह का हल्ला करते रहते हैं। शुल्क निषेध के उदाहरणस्वरूप जो अनेक श्लोक हैं, उनमें से एक श्लोक देखिए-

आर्षे गोमिथुनं शुल्कं केचिदाहुर्मृषैव तत्।

अल्पोऽप्येवं महान्वाऽपि तावानेव स विक्रयः॥५३॥

-अ. ३

आर्ष नामक विवाह में जो ब्राह्मणों के लिए भी युक्त है, सात पीढ़ियों को उत्तम गति प्राप्त होती है। (अ. ३ : ३८ श्लोक में भगवान् मनु ने ही कथन किया है उसका भी)। अत: वर कन्या के पिता को एक-दो जोड़ी गाय-बैल दे, इस तरह जो 'कइयों' का अभिमत है, वह व्यर्थ है; क्योंकि चाहे अल्प मात्रा में या प्रचुर मात्रा में ही सही, शुल्क ग्रहण करना कन्या विक्रय ही होने से वह निंदनीय है। (किंबहुना, न केवल ब्राह्मण, प्रत्युत शूद्र भी इस पाप से दूर रहे।)

आददीत न शूद्रोऽपि शुल्कं दुहितरं ददन्।

शुल्कं हि गृह्णन्कुरुते छन्नं दुहितृ विक्रयम्॥ ९७॥

नानुशुश्रुम जात्वेतत्पूर्वेष्वपि जन्मसु।

शुल्कसंज्ञेन मूल्येन छन्नं दुहितृविक्रयम्॥९९॥

-अ. ९

शूद्र भी कन्या मूल्य के रूप में कोई शुल्क ग्रहण न करे। कन्या के बदले किसी प्रकार का शुल्क लेना कन्या-विक्रय ही है। प्राचीन युग में भी कन्या-विक्रय का पाप चिकने-चुपड़े नाम से छिपाया जाता है। वह शुल्क किसीके लेने की बात हमें ज्ञात नहीं।

यह सिद्ध करने के लिए कि मनुस्मृति के अंतर्गत सारे श्लोक जगदुत्पत्ति के साथ भगवान् मनु ने कथन किए हैं और उसका एक-एक अक्षर अपरिवर्तनीय और धर्मसम्मत है-इस तरह की धारणाएँ सौ प्रतिशत असत्य हैं-ये तीन श्लोक भी सर्वथा अकाट्य प्रमाण हैं। यदि जगदुत्पत्ति के साथ ही इस स्मृति की रचना की गई थी तो उसमें विभिन्न आचार्यों की, जिनका बार-बार 'कई अमुक जनों का प्रतिपादन है' इस तरह के अभिमत व्यक्त करनेवाले आचार्यों की क्या सभी की, सृष्टि से पहले उत्पत्ति हुई थी? 'कहीं भी ऐसी भाषा नहीं कि कई लोग भविष्य में इस तरह प्रतिपादन करेंगे या किया है या करते हैं।' इस तरह की ही भाषा है। अर्थात् ऐतिहासिक काल में जिन अनेक आचार्यों के अभिमत प्रचलित थे, भृगु ने उन्हीं का उल्लेख किया और प्राचीन मनुस्मृति के इस संस्करण को सिद्ध किया। अनेक स्मृतियों के अस्तित्व का उल्लेख इस 'वेदवाह्य या स्मृतयः' प्रभृति श्लोकों में स्पष्ट रूप में आ गए हैं। संपूर्ण सृष्टि एक दिन में नहीं हुई, मनुष्य का जन्म भी सृष्टि की उत्पत्ति के लाखों वर्षों के बाद हुआ, फिर मनु की बात ही दूर है। यही उचित है कि इस सृष्टि विज्ञान से सिद्ध घटनाओं को नकारकर इस ग्रंथ का यथोचित महत्त्व भी कम करने का पाप 'सनातन' ढपोलशंखी न करें। पुन: यह ग्रंथकार जो उपर्युक्त श्लोक में ठोस रूप में कहता है कि 'शुल्क ग्रहण करने की प्रथा हमने कभी सुनी नहीं-इसी ग्रंथ के तीसरे अध्याय में उतने ही ठसके के साथ वह प्रतिपादन करता है कि 'आर्ष विवाह में शुल्क लेते हैं, ब्राह्मणों की सात पीढ़ियों का इस विवाह से उद्धार होता है। अर्थात् यह मानकर कि वह ग्रंथकार एक ही था, उसे भ्रांत जनों में ढकेलने की अपेक्षा इस तरह के सर्वथा परस्पर विरोधी कई श्लोकों की रचना अनेक शास्त्रकारों ने समय-समय पर की और उसके पश्चात् उनका संकलन किया, यह मानना ही उन महान् स्मृतिकारों की योग्यता को व्यर्थ ही लांछनास्पद नहीं है? साधारण ग्रंथकार भी जिस बात का प्रतिपादन सुसंगत रूप में कर सकता है, उसे भगवान् मनु स्पष्ट नहीं कर सके और उनके ग्रंथ में इतनी विसंगति है कि उनका समन्वय करने में मीमांसादिकों के ढकोसला युक्त तथा अतथ्यगृहीत कत्यों की सहायता उधार लेनी पड़ रही है। इस प्रकार धारणा बनाने में ही भगवान् मनु की असहनीय निदा हमारे 'सनातनी' ढकोसले में घट रही है।

पुरुष भी नारी ही है-पति पत्नी की कोख में जन्म लेता है

पतिभार्यां सम्प्रविश्य गर्भोभूत्वेह जायते।

जायायास्तद्धि जायात्वं यदस्यां जायते पुर्नः॥८॥

एतावानेव पुरुषो यज्जायात्मा प्रजेति ह।

विप्राः प्राहुस्तथा चैतद्यो भर्ता सा स्मृताङ्गना॥४४॥

-अ. ९

पति गर्भ रूप में पत्नी की कोख से पुनः जन्म लेता है, अतः पत्नी को जाया कहा जाता है। चूँकि पुरुष स्वयमेव पूर्ण शरीर नहीं है, अपनी स्त्री से समागम होने के पश्चात् ही उसकी देह पूर्णता पाती है तथा प्रजोत्पादन क्षम बनती है, तब सुजान जनों के अनुसार भर्ता ही भार्या, पुरुष ही स्त्री, उन दोनों के मिलन से ही एक देह एक जीव होता है।

प्रसंगोपात्त स्त्री शिल्पवृत्ति करे

विधाय वृत्तिं भार्यायाः प्रवसेत कार्यवान्नरः।

अवृत्तिकर्षिता हि स्त्री प्रदुष्येत्स्थितिमत्यपि॥७३॥

विधाय प्रोषिते वृत्तिं जीवेन्नियममास्थिता।

प्रोषितो त्वविधायैव जीवेच्छिल्पैरगर्हितैः॥ ७४॥

-अ. ९

पति लंबी यात्रा पर निकलने से पूर्व पत्नी के भक्षण-पोषण का प्रबंध करके गमन करे। आजीविका का प्रबंध न हो तो सुशील, सदाचारिणी स्त्री के भी पथभ्रष्ट होने की आशंका होती है। पति के पीछे पत्नी नियम पालन द्वारा कालक्रमण करे। तनिक भी साधन न हो तो यथोचित शिल्प-व्यवसाय द्वारा भी अपना भेट भरे। यह तथा इससे पूर्व स्त्री स्वभाव विषयक दिए गए अनेक श्लोकों से यह स्पष्ट होता है कि सत्युगीन मानव कलयुगीन मनुष्यों से भिन्न नहीं थे। वे भी 'पथभ्रष्ट' होते थे। इतनी बार-बार सत्युग में भी उन्हें निर्बंधों के ताले में बंद रखते-रखते स्मृतिकारों को भी घुटने टेककर कहना पड़ा कि-

मात्रा स्वस्रता दुहित्रा वा नाविविक्तासोनोऽभवेत्।

बलवानिंद्रियगामी विद्वांसमपि कर्षति॥

अनुलोम विवाह से संबंधित विभाजन

ब्राह्मणस्यानुपूर्येण चतस्रस्तु यदि स्त्रियः।

तासां पुत्रेषु जातेषु विभागोऽयं विधिः स्मृतः॥१४८॥

त्र्यंशदायाद्धरेद्विप्रः द्वावंशी क्षत्रियासुतः।

वैश्याजः सार्धमेवांशमंशं शूद्रासुतो हरेत्॥१५०॥

-अ. ९

यदि ब्राह्मण की चातुर्वर्णीय चार विवाहित भार्याएँ हों तो उन चारों की संतति को भी उस माता का हिस्सा प्राप्त हो। तीन भाग ब्राह्मणी पुत्र, दो भाग क्षत्रिय पुत्र, डेढ़ भाग वैश्य पुत्र तथा एक भाग शूद्र पुत्र। (मातृसावर्ण्य का प्रारंभ करने के उपरांत भी ब्राह्मणादिकों की भिन्न वर्णीय विवाहित पत्नियाँ थीं तथा उनके पुत्र दायाद के धार्मिक अधिकार का भोग करते थे। इस तरह के अनेक श्लोकों से यह स्पष्ट है; परंतु नित्य के अनुभवों के अनुसार उसके नीचे ही तुरंत इसके विरुद्ध अर्थ का श्लोक टपकता है कि 'ब्राह्मण क्षत्रिय विशां शूद्रा पुत्री न रिक्थभाक्।' (अ. ९.११५) शुद्र स्त्री के पुत्र को हिस्सा कदापि न दे।)

(दसवें अध्याय में इसका वर्णन है कि प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न संतति किस जाति के अंतर्गत होती है। इससे आज जो चंडाल, माग, निषाद प्रभृति अस्पृश्य जनजातियाँ हैं, प्रायः वे चातुर्वर्ण्य के ही रक्तबीज की हैं-यह कम-से कम उन महाभागों को मानना होगा जो मनुस्मृति को सर्वथैव प्रमाण मानते हैं।) उदाहरणार्थ-

शूद्रादायोगवक्षेत्ता चाण्डालश्चाधमो नृणाम्।

वैश्यराज्यन्यविप्रासु जायन्ते वर्ण संकराः॥११॥

-अ. १०

शूद्र पुरुष से वैश्य स्त्री में अयोग, क्षत्रिय स्त्री में क्षत्ता, ब्राह्मण स्त्री में चांडाल की उत्पत्ति हो गई। (अर्थात् मान लीजिए, एक ब्राह्मण की दो कन्याएँ-एक ब्राह्मण को दी-उसका पुत्र ब्राह्मण, दूसरी शूद्र को प्राप्त हो गई-उसका पुत्र चांडाल अर्थात् आज का महार [3] अस्पृश्य-हम ब्राह्मदिकों के सगे मौसेरे बंधु हैं। उनमें तथा हममें एक ही रक्तबीज का संचरण होता है। ब्राह्मणों द्वारा चांडालादिक स्त्रियों से ब्याह रचाने के उदाहरण इसी स्मृति के अंतर्गत पीछे दिए गए श्लोकों द्वारा ज्ञात होते हैं। ये चांडाल स्त्रियाँ ब्राह्मणी ही बनकर जगत् वंदनीय हो गईं।)

प्रक्षिप्त श्लोक अनिष्ट नहीं

मनुस्मृति के अंतर्गत स्थल मर्यादा का ध्यान रखते हुए महिला विषयक प्राय: महत्त्वपूर्ण श्लोक यथासंभव उतने दिए गए हैं जितने दे सकते थे। मनुस्मृति के इसके आगे के ग्यारहवें और बारहवें अध्याय में इस विषय से संबंधित कुछ अधिक श्लोक भी नहीं हैं। लेखावकाश भी समाप्त हो गया। अतः अब समापन के समय इस लेखमाला में प्रक्षिप्त श्लोकों ने मूल ग्रंथ में परस्पर विरोधी विधानों की जो धमाचौकड़ी मचाई है, उससे संबंधित बार-बार जो दोषसूचक उल्लेख करने पड़े, उनका तटस्थता के साथ दूसरा पहलू भी सूचित करना हमारा कर्तव्य है।

जैसे-जैसे राष्ट्र की परिस्थितियों में परिवर्तन आता रहा वैसे-वैसे भगवान् मनु के कुछ निर्बंध (कायदा-कानून) राष्ट्रहितार्थ परिवर्तित करना आगामी शास्त्रविदों ने उचित समझकर अपने विचारानुसार नूतन परिस्थितियों में आवश्यक नूतन सुधार लाने के लिए स्मृति में नए निर्बंधों का समावेश किया। यद्यपि इस उद्देश्य से जो श्लोक मनुस्मृति में समय-समय पर समाविष्ट किए गए, उनके प्रक्षिप्त होने के बावजूद उनका उद्देश्य-जिन्होंने उनका समावेश किया था-राष्ट्रहितकारक ही था, न कि कपटपूर्ण। हमें इस बात का विस्मरण नहीं होना चाहिए कि व्यक्तिगत रूप से उन्हें उससे कुछ विशेष लूटपाट नहीं करनी थी। मूल प्रथा के विरुद्ध जो श्लोक उसके पश्चात् समाविष्ट किए गए, प्रायः वे नीति कल्पनाओं का तथा सात्त्विक संयम का विकास ही अभिव्यक्त करते हैं-यही उन प्रक्षेपकों के सदुद्देश्य का सशक्त प्रमाण है। इस प्रकार के श्लोकों के प्रक्षेपक क्रमशः प्रत्येक काल के सदिच्छ सुधारक ही थे।

उदाहरणार्थ नियोग प्रथा को लीजिए। आर्य राष्ट्र अल्पसंख्य था, उसके शत्रुओं का घेरा अजेय था। राष्ट्रबुद्धि के सामने उर्वरा, परंतु निर्जन भूमि विपुल मात्रा में खुली पड़ी थी, अतः राष्ट्र के संख्या बल में परिवर्धन करना हितकारी था। इसी लिए कुमारी पुत्र (कानीन), विवाह के समय पूर्ण गर्भ युक्त कुमारी पुत्र (सहोढ)-अपनी पत्नी द्वारा पति को सूचित किए बिना परपुरुष से उत्पादित पुत्र समझकर उसका पालन करने की उदारता राष्ट्रहित को लक्ष्य मानकर दिखाई और उस योग से आर्य बीज के प्रत्येक कण का उपयोजन राष्ट्रीय संख्या बल वृद्धि के लिए करे-इसीमें राष्ट्रहित है। पत्नी ही पति का क्षेत्र है, उसमें जो उत्पन्न होगा उसपर पति का ही अधिकार है। इस सूत्रान्वय से सारे पुत्रों का पुत्रवत् प्रतिपालन किया जाए-इस तरह की प्रवृत्ति इस काल में राष्ट्रीय संख्या बल के लिए हितकारी थी। इसलिए कि वंशक्षय न हो, धर्मस्वरूप नियोग का भी यही समर्थन है। वर्तमानकालीन जर्मनी, फ्रांस, इटली, रूस आदि राष्ट्रों पर जब-जब संख्या क्षीणता का संकट छाया तब-तब इसी तरह वैवाहिक निबंधों को शिथिल करना पड़ा और विवाह बाह्य संतति इस सत्र के अनुसार नैवधिक (Legitimate and legal) समझी गई।

इस स्थिति में परिवर्तन होते ही आर्य राष्ट्र इधर-उधर फैलने के पश्चात् संख्या बल की समस्या विचाराधीन नहीं रही। इसकी चेतना की प्रतीति भी धुंधली सी होने लगी। उस वैवाहिक शिथिलता का काँटा मन में चुभने लगा। केवल उस प्राचीन रूढ़ि के दुष्परिणाम ही स्थूल रूप में दिखने लगे और समाज के सामने वैवाहिक नीति का उच्चतम आदर्श रखना ही उसके लिए हितकारी है-इस तरह तत्कालीन ब्राह्मण, क्षत्रियों, महर्षियों ने एकनिष्ठ, प्रामाणिक तथा संयत करनेवाले निबंध प्रचलित किए और नियोगादिक पूर्वधर्म वर्जित मान लिये। उन वैवाहिक उच्चतर आदर्शों का संपर्क श्लोक मनुस्मृति के अंतर्गत पूर्व श्लोकों के आगे-पीछे प्रक्षेपित करते हुए उन निर्बंधों के लिए भी मनु नाम का आधार ग्रहण किया। मद्यपान निषेध, नियोग त्याग, मांसाशन त्याग, यज्ञहिंसा निषेध, कानीनादि पुत्रों का निषेध आदि प्रकरणों में सत्ययुगीन पूर्वाचार्यों की अपेक्षा अर्वाचीन आचार्यों का धर्म तथा नीति का आदर्श अधिक संयमशील, दयाशील तथा सत्यशील पाया जाता है। सत्युगीन निर्बंधों के आधार पर जिन भोगों कों वे प्रकट रूप में भोग सकते हैं, उन अनेक स्वेच्छाचारी भोगों से इन नए आचार्यों को अपने ही इन कठोर निर्बंधों के कारण वंचित होना पड़ा; परंतु यह जानते हुए भी उन्होंने अपनी स्वच्छंद प्रवृत्ति पर स्वयं ही अंकुश लगा दिया, इस प्रकार यह कलयुगीन धर्म ही अधिक धर्मशील है, क्योंकि इन प्रक्षेपक अर्वाचीन आचार्यों ने प्राचीन युग में जो कुल मिलाकर वर्जित था, वही प्रायः कलयुग में भी वर्जित समझा।

इस गड़बड़झाला का सारा दोष हमारी'शब्दनिष्ठ सनातन प्रवृत्ति'का ही है

ऊपर निर्देशित किया गया है कि प्रक्षेपकों का उद्देश्य भला ही था। अब सबसे महान् दोष यह था कि उन्होंने उन सुधारों को, जो उत्तम प्रतीत हुए, अपने नाम पर प्रसिद्ध न करते हुए प्राचीन मनुस्मृति में मनु के नाम पर ही ठूँस दिए। इससे सारे ग्रंथ की खिचड़ी होकर यह निश्चित प्रतिपादन करना कठिन हो गया कि मूलतः मनु का क्या अभिमत है और प्रक्षेपकों का प्रक्षिप्त मत क्या है। यह तो स्पष्ट रूप से ठग विद्या थी; परंतु इस कृति में भी प्रक्षेपकों का उद्देश्य साधारणतया परोपकार ही था, क्योंकि वह सब उत्तम है जो नवीन है-इसलिए उसको स्वीकार न करते हुए जो श्रुतिस्मृति पुराणोक्त हो वही स्वीकार्य हो, इस तरह का नियम मनु से लेकर ही हमारे नस-नस में समाया था। मैं वही कथन करता हूँ जो वेदात में प्रतिपादित है-इस प्रकार सत्यासत्य शपथ मनु को भी लेनी पड़ी थी। अतः मनुस्मृति धर्मसिद्ध हो पाई। स्वयं मनुस्मृति में भी यह कथन करते हुए कि 'अन्य स्मृतियाँ मिथ्या हैं। अतः उनका पालन न करें'-अंतिम अध्याय में प्रतिपादन किया है कि-

तान्यक्किालिकतया निष्फलान्यनृतानि च॥ ९७॥

-अ. १२

मनुस्मृति से अलग अन्य स्मृतियाँ त्याज्य हैं, क्योंकि यह सिद्ध होता है कि उनमें स्थित निर्बंध समाजहिताय के बाधक थे-इस अर्थ में नहीं, अपितु मुख्यतः उस एकमात्र महाकारणार्थ। अर्वाक्कालिकातया। इसलिए कि वे अर्वाचीन हैं। मनु का नियम है-जो-जो अर्वाक्कालीन, अद्यतन, आधुनिक हैं, वह सब त्याज्य। अतः अगले शास्त्रकारों को अपनी सुधारणाएँ लोगों के गले उतारने के लिए अपने श्लोक मनु की प्राचीन स्मृति में ही घुसेड़ने के सिवा अन्य कोई उपाय शेष नहीं रहा। यह दोष मुख्यतः उन प्रक्षेपकों का नहीं अपितु उसका ठीकरा अधिकांशतः हमारी इस शब्दनिष्ठ सनातन प्रवृत्ति पर ही फोड़ना चाहिए; परंतु ऐतिहासिक दृष्टि से यह बाधा कदापि नहीं होती प्रत्युत सभी स्पष्टीकरण संतोषजनक होता है।

परंतु कौन सा श्लोक प्रक्षिप्त, कौन सा मूल, कौन सा वेदनिष्ठ तथा कौन सा वेदबाह्य-यह झंझट हम जैसे पाठकों को, जो ऐतिहासिक दृष्टि से यह ग्रंथ पठन करते हैं-रत्ती भर भी असुविधाजनक नहीं होती। यह एक ऐतिहासिक चर्चा का विषय है बस, इतना ही उसका महत्त्व है। राष्ट्र की वर्तमान परिस्थितियों में राष्ट्र धारणार्थ जो श्लोक उपयुक्त प्रतीत हो, भले ही वह मनु का हो, प्रक्षिप्त हो, हम उसका आचरण करेंगे। जहाँ वह नहीं बन पड़ता, वहाँ कुछ ऐसे निर्बध करेंगे जो राष्ट्रहितसाधक हों तथा आधुनिक ज्ञान की कसौटी पर खरे उतरेंगे। हमें यह कदापि स्वीकार नहीं कि सत्यासत्य, भले-बुरे का निश्चय करने के लिए 'अर्वाक् कालिकता' यही एकमात्र निकर्ष है, उसी तरह जो पुरातन है वही सोना है, यह जितना सत्य होता है उतना ही यह भी सत्य है कि जो पुराना है वह बासी होता है।

जो शब्दनिष्ठ सनातनी यह मानते हैं कि मनु का प्रत्येक अक्षर सत्य ही है, वह स्मृति सुसंगत ही है, उन्हें उसके अंतर्गत सैकड़ों संपूर्ण अनेकानेक विरुद्ध श्लोकों का समन्वय लगाते समय नाकों दम आ गया और अंत में प्रत्येक आलोचक यद्यपि मनुस्मृति का श्लोक परिवर्तित नहीं करता। फिर भी उनका अर्थ घुमाकर एक-एक नई मनुस्मृति लिखता है। [4] यह कहते हुए कि मनुस्मृति में मांसाशन धर्म सम्मत है, ब्राह्मणों की कछ जातियाँ मांस भक्षण करती हैं। कुछ लोग मांस भक्षण वळ, परंतु मछलियाँ खाना धर्मसम्मत, अत: मनु के नाम पर मछली खाते हैं। कुछ लोग मनु के अनुसार दोनों वर्त्य समझकर केवल शाकाहारी भोजन करते हैं। इस प्राचीन परंपरा का आज भी निर्वाह करते हुए कोई मनु के नाम पर अनुलोम विवाह अधर्म समझा है तो कोई मनु के नाम पर आज भी प्रतिलोम विवाह 'शास्त्रोक्त' समझकर वैश्य को ब्राह्मण कन्या देता है। इस तरह बेचारे मनु के प्रत्येक शब्द की खींचातानी होकर आज भी मनुस्मृति के श्लोकों की एक ही पांडुलिपि होते हुए उसके अर्थ की पाँच सौ लोगों ने पाँच सौ मनुस्मृतियाँ बनाई हैं।

परंतु उन पाठकों, जो ऐतिहासिक दृष्टिकोण रखते हैं, को वैसे शब्द-छल करने का कोई कारण नहीं रहता। वर्तमान मनुस्मृति एक लेखनी से लिखी सुसंगत एक ग्रंथकार की मूल स्मृति नहीं है। वह तो विभिन्न मतों की संकलित संहिता है। वेदकालीन इतिहास की तरह जो रूढ़ियाँ प्राचीन सिद्ध होती हैं, उनके समर्थक श्लोक प्रथम हैं। उसके पश्चात् के इतिहास कालखंड में जो रूढ़ियाँ छूट गई हैं, उनके नियोग, मांसाशन प्रभृति निषेधसूचक श्लोक उसके पश्चात् प्रक्षिप्त हैं, इस तरह इतिहास के स्वतंत्र प्रमाण द्वारा प्रक्षिप्त श्लोकों की छानबीन उचित ढंग से की जा सकती है। तथापि अमुक श्लोक मूल अथवा प्रक्षिप्त है, इस तरह का दुराग्रह रखना भी दुःसाध्य है-इतनी यह खिचड़ी पककर एकजीव हो गई है-इसका भी इतिहास पाठक को विस्मरण नहीं होता। अंततोगत्वा वह पाठक किसी भी श्लोक को इसलिए उत्तम नहीं मानता कि वह मूल है, उसी तरह प्रक्षिप्त होने से घटिया तथा स्मृति के अंतर्गत होने के कारण अनुल्लंघनीय भी नहीं मानता। यदि वह वर्तमान राष्ट्रीय परिस्थितियों में हितकारी हो तो उसे स्वीकार करता है, अन्यथा स्पष्ट रूप में यह कहकर कि [5] उस तरह हितावह वह नवीन निर्बंध नूतन होने के कारण उसको स्वीकार करता है। यही है-विज्ञाननिष्ठ, प्रत्यक्षनिष्ठ, आधुनिक प्रवृत्ति। इसी प्रवृत्ति से तथा इसी ऐतिहासिक दृष्टि से न केवल मनुस्मृति प्रत्युत श्रुतियों का भी पठन करने से उनके अर्थ की दुर्गति न होते हुए वह अधिक सरल रूप से स्पष्ट होता है और उस ग्रंथ की अनावश्यक अप्रतिष्ठा टल सकती है।

अंत में इस लेखमाला के आरंभ में दिए हुए इस प्राचीन तथा पूजनीय महाग्रंथ की महानता का स्मरण करते हुए एवं हमारे हिंदू राष्ट्र पर सदियों से किए हुए उपकारों का स्मरण करते हुए उस मनुस्मृति को, जो कभी जापान से लेकर यवनद्वीप (ग्रीस) तक धर्मग्रंथ अथवा विधि शास्त्र के रूप में सर्वमान्य बनी है तथा जो शत भाषाओं में अनूदित है-तथा भगवान् मनु को ही नहीं अपितु भृगुसंहिता को एवं महर्षि भृगु को भी बार-बार वंदन के साथ इस लेखमाला को समाप्त करते हैं।

प्राचीन यहूदी योषिता

लेखांक-१

इससे पूर्व हमने 'स्त्री' पत्रिका में 'मनुस्मृति की महिला' शीर्षक लेख लिखकर उसमें यह निर्देशित किया था कि लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व हमारी आर्य महिलाओं का रहन-सहन, समाज में उनका स्थान, अवस्था एवं आचरण किस प्रकार का था।

उसी प्राचीन कालखंड में हमारी आर्य नारी के समान ही भारत से बाहर फिलिस्तीन, सीरिया आदि देशों में महिलाओं का आचरण किस प्रकार का था, तीन-चार हजार वर्ष पूर्व भारत से बाहरी राष्ट्रों की स्त्री विषयक धारणाएँ किस प्रकार की थी, उधर स्त्री विषयक भावनाएँ, विधि-विधान किस प्रकार होते थे, उनकी स्त्री विषयक नीति किस प्रकार थी, इसकी जानकारी भी साधारण महिला पाठकों को मनोरंजक तथा विदुषी महिलाओं को तो अध्ययनीय प्रतीत हुए बिना नहीं रह सकती। इसके अतिरिक्त उन पाठकों को, जिन्होंने यह जान लिया कि तीन-चार हजार वर्ष पूर्व आर्य महिलाओं की अवस्था किस प्रकार थी, यह जानने की जिज्ञासा स्वाभाविक ही होगी कि भारत से बाहर समकालीन आर्येतर महिलाओं की अवस्था एवं नीतिमत्ता कैसी थी? इस दृष्टि से 'मनुस्मृति काल की महिला' शीर्षक लेख का 'वर्तमान यहूदी योषिता' शीर्षक लेख एक पूरक उत्तरार्द्ध ही माना जाएगा।

मनुस्मृति काल की महिला का रूप रेखांकन खंडित रूप में विधान में ही करना अनिवार्य था, क्योंकि मनुस्मृति कोई कथात्मक ग्रंथ नहीं है, वह एक विधि ग्रंथ (लॉ बुक) है। उसमें मात्र निर्बंध, नियम, विधि निषेध ही क्रमशः प्रस्तुत किए गए हैं; पंरतु इस लेख में जिस यहूदी योषिता की रूपरेखा का अंकन करना है, उसका प्रमुख आधार एक कथामय धर्मग्रंथ ही होने से प्राचीन यहूदी योषिता कैसी थी-इसका वर्णन एक कथानक द्वारा ही करना होगा। किसी आख्यान सदृश्य सुलभ एवं सरस कथा-कथन करते-करते ही उसे समझाने की सुविधा अनायास ही मिलने वाली है।

यहूदियों का यह प्राचीन धर्मग्रंथ हमारे वेदों के समान ही ईश्वरी संदेश माना जाता है। अब्राहम, मोजेस आदि ईश-प्रेषितों को स्वयं ईश्वर द्वारा कथित तथा कुछ उत्स्फूर्त आदेश प्राप्त हुए हैं। उसी तरह सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर इजराइल यहूदियों का तथा उनके इन ईशदूतों का इतिहास भी उसमें दिया गया है। उस इतिहास तथा उन आदेशों की सहायता से प्राचीन यहूदी योषिता की मूर्ति हम गढ़ सकते हैं। इस ग्रंथ को विश्व के वर्तमान उपलब्ध सारे धर्मग्रंथों में वेद के अनंतर महत्त्वपूर्ण समझना चाहिए।

यहूदियों के अनुसार उनका ओल्ड टेस्टामेंट धर्मग्रंथ अपनी परंपरागत काल गणना की तरह ही ई.पू. ४००० वर्षों के इतिहास से ईसा सन् के आरंभ तक का वृत्तांत प्रस्तुत करता है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भी वह ३००० वर्ष पूर्व का होना चाहिए। उसमें भी अन्य किसी प्राचीन धर्मग्रंथों की तरह प्रक्षिप्त अथवा प्रलुप्त अंश अवश्य ही होंगे; परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि कुल मिलाकर वह ग्रंथ इतने प्राचीनकाल का ही दर्पण है। उस प्राचीन काल की यहूदी योषिता कैसी थी तथा उस विख्यात राष्ट्र में नारी जाति विषयक धारणाएँ एवं व्यवहार किस प्रकार के थे इसके निर्देशक कुछ मूल श्लोक और उनके संदर्भ के लिए आवश्यक कथानक के कुछ चुनिंदा श्लोकों का अनुवाद इस लेख में हम दे रहे हैं। उस राष्ट्र के तत्कालीन इतिहास के लिए यह एकमात्र ग्रंथ विशेष आधार एवं अनन्य सुख साधन है। इसके अध्ययन से विदुषियों के अनायास ही विश्व के अति प्राचीन धर्मग्रंथों में से एक धर्मग्रंथ का साधारण परिचय हो जाएगा।

इस 'तौरात' का प्रथम विभाग है-'सृष्टि की उत्पत्ति' (Genesis), उसके प्रथम अध्याय में ही 'स्त्री की उत्पत्ति कैसे हुई'-इस विषय में कथा प्रस्तुत है। वह इस प्रकार है-

अध्याय-१

नारी की उत्पत्ति

धुर आरंभ में आकाश तथा पृथ्वी एक निराकार अवकाश या शून्य स्थान था। अगाध सागर अंधकार से लिपटा हुआ था। उस जल पर ईश्वरीय तेज जगमगाया। ईश्वर ने कहा, 'प्रकाशमान हो' और उजाला जगमगाया। ईश्वर ने देखा और उसे वह आलोक प्रिय प्रतीत हुआ। उसने उजाले को तमस से पृथक् किया। ईश्वर ने आलोक को 'दिवस' और 'तमस' को 'रात्रि' कहा। वह प्रातः तथा संध्या ही विश्व का प्रथम दिवस था। ईश्वर ने कहा, 'जल के मध्य में अंतरिक्ष हो।' वैसा ही हुआ और ईश्वर ने कहा, 'इस अंतरिक्ष द्वारा समविभाजित जल में से ऊपरी जलाशय ऊपर और नीचे का जलाशय नीचे ही रहे।' वैसा ही हुआ। वह दूसरा दिवस। ईश्वर ने कहा, 'निम्नस्थित सारा जल संगठित हो जाए और सूखी भूमि प्रकट हो।' वैसा ही हुआ। ईश्वर ने उसे 'पृथ्वी' की संज्ञा दी और उस जलाशय को 'सागर' की। ईश्वर ने उसका अवलोकन किया और उसे वह प्रिय प्रतीत हुआ। ईश्वर ने कहा, 'अब पृथ्वी तृण, वृक्ष, वनस्पति, बीज निर्माण करे।' वैसा ही हुआ। ईश्वर को वे प्रिय प्रतीत हुए। वह तीसरा दिवस था। ईश्वर ने दो विशाल तेजोदीप निर्माण करके एक को दिवस और दूसरे को रात्रि के समय पृथ्वी को प्रकाशित करने का आदेश दिया। ईश्वर ने तारों की भी निर्मिति की-वह चौथा दिवस था। ईश्वर ने कहा, 'अब जल से नानाविध प्राणी, पक्षी तथा मछलियों का निर्माण हो।' वैसा ही हुआ। वह पाँचवाँ दिवस था। ईश्वर ने कहा, 'अब पृथ्वी पशु, कृमि, सर्प, प्राणियों को जन्म दे।' वैसा ही हुआ। ईश्वर ने कहा, 'अब हम मानव का निर्माण करेंगे-संपूर्णतया अपनी प्रतिकृति' और ईश्वर ने उसी तरह अपने सदृश मनुष्य का निर्माण किया-नर-नारी दोनों का ही। ईश्वर ने उनसे कहा, 'पृथ्वी तथा समुद्र स्थित समस्त पशु, पक्षी, मत्स्य, वनस्पति आदि वस्तुओं पर तुम्हारा शासन हो। अपना वंश वर्धन करो। सुखपूर्ण जीवनयापन करो।' वह छठवाँ दिवस था।

अध्याय-२

इस प्रकार पृथ्वी, स्वर्ग और यह सबकुछ निर्माण किया गया। छह दिवस कार्यरत रहकर सातवें दिन ईश्वर ने विश्राम किया और उस दिन को छुट्टी के दिवस के रूप में वरदान दिया। (सरकारी स्कूल के बालकों तथा दफ्तरों को इसी कारणवश रविवार के दिवस पर छुट्टी का-विश्राम का-अधिकार है-लेखक)

इस तरह सबकुछ निर्माण किया। पर कैसे? पृथ्वी पर कोई भी मनुष्य जोतने के कार्य में नहीं था और वर्षा होने से पूर्व ही ईश्वर ने सभी अनाज, फल और वृक्ष का स्वयं निर्माण किया।

इसके पश्चात् ईश्वर ने मिट्टी से मनुष्य की निर्मिति की। इस माटी की मूरत के नथुनों में ईश्वर ने चेतना की साँस भर दी और मानव जीवित हो गया। इसके पश्चात् ईश्वर ने एक सुंदर उपवन बनाया। प्रत्येक प्रकार के सुंदर तथा स्वादिष्ट फलों से वह उपवन परिपूर्ण था। उसके मध्य भाग में जीवन वृक्ष था और दूसरा सदसद्ज्ञान का वृक्ष। उस उपवन से जो नदियाँ इथियोपिया, असीरिया की ओर बहती हैं, वे सभी पानी की आपूर्ति कर रही थीं। गुण विशेष उस उपवन में ईश्वर ने मृत्तिका से बनाए हुए उस आद्य मानव की स्थापना की और उससे कहा, 'तुम यहाँ के सभी फलों का जी भरके सेवन करो; परंतु हाँ, यह सदसद्ज्ञान का फल तुम कभी मत चखना, अन्यथा प्राणों से हाथ धोने पड़ेंगे।'

ईश्वर ने विचार किया, यह उचित नहीं कि यह मानव प्राणी अकेला ही रहे। उसे एक सहचर और साथी चाहिए। मैं उसका निर्माण करूँगा। ईश्वर ने पृथ्वी से उत्पन्न सभी प्राणी-पशु-पक्षियों को उस आदम के सम्मुख खड़ा किया; परंतु उनमें से आदम को एक भी साथी, सहचर नहीं मिला।

तब प्रभु ने आदम को सुलाया। वह गहरी निद्रा में था। तभी ईश्वर ने उसकी एक पसली निकाली और वहाँ का घाव मांस से भर दिया। नर की पसली से ही ईश्वर ने एक नारी का निर्माण किया और उसे आदम के सम्मुख खड़ा किया।

उसे देखते ही आदम ने कहा, 'आहा! यह मेरी अस्थि की ही अस्थि, रक्त मांस का रक्त-मांस। इस का नाम नारी (Woman) होना चाहिए, क्योंकि उसे नर से (Out of man) से निर्मित किया गया।' इसीलिए ही पुरुष अपने माता-पिता को छोड़कर स्त्री से ही संलग्न होगा, वही उसकी अर्धांगिनी होगी। नर और नारी दोनों मिलकर ही पूर्णांग होता है।

वे दोनों संपूर्ण नग्नावस्था में थे। वह प्रथम पुरुष और उसकी वह प्रथम पत्नी। उन दोनों को ही उस नग्नावस्था का संकोच नहीं हो रहा था।

अध्याय-३

विश्व के आद्य पति-पत्नी की गृहस्थी

परंतु ईश्वर निर्मित इस संपूर्ण सृष्टि में एक साँप, जो पूरा घाघ था, उस प्रथम स्त्री से कहने लगा, 'सुनो, ईश्वर ने तुम्हें इस उपवन के सभी वृक्षों के फल खाने की अनुज्ञा दी है!' उस स्त्री ने कहा, 'परंतु ज्ञानवृक्ष का फल हमारे लिए वर्जित है। ईश्वर ने कहा था, 'वह फल खाते ही तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी।' सर्प ने कहा, 'कदापि नहीं। भला क्यों मरेंगे? ईश्वर को ज्ञात है कि ज्ञानवृक्ष का फल एक बार मनुष्य खा ले तो उसकी आँखें खुलेंगी और आपको इसका बोध होगा कि सदसद् क्या है-फिर तुम ही मानव से ईश्वर बन जाओगे।'

यह सुनते ही उस स्त्री को उस मनमोहक तथा रुचिर, स्वादिष्ट ज्ञानवृक्ष के फल खाने की इच्छा हो गई। जिस योग से सदसद् विवेक बुद्धि प्राप्त होती है, वह फल अंत में उसने स्वयं खाया और आदम को भी दे दिया। उसके पति ने भी उसे खाया।

उसके साथ ही उनकी आँखें खुल गईं और उन्हें भान हो गया कि वे पूर्ण नग्नावस्था में हैं। दोनों ने तुरंत अंजीर के पत्तों को सीकर वस्त्र तैयार किए।

इतने में, जो अपराध के समय उपवन की शीतलता का आनंद लेते हुए टहल रहे थे, उन्हें ईश्वर की आहट लगी। उनसे अपने आपको छिपाने के लिए वे दोनों वृक्ष की ओट में छिप गए। तब प्रभु ने उन्हें बुलाकर पूछा, 'तुम कहाँ हो?' आदम ने कहा, 'आप की आहट पाकर मैं छिप गया हूँ, क्योंकि मैं नग्नावस्था में था। अत: मुझे आपसे भय प्रतीत हो गया।' ईश्वर ने कहा, 'तुम्हें किसने बताया कि तुम नग्नावस्था में हो? क्या तुमने उस वृक्ष का फल खा लिया था जिसे न खाने की चेतावनी मैंने दी थी?' उस पुरुष ने कहा, 'उसी स्त्री ने मुझे यह फल दिया था जिसे आपने मेरी संगिनी के रूप में दिया था।'

तब प्रभु ने उस स्त्री से पूछा, 'तुमने यह क्या किया? बोलो!' स्त्री ने उत्तर दिया, 'उस सर्प ने मुझे उत्साहित किया और मैंने वह फल खा लिया।' प्रभु ने सर्प से कहा, 'तुमने जो कुछ किया है, अब उसका प्रायश्चित्त भोगने के लिए तैयार हो जाओ। सभी प्राणियों में तुम नीच समझे जाओगे। तुम पेट के बल रेंगते रहोगे और आजीवन केवल धूल फाँकते रहोगे। भविष्य में स्त्री और सर्प दोनों में सर्वदा वैर रहेगा। उसकी संतान तुम्हारी संतति के मस्तक कुचलेगी और तुम्हारी प्रजा उसकी प्रजा की एड़ियों को डँसती रहेगी-यह लो अभिशाप।

'और हे नारी, मैं तुम्हारे गर्भ और तुम्हारे दुःख शतगुणित करूँगा। संतति को जन्म देते समय तुम्हें वेदनाएँ सहनी होंगी। तुम्हें अपने पति की इच्छा का पालन करना होगा और तुम्हारा पति तुमपर शासन करेगा। यह है तुम्हारे लिए अभिशाप।

'और हे आदम, 'मैंने प्रतिबंध लगाया था, किंतु तुमने अपनी पत्नी के भुलावे में आकर खाया, अत: तुम्हारे लिए यह भूमि भी अभिशप्त हो। कठोर परिश्रम किए बिना उसका फल तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा। कँटीली झाड़ियाँ, झाड़-झंखाड़ उसपर बढ़ेंगे। उसकी पत्तियाँ तुम्हें भक्षण करनी होंगी। कठोर परिश्रम के पसीने में तरबतर रोटी ही तुम्हें निगलनी पड़ेगी और अंत में जिस भूमि से मैंने तुम्हें निकाला उसी में तुम धँस जाओगे, क्योंकि तुम मिट्टी हो और मिट्टी में ही मिलोगे।'

इसके पश्चात् आदम ने अपनी पत्नी का नाम ईव रखा, क्योंकि वह संपूर्ण प्रजा की आदि माता है। ईश्वर ने आदम और उसकी पत्नी को चमड़े के वस्त्र सिलवाए और पहनाए। ईश्वर ने कहा, 'देखिए, इस ज्ञानवृक्ष का फल खाने से मनुष्य को भले-बुरे का ज्ञान होने लगा। वह हमारे सदृश हो गया। क्या पता, यदि वह दूसरे ज्ञानवृक्ष के फल का भक्षण करके देवताओं के सदृश हो जाए।' यह विचार करते हुए ईश्वर ने आदम और उसकी पत्नी को उस एडन के उपवन से खदेड़ दिया और उस उपवन के पूर्वद्वार पर एक जलती तलवार लटका दी। वह निरंतर चारों दिशाओं में घूमती रही। उस जलते खड्ग का तथा देवदूतों का उस जीवन वृक्ष के चारों ओर पहरा खड़ा किया और उस मानव को, जिसे यहाँ से भगाया था, उस उपवन के बाहर हल जोतने के काम में लगा दिया।

अध्याय-४ से ९

आगे चलकर आदम का संबंध अपनी पत्नी ईव से हुआ और उसने गर्भ धारण किया। उसका पहला पुत्र 'केन' तथा द्वितीय पत्र 'अवेल' हआ। इन दोनों भाइयों में अनबन होने से केन ने अवेल की हत्या की। केन ने अपनी पत्नी से संबंध किया और उसकी कोख से फिर पुत्र की प्राप्ति हुई, (परंतु यदि आदम और ईव मानव जाति का पहला जोड़ा था और केन उनका पुत्र था तो उसे पत्नी कहाँ से मिली? वह भी इस आदम जोड़े की ही पुत्री और उसकी बहन थी। क्योंकि दूसरा जोड़ा तब तक इस विश्व में अस्तित्व में नहीं था, जिससे वह उत्पन्न हो।) आगे चलकर आदम से ईव का तीसरा पुत्र हो गया-वह है 'सेथ'। सेथ का एक पुत्र हो गया (किससे?)। उसका नाम रखा 'एनास'। इसके पश्चात् विपुल पुत्र-पुत्रियाँ पैदा करके आदम नौ सौ तीस वर्ष जीवित रहकर चल बसा।

अध्याय-१०

जल-प्रलय

आगे चलकर वंशवृद्धि होते-होते लामेक ने 'नोहा' नामक पुत्र को जन्म दिया। कई पुत्र-पुत्रियों का सुख भोगकर सात सौ सत्तर वर्ष जीवित रहकर लामेक चल बसा। नोहा के तीन पुत्र हुए-शेम, हेम और जाफेय। इस तरह मानव-प्रजा में वृद्धि होते-होते उनमें बहुत अंधेर मचा, इतना अंधेर कि ईश्वर ने सोचा, 'मैंने इस पृथ्वी पर इस मनुष्य प्राणी को क्यों उत्पन्न किया।' ईश्वर ने कहा, 'मैं इन मनुष्यों का तथा सारे प्राणियों का सर्वनाश करूँगा।' परंतु एक नोहा ही ईश्वर को प्रिय था। अतः ईश्वर ने उससे कहा, 'इस पापी जगत् का मैं सर्वनाश करूँगा, परंतु तुम्हारी रक्षा करूँगा। मैं एक प्रचंड जल-प्रलय भेज रहा हूँ। तुम एक नौका तैयार करो। उसमें तुम, तुम्हारी पत्नी, संतान और बहुएँ बैठ जाओ।' नोहा ने इस आदेश का पालन किया। इसके आगे उस अद्भुत जल-प्रलय का विस्तृत वर्णन दिया गया है। वह जल-प्रलय इतना बढ़ा कि उसमें पर्वत-शिखर, पदार्थ तथा समस्त मनुष्य-प्राणी डूब गए, परंतु नोहा की नैया तैरती रही। उस प्रचंड सैलाब ने डेढ़ सौ दिवसों तक पृथ्वी को डुबोए रखा। इतने में ईश्वर को नोहा का स्मरण हो आया और उसने जल का सैलाब कम किया। सागर से फूटे निर्झर तथा आकाश की खुली हुई खिड़कियाँ बंद हो गईं। तब ईश्वराज्ञा से नोहा सपरिवार पृथ्वी पर उतर गया। उसने एक यज्ञ स्थल बनाया। उसपर यज्ञ स्वरूप पशु-पक्षियों का मांस हवन किया। उस पशु-मांस, जिसका हवन हो रहा था, की सुगंध से प्रसन्न होकर ईश्वर ने कहा, 'मैं तुमसे अनुबंध करता हूँ कि मनुष्य के अपराधार्थ सारी पृथ्वी को मैं दंड नहीं दूँगा। मनुष्य स्खलनशील है। पुनः कभी जल-प्रलय नहीं होगा, भयभीत मत होना। इसके चित्र स्वरूप देखो, मैं आकाश में इंद्रधनुष का उदय करता हूँ। यही मेरा आश्वासन है।'

(अध्याय-९)

इसके पश्चात् नोहा ने खेती-बाड़ी सँभाली, अंगूर के पौधे लगवाए। एक दिवस अधिक मदिरा का सेवन करने के कारण नोहा अपने तंबू में नग्नावस्था में धुत्त पड़ा रहा। उसके पुत्र हेम ने यह दृश्य देखा। उसके अन्य दोनों पुत्रों ने वस्त्र लेकर उस तरफ से अपना मुँह फेरकर बिना देखे हुए नोहा के शरीर पर वस्त्र डाल दिया। नोहा ने चेतना लौटने पर हेम को, जिसने उसे नग्नावस्था में देखा था, शाप दिया। नौ सौ पचास वर्षों तक जीने के पश्चात् नोहा की मृत्यु हो गई। (इसके आगे दसवें अध्याय में पुत्रों के वंश-विस्तार प्रस्तुत किए गए हैं।)

अध्याय-११

भाषाओं में फूट

उस समय सारी पृथ्वी एकभाषी ही थी। सभी मानव प्राणी एक ही बोली बोलते थे। शिनार के मैदान में इन मानवों के उतरने पर (ख्रि. पू. : २५०० के वर्ष के अवसर पर यहूदीय गणना) उन्होंने कहा, 'चलो, हम ईंटें बनाएँगे, उन्हें भूनेंगे और इतना ऊँचा स्तंभ तथा नगर का निर्माण करेंगे जो स्वर्ग तक पहुँच सकता है।' जब ईश्वर वह नगर और कीर्ति स्तंभ देखने आ गए तब उन्होंने कहा, 'अरे, इन सारे प्राणियों का एका हो गया, वे एक ही बोली बोलते हैं। इसका यह परिणाम है कि यदि वे ऐसा ही करने लगे, यह इसी तरह चलता रहा तो मानव प्राणी कुछ भी कर सकता है। नहीं, नहीं, मझे नीचे जाकर उनमें यों फूट डालनी होगी कि एक की बोली दूसरा न समझ पाए। और ईश्वर ने वैसे ही किया। इसीलिए उस स्थान को 'बाबेल' कहा जाता है, क्योंकि उधर से ही ईश्वर ने एक भाषा तोड़कर परस्पर भिन्न अनेक भाषाओं का निर्माण किया और सभी को विभिन्न दिशाओं में बिखेर दिया।

पैगंबर अब्राहम और उसकी पत्नी सराई की कथा

अब तेराह की वंश तालिका इस प्रकार है-तेराह के तीन पुत्र-अब्राहम, नाहर और हारन। 'लॉट' को जन्म देने के पश्चात् हारन चल बसा। अब्राहम ने ब्याह किया। उसकी पत्नी का नाम सराई था। अब्राहम का पिता दो सौ पाँच बरस जीकर चल बसा। तब प्रभु ने अब्राहम से कहा, 'तुम अपने पिता के देश को तथा घरबार को छोड़ दो और जहाँ मैं कहता हूँ वहाँ चले जाओ। मैं तुम्हारे लिए एक विशाल राष्ट्र बनाऊँगा, तुम्हारे नाम का सर्वत्र डंका बजेगा। जिसे तुम आशीर्वाद दोगे, उसे मैं आशीर्वाद दूँगा और जिसे तुम अभिशाप दोगे, उसे मैं भी अभिशाप दूँगा।' प्रभु के इस कथनानुसार अब्राहम अपनी पत्नी सराई तथा भतीजे लॉट के साथ घर छोड़कर निकल पड़ा। घूमते-घूमते बोथल पहुँचकर उसने वहाँ पर तंबू खड़ा किया। उधर एक यज्ञ स्थल बनाकर उसने प्रभु से प्रार्थना की। इसके आगे की यात्रा में अब्राहम अकाल में फँस गया। अंत में उसने मिस्र देश का रुख अपनाया।

अध्याय-१२

पत्नी को भगिनी कहा!

और वह मिस्र के समीप आ गया। वहाँ उसने अपनी पत्नी सराई से कहा, 'देखो, तुम देखने में लाखों में एक हो--यह मैं जानता हूँ। अतः मेरे विचार से मिस्र पहुँचने पर जब वहाँ के लोग तुम्हें देखेंगे तो वे कहेंगे, यह तो उसकी पत्नी है। और इसी कारणवश वे मुझे जान से मार डालेंगे, पर तुम्हारे प्राण नहीं लेंगे। अतः हे भार्ये, कृपा करो और तुम सभी से कहो, तुम मेरी भगिनी हो, फिर तुम्हारे रूप के प्रभाव से मेरे दिन सुख से कटेंगे और यह ऐसा होगा जैसे तुमने ही मुझे जीवनदान दे दिया हो।'

इसके पश्चात् हुआ यह कि मिन देश में प्रवेश करते ही वहाँ के लोगों ने देखा, यह स्त्री अत्यंत सुंदर है। वहाँ के राजा फराओ तक उसके रूप-लावण्य की कीर्ति पहुँच गई और राजा ने उसे अपने अंतःपुर में ले लिया।

उसके प्रभाववश फराओ ने अब्राहम के साथ भी अच्छा व्यवहार किया। भेड़-बकरियाँ, बैल, गधे तथा दास-दासियाँ-इस तरह विपुल संपदा राजा द्वारा अब्राहम को प्रदान करने के कारण उसके तो पौ बारह हो गए।

परंतु आगे चलकर प्रभु ने फराओ, जिसने सराई को अपने अंत:पुर में प्रवेश दिया था-के घर-द्वार पर एक संक्रामक रोग भेज दिया। तब अब्राहम को बुलाकर फराहो ने कहा, 'अरे, यह तुमने क्या किया? तुमने मुझे बताया क्यों नहीं कि यह तुम्हारी पत्नी है? यह कहकर कि यह तुम्हारी भगिनी है, तुम मुझे धोखा न देते तो मैं उसे अपनी पत्नी नहीं बनाता। चलो, जो हुआ सो हुआ। अब तुम अपनी पत्नी को सँभालो और अपना रास्ता नापो।' यह कहते हुए अब्राहम को उसकी पत्नी लौटाते हुए इससे पहले दी हुई विपुल संपत्ति के साथ उसे रवाना किया। (अध्याय-१२)

अध्याय-१३

अब्राहम अपने भतीजे लॉट के साथ मिस्र से निकल पड़ा। दोनों ही धन-धान्य और पशु धन से संपन्न थे। एक दिवस लॉट और अब्राहम के गड़रियों में आपस में अनबन हो गई। तब अब्राहम ने कहा, 'हम संतोषपूर्वक अलग होंगे' और लॉट को जो दिशा प्रिय प्रतीत हुई, उस दिशा की ओर अपने दास-दासियों तथा चौपायों के साथ चला गया।

तब प्रभु ने अब्राहम से कहा, 'उठो और इन चारों दिशाओं की ओर दृष्टि डालो। तुम्हारे दृष्टि पथ में जितने प्रदेश आ रहे हैं-वह सारा-का-सारा तुम्हें और तुम्हारी संतति को ही सदा के लिए दूँगा। तुम्हारी संतति मैं इस प्रकार दिन दूनी रात चौगुनी करूँगा जैसे धूलि के कण। चलो उठो, इस सारे प्रदेश की लंबाई और चौड़ाई तक चलते रहो, क्योंकि यह सारा प्रदेश मैं तुम्हें ही दे दूँगा।' अब्राहम ने वैसा ही किया और माने नामक स्थान पर अपना डेरा डाल दिया। ईश्वर का पूजा स्थल बनाया, परंतु यह सुनकर कि लॉट को अपने पत्नी-पुत्रों के साथ शत्रु ने कैद कर लिया है, अब्राहम ने शत्रु पर आक्रमण करके लॉट और उसके परिवार को मुक्त किया। (अध्याय-१५)

अध्याय-१५ से १६

निस्संतान अब्राहम और सराई की चिंता

एक दिन प्रभु ने अब्राहम से कहा, 'तुम भयभीत मत होना। मैं तुम्हारी ढाल हूँ।' अब्राहम ने कहा, 'परंतु हे प्रभु, मेरी कोई संतान नहीं है। किसी दूसरे की संतान मेरी उत्तराधिकारी बनेगी।' प्रभु ने कहा, 'नहीं, तुम्हारी कोख से उत्पन्न संतान ही तुम्हारी उत्तराधिकारी बनेगी। मैंने तुम्हें खाल्डी के 'अर' में से लाकर यह प्रदेश दे दिया। जाओ, एक बछिया, एक गौ, एक बकरा और एक पक्षी मारकर उन्हें हवन में बलि चढ़ाओ। तुम्हारी संतान को मैंने मिस्र से लेकर यूक्रेटिस तक सारा राज सदा के लिए दे दिया है।' सराई ने अपने पति अब्राहम से कहा, 'देखो, प्रभु ने मुझे बाँझ बनाया है। मेरी कोख कभी हरी नहीं होगी। अब कम-से-कम ऐसा करो कि मेरी दासी 'हगर' जो मिस्र से लाई गई है-उसे मैं तुम्हें सौंपती हूँ। बड़ी सुंदर है वह। तुम उससे संबंध बनाओ, ताकि तुम्हारी संतान हो। इससे हमारा निर्वंश नहीं होगा।'

अपनी पत्नी की दी हुई दासी के साथ अब्राहम ने संबंध बनाया। उस दासी के पाँव भारी हो गए, परंतु गर्भवती होते ही वह अपनी स्वामिनी सराई का तिरस्कार करने लगी। तब सराई ने अब्राहम से कहा, 'मेरे अपमान का दोष अब तुम्हारे सिर पर है। मैंने अपनी दासी तुम्हारे अभिसार के लिए दी, लेकिन अब गर्भवती होते ही वह मुझे फूटी आँखों से भी नहीं देख सकती। अब ईश्वर ही हमारा न्याय करे।' परंतु अब्राहम ने कहा, 'देखो, यह तुम्हारी दासी है न! इसका जो कुछ करना है, वह तुम्हारे ही हाथ में तो है।' फिर सराई हगर के साथ कठोर व्यवहार करने लगी। तब वह भाग गई। वह जब जंगल में भटक रही थी तब उसे एक देवदूत मिला। उसने कहा, 'तुम कहाँ भटक रही हो? तुम्हारी कोख में पुत्र है। उसका वंश बहुत फैलेगा।' आगे चलकर हगर को पुत्र प्राप्ति हो गई। अब्राहम ने उसका नाम 'इस्माईल' रखा। तब अब्राहम की आयु थी छिहत्तर वर्ष।

प्रभु ने कहा, 'अब पत्नी सराई को तुम 'सरा' नाम से संबोधित करो। मैं उसे भी पुत्र दूँगा। उसे भी पुत्र की प्राप्ति होगी और मेरे आशीर्वाद से वह राष्ट्रमाता बनेगी। लोकाधीश, राजा-महाराजा उसकी कोख से जन्म लेंगे।' तब अब्राहम ने हाथ जोड़कर मन-ही-मन कहा, 'क्या कहा, जिसने सौ वर्ष पार कर लिये हैं उसे पुत्र प्राप्ति होगी और नब्बे बरस की बूढ़ी सराई की कोख हरी होगी। प्रभु, मेरा एकमात्र पुत्र इस्माईल है-उसे ही दीर्घायु प्रदान करो।' तब प्रभु ने कहा, 'सराई को अवश्य पुत्र प्राप्ति होगी। उसका नाम ऐजौक रखो और मैं इस्माईल को भी सँभालूँगा। उसकी वंश वृद्धि होगी। उसकी कोख से बारह राजाओं का जन्म होगा।'

परंतु सरा ठहरी वृद्धा। वह मन-ही-मन हँस पड़ी। भला इस बुढ़ापे में अब मुझे क्या यह सब शोभा देगा! मेरा पति भी बूढ़ा। यह ज्ञात होते ही ईश्वर ने पूछा, 'सरा, तुम हँस क्यों पड़ी? ऐसी कौन सी वस्तु है जो ईश्वर के लिए असंभव है?' यह सुनकर उसने यह बात साफ नकारी कि वह हँस पड़ी थी। प्रभु ने कहा, 'नहीं! तुम हँस पड़ी थीं।'

अध्याय-१९

देवप्रिय लॉट को निजी कन्याओं से पुत्र प्राप्ति

इधर प्रभु के सोडम नगर का विनाश करने के उपरांत अब्राहम का भतीजा, जिसे इस विनाश से बचाकर बाहर निकाला था, देवप्रिय लॉट अपनी दोनों कन्याओं को ही लेकर किसी पर्वत की एक गुफा में रहता था। वे दोनों कन्याएँ उपवर (विवाह योग्य) थीं, वे किसी पुरुष को जानती ही नहीं थीं।

अत: ज्येष्ठ कन्या ने अपनी अनुजा से कहा, 'देखो, अब हमारे पिताश्री वृद्ध हो गए हैं, लेकिन उनके कोई पुत्र संतति नहीं है। हम दोनों अकेली हैं। समाज की प्रथा के अनुसार ऐसा एक भी पुरुष नहीं मिलेगा जो हमें अपना साथी बनाएगा। अत: चलो, हम अपने पिता को मदिरा पिलाएँगे और उसके पश्चात् हम स्वयं ही अपने महान् पिता का बीज जतन करेंगी।'

इस प्रकार लॉट की दोनों कन्याएँ अपने पिता से गर्भवती हो गईं। ज्येष्ठ कन्या का पुत्र ही 'मोआब' और कनिष्ठ कन्या का पुत्र 'बेनआमी' हुआ। पहला वर्तमान मोआबाईट जाति का पूर्वज, दूसरे का वंश वर्तमान ओमॉन जाति है। (अध्याय १९, श्लोक ३० से ३८)

सरा को पुत्र प्राप्ति,सरा का सौतियाडाह

इधर प्रभु ने सरा से भेंट की। प्रभु ने उसके लिए वही किया जो उसने कहा था। वह गर्भवती हो गई। अब्राहम अब सौ वर्ष का हो गया था और उसकी पत्नी सरा को पुत्र प्राप्ति हो गई। उसका नाम ऐजाक रखकर ईश्वर के आदेश के अनुसार आठवें दिन उस पुत्र की सुंता की; परंतु इतनी वृद्धावस्था में सरा के पुत्र हुआ देखकर इस्माईल, जो हगर दासी का अब्राहम से उत्पन्न पुत्र था, हँस पड़ा। यह देखते ही सरा का पारा चढ़ गया और उसने अब्राहम से कहा, 'इस बाँदी को तथा इसके पुत्र को अभी इसी समय घर से निकाल दो। मेरे पुत्र के साथ वह भी तुम्हारा उत्तराधिकारी नहीं होना चाहिए।' यह सुनकर अब्राहम को दुःख हुआ, परंतु प्रभु ने कहा, 'तुम दुःखी मत होना, क्योंकि उस दासी पुत्र के लिए भी, जिसमें तुम्हारा बीज है, मैं एक राष्ट्र का निर्माण करूँगा।' तब एक भोर अब्राहम उठा। पानी का एक पात्र, रोटी का टुकड़ा और उस बालक को हगर को सौंपकर उसे घर से बाहर निकाल दिया।

हगर वहाँ से निकल पड़ी। वह जंगल में घूमती-फिरती आगे बढ़ रही थी। उसके पास जो जल था वह भी समाप्त हो गया। कहीं भी जल के चिह्न दिखाई नहीं दे रहे थे। तब उस बालक को झाड़ियों के नीचे रखकर दूर जाकर वह रोने लगी। उसका रुदन सुनते ही एक देवदूत प्रकट हो गया। उसने कहा, 'तुम क्यों रो रही हो? तुम्हें क्या हुआ है? तुम अपने पुत्र को उठाओ। प्रभु तुम्हारे साथी हैं। उसके लिए एक राष्ट्र होगा।' यह सुनकर हगर ने अपने पुत्र को उठाया। प्रभु ने हगर के नेत्र खोले, उसने देखा तो निकट ही पानी का एक कुआँ था। उसने पुनः पानी का पात्र भरा और वह आगे बढ़ी। उस बालक को उसने जंगल में ही पाल-पोसकर बड़ा किया। वह एक निपुण धनुर्धर हो गया। मिस्र की एक कन्या से उसका विवाह हो गया। (अध्याय-२१)

अब्राहम पुत्र का बलिदान करने जाता है

आगे चलकर ऐसा हुआ कि ईश्वर के मन में विचार आया कि अब्राहम की परीक्षा ली जाए। ईश्वर ने आवाज दी, 'अब्राहम!' 'हाँ जी!' अब्राहम ने उत्तर दिया। ईश्वर ने कहा, 'तुम्हारा पुत्र-तुम्हारा इकलौता पुत्र ऐजाक, तुम्हारा प्रिय-उसे लेकर मोरिया पहाड़ पर जाओ और हवन के साथ उसे मुझपर बलि चढ़ाओ।'

अब्राहम सवेरे उठा। हवन की लकड़ियाँ और गधे पर सवार होकर पुत्र के साथ वह उस पर्वत की ओर गया। पर्वत आते ही वह केवल अपने पुत्र को लेकर आगे बढ़ा। बालक ने अबोधता से पूछा, 'बाबा, बलिदान के चक्र, काष्ठ, आग तो साथ ले आए, पर बकरा कहाँ है?' अब्राहम ने कहा, 'प्रभु जो देगा वही बकरा होगा।' निर्धारित स्थल पर पहुँचते ही अब्राहम ने हवन कुंड बनाया। अपना छुरा निकालकर उस बालक का कंठच्छेद करने के लिए हाथ ऊपर उठाया ही था कि इतने में देवदूत का स्वर गूँज उठा, 'अब्राहम!' अब्राहम ने उत्तर दिया, 'जी, मैं यहाँ हूँ।' प्रभु ध्वनि ने कहा, 'बालक को मत मारना। मैंने तुम्हारी परीक्षा ली। अपने इकलौते पुत्र को भी तुम बलि चढ़ा रहे हो। मुझपर तुम्हारी जो निष्ठा है, वह खरी है।' इतने में पास ही एक बकरा दिखाई दिया। अब्राहम ने उसे ही उस हवन कुंड की अग्नि में हवन किया अपने पुत्र के स्थान पर। इसलिए उस स्थान को आज भी 'जेहोवा-जिरे' ही कहा जाता है। उधर से अब्राहम वीरशेवा चला गया और वहीं पर रहने लगा। (अध्याय-२२)

साध्वी सरा की मृत्यु

उधर सरा एक सौ सत्ताईस बरस की हो गई थी। वह अब्राहम की पत्नी थी, वैसे ही भागिनी भी थी, क्योंकि यद्यपि वह अब्राहम की माता की कोखजायी नहीं थी, तथापि उसके पिता की सगी पुत्री थी। अतः पिता के नाते वह उसकी सौतेली बहन थी और उसे ही अब्राहम ने अपनी पत्नी बनाया था। जब वह बूढ़ी हो गई तब उसने मृत्युशय्या पकड़ ली और अब्राहम को दुःखी करते हुए शीघ्र ही वह चल बसी। यहाँ पर साध्वी सरा की कथा समाप्त हो गई।

लेखांक-२

अध्याय-२४

अब्राहम पैगंबर ने अपनी पत्नी साध्वी सरा के स्वर्गवास के पश्चात् अपने प्रधान प्रबंधक को बुलाकर कहा, 'आओ, अपना हाथ मेरी जाँघ के नीचे डालकर शपथ ग्रहण करो कि तुम मेरे पुत्र ऐजाक का विवाह कॅननाइट लोगों की कन्या से नहीं होने दोगे। मेरे वंश के मूल स्थान तक जाओ और उनमें से एक कन्या से मेरे पुत्र का विवाह करो। एक देवदूत तुम्हारे आगे चलकर तुम्हारा पथ-प्रदर्शन करेगा। जैसे ही पत्नी प्राप्त होगी, मेरे पुत्र को पुनः इधर ले आना। यदि वधू इधर आने से मना करे तो तुम पर दोष नहीं आएगा। तुम उसे छोड़ देना, पर हाँ, मेरे पुत्र को वापस ले आना।'

इसके अनुसार शपथ ग्रहण करते हुए उस प्रबंधक ने ऊँट की पीठ पर सारा सामान लादकर नेहार के नगर-अब्राहम के मेसापोटामिया स्थित मूल स्थान-की ओर प्रस्थान किया। उधर पहुँचते ही गाँव के बाहर संध्या समय एक कुएँ पर अपने ऊँटों को बैठाकर वह नीचे उतर गया। उधर स्त्रियाँ पानी भरने आती थीं। उस प्रबंधक ने कहा, प्रभु, ऐसा ही हो कि इस नगरी की स्त्रियाँ जब पानी भरने इधर आएँगी तब मैं जिसे कहूँगा, अपनी गगरी नीचे रखो और मुझे पानी पिलाओ, और जो मुझसे यह कहेगी 'पानी पीजिए मैं आपके ऊँटों को भी पानी पिलाती हूँ,' उसी लड़की को तुम्हें ऐजाक की पत्नी के रूप में नियुक्त करना होगा। अस्तु।

यह प्रार्थना समाप्त हुई नहीं कि आश्चर्य! अब्राहम के भाई नेहार की पोती रेबेका, जिसे आज तक किसी भी पुरुष का स्पर्श नहीं हुआ था, जो देखने में सुंदर थी, अपने सिर पर गगरी रखकर पानी भरने कुएँ पर आ गई और पानी भरने लगी। प्रबंधक ने तुरंत उसके पास जाकर कहा, 'अपनी गगरी का थोड़ा सा जल मुझे पीने के लिए दोगी?'

'पीजिए, महाराज' कहते हुए उसने घट हाथों में ले लिया और उसे जल पिला दिया। पीना समाप्त होते ही उसने कहा, 'आपके ऊँटों को पानी पिलाने के लिए भी मैं पानी निकाल देती हूँ।' उसने वह गगरी झट से पशुओं के पानी की नाँद में उडेल दी और ऊँटों को पानी पिलाया। प्रबंधक फटी-फटी आँखों से उसकी ओर देख रहा था कि कहीं प्रभु ने इसे ही नहीं भेजा हो! ऊँटों को पानी पिलाने से निपटते ही उसने सुवर्ण बालियाँ तथा सुवर्ण कंकण हाथ में लेते हुए उससे पूछा, 'पुत्री, तुम किसकी कन्या हो? क्या तुम्हारे पिता के घर हम ठहर सकते हैं?'

रेबेका ने उत्तर दिया, 'मैं नेहार की पोती हूँ। हमारे घर में विपुल जगह तथा दाना-पानी, चारा है।' रेबेका भागी-भागी घर गई। उसने अपनी माँ तथा घर के अन्य सदस्यों को सारा वृत्तांत कह डाला। इतने में रेबेका का भाई लेबन उधर आ गया और उसने रेबेका के शरीर पर उन सुवर्ण बालियों तथा कंकणों को देखा। उसने कहा, 'ठीक है।' वह स्वयं आगे बढ़ते हुए उस प्रबंधक तथा उसके सारे लोगों को अपने घर ले आया और उनका स्वागत किया।

हाथ-मुँह धोने के पश्चात् लेबन ने उन लोगों को भोजन के लिए बुलाया। उनकी थालियों में स्वादिष्ट मांस परोसा, परंतु प्रबंधक ने कहा, 'अपने स्वामी का संदेश दिए बिना मैं एक ग्रास भी नहीं लूँगा। क्या मैं संदेश दे सकता हूँ?' अनुमति प्राप्त होते ही वह कहने लगा कि मेरे स्वामी अब्राहम ने अपनी सरा साध्वी से उत्पन्न पुत्र का विवाह आपके कुल की किसी कन्या से रचाने का आदेश दिया है। अब्राहम के पिता का घर ही आपका घर है। देवदूत ने मुझे पथ-प्रदर्शन किया। कुएँ पर मैंने प्रभु से प्रार्थना की कि जिस वधू को आपने इस पुत्र के लिए नियोजित किया हो, वही मुझे पानी पिलाए। उसके अनुसार इस कुमारिका ने मुझे पानी पिलाया और मैंने ये सुवर्ण कंकण इसके हाथों में पहनाए। अतः मेरे स्वामी अब्राहम के भाई की यह कन्या रेबेका अब्राहम के इस पुत्र को देंगे तो मैं आपका बड़ा आभारी रहूँगा। यदि आपकी अनुमति नहीं है तो वैसा बताइए।'

उसका संदेश सुनकर लेबनान ने कहा, 'यदि प्रभु की यही इच्छा है तो भला हम क्या कहें? यह देखिए, रेबेका सामने ही खड़ी है। उसे ले जाकर अब्राहम के पुत्र के हाथ में उसका हाथ दे दीजिए। हमें कोई आपत्ति नहीं है।'

यह सुनते ही प्रभु वंदना के साथ प्रबंधक ने रेबेका को रत्नजटित सुवर्ण-चाँदी के आभूषण दिए, उसके भाई तथा दादी को अनमोल उपहार अर्पण किए। सभी ने वह रात खान-पान तथा विश्राम के साथ बिताई। सुबह होते ही अब्राहम का वह व्यवस्थापक उठकर कहने लगा, 'अब हमें अनुमति दीजिए। आपकी कन्या के साथ हम प्रस्थान करते हैं। रेबेका को माँ तथा भाई ने अनुरोध किया, 'कुछ दिन इधर ही रहिए न! कम-से-कम दस दिन। फिर कन्या को ले जाइएगा।' परंतु प्रबंधक ने कहा, 'मुझे तो जाना ही होगा।' रिबेका के संबंधियों ने कहा, 'हम कन्या को ही बुलाते हैं और उसीके मुख से उसकी राय सुनेंगे।' उसके अनुसार उन्होंने उसे बुलाया और पूछा, 'पुत्री, क्या तुम आज ही इनके साथ जाने के लिए तैयार हो?' उसने कहा, 'जी हाँ, मैं अवश्य जाऊँगी।' तब उसके परिवारवालों ने रेबेका को उसकी धाय माँ के साथ ससुराल भेजा। जाते समय अपनी कन्या को आशीर्वाद देते हुए कहा, 'जाओ पुत्री, चली जाओ। तुम जिस तरह हमारी भगिनी हो, उसी तरह अनगिनत संतानों की माता भी बनो और वे सदा उनसे विजयी हों जो तुम्हारे पुत्र-पौत्रों से जलते हैं।' रेबेका यात्रा पर निकल पड़ी। उसे अपने लोगों के साथ ऊँट पर बैठाकर सामान के साथ वह प्रबंधक अब्राहम के पास जाने लगा। इधर ऐजाक, संध्या समय खेतों में प्रार्थना करने आया तो उसने देखा-ऊँटों का झुंड लौटकर आया है। रेबेका ने अपने सेवकों से पूछा, 'ये महाशय कौन हैं?' उन्होंने कहा, 'यही तुम्हारे स्वामी हैं।' तब ऊँट से नीचे उतरते हुए उसने आँचल सँवारा, अपना संपूर्ण शरीर ढक लिया। इसके पश्चात् प्रबंधक ने ऐजाक को समग्र वृत्तांत बताया। ऐजाक रेबेका को अपने तंबू में ले आया और उसने अपनी पत्नी के रूप में उसको स्वीकार किया। तब ऐजाक की आयु चालीस वर्ष थी।

अध्याय-२५

अब्राहम पैगंबर का स्वर्गवास

सरा साध्वी की मृत्यु के पश्चात् सवा सौ वर्षों से ऊपर पहुँचे पैगंबर अब्राहम ने केढूस नामक स्त्री से विवाह किया। उससे उसे अनेक पुत्रों की प्राप्ति हुई। इसके अतिरिक्त अब्राहम की रखैलों की भी संतति हुई थी। उन सभी को यथोचित उपहारों के साथ अब्राहम ने उन्हें देश-विदेशों में भेज दिया था। प्रमुख उत्तराधिकार ऐजाक को सौंपते हुए अपनी आयु के १७५वें वर्ष में अब्राहम ने प्राण त्याग किया।

पैगंबर ऐजाक और रेबेका की कथा

रेबेका को संतति की प्राप्ति नहीं हो रही थी। अतः ऐजाक ने प्रभु से प्रार्थना की। प्रभु के आशीर्वाद से रेबेका को जुड़वाँ संतति प्राप्त हुई। ज्येष्ठ पुत्र ईसा झवरा था, कनिष्ठ भाई जेकब बहुत सीधा-सादा था। ऐजाक ईसा से प्रेम करता था और रेबेका जेकब से।

आगे चलकर महा अकाल पड़ गया। तब साक्षात् प्रभु ऐजाक के सामने आकर कहने लगे, 'उस देश के लिए प्रस्थान करो जहाँ मैं कहता हूँ। मैं तुम्हें और तुम्हारे वंश को यह देश दे दूँगा। मैं अब्राहम से किया हुआ अपना अनुबंध पूरा करूँगा। तुम्हारा वंश असंख्य रूप से परिवर्धित होगा-जैसे गगन के तारे।' तब पैगंबर ऐजाक जेजार देश में चला गया।

ऐजाक पैगंबर भी पत्नी को भगिनी समझता है

जेरार आते ही ऐजाक पैगंबर की भी वैसी गत बन गई जैसे पहले अब्राहम की बनी थी। लोग पूछने लगे, 'यह स्त्री तुम्हारी क्या लगती है?' तब उसे अपनी पत्नी के रूप में न कहते हुए ऐजाक ने बताया, 'यह मेरी भगिनी है।' क्योंकि उसे भय था कि देखने में सुंदर रेबका को यदि वह पत्नी कहे तो उसे भगाने के लिए उस देश के लोग मुझे मार डालेंगे।

परंतु एक दिन ऐसा हुआ कि फिलीस्तीन का राजा अभिमलेक ने अचानक अपनी खिड़की से देखा कि ऐजाक बड़े प्रेम से रेबेका से आलिंगन कर रहा है। उसने ऐजाक को बुलाकर कहा, 'यह क्या? यह तुम्हारी पत्नी ही होगी। फिर इसे भगिनी क्यों कहा?' तब ऐजाक ने स्पष्ट किया, प्राणों के भय से मैंने असत्य वचन कहा।' अभिमलेक ने कहा, 'मेरे लोगों में से किसीने इसके साथ संभोग किया तो? क्या यह पाप तुमने हमपर नहीं थोपा होता?' इतना कहते हुए उस राजा ने प्रजा को चेतावनी दी, 'कोई भी रेबेका अथवा ऐजाक को तंग न करे।' (अ. २६)

इसके पश्चात् खेती-बाड़ी करके ऐजाक संपन्न बन गया। कुछ दिनों के पश्चात् उसकी बढ़ती हुई सामर्थ्य को देखकर फिलीस्तीन के राजा ने उसे वह देश छोड़कर चले जाने का आदेश दिया।

कुछ समय के पश्चात् ऐजाक वृद्ध होने लगा और उसकी दृष्टि धुँधली हो गई। तब उसने अपने प्रिय पुत्र ईसा को पास बुलाकर कहा, 'देखो पुत्र, अब मेरा कोई भरोसा नहीं। अतः आज एक बार तुम अपने हाथों से मारे हुए शिकार का मांस पेट भर खाने की मेरी कामना पूरी करो। अतः तुम स्वयं शिकार करके स्वादिष्ट मांस खिलाओ। मैं तुम्हें आशीर्वाद दूँगा।' पिता के आदेशानुसार उसका ज्येष्ठ पुत्र ईसा धनुष-बाण सँभालते हुए आखेट के लिए निकल पड़ा।

वृद्ध ऐजाक का कथन रेबेका को नहीं भाया, क्योंकि उसकी प्रीति अनुज पर थी। उसने गुपचुप उसे बुलाया और कहा, 'जेकब, तुम्हारे अग्रज को तुम्हारे पिता ने शिकार के लिए भेजा है और वे उसे ही संतुष्ट होकर वरदान देंगे। अतः तुम ऐसा करो-मैं तुम्हें अत्यंत स्वादिष्ट व जायकेदार मांस पकाकर देती हूँ, वह तुम अपने भाई ईसा होने का नाटक करते हुए ऐजाक को दे देना, उसे पेट भर खिलाना फिर वह जो वरदान देना चाहता है, वह तुम्हें ही प्राप्त होगा।' जेकब ने कहा, 'बाबा देख नहीं सकते, तथापि स्पर्श कर सकते हैं। मेरा अग्रज झवरा है। अत: उसका स्वाँग कर यदि मैं आगे बढ़ा तो हो सकता है कि वे मेरे शरीर पर हाथ फेरकर टटोलेंगे और मेरे बाल घने न होने के कारण मेरी पोल खुल जाएगी।'

रेबेका ने कहा, 'भयभीत न हो। मैं ईसा का यह कुरता तुम्हें पहनाती हूँ। तुम बकरे की झबरी चमड़ी के दस्ताने पहनो। यह लो मांस, ये रहे रोट और उससे पूर्व कि तुम्हारा भाई शिकार से लौटे, तुम अपने पिता के पास चले जाओ।' उसके अनुसार जेकब चला गया। उसके आने पर वृद्ध पैगंबर ऐजाक को प्रतीत हुआ, ईसा ही आया है। उस नेत्रहीन पिता ने हर्षित होते हुए उससे कहा, 'ईसा, आओ। मुझसे मिलो, आओ पुत्र, यह मृगया तुम्हें इतनी शीघ्र कैसे मिली?' जेबक ने ईसा की आवाज में कहा 'प्रभु की इच्छा! बाबा, अब उठो और भोजन करो।' ऐजाक ने कहा, 'मेरे समीप आ जाओ पुत्र, मैं तुम्हें छूकर देखता हूँ कि तुम ईसा ही हो या नहीं।' जेकब उस अंधे वृद्ध के निकट आ गया। ऐजाक ने उसे टटोलकर देखा और कहा, 'कंठ स्वर तो जेकब का है, पर हाथ ईसा का है (क्योंकि उसपर घने बाल वाले दस्ताने जो थे और ईसा झबरा था।) तब पैगंबर ऐजाक ने धोखे में आ उसे ही ईसा समझकर जेकब को कसकर गले लगाया। उसे चूमा, प्रेमपूर्वक उसके वस्त्रों का अवप्राण किया, पेट भर मांस भक्षण किया और उसे वरदान दिया, 'जाओ पुत्र, तुम्हारे सारे बंधु तुम्हारे अंकित होंगे। जो तुमसे विद्वेष करेंगे उनका सर्वनाश होगा। तुम फूलो-फलो, सुख-समृद्धि में नहाओ। कई राष्ट्र तुम्हारे सामने शीश नवाएँगे।'

वृद्ध ऐजाक का आशीर्वाद कपट से लेकर जेकब लौटा ही था कि ईसा स्वयं शिकार करके पकाया हुआ मांस लेकर अपने पिता के पास आ गया। तब कहीं ईसा और अंधे पिता ने गौर किया कि जेकब किस तरह पिता का वरदान धोखे से उड़ाकर चला गया। वे दोनों अत्यंत शोकाकुल हो गए; परंतु जो वरदान प्रदान करने की दैवी शक्ति पैगंबर ऐजाक में थी, उस वरदान को वह जेकब को दे चुका था। यह देखकर ईसा को बहुत दुःख हुआ।

इस प्रकार दोनों बंधुओं का मनमुटाव चरम सीमा तक पहुँच गया अवसर मिलते ही ईसा ने जेकब की हत्या की एक योजना बनाई। यह जानकर रेबेका भयभीत हो गई और उसने जेकब से यह कहकर कि 'मेरे पीहर जाकर उधर ही किसी कन्या से ब्याह रचाकर तब तक अपने प्राण बचाओ, जब तक यहाँ का संकट दूर नहीं होता।' उसने जेकब को ईसा की नजर से बचाते हुए भेज दिया।

जेकब का राशेल से विवाह

अपने मामा के घर जाते समय मार्ग में पाषाण का सिरहाना बनाकर सोए हुए जेकब को स्वप्नावस्था में एक दिव्य दृश्य दिखाई पड़ा। एक सीढ़ी पृथ्वी से सीधे स्वर्ग तक पहुँची है और देवदूत उसपर आरोहण कर रहे हैं। अहो आश्चर्य! साक्षात् प्रभु ऊपर खड़े कह रहे हैं, 'जेकब, मैं अब्राहम का ईश्वर, ऐजाक का ईश्वर हूँ। जिस भूमि पर तुम खड़े हो, वह सारी भूमि मैं तुम्हें और तुम्हारे वंशजों को दे दूँगा। तुम्हारा चारों दिशाओं में वंश विस्तार होगा।' जेकब ने स्वप्न से जागकर उठते ही कहा, 'अहो आश्चर्य! यही है स्वर्ग-द्वार! यही है वह पुण्यभूमि! अपने सिर का पाषाण उसने उस साक्षात्कार की स्मृति के रूप में वहीं खड़ा किया और उसपर तेल डाला 'यह स्तंभ प्रभु का गेह होगा।' इस तरह की भावना के साथ जेकब आगे बढ़ा।

अध्याय-२८

चलते-चलते वह एक कुएँ के निकट आ गया। कुछ गड़रिए अपनी भेड़-बकरियों को वहीं पर पानी पिलाया करते थे। जेकब ने उनसे कहा, 'मित्रो, आप कहाँ के रहनेवाले हैं?' उन्होंने कहा, 'हम हेरन गाँव के हैं।' 'तो फिर लेबनहार के पुत्र को तुम लोग जानते हो?' 'जी हाँ, हम उनसे परिचित हैं।' 'उन लोगों का कुशल तो है?' 'सब कुशल है।' इस तरह प्रश्नोत्तर हुए।

इतने में एक बालिका अपनी भेड़ों के साथ उधर आ गई। उन्होंने कहा, यह 'राशेल लेबन की पुत्री है।' यह सुनते ही जेकब ने राशेल का आलिंगन किया, उसे चूम लिया और उसके नेत्रों में हर्ष के आँसू छलकने लगे। उसने कहा, 'तुम्हारे पिता का भाईबंद हूँ। अरी, मैं ही लेबन की भगिनी रेबेका का पुत्र हूँ।' यह सुनते ही राशेल ने जल्दी से अपने घर जाकर संदेश पहुँचाया। तब लेबन दौड़ा-दौड़ा आया और अपने भगिनी-पुत्र को अपनी बाँहों में भींचकर चूम लिया। वह उसे अपने घर ले आया और महीने भर अपने घर ठहराया। फिर लेबन ने कहा, 'जेकब, यद्यपि तुम मेरे संबंधी हो, तथापि मेरे घर में जो काम कर रहे हो, उसका तुम्हें कुछ-न-कुछ वेतन देना ही उचित है। बोलो, तुम्हें कितना वेतन चाहिए?'

लेबन की दो पुत्रियाँ थीं-ज्येष्ठ-ली और छोटी-राशेल। ली के नेत्र सौम्य थे, वह सीधी-सादी थी। राशेल सुंदर और सुभगा थी। जेकब को वही प्रिय थी।

इसलिए जेकब ने उत्तर दिया 'मेरा वेतन राशेल है। वह मुझे दोगे तो मैं सात वर्ष तुम्हारी चाकरी करूँगा।' उसी के अनुसार जेकब ने सात वर्ष नौकरी की। वे सात वर्ष उसके लिए ऐसे बीते जैसे सात दिन। वह राशेल से उतना ही उत्कट प्रेम करता था।

फिर जेकब ने लेबन से कहा, 'अब मेरी पत्नी राशेल मुझे दे दो। मैंने अपना अनुबंध पूरा किया है। नौकरी के सात वर्ष पूरे हो गए हैं। अब राशेल मेरी हो गई। उसके साथ संभोग करने की अब मुझे अनुज्ञा दीजिए।'

फिर लेबन ने सभी लोगों को इकट्ठा करके महाभोज का आयोजन किया। परंतु रात्रि में लेबन ने अपनी कन्या ली को ही जेकब के कक्ष में भेजा और दोनों का संभोग हो गया। भोर होने पर जेकब ने देखा, यह तो ली है। जेकब ने तुरंत अपने मामा से पूछा, 'तुमने यह क्या किया? मैंने तो कनिष्ठ पुत्री राशेल के लिए आपकी चाकरी की थी। तो फिर ज्येष्ठ कन्या को रात में भेजकर तुमने मुझे धोखा क्यों दिया?' तब लेबन ने कहा, 'हमारे देश में ज्येष्ठा से पहले कनिष्ठा का विवाह नहीं करते। अब तुम ली का सप्ताह पूरा करो। फिर राशेल के लिए सात वर्ष नौकरी करने पर तुम्हें वह भी प्राप्त होगी।'

तब जैसाकि तय हुआ, जेकब ने अपनी ममेरी भगिनी 'ली' से आठ दिन संभोग किया। फिर सात वर्ष नौकरी के अनुबंध पर उसकी छोटी बहन राशेल को भी उसे दिया गया। ली से भी अधिक जेकब इससे प्रेम करता था। अत: उसके संग सुख से उसे दूसरे सात वर्ष की नौकरी का कुछ अधिक कष्ट नहीं हुआ।

भगिनियों में प्रसव की होड़

परंतु जब प्रभु ने गौर किया कि जेकब ली से घृणा करता है तब उसने ली की कोख भर दी। राशेल की कोख सूनी ही रही। ली गर्भवती हुई और उसने एक पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम उसने रूबन रखा। ली ने सोचा, 'ईश्वर ने मुझे पुत्र दिया है। अब तो मेरा पति केवल मुझसे ही प्रेम करेगा।'

ली के पाँव पुनः भारी हो गए और उसने दूसरे पुत्र को जन्म दिया। पुनः वह पेट से रही। उसने तीसरे और चौथे पुत्र को भी जन्म दिया। इसके पश्चात् उसे गर्भ नहीं रहा।

अब जब राशेल ने देखा कि उसे हर कोई बाँझ कहता है, तब वह अपनी बहन से जलने लगी। उसने जेकब से अनुरोध किया, 'मुझे या तो बच्चा दो या मैं अपने प्राण त्याग करती हूँ।'

जेकब ने क्रोध से उबलते हुए राशेल से कहा, 'अरे, भगवान् ने तुम्हारी कोख बाँझ रखी या मैंने!' राशेल ने कहा, 'यह देखो, मेरी दासी बिला। इसके साथ संभोग करो। वह मेरी गोद में ही प्रसूत होगी अर्थात् वह बच्चा मेरा होगा। (प्राचीनकाल में गुलाम दास-दासियों की संतति भी उसके स्वामी की ही संपत्ति समझी जाती थी।)

इसके अनुसार जेकब ने बिला के साथ संभोग किया। बिला ने भी पुत्र को जन्म दिया। तब राशेल का मन प्रसन्न हो उठा। उसने कहा, 'प्रभु ने मेरी प्रार्थना सुनी, मुझे भी पुत्र प्राप्ति हो गई। इसका नाम 'दान' रखो।' बिला पुनः गर्भवती हो गई। उसने दूसरे पुत्र को जन्म दिया।

अब ली के छक्के छूटे। उसका संतति जनना बंद हो गया था और राशेल की कोख खुल चुकी थी। अतः ली ने भी अपनी दासी झिल्फा को जेकब की संगिनी बनने के लिए भेज दिया। झिल्फा भी गर्भवती हुई और उसने भी एक पुत्र को जन्म दिया। तब ली प्रसन्नता से झूम उठी, 'देखा कि पूरी सेना आ रही है-पुत्र-ही-पुत्र।'

एक दिन क्या हुआ कि ली का एक पुत्र एक कंद ले आया। राशेल के मन में उसकी ललक उठी। उसने ली के पास से उस कंद की माँग की। तब ली ने तुनककर कहा, 'पहले ही तुमने मेरे पति का प्रेम छीन लिया है। क्या इतना पर्याप्त नहीं है? अब इस कंद को भी छीनना चाहती हो।' तब राशेल ने कहा, 'इस कंद के बदले में मैं जेकब को एक रात्रि के लिए तुम्हारे पास भेजूँगी, पर वह कंद मुझे दे दो।' दोनों में यह तय हुआ। चौपायों तथा भेड़-बकरियों को चराकर संध्या समय खेत से जेकब के लौटते ही 'ली' ने उसे टोका, 'आज की रात तुम्हें मेरे पास रहना होगा। एक कंद का मोल चुकाकर मैंने आज की रात के लिए तुम्हें खरीदा है।' और इस प्रकार ली पर पुनः प्रभु कृपा हो गई। बंद पड़ी उसकी कोख पुनः भर गई। यथाकाल वह प्रसूत हो गई-यह था उसका पाँचवाँ पुत्र। ली पुनः गर्भवती हो गई-यह था उसका छठवाँ पुत्र। सातवीं प्रसूति में उसने एक कन्या को जन्म दिया। उसका नाम था 'दीना।'

जब राशेल ने भी पुत्र को जन्म दिया तब जेकब ने अपने मामा लेबन से कहा, 'देखो, अब तुम्हारी दोनों कन्याओं के लिए तय किया हुआ मेरा सेवा काल पूरा हो चुका है। अब मुझे अपने सारे परिवार के साथ अपने गुरुजनों के पास जाने दो।' परंतु लेबन ने कहा, 'मैं तुम्हे मुँह माँगा वेतन दूँगा। तुम यहीं पर चौपायों तथा भेड़-बकरियों की विपुल संपत्ति सँभालो। तब उस संपत्ति से निश्चित हिस्से के तथा जाति के चौपाए एवं भेड़-बकरियाँ देने के अनुबंध के साथ जेकब वहीं नौकरी करता रहा; परंतु आगे चलकर जैसे-जैसे पशुधन, दास-दासियाँ, संतति से वह संपन्न होता गया वैसे-वैसे लेबन का उससे विलगाव होने लगा। लेबन का बदला हुआ रंग देखकर जेकब भयभीत हो गया और उसने वहाँ से खिसकने का निश्चय किया।

उसने अपनी दोनों पत्नियों-राशेल और ली को बुलाकर उन्हें अपनी योजना सुनाई। तब दोनों ने कहा, 'अब पीहर के लोग हमारे भी क्या सगे लगते हैं? वे हमें भी पराए लोगों की स्त्रियाँ समझते हैं। उनकी संपत्ति में हमारा हिस्सा नहीं। प्रत्युत तुमने हमारे लिए इतना धनार्जन किया। उसे भी हमारे पिता तथा बंधुओं ने दबा लिया, हड़प लिया। अतः हम तुम्हारे साथ चलेंगे।'

यह सुनते ही जेकब अपनी संतति, दास-दासियों, धन-धान्य के साथ अपनी स्त्रियों को ऊँटों पर सवार करके चौपायों के समूह के साथ अवसर मिलते ही लेबन के गाँव से गुपचुप खिसक गया।

कुछ काल के पश्चात् यह ज्ञात होते ही लेबन अपने आदमियों के साथ जेकब का पीछा करने लगा। अंत में उसने जेकब को पकड़ लिया और उससे कहा, 'तुम चले जाना, परंतु चोरों जैसा क्यों भाग रहे हो? और मेरे घर के मंदिर से भगवान् की मूर्तियाँ क्यों चुरा लाए हो।' जेकब ने कहा, 'यह मिथ्या आरोप है। मेरे पूरे डेरे की तलाशी ले लो।' लेबन जेकब की पत्नी तथा संतति के तंबुओं की भी तलाशी लेने लगा।

भागते समय सचमुच ही राशेल अपने पीहर से भगवान् की मूर्तियाँ चुरा लाई थी। तलाशी के समय उसने उन मूर्तियों को ऊँट पर रखी गठरियों में छिपाया और उन गठरियों को भूमि पर रखकर वह उनपर कुंडली मारकर बैठ गई। लेबन के तंबू की तलाशी लेने आते ही उसने कहा, 'आइए और अपनी पूरी तसल्ली कीजिए। आप पिता हैं, इसलिए क्षम्य हैं।' लेबन के आदमियों ने चप्पा-चप्पा छान मारा, परंतु मूर्तियाँ नहीं मिली।

तब जेकब लेबन पर ताव खाने लगा। लेबन भी खिसिया गया। अंत में दोनों ने पिछला सबकुछ विस्मृत करते हुए एक-दूसरे से विदा ली। पत्थरों की राशि रचकर उसे साक्षी मानकर उन दोनों ने मित्रता का अनुबंध किया। भोजन किया और लेबन ने जेकब को शपथ दिलाई कि वह लेबन की बहनों को किसी प्रकार की भी यातनाएँ न दे, साथ ही अन्य स्त्रियों से विवाह न करे। फिर पुत्रों तथा कन्याओं को चूमकर दोनों दो दिशाओं की ओर चले गए।

जेकब ने अपने घर का रुख अपनाया, परंतु पहले जब वह ईसा के घर से भयभीत होकर भाग गया था, तब उसका ज्येष्ठ बंधु उसे जान से मारना चाहता था-जेकब को उसी का भय खाने लगा। अतः उसने अपने कुछ चुनिंदा नौकर चाकर और दासियों को उपहारस्वरूप भाई के पास भेज दिया, उसका मनुहार किया और ईसा का सामना होते ही सात बार अपना मस्तक धरती पर टेककर वंदन किया। तब कहीं दोनों में मित्रता हुई।

कुमारी दीना का अपहरण

आगे चलकर जेकब अपनी पत्नियों, संतति, दास-दासियों तथा चौपायों के समूहों के साथ शालेम नगर के मैदान की ओर जाकर अपना डेरा जमाया।

जेकब की पुत्री ली की कन्या दीना-एक दिन बड़े चाव से यह देखने के लिए कि उस नगर की स्त्रियाँ कैसी होती हैं, उस नगर में घूमने गई तो वहाँ के राजकुमार शेचेम ने उसे देखते ही पकड़कर उठवा लिया और उसके साथ संभोग किया। वह राजकुमार की प्राणप्रिया हो गई। उसने राजा से कहा, 'मैं इसी युवती से विवाह करूँगा।'

जब समाचार जेकब के पुत्रों को ज्ञात हुआ तो उन्हें इस बात पर क्रोध आ गया कि अपनी इजराइलवासी लोगों की कन्या को इस हिट्टाइट राजकुमार ने इस तरह भ्रष्ट किया--परंतु वे मौन रहे। इतने में उस नगर के राजा ने जेकब से उसकी कन्या का हाथ माँगा, राजकुमार को अपनी कन्या दे दो। भविष्य में हमारी दोनों जातियाँ मिल-जुलकर रहें। हम अपनी कन्याएँ आपको दे देंगे, आप अपनी दीजिए। इस कन्या के लिए चाहे जितना दहेज, उपहार माँग लो परंतु यह कन्या मेरे पुत्र को दे दो।'

जेकब के पुत्रों ने हिट्टाइट राजा की बात सुनकर क्रोध का प्रदर्शन न करते हुए उत्तर दिया, 'यह सब सत्य है, परंतु हमारी जाति के नियमानुसार जो लोग सुंता नहीं करते, उन्हें इजराइलों की कन्या देना निषिद्ध है। अत: तुम सभी सुंता करने के लिए तैयार हो जाओ तो हम तुम्हें अपनी कन्याओं का लेन-देन करेंगे।

यह सुनकर राजा ने उस नगरी के सभी लोगों को समझाया कि चलो, सुंता करेंगे, इन लोगों को अपनी जाति से घुल-मिल जाने से हमारी भी शक्ति बढ़ेगी। नगरवासियों ने भी कहा, ठीक है। उनकी कन्याओं को हम ग्रहण करेंगे और अपनी कन्याओं को उन्हें देंगे। इस तरह निश्चित करते हुए सारे हिट्टाइट पुरुषों ने अपनी सुंता करवाई। उस दिन सभी लोग सुंता के घाव से बीमार हो गए।

तीसरे दिन उस नगर में हर कोई अपने घर में कराह रहा था। यह अवसर पाकर दीना के बंधु अकस्मात् अपनी तलवारें निकालकर राजमहल में घुस गए, राजा, राजकुमार, प्रजा, सेना को उन्होंने अपनी खड्ग की धार से काट डाला और सारे नगर में लूटपाट करके अपनी कन्या दीना को लेकर वे चले आए।

लेखांक- 3

इस तरह उस राजकुमार को, जिसने दीना के साथ संभोग किया था, धोखा देकर जेकब के पुत्र अपने पिता के पास आ गए। तब जेकब घबराया और उसने कहा, 'तुमने हिट्टाइट लोगों से वैर क्यों मोल लिया? अब हमारा यहाँ पर कैसे निबाह होगा? अब तो प्राणों पर बन आई है। यहाँ से भागकर दूर जाना होगा, तभी हम बच सकते हैं, इस प्रकार विचार करते हुए वह अपने पूरे परिवार और दल-बल के साथ एदर प्रदेश की ओर गुपचुप खिसक गया। रास्ते में ही गर्भवती राशेल का पेट दर्द करने लगा। उसे प्राणांतक पीड़ा होने लगी। वह प्रसूत हुई और उसे पुत्र प्राप्ति हो गई; परंतु आत्यंतिक पीड़ा के कारण राशेल की मृत्यु हो गई। इस पुत्र का नाम बेंजामिन रखा गया।

पैगंबर जेकब के ज्येष्ठ पुत्र का विमाता से संबंध

इसी यात्रा में पैगंबर जेकब के ज्येष्ठ पुत्र रूबेन और जेकब की पत्नी (उपपत्नी) रूबेन की विमाता बिला से हो रहा शारीरिक संबंध उजागर हो गया। जेकब के पिता ऐजाक ने एक सौ अस्सी बरस का होने के पश्चात् मृत्यु शय्या पकड़ ली। तब पैगंबर ऐजाक की उस मृत्यु शय्या के पास उसका ज्येष्ठ पुत्र ईसा और कनिष्ठ पुत्र जेकब दोनों उपस्थित थे। उन्होंने पैगंबर ऐजाक को यथाविधि दफनाया।

विधवा स्नूषा तामर की कथा

जैसाकि ऊपर कहा है, जेकब का ज्येष्ठ पुत्र रूबेन था। उससे छोटा जुडा था उसने 'शुआ नामक कनेनाइट व्यक्ति की कन्या से विवाह किया। उससे जुडा के 'एर' और 'ओनन' नामक दो पुत्र हुए। आगे चलकर उसे तीसरे पुत्र की भी प्राप्ति हुई। वह था 'शेलाहा'। तीनों में सबसे ज्येष्ठ पुत्र 'एर' का विवाह तामर गाँव की कन्या से होने के पश्चात् एर की मृत्यु हो गई। तामर विधवा हो गई। एर से उसे पुत्र प्राप्ति नहीं हुई थी।

अपने ज्येष्ठ पुत्र का इस प्रकार बिना संतान पैदा किए स्वर्गवासी होना देखकर जुडा दुःखी हो गया। अत: उसने अपने द्वितीय पुत्र ओनन से कहा, 'तुम अपनी विधवा भाभी तामर से संभोग करके उसकी संतति में वृद्धि करो।' परंतु ओनन ने ठीक तरह से इस आदेश का पालन नहीं किया। यह देखकर ईश्वर ने क्रोधित होकर ओनन की भी हत्या की। तब उस विधवा तामर के श्वसुर जुडा ने उससे कहा, 'अब तो कुछ समय तक तुम विधवा ही रहो और अपने पिता के घर ठहरो।' मेरा सबसे कनिष्ठ पुत्र शेलाह अभी बहुत छोटा है। यदि मैंने आज ही जलदी की तो अपने भाइयों की तरह उसे भी अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा। अत: तुम उसके वयस्क होने तक प्रतीक्षा करो। उसके अनुसार वह विधवा कामिनी तामर अपने पिता के घर जाकर प्रतीक्षा करने लगी।

कुछ दिनों के पश्चात् जुडा की पत्नी चल बसी और वह विधुर हो गया। सूतक समाप्त होते ही वह अपनी भेड़-बकरियाँ मुँड़वाने टिमनाथ चला गया। तामर को किसीने यह समाचार दिया कि देख, तेरा ससुर भेड़-बकरियाँ मुँडवाने जा रहा है। यह सुनते ही उसने अपने विधवा के वस्त्र उतारे, माथे पर आँचल खींचा, अपने पूरे शरीर को लपेटकर वह जुडा के मार्ग पर खुली जगह में बैठ गई। वह जानती थी कि जुडा का तीसरा पुत्र अब वयस्क होते हुए भी जैसे कि पूर्व नियोजित था, जुडा उसके साथ अपने पुत्र का ब्याह रचाने में टालमटोल कर रहा है।

जब जुडा ने उसे देखा तो सोचा कि वह कोई वेश्या है, क्योंकि उसका मुख आँचल से ढका हुआ था। उसे देखते ही जुडा ने उसके समीप जाकर कहा, 'चलो, आज मुझसे संभोग करो।' तामर ने पूछा, 'मुझसे संभोग करना है? परंतु मुझे क्या दोगे?' जुडा ने कहा, 'अपने रेवड़ का एक मेमना भेजूँगा तेरे लिए।' उसने कहा, 'जब तक नहीं भेजते तब तक कुछ चीज गिरवी रख दो।' 'क्या रखूँ?' उसने कहा, 'तुम्हारी यह मुद्रा, यह सुवर्ण कड़ा और यह छड़ी।' जुडा ने उन वस्तुओं को उसके पास रखा और उससे संभोग किया। उसने गर्भ धारण किया। फिर वह तुरंत उठकर घर लौटी। आँचल उतारकर उसने पुनः विधवा वस्त्र धारण किया।

जुडा ने उसे कोई अपरिचित वेश्या समझा था। अतः उसने अपने मित्र के हाथों उस मेमने को भेजा, परंतु वहाँ आकर मित्र ने देखा तो उधर कोई वेश्या नहीं थी। उसने वहाँ के लोगों से पूछा, 'कहाँ है वह वेश्या? इधर वह खुलेआम बैठती थी न!' लोगों ने कहा, 'नहीं भाई, यहाँ कोई वेश्या नहीं रहती।'

इसके पश्चात् तीन महीनों के भीतर लोग जुडा को टोकने लगे, 'तुम्हारी बहू व्यभिचारिणी, चरित्रहीन है। वह स्वच्छंदतापूर्ण विहार करनेवाली गर्भवती है।' जुडा का पारा चढ़ गया। बोला, 'बाहर निकालो, उसे जिंदा जलाना होगा।'

तामर को जब बाहर निकाला गया तो उसने अपने ससुर जुडा के पास उन वस्तुओं को भेजकर कहा, 'मुझे उस मनुष्य से गर्भ ठहरा है, जिसकी ये सारी वस्तुएँ हैं। मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि बताइए, ये वस्तुएँ किसकी हैं? यह मुद्रिका, यह कड़ा, यह छड़ी किसकी है?'

जुडा ने स्वीकार किया कि ये उसी की वस्तुएँ हैं। उसने कहा, 'वह मुझसे अधिक निर्दोष है, क्योंकि अनुबंध के अनुसार मैंने उसे अपने कनिष्ठ पुत्र शेलाहा की पत्नी नहीं बनाया। अतः उसने मुझसे संतति उत्पन्न की। आगे चलकर उस पुत्रवधु को अपने श्वसुर से जुड़वा पुत्र हो गए। उनके नाम हैं फारसे और आश। दोनों जेकब के पोते जुडा के पुत्र होने के नाते जेकब के परिवार में समा गए।

(इस कथा के अनुसार ईश्वर ने एर और ओनन-दोनों को सापेक्षतः साधारण अपराधार्थ क्रुद्ध होकर मार डाला था। उसी भगवान् ने जुडा की इस छलना का अथवा इस वेश्यागमन का अथवा उन पुत्रवधु-श्वसुर संबंधों का समय-समय पर कम-से-कम निषेध क्यों नहीं किया? क्या उसके अनुसार यह कृत्य उतना भी निंदनीय नहीं था? जो प्रभु जेकब को पग-पग पर नित्य दर्शन देता और कल्याण हित भरा उपदेश करता, उसी प्रभु ने जेकब का पुत्र अपनी ही बहू से इस तरह संभोग करने के लिए उद्यत होते देखकर अपने परम भक्त जेकब को यथासमय सावधान क्यों नहीं किया? इन दोनों पुत्रों को जुडा के पुत्रों के रूप में जेकब के परिवार में प्रभु ने कैसे शामिल किया? इसका स्पष्टीकरण इस कथा में नहीं मिलता। यह ठीक ही है, क्योंकि इस प्रकार की भक्तिविजय छाप कथाएँ ज्यू लोगों में अथवा मुसलिमों में अथवा हम हिंदुओं में कभी युक्तिसंगत नहीं होतीं। ईश्वर पर अंधविश्वास ही उसका अलंकार है। इतना ही नहीं, प्रत्यक्ष पैगंबर जेकब का ज्येष्ठ पुत्र रूबेर अपने पिता की दूसरी पत्नी से शय्यासंग करने लग गया था, तब ईश्वर ने जेकब को इसकी पूर्व सूचना नहीं दी, जबकि अन्य छिटपुट मामलों में भी ईश्वर भक्त को बार-बार मिलकर सावधान करता था। -लेखक)

उपसंहार

यहूदियों का पवित्र धर्मग्रंथ-जिसे ईसाई लोग तौर या तौरात (ओल्ड टेस्टामेंट) कहते हैं-उसके प्रथम खंड (सृष्ट्युत्पत्ति-The Genesis) के स्त्री विषयक जानकारी देनेवाले प्रमुख श्लोक एक सूत्र में पिरोकर उनका अनुवाद हमने इन तीन लेखांकों में दिया। इन तीनों लेखों में नानाविध कथाओं से न्यूनाधिक तीन सहस्र वर्ष पूर्व फिलीस्तीन से मिस्र तक आवाजाही करनेवाले अजपाल (गड़रिए) प्रवृत्ति के प्राचीन यहूदी लोगों के नारी समाज का स्वरूप साधारणतया किस तरह का था-इसका सर्वथा यथावत् चित्र पाठकों के सम्मुख आ जाता है।

यहूदी लोगों का यह धर्मग्रंथ इतिहास की दृष्टि से संपूर्ण मानव जाति की एक अनमोल निधि है। वेद, अवेस्ता तथा यह तौरे-तौरात जैसे धर्मग्रंथ अत्यंत प्राचीन मानवी इतिहास का एक सजीव चित्रपट ही हैं।

परंतु इस ग्रंथ विषयक उनके धार्मिक अनुयायियों की जो आज तक यही निष्ठा होती थी कि ये धर्म त्रिकालाबाधित, सर्वज्ञानमय, त्रिकालदर्शी तथा ईश्वरोक्त हैं-वह निष्ठा तार्किक कसौटी पर गलत सिद्ध होती है। उससे भी यह अभिप्राय निर्विवाद रूप से स्पष्ट होता है, क्योंकि उसमें दिया हुआ सृष्टि-ज्ञान आज सर्वथा भ्रांत सिद्ध हो रहा है। प्रभु की लीलाओं तथा ईश्वरत्व के लिए यह अशोभनीय भी है। एक सर्वज्ञानमय धर्मग्रंथ में ईश्वरोक्त कहे गए आदेश तथा ज्ञान उसी तरह के ईश्वरोक्त कहे जानेवाले उतने ही प्राचीन अन्य धर्मग्रंथ से सर्वथा विसंगत एवं परस्पर विरोधी पाए जा रहे हैं।

उदाहरणार्थ इस यहूदी धर्मग्रंथ लेखमाला के अनूदित अंश में ईश्वर स्वयं प्रकट होकर ईश प्रेषितों (पैगंबरों) से कहता है-मुझे गो बलि अथवा वृष बलि चढ़ाओ। इस ग्रंथानुसार बड़े-बड़े देवप्रिय कुलपति गोवध या गोमांस के पकवान को धार्मिक संस्कारों में भक्षण करते थे, परंतु उसी काल के हमारे धर्मग्रंथों में हमारा ईश्वर कंठरव से ऐसी आज्ञा दे रहा है। कोई भी व्यक्ति गोवध न करे, चाहे कुछ भी हो: गोमांस भक्षण पंचमहापातकों सदृश महापातक है, चाहे कहीं के भी निवासी हों-गो हत्यारे घोर पापी एवं बहिष्कार्य लोग हैं-यह असंभव है कि एक ही समय ईश्वर नितांत विरोधी आदेश सार्वभौम धर्मस्वरूप, सार्वकालिक त्रिकालाबाधित कर्तव्य के रूप में अपने मानववंशीय प्रजा को विभिन्न देशों में देते हुए दो-मुँही बात कर उनमें वैर निर्माण करे। इस तरह का कपटाचरण सीधी-सादी मानवता के लिए तो यह सर्वथा हीन, घिनौना कृत्य सिद्ध होता है।

दूसरा उदाहरण इसी प्रकरण में भाषाओं के घपले के विषय में देखिए। प्राचीन काल में सभी एक भाषा का प्रयोग करते थे। उन्होंने एक ऊँची मीनार का निर्माण आरंभ किया। यह कार्य देखने ईश्वर आ गया, परंतु इतना ऊँचा स्तंभ देखकर प्रभु ने कहा, अरे यह क्या? ये मानव प्राणी यदि इसी तरह एक साथ मिल-जुलकर व्यवहार करने लगे तो वे इतना ऊँचा स्तंभ भी बनाएँगे जो आकाश को छू लेगा। कल वे ईश्वर समान शक्तिशाली बनेंगे। फिर भला मुझे कौन पूछेगा? इस तरह भयभीत और क्रुद्ध होकर उसने मानवों की भाषा में गड़बड़झाला कर दिया। भाषा में फूट डाल दी। परिणामस्वरूप एक की भाषा दूसरे को अनाकलनीय होकर मनुष्य प्राणियों में पृथक् भाषाभाषी एवं जातियों का निर्माण हो गया और उनकी शक्ति कम हो गई। (अध्याय-११)

अब एक भाषा रहने से उसका परिणाम क्या होगा-यह पहले से ही समझने योग्य भी भगवान् दूरदर्शी नहीं थे? 'प्रभु स्तंभ देखने आए थे तब उन्हें इसका बोध हुआ' यह भगवान् के सर्वसाक्षी होने पर क्या लांछन नहीं है? तीसरी विसंगति यह है कि मनुष्य जाति में एका होते हुए देखकर ईश्वर प्रसन्न होने की बजाय जलते हैं और अपनी प्रभुता अबाधित रखने के लिए जो प्रभु मनुष्य-मनुष्य में फूट डालता है, वह ईश्वर है या 'फूट डालो और मारो'-इस तरह दहाड़ते हुए प्रजा को यंत्रणा देनेवाला अत्याचारी है? जो नर को नारायण बनाए, मनुष्य को देवता बनाए, वही ईश्वर है-प्रभुत्व की यह परिभाषा कहाँ और भगवान् की दानवता कहाँ, जो मनुष्य जाति में फूट का बीज बोता है, ताकि अपनी प्रभुता अबाधित रहे, अपनी ही प्रजा को बेगारी का गुलाम बनाता है। अर्थात् मानव जब अज्ञानी, अल्हड़ अजपाल अवस्था में था, तीन सहस्र वर्ष पूर्व तक उन गड़रियों की जाति में प्रचलित यह एक दंतकथा है। ऐसे किसी धर्मग्रंथ का यह सूतक नहीं है, जिसका एक-एक अक्षर परम सत्य, ईश्वरोक्त, त्रिकालदर्शी प्रेषितों द्वारा प्रकट किया हुआ है। गड़रियों के विश्राम के लिए गपशप-मानवी भाषाएँ भिन्न-भिन्न कैसे हो गईं-इस विषय में भोले-भाले, सीधे-सादे चरवाहों के समूह में से एक विद्वान् का एक तर्क-इस दृष्टि से इस कथा को पढ़ने पर यह कथा कितनी मनोरंजक तथा मजेदार प्रतीत होती है, परंतु अस्खलनीय, अशंकनीय, धार्मिक, ईश्वरी सूक्तों के रूप में उसे पढ़ने लगते ही वह एकमात्र मूर्खता, नासमझी प्रतीत होती है। ईश्वर की महानता वृद्धिंगत करने के स्थान पर ईश्वर को दानव स्वरूप प्रदान करती है।

ये भक्ति विजय छाप की भोली-भाली कथाएँ ईश्वरोक्त, परम सत्य कदापि नहीं हैं, इस तथ्य का प्रदर्शक दृढ़ प्रमाण यह है कि ये घटनाएँ कि प्रभु ने वेबल के उस स्तंभ के निर्माण को देखकर तब तक संपूर्ण मनुष्य जाति में स्थित भाषाई एकता में विभेद उत्पन्न करके उसमें फूट डाली तथा अनेक भाषाओं का निर्माण किया। यह घटना उस ईश्वरोक्त धर्मग्रंथ में साढ़े चार हजार वर्ष पूर्व घटित इस तरह उसकी निश्चित कालावधि दिया है, परंतु उस काल में फिलीस्तीन से परे प्राचीन चीन तथा भारत जैसे महाद्वीपों में सदियों पहले ही विभिन्न भाषाएँ विस्तार से प्रचलित हो चुकी थीं! यह तो स्वाभाविक ही है कि फिलीस्तीन के भोले-भाले अजपाल जनजातियों के नाम तक ज्ञात न हों, परंतु यह स्वाभाविक नहीं कि ईश्वर को भी इनकी जानकारी नहीं हो, क्योंकि जो सर्वसाक्षी, सत्यमूर्ति तथा सर्वज्ञानमय है-वही ईश्वर है, भगवान् की इस परिभाषा से यह अज्ञान पूर्णतः विसंगत सिद्ध होता है।

तीसरा सबसे निर्णायक उदाहरण है-इस लेखमाला के आरंभ में ही अनूदित इस धर्मग्रंथ का प्रथम अध्याय। उसमें सृष्टि की उत्पत्ति की कथा है। हमारी ओर के धर्मग्रंथों में भी सृष्टि की उत्पत्ति से संबंधित धुर प्राचीनकाल में हमारे वेदादि ग्रंथों में चंद्र, सूर्य, बिजली, पृथ्वी प्रभति पदार्थों की उत्पत्ति तथा व्यापार विषयक रचित कथाएँ जिस तरह आज विज्ञान के प्रत्यक्ष प्रयोग सिद्ध ज्ञान द्वारा मिथ्या सिद्ध हो गई हैं उसी तरह ये मुसलिम, ईसाई, यहूदी लोगों के धर्मग्रंथों की सृष्टि की उत्पत्ति की कथा भी पूरी तरह से मिथ्या सिद्ध हो गई है। एक प्राचीन बुद्धि विकास की झलक के रूप में, एक मजेदार प्राचीन धारणा के रूप में, एक कथा-कविता के रूप में यह सृष्टि की उत्पत्ति के इस धर्मग्रंथ के बिलकुल आरंभ में यह ईश्वरोक्त मान्यता का प्रस्तुत किया हुआ सूक्त पठनीय, मजेदार एवं मधुर भी है; परंतु वही मनुष्य के अज्ञान की एक कल्पित कथा है, विज्ञान ने उसको सर्वथा मिथ्या सिद्ध किया है। उसे ईश्वरीय ज्ञान की सत्यकथा, जिसका प्रत्येक अक्षर त्रिकालाबाधित सत्य है तथा साक्षात् ईश्वर कथित है अर्थात् वह संदेह विरहित पवित्र ईश्वरोक्त है-इस तरह का प्रतिपादन करना ईश्वरीय ज्ञान को ही अज्ञानग्रस्त सिद्ध करना है।

इस दृष्टि से एक झलक देखिए। इस सृष्टि कथा में कहा गया है-ईश्वर ने पहले जल की निर्मिति की, इसके पश्चात् पृथ्वी, फिर वनस्पति और फिर प्रकाश देने के लिए सूर्य और चंद्रमा का निर्माण किया। अब प्राचीन मानव की सृष्टि का रहस्य भेद करने का एक आरंभकालीन प्रयास, एक कल्पना के रूप में यह सूक्त विचारणीय, मनोरंजक तथा पठनीय है, परंतु त्रिकालाबाधित ईश्वरी सत्य के रूप में इसे प्रतिष्ठा प्रदान करने से उसका रूप कितना रद्दी तथा हास्यास्पद बन जाता है, कहने की आवश्यकता नहीं। आज विज्ञाननिष्ठ प्रत्यक्ष प्रमाण से, सिद्ध ज्ञान से वह पूर्णतया विसंगत है, सर्वथा मिथ्या है। सूर्य का निर्माण केवल पृथ्वी स्थित मानव प्राणियों को प्रकाश देने के लिए नहीं हुआ। प्रसंग आने पर संपूर्ण पृथ्वी, उसके ऊपर के सारे धर्मग्रंथ, मंदिर, मसजिद, गिरजाघरों को भी निमिष मात्र में भस्म करने से भी सूर्य नहीं चूकेगा। मनुष्य का निर्माण किसलिए किया? अर्थात् समस्त पृथ्वी का भोग करने के लिए, परंतु उसका क्या, जो शेर-सिंहों ने सहस्राधिक मनुष्यों को ही स्वाहा करके आज तक मनुष्य का भोग किया? पहले पुरुष बनाया, उसके बाद उसकी पसली निकालकर उसपर रक्त-मांस पोतकर ईश्वर ने स्त्री का निर्माण किया।

जिन्होंने इन कथाओं की रचना की, उन्होंने शायद किसी कुम्हार को मिट्टी की मूर्तियाँ, पुतले, मटके बनाते हुए देखा था। इसी कुंजी की सहायता से उन्होंने मनुष्य तथा स्त्री 'करने' तथा 'बनाने' की पहेली बुझाई होगी। ईश्वर एक महान् कुम्हार है। उसने सोचा-पुरुष बनाया, उसी की एक पसली निकालकर नारी 'बनाई'। स्त्री का डीलडौल पीठ की ओर पसली सदृश वक्री दिखाई भी देता है। जो निर्मिति की-वह सारी-की-सारी कृमि-कीडों के साथ, लगातार छह दिनों में पूरी करके थका-हारा ईश्वर जिस दिन विश्राम करने गया वह रविवार था। इसलिए हम सभी को आज भी रविवार के दिन अपना कामकाज बंद करना चाहिए।

इस कथा के अनुसार पृथ्वी निर्माण करने के पश्चात् तीन दिनों में ही मनुष्य की निर्मिति की गई, परंतु विज्ञान ने भूगर्भ के अध्ययन से यह सिद्ध किया है कि पृथ्वी प्रकट होने के पश्चात् लाखों वर्षों तक मनुष्य नामक प्राणी का अस्तित्व ही नहीं था। उसका निर्माण एक झटके के साथ नहीं किया गया, अपितु सर्पस्तन्य प्रभृति प्राणि वर्ग का विकास होते-होते वह विकसित हुआ है।

नन्हे बालक पूछते हैं, 'नानी, यह बादलों में गड़गड़ाहट कैसी हो रही है?' तब नानी कहती है, 'बेटा, एक बूढ़ी अम्मा आकाश में बैठी है न, वह अपने घर में एक बड़ी सी चक्की में चने दरदरा रही है।' नानी का यह बालोपयोगी सृष्टि विज्ञान जिस तरह मनोरंजक है, उसी तरह हमारे अथवा मुसलिम, ईसाई, यहूदी आदि अनेक प्राचीन धर्मग्रंथों की सृष्टि विषयक ये कल्पित कथाएँ भी मनोरंजक हैं। सृष्टि विज्ञान के रूप में आज वे उपयुक्त नहीं हैं।

परंतु इन धर्मग्रंथों को त्रिकालाबाधित सत्यज्ञान समझने के कारण उससे बहुत हानि हुई है। उपर्युक्त नानी की कहानी में वर्णित गड़गड़ाहट का कारण ईश्वरोक्त सत्य के रूप में स्कूलों में यदि सिखाया जाता तो उससे जो हानि होती उससे लाख गुना अधिक हानि उपर्युक्त दंतकथाओं को धर्मकथा के रूप में और निस्संदेह पूर्ण सत्य के रूप में पढ़ाने से हुई है और भविष्य में होती रहेगी। कैसे? देखिए-

इस सूक्त को ईश्वरोक्त सूक्त माने जाने के कारण यूरोप न्यूनाधिक एक सहस्र वर्षों तक सृष्टि विज्ञान के अज्ञानांधकार में धँस गया था। किसीने यदि कहा, पृथ्वी गोल है-तो सूक्त के विरोध में बोलने के कारण तुरंत उसे जान से मार दिया जाता। किसीने कहा, पृथ्वी भ्रमण कर रही है-तो सूक्त के विरोध में बोलने के कारण उसे प्राणों से हाथ धोने पड़ते। किसीने कहा, पृथ्वी से पहले सूर्य का अस्तित्व था-सात दिनों में संपूर्ण सृष्टि, करोड़ों प्राणि, कृमि, कीट, मनुष्य प्राणी के साथ विस्तृत रूप में निर्माण की-यह सूक्त कथन भ्रमजन्य हे-वस्तुत: लाखों वर्षों से सृष्टि विकसित हो रही थी। आज भी प्राणी, मनुष्य, पक्षी विकसित हो रहे हैं-इस तरह जब विकासवादा प्रतिपादन करने लगे, तब पोप की पाखंड विनाशक गदा उनके सिर से अवश्य टकरा गई। सशस्त्र क्रांतियाँ होकर बास्तील के पाषाण फोड़कर बंदियों को छुड़ाना पड़ा। तभी गत तीन सौ वर्षों में यूरोप में सृष्टि विज्ञान बुद्धिवाद की नींव पर खड़ा हुआ और उस काल से यूरोप आज सृष्टि की शक्तियों को अपनी सेवा में लगा रहा है, जैसे गाड़ी को बैल जोतते हैं। आज भी यूरोप में इस कथा को केवल विश्रामकालीन गप के रूप में समझा जाता है, बस। कोई भी शिक्षित उसे इससे अधिक महत्त्व नहीं देता।

ईश्वरकृत अथवा ईश्वर प्रेषित के रूप में मान्य सर्वधर्मग्रंथ मनुष्यकृत हैं-यह वेदादिकों के बुद्धि युक्त निरीक्षण से सिद्ध होता है। उसी तरह मुसलिम कुरान, ईसाई बाइबिल तथा यहूदी धर्मग्रंथों की जड़ जो यह तौर-तोरार-यह 'बुक ऑफ मोजेस' से भी सिद्ध होता है। इन सभी ग्रंथों का ऐतिहासिक साहित्यिक महत्त्व अनूठा है। यही एकमात्र सत्य है कि वह मानव जाति की अत्यंत आदरणीय, अध्ययनशील वाक्संपदा है। इनमें से एक भी शब्द सत्य नहीं है। अनेक कथाएँ मात्र कल्पनाएँ हैं, जो विज्ञान की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं। वही वेद, अवेस्ता, कुरान, बाइबिल, मोजेसोक्तादि ग्रंथों में होने से भी यही सत्य है कि वह रद्दी है। प्राचीन युग सत्युग नहीं। यह सर्वथा मिथ्या धारणा है कि जो अति प्राचीन है, वही अति पूजनीय, अतिध्येय तथा अति पवित्र है।

इस लेखमाला में यद्यपि केवल स्त्री विषयक अंशों को ही इन धर्मग्रंथों में से बाध्य होकर अनुवाद करना पड़ा, तथापि केवल उससे भी हमारे वेदों में अथवा यहूदियों के तौर-तौरान में जो वर्णन किया गया है, वही सत्युग है-यह हमारी अथवा मुसलिम, ईसाई, पारसी, यहूदियों में से पुराण मतादियों की धारणा कितनी भ्रांत है-इसका साफ स्पष्टीकरण प्राप्त होता है। नारी विषयक कल्पनाएँ आचार, व्यवहार जो इस लेखमाला में इन यहूदियों के अति प्राचीन ईश्वरोक्त ग्रंथों में से उद्धृत किए हैं-उनमें से दो-चार उदाहरणों की छानबीन करने से यह सहज सिद्ध होता है। प्रथम उदाहरण के रूप में नारी की उत्पत्ति की कथा देखिए। स्त्री ने ही मनुष्य प्राणी का सर्वनाश किया। नारी ही मनुष्य जाति की प्रथम पापीष्ठा है। तीसरे अध्याय में बताया गया है कि आदम और उसकी पसली से निर्मित स्त्री-ईव विश्व के इन आदि स्त्री-पुरुषों से ईश्वर ने कहा, 'ज्ञान वृक्ष का फल नहीं खाना', क्योंकि ईश्वर को यह भय होने लगा कि कहीं मनुष्य ईश्वर सदृश ज्ञानी न हो जाए (न हि ज्ञानेन सदृश पवित्रमिह विद्यते-यह जिसने कहा-वह गीता का भगवान् कहाँ)

परंतु ईश्वर से आँखें बचाकर उस सर्प ने ईव से कहा, 'वह ज्ञान फल खाओ।' अत: इससे ईश्वर कुपित हो गया। उसने ईव को कैसा दंड दिया? नारी को यावच्चंद्रदिवाकरौ प्रसूति वेदनाएँ सहनी पड़ेंगी। अब इस कथा से यह स्पष्ट होता है कि प्रथम स्त्री तथा प्रथम पुरुष भी पहले पापी भी थे, जो असत्यवादी थे तथा ईश्वर और धर्म की चिंता नहीं करते थे। उस समय सत्युग में सर्वत्र देवप्रिय, पुण्यशील, धर्मभीरु संयमी स्त्री पुरुषों की बहुतायत हो गई थी-यह धारणा हमारे पुराणांतर्गत वर्णनों की तरह ही इस यहूदी पुराणों से भी मिथ्या सिद्ध होती है।

आदम और ईव-मानव प्राणी के आदि माता-पिता-पूर्ण नग्नावस्था में रहते और ईश्वर को यही अच्छा लगता, परंतु आगे चलकर दोनों ने ज्ञान फल खाया और फिर प्रभु के सम्मुख नग्नावस्था में आने में लज्जा अनुभव करने लगे। तब ईश्वर उनसे तथा उनके इस संकोच से अत्यंत क्रूद्ध हो गया। नग्नता के संकोचवश ही आदम-ईव जैसे भले लोग लूटे-खसोटे गए-यह वाक्य किसी अर्वाचीन नग्न संघ के द्वार पर खोदने में कोई आपत्ति नहीं। सत्युग में नग्न संघों पर प्रतिबंध नहीं था। सत्युग जिन्हें भला लगता है, वे नग्न संघों को संपूर्ण बुरा नहीं कह सकते। नग्न संघ को संस्था नहीं कहा जा सकता।

ईव तथा आदम दोनों को अपनी नग्नावस्था का भान हो गया, उन्होंने ज्ञान फल चखा-उनके इस अपराध के लिए ईश्वर ने उन्हें नंदनवन से निकाल देने का दंड दिया। अपराधिनी ईव थी-उसे प्रसूति वेदना का दंड देना उचित था, परंतु एक ईव के अपराध के लिए संपूर्ण नारी वंश परंपरा को-उसमें सीता जैसी साध्वी को भी-प्रसूतिजन्य वेदना का दंड ईश्वर ने दिया-इस तरह यह कथा वर्णन करती है-यदि यह सत्य हो तो यही कहना होगा कि आदम, ईव जैसे सत्युगीन मानवों की तरह वह ईश्वर भी अविचारी था-अथवा यह कहना होगा कि यह कथा एक जिज्ञासु सीधे-सादे, भोले-भाले मनुष्य द्वारा निर्मित किंवदंती है, न कि ईश्वरोक्त, परम मात्रा में त्रिकालाबाधित धर्मकथा। इस कथा के अनुसार ईव के कारण मानवी स्त्रियों को प्रसूति वेदना का अभिशाप दिया गया, परंतु पशुओं की मादाओं को भी प्रसूति वेदनाएँ होती हैं, इसका कारण क्या है? इसलिए कि ईव-एक नारी थी, अतः केवल मानवी स्त्रियों को ही नहीं, संपूर्ण नारी जाति ही उस अभिशाप से पीड़ित हो तो यह अन्याय की चरम सीमा हो गई। ईसाई साधुओं के मठों में प्राचीनकाल में ब्रह्मचर्य का नियम इतना कठोर था कि मठों में केवल स्त्री ही नहीं, स्त्रीलिंगी बिल्ली, कुतिया, हिरनी, चूहियाँ आदि प्राणी भी प्रवेश नहीं कर सकते थे। यह भी ऐसी ही बात हुई। कल कोई स्त्री चोरी करते हुए पकड़ी गई तो उसके अपराध के लिए अखिल नारी जाति को ही नहीं, पशु-पक्षियों की सारी मादाओं को भी वंश परंपरागत पच्चीस-पच्चीस कोड़े बरसाने का दंड यदि कोई झक्की, सनकी मुहम्मद तुगलक दे तो हम उसे क्या कहेंगे; परंतु यदि यह कथा वास्तविक समझी जाए तो यही कहना उचित होगा कि सत्युग में यहा न्याय था।

सत्युग स्त्री-पुरुष संबंध

हमारे पुराणों में प्राचीन स्त्री-पुरुषों के तथा महान् ऋषि पत्नियों, राजकुमारियों, महर्षियों, राजर्षियों के चरित्रों में ही नहीं, देवी-देवताओं के चरित्रों में भी कुछ प्रसंगों में वर्तमान बोल्शेविक (रूस) स्थित स्त्री-पुरुष संबंधों को भी पीछे छोड़ने वाले वर्णन पाए जाते हैं-उसी तरह इस यहूदियों के देश में भी पाए जाते हैं। इस ग्रंथ में स्त्री विषयक जिन-जिन चरित्रों का इस माला में उदाहरणस्वरूप अनुवाद किया गया है, उसे पाठकों ने देखा ही होगा। इसीलिए ऋषियों का कुल तथा नदी का मूल स्रोत (उद्गम स्थान) ढूँढ़ना नहीं चाहिए-इस तरह की कहावत का शिष्ट संप्रदाय आरंभ हुआ और वह उचित भी है; परंतु सत्युग में सर्वत्र न्याय, नीति, शील, संयम का ही अधिराज्य था, मनुष्य में पापवृत्ति नहीं थी, मनुष्य ईश्वर ही था, न कि मनुष्य, यह जो पौराणिकों की धारणा होती है, वह हमारे पुराणों की तरह ही इस यहूदी पुराणों से भी सर्वथा गलत सिद्ध होती है। इस तथ्य का विस्मरण न हो। इसलिए भी इस कथा का उल्लेख अनिवार्य है, पर हमारे हिंदू पुराणों की कुछ घटनाओं को लेकर केवल उन्हीं का ही हल्ला करना और अपने पाँव तले अथवा अपने आँचल में क्या है, उसे छिपाने की चेष्टा करनेवाली मिसमेयों आदि अहिंदू विदूषकों के मुँह बंद करने के लिए तथा विशुद्ध न्याय की दृष्टि से भी निम्नांकित उल्लेख आवश्यक हैं-भाई-बहनों में विवाह (अ. ४ से ५) देवप्रिय कुलपति नोह अत्यधिक मदिरा पान से बेसुध होता है (अ. १०) देवप्रिय साक्षात्कारी अब्राहम इस भय से कि लोग उसे मारेंगे, अपनी पत्नी को भागिनी कहता है और उसे उसपर मोहित परपुरुष के घर रहने की अनुमति देता है। सौतेली बहन से विवाह, बहुपत्नीत्व, दासियों से संबंध, सगी बहनों का सौत बनना, चचेरी, ममेरी, फुफेरी बहनों से विवाह संबंध, साध्वी स्त्रियों के मन में भी भयंकर सौतियाडाह आदि के असंख्य उदाहरण पृष्ठ-पृष्ठ पर हैं। देवप्रिय महान् लाट की निस्संतान मृत्यु नहीं हो, इसलिए दोनों कन्याओं का उस पिता से ही गर्भ धारण करना (अ. १९), देवप्रिय जेकब का अपने पिता को धोखा देना (अ. २७), जेकब को कनिष्ठ कन्या देने का वचन देकर रात को कपट से शय्या संग के लिए लेबन का ज्येष्ठ कन्या भेजना, देवर का विधवा भाभी के संग नियोग, विधवा तोमर ने अपने श्वसुर से भी किया हुआ कपट संभोग-उससे उत्पन्न संतान को कुलीन जायज सिद्ध करना, भाई-भाई के प्राण लेने पर तुला हुआ, स्त्रियाँ सभी प्रकार की विवाह-स्वतंत्रता से वंचित, रूबेर द्वारा संभोग करना आदि अनेक घटनाओं का इस लेखमाला में इस ग्रंथ द्वारा जिस आधार के साथ अनुवाद किया है, इससे हमारे सत्युग की तरह ही यहूदी ईसाइयों तथा मुसलिमों के सत्युग में भी मनुष्य चाहे कितना भी महान् क्यों न हो, वह मनुष्य ही है, यही सिद्ध होता है। प्राचीनकाल में सत्युग था। ये तत्कालीन धर्मग्रंथ ईश्वरोक्त, ईशप्रेषित हैं, सत्युगीन ऋषि, राजे, पैगंबर, स्त्री-पुरुष सभी उन्नत मानुष थे, वे सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य, पुण्य के निरपवाद आदर्श थे-इस तरह हमारी पौराणिक धारणाओं की तरह ही यहूदी, ईसाई, मुसलिम पौराणिकों की धारणाएँ भी उनके इन ग्रंथों के आधार से भ्रामक सिद्ध होती हैं-केवल यह दिखाने के लिए ही उपर्युक्त घटनाओं का उल्लेख करना पड़ा है। जिन ईसाई कर्मठ गिरिजाघरों से वर्तमान रूसी (बोल्शेविक) साहित्य अनैतिक मानकर निषिद्ध समझा जाता है, उसी के अंतर्गत ये कथाएँ धर्मकथाओं के रूप में गौरवान्वित हैं।

परंतु उपसंहार में इन साधारण विधेयों का उल्लेख करने के पश्चात् भ्रामक सिद्ध होनेवाली इन सारी धारणाओं को निकालने पर भी इन धर्मग्रंथों की महानता जो शेष रहती है, वह भी इतनी गौरवशाली है कि जिन्होंने समय-समय पर इस ग्रंथ की रचना करके उसका संग्रह किया, उन्होंने अखिल मनुष्य जाति को एक तरह से उपकृत ही किया है। उसकी भाषा और वर्णन शैली इतनी सादगीपूर्ण तथा मनोरंजक है कि कितनी बार भी पढ़ने पर ये कथाएँ पठनीय ही लगती हैं। तत्कालीन समाज का चित्र वे दृष्टि के सम्मुख साकार करती हैं। अब्राहम, ऐजाक, जेकब, जोसेफ, मोजेस प्रभृति महान् कुलपतियों की कथाओं का इसमें समावेश किया गया है। उसमें कुल मिलाकर बहुत से ऐतिहासिक तथ्य हैं। यद्यपि ईश्वरोक्त कहते ही उसकी महानता कम होती है तथापि उसे मनुष्यकृत समझते ही वह दुगुनी हो जाती है। गुण विशेष इस जागतिक महत्त्व प्राप्त ग्रंथ को तथा हिब्रू जाति के एवं यहूदी कुल के अब्राहम, जेकब, मोजेस प्रभृति अत्यंत कर्तृत्वशाली प्राचीनतम कुलपतियों को बार बार वंदन करते हुए हम यह लेखमाला समाप्त करते हैं।

('स्त्री पत्रिका', मार्च, अप्रैल और मई १९३६)




[1] महाराष्ट्र की महशूर रेशमी साड़ी।

[2] 'अद्यतन' शब्द के 'अप-टु-डेट' के लिए हमारे मालवण स्थित विद्वान् मित्र अबराव देसाई संचालक-कन्या पाठाशाला ने सुझाया है-अद्यावत् शब्द के लिए और एक प्रतिशब्द के रूप में हमें पसंद है। पुरातन के विपरीत 'अद्यतन'

[3] एक अछूत जाति।

[4] यह कहते हुए कि मनुस्मृति में मांसाशन धर्म समान माना है, ब्राह्मणों की कुछ जातियों मांसाशन करती हैं। कुछ जातियाँ मांस वर्जित परंतु मछलियाँ भक्षण धर्म्य समझकर मनु के नाम पर मछलियाँ खाली हैं।

[5] उसी तरह नवीन निबंध को हितकारक समझकर उसको स्वीकार करता है।

रूस में विवाह-विच्छेद स्वतंत्रता का प्रयोग

रूस में बोल्शेविक क्रांति के पश्चात् जो उथल-पुथल मची, वह कई अन्य क्रांतियों की तरह मात्र राजनीतिक स्वरूप की नहीं थी अथवा कई अन्य सामाजिक या धार्मिक क्रांतियों की तरह केवल धार्मिक या सामाजिक सीमाओं तक ही बँधी नहीं थी। उसके न केवल आनुवंशिक परिणाम बल्कि उसका उद्देश्य, उसका सुस्पष्ट ध्येय ही मूलतः मानव समाज की संपूर्ण रचना को एक नई बुनियाद प्रदान करना था। राष्ट्रीय, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक समाज के सारे पहलुओं पर नए सिरे से विचार करने का कार्य इस क्रांति ने अपने हाथ में लिया था। वह मानवी समाज के जीवन की दिशा में परिवर्तन चाहती थी। वह एकमात्र सामाजिक क्रांति नहीं थी। वह रूसी क्रांति थी, एक जीवन क्रांति।

प्रत्येक क्रांति अपने में एक प्रयोग होता है। यह रूसी क्रांति जो आज तक की सभी क्रांतियों में अधिक प्रचारित एवं मानवी जीवन के जीवन में ही परिवर्तन करना चाहती थी, इसी कारणवश एक अत्यंत अनूठी, महत्त्वपूर्ण, जितना साहसी उतना ही संकटमय मानव समाजकृत एक महत्तम सामुदायिक प्रयोग था।

इन पंद्रह-बीस वर्षों के अनुभवोपरांत यह प्रतिपादन करने में कोई आपत्ति नहीं कि वह कल्पनातीत रूप में सफल हो गई और अपेक्षा से अधिक विफल।

दोनों पक्षों में ही इस प्रचंड प्रयोग ने मनुष्य के ज्ञान तथा अनुभव में अपूर्व एवं अनमोल योगदान दिया।

मानवी जीवन के अन्य संबंधों की तरह ही उसके वैवाहिक संबंधों में भी आमूलचूल क्रांति करके विवाह के मूल्यांकन में ही परिवर्तन करने का निश्चय उस जीवन क्रांति ने किया था। प्रयास वैसे ही अपूर्व संकटमय धोखादायी एवं साहसी था। इसके परिणामों का अचूक अनुमान लगाना उनके प्रयोगकर्ताओं के लिए असंभव था, परंतु अब इतने वर्षोपरांत वे परिणाम कुछ निश्चित रूप में साकार होने के कारण रूसी नेताओं ने उनका निरीक्षण-परीक्षण करने का जो कार्य प्रारंभ किया है, वह उचित ही है।

विवाह संबंधित सुधारणाओं में 'विवाह-विच्छेद स्वतंत्रता' सबसे अधिक साहसपूर्ण सुधारणा थी, जिसे आज तक किसी भी राष्ट्र ने इस अनुपात में इसे प्रयुक्त करके नहीं देखा था। क्रांति से पूर्व रूस में विवाह बंधन कसकर बाँधे हुए थे और विवाह-विच्छेद की अनुज्ञा अपवादस्वरूप ही मिलती थी। क्रांति के बाद तुरंत स्त्री-पुरुषों के ये दृढ़ विवाह बंधन अकस्मात् खुल गए। जिस तरह पक्के बाँध से एक बूँद भी बहने न देकर रोका हुआ प्रवाह बाँध के टूटते ही उसकी उखड़ी हुई दीवारों एवं नींव के पत्थर भी तरंगों पर फेंककर अस्त-व्यस्त ठेलाठेली के साथ मूसलधार बहने लगता है-रूसी क्रांति होते ही स्त्री-पुरुषों की ठीक वैसी ही स्थिति हो गई। लबालब भरी समता उमड़-उमड़कर बह चली। रिश्ते-नाते, जाति-पाँत, आयु सिफारिश, मुहूर्त-बिचौलिया, जन्मपत्रिका-टीका आदि नियंत्रण बंधन खुल गए। कोई भी स्त्री किसी भी पुरुष से संबंध रखे। यदि किसीको सरकारी कागजों में इस संबंध को दर्ज करने की सनक आ जाए तो वह संबंध 'विवाह' कहलाता है। बस, यही था विवाह का स्वरूप। और जिस समय किसी स्त्री या किसी पुरुष को यह प्रतीत होगा कि वह संबंध अथवा विवाह समाप्त करना है तो वह स्त्री या पुरुष सरकारी कागजों में उसी तरह लिखकर दे दे तो बस हो गया विवाह-विच्छेद! इस विवाह-विच्छेद के लिए बस एक ही कारण पर्याप्त है-इच्छा। क्रांति के पश्चात् रूस में विवाह स्वतंत्रता तथा विवाह-विच्छेद स्वतंत्रता, जो प्रत्येक स्त्री-पुरुष नागरिक को जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में प्राप्त हुई, वही इस लेख की रूप-रेखा है।।

परंतु इस स्वतंत्रता के सहचारी के रूप में एक बंधन सभी के लिए अटल था। इस संभोग स्वतंत्रता के अधिकार के प्रतियोगी के रूप में एक अपरिहार्य कर्तव्य का पालन भी प्रत्येक नागरिक के लिए अनिवार्य था और वह था संतान का पालन-पोषण। किसी भी अन्य राष्ट्र की तुलना में रूसी सरकार अत्यंत कठोरतापूर्वक प्रत्येक नागरिक से संतान के पालन-पोषण के कर्तव्य को कार्यान्वित कराती आई है।

विवाह बंधन की नींव पर खड़ी की गई अखिल विश्व के समाज की रचना किसी बौद्ध विहार सदृश संपूर्णतया ज्यों-की-त्यों उठाकर विवाह-विच्छेद स्वतंत्रता की नींव पर स्थापित करना, बौद्ध विहारों को चित्रपट गृह बनाना आदि रूसी क्रांति का अद्भुत प्रयोग पंद्रह वर्षों तक अविरल चलता रहा। उसका परिणाम क्या हुआ? आज रूस में मनुष्य अतिमानुष या अमानुष बन गया है? अथवा मनुष्य का मनुष्य ही रह गया है?

यह प्रश्न जो प्रत्येक चिंतनशील व्यक्ति को अध्ययनीय प्रतीत होता है-सर्वथा साधारण गृहस्थधर्मी स्त्री-पुरुषों को तथा अल्हड़ कुमार-कुमारिकाओं को भी उसकी जानकारी की अवश्य अभिलाषा होगी। इसी कारणवश विश्व के सभी समाचारपत्रों में रूस की इस स्त्री-पुरुष संबंधित अपूर्व क्रांति के वर्णन तथा परिणाम विषयक उलटा-सीधा लेखन सतत लिख जाता है, परंतु स्वयं रूसी लोगों का प्रत्यक्ष अनुभव क्या है? इस प्रयोग की शास्त्रीय छानबीन तथा अधिकृत पूछताछ होकर उस विवाह-विच्छेद स्वतंत्रता का दुरुपयोग हो रहा है या सदुपयोग? विवाह के अस्थिर नींव पर मनुष्य समाज भी अस्थिर होकर गिर सकता है-आदि प्रश्नों पर समाचारपत्रों में प्रकाशित अंधाधुंध तथा उलटी-सीधी चर्चा से साधारण पाठकों की निश्चित रूप में कोई धारणा नहीं बनती। अतः रूसी सरकार के समाचारपत्र 'इज्व्हेस्टिआ' में अधिकृत रीति से कुछ दिनों पहले प्रकाशित लेख में एक विशेषज्ञ रूसी महिला ने पूछताछ समिति की विवाह-विच्छेद स्वतंत्रता से संबंधित रपट प्रकाशित की है। उसमें से प्रमुख भावार्थ का अनुवाद हम इस लेख में कर रहे हैं। उससे हर व्यक्ति के लिए अपना अनुमान लगाना सुलभ होगा। स्वयं रूसी लोगों से पूछताछ करके प्रकाशित किया हुआ यह प्रतिवेदन होने के कारण स्वयं उन्हें आज वह कहाँ तक रास आया-यह उन्हीं के शब्दों में हम इस प्रतिवेदन से देख सकते हैं। इस लेख की यही विशेषता अध्ययन की इच्छा रखनेवालों को भी निश्चित रूप में आकर्षक प्रतीत होगी। महिला वर्ग को तो यह विवाह-विच्छेद स्वतंत्रता का प्रश्न सर्वथा आत्मीय प्रतीत होगा, क्योंकि विवाह-विच्छेद में यदि किसीके प्राण संकट में पड़ सकते हैं तो वह आसन्नप्रसवा महिलाओं के ही। प्रकृति ने यह विषम बँटवारा किया है। स्त्री पुरुषों के बीच इस प्रसव विषमता का समान बँटवारा करना कम-से-कम वर्तमान काल में तो मनुष्य की शक्ति से परे है। वहाँ वर्तमान युगीन बोल्शेविक कौन सा तीर मार सकता है? यह कौन कह सकता है कि दस शताब्दियों के पश्चात् प्रगतिशील विज्ञान इस तरह की कोई युक्ति बना सकता है? उपर्युक्त पूछताछ समिति के प्रतिवेदन का महत्त्वपूर्ण अंश इस प्रकार है-

एक दिन प्रात:काल के समय एबाव अलेक्सेविच नामक एक रूसी नागरिक अचंभे में पड़ गया कि 'अपने बीवी-बच्चों के भरण-पोषण की कैसी व्यवस्था कर रहे हो? यह पूछने के लिए उसे लोक न्यायालय ने अभी, इसी समय कैसे बुलाया है? यह सत्य है कि उसने कुछ दिनों पूर्व ही अपनी पत्नी से विवाह-विच्छेद करने की अनुज्ञा विवाह-विच्छेद अधिकारी से प्राप्त की थी। अभी तक उसने अपनी पत्नी को यह सूचित भी नहीं किया था कि मैंने तुमसे विवाह-विच्छेद किया है, क्योंकि नए रूसी कानून के अनुसार पति-पत्नी में से कोई भी एक अकेला विवाह-विच्छेद कार्यालय में जाकर विवाह-विच्छेद की माँग करे तो उसकी कारणमीमांसा किए बिना तथा दूसरे पक्ष की सम्मति है या नहीं,' यह पूछे बिना ही उसे विवाह-विच्छेद की अनुज्ञा देनी पड़ती है। पत्नी भी इच्छा होते ही पति से पूछे बिना, बिना किसी तरह का स्पष्टीकरण दिए जब जी चाहे तब सरकारी कार्यालय में जाकर अपने विवाह-विच्छेद का विचार प्रकट कर सकती है। अलेक्सेविच अपने बच्चों के भरण-पोषण का बोझ भी पत्नी के विचार से बाँट लेनेवाला था। परंतु यह चाहे कुछ भी हो, उससे यह पूछनेवाले ये (Public) लोक अधिकारी कौन होते हैं? इसी बात का उसे क्रोध भी आया। मैं रूसी नागरिक हूँ-विवाह-विच्छेद प्रत्येक रूसी स्त्री-पुरुष की एक जन्मसिद्ध स्वतंत्रता है। जिस प्रकार मत-स्वातंत्र्य, विचार-स्वातंत्र्य, संभोग-स्वातंत्र्य, उसी प्रकार प्रत्येक नागरिक स्त्री-पुरुष को विवाह स्वातंत्र्य भी एक जन्मसिद्ध स्वातंत्र्य के रूप में प्राप्त है। फिर यह न्यायालय का बुलावा क्यों? उत्तर पूछने का रोब क्यों दिखाया जा रहा है? तैश में आकर इस तरह भुनभुनाते हुए अलेक्सेविच उस सरकारी कार्यालय में, यह कैसा भ्रम हो गया-यह देखने के लिए चला गया।

परंतु वास्तविक भ्रम के शिकार अधिकारी नहीं थे। रूसी निबंधों के अनुसार प्रत्येक नागरिक को जिस तरह विवाह-विच्छेद की स्वतंत्रता थी, उसी तरह संतान पालने का, जो उस स्वतंत्रता का प्रतियोगी है-बंधन भी उसपर था। अलेक्सेविच द्वारा किया गया विवाह-विच्छेद एकतरफा था उस समय उसकी पत्नी अधिकारियों के सम्मुख उपस्थित नहीं थी, संतान का अस्तित्व मानने पर भी अलेक्सेविच ने विवाह-विच्छेद अधिकारियों को यह कुछ भी स्पष्ट नहीं किया था कि उनका पालन-पोषण कौन करेगा, उनकी प्रतिभूति कौन देगा, किस प्रकार पति-पत्नी में इस बोझ का बँटवारा वे दोनों करेंगे। यद्यपि विवाह-विच्छेद की अनुमति दी गई थी तथापि रूसी कानून के अनुसार यह मामला संतान पालन की पूछताछ के लिए सार्वजनिक न्यायालय नामक एक विशेष संस्था के पास भेजकर उन अधिकारियों से उस विवाह-विच्छेदी व्यक्ति को बुलवाकर उपरिनिर्दिष्ट व्यवस्था की जाती, परंतु अलेक्सेविच, जिसे विवाह-विच्छेद स्वतंत्रता की अपनी सुभीता की नैवधिक जानकारी अत्यंत बारीकी से थी, संतान के लालन-पालन के कर्तव्य से संबंधित सरकारी निबंधों की असुविधाजनक जानकारी नहीं थी। यद्यपि विवाह-विच्छेद अथवा 'विवाह' अथवा मात्र 'संबंध' पूर्णत: व्यक्ति की रुचि-अरुचि के प्रश्न के रूप में रूसी निबंध ने व्यक्ति की इच्छा को सौंपे थे, तथापि रूसी निर्बंध या सोवियत सरकार संतति लालन-पालन जैसा विषय व्यक्ति की इच्छा पर नहीं सौंपती। यह व्यक्ति की स्वतंत्रता की परिधि से बाहर का और राष्ट्राधिकार का विषय है। रूसी लोगों की संतान रूसी राष्ट्र की संतान है, वह राष्ट्रीय सोवियत सरकार 'स पिता पितरस्तेषाम् केवलं जन्मेहेतवः' यह सोच अलेक्सेविच की नहीं थी। अत: उसे प्रतीत हुआ कि उन अधिकारियों को कोई भ्रम हो गया है। वास्तविक दृष्टि से देखा जाए तो भ्रम उसी को हुआ था।

रूसी नागरिकों में अलेक्सेविच जैसा क्या एक ही गृहस्थ था जिसे विवाह-विच्छेद के निबंधों का पूरा ज्ञान नहीं और इसी कारणवश संतान-वर्धन का दायित्व क्या होता है-इसकी भी अचूक जानकारी नहीं है? यदि इस तरह का वह अकेला अपवाद नहीं है तो रूस में ऐसे कितने नागरिक हैं जिन्हें वैवाहिक कर्तव्यों का ज्ञान नहीं है? कितने लोग सर्वथा इसी दायित्वहीन तथा उच्छृखलतापूर्ण भावना से विवाह बंधन में बँध जाते हैं। रूस प्रणीत स्त्री-पुरुष संबंध के क्रांतिकारी प्रयोग के परिणाम क्या हुए हैं? विवाह संभोग-संबंध, विवाह-विच्छेद, संतति तथा परिवार इन अत्यंत गंभीर विषयों में अपने राष्ट्रीय कर्तव्य की उपेक्षा इतनी विशाल जनसंख्या द्वारा हो तो नहीं रही कि वह रूसी समाज का ही एक सांधिक दोष समझना अनिवार्य हो?

इन सारे प्रश्नों की यथोचित एवं शास्त्रशुद्ध पूछताछ करने के लिए रूस स्थित मातृपद तथा बाल्यावस्था की सुरक्षार्थ प्रस्थापित संस्था ने अकेले मास्को नगरी में दो हजार कामगार परिवारों की अर्थात् लगभग सात हजार लोगों का निरीक्षण तथा छानबीन की। कितनी अवधि तक विवाह संबंध टिकते हैं? जो विवाह-विच्छेद होते हैं, उनके प्रमुख कारण क्या होते हैं? किन-किन उद्देश्यों को लेकर लोग विवाह करते हैं? विवाह से पूर्व उन स्त्री-पुरुषों का परस्पर परिचय गहरा होता है या नहीं? इस परिचय में एक-दूसरे के स्वभाव परस्पर कसौटी पर कितनी मात्रा में खरे उतरते हैं? साधारणतः विवाह के समय विवाहितों की आयु कितनी होती है?

इस प्रत्यक्ष पूछताछ की वस्तुस्थिति ने तथा गणित की रूसी भाषा ने भी हमसे यही कहा कि कामगार वर्ग में बहुसंख्य लोग विवाह तथा विवाह-विच्छेद के संबंध में गंभीरता तथा विचारपूर्वक व्यवहार करते हैं, तथापि अभी भी कुछ उदाहरणों में नीच, ओछा, ढोंग, स्त्रियों की पूर्ववत् उपेक्षा तथा हमारे विवाह-स्वतंत्रता के निबंधों का लिया हुआ अन्याय, अनुचित लाभ ये दोष पाए जाते हैं।

साधारणतः आजकल रूसी महिलाएँ किस उम्र में विवाह करती हैं ?

हमारी निरीक्षण समिति द्वारा निरीक्षण किए गए प्रत्यक्ष उदाहरण तथा संख्या से यह सिद्ध होता है कि क्रांतिपूर्व तीस प्रतिशत कन्याएँ सत्रह वर्ष के अंदर ही विवाह करती थीं, लगभग सत्तर प्रतिशत बीस के अंदर-बाहर। चौबीस वर्ष के पश्चात् विवाह करनेवाली कन्या मिलना दुर्लभ ही था। सारांशतः यह निश्चित विधान किया जा सकता है कि क्रांति पूर्वकाल में कन्या के विवाह की आयु सत्रह होती थी। चौबीस वर्ष के पश्चात् लड़कियों के लिए विवाह योग्य घर, वर मिलना कठिन ही था। इतनी शीघ्रतापूर्वक (१७ वर्ष की आयु में ही) विवाह होने का प्रमुख कारण यह था कि प्रायः सभी कन्याओं के विवाह प्राचीनकाल में माता-पिता अपनी सुविधानुसार तथा अपनी इच्छानुसार उस घर में करते थे जो उन्हें पसंद हो। ऐसी कन्याएँ दुर्लभ थीं जो देरी से स्वयं विवाह करती थीं। इसका प्रमुख कारण यह था कि विवाह के अतिरिक्त कन्या को अपने योगक्षेमार्थ अन्य मार्ग खुला नहीं था। अतः जितना शीघ्र हो सके, माता-पिता उनका प्रबंध कहीं-न-कहीं करने की अर्थात् उनके विवाह की इतनी उतावली दिखाते थे।

परंतु क्रांति के पश्चात् विवाह की पूछताछ में इस स्थिति में परिवर्तन दिखाई दिया। आज सरकारी तौर पर अड़तालीस प्रतिशत कन्याएँ बीस वर्ष के पश्चात् विवाह करती हैं और छत्तीस प्रतिशत चौबीस के अंदर। अट्ठाइस-उनतीस तक अधिक-से-अधिक विवाह की आयु-मर्यादा अब दिखाई देती है। माता-पिता के नफा-नुकसान के सापेक्ष बलपूर्वक किए गए विवाह के उदाहरण नहीं के बराबर हैं। अब सोवियत रूस स्थित कन्या को अपनी इच्छा के विरुद्ध अल्पवयस्क होने पर कहीं भी ढकेलने की प्रथा बंद हो गई है और उसकी बदलती हुई वयःसीमा से भी यह स्पष्ट होता है कि वह स्वयं सूझबूझ का उपयोग करके अपना विवाह तय कर सकती है। या इसका स्पष्ट प्रमाण है कि विवाह संस्था की महत्ता को महिला वर्ग ने स्वीकार किया और अब सोवियत कन्याओं को इस बात का आकलन भलीभाँति हो गया है कि इस प्रश्न का स्वयं गंभीरतापूर्वक विचार किए बिना किसी आकस्मिक इच्छा के साथ अविवेकपूर्ण कृत्य करने की यह बात नहीं है।

विवाह-पूर्व परिचय

सोवियत महिलाओं में भी उत्तरोत्तर इस बात का तीव्र भान हो रहा है कि विवाह एक ऐसा महत्त्वपूर्ण कार्य है जो विचारपूर्वक ही किया जाना चाहिए। इसका दूसरा प्रमाण है विवाह-पूर्व परिचय में वृद्धि। क्रांति से पूर्वकाल में तिरपन प्रतिशत विवाहों में वर-वधू का परिचय महीने भर का भी पुराना नहीं हो पाता था कि वे झट से विवाह बंधन में बँध जाते थे। जिन वर-वधुओं का विवाह-पूर्व परिचय कम-से कम एक वर्ष पुराना था-इस तरह के बाईस प्रतिशत भी विवाह नहीं पाए जाते थे। जिन कारणों वश क्रांति पूर्वकालीन कन्याओं के विवाह देरी से होत थे उन कारणों की प्रतिशत संख्या भी यह स्पष्ट करती है कि उपर्युक्त बिना परिचय के विवाह इतनी प्रचुर मात्रा में क्यों होते हैं? क्रांति पूर्व काल में तिरपन प्रतिशत विवाह माता-पिता के संतोष के लिए अथवा धनवानों की प्रबल इच्छा द्वारा मात्र व्यापारिक सौदे के लिए संपन्न होते थे। अर्थात् क्रांति-पूर्व इस प्रकार के विवाहों में पूर्व-परिचय की आवश्यकता ही इस तरह के अल्पवयीन तथा अल्पबद्धि वर-वधओं को नहीं होती थी। यह सर्वथा क्रम प्राप्त बात है।

परंतु क्रांति के पश्चात् पूर्व-परिचय की आवश्यकता सतत बढ़ती गई। आजकल के आँकड़े देखे जाएँ तो वर-वधुओं का दृढ़ परिचय छह महीनों से अधिक काल तक होने के पश्चात् जो विवाह संपन्न हुए, उनकी संख्या तिरपन प्रतिशत है और एक महीने के ही पूर्व-परिचयों की संख्या उनतीस प्रतिशत। यद्यपि कन्याओं को इसका ज्ञान हो गया है कि अधिक दिवस के पूर्व-परिचय के पश्चात् जो विवाह होने लगे हैं, उसका एकमात्र कारण विवाह सुखमय होने के लिए पूर्व-परिचय की आवश्यकता है। यही सत्य नहीं है तथापि बहुसंख्य उदाहरणों में विवाह-पूर्व परिचय जितना दृढ़ होगा, उतना परस्पर स्वभाव, दोष, आकांक्षा, ध्येय के संबंध में अन्योन्य परिचय होने के बाद किए हुए विवाहों में धोखाधड़ी की आशंका कम होती जाती है-इसपर विश्वास करने से ही पूर्व-परिचय दीर्घ काल तक रखा और फिर विचारपूर्वक तालमेल बैठने के बाद विवाह किया-इस तरह के उदाहरण पाए जाने लगे, तथापि यह बात चिंताजनक है कि फिर भी एक पंचमांश विवाह एक महीने के उतावली युक्त परिचय में ही संपन्न हो रहे हैं। इसी कारणवश विवाह के पश्चात् शीघ्र ही वधू-वरों में असंतोष फैलकर विवाह-विच्छेद के अवसर आते हैं।

विवाह-विच्छेद

प्रायः सभी सोवियत दंपतियों के विवाह टिकते हैं-विवाह-विच्छेद नहीं होते। जिनके विवाह-विच्छेद होते हैं, उनके कारण प्रायः इस तरह होते हैं-स्वभाव विरोध-यह विवाह-विच्छेद का प्रमुख कारण दिखाई देता है। अधिकतर संख्या इसी कारण की है। शारीरिक कारणों से भी विवाह-विच्छेद होते हैं। मनुष्य स्वभाव की भले ही कितनी ही परख की गई हो, तथापि कुछ काल के पश्चात् अपूर्व संकट में, परिस्थिति भेद अथवा अपूर्व प्रलोभनवश स्वभाव में अचानक तथा अनपेक्षित परिवर्तन होता है, यह मानवी मनोरचना का प्रमुख दोष है। इस प्राकृतिक परिवर्तन शीलता का कोई उपाय नहीं है। जो बाल्यकाल से परिचित हैं, जिनकी अखंड परस्पर प्रीति है, बरसों के साहचर्य के पश्चात् जिन्होंने सोच-समझकर विवाह किया, उनके स्वभाव में भी परिस्थितियों के कारण परिवर्तन आते ही कुछ शारीरिक अथवा मानसिक दोषों का अकस्मात् निर्माण होकर इतना तीव्र विरोध होता है कि उनका सहजीवन दोनों को भी मटियामेट करता है। हमारी पूछताछ में इस तरह के उदाहरण भी दिखाई दिए। इन मामलों में ही विवाह-विच्छेद स्वतंत्रता जो सोवियत क्रांति ने स्त्री-पुरुषों को पूर्णतया दी है, उपयुक्त तथा न्यायपूर्ण है, इसकी जाँच की जा सकती है। इस प्रकार की अपरिहार्य स्वभाव चंचलतावश अथवा किसीको भी प्रमाद के कारण जो विवाह अत्यंत दुःखदायी, द्वेषपूर्ण एवं राष्ट्रीय अहितकारी सिद्ध होंगे, उन्हें दिखावटी एकता में बाँधकर उन दोनों जीवों को बलात् दुःख में सड़ाना, वे चाहे गुप्त रूप से विवाह बंधन चाहे जितनी बार परस्पर विश्वासघात करते हुए अर्थात् संबंध तोड़ने का प्रयास करते हुए भी उस दंपती को प्रामाणिक तथा प्रकट रूप में उसे तोड़ने नहीं देना-उन्हें विवाह-विच्छेद नहीं करने देना, कपट को प्रोत्साहित करना ही है। इसी को लेनिन 'नीचतापूर्ण पाखंड' कहते हैं। प्रत्येक मनुष्य को प्रामाणिक रूप में अपना जीवन सुधारने का अवसर देना चाहिए। पारिवारिक अत्याचार, संत्रास, कलह, हत्या तथा असह्य दुःख टालनेवाला विवाह-विच्छेद का सोवियत निर्बंध ऐसे ही प्रकार के अवसरों पर मनुष्य के लिए वरदान सिद्ध होता है, जीवन का पुनरुद्धार करता है।

विवाह-विच्छेद के कारणों में एक अन्य कारण विशेष उल्लेखनीय है। वह प्राचीन नीति कल्पनाओं को एक दुष्ट अवशेष अद्यापि टिका है। वह कारण है 'पुरुष वर्ग के कुछ लोगों द्वारा पत्नी के विरुद्ध लगाया जानेवाला घिसापिटा आक्षेप 'मैंने सोचा, विवाह के समय उसका कौमार्य अखंडित होगा, परंतु विवाहोपरांत ज्ञात हो गया कि मेरी वधू अक्षत कुमारी नहीं है। अत: मैं विवाह-विच्छेद करूँ।' यह पुरुष की शिकायत का उदाहरण हो गया। स्त्री को विवाह होने तक अक्षत कुमारी होना चाहिए, पुरुष चाहे कैसा भी हो, कोई आपत्ति नहीं। इस तरह की प्राचीन नीतिमत्ता पक्षपाती एवं त्याज्य है। विवाह-विच्छेद का अन्य घिसापिटा कारण है-मदिरापान। स्त्री और पुरुष दोनों ही कभी-कभी इस लत के कारण गृहस्थी चलाने के सर्वथा अयोग्य होते हैं। आज भी न्यूनाधिक मात्रा में स्त्रियों की मारपीट करने की पशु-प्रवृत्ति पुरुषों में दिखाई देती है। इस प्रकार के उदाहरण में स्त्री जब भी विवाह-विच्छेद माँगने जाती है तब विवाह-विच्छेद स्वतंत्रता के कारण सोवियत स्थित महिलाएँ दिन-ब-दिन निर्भय, आत्मनिर्भर हो रहीं हैं जो बिना प्रेमादर के व्यावसायिक दृष्टि से किसी भी परपुरुष से संबंध नहीं रखतीं-इस तरह की संतोषजनक बात का अनुभव होता है।

लेनिन जैसे महान् व्यक्ति कहते हैं, हमने स्त्री-पुरुषों के वैवाहिक जीवन में जो क्रांति की है, वह हमारे लिए अत्यंत गौरवान्वित है। विवाह-विच्छेद स्वतंत्रता, संभोग स्वतंत्रता, स्त्री-पुरुष समानता एवं संतति संवर्धन बंधन, इस प्रकार सोवियत सरकार द्वारा जो-जो बंधन लादे गए हैं, वे निस्संदेह असाधारण तथा अद्भुत थे। परंतु यह सत्य है कि ऐसे गुण विशेष असाधारण तथा अलौकिक निर्बंधों की क्रियान्वयन भी उसी तरह असाधारण कड़ाई एवं दक्षता के साथ होना चाहिए। विवाह-विच्छेद स्वतंत्रता से विवाह संस्था की दृढ़ सुबुद्ध, सुसंस्कृत तथा सुस्थिर नींव पर पुररुद्धार किया गया है। यही हमारी पूछताछ में उजागर हो गया तथापि निम्नांकित मामलों में अभी भी हमारे वैवाहिक निबंधों की कार्यान्विति अधिक सावधानी के साथ करनी होगी।

पहली बात यह कि एक ही व्यक्ति जब विवाह-विच्छेद की अनुमति माँगने आता है-उसे विवाह-विच्छेद की अनुज्ञा मिलने से पहले ही दूसरे पक्ष को सामने बुलाकर विवाह-विच्छेद के कारण बताना अधिक युक्त होगा। केवल विवाह विच्छेद होने की सरकारी सूचना भेजना पर्याप्त नहीं। पुरुष विवाह-विच्छेद की मांग करे तो स्त्री को सामने बुलाकर पहले यह निश्चित करे कि वह गर्भवती है या नहीं। यदि है तो उसका पालन-पोषण तथा संतान से संबंधित भार दोनों पक्षों पर समान रूप से डालने की कठोर व्यवस्था पहले निश्चित करके फिर विवाह-विच्छेद की अनुमति देना अधिक उचित है। दूसरी अत्यावश्यक बात है-प्रचार। अद्यापि अनेक युवा युवतियों को हमारे निर्बंधों का रत्ती भर भी ज्ञान नहीं होता। वे अज्ञानावस्था में विवाह करते हैं। इससे इस लेख के आरंभ में दिए हुए अलेक्सेविच के उदाहरण की तरह उन्हें भी इस विषय से संबंधित सुस्पष्ट निर्बंधों का ज्ञान नहीं होता कि उनपर किस तरह संतति-संवर्धन का बोझ पड़नेवाला है। इसलिए विवाह दर्ज करते ही वर-वधू को अपने पूर्वकाल दर्ज किए हुए और दर्ज नहीं किए हुए, कितने विवाह संपन्न हुए, कितनी संतति को जन्म दिया, इसकी अचूक जानकारी सरकार को देनी चाहिए। यह और अन्य जानकारी देने में यदि किसी स्त्री-पुरुष द्वारा की गई कपटपूर्ण लुका-छिपी उजागर हो गई तो उन्हें कठोर दंड देना चाहिए। सोवियत सदृश समाज सत्तावादी राज्य में प्रत्येक स्त्री-पुरुष को विवाह निर्बंध तथा संतान संवर्धन के दायित्व की संपूर्ण जानकारी होना और स्त्रियों तथा बच्चों से किसी तरह का दुर्व्यवहार करने पर कठोर रोक होना नितांत आवश्यक है। संतान संवर्धन के कर्तव्य में इतनी सी ढील अक्षम्य है।

विवाह विषयक निरीक्षक समिति की इस पूछताछ के प्रतिवेदन में प्रतिपादित अभिमतों की चर्चा करना इस लेख का उद्देश्य न होने के कारण रूसी जनता के अपने ही आत्मनिरीक्षण में उनके क्रांतिकारी वैवाहिक परिवर्तन के संबंध में उनके क्या विचार हैं, इस दृष्टि से इस प्रयोग के परिणाम उन्हें कितने उचित लगते हैं-इन सारी बातों की ताजा एवं अधिकृत जानकारी यहाँ के पाठकों को प्राप्त हो-इसीलिए इस प्रतिवेदन का संक्षिप्त अनुवाद किया है। इसमें दी हुई घटनाएँ एवं गणना (facts and figures) अपना जो कुछ मथितार्थ व्यक्त करता है, वह स्वयमेव अभिव्यक्त कर रही हैं।

('स्त्री पत्रिका', फरवरी १९३६)

ललना-लावण्य की लाभ-हानि

पर्यायपीतस्य सुरैहिमांशोः।

कलाक्षयः श्लाघ्पतरो ही वृद्धेः॥ -कालिदास

यूरोप स्थित एक प्रसिद्ध व्यक्ति द्वारा लिखित 'Debits and Credits of Beauty' नामक लेख, जो हमारी महिला पाठकों के लिए भी पठनीय है, आजकल. ही प्रकाशित हुआ है।

आजकल यूरोप में सर्वत्र सुंदरता की पूजा हो रही है, परंतु प्राचीन काल में एक बार इसी यूरोप में रोमन कैथोलिक पंथ के शासन में सुंदरता ललनाओं का अत्यंत घातक शारीरिक दोष समझा जाता था, जिससे पुरुष अत्यंत सावधान रहे, ऐसी तत्कालीन यूरोपीय धार्मिक साहित्य में इस विघातक लावण्य की भरपूर भर्त्सना की गई है। ईसाई धर्म में जीजस के पश्चात् सेंट पॉल, सेंट पीटर आदि महंतों के वचन धर्माज्ञा समान पवित्र माने जाते हैं। प्रत्यक्ष बाइबिल में ग्रंथित उपदेशों में स्त्री स्वतंत्रता, स्त्रीमोह की और संपूर्ण स्त्रीत्व की किस तरह अप्रतिष्ठा की गई है-यह बाइबिल के निम्नलिखित दो परिच्छेदों से ज्ञात होगा-

'चर्च में महिलाएँ मौनव्रत धारण करें, क्योंकि वहाँ बातें करने की उन्हें आज्ञा नहीं है। अज्ञान ही उनका मूलभूत स्वभाव-धर्म है। अतः जो कुछ सीखना-सँवरना है, वह घर में ही बैठकर सीखें। अपने पति से उन्हें पढ़ना चाहिए, क्योंकि चर्च में वार्तालाप करना स्त्रियों के लिए लज्जास्पद है। (Conthians xiv, 34) पत्नियो, अपने पति को ही अपने सर्वस्व का स्वामी समझो। जिस तरह ईसा मसीह जगत्पति है, उसी तरह पति पत्नी का नेता है, स्वामी है। आदम के पश्चात् ईव उत्पन्न हो गई। पुरुष ज्येष्ठ, स्त्री मूलत: कनिष्ठ, फिर भी आदम (प्रथम पुरुष) धोखे में नहीं आया। ईव 'पहली' स्त्री ही पहले धोखा खा गई।'

नारी को आत्मसुंदरता का पहला भान और उसका आद्य पतन

ईसाई एवं मुसलिम धार्मिक पुस्तकों में, मूलतः यहूदियों के धर्मग्रंथों में कथित विश्व कि उत्पत्ति की कथा ही ईश्वरोक्त सत्य के रूप में मानी जाती है। तनिक परिवर्तन होने पर भी उसी कथा के अंतर्गत पुरुष और नारी की किस तरह उत्पत्ति हुई, इसका वृत्त भी इन तीनों धर्मग्रंथों में कहा गया है कि ईश्वर ने प्रथम पुरुष आदम का निर्माण किया और फिर उसकी एक पसली निकालकर उसके मांस-मज्जाओं से अभिमंडित करके प्रथम स्त्री 'ईव' का निर्माण किया। इसी कारणवश उन तीनों धर्मों के अनुयायियों के अनुसार स्त्री मूलत: ही पुरुष धन एवं संपत्ति है, पुरुष ही उसका स्वामी है। इसके पश्चात् की जानकारी इन्हीं में से कई पंथियों के पुराण इस तरह देते हैं कि-प्रथम स्त्री ईव अत्यंत सुंदर, लावण्य की खान होने पर भी उसे अपनी निरीह निष्पाप अवस्था में अपनी सुदंरता का भान नहीं था। अपना संपूर्ण रूप स्वयं अपनी आँखों से वह नहीं देख सकती थी। 'परांचि खानि व्यसृजत् स्वयंभूः।' अपने चक्षुओं से दूसरे को तो देख सकती है, किंतु अपने आप को नहीं।

एक दिन ईव स्वर्गीय उपवनों में विहार कर रही थी। एक स्वच्छ सरोवर के किनारे बैठकर उसने सहजतापूर्वक उसमें झाँका। देखा तो भीतर एक अभूतपूर्व मनोहर मूर्ति सुशोभित है। उस मूर्ति की सुंदरता पर ईव मोहित हो गई। तब उसने समझा कि यह मूर्ति उसका अपना ही प्रतिबिंब है और वह स्वयं ही अपूर्व सुंदरी है। स्त्री को आत्मसुंदरता का यह पहला ज्ञान और वह स्वच्छ जलाशय उसका प्रथम दर्पण था जिसने उसको इस तरह भान कराया।

उस जलाशय के दर्पण में अपना लावण्य कितना मनमोहक है-यह ज्ञान प्रथम स्त्री को जब प्रथम बार हुआ, तब उसका मस्तक गर्व से ऊँचा हो गया। सुंदरता के ज्ञान से वह रमणी मानिनी हो गई। इतने में उस धूर्त सर्प ने उसकी प्रशंसा करने का सुवर्णावसर देखकर तथा उस प्रशंसा-प्रवाह में उसका मन भटकता हुआ देखते ही उसे उस निषिद्ध फल भक्षण करने का अनुरोध किया था-ईश्वर ने तुम्हें अज्ञानी ही रखने के कपट उद्देश्य से तुम्हें इस ज्ञान वृक्ष का फल खाने के लिए मना किया है। अतः हे चतुर रमणी, तुम यह फल अवश्य खाओ, फिर तुम्हें सभी भले-बुरे का ज्ञान हो जाएगा और तुम मनुष्य प्राणी भी ईश्वर बनोगे। 'जिस प्रकार जल पहला दर्पण है, उसी तरह सर्प नारी का आद्य गुरु है। देखा, आपने भगवान् से अधिक उसे उस सर्प की सीख शीघ्र ही जँच गई है।' उपदेश से ईसाई पुरोहित जो इस कथा का कथन करने के साथ उसपर इस तरह का भाष्य भी करते थे। आगे चलकर इनके जाल में फँसकर आदम भी इस षड्यंत्र में सम्मिलित हो गया और उन दोनों ने मिलकर वह ज्ञान फल खाया। उसके साथ ही न केवल ये दोनों आद्य नर-नारी, वरन् अखिल नारी जाति एवं पुरुष जाति ही वंश परंपरा से पतित हो गई। ईश्वर ने अभिशाप देकर उन्हें स्वर्गीय उद्यान से निकाल दिया। उसने स्त्री से कहा, 'तुम्हें यही दंड दे रहा हूँ कि तुम्हें अपने ये गर्भ, दुःख, प्रसव-वेदना जीना दूभर कर देंगे।' और पुरुष से कहा, 'तुम्हारा जीवन कष्टप्रद होगा।' ईसाई धर्मोपदेशक नारी के इस आद्य अपराध द्वारा यह सिद्ध करते हैं कि स्त्री ही पुरुष के पतन का कारण है। वह विश्व की आद्य अपराधिनी, पहली पापिनी है, उससे सावधान रहें, उसके लावण्य-मोह से सँभलकर रहें।

परंतु नारी की सुंदरता के मोह से जिस तरह आद्य मानव मोहित हो गया तथा उसका भक्ष्य बन गया, उसी तरह भविष्य में कोई भी मोहित न हो, इसलिए नारी को चिरकालीन दासी बनाने के लिए कठोर उपदेश ईसाई धर्म ने यूरोप को सदियों से किया, तथापि नारी ने अपने मनोनुकूल प्रतिशोध लेकर प्रायः उस एकांगी उपदेश की प्रतिक्रियास्वरूप वर्तमान पुरुषप्रधान यूरोप को नारी की सुंदरता का दास बना दिया है। लावण्य लांछनास्पद है, इस तरह के उद्घोष का डंका प्रत्येक गिरजाघर से रोमन कैथोलिक ईसाई धर्म मध्य युग में जिस यूरोप में बजाता रहा, वही यूरोप आज ललनाओं के लावण्य का अपार उपासक बन गया है। व्यक्तिगत अपवाद छोड़कर उपर्युक्त दोनों विधान सामुदायिक अर्थ में वस्तुस्थितिपरक हैं। कई सुंदर ललनाओं के दाँत, केश एवं वर्ण के बीमे कई प्रमुख प्रधानमंत्रियों के जीवन बीमाओं से भी अधिक राशि देकर किए जा रहे हैं। कई लावण्यमयी अभिनेत्रियों का वेतन प्रमुख बिशपों के वेतन से अधिक होता है। यूरोप, अमेरिका की बड़ी-बड़ी राजधानियों में सौंदर्य-प्रतियोगिताएँ संपन्न होती हैं और इस प्रतियोगिता में जो रमणी सभी प्रतियोगियों में अत्यंत लावण्यमयी सिद्ध होती है, उसके छायाचित्रों की प्रतियाँ पोप के छायाचित्रों की प्रतियों से भी लाख गुना अधिक बिकती हैं। प्रासादों से लेकर पर्णकुटियों तक प्रत्येक दीवार के सुंदर चौखटों में वे शोभायमान होती हैं।

यूरोप की नीति, जो ललनाओं के लावण्य को लांछन समझने की धर्मांधता के अतिरेकी सिरे तक पहुँच चुकी थी, अब लावण्य की दासी हो रही लंपटता के अतिरेक तक पहुँच गई है। इस अवस्था में इन दोनों अतिरेक स्थित आंशिक सत्य दृष्टि से ओझल न करते हुए ललनाओं के सौंदर्य का मूल्यांकन, उसके लाभ-हानि को संतुलित रूप में परखकर निश्चित करने का प्रयास यूरोप स्थित एक अनुभवी व्यक्ति ने किया, यह तो बहुत अच्छा हुआ। इस दृष्टि से 'Ursula Blook' के 'Debits and Credits of Beauty' शीर्षक लेख, जिसका उल्लेख हमने आरंभ में किया है-हमारी महिला पाठकों को अपने आत्मीय प्रश्न की पर्याप्त रूप में छानबीन करने के लिए निश्चित रूप में सहायक सिद्ध होगा। उनमें से कुछ उत्तर नीचे दे रहे हैं और उसके पश्चात् हमारा अपना भाष्य होगा।

Ursula Blook के लेखांतर्गत महत्त्वपूर्ण अंश

ललनाओं के लावण्य से होनेवाले लाभ संक्षेप में इस तरह बताए जा सकते हैं-

शीघ्रतापूर्वक स्नेह जोड़ने के लिए सौंदर्य उपयुक्त सिद्ध होता है। एक सीधी-सादी स्त्री से परिचित होने की अपेक्षा सुंदर रमणी से परिचित होने की ओर जनमानस का अधिक रुझान होता है-पुरुषों का तो विशेष खिंचाव होता है। उसके प्रति पुरुषों की अधिक सहानुभूति प्रतीत होती है। उस सुंदरी का मनोभंग करना, उसका जी खट्टा करना अधिक कठिन प्रतीत होता है, क्योंकि उसके सौंदर्य से उनकी भावनाएँ मोहित होती हैं।

प्राकृतिक रूप से ही सुंदर होने से नारी अपनी ओर से अधिक-से-अधिक अपना सिक्का जमाने के लिए प्रोत्साहित होती है-उसके लिए लोगों को प्रभावित करना सुलभ होता है। रूपसी रमणियाँ सतत इसी प्रयास में लगी रहती हैं कि वे यथासंभव आकर्षक लगें, उनका प्रकृतिदत्त सुंदरता का उदार आभूषण अधिक ही खिले और उसका अपने लिए यथासंभव उपयोग किया जाए।

उन प्रियतमों की संख्या अधिक होगी जो लावण्य पर मुग्ध हैं। इससे जिस प्रकार साधारण महिलाओं को वर की खोज, उसका चयन जिस प्रकार कठिन प्रतीत होता है वैसा सुंदर स्त्रियों के लिए नहीं होता। माता तथा पत्नी इन दोनों कर्तव्यों की पूर्ति करने में ही नारी जीवन की वास्तविक सफलता होती है-यह भी रूपवती महिला के लिए सहज साध्य होता है। रूपसी वधू को वर प्राप्ति सुलभ होती है। इतना ही नहीं, उन वरों में मनभावन वर चयन करने का अवसर भी उसे कठिन नहीं होता, क्योंकि ऐसे अनेक पुरुष, जो वधू याचक होते हैं, उसके लावण्य की ओर आकर्षित होने के कारण उन साधारण रूप की सीधी-सादी महिलाओं की अपेक्षा जिनका हाथ माँगनेवालों की संख्या मूलतः कम होती है, उसका स्वयंवर क्षेत्र अधिक विस्तृत एवं विविध होता है। सुंदरियों को अपने अनेक अभिलाषियों में से मनोनुकूल चयन करने का पर्याप्त अवसर प्राप्त होता है।

इन लाभों को देखने से कोई भी सहजतापूर्वक यही सोचेगा कि जिन महिलाओं को सुंदर रूप की देन का मूलतः ही लाभ हुआ है, उनका जीवन अधिक सुखमय तथा सफल होता होगा; परंतु मुझे इसपर संदेह है, क्योंकि लावण्य से यद्यपि इतने महत्त्वपूर्ण लाभ होते हैं तथापि उससे जो हानि होती है वह भी कुछ कम नहीं है।

पहली हानि इस तरह होती है कि यद्यपि सुंदर स्त्री को बहुत लोग सँभालते हैं, परंतु यह नहीं कि वे नित्य ही भले होते हैं। प्रायः उसके इर्दगिर्द बुरे लोग ही मँडराते रहते हैं। अनेक भले-बुरे लोग उसकी नित्य नियमित रूप से आरती उतारते रहने के कारण वह भी व्यर्थ ही इतराकर आकाश में उड़ने लगती है। वह अपना होश-हवास खोकर स्वेच्छाचारिणी, मनचली बनती है, उसके पैर धरती पर नहीं टिकते। विवेक का साथ छोड़कर सँभलकर रहना उसके लिए कठिन हो जाता है।

मुझे किस चीज की कमी है! सैकड़ों लोग मिलेंगे जो मेरा हाथ थामने के लिए लालायित होंगे-इस घमंड से इठलाती हई वह जिस-तिस को ठुकराती है। अंत में जो आवश्यकता से अधिक होशियारी दिखाना चाहता है उसे मुँह की खानी पड़ती है, इस तरह के छल का उसे सामना करना पड़े, इसकी संभावना होती है। 'यह नहीं, वह नहीं' करते-करते हाथ में कुछ भी नहीं रहता अथवा रद्दी चीज को स्वीकार करने के लिए वह बाध्य होती है।

इसी कारणवश और परिष्कृत अभिरुचि के कारण विश्व की कुछ नामवर सुंदरियाँ सुखी गृहस्थी की अनुभूति से वंचित रहीं, मनोनुकूल विवाह सुख उन्हें नहीं मिल सका। अपनी अपार आकांक्षा तथा अपनी हेकड़ी, शेखीबाजी जैसे दोषों के कारण कई सुंदरियों के विवाह धनवानों से हो गए; परंतु सुखपूर्ण नहीं हुए।

आज तो यही स्थिति है, क्योंकि आजकल पुरुष का रुझान तरुणाई की ओर होता है। न केवल देखने में अपितु आयु में जो वास्तव में युवा है, उसकी ही कामना हर कोई करता है।

लोगों में यह विघातक धारणा बलबती होती जा रही है कि कांति और मति दोनों कभी जुड़वाँ बहमें नहीं हो सकतीं। सुंदर व्यक्ति प्रायः बुद्धिमान नहीं होता। 'देखने में ढब्बू और चलने में शिबराई' इसी तरह के उदाहरण अधिकतर दिखाई देते हैं। जिस व्यवसाय में बुद्धि की ही अधिक माँग होती है उसमें सुंदरता फीकी पड़ती है, उसका मूल्य कम होता है। साधारण नौकरी में भी केवल सुंदर स्त्रियों की सुंदरता उनके लिए अधिक सहायक नहीं होती प्रत्युत कई बार तो वह प्रगति मार्ग में रोड़ा बनती है।

उसी स्त्री जाति की ईर्ष्या सतत रमणी के पीछे हाथ धोकर पड़ती है। यह तो बहुत ही कष्टप्रद होता है। विवाहित महिलाएँ ऐसी रूपसियों की ओर सदैव संदेहपूर्ण दृष्टि से देखती हैं। सुंदर कन्याओं से संबंधित लोग आसानी से गप उड़ाते हैं, उन पर छींटाकशी करते हैं। इस तरह का कष्ट अधिकतर साधारण लडकियों के हिस्से में नहीं आता।

सुंदर स्त्री के पास इतना विवेक नहीं होता जो अन्य जनों की उचित जाँच-परख कर सके। प्रायः लोगों की दृष्टि उसकी सुंदरता पर ही अधिक जम जाती है, न कि उसके स्त्रीत्व पर। उससे अधिक उन्हें उसका सुंदर मुखकमल अधिक भाता है। उसके सच्चे मित्र कौन हैं, किसका प्रेम सच्चा है, इसकी पहचान करना कठिन होने के कारण मनुष्य को परखने में वह कई बार धोखा खाती है। जिनके संबंध में उसकी यह धारणा होती है कि मैं देखने में सुंदर हूँ, इसलिए लोग मेरी चापलूसी कर रहे हैं-वस्तुत: वही लोग क्वचित् उससे सच्चा प्रेम करते हैं और जिन्हें शपथपूर्वक वह अपना सच्चा दोस्त मानती है वही अंत में धोखेबाज सिद्ध होते हैं। बार-बार हो रही धोखाधड़ी के कारण अंत में वह सभी को संदेहास्पद समझने लगती है। वह किसीको सच्चा नहीं समझती।

इसके अतिरिक्त सुंदरता सतत क्षरित होती रहती है। उस क्षतिपूर्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहना पड़ता है। रमणी को अपना पद स्थिर रखने के लिए यथासंभव सर्वांग सुंदर रहना ही पड़ेगा। लोगों में खुसुर-फुसुर आंरभ होने की आशंका से कि 'क्या यह बुझी-बुझी सी नहीं लगती?' वह भयभीत होती है। उसकी सुंदरता की कीर्ति फीकी न हो, इसलिए प्रयत्नशील रहते समय सुंदर रमणी को असीम तनाव सहना पड़ता है।

सुंदरता का सबसे असहनीय दोष वृद्धावस्था

जिसका रूप अभिराम हो, जिसकी सुंदरता पर मर-मिटकर सारे जन जिसके चरणों के दास बने हैं, एवं गुण विशेष रूपसी एक ऐसे उच्च पद पर आरूढ़ होती है कि वहाँ से उतरना उसे असंभव प्रतीत होता है। प्रभुता का स्वाद चखा हो, प्रभुत्व दबदबे का डंका बजाया हो और उसके पश्चात् भी प्रभुत्व अपने हाथ से फिसलने लगे तो यह किसे असहनीय प्रतीत नहीं होगा? वह मनमोहक भाव-भंगिमा तथा वह अल्हड़ खिलखिलाहट, रूठा-रूठी उस सुंदरी की तरुणाई को चार चाँद लगाते- वही उस स्त्री की आयु बढ़ने पर भद्दा, वाहियात एवं तिरस्करणीय प्रतीत होने पर उस रूखे सौंदर्यवाला शरीर स्त्री के मन पर तीव्र आघात किए बिना कैसे रहेगा? सुंदर स्त्री की वास्तविक कुशलता वृद्धावस्था में बार्धक्य को शोभायमान बनाकर रखने में ही है।

सुंदर ललनाओं की इस दुर्गति पर तरस खाने के बदले उसे परिहास का विषय ही समझते हैं। वृद्धावस्था में लगभग सभी एक समान ही प्रतीत होते हैं। संपूर्ण जीवन की आदतें बदलना और जिस वृद्धावस्था में प्रभुत्व का डंका बजाने का साधन, जो सौंदर्य था, उससे ही वंचित होना पड़ता है। उसी वृद्धावस्था में दिनयापन करना किसी भी स्त्री के लिए दुःसह एवं कठिन ही होगा।

'सौंदर्य के हानि-लाभ' गिनकर तथा व्यय का मिलान करने से लाभ की अपेक्षा हानि का पलड़ा ही भारी होने से और इसी कारणवश आय-व्यय का संतुलन करना भी असंभव होने से मैं यह प्रतिपादन करने पर विवश हूँ कि कुल मिलाकर ललना के लिए लावण्य सुखप्रद नहीं है।

अंत में सुंदरता के पल्ले प्रायः निराशा की खोखली फसल ही पड़ती है।

सुंदरता की धरोहर पर अव्वल तो इतना सूद नहीं मिलता, जो मिलता है उस पर भारी कर चुकाना पड़ता है। जिस दुकान पर उसे रखा जाता है, कहा नहीं जा सकता कि वह दुकान ही कब डूबेगी। अत: इस सौंदर्य-धन का निवेश नहीं किया जा सकता। सादगीपूर्ण रूप ही स्त्री के लिए सौंदर्य से अधिक हितकारी एवं कम धोखादायक है।

लावण्य जितना विलोभनीय,उतना ही हितकारी

उपर्युक्त (Ursula Blook) के लेख में लावण्य से लाभ-हानि बहुत विचारपूर्वक तथा संतुलित रूप में कथन करने का प्रयास किया गया है; परंतु विचारों की प्रस्तुति सुसंगत नहीं है। और लाभ-हानि की तुलना द्वारा निकाला हुआ तात्पर्य तो सर्वथा एकांगी है। आय-व्ययांतर्गत राशि को लिखते ही किसी अन्य व्यक्ति के नाम राशियाँ लिखी गई हैं, क्योंकि सौंदर्य से उत्पन्न जिन हानियों का निर्देश किया गया है वे वस्तुतः सौंदर्य से नहीं होती, उसका दुरुपयोग अथवा सदुपयोग न करने से होती हैं।

सौंदर्य से उत्पन्न जिस हानि का वर्णन ऊपर किया है वे अनेक दृष्टि से होती हैं, यह सिद्ध किया जा सकता है। जो अच्छा दिखाई दिया, वह वही अनेक प्रसंगों में उद्वेगकारी असहनीय हो जाता है। अनेक प्रसंगों में किसी दुर्घटना में अपने प्रियतम को लहू से लथपथ देखकर अथवा कुपुत्र को अधिक मदिरा सेवन से दर दर भीख माँगते देखकर अथवा पेशवाई के अंतिम दिन उन मानधन पेशवा के की शनिवार हवेली (शनिवारवाड़ा) पर लहराता हिंदू पदपादशाही का जरतारी सुनहरा झंडा नीचे गिरकर उसपर अंग्रेजों का यूनियन जैक झर-झर चढ़ते देखकर दुःखी हुए मन से उद्वेगजनक उद्गार निकलते हैं- 'आह! यह दुर्दशा देखने से अच्छा होता यदि ईश्वर ने नेत्र ही न दिए होते।' उसी तरह 'यह सौंदर्य ही नहीं होता तो मेरी ऐसी दुर्गति क्यों बनती?' इस तरह यदि कोई हेलन अथवा क्लियोपेट्रा अथवा पद्मिनी दुःखावेश में अपना क्षोभ प्रकट करती हो तो उससे लावण्य स्वयमेव, त्याज्य, रद्दी सिद्ध नहीं होता, न ही विघातक। अपनी दृष्टि से भी कभी-कभी दुर्दशा देखनी पड़ती है। इसलिए दृष्टि ही विघातक अथवा नेत्रहीन होना अथवा कम-से-कम धुंधली दृष्टि होना ही अच्छा, इस तरह कहा जा सकता है।

जिस तरह आयु ढलने से लावण्य क्षरित होता है, उसका क्षय होने लगता है, उसी तरह दृष्टिमांद्य भी अटल है, बुद्धि का भी क्षय होगा। वृद्धावस्था में सौंदर्य सम्राज्ञी की भी दयनीय अवस्था होती है, उसी तरह बुद्धिमान् तथा दृष्टिमान जनों की भी वही अवस्था होती है। वृद्धावस्था में नेत्रहीनता एवं बुद्धि मंद पड़ने लगते ही मनुष्य को खेद होता है। लावण्यवश जैसे कई उन्माद होते हैं वैसे ही उन्मार्गगामी बुद्धि द्वारा भी होते हैं। दृष्टि द्वारा भी होते हैं, परंतु इसलिए हम यह तात्पर्य नहीं निकाल सकते कि निर्बुद्धि व्यक्ति तथा जन्मांधता ही सच्चा सुख है।

मनुष्य अपनी बुद्धि के बलबूते आज तक अनेक सुविधाजनक अन्वेषण कर सका, ऐसे अनेक लाभ संपादन करने में वह सफल बना जो उसे जन्मतः प्राप्त नहीं हुए थे। मोटर, रेल के साधन द्वारा उसने अपनी गति शतगुना तेज की। अनेक नौकाओं, अग्नियानों द्वारा समुद्र को पार किया। औषधियाँ तथा शल्य चिकित्सा द्वारा रोगों को पराभूत किया। फिर भी उसका विज्ञान इतना उन्नत नहीं बना जिसके द्वारा जो जन्मजात प्राप्त नहीं हुआ वह सौंदर्य संपादन कर सके। अपने मूलभूत साधारण अथवा भोंडे रूप में परिवर्तन करके उसके संदर तथा दर्शनीय बनाने की चाबी घुमा सके। निकट भविष्य में ही कुरूप को सुस्वरूप बनाने की तो दूर, कृष्णवर्ण को गोरा करने की युक्ति भी मनुष्य को मिलने का विश्वास आज नहीं दिलाया जा सकता। इस प्रकार मनुष्य जो प्रयत्नपूर्वक भी संपादन नहीं कर सका, जो अत्यंत विलोभनीय प्रतीत होता है, वह दुस्साध्य रूप सौंदर्य का जिन्हें जन्मत: लाभ हो गया है, वह पुरुष अथवा वह स्त्री यदि यह धारणा बनाए कि यह एक ईश्वरदत्त स्पृहणीय वरदान है, तो उसी मात्रा में, उसी संदर्भ में उसका अपने आपको परम भाग्यशाली समझना सर्वथा स्वाभाविक एवं उचित है। जिस राष्ट्र के पुरुष 'दीर्घोरस्को वृषस्कंधः शालप्रांशुर्महाभुजः' इस तरह के पौरुषपूर्ण सौंदर्य से और स्त्री जिसे देखते ही वीतरागी तपस्वी भी संबोधित करे कि 'त्वमस्य विश्वस्य च नेत्र कौमुदी।' इस तरह विलोभनीय लावण्य शोभायमान है, उस राष्ट्र को अपनी रूप-संपदा का कोई स्वर्गीय वरदान समझकर जतन करना चाहिए। सृष्टि के उस विशेष उपकार के लिए उसका आभारी ही होना चाहिए।

ललना लावण्य तो सृष्टि की अप्रतिम कारीगरी का अत्यंत कमनीय सुवर्ण कलश ही है। चित्र उकेरते-उकेरते प्रद्युम्न का चित्र उकेरा, तब उषा जिस तरह अत्युत्कट संतोष से उठकर कहने लगी, 'रुको सखी, अपनी तूलिका रख दो। यही मेरे सपनों की अभिराम, मनोहर आकृति है।' उसी तरह एक से बढ़कर एक सुंदर आकृतियों की कल्पना करते, उन्हें उकेरते हुए यदि वह मनोनुकूल न बने तो उसे भूगर्भीय (Geological) रद्दी की टोकरी में फेंकते हुए सृष्टि देवी अपने कलागृह (studio) में युग-युग से उकेरती रही थी। अंत में जब उसकी कुशल तूलिका से एक लावण्यवती ललना का चित्र उकेरा गया, तब वह प्रकृति, वह आद्य-अमर चित्रलेखा अपनी ही अपूर्व कलाकृति देखकर विस्मित हुई तथा हर्ष-विभोर होकर अपने ही कलानंद में तन्मय होकर कहने लगी, 'अहा हा! यही मेरी सौंदर्य स्वप्न स्थित मनोहर कलाकृति है।' मेरा आदर्श चित्र! कविता भी ललना के उस मनोज्ञ लावण्य को देखकर कहने लगी, वाह!

अस्याः सर्गविर्धो प्राजापतिरभूच्चंद्रो नु कांतिप्रदः।

शृंगारैकरसः स्वयं नु मदनो मासो नु पुष्पाकरः॥

वेदाभ्यासजडः कथं नु विषयव्यावृत्तकौतूहलो।

निर्मातुं: प्रभवेन्मनोहरमिंद रूपं पुराणो मुनिः॥

कोमल कविता के क्या कहने! परंतु वह महादेव, वह कुरूप आँखोंवाला उग्र? वह भी उस रमणीय ललना के दर्शन से क्षण भर में विचलित हो गया। 'चंद्रोदयारंग इवाम्वुरार्शी' तथा जैसे कि 'कुमारसंभव' में वर्णन है-'मामुखे विंबफला धरोष्ठे। व्यापारयामास विलोचनानि॥'

आज भी सृष्टि के कलागृह में लावण्यमयी ललना के उस सुंदर चित्र से अधिक विलोभनीय अन्य कलाकृति नहीं मिलती। ललना लावण्य से सरस अन्य सौंदर्य स्वप्न सृष्टि ने भी अभी तक नहीं देखा। उसकी प्रतिभा कम-से-कम आज तो नहीं दिखाई देती। भला भविष्य के बारे में क्या कहा जा सकता है?

एवंगुण विशेष ललना का यह लावण्य यदि नामशेष हो गया तो जीवन एक अत्यंत विमोहक आनंद से वंचित होगा। इतना ही नहीं, जीवन की एक प्रेरणाशक्ति ही वंचित रहेगी, क्योंकि ललना लावण्य केवल जीवन की एक नयन मनोहर शोभा नहीं, वह सृष्टि की प्रजनन लालसा का वशीकरण चूर्ण है। लावण्य भगवान् मदन देवता के हाथ में रखा एक अमोघ अस्त्र है। इसी अस्त्र के बलबूते चिंतातुर इंद्र को जो 'कुमारसंभव' का लोकहितकारी देवकार्य साध्य करने के लिए सिद्ध हुआ, परंतु उसका वज्र भी वह देवकार्य साधने में अक्षम था। मदन ने सावेशपूर्ण आश्वस्त किया कि-

प्रसीद विश्राम्यतु वीर वज्रं शेरर्मदीर्यर्कतरः सुरारिः।

विभेतु मोघीकृत बाहुवीर्यः स्त्रीभ्योपि कोप्रस्फुरिताधराभ्यः॥

जिस उद्देश्य से प्रथम प्रसूता माता को आगे चलकर प्रकृति ने दूध दिया मुख्यतः उसी उद्देश्य से कामिनी कुमारी को उसने प्रथम सौंदर्य प्रदान किया। प्रजा जनन यही नहीं अपितु सुजनन (Eugenics) यही ललना को विलोभनीय लावण्य दैवी वरदान देने में प्रकृति का प्रमुख उद्देश्य है। यही प्रकृति की अपेक्षा है।

अत: लावण्यवती कुमारियो, जननियो, तुम्हें जन्मतः ही प्रकृति द्वारा प्राप्त इस दैवी देन को अपने पूर्व संचित पुण्य का वरदान समझो और उसका सावधानी से जतन करो। प्रत्येक नारी केवल लावण्य ही नहीं, प्रत्येक नारी उस जन्मतः उपलब्ध रूप को यथासंभव निखारने का प्रयास अवश्य करे। प्रसाधनों की सहायता से अपनी कांति, वर्ण तथा शोभा परिवर्धित करे। नारी का सौंदर्य जिसके द्वारा विकसित होगा उसे उसका यथोचित लाभ भी मिलना चाहिए।

हमारे आर्यावर्त में प्राचीन काल में स्त्रियों के लावण्य का सम्मान होता था। लावण्य लांछन न होकर एक गौरव युक्त विभूषण माना जाता था, इस बात के प्रमाण हमारे संस्कृत साहित्य में पाए जाते हैं। 'रामायण', 'महाभारत' जैसे आर्य ग्रंथों में भी स्त्रियों से जुड़े संबोधन देखिए। ब्रह्मर्षि और राजर्षि भी उन्हें 'हे सुकेशि, हे सुलोचने, हे सुमुखि, हे रंभोरू,' इस तरह संबोधित करते थे। स्त्रीवाचक शब्द और विशेषण देखिए-रमणी, ललना, रामा, सुंदरी, वरोरू, सुमध्यमा, पृथुजघना, कामिनी, कांता! स्त्रियों के अंग-अंग के तथा संपूर्ण देह-लता का सुगठन तथा सौंदर्य इस तरह गौरवाका आभूषण समझा जाने के कारण स्त्रियों द्वारा उस जन्मजात सौंदर्य का यथासंभव जतन करके, कांतिवर्धन चूर्णादि प्रसाधनों से उसे पुष्ट कर तथा इस जन्म से प्राप्त पैतृक देव को उससे भी अधिक परिवर्धित करके अपनी संतान के हाथों सौंप दिया जाता। अपने लावण्य का सदुपयोग करने के लिए स्त्रियों से प्रोत्साहित होकर पीढ़ी-दर-पीढ़ी सौंदर्य वृद्धिगत होता था। माता से कन्या अधिक सुंदर, पिता से पुत्र अधिक सबल होता था। जो राष्ट्र अपना शरीर सौष्ठव, प्रति पीढ़ी में वृद्धिगत करने की कामना करता है, उसकी संस्कृति भी कलापूर्ण बनती है।

जो जितनी अव्यवस्थित, अस्तव्यस्त तथा कुरूप होगी उतनी ही सुवृत तथा सुशील होगी, ऐसा जो कलाहीन संस्कृति मानती है, वह विकृति है, न कि संस्कृति। प्रत्येक पीढ़ी की इस तरह की उपेक्षा से वह अधिकाधिक भद्दी, भोंडी, बेढंगी तथा भयानक होती जाती है।

परंतु हे सुंदरियो, तुम्हें इस बात का विस्मरण नहीं होना चाहिए कि सौंदर्य तुम्हारे हाथों में सौंपी हुई प्रकृति की दैवी धरोहर है। इसलिए उस अमूल्य धरोहर की वह शर्त है-सुजनन, सुप्रजनन। जो लावण्यलतिका निस्संतान है वह निष्फल आम्रवल्ली समान व्यर्थ है, निकम्मी है। जीवन एक यज्ञ ही है। सद्गुण अथवा दुर्गुण निश्चित करने की मानवी कसौटी एक ही है कि मानव जाति के सामुदायिक हिताय संपन्न किए यज्ञार्थ जो उपकारक हैं वे ही सद्गुण हैं, जो अपकारक हैं वे दुर्गुण हैं। यदि आपका सौंदर्य आपका लांछन दुर्गुण नहीं है, आपको एक अत्यंत सौभाग्यास्पद सद्गुण निश्चित करना हो तो उस सौंदर्य का इस प्रकार सदुपयोग करें कि उस योग से आपके राष्ट्र का कल्याण ही हो। आपका सुख तथा हित भी उसी में समाविष्ट होना चाहिए। यदि कोई आम्रवल्लरी केवल बौर-ही-बौर से लहलहाती रहे और निष्फल रहे तो उसे कौन पूछता है? अमृतोपम मधुर आम्रफलों से लदी आम्रवल्लरी ही वास्तव में स्पृहणीय है। उसी तरह जो स्त्री अपनी सुंदरता नष्ट न हो, इसलिए केवल बन-सँवरकर इठलाती फिरती रहती है और स्वस्थ, सुंदर संतान की प्रसूति तथा उसके लालन-पालन का अपना जीवन कर्तव्य इस प्रकार के राक्षसी लालचवश टालती है, वह स्वयं तो वत्सलता के एक अत्यंत मधुर आनंद से वंचित रहती ही है, राष्ट्र पर भी एक आपत्ति बनकर रहती है। जिस उद्देश्य से प्रकृति ने उसे सुंदरता की अनमोल निधि दी, उस हेतु उस शर्त को पूरा न करने के कारण वह प्राकृतिक धन संतति हितार्थ नियोजित न करने से वह नैतिक चौर्य की अपराधिनी सिद्ध होती है।

'भुज्यन्ते ते त्वघं पापा: ये पचंत्यात्मकारणात्' संतति नियमन वह कि जिसका उत्तम संतति प्रसूति के लिए आचरण किया जाता है। संतति नियमन का अर्थ संतत्युच्छेदन नहीं। वह निश्चित ही आत्मघातक तथा राष्ट्रविघातक भी है। स्वार्थां धता की यह राक्षसी परिसीमा है।

संतत्युच्छेदन लावण्य-पोषण नहीं,लावण्य-हत्या है

यह कोई आलंकारिक अत्युक्ति नहीं है, यह एक सामाजिक सत्य है। ऊपर निर्दिष्ट (Ursula Blook) के लेख में लावण्य का जो सबसे अधिक दुःखप्रद दोष बताया गया है-वह है उसकी भंगुरता। लावण्य एक फूल है और फूल की तरह ही देखते-देखते वह खिलता है और खिलते-खिलते ही कुम्हला जाता है। 'गलित यौवना कामिनी-',यह भर्तृहरि की ही नहीं, संपूर्ण मनुष्य जाति के हृदय में चुभती हुई शूली है। ललना अपनी सुंदरता न ढले, इसलिए अपने के परमावश्यक सामाजिक कर्तव्य में ही चूकने की अधम इच्छा और वत्सलता के अत्यंत मधुर सुख से वंचित होने की भूल यदि आप कर रही हैं तो इस बात पर गौर करें कि आप चाहे कुछ भी करें, यह सौंदर्य टपकती गगरी के पानी की तरह ही भरते-भरते घट जाएगा, उसका क्षय अवश्य होगा। उसका संचय करने का विचार करने पर भी वह औटेगा और उसे टिकाने का विचार करने पर भी वह सड़ जाएगा। आयु के सोलह वर्ष से छब्बीस वर्ष तक खिलता हुआ यह बरखा ऋतु का फूल, अधिक-से-अधिक दस वर्षों का सौंदर्य का पाथेय! आपके चालीस वर्ष अर्थात् प्रायः संपूर्ण जीवन सौंदर्य की भुखमरी में ही आपको व्यतीत करना होगा। इस प्रकार इस विलोभनीय, परंतु अत्यंत क्षणिक तथा नश्वर सौंदर्य के जाल में फँसकर सारे जीवन के कल्याण एवं कर्तव्य से वंचित रहने की अथवा चूकने की भूल कौन सी वनिता करेगी?

एक तरह से व्यक्ति का न सही, समाज का सौंदर्य अमर करने की युक्ति प्रकृति ने मनुष्य के हाथ में रखी है। जिन मूढ़ वनिताओं को लावण्य क्षय होने के विचार से सुप्रजनन का भय लगता है, उस प्रसव से ही सौंदर्य की क्षतिपूर्ति होती है।

वैयक्तिक नहीं राष्ट्रीय लावण्य अमर करने की कृति

यदि किसी गुलाब उद्यान को पूरा-का-पूरा सदैव प्रफुल्लित, सदाबहार ताजगी से भरपूर तथा लहलहाता हुआ चाहे तो माली क्या करता है? एक बार ही पाँच-दस गुलाब लगाकर वह हाथ-पर-हाथ धरकर नहीं बैठ जाता। धीरे-धीरे उन गुलाबों का क्षय अटल है, वे सत्वहीन अवश्य होंगे, इसके लिए वह जब तक प्रफुल्लित हैं तब तक उसके कलम बनाकर माली सर्वत्र नए-नए गुलाबों का आरोपण करता है। उससे जो एक गुलाब निस्सार होता है, उसके अपने ही जीवन तंतुओं से ग्यारह गुलाबों की नई-नई बहार आती है। और वह गुलाब वाटिका सदाबहार लहलहाती रहती है। उसी तरह हे सुंदरियो, तुम्हारे लावण्य की भी यही स्थिति है। वह जब तक खिला-खिला सा है तब तक उस लावण्य लतिका के कलमों का नवजीवन की भूमि पर आरोपण करती जाओ। जिस एक सुंदर माता के इर्दगिर्द उसके चार सुंदर सुशोभित पुत्र-पुत्रियों का जमघट विचरता है, उसका सौंदर्य सफल हुआ, उसका जीवन पुन: तरोताजा हो गया। उसके अपने यौवन की बहार कम हो रही है कि उसके लावण्यानंद की क्षति शतगुनों से पूर्ति करता हुआ वात्सल्यानंद उसके हृदय में उमड़-उमड़कर बहने लगता है। उसके जीवन का पूर्वार्ध जिस तरह गदराए हए सौंदर्य से भरा होता है उसी तरह उत्तरार्ध भी रसभीना ही रहने से उसका जीवन कभी नीरस, रूखा नहीं होता। उसका सौंदर्य तथा यौवन उसके पुत्र-पुत्रियों के रूप में पुनः परिवर्धित होता है, उसके राष्ट्र का सौंदर्य तथा यौवन अमर होता है।

सौंदर्य से शील अधिक विलोभनीय

इसलिए लावण्य का जलन करो, परंतु महिला जन हो, जिस योग से मनुष्य जाति के कल्याणार्थ ही उसका विनियोग होगा, इसी अनुपात में तथा उसी तरह से सौंदर्य को महत्त्व दो, उसे सत्कार्यों में लगाओ-यही शील है। यह शील ऐसी संपदा है जो आजन्म पर्याप्त होता है, मृत्यु के पश्चात् भी शेष रहता है। जो स्त्री रूपमती नहीं परंतु परोपकारी, वत्सल तथा विवेकशील है, उसे ऐसी स्त्री से अधिक गौरवपूर्ण समझनी चाहिए जिसके पास मात्र रूप-सौंदर्य है, परंतु वत्सलता तथा प्रामाणिक शील नहीं। वह साधारणत: अधिक सुखी एवं समाज को अंत तक प्रिय होती है। परंतु जिसे लावण्य और शील इन दोनों आभूषणों का लाभ हो गया है उसे लावण्य से प्राप्त लाभ तो मिलते ही हैं: परंत (Ursula) के उपर्युक्त लेख में कथित हानियों को उनके सदपयोग द्वारा प्रायः टालना संभव होता है। स्वार्थी बंध्या नारी का लावण्य तो छीज जाता ही है; परंतु किसी कुपण का धन नष्ट होते ही जिस तरह उस असह्य वेदना होती है उसी तरह आय द्वारा उसके लावण्य को पराभूत करने के पश्चात् उसकी दुर्गति बनती है। अपने बीजों को नवजीवन क्षेत्र में आरोपण करते हुए वह सुंदर संतति का विस्तीर्ण बागीचा फैलाती है और विश्व की शोभा तथा संपदा परिवर्धित करती है। उस शीलवती माता का सौंदर्य भी तो छीजता ही है; परंतु जिस तरह दानशील आर्य सम्राट् सर्व दाक्षिण यज्ञ में अपनी सारी संपत्ति प्रजाजनों में बाँटकर मृत्पात्रणेषामकरोद्विभूतिम् होता है उसी तरह माता का सौंदर्य नष्ट होने से वह जब सौंदर्यवती थी, उससे भी अधिक मनोज्ञ दिखाई देती है। उसकी लावण्य निर्धनता उसे अपनी लावण्य संपदा से भी अधिक निखारती है-आदानं हि विसर्गाय सतां वारिमुचामिव।

हमारे पुराणों के अंतर्गत अनेक सुंदर कथाओं में एक ऐसी कथा है-पूर्णमासी के पूर्ण चंद्रमा को देवतागण ऐसे पान करने लगते हैं जैसे लबालब भरा हुआ अमृत का प्याला। उस सुधांशु के अंशों को पान करते-करते अंत में देवता गण मात्र एक अंश शेष छोड़ते हैं-वही है प्रतिपदा की चंद्रकला; परंतु इसी कारणवश पूर्णमासी के पूर्ण चंद्र को जो सम्मान प्राप्त नहीं होता वह देवकार्य में अपना सर्वस्व समर्पित करके क्षीण बनी उस प्रतिपदा की चंद्रकला को प्राप्त होता है, लोग उसकी पूजा करते हैं।

जिसके कौमार्य में लावण्य का नेत्रानंददायी चंद्र स्वास्थ्य की सकल कलाओं सहित प्रफुल्लित है, यौवन में जिसके गर्भ से देवदूत समान सुंदर तथा सुलक्षण युक्त बालकों का जन्म हुआ है और उन्हें अपने लावण्य तथा शील का वत्सल दूध पिला कर चंद्रकलावत् क्षीण कलाओं से भी पूर्ण कलाओं की अपेक्षा प्रौढ़ावस्था में सुभग प्रतीत होती है, उस जननी जन्मदा को हमारे सौ-सौ बार प्रणाम! उसके यौवन तथा लावण्य का वह-

पर्यायपीतस्य सुरैः हिमांशो।

कलाक्षयः श्लाध्यतरो हि वृद्धेः॥


विश्व की वर्तमान महान् महिलाओं में से तीन

१. चीन की श्रीमती च्यांग

२. इटली की श्रीमती मुसोलिनी

३. अबीसीनिया की सम्राज्ञी

महापुरुषों के विषय में आज तक यही धारणा है कि जो पुरुष स्वयं ही कुछ विशेष गुणों तथा महान् कृत्य के कारण ख्याति प्राप्त हुआ है वह महापुरुष है, परंतु महान् स्त्री के संबंध में यही एक अर्थ नहीं निकलता कि वह स्त्री, जो स्वयं ही किसी महान् कृत्य द्वारा अथवा गुणों से महान् बन गई है। महान् स्त्री वह है जो अपने महान् गुणों के कारण महानता अर्जित करती है अथवा वह जो किसी महत्ता प्राप्त पुरुष की पत्नी है-इस प्रकार दोहरा अर्थ संभव होता है। पत्नी पति का अर्धांग है-इस परंपरागत शिष्ट धारणा के अनुसार महान् पुरुष की पत्नी भी निश्चित रूप में आधी महानता की भागी होती है। साहूकार की पत्नी साहूकारन, वकील की पत्नी वकीलाइन, चौधरी की पत्नी चौधराइन और वह स्त्री, जिसे डॉक्टरी का ही नहीं, महरम-पट्टी का भी रत्ती भर का ज्ञान नहीं-पति के डॉक्टर की परीक्षा उत्तीर्ण होने का समाचार सुनते ही स्वयं भी डॉक्टरनी की परीक्षा उत्तीर्ण कर लेती है, क्योंकि डॉक्टरनी की उपाधि तो उसे मिल ही जाती है।

समाज व्यवस्था में प्रायः सभी देशों में पुरुषों से अधिक स्त्रियों को हीनतापूर्ण तथा कम सुविधाएँ दी जाती हैं। निर्बंध भी महिलाओं से अधिक पुरुषों के लिए अनुकूल होते हैं। रोमन, मुसलिम, हिंदू, यहूदी, ईसाई आदि प्रायः सभी संप्रदायों में तथा निबंधों में पुरुष का स्त्री पर स्वामित्व न्यूनाधिक मात्रा में प्रस्थापित है। महिलाओं को सामाजिक सुख-सुविधाओं का भोग करना इतना सहज नहीं होता जितना पुरुष को। पुरुष को सहजतापूर्वक जीवन सुखद बनाने में तथा स्त्रियों की अपेक्षा कम कठोरतापूर्वक तथा अधिक सुविधाओं के साथ व्यवहार करने की पक्ष की नीति जो अन्य मामलों में अपनाई जाती है, कम-से-कम इस घटना में नारी को ही पुरुष से अधिक सुविधा शिष्टाचार द्वारा प्राप्त है। अपने आपको महान् सिद्ध करने के लिए पुरुष को जिस तरह लोहे के चने चबाने पड़ते हैं, योग्यता संपादन करनी पड़ती है तथा अपने पराक्रम का डंका बजाना पड़ता है, उसके सहस्रांश प्रयास किए बिना अनायास ही बैठे-ठाले स्त्रियों को महानता प्राप्त करने की जो एक सुविधा हमारे समाज में है, वह यह कि नारी किसी होनहार अथवा भविष्य में होनेवाले अथवा पहले ही महान् बने हुए पुरुष की पत्नी बने। तोपों के वर्षाव का सामना न करते हुए, बिना कोई राजपाट जीते ही महारानी बनने के लिए किसी राजा-महाराजा से विवाह रचते समय अक्षतों का जो वर्षाव होता है, बस उसे उतना ही सहना है। सेठानी बनना हो तो किसी सेठ के गले में प्रथम, द्वितीय, तृतीय कोई भी एक पुष्पमाला पहनाने से उस लखपति की पूरी दुकान उस टोकरी भर फूलों के बदले मोल ली हुई ही समझिए। महान् पुरुषों की अर्धांगिनी बनना ही महिलाओं का एक महान् पराक्रम समझा जाता है। महान् पुरुष की पत्नी की महत्ता अपने आप वृद्धिंगत होती है।

परंतु इस मामले में सामाजिक नियम, शिष्टाचार, रूढ़ धारणाएँ सभी पुरुषों पर बड़ा अन्याय करते हैं; क्योंकि महिलाओं को दी हुई उपर्युक्त सुविधाएँ पुरुषों को नहीं मिल सकतीं। इतना ही नहीं, इस तरह के आचरण के लिए उन्हें एक अपमानजनक दंड भरना पड़ता है। कोई भी साधारण शिक्षित पुरुष किसी वकील महिला से विवाह करे तो उसका गौरव करने के सद्हेतु से कोई उसे 'वकील महाशय' संबोधित नहीं करता। यदि किसी डॉक्टर महिला से कोई साधारण पुरुष विवाह करे तो उसका भी कोई 'आइए डॉक्टर साहब' के साथ स्वागत नहीं करता और यदि कोई डॉक्टरनी के पति होने के नाते किसी अनपढ़ पुरुष को 'आइए डॉक्टर साहब' कहे तो सभी लोग जोर-जोर के ठहाके लगाएँगे। अर्थात् अयोग्य महिला भी यदि किसी महापुरुष की पत्नी बनेगी तो उसकी योग्यता पहले से शतगुना बढ़ती है, जबकि यह कोई नहीं समझता कि कोई पुरुष उससे अधिक योग्यतावाली नारी से विवाह करे तो उसकी महत्ता पहले से अधिक बढ़ गई है। उलटे अपने से अधिक योग्यतापूर्ण उपाधि युक्त कर्तृत्वशील नारी का पति होना-अपनी महानता को डुबोकर पुरुष द्वारा स्वयं को अपनी पत्नी के नाम से बेचना है।

समाज में महिलाओं को जिन सुविधाओं का लाभ पुरुषों की समानता के रूप में नहीं प्राप्त होता, उन्हें प्राप्त करने के लिए नारी रक्षक समितियाँ संघर्षरत हैं। उसी तरह महानता अर्जित करने की इस सुविधा के मामले में जिस तरह पुरुषों से अन्यायपूर्ण विषमता के साथ व्यवहार किया जाता है, उस अन्याय को दूर करने हेतु किसी पुरुष रक्षक समिति की स्थापना करने का विचार मन में अवश्य आता है।

महिलाओं पर थोपे हुए अनेक विषयक अन्यायों को दूर करके स्त्री-पुरुषों को समानाधिकार देने के कार्य में राजा राममोहन राय जैसे अनेक पुरुष आज तक कटिबद्ध थे। पुरुषों के इस स्त्री उदारता के ऋण से मुक्त होने के लिए इसी तरह की कोई पुरुष विमोचक समिति की स्थापना के लिए कोई महिला क्या पहल करेगी?

जो महान् पुरुष की स्त्री है वह महान् है अथवा जो स्त्री अपने ही महान् गुणों के अथवा कृति से महत्ता प्राप्त करती है वह महान है-महिलाओं की महानता के दो रूढ़ अर्थों में से हम जो वर्तमान तीन महान् महिलाओं का परिचय इस लेख में दे रहे हैं, वे तीनों महिलाएँ पहले अर्थ में अवश्य महान् हैं, क्योंकि तीनों के पति उन तीन राष्ट्रों के धुरंधर नायक हैं, जो राष्ट्र आज विश्व में उथल-पुथल मचाए हुए हैं। चीन के सर्वाधिकारी च्यांग-काई-शेक, अबीसीनिया के बादशाह रासतफारी तथा इटली के सर्वाधिकारी मुसोलिनी। यह स्वाभाविक है कि किसी समाचार पत्र पाठक को उसमें भी महिला पाठक को, यह जानने की अपार उत्कंठा होगी कि वर्तमान राजनीतिक धुरंधर पुरुषों की पत्नियाँ कैसी हैं। इसलिए इन तीनों महिलाओं से संबंधित विभिन्न लेखकों द्वारा उन्हें प्रत्यक्ष देख-मिलकर ग्रंथित की हुई जानकारी का संकलन हम 'स्त्री मासिक' पत्रिका की महिला पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। स्वकर्तृत्व के बलबूते वे उसी तरह सिद्ध होती हैं या नहीं-वह अब स्वयं पाठक ही इस परिचय के आधार पर निश्चित करें।

चीन के सर्वेसर्वा च्यांग-काई-शेक की पत्नी-श्रीमती च्यांग

ननकिंग नगर की परिधि में स्थित एक उपनगरीय बस्ती में डॉ. कुंग नामक चीन के सिर्फ च्यांग-काई-शेक से ही दोयम महान् अधिकारी रहते हैं। च्यांग-काई-शेक सन् १९३३ तक चीन में चरम सीमा तक पहुँचे हुए गृहयुद्ध विप्लव, दंगा-फसाद, परचक्र के आक्रमणों में नानकिंग राष्ट्रीय सरकार की सत्ता अबाधित रखने के प्रयास में जी-तोड़ परिश्रम कर रहे थे। तब उन्हें अत्यंत विश्वसनीय, अदम्य कर्तृत्ववान् तथा व्यक्तिगत स्नेह रज्जुओं से अपने जीवन से संलग्न करनेवाले जिस बलशाली साथी का लाभ हुआ था-वही था डॉ. कुंग। सन् १९३३ तक चीन की राष्ट्रीय सरकार की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सर्वाधिकारी सरसेनापति च्यांग काई-शेक के संगत में ही डॉ. कुंग भी अपनी छावनियाँ सतत चलती-फिरती रखते, जिससे कि वे शत्रुओं के व्यूह की चपेट में न फँसे; परंतु सन् १९३३ के अंत में इस राष्ट्रीय नानकिंग सरकार की सत्ता पहले से अधिक प्रबल, स्थायी एवं सुरक्षित होने के कारण सर्वाधिकारी च्यांग भी डॉ. कुंग के साथ राजधानी नानकिंग के प्रकट रूप में निवासी बन गए। विविध लता-वृक्षों से अभिमंडित हवेली, जहाँ डॉ. कुंग रहते हैं चीन के सरसेनापति च्यांग तथा उनकी पत्नी श्रीमती च्यांग का भी प्रिय निवास स्थान बन गया।

च्यांग-काई-शेक चीन की राष्ट्रीय सरकार के वर्तमान सर्वाधिकारी तथा सरसेनापति हैं और डॉ. कुंग अर्थसचिव। इन दोनों व्यक्तियों का जीवन परस्पर स्नेह से सर्वथा समरस हो गया था। इसलिए ही आज चीन की राष्ट्रीय सरकार में इतनी सुसूत्रता, व्यवस्था तथा शक्ति शेष रही है। डॉ. कुंग तथा सरसेनापति च्यांग इन दोनों में यह जो व्यक्तिगत स्नेह, आत्मीयता रच-बस गई है, उनके दो व्यक्ति जिस तरह सर्वथा एकजीव हो गए हैं, उसे किस ममत्व श्रृंखला ने इस तरह स्नेहबद्ध किया है? चीन की राष्ट्रशक्ति के दो वर्तमान आधार स्तंभ पुरुषों को इस तरह परस्पर के घनिष्ठ मित्र तथा एकनिष्ठ सहकारी करनेवाली उन्हें परस्पर आकर्षण से एक साथ बाँधनेवाली दो स्नेहिल सुवर्ण शृंखलाएँ हैं- श्रीमती च्यांग तथा उनकी भगिनी श्रीमती कुंग।

इन दोनों भगिनियों में से एक सरसेनापति च्यांग की तथा दूसरी डॉ. कुंग की पत्नी होने के कारण उन दोनों महान् पुरुषों के राजनीतिक सहयोगार्थ इस स्नेहिल रिश्ते से एकनिष्ठ रूप, व्यक्तिगत विश्वास तथा आत्मीयता का समर्थन अनायास ही मिलता है। चीन की राष्ट्रीय स्वतंत्रता तथा सत्ता को यदि आज भी कुछ स्थिरता तथा दृढ़ता है तो वह च्यांग-काई-शेक द्वारा संघठित नए एकसूत्रीय सेनाबल के कारण है। च्यांग-काई-शेक का संपूर्ण विश्वास इस सेनाबल पर ही है और च्यांग-काई-शेक का अंकुश चारों ओर होने से ही चीन में गृहयुद्ध तथा गुंडागर्दी यदि आज दब गई है तो वह भी इसलिए कि यह दंडशक्ति उनके हाथों में संगठित हो गई है। परंतु इस सेना की सारी शक्ति मात्र उनकी तलवार में नहीं, वह प्रचुर मात्रा में उनकी तिजोरी में है। यदि सेना-वेतन, गोला-बारूद तथा अस्त्र-शस्त्र आदि के व्यय के लिए आवश्यक द्रव्य चीन के राष्ट्रीय कोष में नहीं हो तो यह सेनाबल देखते-देखते लूला पड़ जाएगा। अर्थात् राज्य की आर्थिक स्थिति ठीक होने से उत्पादन तथा कर यथासमय कोष में सतत् भरते रहने का अत्यावश्यक कार्य समय-समय पर हो रहा है, इसलिए ही आज चीनी राष्ट्रीय प्रजातंत्र स्वतंत्र है, जीवित है। सेनाबल तथा कोषबल अर्थात् सरसेनापति चंग और अर्थ सचिव डॉ. कुग। इन दोनों में नि:शस्त्र सहयोग है, इसलिए ही आज चीन का प्रजातंत्र इतना बलवान् है और चीन में प्रत्येक वाइसराय, गवर्नर, सेनापति दूसरे सेनापति से लड़ते हुए राज्य राज्यों के अधिकारी तथा मंत्रिमंडल के प्रधान एक-दूसरे के विरुद्ध विद्रोह घोषित करने के बावजूद सेनापति च्यांग तथा अर्थ सविच कुंग-ये दोनों प्रबल अधिकारी इतने संगठित होकर आत्मीयता की भावना के साथ जो राष्ट्रीय कार्य जो कर सकते हैं, उनमें फूट डालना आज असंभव प्रतीत होता है। उसका प्रमुख कारण-इन दोनों महिलाओं के-इन दोनों भगिनियों के प्रेमपाश, उनका कर्तव्य तथा आकर्षण है।

ये चारों नानकिंग के निकट इस उपवन में एक हवेली में प्रायः रहते हैं। चीन की राष्ट्रीय सरकार प्रायः इस चौकड़ी में समाई हुई है। इस एक परिवार में शाम के चायपान के समय जो निर्णय लिये जाते हैं, वही प्रायः दूसरे दिन चीन की राष्ट्र सभा में निश्चित होते हैं। इन दो बहनों के करिश्मे से राष्ट्रीय कर्तव्य को पारिवारिक ममत्व की मोहकता आ गई है। इन दोनों भगिनियों का यह रिश्ता तथा इनसे विवाह होने के कारण सर्वाधिकारी च्यांग और डॉ. कुंग की जुड़ी हुई पारिवारिक ममता आज चीन की एक राष्ट्रीय शक्ति है-इस तरह का विधान करने की परिपाटी चीनी लोगों में शुरू हो गई है।

अपनी भगिनी की हवेली में श्रीमती च्यांग-चीन के सरसेनापति तथा सर्वाधिकारी च्यांग-काई-शेक की पत्नी कभी-कभी उद्यान में विहार करते हुए दिखाई देती हैं। वह रूपसुंदरी प्रफुल्लवदना तथा निश्छल नयना रमणी अपने महान् पति की अर्धांगिनी के लिए उचित मात्रा में ही उनके कठिन राज-कर्तव्य का भार वहन करती हुई तथा उनके साथ गंभीर राजनीतिक प्रश्नों की चर्चा में प्राय: उलझी रहती है। वे दोनों ही प्रातःकाल उठते हैं। राज्य के विभिन्न विभागों से आए हुए प्रतिवेदन, परराष्ट्रीय दूतों से भेंट, प्रतिभेंट, शत्रु की गतिविधियों की चर्चा, इन सभी कार्यों में सरसेनापति के साथ उनकी पत्नी श्रीमती च्यांग भी व्यस्त रहती हैं। उनके पति का अपना निजी कोई मित्र परिवार नहीं था, जिसके साथ वे नर्मनिवोद कर सकें। डॉ. कुंग के निवास स्थान में भोजन के समय अथवा पारिवारिक गपशप करते समय जो अवकाश मिलता है वही उनका विश्राम, वही छुट्टी। सरसेनापति च्यांग का सारा परराष्ट्रीय पत्र व्यवहार श्रीमती च्यांग ही सँभालती हैं। विदेशी समाचार पत्र पढ़कर उनमें से सार निकालने का कार्य भी श्रीमती च्यांग का ही था। यूरोप-अमेरिका के विचारों से तथा उथल-पुथल से च्यांग का परिचय ताजा रखने का दायित्व भी उनकी पत्नी पर होता है। प्रायः सभी सभाओं तथा समितियों में परराष्ट्रीय दूत तथा मंत्रियों से वार्तालाप करते समय श्रीमती च्यांग ही अपने सरसेनापति तथा पति की दुभाषिया का कार्य करती हैं।

हवाई जहाज यात्रा तो आजकल घुट्टी में ही पिलाई जाती है, जिसका निरीक्षण करने के कार्य के लिए प्राचीनकाल में केवल वहाँ पहुँचने के लिए सप्ताहों से भी अधिक समय लगता था। चीन के इस विस्तीर्ण साम्राज्य के सुदूर प्रदेशों में अब चार-पाँच घंटों में ही पहुँच सकते हैं। च्यांग दंपती के अपने चार हवाई जहाज हैं। उनमें से एक इटली के सर्वाधिकारी मुसोलिनी ने चीन के सर्वाधिकारी को उपहारस्वरूप दिया है। श्रीमती च्यांग यात्रा की सिद्धता नित्य ही पूरी तरह से रखती हैं। सूचना मिलने की बस देरी है, चंद मिनटों में एक महाकाय वायुयान के सचिव-कक्ष के घूमते कार्यालय में वे दोनों झट से उडान भरते हैं और घंटे-दो घंटे में किसी सुदूर सीमा प्रदेश के विद्यालयीन युवकों तथा सैनिकों को चीन के 'नवराष्ट्र सूत्रों' का पाठ पढ़ाते हुए दिखाई देते हैं। ये नवराष्ट्र सूत्र श्रीमती च्यांग ने चीन के बहुसंख्यक जनता में राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न करने के लिए स्वयं ग्रंथित किए हैं। हवाई यात्रा के संबंध में च्यांग स्वयं कहती हैं, 'मेरे विचार से, विश्व की किसी महिला की अपेक्षा मैं आकाश में अधिक मील उड़ चुकी हूँ।'

च्यांग-काई-शेक को विदेशी भाषाओं का ज्ञान नहीं है। वे थोड़ी जापानी भाषा सीख चुके थे, अब उन्हें उसका भी विस्मरण हो चुका है; परंतु श्रीमती च्यांग अमेरिका में पढ़ी थीं, यूरोपीय भाषाओं में उन्होंने काम किया था, अत: सरसेनापति च्यांग के संपूर्ण परराष्ट्रीय कार्य में च्यांग अपनी पत्नी के मुख से ही बातचीत करते हैं। यू कहिए कि सेनापति च्यांग की श्रीमती च्यांग एक वक्तृत्वशील आरक्षित जिह्वा ही है। श्रीमती च्यांग का संभाषण, चपल होते हुए भी सर्तक, सादगीपूर्ण होते हुए भी मनोरंजक होता है। राजनीतिक उथल-पुथल में आगे-पीछे चमकने में उन्हें सजीवता प्रतीत होती है और चीन के सौभाग्य से श्रीमती च्यांग में कुछ ऐसा तेज है जो एक राष्ट्र के आगे बिना दमके नहीं रहा।

श्रीमती मुसोलिनी

चीन के सर्वाधिकारी जिस तरह च्यांग-काई-शेक हैं उसी तरह इटली के सर्वाधिकारी मुसोलिनी हैं। आज यद्यपि चीन स्वतंत्र है तथापि वह दुर्बल है, विभाजित है। इटली स्वतंत्र ही नहीं, वर्तमान प्रबल राष्ट्रों में एक प्रबल, बलाढ्य तथा जयिष्णुजेता है। अतः आज च्यांग-काई-शेक से अधिक मुसोलिनी का दबदबा एवं बोलबाला विश्व में अधिक ही है। क्योंकि मनुष्य की महानता एवं कर्तव्य प्रायः उसके राष्ट्र की महानता के कर्तव्य की नींव पर अथवा चबूतरे पर अधिष्ठित होता है। राष्ट्र का बल, प्रभुत्व, प्रतिष्ठा महान् होने से उसमें स्थित व्यक्ति की प्रतिष्ठा, बल, वर्चस्व प्रभावशाली आकर्षक दिखाई देता है। निर्बल चीन के सर्वाधिकारी का कार्य अधिक कठिन होने पर भी तथा उस कार्य को संपन्न करने में उन्हें अधिक निराशा, कष्ट सहने पड़ने पर भी वर्तमान निर्बल चीन के सर्वाधिकारी च्यांग से प्रबल इटली के सर्वाधिकारी मुसोलिनी अधिक प्रभावशाली प्रतीत हों, पूरे विश्व में उसका सिक्का जम जाए तथा उनका बोलबाला हो यह स्वाभाविक ही है, स्वयं मुसोलिनी का व्यक्तित्व भी असाधारण ही है।

परंतु चीन के सर्वाधिकारी से इटली का सर्वाधिकारी अपनी राष्ट्रीय प्रबलतावश जिस तरह अधिक बलशाली तथा दिग्विजयी है उसी तरह इटली के सर्वाधिकारी की पत्नी भी अधिक राजनीतिकुशल तथा राष्ट्रीय प्रपंच का भार उठानेवाली होगी-इस प्रकार यदि कोई स्वाभाविक तर्क करे तो वह सोलह आने गलत सिद्ध होगा। इस अर्थ से श्रीमती मुसोलिनी महान् नहीं, एक सीधी-सादी संपन्न गृहिणी हैं जो अपने घर की चौखट के बाहर पाँव भी नहीं रखती। राजनीतिक पचड़ों में उनका स्थान कभी भी नहीं था, न ही उन्हें उस स्थान का लोभ था। इतना ही नहीं एक तरह से उन्हें इस विषय में अरुचि ही थी।

मुसोलिनी का जब विवाह हुआ था तब वह एक लुहार पुत्र था। राजधानी में राजनीतिक क्षेत्र में उन्हें कोई भी नहीं पहचानता था। श्रीमती मुसोलिनी भी उस लुहार की बहू-बस इतने ही नाते से ससुराल-पीहर के उन छोटे-छोटे गाँवों में पहचानी जाती हैं। आज मुसोलिनी इटली के साम्राज्य का एक दिग्विजयी सर्वाधिकारी बन गया है। परंतु उनकी गृहिणी? वे आज भी अपनी उस मूल उपाधि से चिपकी हुई हैं, वह आज भी लुहार की बहू ही हैं। उनका ससुर अपने गाँव में एक छोटी सी शराब की दुकान चला रहा है। श्रीमती मुसोलिनी को अपने वृद्ध ससुर के घर रहने में जितनी अधिक रुचि है उतनी अपने दिग्विजयी पति के रोम स्थित अनेक राजमहलों में रहने में नहीं। उनके पति की राष्ट्र के सर्वोच्च पद पर जब नियुक्ति हो गई तब श्रीमती मुसोलिनी को भी 'डोना' उपाधि प्राप्त हो गई जो राजघराने की सबसे महान् राजस्त्रियों को तथा सरदारनियों को मिलती है; परंतु इस उपाधि से वह एकदम बौखला गईं। यदि किसी नौकरानी को मूल्यवान नारी का वस्त्र पहनाया जाए तो वह जिस तरह बौरा जाती है, लज्जा-संकोच से वह पानी-पानी हो जाती है, अपनी नित्य की घटनों तक ठाइ से लाँग लगाई धोती में वह जितनी आकर्षक दिखाई देती है तथा उसमें वह जितनी सुघड़ता, सुडौलता से विचरण करती है उतनी ही इन रेशमी-जरी के मूल्यवान वस्त्रों में वह सर्वथा अव्यवस्थित, अस्तव्यस्त दिखाई देती है। ठीक ऐसी ही कुछ अवस्था उस सीधी-सादी लुहार स्नुषा को जब हर कोई सरदारनी, सर्वाधिकारिणी, महाशया, श्रीमती आदि महान् उपपद लगाकर प्रणाम करने लगते तब ललनाओं की भीड़ में उन अभिजात पुरंध्रियों के झुरमुट में श्रीमती मुसोलिनी की हो जाती। राशेल उनका पूर्वकालीन सीधा-सादा नाम उन्हें आज भी प्रिय है। 'डोना राशेल महोदया' इस तरह यदि कोई पुकारे तो वह बिलकुल बौरा जातीं और जितना शीघ्र हो सके उतनी शीघ्रता से राजमहल उन महान् ललनाओं के सरदारी समूह से अथवा राजसभा से खिसकती हुई वह अपने उस सादगी भरे, प्रिय घरौंदे में बिना किसी बंधन के रहने चली जाती हैं।

यदि किसी महत्त्वपूर्ण राष्ट्रमंत्रियों की सभा गोष्ठी में आमंत्रित नहीं किया गया तो श्रीमती च्यांग का पारा चढ़ेगा, परंतु श्रीमती राशेल सोचेंगी, चलो बला टल गई। अपने पूरे जीवन में उन्होंने कभी प्रधानमंत्री मंडल की बैठक में पाँव तक नहीं रखा और न कभी इस बात की पूछताछ की कि कैसी खिचड़ी पक रही है, जिनमें उनके राज्यधुरंधर पति तथा परिवार की जान को खतरा हो अथवा गृह-सुख शांति में बाधा होने की संभावना हो, बस उतने ही झंझटों में वे भाग लेती हैं, चिंतापूर्वक उनके बारे में पूछती-सुनती हैं, वह भी एक चिंताजनक समाचार के रूप में, अपने पति से अथवा अन्य किसीसे किसी प्रकार की चर्चा, विवाद, बहस अथवा षड्यंत्र रचकर स्वयं उसमें हस्तक्षेप करने के लिए नहीं। इस कार्य में जो उनको मुसोलिनी ने कभी भी इस गृहिणी को सार्वजनिक अथवा राजनीतिक झमेले में नहीं फंसाया, न ही सार्वजनिक दृष्टि के सम्मुख ठाठ-बाट से उन्हें बाजे-गाजे के साथ समारोहपूर्वक घुमाया। अपने जन्मग्राम से कुछ वर्ष पूर्व मुसोलिनी मैडम राशेल के साथ अपना परिवार रोम में लाए थे, तथापि तत्रस्थ किसी भी राजमहल में अथवा अधिकारी के भवन में श्रीमती राशेल रहने के लिए तैयार नहीं थीं। इटली के सारे प्रासादों की कुंजियाँ उनकी अंटी में अवश्य खनकती थीं परंतु इटली के उस सर्वाधिशास्ता की भार्या-श्रीमती राशेल राजमहल की सारी कुंजियाँ लौटाकर रोम के निकट एक छोटे से उपनगर में एक बहुत ही साधारण तथा शांत घर में रहने के लिए चली गईं। उस पोर्टपिआ उपनगर में गृहकृत्यों में व्यस्त चुप्पी साधी हुई, सौम्य महिला उन पथिकों को दिखाई देती, जो उनके घर पर से गुजरते-वही राशेल-इटली के अधिशासक की अर्धांगिनी, दिग्गज मुसोलिनी की धर्मपत्नी-'डोना राशेल!' यदि किसीको यह कहा जाए तो कोई विश्वास नहीं करेगा, करता भी नहीं।

मुसोलिनी, जिन्होंने संपूर्ण यूरोप को अपने अनुपम साहस से दाँतों तले उँगली दबाने के लिए बाध्य किया था, उन्हीं मुसोलिनी की भार्या कैसी है-इस जिज्ञासावश उन्हें देखने की इच्छा संपूर्ण यूरोप के मन में होगी ही। यूरोप के सैकड़ों पत्रकार उन्हें देखने के लिए रोम आ जाते। परंतु राजमहल, राजसभा, नाट्यालय, भोजनालय-जहाँ-जहाँ रानी-महारानियाँ, राजस्त्रियाँ, राष्ट्राधिकारियों की पत्नियाँ सतत जगर-मगर करतीं-वहाँ यूरोप के इन पत्रकारों को डोना राशेल का दर्शन कभी नहीं होता। उनके अपने उस छोटे से पोर्टपिआ गाँव जाकर अपना डेरा जमाने पर भी सार्वजनिक रूप में उन्हें कभी घूमते-फिरते देखना अत्यंत कठिन था। यदि दिखाई ही दी तो केवल प्रात:काल की वेला में। क्या घोड़ा-गाड़ी, मोटर पर सवार होकर हवाखोरी, सैर-सपाटे के लिए निकली हुई? ना-ना! अपने बाल-बच्चों के साथ ताजा शहद, सब्जियाँ, शाक, मांस, मछली आदि भोजनावश्यक सामग्री स्वयं जाँच-परखकर लेने के लिए, हाथ में थैला अथवा टोकरी थामे-किसी दासी के साथ उस छोटे से उपनगर की सब्जी-मंडी में जाती हुई।

उनका स्वभाव मितभाषी, भाषण तोलामाश नपा-तुला। अत्यंत वाक्पटु, बक्की स्वभाव का व्यक्ति भी उनसे बात करने जाए तो भी संभाषण की गाड़ी आगे बढ़ाना असंभव। बड़े-बड़े अतिरथी, महारथी-मँजे हुए पत्रकारों को उनके मुख से चार शब्द उगलने के लिए बड़ी गरमजोशी से आने का अवसर आए तो उनकी कुलफी जम जाती। किसी भी विषय के संबंध में एक बार बस 'हाँ' या 'ना' बोलने पर समझिए वह विषय समाप्त। उनका यह मितभाषी स्वभाव भी अकड़बाजी नहीं अपितु संकोचशील एवं सादगीपूर्ण था।

मुसोलिनी के साथ उनकी धर्मपत्नी कभी अंतरराष्ट्रीय राजपरिवारों के अथवा राजदूतों के विशाल भोजन समारोह में अथवा महासभाओं में उपस्थित नहीं होती। यूरोप में पत्नी प्रायः अपने पति के साथ इस तरह के सार्वजनिक समारोहों में भाग लेती हैं। अतः इस बात की जिज्ञासा होती-श्रीमती राशेल अपने पति के संग क्यों नहीं आतीं? एक लौकिक धारणा साधारणत: रूढ़ है कि महापुरुषों की पत्नियाँ भी महान् होती हैं-जब इस रूढ धारणा का अपवाद होता है और किसी महापुरुष की पत्नी उसमें कुछ सार्वजनिक योग्यता अथवा कर्तव्य न होने के कारण स्वाभाविक रूप में आगे नहीं बढ़ती, तब लोगों में भी इसी तरह की गप उड़ जाती है कि उस महापुरुष द्वारा अपनी पत्नी का उपहास किए जाने के कारण वह इस तरह घर में रहती हैं, पर इस तरह स्वेच्छापूर्वक पीछे रहने से कोई निठल्ली वाचाल महिला गप भी उड़ाती है कि उसका पति उस बेचारी को बंद करके रखता है, उसे अवश्य कुछ-न-कुछ यंत्रणा दी जाती होगी। मुसोलिनी सदृश प्रभावशाली पुरुष की राशेल जैसी सीधी-सादी एवं साधारण पत्नी के विषय में भी इसी कारणवश कहीं-कहीं इसी तरह की खुसुर-फुसुर सुनाई देती है कि मुसोलिनी राशेल का उपहास करता है, अतः वह बेचारी मन-ही-मन कुढ़ती होगी अथवा उसके साथ राष्ट्रीय अथवा सार्वजनिक समारोहों में जाने की उसे अनुज्ञा नहीं होगी या उन दोनों पति-पत्नी में कुछ-न-कुछ अनबन है।

(स्वातंत्र्यवीर पत्नी श्रीमती माई सावरकार का स्वभाव भी इसी तरह का संकोची था।)

-बाल सावरकर

परंतु वस्तुस्थिति इससे भिन्न है। मुसोलिनी का घर पारिवारिक सुख, उल्लास का आश्रय स्थान था। गृहकृत्य, संतति संवर्धन, पति की सेवा-टहल तथा परिवार एवं दास-दासियों का परिपालन ही नारी के आद्य एवं प्रमुख कर्तव्य हैं-यही स्वयं श्रीमती राशेल की निष्ठा है, इन्हीं में उनकी रुचि है। मुसोलिनी को भी इसी में रुचि है, अत: वह दंपती प्रेम तथा सुख से कालक्रमण कर रहे हैं-राजनीति में अपना सिक्का जमाने योग्य व्यक्तित्व का अभाव होते हुए भी केवल अपनी पत्नी विश्व की दृष्टि में चढ़ जाए-इसलिए उसे राष्ट्र कार्य में हस्तक्षेप करने की अनुमति देनेवाले राघोवा पेशवा जैसे जोरू का गुलाम बनने की अपेक्षा मुसोलिनी तथा उनकी इस सुज्ञ पत्नी द्वारा यथाशक्ति कर्तव्यपालन करते हुए कीर्ति की लालसा न करनेवाली यह निरीहता सच्ची महानता का लक्षण है।

मुसोलिनी की पत्नी गृहिणी के नाते ही वास्तविक महानता अर्जित कर रही हैं। उनका पति जिस तरह देश का धुरंधर नेता है, उसी तरह उनके पुत्र भी एकनिष्ठ देशवीर हैं। उनके दोनों पुत्रों ने अबीसीनियन युद्ध में वैमानिक साहस की चरम सीमा का प्रदर्शन किया। जिनके हाथ में देश की बागडोर है वे महापुरुष हैं ही; परंतु वह नारी भी कुछ कम महान् नहीं जिसके हाथ में पलने की डोरी है।

अबीसीनिया के सम्राट् रासतफारी की सम्राज्ञी

जब यह लेख लिखना निश्चित किया तब मन में 'अबीसीनिया की विद्यमान सम्राज्ञी' इस शीर्षक का आयोजन किया था। लिखते-लिखते जो विद्यमान सम्राज्ञी थी वह अचानक एकदिन अनुक्रम में 'विगत सम्राज्ञी' हो गई। स्याही सूखते-सूखते ही बेचारी सम्राज्ञी पद से ही हटाई गई, परंतु यह जानकारी कि अबीसीनिया की विद्यमान सम्राज्ञी कैसी है-पहले जिज्ञासावश जिस तरह प्रिय प्रतीत होती, उसी तरह अब देखते-देखते जो सम्राज्ञी एक साधारण नारी बन गई, वह अबीसीनिया की विगत सम्राज्ञी भला कैसी है? इस तरह जिज्ञासु जन उनके संबंध में पूछताछ अवश्य करेंगे। इसलिए प्रस्तुत लेख में उनका परिचय दे रहे हैं।

कोई राष्ट्र कभी-कभी पराक्रम के साथ लड़कर भी पराजित होता है-वैसे ही है बेचारा अबीसीनिया। यही कहने की इच्छा होती है, परंतु विगत डेढ़ सौ वर्ष अपनी स्थिति में सुधार लाकर उसके इर्दगिर्द मँडरानेवाले यूरोप के तुल्यबल सामर्थ्य संपादन करने का अवसर हाथ में होते हुए भी उस सम्राट ने तथा उस राष्ट्र ने उसे खोने का, दुर्बल, धर्मपरायण तथा पत्थर फेंकनेवाला, परंतु व्यर्थ डींग हाँकनेवाला डरपोक पाल अबीसीनिया ने किया, यही कहना होगा-उसका यथोचित प्रायश्चित्त प्रकृति ने उसे दे भी दिया। उसी अवधि में यदि जापान झट से उठकर यूरोप के विज्ञान से विज्ञान, व्यापार से व्यापार, तलवार से तलवार, निडरता से निडरता, हवाई जहाज से हवाई जहाज-इस तरह सामना करते हुए जीवित रह सका तो क्या अबीसीनिया भी जीवित नहीं रहता? परंतु वह केवल बाइबिल कथित प्रार्थना करता रहा। गंडेतावीज[1], का ही अबीसीनिया में मशीनगंस, हवाई जहाज से अधिक महत्त्व था। हजारों भिक्षुणियाँ तथा भिक्षुपादरी उन लोगों को, जो आजीवन केवल बाइबिल पढ़ रहे थे-मन्नत-मनौतियों जैसे निरर्थक उपायों का उपदेश कर रहे थे। स्वयं अबीसीनिया ने प्राचीन काल में जिन जंगल टोलियों को जीत लिया था उन्हें वंश परंपरागत अपना गुलाम बनाया है। आज भी सहस्रावधि गुलाम उस देश में बादशाह के शासन में सड़ रहे थे। दूसरों का धर्म भी अबीसीनियन राजवंश ने बलजोरी से हरण करके उन्हें बलपूर्वक झटपट ईसाई बनाया था। वही अब बलाढ्य इटली के पैरों तले स्वयं गुलाम बन गए। अब हमपर बलात्कार हुआ, हवाई जहाज, बम, विषैला धुआँ हमारे पास नहीं था, हम क्या करते? इस तरह रोने-धोने से क्या फायदा? विश्व के सामने शिकायतों का अंबार रचने को बाध्य हो, जिससे कि सारी दुनिया दया से पसीजे, यही एक राष्ट्रीय पाप है।

इस पापवश राज्य से वंचित होने पर भी भगवान् के सामने अन्याय की शिकायत करने के लिए अबीसीनिया की उस विगत महारानी ने फिलीस्तीन का रुख अपनाया है। फिलीस्तीन अबीसीनिया की महिलाओं की पुण्य भूमि, धर्म भूमि-वाराणसी है। उधर जाकर उस पवित्र मंदिर में अत्यंत उच्च पदस्थ ईसाई पुरोहित से वह अबीसीनिया की ओर से ईश्वर से प्रार्थना करेंगी कि 'हमें हमारा राज्य लौटाओ' परंतु वे भूल रही हैं कि प्रभु भी निर्बलों के कितने सहायक होंगे।

राष्ट्रसंघ अबीसीनियन बादशाह की अभ्यर्थना का सत्कार जितनी मात्रा में करेगा, उतना भी इस अबीसीनियन सम्राज्ञी की प्रार्थना का आदर स्वर्गीय देवदूत संघ अथवा स्वयमेव प्रभु नहीं करेंगे। यदि न्याय का ही प्रश्न होता तो ईश्वर उस सम्राज्ञी के सिंहासन को इटली के बम गोलों से चकनाचूर क्यों होने देते, परंतु इस बात पर गौर न करते हुए वह पदभ्रष्ट महारानी फिलीस्तीन जाकर, जिस प्रभु ने उसका राज्य डूबने दिया, उसी प्रभु से याचना करेगी कि राज्य लौटाओ। बेचारी इतनी अंधश्रद्धा से धर्म पर विश्वास जो करती है।

उपलब्ध जानकारी के अनुसार इस रानी की यही विशेषता है कि उसमें स्त्रियोचित धर्मपरायणता थी। जब वह सम्राज्ञी थी तब उसने बड़ी धूमधाम से फिलीस्तीन-जेरुसलम-की यात्रा की थी। अपने देश में पहले ही चर्च और पादरी धमाचौकड़ी मचा रहे थे जब उसने नए चर्च बनवाए, परंतु नई प्रणाली की सेना अथवा अस्त्र-शस्त्रों में वृद्धि नहीं की, हवाई जहाज नहीं बनवाए। इटली के साथ आज पच्चीस वर्षों से सतत अनबन रहते हुए भी उसे मात देने के लिए मशीनगंस का एक कारखाना भी शुरू करना वहाँ किसीने आवश्यक नहीं समझा। ईश्वर जाने, प्रार्थना के बलबूते ही इटली को पदाक्रांत करने की संभावना उन्हें कैसे प्रतीत हुई थी?

अबीसीनिया की महारानी का कद मध्यम, छरहरा शरीर तथा मुद्रा गंभीर थी। ज्यू लोगों की प्राचीन रीति के अनुसार वह कभी बाहर निकलती है, शरीर पर ओढ़े एक अवगुंठन में नखशिख आच्छादित होती हैं। घर में मूल्यवान लहँगानुमा वस्त्र तथा 'छम्मा' नामक फ्रॉक पहनती हैं। हाथ से बुना सुंदर बेलबूटे का काम उन्हें प्रिय है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुधारने के हेतु से उसने एक रुग्णालय की स्थापना की। धार्मिक परीक्षा अर्थात् बाइबिल प्रशिक्षा परिवर्धित हो, इसलिए उसने कुछ पाठशालाएँ खोली। उसके अपने प्रासाद में पूर्व विजेताओं के वंशज अनेक गुलाम सेवक अथक परिश्रम करते। आज उसका राष्ट्र इटली ने जीतने के कारण कम-से-कम राजनीतिक रूप में वह भी एक गुलाम बन गई है।

उसने कभी भी विश्व में रुचि नहीं ली। उसके पिछड़े हुए देश की भी जहाँ किसीको जानकारी नहीं, वहाँ उसकी रानी होने के नाते उसकी खोज-खबर विश्व में कैसी होगी? अवगुंठन में लिपटी अबीसीनिया की इस महारानी का अस्तित्व इटली के आक्रमण के कारण ही पहली बार संसार में उजागर हो गया, संसार को उसका अहसास होते-होते ही महारानी के रूप में विद्यमान उसका अस्तित्व ही नष्ट हो गया। इस ज्ञात-अज्ञातावस्था के बीच की चमक में उससे संबंधित विश्व को जो कुछ ज्ञात हुआ उसे ऊपर प्रस्तुत किया है। इससे अधिक अथवा अलग कुछ भी नहीं है।

(जून १९३६ की 'स्त्री' मासिक पत्रिका में यह लेख प्रथम प्रकाशित हुआ तब वीर सावरकर पर राजनीति में भाग लेने, उससे संबंधित प्रकट रूप में लिखने अथवा भाषण करने पर बंदी लगी हुई थी। उस बंदी काल में उनके उकेरे हुए तीन राजप्रमुख अर्धांगिनियों के भिन्न-भिन्न स्वभाव के चित्र बहुत ही मुखर थे। पंचतंत्र अथवा ईसप नीति की कथाओं की तरह वे भी कुछ मार्के की बातें कथन कर गए। यह लेख 'प्राचीन-अर्वाचीन महिला' शीर्षक पुस्तक में सन् १९८२ में सर्वप्रथम समाविष्ट किया गया। -बाल सावरकर)

गरमागरम चिउड़ा

मोहम्मद अली तथा हसन निजामी की लतियाई

मोहम्मद अली और हसन निजामी की आपसी लतियाई इन दिनों प्रतिदिन खूब रंग ला रही है। परसों की बाजी में तो मोहम्मद अली की लात निजामी की नाक की नोक पर अचूक पड़ी। हुतात्मा श्रद्धानंद की हत्या से कुपित कुछ संतप्त हिंदू हसन निजामी को अच्छी तरह से मजा चखानेवाले हैं-इसी डर से हसन निजामी आजकल यथासंभव अपने घर के किले में ही बैठकर मुसलमानों की उन्नति यथासंभव कर रहे हैं-यह समाचार दिल्ली का बाजार गरम कर रहा था; परंतु अली ने उसे सारे हिंदुस्थान के कानों में डालने के लिए परसों निजामी पर प्रकट रूप में अनेक उपाधियों की वर्षा की। उसमें जो उपाधियाँ निजामी साहब को उन्होंने अर्पित की, वह थीं-'सरकारी जासूस! निजाम का नमक खाकर उसी के खिलाफ सरकार से चुगली करनेवाला नमकहराम! श्रद्धानंद की हत्या के पश्चात् भयभीत होकर घर में दुबककर बैठा हुआ कायर!'

इन उपाधियों के दान को स्वीकार करने के पश्चात् यह सिद्ध करने के लिए कि वे अली से अधिक कायर नहीं हैं, जिस तरह मोहम्मद अली अब्दुल रशीद से बंदीशाला में मिल आए, उस तरह निजामी भी घर से बाहर निकलकर बंदीशाला में मिलने गए, परंतु पाँच-दस शरीर रक्षकों के बीच अपने अमूल्य शरीर को रक्षित किए हुए।

श्रद्धानंद की हत्या एक व्यक्ति का कृत्य है, इसे प्रवृत्ति मानकर मुसलमान समाज को दोष न देना-महात्मा गांधी की यह दिव्य वाणी कितनी अर्थपूर्ण थी। इसका आकलन प्रथम अनेक लोगों को नहीं हुआ था। उन्होंने कहा, 'गांधीजी इतने विलक्षण नहीं कि वे मुसलमानों की मनोवृत्ति पहचान लें।' परंतु वह उनकी भूल थी और वही सत्य था जो गांधीजी की दिव्य दृष्टि को दिखाई दिया था, यह बार-बार घटित मुसलमानी घटनाओं से सिद्ध होता है। जैसे-निम्नांकित घटनाएँ देखकर जाफर अली ने कहा, 'गाजी रशीद की तलवार मैं चूम लेता यदि आज मुसलमानी राज होता। उस प्रस्ताव पर, जो श्रद्धानंद की मृत्यु पर खेद व्यक्त करता था, मुसलमानों ने एक साथ बाधा डाली। मेरठ की मसजिद में हत्या का समाचार सुनते ही मुसलमानों ने दीपोत्सव मनाया। गोरखपुर में मुसलमानों ने मिठाई बाँटी। दिल्ली की जामा मसजिद में हाजी मोहम्मद अली ने गाजी रशीद के निर्दोष बरी होने के लिए सार्वजनिक प्रार्थना की। पेशावर से महाराष्ट्र के छोटे-बड़े जिलों के गाँवों तक मुसलमानों ने रशीद का मुकदमा लड़ाने के लिए पैसा इकट्ठा किया; परंतु श्रद्धानंद की हत्या पर खेद प्रकट करने के लिए कहीं भी मुसलमानों की महत्त्वपूर्ण सभाएँ नहीं हुईं। अनेक स्थानों पर हड़ताल के दिन मुसलमानों ने अपनी दुकानें बंद रखने से मना किया। मुसलमानों के कई प्रमुख पत्रों में श्रद्धानंद की हत्या की खिल्ली उड़ानेवाले उद्गार प्रकट किए गए। एक ने लिखा-कदाचित् श्रद्धानंद के सेवक ने (जो उनके प्राण बचाते जख्मी हो गए थे) उनकी हत्या की होगी और रशीद को बिना किसी कारण पकड़ा गया होगा। दूसरे ने लिखा, 'अजी जनाब! ऐसा नहीं। वैसे भी श्रद्धानंद रोग पीड़ित होकर मरने ही वाले थे, रोग की अव्यवस्थित स्थिति में हिंदुओं ने विचार किया, इनपर गोली चलाकर इन्हें हुतात्मा क्यों न बनाया जाए। मुसलमानों पर आग बरसाने के लिए यह बड़ा सुनहरा अवसर है। और इस तरह सोचकर हिंदुओं ने श्रद्धानंद को स्वयं ही गोली से उड़ा दिया।' जाफर अली ने लिखा, 'श्रद्धानंद ने गाय का जन्म भी ले लिया और किसी मुसलमान कसाई के खूटे से उन्हें बाँधा भी गया होगा।' यह अब उस कसाई के खूँटे की शपथ लेकर बताइए कि 'श्रद्धानंद को मारनेवाली प्रवृत्ति का सभी दोष एक ही व्यक्ति का है, इस संबंध में व्यापक मुसलमान समाज को दोषी मत समझो', गांधीजी का यह अभिमत कितना न्यायसंगत एवं सत्य था। कितनी तेजी के साथ वह सत्य उनकी दिव्य दृष्टि ने देखा। एक क्षण भर के लिए भी विचार करने की उन्हें आवश्यकता नहीं पड़ी। महात्मा जो ठहरे! कितने अंतर्यामी!

ऐसे अंतर्यामी तथा दिव्य दृष्टि के नेता के हाथों राष्ट्र का सूत्र सौंपकर उन्हें सर्वाधिकारी माना गया, इसी कारणवश लोकमान्य तिलक की मृत्यु को चार वर्ष हुए नहीं कि हिंदुस्थान में राजनीति और धर्म कारण इतने रंग पर चढ़ गया। जिधर देखो उधर एकता ही एकता, उन्नति और तेज दिखने लगा है।

केवल हिंदू संगठन ही बेमुरब्बत, ढीठ है। है। यदि यह संगठन बीच में नहीं आता तो इस 'सर्वाधिकार के अंतर्ज्ञान' से प्रेरित उस तेज से आज हिंदुस्थान, कम से-कम हिंदू जाति स्वयं पूरी-की-पूरी जलने लगती।

पीछे एक बार मोहम्मद अली ने कहा था, 'इब्न सउद के विरुद्ध जो शिकायतें हैं वे यदि सत्य सिद्ध हो गईं तो मैं स्वयं जाकर इब्न सउद के विरोध में लड़ते-लड़ते मरूँगा। अली उधर चले गए-शिकायतें सत्य सिद्ध हो गईं। इब्न सउद के विरुद्ध युद्ध छिड़ गया, परंतु अली जीवित के जीवित ही वापस लौटे। इब्न सउद की सेना में ऐसा एक भी निठल्ला सिपाही नहीं मिला जो उनपर गोला-बारूद खर्च करे। उनपर किसीने भी उनके प्राण लेने का उपकार नहीं किया था। सत्य ही इब्न सउद के लोग बड़े दुष्ट हैं।

श्रद्धानंदजी की मृत्यु के पश्चात् मोहम्मद अली ने कहा, 'यदि इस पाप का प्रायश्चित्त मेरा लहू बहाने से हो सकता है तो मैं वह खुशी से करूँगा, इब्न सउद जैसे दुष्ट की बात तो दूर ही रही, परंतु उन हिंदू जनों में भी, जिनकी दानवीरता का डंका बजता है-श्रद्धानंद के नाम पर कोई इतना उपकार करने के लिए तैयार नहीं था, तब अली की झोली में यह पुण्य भी नहीं पड़ा।

अतः अब चीन के विरुद्ध सेना भेजने के निषेधार्थ भरी सभा में मोहम्मद अली ने संपूर्ण विश्व को पुन: एक बार आत्महत्या की धौंस दी। यदि चीन को सेना भेजोगे तो जिस रेल से वह रवाना होगी, उसकी पटरियों पर लेटूँगा और तब तक नहीं उठूँगा जब तक मेरी छाती पर से वह रेलगाड़ी नहीं गुजरेगी। इस तरह गर्जन-तर्जन के साथ उन्होंने घोषणा की। रीति के अनुसार खूब जोर से तालियाँ बजीं और हमें यह भय सताने लगा कि अब मोहम्मद अली की कोई खैर नहीं, क्योंकि सेना तो चीन रवाना होगी ही। मोहम्मद अली मरेंगे, अब इस विश्व का क्या होगा, इस विचार से हम उद्विग्न थे ही कि एक ही समाचारपत्र में हमने दो समाचार पढ़े। चीन को सेना रवाना हो गई और मोहम्मद अली ने जुम्मा मसजिद में हिंदू लोगों को तथा हसन निजामी को पानी पी-पीकर कोसते हुए भाषण झाड़ा। अली की मौत की ट्रेन तीसरी बार छूट गई। समझ में नहीं आ रहा था कि यह हुआ कैसे!

क्वचित् ऐसा हुआ होगा कि चीन की सेना रेलगाड़ी में बैठकर निकलते समय यह सत्यप्रतिज्ञ महावीर मोहम्मद अली ट्रेन की पटरी पर लेटने के लिए गया होगा, परंतु यह पटरी पर न लेटते हुए जल्दी-जल्दी में पटरियों के बीचोबीच लेटने से रेलगाड़ी पटरियों पर से निकल चुकने पर भी इसके प्राण नहीं गए होंगे। भई, मरना किस तरह चाहिए, इसका भी तो ज्ञान होना आवश्यक है। अब यह तीसरा अवसर भी निकल गया। अब देखेंगे, मोहम्मद अली चौथा अवसर कौन सा खोजेंगे। भय इसी का है-'भेड़िया आया! भेड़िया आया!' इस तरह परिहास करते-करते कहीं सत्य ही भेड़िया न आ जाए!

पंडित मोतीलाल नेहरू, डॉ. किचलू आदि कई पूर्ण देशभक्त नेताओं ने पुन: वकालत आरंभ करने का विचार किया है। ठीक ही तो है। वकालत छोड़कर जो देशोद्धार होना चाहिए था वह हो ही चुका है। एक वर्ष में स्वराज्य प्राप्त होकर पुनः चला भी गया। अतः अब हर व्यक्ति अपनी रोटी-पानी की चिंता करे, यह तो स्वाभाविक ही है। वकालत का त्याग इसलिए थोड़े ही किया था कि वह बुरी चीज है। वकालत का त्याग इसलिए किया था कि लोग उसे बुरा मानते हैं, और यह समझ में नहीं आ रहा था कि लोगों के बिना किसका नेता बना जा सकता है। अब लोग वैसे अधिक कुछ नहीं कहते और वकालत तथा नेतागिरी दोनों एक ही तरकश के तीर बन सकते हैं। अतः अब वकालत प्रारंभ करने में कौन सी आपत्ति है?

श्रद्धानंद, ३ मार्च, १९२७

पत्वाखाली के सत्याग्रह को आठ महीने हो गए

पत्वाखाली का सत्याग्रह अभी तक बिलकुल नियमित ढंग से चल रहा है। बीच में हमारे गुरखा बंधुजन के भी सत्याग्रह करने के लिए चले जाने का समाचार आपने 'श्रद्धानंद' में पढ़ा ही होगा। अंत में नमः शूद्र अर्थात् नामशूद्रों ने भी-जिनकी गणना बंगाल के आज तक के अस्पृश्यतम हिंदू बंधुओं में होती है-इस सत्याग्रह में अपनी जाति के पाँच स्वयंसेवक भेजकर हिंदू जाति के संघर्ष को अपना चंदा दिया। श्री हरी के ध्वज के नीचे हिंदू धर्म के रक्षार्थ रणक्षेत्र में स्पृश्यों के साथ जो कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया उसमें उनकी अस्पृश्यता जल चुकी है। अब 'हम-तुम सकल हिंदू बंधु, बंधु-बंधु।'

पत्वाखाली का यह समारोह आरंभ हुए अब आठ महीने हो चुके हैं। प्रतिदिन पाँच-दस हिंदू स्वयंसैनिकों के साथ भजन गाता हुआ जुलूस निकलता है। मसजिद तक पहुँचते-पहुँचते हरिनाम के उद्घोष से उस गाँव का वातावरण प्रतिध्वनित होता है। अंत में हथियारबंद सिपाही आकर जब तक उन्हें पकड़ते हैं तब तक स्वयंसैनिक वाद्यों तथा हरिनाम का उद्घोष करते-करते मसजिद के सामने राजमार्ग से आगे घुसते हैं। तुरंत दूसरे दिन पुनः अन्य भजनवीर यही उपक्रम आगे बढ़ाते हैं। सैकड़ों को कारावास हो गया, अन्न त्याग हो गए, मुसलमानी गुंडों ने दंगा-फसाद कर दिया, सिर फूटे, अधिक पुलिस का पहरा बैठाया गया, उनके अनुबंधनार्थ नीलाम पुकारे गए, गवर्नर जल-भुन गए, मुसलमान जलने लगे, परंतु हिंदुओं का हरिकीर्तन तथा सत्याग्रह वैसा ही चल रहा है। यदि मुसलमान हठधर्मिता न दिखाते तो मसजिद के सामने से हिंदुओं के वाद्यवृंद का जुलूस वर्ष में एकाध बार क्वचित् ही निकलता, पर मुसलमानों द्वारा हठधर्मिता का प्रदर्शन होते ही हिंदुओं के सत्याग्रही वाद्य आज आठ-आठ माह से सतत मसजिद के निकट बज रहे हैं। भजन-कीर्तन के उद्घोष सतत गूँज रहे हैं-जुलूस उस मार्ग से बाजे-गाजे के साथ निरंतर निकल रहे हैं। इसे कहते हैं-दुर्धर्ष वृत्ति!!

इस प्रकार की दुर्धर्ष वृत्ति न्यूनाधिक मात्रा में इन हिंदुओं में है-इसीलिए तो वे इस जीवन संघर्ष में हजारों वर्षों से थोड़ा बहुत 'जीते रहे हैं' और सहस्रों वर्षों तक 'जीते रहनेवाले हैं' यह हमारे रहीम चाचा भली-भाँति समझ लें।

आज तक बंगाल में मुसलमान गुंडे जब-जब हिंदू कुमारिकाओं को बलात्कार से पकड़कर अथवा चोरी से अपहरण करके उड़ा ले जाते हैं, ऐसे समाचार रहीम चाचा सुनते तो मुँह से 'चूँ' तक नहीं करते थे और क्वचित् उनकी 'मैं बंगाल का दूसरा पंजाब करूँगा' इस शैतानी प्रतिज्ञा के अनुसार धीरे-धीरे पंजाब में वैसा दृश्य गोचर होने लगा। इसलिए मन-ही-मन में वाहियात ढंग से हँसते भी होंगे। इसी सप्ताह में मुसलमानी गुंडों ने वैत्कल थाने के अंतर्गत कपूरकठी की अलकमयी नामक एक विवाहिता हिंदू ललना का बलात्कारपूर्वक अपहरण उसके पिता के घर पर छापा मारकर किया (११ मार्च, रात)। इस तरह 'स्वतंत्र' दैनिक में २८ भार्च का बारिसाल का तार है। पुलिस को समाचार दिया गया, परंतु अभी तक लड़की का कोई अता-पता नहीं मिला। क्यों रहीम चाचा, आपकी हँसी क्यों छूट गई?

परंतु रहीम चाचा, तनिक रुकें। यह देखिए दूसरा एक तार, तनिक इसे पढ़ लें, फिर इकट्ठा हँसेंगे। जिला सिल्हट-तहसील इच्छामती का फैयाज अली नामक एक उस्ताद गुंडा आते-जाते हिंदू महिलाओं से छेड़छाड़ करता था। पिछले सप्ताह अपनी नित्य की ढिठाई के साथ वह एक हिंदू महिला के घर में घुस गया। शशिमोहन नामक एक बंगाली नवयुवक ने अचानक उसे यमलोक भेज दिया। 'आनंद बाजार पत्रिका' कहती है कि अपने कथन में शशिमोहन ने बताया कि 'हिंदू नारियों के सम्मान तथा सतीत्व की रक्षा के लिए मैंने उस पापी को काट डाला।'

सुना आपने रहीम चाचा? शशिमोहन ही आपकी उस वाहियात हँसी की ध्वनि की गूँज है। है न! अभी भी सँभल जाओ, चाचा। अंग्रेजी मशीनगनों तथा तोपों के मुँह से निकलते हुए ज्वालाग्राही गड़गड़ाहट से जो कंपित नहीं हुए और समय आने पर जो ब्रिटिश सिंह की गवर्नर जनरली दाढ़ी में हाथ डालकर उसे उखाड़ने में रत्ती भर भी नहीं झिझके-यही उस हिंदू युवक का साहस है। चाचाजी, फिर आपकी गुंडई किस खेत की मूली है? आज तक आपकी इस वाहियात, भोंडी हँसी की उपेक्षा हिंदू शशिमोहन ने की। वह इसलिए नहीं कि वह आपसे डरता था, वह इसलिए की कि उसने उसे उतना महत्त्वपूर्ण नहीं समझा। मैंने पहले ही आपको बताया था। पुनः कहता हूँ, ध्यान से सुनिए रहीम चाचा, ध्यान से सुनिए। शशिमोहन क्या कहता है, 'अपनी हिंदू भगिनी के सम्मान तथा सतीत्व की रक्षा के लिए मैंने उस नीच को काट डाला।'

हिंदू स्त्रियों को देखकर वाहियात ढंग से हँसनेवाली आपकी धर्मांध गुंडागर्दी की शशिमोहन पहली प्रतिगूँज है, रहीम चाचा, अभी भी होश में आओ, क्योंकि आपके हास्य की प्रत्येक ध्वनि के पीछे भविष्य में शशिमोहनी प्रतिध्वनियाँ गरज उठेगी, उठने की संभावना है। इस संभावना के आसार उतने ही प्रबल दिखाई दे रहे हैं जितनी प्रबल क्रिया के पश्चात् प्रतिक्रिया की संभावना होती है।

सड़ रहे शस्त्रास्त्र

बंगाल में पिछले महीने में कुछ क्रांतिकारी युवकों को पकड़ा गया। उनके पास से मिले कई भयंकर बम तथा पिस्तौल आदि अस्त्र-शस्त्र रखने के अपराध में उनपर बड़े-बड़े दंड घोषित किए गए। बंगाल में जब देखो तब क्रांतिकारियों के पास हथियार होते ही हैं। हजारों रुपए पानी की तरह बहाकर तथा किसी भी संकट से सामना करते हुए वे बेचारे बम, गोलियों का संचय करते हैं और तब तक उस शस्त्रागार की रक्षा प्राणों की चिंता न करते हुए करते हैं जब तक पुलिस नहीं आती। पुलिस के आते ही सरकार के हाथों अनायास ही सारा शस्त्र सौंप देते हैं। वस्तुतः सरकार को तो चाहिए कि इन क्रांतिकारियों को, जो केवल इस प्रकार शस्त्र सँभालते रहते हैं-पुरस्कृत करे और उनके इस व्यवसाय को प्रोत्साहित करे, क्योंकि सरकार को कौड़ी भी व्यय न करते हुए मुफ्त में अस्त्र-शस्त्र तथा बम अनायास देने का जो उपक्रम इन क्रांतिकारियों ने शुरू किया है, वह सरकार के लिए सर्वथा लाभदायी है। समय आने पर सरकार बिना मूल्य शस्त्र उठाती ही है, उसे उनके असीम परिश्रम के बदले में दो कौड़ी का मोल भी नहीं देना पड़ता। अतः सरकार से हमारी प्रार्थना है कि इन क्रांतिकारियों को, जिन्हें अस्त्र-शस्त्र एवं भयंकर बमगोले संग्रह करने में रुचि है, दंड देकर इस तरह उपयोगी व्यवसाय डुबोने की भूल वह न करे।

हाँ, शस्त्र तथा बम हाथ लगते ही उनका किसी भी रूप में उपयोग करने की प्रवृत्ति यदि क्रांतिकारियों में होती तो फिर उन्हें भयंकर दंड देना उचित था। पहले इस तरह की प्रवृत्ति इस वर्ग में थी। तब वे पिस्तौल हाथ लगते ही गोली की प्रतीक्षा न करते हुए भी उसे चला देते। निष्कारण शस्त्र को जंग लगाते, बमों का संग्रह कर वे पुलिस की प्रतीक्षा नहीं करते थे। अतः यह ठीक ही हुआ कि क्रांतिकारियों को इस तरह भयंकर दंड देने पड़े, परंतु केवल शस्त्र रखकर उन्हें निर्विघ्नता के साथ पुलिस को सौंपनेवाले इन क्रांतिकारियों से सरकार ईर्ष्या नहीं करे। उनपर तरस ही अधिक खाए और सरकार को बिना मूल्य शस्त्र देनेवाली इस संस्था को अधिक प्रोत्साहित करे।

नादानों की क्षमाशीलता

यह बात सुनने में आ रही है कि अध्यापक इंद्र महाशय सरकार के पास आवेदन भेज रहे हैं कि श्रद्धानंद के हत्यारे-अब्दुल रशीद-को क्षमा प्रदान की जाए। बहुत खूब! अब स्वामीजी के इस पुत्र ने जो यह उदारता का अवलंबन लिया उसका उदाहरण उनका द्वितीय पुत्र भी करे तथा सरकार के पास दूसरा आवेदन भेजे कि इंद्र महाशय के निवेदन के अनुसार अब्दुल पर दया करके उसे छोड़ देने पर उसे पुरस्कारस्वरूप एक बँगला तथा दस-पाँच हजार रुपए दिए जाएँ। इससे अपने दोनों सुपुत्रों ने हिंदू धर्म की लाज रखकर पृथ्वीराज की हिंदू परंपरा डूबने नहीं दी, यह देखकर स्वामीजी की आत्मा को संतोष होगा और न केवल जागीर, अब्दुल रशीद के बरी होकर घर लौटते ही हिंदू महासभा किसी राजपूत नृपति की राजकुमारी भी मधुपर्क के रूप में उसे अर्पण करे, जिससे यह सिद्ध होगा कि उन्होंने हिंदुओं की क्षमाशीलता की साख यथोचित रखी। प्राचीन काल में शाहजहाँ को भी अपने पुरखों ने इसी आन के लिए इसी तरह एक राजपूत रमणी अर्पित की थी और उसकी कोख से औरंगजेब का जन्म हुआ था।

सत्य ही अब्दुल रशीद को आज ही फाँसी पर लटकाना निष्ठुरता है। हमारी प्रार्थना है कि किसी भी हिंदू रक्त का व्यक्ति अपने दयाशीलता के व्रत को कलंकित कर इस प्रकार की निष्ठुरता का भागी न बने। बेचारा अब्दुल रशीद स्वर्ग प्राप्ति के लिए उत्सुक है। श्रद्धानंद की हत्या करके स्वर्ग की एक सीढ़ी वह चढ़ चुका है, परंतु अभी उसी के कथनानुसार लालाजी और मालवीयजी के मस्तकों की शेष दो सीढ़ियाँ पार करनी हैं जो स्वर्ग की ओर ले जाती हैं। अतः उसे यह अवतार कार्य संपन्न करने के लिए उचित जीवनावधि प्राप्त हो--यही किसी भी परोपकारी हिंदू की हार्दिक कामना होगी। अतः प्रथम सीढ़ी से ही उसे खदेड़कर फाँसी लटकाने का पाप अध्यापक इंद्र करने के लिए प्रवृत्त न हों। वे उस साँप को दूध अवश्य पिलाएँ जिसने श्रद्धानंद को डँस लिया था अन्यथा अन्य हिंदुओं को कौन डँसेगा? सनातन हिंदू सर्प की पूजा करते ही हैं। फिर आर्यसमाजी व्यक्ति भी दया का प्रदर्शन भला क्यों न करें! हम हिंदू कुल मिलाकर हैं तो पृथ्वीराज चौहान के ही रक्त के!

जो अपने पिता के हत्यारे को 'मैं क्षमा करता हूँ।' ऐसा कहनेवाले श्रद्धानंद के पुत्र के भाग्य एवं महानता की पं. मालवीयजी के पुत्र को ईर्ष्या होना स्वाभाविक ही है। अत: उसकी संतुष्टि के लिए अब्दुल रशीद को कुछ दिन जीवित रखना इष्ट ही है। फिर वह श्रद्धानंद के पुत्र की तरह जब मालवीयजी के अथवा किसी और हिंदू के पुत्र को पितृहीन करेगा, तब वे भी 'दया' का आवेदन कर सकेंगे और इस हिंदू राष्ट्र में अपने पिता के हत्यारे के जीवनदाता उदार पुरुष अकेले इंद्र ही नहीं अपितु अनेक इंद्र हैं-यह गर्व के साथ कहने का भाग्य का लाभ संपूर्ण हिंदू राष्ट्र को भी होगा।

१८ अप्रैल, १९२७

शाहाबाद के मुसलमानों की हिंदू होने की धमकी

शाहाबाद के एक मुसलमान ने ख्वाजा हसन निजामी को एक पत्र लिखा है कि मुझे एक साहूकार का हजार रुपयों का ऋण चुकाना है। यदि आप उतने रुपए देंगे तो ठीक है अन्यथा मैं शुद्ध होकर हिंदू बन जाऊँगा। आशा है, इस उदाहरण से हमारे मुसलमान बंधु शुद्धि आंदोलन पर खार खाना छोड़कर उसे आशीर्वाद देंगे, क्योंकि इस शुद्धि आंदोलन ने निर्धन मुसलमानों को एक नया व्यवसाय उपलब्ध कराया है। महाजन का ऋण चुकाने का एक नया साधन उपलब्ध कराया है। जब शुद्धि आंदोलन नहीं था तथा हिंदू बनना असंभव था तब मुसलमानों में कोई दम नहीं था। एक बार कोई मुसलमान बन गया तो वह दो कौड़ी का भी नहीं रहता, परंतु 'अन्यथा मैं हिंदू बन जाता हूँ' इस तरह का प्रतिपादन हिंदू आंदोलन द्वारा संभव होने से मुसलमानों में काफी जान आने लगी है। उसे थोड़ा मोल प्राप्त हो रहा है। जिस किसी इसलाम भक्त को बिना घरबार छोड़कर पैसे निकालने की आवश्यकता प्रतीत होगी, वह शुद्धि की जमानत लगाए तो उसे ख्वाजा हसन निजामी की दुकान पर हजारों रुपए मिलना संभव होगा। बस इतना ही कहना है, 'अन्यथा मैं हिंदू हो जाता हूँ' की हुंडी सकारी गई ही समझिए।

मौलवी जाफर अली 'रँगीला रसूल' के विषय में कहते हैं कि 'यदि मुसलमानी साम्राज्य होता तो उन लेखक को उस सौ पृष्ठों की पुस्तक लिखने के लिए पत्थर मार-मारकर जान से मार डालने का दंड होता।' सौ प्रतिशत सत्य है, मियाँजी, मुसलमानी साम्राज्य के पुण्य प्रतापवश ही यदि साम्राज्य होता तो...'रँगीला रसूल' के कर्ता को जान से मार डाला जाता। यह मौलवी जाफर अली का कहना है। हमारा कहना है कि यदि हिंदू राज्य होता तो मौ. जाफर अली को इस तरह का विधान करने के लिए चूहेदानी में बंद किया जाता। जी हाँ, वचने किम् दरिद्रता?

आज पचास वर्षों से मुसलमान बंधु शोर मचा रहे हैं-'हमें विशेष प्रतिनिधित्व दो।' विधान सभा में 'विशेष प्रतिनिधित्व' (Special representation) उन्हें मिल जाने से हिंदुओं से उनके प्रतिनिधियों का प्रतिशत अधिक है ही। नौकरियों में भी उनके लिए अधिक प्रतिशत स्थान आरक्षित रखना आरंभ हो रहा है। कलकत्ता नगरपालिका में भी हिंदुओं से अधिक प्रतिशत प्रतिनिधित्व मुसलमानों को मिल रहा है, तथापि एक बात में आज तक हिंदुओं ने मुसलमानों को विशेष प्रतिनिधित्व देने में बहुत टालमटोल की है और वह बात है दंगा-फसाद।

जितने भी दंगा-फसाद पिछले वर्ष तक हुए हैं उन सभी में मृत तथा घायलों की संख्या में हिंदू ही अपने आपको जोड़ देते हैं। उन सभी स्थानों पर मात्र हिंदुओं की ही नियुक्ति की जाती है। मृतकों में अथवा घायलों में एक प्रतिशत स्थान भी मुसलमानों के लिए आरक्षित नहीं किया जाता। हिंदुओं का यह स्वार्थ सर्वथा अक्षम्य था।

लौकिक सुखों के लिए विधानमंडलों, नौकरियों, नगरपालिकाओं आदि स्थानों पर मुसलमानों को यदि विशेष प्रतिनिधित्व प्राप्त होना न्यायसंगत है तो उसी लौकिक सुख से अत्यंत उच्च जो स्वर्गीय सुख-जिन दंगा-फसादों में मर-मरकर अथवा घायल होकर धर्मवीर प्राप्त करते हैं-उन दंगा-फसाद जैसे प्रसंगों में से किसीको भी धर्मवीर कहलाने का अवसर हिंदू नहीं देते। निस्संदेह उनकी यह स्वार्थपरायणता अत्यंत निंदनीय है। गत वर्ष तक जो दंगा-फसाद देखो-उसमें मृतक अथवा घायल सभी हिंदू-ही-हिंदू। दंगा-फसादों में अल्ला के नाम से मरकर अथवा घायल होकर 'शहीद' धर्मवीर होने का अवसर प्राप्त होकर स्वर्ग गमन संभव हो सके, इतनी मारपीट ये स्वार्थी हिंदू किसी भी मुसलमान की नहीं करते। अन्य सभी मामलों में मुसलमान बंधु को विशेष प्रतिनिधित्व तथा अधिक प्रतिशत स्थान देते हुए भी पारलौकिक सुख जैसे महत्त्वपूर्ण मामले में हिंदू प्रत्येक दंगा-फसाद में मृतकों एवं घायलों के स्थान पर अपनी ही नियुक्ति करवाएँ, यह बात उनके उदार चरित लौकिकता के लिए अशोभनीय है।

दंगा-फसादों का प्रसाद भी मुसलमान बांधवों को विशेष प्रतिनिधित्व के सिद्धांत के आधार पर अधिक मात्रा में बाँटना तो दर, समान हिस्से में भी न बाँटने की हिंदुओं की कृपणतावश मुसलमान बंधु उनसे हाथ नहीं मिलाते। इस तरह का पक्षपात वे भी क्यों और कितने दिन सह लेंगे? दंगा-फसादों में प्राप्त पूरा-का-पूरा प्रसाद स्वयं ही गटकने के हिंदुओं के पक्षपात के कारण ही हिंदू-मुसलमानों का एका असंभव हो रहा था। यह कथन अन्य सभी कथनों से अधिक तथ्यपूर्ण था।

परंतु सौभाग्य की बात है कि कलकत्ता के दंगों से हिंदुओं ने अपनी इस स्वार्थपरायणता को धीरे-धीरे छोड़ना प्रारंभ करते हुए, इस वर्ष तो मुसलमान बांधवों को प्राय: सभी दंगा-फसादों में लोहे के चने चबवाने का कृत्य अपने हाथों से करने में जरा भी आगे-पीछे नहीं देखा। उदाहरण के लिए बरेली का दंगा देखिए-पिछले महीने-डेढ़ महीने में जो महत्त्वपूर्ण फसाद हुए उनमें बरेली के दंगे का समावेश है। इस दंगे के समय घायल 'अर्ध धर्मवीरों' के अधिकार तथा उपाधियाँ सब-की-सब हिंदुओं ने ही नहीं उड़ाईं, अपने हाथों से लगभग पचास प्रतिशत के अनुपात में अपने मुसलमान बांधवों को भी अर्पित की। घायल हिंदुओं की संख्या चौवन थी तो मुसलमानों की तिरतालीस। हिंदुओं ने घायल होने में जो अल्प पक्षपात कर अपना ही उल्लू सीधा किया था 'मृतक' होने में पूर्ण धर्मवीरत्व के स्वर्गीय अधिकार में अधिक उदारता का प्रदर्शन करके वह कमी पूरी की है। क्योंकि दंगे में मरकर जो स्वर्गीय अधिकारों के स्थान हथियाने होते हैं, उनमें से हिंदुओं ने छह अपने पास रखकर मुसलमानों को सात दिए हैं। देशबंधु दास द्वारा किए हुए पचास प्रतिशत आरक्षित स्थानों के अनुबंध से एक अधिक स्थान मुसलमानों को दे दिया।

परंतु नागपुर में तो हिंदुओं ने उदारता में रत्ती भर भी कसूर नहीं किया। उन्हें इतने अधिकार अर्पित कर दिए कि मुसलमान नौकरियों, विधानमंडलों, नगर संस्थाओं में कहीं भी इतने विशेष अधिकार (स्पेशल रिप्रेजेंटेशन) नहीं माँगते। प्रतिशत के पीछे हिंदुओं के समान रूप में ही नहीं अपितु अधिक अधिकार के आरक्षित स्थान उनके लिए रखकर घायल तथा मृतकों के अर्थात् अर्ध धर्मवीरत्व अथवा पूर्ण धर्म वीरत्व के स्वर्गीय अधिकारों में उन्हें हिंदुओं से भी अधिक हिस्सा दे दिया, क्योंकि हिंदू सैंतालीस घायल हो गए तो मुसलमान सतहत्तर और स्वर्ग में दस हिंदुओं को भेजा गया तो चौदह मुसलमान बंधुओं को भेजा गया।

६ अक्तूबर, १९२७

मसजिद के निकट हिंदू बाजा बजाएँ मऊ के मुसलमानों का ढोंग

यह सूचित करने में हमें खेद है कि वाद्य रोग से पीड़ित हमारे मुसलमान देश बंधुओं को जो समाचार सुनकर तीव्र वेदनाएँ होंगी, ऐसा एक समाचार देना हमारे भाग्य में लिखा है। ऐसे अनेक मौलवी मुसलमानों को जिनकी आजीविका हिंदू-मुसलमान दंगों पर ही निर्भर है-यह समाचार सत्य होते हुए भी सत्य प्रतीत नहीं होगा। वह समाचार यह है कि झाँसी के निकट मऊ नामक गाँव में हिंदू मुसलमानों की एक विराट् सभा संपन्न हुई और उसमें उन्होंने अपनी उपरिलिखित वाद्यों की समस्या मेलजोल से हल की। वह इस तरह कि मुसलमानों ने यह स्वीकार किया कि मसजिद के निकट से जुलूस निकालते समय हिंदू कभी भी बाजा बजा सकते हैं। मुसलमानों को कोई आपत्ति नहीं होगी।

इस तरह का निर्णय होते ही दूसरे दिन उस मौखिक निर्णय को लेखबद्ध करने के लिए दोनों पक्षों ने पुनः सभा का आयोजन किया और निम्नांकित अनुबंध पत्र सम्मत होकर उस पर दोनों पक्षों के हस्ताक्षर भी हो गए। वह अनुबंध पत्र इस प्रकार है-

'झाँसी जिला स्थित मऊ नगर के हिंदू-मुसलमानों में यह अनुबंध संपन्न हो गया है कि मसजिद तथा मंदिर के निकट किसी भी समय वाद्य बजाने के लिए कोई किसीको न रोके, क्योंकि इस मऊ के इलाके में गाँव-गाँव के सभी तरह के जुलूस, नाचंख, वाद्यवृंद आदि ठाठ-बाट, बाजे-गाजे के साथ मंदिर एवं मसजिद के निकट से आते-जाते रहते हैं। इसी कारण से हम हिंदू-मुसलमान भविष्य में भी वाद्यों के इस साधारण प्रश्न पर आपसी टंटे-झगड़े न करते हुए पुरानी रूढ़ियों के अनुसार ही व्यवहार करेंगे। यह अनुबंध हम दोनों ने स्वेच्छया तथा मन में किसी तरह का विकल्प न रखते हुए किया है।'

जिन वाद्यों के प्रश्नों को लेकर मौलाना मोहम्मद अली से लेकर पत्वाखाली के ग्रामों तक सभी धर्माभिमानी, शिक्षित एवं शिष्ट मुसलमान आज पीढ़ियों से सैकड़ों हिंदुओं के सिर फोड़ते आए हैं और सैकड़ों मुसलमान सिर तुड़वा रहे हैं, उन अत्यंत बुद्धिमान लोगों को अत्यंत जटिल प्रतीत हुए प्रश्नों को अति सुलभता के साथ सुलझाकर मऊवासी अनाड़ी मुसलमानों ने उस गंभीर प्रश्न को सर्वथा ग्रामीण स्वरूप दे दिया, यह घटना मुसलमानों की साख के लिए निस्संदेह लांछनास्पद है।

इस अनुबंध पत्र का दूसरा स्थूल दोष यह है कि इससे ईश्वर की श्रवण शक्ति के लिए प्रदर्शित किया हुआ अत्यंत अनादर मसजिद के अत्यधिक सामने वाद्य बजाए जाएँ तो हमारी प्रार्थना भंग होती है, अर्थात् ईश्वर को ठीक-ठीक सुनाई नहीं देती-यह विद्वान् मौलवी-मौलाओं का मूलभूत सिद्धांत है। उसे इस अनुबंध पत्र ने बिगाड़ दिया। क्योंकि इसमें स्पष्ट लिखा है कि वाद्य बजाने से भी भक्तों की प्रार्थनाएँ भंग नहीं होती और ईश्वर के कानों तक पहुँच ही जाती हैं। कैसा अनुदार पाखंड है यह! भला ईश्वर अंत:साक्षी है। वाद्यों के कोलाहल में भी भक्तों की प्रार्थनाएँ सुनाई दें! और जो वाद्यों की घनघनाहट में भी एकाग्र चित्त से प्रार्थना कर सकता है वह भला कैसा भक्त! सच्चा भक्त वही है जिसका संपूर्ण ध्यान प्रार्थना के अक्षरों से अधिक हिंदुओं के वाद्य कब बजने लगे और धार्मिक ढोंग की ओट में उनके सिर फोड़ने, लूटमार करने मैं कब बाहर निकलूँ-इसी महत्त्वपूर्ण बात की ओर केंद्रित होता है, वही सच्चा 'दीनदार!' बाकी सारे काफिर! नादान! मौलवी के इस मूलभूत सिद्धांत को मऊ के मुसलमानों ने ठेंगा दिखाया और हिंदुओं से, 'बेशक वाद्य बजाओ! चिड़ियों के पाँव में घूँघरू बाँधने से भी अल्ला सुनता है, चींटी के पैरों के घुँघरुओं की आवाज भी, चींटी के मन के विचार भी, जो अल्ला सुन सकता है, उसे हमारी प्रार्थनाएँ वाद्यों के झनकार में नहीं सुनाई देंगी, इतनी उस अंतर्यामी की श्रवणशक्ति बहिर्गामी नहीं हुई।'

इस अनुबंध का इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि उसपर लहू की चार बूँदें भी नहीं गिरी। मात्र काली स्याही का अनुबंध! यह तो शिष्टाचार का अक्षम्य उल्लंघन ही हो रहा है! हिंदू जन हो, तुम मसजिद पर वाद्य बजाओ, मुसलमानो, तुम मंदिर पर वाद्य बजाओ। गागर में सागर भरे इस एक छोटे से वाक्य ने आज सैकड़ों हत्याएँ करके तथा खून की नदियाँ बहाकर भी जो प्रश्न बुद्धिमान हल नहीं कर सके, उसे हल करने की धृष्टता चार अनाड़ी लोग दिखाएँ और पाँच पचास सिर भी न तोड़ें। भई, कितने पाजी हैं ये लोग! इस तरह के अनुबंध लहू से लिखने का स्पष्ट धर्मोपदेश-मौलवीय चालू आज्ञा (order of the duty) होते हुए मात्र काली स्याही की एक पंक्ति में प्रश्न मिटा दिया!

हाय! हाय! अब हम अज्ञानी मुसलमानों से किस कर्तव्य के नाम पर चंदा जमा करें? खिलाफत मरने पर भी आपत्ति हाथ में थी। यह यदि इस तरह एक ही वाक्य में 'राम' बोलेगी तो किस मुँह से हम चंदा माँगे और 'निधि' न हो, दाम न हो तो फिर खिलाफती मौलवीगिरी में रह ही क्या गया?

तथापि मौलानाजी, निराश मत होना। खिलाफत गई, उसी तरह वाद्याफत चली गई, फिर भी पुनः गुंडाफत मुसलमानी समाज में शेष है ही। उसकी सहायता से ही जीवित अपना मौलानापन टिक सकेगा जो हिंदू विद्वेष के बलबूते पर जीवित रह सकता है। तनिक बंगाल की ओर देखिए। मऊ के तार के बिलकुल विपरीत तार वहाँ से आया है। मऊ तो मऊ ही है, परंतु बंगाल में मुसलमान उतने ही दृढ़ हैं जितने पहले थे। उनका नया अद्वितीय पराक्रम सुना है?

शैतानी प्रवृत्ति का प्रभाव

यदि नहीं सुना हो तो सुनिए, मुसलमानी गुंडागर्दी को नहीं अपितु प्रत्यक्ष शैतानों की गुंडागर्दी को भी लज्जित करते हुए उस पापी पराक्रम के बारे में सुनिए। लेखनी उई कहते हुए थरथर काँप रही है, लज्जित हो रही है, परंतु कर्तव्य ही समझकर कहता हूँ। राजशाही जिले के भवानीपुर गाँव में पुजारी राजवंशी रहते हैं। वे परदा नहीं करते। उनके परिवार की कुछ महिलाओं के पुरुषों के साथ बाजार से लौटते हुए रात हो गई। इतने में मुसलमानी धर्मवीरों ने उन्हें रोका। एक युवती का अपहरण किया। वह गर्भवती थी। उन शैतानों ने उसपर बारी-बारी से बलात्कार करना आरंभ किया। इस नृशंस क्रिया के चलते वह अबला बेहोश हो गई, लहूलुहान हो गई फिर भी वे मुसलमान गुंडे बाज नहीं आए। इतने में पुजारी पुलिस लेकर भागा भागा आया। वैसे ही वे पराक्रमी धर्मवीर दुम दबाकर भाग निकले। वह स्त्री खून से लथपथ पड़ी थी। और हाय! हाय! उसका गर्भ छटपटाता बाहर गिरकर कुट-पिट गया था, उन अधमों से एक को पकड़कर उसपर अभियोग चलाया गया है।

जिस 'स्वतंत्र' पत्रिका में यह समाचार दिया गया है, उसी पत्रिका में लगे हाथ दूसरा समाचार भी प्रसिद्ध हो गया है कि 'फॉर्वर्ड' कहता है, एक हिंदू महिला के, जिसका नाम प्रियसुंदरी है, अभियोग का न्यायालय में निर्णय होकर प्रत्येक अपराधी को सात-सात वर्ष का कठोर कारावास का दंड प्राप्त हो गया है। यह अलग से कहने की आवश्यकता नहीं कि ये अपराधी मुसलमानी धर्मवीर ही थे। २४ सितंबर की रात में कुरबान और लतीफ नामक दो मुसलमान प्रियसुंदरी के घर में घुसे और उसे अन्य मुसलमानों, धर्मबंधुओं की पावन सहायता से एक धान के खेत में उठाकर ले गए। उन पाजी पशुओं ने उसके सतीत्व पर डाका डाला। वह मरणोन्मुख होकर खून से लथपथ अवस्था में छटपटा रही थी कि रमाकांत हवलदार ने उसे देखा। पुलिस को यह समाचार मिलते ही उन्होंने उन दोनों आरोपियों को पकड़ा; परंतु उस साध्वी अबला ने अट्ठाईस दिन बाद रुग्णालय में दम तोड़ दिया। डॉक्टर ने प्रमाण पत्र दिया-वह निर्दोष अबला बलात्कार के कारण मर गई। उसके नन्हे से बेटे ने कहा, मुझे छुरे से धमकाकर मेरी माँ को ये लोग घसीटकर ले गए। लतीफ तथा कुरबान ने अपनी दाढ़ी-मूँछे भी मुड़वाईं ताकि कोई उन्हें पहचान न पाए। न्यायाधीश ने उन्हें सात वर्षों का कारावास दंड दिया।

इसपर क्या लिखा जाए? जिस संस्कृति में इस तरह के सैकड़ों लोग जन्म लेते हैं अथवा आराम से रच-बस जाते हैं अथवा उन्हें सव्यवहार्य समझा जाता है, इतना ही नहीं, कुछ प्रत्यक्ष प्रमाणों द्वारा यह भी प्रतिपादन किया जा सकता है कि हिंदुओं की अनाथ अबलाओं का अपहरण करनेवालों की पीठ ठोंकी जाती है, उस संस्कृति को त्रिवार धिक्कार है! उसके सुधार का एकमेव मार्ग है उनका आमूलचूल विनाश। यदि दंड विधान (Criminal Law) अपर्याप्त हो तो प्रत्यक्ष राजदंड हाथ में लेते हुए उसे समूल नष्ट करना चाहिए।

पति को सौतेले पुत्र का मांस

यह पैशाचिक प्लेग मुसलमान समाज में आजकल एक महामारी बनकर आ गया है। इतनी भीषणता से नित्य आसुरी प्रवृत्ति के अत्याचारी स्त्री-पुरुष सैकड़ों की संख्या में उत्पन्न हो रहे हैं कि यह भय सार्थक ही प्रतीत होता है। हाँ, महिलाएँ भी-जैसे फ्री प्रेस का निम्नांकित समाचार देखिए-

२४ सितंबर के दिन बदला पटिया नामक थाने में कुमारबिल नामक स्थान पर एक मुसलमान महिला ने अपने पति के लिए सामिष भोजन तैयार किया; परंतु उसके पति के आने से पहले ही एक कुत्ता उसे चट कर गया। यह देखकर कि अन्य कोई मांस उपलब्ध नहीं है और अपने सौतेले पुत्र का विनाश करना अभी शेष है-'एक पंथ दो काज' के उद्देश्य से उसने उस नन्हे बालक की बोटी-बोटी उड़ाकर उसका मांस पकाया और अपने पति को इसके संबंध में बिना कुछ बताए पुत्र का मांस उसके ही पिता को खिलाया। इस प्रकार अपने सौतेले पुत्र का उसने प्रतिशोध लिया। आजकल वह स्त्री कैद में है। जहाँ इस तरह की शैतान की खालाएँ अस्तित्व में हैं, उस घर में उनकी कोख से नीच-से-नीच 'धर्मवीरों' की संतान ही उपजेगी।

एक बार पिशाच प्रवृत्ति को धर्म-कर्तव्य मान लेने के बाद फिर बाप को बाप तथा पुत्र को पुत्र कहने योग्य मानवता भी मनुष्य में नहीं रहती। कुत्ता जब पागल बनता है तब पहले दूसरे को काटने के लिए दौड़ता है और जैसे-जैसे उसके मुँह में खून लगता है वैसे-वैसे वह अधिकाधिक हड़काया जाता है और अंत में दूसरे को काटते-काटते अपने आपको भी काटने लगता है। उसी तरह धर्मोन्मत्त, साल, काफिर समझकर दूसरे का खून पीने का चस्का लगते-लगते अंत में अत्यधिक रक्तपिपासा से वह अपने घर में भी खन-खराबा करने लगता है। यह इतिहासजन्य अनुभव है। सीमा प्रदेश पर हिंदुओं को 'काफिर' समझकर उनपर अनन्वित अत्याचार करते हए उन्हें लूटकर, मारकर उन्हें खदेड़ दिया, क्याकि व अल्पसंख्यक थे। परंत उनके जाने के पश्चात् उनके खून से हड़काया हुआ धमान्माद अपने घर की ओर मडते ही अपने ही अंग-अंग को तार-तार करने लगा। माना कि हिंदू काफिर थे, परंतु मुसलमानों में भी सभी मुसलमान धर्मनिष्ठ ईमानदार कहाँ थे? इन शिया लोगों की ओर देखिए-सुन्नी धर्ममतों के अनुसार वे भी लगभग काफिर ही थे। हिंदू अत्यल्प थे तो शिया भी अल्पसंख्यक ही तो हैं। ठीक है, यदि ये अपना देश स्वच्छ धर्मप्रवण मुसलमानों का ही बनाना चाहते हैं तो हिंदुओं की जैसी गत शिया लोगों की नहीं करनी चाहिए क्या? यह सोचकर सीमा प्रदेश स्थित हड़काए हए सुन्नी बहुसंख्यकों ने शिया लोगों के विरुद्ध धर्मयुद्ध पुकारा। हिंदुओं का खून पीने का शिया तथा सुन्नी दोनों मुसलमानों की छुरियों को चस्का सा लग गया था। वही छुरियाँ अब हिंदुओं का लहू खत्म होते ही एक-दूसरे का लहू पीने लगीं। सुन्नी मुसलमान शिया मुसलमानों को भी 'नीम काफिर' समझकर उन्हें मार-पीट करके उनकी बोटियाँ उडाते और वे अल्पसंख्यक होने के कारण उन्हें धत्ता बता देते हैं। शिया मुसलमानों ने हिंदुओं पर जो अत्याचार जिस कारण से हँसते-हँसते किए वही अत्याचार उसी कारण के लिए उन्हें रो-रोकर भुगतने पड़े।

हिंदुओं को लूटपाट कर, मार-पीटकर भगा दिया। तब सीमा प्रदेश पर मुसलमानों के इस राक्षसी कृत्य के विरुद्ध शिया मुसलमानों ने 'उफ' तक नहीं की, परंतु अब हिंदुओं के पीछे-पीछे शिया मुसलमानों पर भी जब वही अत्याचार होने लगे तो अब वे बड़ी-बड़ी सभाएँ आयोजित करके आक्रोश कर रहे हैं। 'अत्याचार! सरकार, हमारी रक्षा करो। ये सुन्नी हमारा सर्वनाश कर रहे हैं। राक्षस हैं ये सुन्नी।' खान बहादुर सर सैयद ईस्माइल ने भी सुन्नी मुसलमानों की इस धर्मोन्मत्त क्रूरता की भरपूर निंदा की।

परंतु इसी धर्मोन्मत्त क्रूरता की छुरी जब हिंदुओं के सीनों पर चलती थी तब ये ही शिया मुसलमान उसे देवदूत की तलवार समझते थे। जैसा दिया वैसा लिया। धार्मिक मतभेद होते ही 'कत्ल करो' जैसा भयंकर, राक्षसी विचार जब तक तुम सीने से लगा बैठे हो तब तक मुसलमानो, तुम न केवल हिंदुओं के बल्कि अपने आपके भी शत्रु हो, क्योंकि तुम हिंदुओं की जान इसलिए लोगे कि वे मूर्तिपूजक हैं, तो शिया मुसलमान क्या अली के पश्चात् आए हुए खलीफाओं को नहीं मानते, अली को भी उतना ही पूजनीय मानते हैं जितना पैगंबर को, इसलिए उन्हें भी काफिर समझकर उनकी जान लोगे? जहाँ शिया बलवान है वहाँ सुन्नी अली के हत्यारे, कुल के लिए कलंक समझकर मारे जाएँगे। शिया मुसलमानों का कत्ल होते-होते सुन्नी-सुन्नियों में भी आपसी 'कत्ले-आम' हो रहे हैं, क्योंकि उनमें भी सैकड़ों धर्मपंथ हैं और मतमतांतर भी हैं। भिन्न मत होते ही 'मारो बदमाश को' यही धर्मोपदेश हैं-कम-से-कम हजारों मुसलमानों की यही धारणा है।

वही स्थिति खोजा मुसलमानों की है, क्योंकि शिया और सुन्नी दोनों ही पंथ खोजा मुसलिमों को इतनी तीव्र ईर्ष्या से देखते हैं कि खोजाओं पर मुसलमानों की मसजिदों में नमाज पढ़ने के लिए भी प्रायः पाबंदी लगाई जाती है। मुसलमान एव खोजाओं के धर्ममतों में उसी तरह मतभेद हैं। मनुष्य में ईश्वरांश होता है-इस अवतारवाद की जड़ में स्थित तत्त्व से मुसलमान भयंकर चिढ़ते हैं; परंतु इन खोजाओं का मूलभूत धार्मिक तत्त्व यही है कि आगा खान के वंश में ईश्वरी अश का निवास होता है, आगा खान के वंश को ही ईश्वरी विभूति के रूप में पूजना तथा भक्ति करना यह प्रत्येक खोजा का धर्म-कर्तव्य है। अभी-अभी खोजाओं के समाज में सुधार का एक आंदोलन उत्पन्न हुआ है, उसके समर्थकों ने एक खुला पत्र आगा खान को संबोधित करते हुए लिखा है। उसकी प्रतियाँ सभी को बाँटी गई हैं। इस पत्र में तो इस प्रकार स्पष्ट कथन किया है कि स्वयं आगा खान ने प्रतिपादित किया है कि प्रस्तुत कुरान में काफी अंश प्रक्षिप्त हैं। मुसलमानों के अनुसार मोहम्मद अंतिम पैगंबर हैं। खोजा कहते हैं, आगा खान का मूल पुरुष भी पैगंबर था और स्वयं आगा खान ने प्रतिपादित किया है कि वास्तविक कुरान जो अप्रकट है-लिखने के लिए मुझे छह महीने लगेंगे। आगा खान के ये वाक्य उन्हीं के अनुयायियों द्वारा व्यक्त किए गए हैं। अतः कुरान की मूल पांडुलिपि से संबंधित विवाद मोहम्मद महाशय की मृत्यु से ही मुसलमानों में पंथ-विपंथों के निर्माण का कारण बनने से खोजा समाज के इस अभिमत के संबंध में यह कहने की आवश्यकता नहीं कि मुसलमान उनसे कितनी तीव्र घृणा करते होंगे। प्रस्तुत पत्र में भोले-भाले लोगों से लाखों रुपए इकट्ठा करके और बहिष्कार की धौंस से ऐंठकर विलायत में अपने ऐशो-आराम के लिए उड़ाए जाते हैं, इस प्रकार आगा खान की कड़ी आलोचना की गई है। आश्चर्य है, अपने ही अनुयायियों की आलोचना से जो धर्मगुरु कलंकित हो गए हैं, वही भोले-भाले हिंदुओं को धर्म च्युत करने के उद्देश्य से अपने को 'निष्कलंकी'-कलंकी का अवतार बताते हैं।

३ नवंबर, १९२७

धमकी भरे पत्र

श्रीयुत् राजपाल, स्वामी सत्यानंद, लाला नानकचंद की हत्या के पवित्र प्रयासों को अपराध समझकर जिन ऑजिल्वे साहब ने कुछ मुसलमानों को फाँसी चढ़ाया, उनपर भी मुसलमानी धर्मभक्तों का कोप हो गया है। उनमें से किसी सत्वशील साधु पुरुष ने मि. ऑजिल्वे साहब को भी एक पत्र लिखकर यह सूचित करने की कृपा की है कि आपको भी शत्रु समझा जाएगा। इसमें कोई शक नहीं कि मि. ऑजिल्वे साहब इस पत्र की धमकी के भय से आनेवाले जहाज से हिंदुस्थान छोड़कर विलायत भाग जाएँगे।

परंतु ये इसलामी धर्मवीर केवल ऑजिल्वे साहब पर ही इस प्रकार की कृपा करके क्यों रुक जाते हैं? वे साहब जिन्होंने अब्दुल रशीद को फाँसी पर चढ़ाया और उन साहब लोगों का झुंड, जिसने प्रीवी कौंसिल में उसकी अपील को अस्वीकार किया-अभी तक तो जीवित ही हैं। उसे भी तुरंत मृत्यु के वॉरंट भेजने चाहिए, जिससे वे भयभीत होकर अपने-अपने कामकाज छोड़ दें। और दूसरे किसी अब्दुल रशीद को और किसी श्रद्धानंद की हत्या करने के पश्चात् पागलपन का ढोंग करने की तथा फाँसी पूर्व ही भय का ज्वर चढ़कर थर-थर काँपते हुए रोने धोने की नौबत नहीं आएगी।

तलेगाँव के दोनों मुसलमान सज्जनों को हिंदू देवताओं की मूर्तिभंग का पवित्र कार्य करने के लिए पुरस्कृत करना चाहिए था, क्योंकि मौलवी-मुल्लाओं के अनुसार मूर्तिभंजन इसलाम की एक परंपरा है, परंतु वहाँ के एक दुष्ट मजिस्ट्रेट ने इन सज्जनों को दो-दो महीनों का कठोर कारावास का दंड दिया। इस दुष्ट मजिस्ट्रेट को भी ऑजिल्वे की तरह पत्र भेजा जाए जिससे वह भी भाग जाएगा।

माशीपुर ग्राम के एम.ई. स्कूल के एक बारह वर्षीय छात्र नरेंद्रनाथ का अपहरण अकबर और उसके साथी--दो इसलामी धर्मभक्तों ने किया था। उन्होंने उसे बलपूर्वक मुसलमान बनाने का प्रयास किया, अब उनपर अभियोग चलाया गया है। जिस मजिस्ट्रेट के सामने यह अभियोग चल रहा है उसे भी तुरंत मृत्यु का वॉरंट भेजकर उसे चेताया जाए ताकि वह भी अपना स्थान छोड़कर या तो भाग जाएगा अथवा उस सज्जन तथा काफिर को बलपूर्वक धर्मभ्रष्ट करनेवाले पुण्यकर्मी इसलामी धर्मभक्तों को भयभीत होकर छोड़ देगा। उसे भेजी जानेवाली धमकी भरी चिट्ठी में यह भी लिखा जाए कि उन मुसलमानों को छोड़ दो जो उस बालक को धर्मभ्रष्ट करने का पवित्र कर्तव्य कर रहे थे। इतना ही नहीं, उस बारह वर्षीय हिंदू बालक को जिसने इतनी यंत्रणाओं के बाद भी मुसलमान धर्म को स्वीकार नहीं किया, उसे इस अपराध के लिए कोडे बरसाने का दंड दो, अन्यथा जो होगा वह प्रकट ही है।

जुबेर खाँ, यूसुफ सेठ आदि खुलना स्थित इसलामी सज्जनों पर भी इसी तरह का अवसर आया है। उन्होंने स्वर्णमयी नामक हिंदू कन्या का अपहरण का प्रयास किया। इस प्रकार हजारों मुसलमान हिंदु कन्याओं का अपहरण करते हैं। यह तो उनकी पैतृक परंपरा है। इस परिपाटी का पालन जुबेर खाँ आदि लोगों का करना उनका कर्तव्य था, परंतु खुलना के सेशंस कोर्ट में उनपर धारा ३६ तथा १४४ आदि के अधीन अभियोग लगाया गया है और इसलाम के अनुयायियों की यह धार्मिक परिपाटी बंद करने का प्रयास किया जा रहा है। उस सेशंस जज को भी तुरंत एक चिट्ठी भेजी जाए जिससे वह भी भयभीत होकर होश में आएगा और स्वर्णमयी को मुसलमानों के हाथों सौंपकर उसका उद्धार करेगा।

जिस गाजी ने लाला नानकचंद की हत्या की, उसे फाँसी पर लटकाने का भयंकर दंड तो मिल ही गया, परंतु जिस स्थान पर वह हत्या हो गई उस मोची द्वार की (लाहौर) बस्ती पर ज्यादा पुलिस बैठाकर सरकार ने आदेश दिया है कि उनका व्यय भार वहाँ के मुसलमान उठाएँगे। राम-राम-राम! मुसलमानों पर कितना अत्याचार! हत्या जैसे सहज होनेवाले साधारण अपराधों के लिए बेचारे हत्यारे धर्मनिष्ठों को धड़ाधड़ फाँसी का दंड दिया जाता है। गाजी लोगों के रोने-धोने पर भी उनकी गरदनें फाँसी के फंदे से नहीं छूटतीं। वह तो रहने ही दीजिए, परंतु जिस स्थान पर हत्याएँ हो गईं, उस स्थान ने भला क्या बिगाड़ा? परंतु उस स्थान पर भी ज्यादा पुलिस बैठाने का कर! निर्धन मुसलमान 'हाय तोबा' मचा रहे हैं। लाहौर के इस कमिश्नर को भी एक धमकी भरा पत्र भेजना होगा। फिर उस कायर के तोते उड़ जाएँगे और वह उन ज्यादा पुलिसवालों को हटाएगा। फाँसी पर चढ़े उन मुसलमानों के प्राण भी वापस लौटाएगा।

नागपुर में भी एक गाजी को इसी तरह की यंत्रणाओं का सामना करना पड़ रहा है। उस गाजी का नाम है अब्दुल कादर। हिंदुओं की कन्याओं का अपहरण करके उन्हें बलात्कार से मुसलमान बनाने का जो महत्कार्य आजकल अनेक साधुओं ने अपने हाथ में लिया है, उनमें इस गाजी की भी गणना है। राह से चलती एक हिंदू नारी को, जिसका नाम सकू था, 'तुम्हारी बहन का घर मुझे मालूम है, आओ, मैं तुम्हें पहुँचाता हूँ'-इस तरह झूठ बोलकर उसे वह अचानक अपने घर ले आया। तुरंत उसे कमरे में बंद करके बंदूक दिखाकर उसकी बोलती बंद की। रात के समय उसके साथ बलात्कार करके वह उसे ताँगे में बैठाकर दूसरे स्थान पर अपनी बेटी के घर ले गया। उसके दोनों पुत्रों ने इस पवित्र कार्य में उसका हाथ बँटाया। उसकी पत्नी तथा बहन ने भी उस स्त्री पर हो रहे अत्याचार में सहयोग दिया और उसे मुसलमान बनने के लिए धमकाया। अंत में एक मुसलमान दारोगा के घर एक कागज पर उसके अँगूठे की छाप ली गई। उस कागज पर लिखा था, 'मैं अपनी मरजी से मुसलमान बन रही हूँ।' संयोगवश उस हिंदू कन्या की प्रार्थना ईश्वर ने सुनी और पुलिस के कानों पर वह उड़ती खबर पहुँच गई और अब वह गजनिया पकड़ा गया है। उसपर नागपुर में अभियोग चल रहा है। वस्तुतः हिंदू नारी का अपहरण करके बलात्कार, अत्याचार आदि पवित्र युक्तियों से मुसलमान धर्म की महानता स्पष्ट करके उसे धर्मभ्रष्ट करना-यह कृत्य मुसलिम समाज में कितना आदरणीय समझा जाता है-यह अब्दुल्ला के इस हिंदू कन्या को धर्मभ्रष्ट करने के काम में प्रत्यक्ष उसके तथा मुसलमानी दारोगा, उसकी मुसलिम स्त्री, बहन तथा पुत्रों ने तथा आस-पड़ोस के घरों द्वारा दिए गए सहयोग से स्पष्ट होता है, परंतु नागपुर के दुष्ट सिटी मजिस्ट्रेट ने उन लोगों पर अभियोग चलाए-यह कितना काफिराना अंदाज है! इसलिए इस मजिस्ट्रेट को भी मृत्यु का धमकी भरा पत्र अवश्य भेजा जाए।

हिंदू कन्याओं तथा अनाथ बच्चों को बलात्कार द्वारा धर्मभ्रष्ट करना-यह कृत्य मुसलिम महिलाएँ भी कितना पवित्र तथा आदरणीय मानती हैं, इसका एक और उदाहरण कटनी में नवंबर में घटा है। एक तेरह वर्षीय ब्राह्मण कन्या को मार्ग में अकेली देखकर एक मुसलमान साधु पुरुष ने, जिसका नाम ख्रिस्तू था, झपट लिया। वह बालिका तुरंत चिल्लाई। उस साधु की धर्मपरायण पत्नी ने झट से उसका हाथ पकड़कर उसे खींच लिया और उसके मुँह में कपड़ा ठूँसकर छुरा निकाला। इस मुसलमान साधु की साध्वी ने उस लड़की को अपने चाचा के घर छिपाया। हिंदू कन्या के मुसलमान द्वारा पकड़ी जाते ही यह कृत्य हजम करने के लिए पूरा-पूरा प्रयास करना प्रत्येक मुसलमान का कर्तव्य है-इस भावना ने मुसलिम समाज में कितनी गहराई से जड़ पकड़ी है-यह इस बात से भी स्पष्ट होगा कि पुलिस की खोज शुरू होते ही ख्रिस्तू की चाची ने उस बच्ची को छिपाने के लिए उसकी माँ के हाथ में दे दिया। ख्रिस्तू की माँ उस बालिका का अपहरण करती हुई पकड़ी गई। अब गाजी ख्रिस्तू तथा उसकी गाजिनी पत्नी हवालात में बंद हैं। यदि कोई हिंदू लड़का किसी मुसलिम कन्या का अपहरण करके घर लाता तो उसकी हिंदू माँ कृतार्थ होने के स्थान पर कलछी गरम करके उसे दाग देती। उसके सगे-संबंधी ही नहीं, पूरा गाँव इतने जोर से हल्ला मचाता कि उसकी आवाज काशी, रामेश्वरम् तक जाती और वह हिंदू लड़का मुसलमान बन गया-कहते हुए उसे भगा देते। परंतु ख्रिस्तू की अम्मी देखो, कितनी साध्वी धर्मपरायणा नारी थी! उसकी बात छोड़िए, उस प्रत्येक नरपशु को जिसने गाजी-गाजीन को जेल में बंद किया है, मृत्यु का वॉरंट भेजकर उसे पकड़ना ही चाहिए। उसका पता है-कटनी-पुलिस जेल।

और एक पते पर धमकी भरा वॉरंट भेजना ही होगा। वह पता है-रामस्वरूप मोटर ड्राइवर, बाजार मोहल्ला, कानपुर। क्योंकि एक मुसलिम स्त्री उसके पति द्वारा परित्यक्ता होने पर कई दिनों के पश्चात् रामस्वरूप ने उसे शुद्ध करके हिंदू स्त्री की तरह उससे ब्याह रचाने का निश्चय किया। अर्थात् इस घोर अपराध ने मुसलमानों के धर्मभीरु मन को असह्य दु:ख दिया। हिंदू की विवाहित स्त्री को बंगाल में यशोदा सुंदरी तथा अन्य घटनाओं की तरह भरे-पूरे परिवार में से खींचकर उसपर बलात्कार करके उसे मुसलमान बनाना मुसलमानों का परम कर्तव्य है। वह उनका इन गाजी गुंडे तथा मंडल के अनुसार परम धर्म ही है, परंतु इसलिए हिंदू भी मुसलमानों द्वारा परित्यक्त स्त्रियों को क्यों न हो, पर शुद्धीकरण के साथ उनसे ब्याह रचाने का निश्चय करें। काफिर कहीं के! अर्थात् सैकड़ों गाजी गुंडों तथा अन्य लोगों ने रामस्वरूप के घर पर आक्रमण किया और वे कन्या का अपहरण करने ही जा रहे थे कि पुलिस आ धमकी। कोतवाली में स्त्री ने बयान दिया, 'मेरा शुद्धीकरण हो गया है, मैं हिंदू बन गई हूँ। रामस्वरूप को छोड़कर परपुरुष का दर्शन करना भी मैं पाप समझती हूँ।' यह बयान पूरा होते ही दुष्ट अंग्रेजों के पापी निर्बंधों के अनुसार वह स्त्री रामस्वरूप को सौंपी गई। अतः रामस्वरूप के पते पर भी एक धमकी भरा पत्र भेजा जाए और वह दुष्ट निर्बंध भरा इंडियन पीनल कोड ही जला दिया जाए।

बंगाल में फेनी में हरचंद्रदास की शामनाद नामक स्त्री का एक गाजी ने, जिसका नाम लाल मियाँ था, बलात्कार से अपहरण किया था। उसे दो वर्ष के कठोर परिश्रम का दंड हो गया। एक बार उसे भी क्षम्य कहा जा सकता है, परंतु अलीपुर के सबडिवीजन मजिस्ट्रेट के सामने छह-सात गाजियों पर संदेशखाली गाँव की एक हिंदू विवाहित स्त्री द्वारा, जिसका नाम शशिबाला था, जो कहर बरपाया गया है उसका प्रतिशोध गाजी गुंडे तथा मंडल को तुरंत लेना चाहिए। शशिबाला का पति आत्यंतिक रुग्ण था। सत्रह वर्षीय वह युवती घबराकर दवा तथा सहायता माँगने अड़ो‌स-पड़ो‌स में घूमने लगी। ऐसी अवस्था में उसपर दया आना स्वाभाविक ही था। उसपर तरस खाकर एक धर्मभीरु मुसलमान उसे दवा के बहाने किसी दूसरे के घर ले गया। जैसे उसे दया आ गई, उसी तरह और एक का मन भी करुणा से भर गया। देखते-देखते छह-सात गाजी इकट्ठा हो गए, उन सबने करुणा का व्रत लिया हुआ था। उन्होंने शशिबाला को एकांत स्थान में रखा और प्रत्येक गाजी उसपर अपनी मुसलमानी दया का प्रदर्शन करने लगा। प्रात:काल में आत्यंतिक पीड़ा से छटपटाती हुई अर्धमूर्च्छितावस्था में वे शशिबाला सड़क के एक किनारे पड़ी थी। पुलिस ने उसे देखा और उन दुष्ट पुलिसवालों ने उसपर 'दया' न करते हुए उसे मजिस्ट्रेट के पास ले गए। उसका बयान लेकर उन छह-सात गाजियों को ही पकड़ने का अभियान चलाया। न्यायालय में जब वह सत्रह वर्षीय शशिबाला रोते-सिसकते अपनी आपबीती सुनाने लगी तब दर्शकों में से अनेक निर्दय नरपशु उन मुसलमान गाजियों की तरह हँसना छोड़कर आँसू बहाने लगे। अर्थात् उन सभी जनों को, जो उन गाजियों को पकड़ना चाहते थे तथा शशिबाला का पक्ष लेकर आँसू बहानेवाले सभी दर्शकों को, पुलिस को धड़ाधड़ धमकी भरे पत्र भेजकर स्पष्ट रूप से सूचित करना होगा कि यदि शशिबाला की पूछताछ बंद न करोगे तथा केवल दया करने के अपराध के कारण छह-सात मुसलमानी धर्मभक्तों को पकड़ने की क्रूरता दिखाना बंद नहीं करोगे तो छह सप्ताहों के अंदर-अंदर आपमें से प्रत्येक गाजी गुंडा तथा लोग अपना पवित्र छुरा घोंपने की धर्मवीरता का डंका बजाए बिना नहीं रहेंगे। अर्थात् पूरी कलकत्ता पुलिस के तोते उड़ जाएँगे। टगार्ड साहब भी दुम दबाकर विलायत भाग जाएगा।

अर्थात् यह सत्य है, हमारे दिए हुए सैकड़ों पतों पर अलग-अलग पत्र लिखने में प्रचुर मात्रा में व्यय करना होगा। उसके अतिरिक्त दंगा-फसाद के अपराध में पिछले केवल दो महीनों में बच्चों को अपहरण जैसे साधारण अपराध के लिए भी पाँच-पाँच, सात-सात वर्षों के कठोर परिश्रम के दंड और कइयों को दो-चार वर्षों तक बेड़ियाँ, कालकोठरियाँ, कारावास आदि अमानुषिक दंड दिए गए हैं। उन सभी का प्रतिशोध लेना है ही। अतः इतने स्थानों पर धमकी भरे पत्र भेजने के लिए स्याही पर ही सैकड़ों रुपए खर्च करने होंगे, परंतु इसके लिए भी एक उपाय है।

मुसलमान सज्जनों पर ये अत्याचार क्यों किए जाते हैं? इसलिए कि अंग्रेज प्रशासन के निर्बंध हमारे गाजी गुंडों के मुसलिम निबंधों से तालमेल नहीं खाते। काफिरों को बलात्कारपूर्वक मुसलमान बनाना इस तरह का पुण्यकृत्य भी इन अंग्रेजी निर्बंधों द्वारा पाप ही सिद्ध होता है। अत: ऑजिल्वे अथवा प्रिवी कौंसिल के साहब का समुदाय अथवा सैनिक, पुलिस तथा अलीगढ़ के मजिस्ट्रेट आदि सैकड़ों लोगों को धमकी भरे पत्र भेजने की अपेक्षा ब्रिटिश प्रशासन के स्वामी बादशाह पंचम जॉर्ज को ही एक धमकी भरा पत्र भेजो। बस, काम बन जाएगा। गाजी गुंडों की ओर से दिल्ली, बंबई, कलकत्ता के गली-कूचों के किसी सब्जीवाले मौलाना जैसे उत्तरदायी नागरिक लंदन के पते पर निर्भीकतापूर्वक जॉर्ज महाराज को एक पत्र भेजें कि यह पत्र मिलने के एक सप्ताह के अंदर-अंदर हिंदुस्थान का राज्य छोड़कर आप वह ताज अफगानिस्तान के अमीर के हाथों सौंप दें।

इस तरह के पत्र के साथ ही मुसलिम सज्जनों पर ढाए गए अत्याचार बंद होंगे। बस, एक दुअन्नी के टिकट का ही काम। एक बार चिट्ठी पहुँची कि महाराज जॉर्ज की क्या मजाल कि वे उसे अस्वीकार करेंगे! गाजी गुंडे आदि का पत्र और अस्वीकार! तोबा! तोबा! इसमें कोई संदेह नहीं कि चिट्ठी पहुँचने की देरी है-वे हिंदुस्थान का ताज पार्सल से रवाना करेंगे-पार्सल से!!

९ दिसंबर, १९२७

नील के पुतले के घोड़े की टाँग तोड़ दी!

अत्यंत प्रसन्नता की बात है कि नील के पुतले को हटाने के लिए छेड़ा गया सत्याग्रह सफल बनाने का पूर्ण अहिंसात्मक साधन आखिर महात्माजी ने ढूँढ़ ही लिया।

एक मुस्टंडे स्वयंसेवक ने नील के पुतले के घोड़े की टाँग हथौड़ी से तोड़ डाली। यह समाचार सुनते ही समस्त अहिंसात्मक अनत्याचारी वीरपुंगवों को इतनी असहनीय पीड़ा हुई जितनी उस प्रस्तर के घोड़े को भी नहीं हुई होगी। एक प्राचीन अनुश्रुति है कि एक घायल मेमने को देखकर भगवान् बुद्ध व्यथित हुए थे, परंतु वह जीवित मेमना था। जीवित प्राणियों के घायल होने से किसीकी भी अकुलाहट बढ़ेगी ही, परंतु पाषाण को चोट पहुँचने से जिसका हृदय तिल-तिल टूटेगा, वही है सच्चा अनत्याचारी नरपुंगव। एवं गुणविशेष अनेक नरपुंगव तिलमिलाकर अहिंसा के आचार्य के पास चले गए और फूट-फूटकर रोने लगे। तब उन्होंने भी छटपटाते हुए आदेश दिया कि भविष्य में कोई भी हथौड़े के साथ सत्याग्रह में प्रवेश न करे। लाठी, हथौड़ा ये हथियार हैं। भारतीय दंडविधान (इंडियन पीनल कोड) में उसके लिए दंड नहीं होगा, परंतु अहिंसात्मक दंडविधान में उसके लिए भी दंड होना चाहिए। हथियार हाथ में उठाना भी पाप है। नागपुर में हथियार धारण करने का अधिकार प्राप्त करने के लिए जब सत्याग्रह छेड़ा गया तब आचार्य ने इसीलिए स्पष्ट शब्दों में कहा था कि 'शस्त्र और सत्याग्रह! शस्त्र और सत्य, एक साथ नहीं रह सकते। शस्त्र धारण करने के अधिकारार्थ सत्याग्रह करना 'सत्याग्रह' शब्द का दुरुपयोग करना है। शस्त्र धारण न करें-यह निर्बंध न्यायसंगत है। जिस प्रकार चोरी न करें, डाका न डालें आदि भारतीय दंडविधान के निर्बध भंग करना पाप है, उसी प्रकार शस्त्र धारण न करें-इस निर्बंध को भंग करना भी अहिंसात्मक अनत्याचार के शास्त्रानुसार पाप है।' अतः भारतीय दंडविधान से एक पग आगे बढ़कर हथौड़ा-लाठी जैसे जितने भी हथियार हैं, उन्हें अहिंसात्मक अनत्याचारी भंडविधान दंडनीय मानता है।

फिर उस अनत्याचारी वीरपुंगव ने प्रश्न किया, 'महर्षि, मशीनगंस उपलब्ध नहीं हैं। हथौड़े, लाठी, पत्थर उपलब्ध होते हुए भी अहिंसा की दृष्टि से उन्हें हम धारण न करें, यह आप आदेश दे रहे हैं। अत: हम हाथ में क्या लेकर नील के पुतले के पास जाएँ?'

तब महादेश मिला, 'कीचड़ लेकर'। हाथ में कीचड़ लेकर प्रत्येक सत्याग्रही वीरपुंगव नील के पुतले की ओर जाए और तब तक उसपर कीचड़ उछाले जब तक पुलिस नहीं पकड़ती। यह निर्णय सुनकर अनत्याचारी अहिंसाभक्तों की सेना के सभी सत्याग्रही नरपुंगव हर्ष-विभोर हो गए। पुंगव जो ठहरे!

हम उन पुंगवों में से एक न होते हुए भी और एक युक्ति सुझाना चाहते हैं। कीचड़ से पत्थर को इतना आहत नहीं किया जा सकता जितना हथौड़े से, परंतु वह व्यक्ति, जिसने अहिंसा का पवित्र व्रत धारण किया है, भला कीचड़ कैसे उछाले? क्योंकि कीचड़ भी पत्थर की आँख में पड़ गया तो उसकी आँखों में चुभने से उस पाषाण की मूर्ति को न्यूनाधिक शारीरिक दुःख तो अवश्य होगा। इसलिए विनम्रतापूर्वक हम सूचित करते हैं कि सत्याग्रही वीर हाथ में कीचड़ न उठाते हुए केवल नील के पुतले तक जाएँ और दूर से उस पुतले को मुँह चिढ़ाते हुए खड़े रहें। शुद्ध अहिंसात्मक सत्याग्रह को कीचड़ उछालने से यही कृति अधिक शोभा देगी। हथौड़ा, लाठी, पत्थर की तरह कीचड़ भी एक हथियार ही है। इसलिए कीचड़ भी अहिंसात्मक अत्याचार के भंडविधान में बहिष्कार के योग्य समझा जाए।

वास्तव में हाथ भी एक हथियार ही है। इसीलिए उसे भी काटकर सत्याग्रह स्थल पर जाएँ; परंतु जाने दीजिए-हाथ की बात छोड़ देंगे। भोजन तथा केले, नारंगी, संतरा आदि खाने के लिए उपयुक्त चीजें जो हैं वह! अतः ये सत्याग्रही वीरपुंगव नील के पुतले के सम्मुख खड़े रहकर केवल मुँह ही बिचकाते रहें।

१२ जनवरी, १९२८

हाथ लगे चार प्रमाणपत्र

कोई निष्पक्षपाती तटस्थ व्यक्ति दूसरे पराए व्यक्ति को यदि प्रशस्तिपत्र दे तो वह भूषणास्पद ही है। वह स्वाभाविक ही होता है, परंतु यदि किसी बालक ने किसी पंडित को 'शाबाश पंडितजी' कहा, किसी बालक ने जो मुसलमान बन चुका है-किसी उपनयन होते बालक पर प्रसन्नतापूर्वक चार अक्षता [2] फेंककर वह समारोह संपन्न किया, किसी लॉर्ड कर्जन ने सुरेंद्रनाथ की भूरि-भूरि प्रशंसा की अथवा किसी कुत्ते ने दूसरे कुत्तों से, जो रोटी के टुकड़ों के लिए लड़ रहे हों- 'बहुत लड़ चुके' कहते हुए अपने पंजे से उसकी पीठ ठोंकी अथवा डायर ने जालियाँवाला बाग में कत्ल हुए किसी बालक को देखकर आँसू बहाए तो इसमें कोई संदेह नहीं कि वे प्रशस्तिपत्र सर्वथा अपूर्व रहेंगे। हमारे हाथों ऐसे दो-चार अनूठे प्रमाणपत्र लग गए हैं, उनमें से कुछ नीचे दे रहे हैं-

मुसलमानों का हिंदुओं को प्रमाणपत्र

मालवीय या मुंजे हिंदू संगठनों की प्रशंसा करें, इसमें कोई आश्चर्य नहीं। ममता से उनकी बुद्धि का अंधी होना संभव है, परंतु मौलाना हजरत मोहानी सायं कहते हैं कि 'संगठन का आंदोलन प्रत्येक स्थान पर संगठित नीति से एकसूत्र में कार्य कर रहा है। कानपुर, नागपुर, बरेली आदि सभी स्थानों पर हिंदुओं ने ही दंगा शुरू किया। इन सभी स्थानों पर हिंदुओं ने ही मुसलमानों की हत्या की, उनकी पिटाई की। हिंदू मुसलमानों से बहुत आगे हैं और राजनीतिज्ञ बडे चालाक हैं। इसीलिए तो उनका षड्यंत्र पक्का दृढ़ होता है। प्रथम मुसलमानों को वे मारते हैं, उसके पश्चात् मुसलमान भी मारने लगें तो तुरंत हिंदू हो-हल्ला मचाकर आकाश सिर पर उठाते हैं। जब एकता का ढोंग रचाते हैं तब मुसलमानों की शांति की ढाल के नीचे छिपकर हानि करते हैं। सरकार ने हिंदुओं पर अभियोग चलाया तो हिंदू वकील उनके अभियोग निःशुल्क चलाते हैं। मुसलमान घरबार व्यय के मारे उजड़ जाते हैं। मेरे मन में जो काँटा चुभ रहा है, वह यह कि जो हिंदू घर में छिपकर बैठते रहे, आज शक्तिमान् होकर बाहर लड़ने आ रहे हैं। वे स्वयं ही इसलिए टकराते हैं कि वे हमारी शक्ति आजमाना चाहते हैं। यह संगठन का खेल है।'

मुसलमानों का मुसलमानों को प्रशस्तिपत्र

विपक्ष ही विपक्ष की प्रशंसा करे, ऐसा प्रशस्तिपत्र जिस तरह अनूठा होता है, उसी तरह मित्र मित्र की तथा गुरु अपने शिष्यों की निंदा करे-यह प्रमाणपत्र उतना ही विचारणीय तथा अनूठा है, इसमें कोई संदेह नहीं। यदि हिंदू मुसलमानों के संबंध में कुछ बोलें तो यह नहीं कि वह सत्य ही होगा, परंतु यदि मुसलमान मुसलमानों के संबंध में कुछ कहें तो कम-से-कम उसे मुसलमानों का हिमायती नहीं कहा जा सकता। इसलिए स्वयं हसन निजामी साहब ने अपने 'मुनादी' पत्र के १४ सितंबर के अंक में मुसलमानों को जो प्रशस्तिपत्र दिया है उसमें से कुछ परिच्छेद शुद्धि समाचार द्वारा दे रहे हैं।

हसन निजामी कहते हैं, 'आज हम मुसलमान आर्य समाज से जलते हैं और अखिल विश्व को मुसलमान बनाने की बात कहते हैं, परंतु वास्तविकता यह है कि-

१. हम मुसलमान नाममात्र के मुसलमान हैं।

२. अल्ला ने कहा है कि असत्य मत बोलो, परंतु वर्तमान कालीन मुसलमान सबसे अधिक मिथ्याभाषी हैं।

३. मद्यपान मत करो-यह धर्माज्ञा है, परंतु मुसलमान सरेआम मदिरा पान से धुत रहते हैं।

४. चोरी मत करो-यह धर्माज्ञा है, परंतु कारागृह में जाकर देखो, परले दरजे के चोर अधिकतर मुसलमान ही हैं।

५. धर्माज्ञा के अनुसार वेश्या व्यवसाय घृणित कार्य है, परंतु बाजार में जाकर देखो, वेश्याओं में अधिकतर दुकानें मुसलिम स्त्रियों की हैं। उनके ग्राहक वेश्यागामी लोगों में भी अधिक मुसलमान ही हैं।

६. आज सबसे अधिक आलसी, निठल्ले, गप्पी तथा शोहदे कोई हैं तो वे मुसलमान ही हैं।

७. हमारे पुरखों की कीर्ति कहाँ गई? आज समाज में यह कहावत ही प्रचलित हो गई है-कोई व्यक्ति ऐसा क्रूर है, ऐसा दुष्ट है, ऐसा पापी है जैसाकि मुसलमान। दर्गणों के हम उपमान जो बने हैं।

(यह हसन निजामी कह रहे हैं हम कभी मुसलमानों की इतनी प्रशंसा जी खोलकर नहीं करते।)

हसन निजामी को'दुर्रे उमर'का प्रमाणपत्र

हसन निजामी द्वारा मुसलमानों को दिया हुआ प्रमाणपत्र ऊपर है। अब मुसलमानों की 'दुर्रे उमर' नामक पत्रिका द्वारा हसन निजामी को दिया हुआ प्रशस्ति पत्र देखिए। 'दुर्रे उमर' अपने एक लेख को 'प्रथम दरजे का अश्लील' शीर्षक देत हुए उसमें कहता है-'हसन निजामी अव्वल दरजे का अशिष्ट है। वह अपने शिष्यों को आज्ञा देता है, 'सिजदा' करो। 'सिजदा' के समय शिष्यों को कहना पड़ता है कि 'हे हसन निजामी, एकोजन-इहलोक तथा परलोक के तुम ही सरदार हो। तुम्हारे सिवाय 'सिजदे' का अन्य कोई अधिकारी नहीं।' मोहम्मद अली तो हसन निजामी को खुल्लमखुल्ला 'घूसखोर! सरकार का खुफिया जासूस' कहकर उनकी प्रशंसा करते हैं।

कट्टरपंथी हिंदुओं द्वारा अछूतों को दिया हुआ प्रमाणपत्र

भडोच जिले के अंकलेश्वर गाँव में अछूतों की बस्ती में 'महारों' (एक अछूत जाति) को पानी का बहुत कष्ट था, परंतु उन्हें कोई सार्वजनिक पनघट पर नहीं जाने देता था। तब तंग आकर और मुसलमानों की फुसलाहट से प्रोत्साहित होकर उन महारों में से ३० महार मुसलमान बन गए। तुरंत दूसरे दिन कट्टर हिंदुओं ने उन महारों को मुसलमानी धर्म के 'सुंता' जैसे संस्कार से उनके शुद्ध होने के कारण उन्हें 'स्पृश्य' होने का प्रमाणपत्र दिया। इतना ही नहीं 'जैसी कथनी वैसी करनी' इस ऊँचे, कट्टर तत्त्वानुसार उन 'महारों' को, जो मुसलमान बनकर शुद्ध हो गए हैं, उसी सार्वजनिक पनघट पर उसी दिन से पानी भरने की अनुमति भी दी। जो महार अछूत पानी की तंगी से छटपटा रहे हैं, फिर भी मुसलमान नहीं हो रहे हैं, वे अशुद्ध ही हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि वे जल को छू नहीं सकते। जो मुसलमान बने, उन महारों को शुद्ध होने का लिखित प्रमाणपत्र देकर और उनके साथ पानी भरकर 'जैसी कथनी वैसी करनी' के तत्त्वानुसार उन्होंने आचरण किया। इसलिए ही हमारे पाठको, हमारा अनुरोध है कि हम सभी प्रतिदिन भोर होते ही उनकी चरण वंदना करें।

शुद्धि-समाचार देते-देते श्रद्धानंद' थकने लगा। फरवरी में एक हजार हिंदू परिवार अर्थात् तीन-चार हजार हिंदू मिशन ने शुद्ध किए। समारोह बारह घंटों तक चलता रहा।

स्वामी श्रद्धानंद ने लगभग ६०,००० मलकाना राजपूत मुसलमानों का शुद्धिकरण किया, तब एक मुसलमान ने पिस्तौल से उनकी हत्या की।

परंतु उपरिलिखित कलकत्ता के हिंदू मिशन के चालकों ने भी श्रद्धानंद के पश्चात् गत वर्ष में, विशेषत: बिहार स्थित गद्दी मुसलमानों में से लगभग १५,००० मुसलमानों का शुद्धिकरण किया और बंगाल में ५०,००० से अधिक लोगों पर शुद्धि कार्य किया। इस हिंदू मिशन के शुद्धि कार्य का आँकड़ा भी इसी तरह ६०,००० के ऊपर आने से उसके चालकों की भी आतंकवादियों द्वारा मारे जाने की योग्यता सिद्ध हो गई थी। उसे सार्थक बनाने के लिए पिछले महीने श्रीमान स्वामी परमानंदजी (प्रा. भाई परमानंद नहीं) को एक मुसलमान ने छुरा घोंपकर घायल किया है। यह मुसलमान ब्राह्मण वेश में उन गद्दी मुसलमानों में छिपकर बैठा था जिनका शुद्धिकरण हो रहा था। एक-दो वार करते ही वह पकड़ा गया, परंतु परमानंदजी श्रद्धानंद की तरह मारे नहीं गए, केवल घायल होकर बच गए।

यह बहुत बुरा हुआ। परमानंदजी पर श्रद्धानंदजी की तरह वार हुआ, यह इतनी बुरी बात नहीं है अपितु परमानंदजी श्रद्धानंद की तरह हत्या का शिकार न बनते हुए बच गए, यह बहुत बुरा हुआ।

क्योंकि जिस तरह श्रद्धानंदजी नहीं बचे, इसलिए शुद्धिकरण बच गया और उनके पीछे उनके न बचने से ही हिंदू मिशन ने ६०,००० मुसलमान-ईसाइयों का शुद्धिकरण करवाया, उसी तरह श्रीमान परमानंदजी के न बचने से और किन्हीं ६०,००० मुल्ला मिशनरियों का शुद्धिकरण करवाया होता, परंतु परमानंद के प्राण बचने से शुद्धिकरण को फिर एक बार जोरदार गति मिलने का अवसर हाथ से निकल गया।

परमानंद स्वामी के बाएँ हाथ में घाव हो गया है। चिंता नहीं। अभी दाहिना हाथ तो सही-सलामत है ही। जब तक उसपर घाव होने का अवसर नहीं आता तब तक दस-बीस हजार गद्दी मुसलमानों को वह हाथ शुद्ध करेगा ही।

२०,००० मुसलमानों के शुद्धिकरण के लिए एक हाथ! कुछ अधिक महँगा सौदा तो नहीं हुआ यह! इसी हिसाब से आज कोई भी असली हिंदू एक-एक हाथ प्रसन्नतापूर्वक बेच सकता है।

हाँ, यदि हाथ की शक्ति दिखाई जा सकती है तो बात अलग है, परंतु वह केवल कंधे से लटकते रहने की अपेक्षा उपरोक्त बाजार भाव से बेचा जाए तो उत्तम।

लाला लाजपतराय ने भरी विधानसभा में ठोंककर कहा, 'आज तक उन्होंने अकेले जितना धन तथा प्रयास 'दलित तथा अछूत' जाति की उन्नति के लिए व्यय किया है, उतना अंग्रेज सरकार ने पूरे सौ वर्षों में भी नहीं किया। उसी तरह अकेले बिरला सेठ भी प्रतिमास २०,००० रुपए अछूतों की उन्नति के लिए व्यय करते हैं, परंतु सरकार ने अस्पृश्योद्धारार्थ कभी २०,००० कौड़ियाँ भी प्रतिमास खर्च नहीं की।'

हमारा कहना है-चलो, नहीं की होगीं। अछूतों के लिए ब्रिटिशों ने कौड़ी का भी व्यय नहीं किया होगा, परंतु उससे भला सरकार पर कौन सा तथा कैसा आरोप लगता है? ब्रिटिश सरकार ऐसी सत्ता है जो कर इकट्ठा करती है। क्या वह कोई अहिल्या देवी है जो मार्ग पर जाते-जाते भिखारियों के लिए मुहरें उछालती जाए? अन्य लोगों की तरह ही अछूतों से अलग से कर ऐंठने के लिए ब्रिटिश सरकार कुछ नहीं करती, इतना ही काफी है। चाहे अछूतों के लिए हो या अन्य लोगों के लिए, कर-व्यय करने का काम सरकारी नहीं है। ब्रिटिशों का काम है ऐंठना, न कि उछालना।

सुना है कि बारदोली पुनः कर न देने का सत्याग्रह करनेवाला है। अच्छा है, कहीं चौरीचौरावासियों के कानों में कोई बीच में यह समाचार नहीं डाले अन्यथा उधर पुनः कोई गुप्त मार्ग खुल जाएगा। चौरीचौरा के गुप्त मार्ग से भाग जाने की बारदोली के सत्याग्रह की पुरातन ख्याति है।

२२ मार्च, १९२८

मसजिद गिराई-महाराज भरतपुर को गद्दी से उतारो

भरतपुर के महाराज पर राजसिंहासन से उतरने का अवसर आया था। वे बाल-बाल बच गए, परंतु उसके पूर्व हसन निजामी को स्वर्ग स्थित अल्लाजी के कुछ पत्र मिले। उनमें से निजामी ने एक पत्र अपने पत्र में प्रकाशित किया, 'महाराज पर यह संकट नहीं आता, परंतु उन्होंने अपने राज्य में (उनके मना करने के बाद भी) निर्मित एक मसजिद तोड़ डाली। इसलिए अल्ला का प्रकोप हुआ और उन्हें इस संकट का सामना करना पड़ा।' निजामी का प्रतिपादन सत्य है। सत्य ही अल्ला जाग्रत देवता है।

परंतु आजकल रुद्रजी भी निद्रित नहीं होते। ऐसा प्रतीत होता है, वे भी तनिक जग गए हैं, क्योंकि यह देखकर कि अल्लाजी गिराई गई मसजिद का प्रतिशोध लेने के लिए उत्तर में भरतपुर गए हैं, निजाम ने गुलबर्गा में हमारे मंदिर का जो अपमान किया था, उसका प्रतिशोध लेने रुद्रजी ने दक्षिण में हैदराबाद पर आक्रमण किया। निजाम की दाढ़ी खींचकर उसे तबतक झकझोरा जब तक वह अपने सिंहासन से गिर नहीं गया। हैदराबाद में उन्होंने प्लेग की आग फैलाई। अल्लाजी ईश्वर तो रुद्रजी महेश्वर!

हसन निजामी को एक स्वर्ग देवता के पत्र मिलने के अवसर पर ही इंग्लैंड के विगत महाराज एडवर्ड के जो भोले-भाले भारतीयों को 'ना विष्णुः पृथ्वीपतिः' इस वचन के आधार पर भूदेव प्रतीत होते हैं। कुछ पत्र सर सिडेन ली को उपलब्ध हो गए हैं। उन्हें पढ़कर कोई नास्तिक भी 'ना विष्णुः पृथ्वीपतिः' जैसे शास्त्र वचन पर अटल निष्ठा रखे बिना नहीं रहेंगे।

इस पत्र में से एक में 'कर्मवीर' प्रकाशित करता है कि लॉर्ड मॉर्ले ने मि. सिंह को जब वाइसराय की कार्यकारी समिति में नियुक्त करने की व्यवस्था की तब उस समय का राजा एडवर्ड का लिखा हुआ एक अंत:स्थ पत्र है। उसमें सन् १९०१ में एडवर्ड लिखते हैं-

'आप कहते हैं, महारानी विक्टोरिया ने भारतीय लोगों को यह वचन दिया, वह वचन दिया, परंतु इसके संबंधित मेरे विचार हैं कि-काले आदमी (Native) को विक्टोरिया रानी-अपने साम्राज्य के बिलकुल अंतरंग समिति में नियुक्त करने के आदेश पर कभी हस्ताक्षर नहीं करतीं। मुझे तो ऐसे विघातक कागज पर निरुपायवश हस्ताक्षर करने पड़ रहे हैं।'

राजभक्त के रूप में ख्याति प्राप्त भारतीयों को इन 'नेटिवों' का निषेध साम्राज्य की अंतरंग समिति में क्यों प्रवेश बंदी है-इस विषय का अधिक ऊहापोह एक-दूसरे पत्र में राजा एडवर्ड पर कारुणिक ढंग से करते हुए लिखते हैं-

'साम्राज्य के अंतरंग मंडल में किसी काले आदमी को लेना मुझे अत्यंत धोखादायक प्रतीत होता है। कार्यकारी समिति में ऐसी अनेक बातों की चर्चा करनी पड़ती है जो 'नेटिवों' के सामने करना अनिष्टकारक है।' बेचारा साइमन भी अधिक क्या कह रहा है?

राजा एडवर्ड लिखते हैं-'काला आदमी चाहे कितना भी चतुर हो, आपका कार्यकारी मंडल उसे कितना भी राजभक्त समझे, तथापि यह कैसे कहा जा सकता है कि वह कभी भी हमारे विरुद्ध नहीं जा सकता है। इस बात का दायित्व कौन ले सकता है कि समय आने पर वह हमारा भंडा नहीं फोड़ सकता? मैं निरुपायवश हस्ताक्षर करने पर भी अपना यह विरोधी अभिमत दर्ज करके रखना चाहता हूँ। मेरी इस राय में कदापि परिवर्तन नहीं हो सकता कि प्रसंगवशात् काला आदमी घातक हो सकता है।'

एडवर्ड महाराज ने यह भी लिखा है कि विक्टोरिया भी इसके विरुद्ध नहीं होतीं। इतना ही नहीं, मेरा पत्र (वर्तमान महाराज जॉर्ज) भी मुझसे सहमत है। जैसा बीज वैसा फल। उत्तम अथवा अमंगल।

काले आदमियों में से एक चतुर मनुष्य को भी चाहे वह लाख राजभक्त हो, सरकार द्वारा नियुक्ति के बाद भी केवल वाइसराय की कार्यकारी समिति में लेने योग्य विश्वास भी उन लोगों पर रखने में परम करुणानिधि महाराज एडवर्ड सिद्ध नहीं थे। इतना ही नहीं, वे एक अन्य पत्र में लिखते हैं-

'मुझे यह पढ़कर विस्मय हुआ कि भारत-मंत्री के साथ हो रहा पत्र व्यवहार काले लोगों को दिखाया जाता है। इतना ही नहीं, आपके गुप्त कागजात की प्रतियाँ 'नेटिव' ही करते हैं। यह पद्धति बहुत भयानक है। मुझे तो वह बहुत ही आपत्तिजनक प्रतीत होती है।'

कार्यकारी समिति में एक अधिकारी के रूप में नियुक्त किया जानेवाला 'नेटिव' अयोग्य है। इतना ही नहीं, केवल कागजात की प्रतियाँ बनाने के मुंशी के पद के लिए भी उसके काले-कलूटे पैरों का स्पर्श होना हितकारी नहीं है।

तथापि परम दयालु एडवर्ड महाराज ने अंत में वाइसराय की कार्यकारी समिति में एक 'नेटिव' नियुक्त किया। अहा! प्रजा से कितना प्रेम!

परंतु दुःख की बात यह है कि इस प्रजा वत्सल पुरुष की यह मनीषा अधूरी ही रह गई कि एक बार आपने 'नेटिवों' का चंचु प्रवेश कराया। उसका मुसलप्रवेश होने से पहले ही नेटिवों को दिया हुआ अधिकार वापस लेने के साहस का प्रदर्शन करने के लिए उसी तरह का कोई साहसी व्यक्ति चाहिए।

ऐसे ही एक बहादुर, साहसी व्यक्ति की तलाश महाराज एडवर्ड को थी, वही व्यक्ति साइमन तो नहीं होगा?

ऐसे ईश्वराधीन राजतंत्र में, सामान्य सृष्टि में भी उलट-पुलट बातें ही होंगी। अब देखिए, बिहार में एक बकरी ने मनुष्य जैसे प्राणी को जन्म दिया। ठीक ही है। वह यदि मनुष्य प्राणी आज हिंदुस्थान में बकरी जैसे प्राणी को धड़ाधड़ जन्म दे रहे हैं तो बकरी मनुष्य जैसे प्राणी को जन्म दे-इसमें आश्चर्य कैसा?।

यदि रूस में कोई बकरी मनुष्य को जन्म देती तो आश्चर्य था, क्योंकि वहाँ नर-नारियाँ बकरियों को जन्म नहीं देते, इस सत्य का समर्थन वेलफर्ड बेकांक द्वारा चित्रित चित्र से ही होगा। वे कहते हैं-

'मैंने रूस में प्रवेश किया, तब मुझे बताया गया कि जब ब्रिटेन ने रूस से संबंध विच्छेद किया, तब संपूर्ण रूस में रणोत्साह चरम सीमा तक पहुँच गया। यह सिद्ध करने के लिए कि मातृभूमि पर विदेशी आक्रमण संभव है-हर व्यक्ति आगे बढ़ा है। इतना ही नहीं, केवल लड़के ही नहीं, लड़कियाँ भी सेना प्रशिक्षण लेने लगी हैं। श्रमजीवी (Labourers) लोगों के स्कूलों में भी लड़कियों के सेना दलों का संगठन किया गया। अनेक कोमल अल्प वयस्क बालक, जिनकी आयु अनिवार्य सैनिक प्रशिक्षण ग्रहण करने योग्य न होते हुए भी स्वेच्छापूर्वक हठ करने लगे कि उनकी सेना का भी संगठन किया जाए। महायुद्ध के दिन छोड़कर मैंने रूस में इतना जोशीला रणोत्साह कभी नहीं देखा था जितना आज देख रहा हूँ। विशेषतः ४ सितंबर को मैंने जो दृश्य देखा, उसने मेरे मन पर गहरी छाप छोड़ी। वह युवा संघ के प्रदर्शन का दिवस था। लगभग पाँच लाख युवा लड़कों के सैनिक दल मास्को के लाल चौक में उस दिन मानो धावा बोल गए। शताधिक प्रकार से उन युवा संघों ने रूस की सशस्त्र रक्षा करने का अपना दृढ़ संकल्प व्यक्त किया। उस दिन का उनका उत्साह तथा निश्चय अपूर्व था। सत्य ही वह युवाओं का सांघिक प्रदर्शन ऐसा था कि किसी भी ऐसे राष्ट्र पर दया आ जाती जो रूस पर आक्रमण करने का इरादा रखता है, क्योंकि विश्व के किसी भी राष्ट्र की धनवान सत्ता इस प्रकार की युवा सेना के विरुद्ध युद्ध योग्य सेना भेजने का साहस नहीं कर सकती। इन सभी रूसी युवकों के क्रोध का प्रमुख लक्ष्य था-इंग्लैंड। ऑस्टिन चेंबरलेन के पुट्ठे के पुतले जगह-जगह पर अपमानित किए जा रहे थे। उस युवक को प्रथम पुरस्कार दिया जाता जो उस प्रतिमा को अचूक निशाना बनाए।'

ऐसे सशस्त्र प्रदर्शन कर रहे नर-बाघ दंतनखयुक्त युवा संघ के देश में बकरियों की मनुष्य को जन्म देने की क्या मजाल है?

इन दंतनखयुक्त क्रुद्ध युवा संघ के सशस्त्र प्रदर्शन को देखकर विल्फर्ड विलॉक के शरीर पर इस भावना से कि विश्व में और भी भयानक रक्त रंजित युद्ध होनेवाले हैं, रोंगटे खड़े रहे। अत: वे कहते हैं, परंतु इस तरह रोंगटे खड़े करवाने के लिए वे उस 'तामसी' रूस में गए ही क्यों? युवा संघ के सशस्त्र प्रदर्शन देखकर उनके शरीर पर रोंगटे खड़े हो गए, उसी तरह इस सात्त्विक हिंदुस्थान में यदि वे आते तो हमारे युवा संघ की प्रसन्न हँसती-खेलती परिषदें देखकर उन्हें गुदगुदी होने लगती। 'सात्त्विक युद्ध कैसे करें' का पाठ विश्व को पढ़ाने के लिए परसों हिंदुस्थान साइमन कमीशन के आते ही युवा परिषदों ने नौकाओं में बैठकर मात्र रूमाल हवा में लहराकर उनके मार्ग में बाधा डाली और उनसे कहा, 'जाओ! वापस लौट जाओ! हमें आपकी आवश्यकता नहीं है।' इतना ही नहीं अपितु एक तामसी सार्जेंट ने उनपर लाठी चलाई। फिर भी उन्होंने अपना सत्व जरा भी विचलित नहीं होने दिया और निर्भयतापूर्वक कोर्ट में अभियोग लगाया। इन छात्रों ने यह थोड़ा सा क्यों न हो, तामसी प्रवृत्ति का प्रदर्शन किया? परंतु शेष हजारों छात्र तो केवल चाय नाश्ता तथा सिगार के कश लगाते अपने देश के मुख पर निर्मल सत्व-गुणों की सफेदी पोतकर उज्ज्वल कर रहे थे।

मद्रास में अवश्य थोड़ी सी दंडा-दंडी, पत्थरफेंक आदि तामसी घटनाएँ घटीं। वैसे भी मद्रासी लोग मिरची बहुत खाते हैं।

ऐसे इक्के-दुक्के अपवादों को छोड़कर शेष सब दंतनखविहीन सात्त्विक कढ़ी-भात! तभी तो इस देश में बकरियाँ मनुष्य को जन्म देती हैं!

मार्च, १९२८

शुद्धि के नाम पर गोमंतक में राजनीतिक आंदोलन-टाइम्स की खोज

'बंबई टाइम्स' ने एक अद्भुत खोज की है कि गोमंतक में जो शुद्धिकार्य जारी हैं उसकी आड़ में राजनीतिक आंदोलनकारी महान् उथल-पुथल मचाने की चेष्टा कर रहे हैं। वह कहता है, 'ब्रिटिश हिंदुस्थान के महाराष्ट्रीय उग्रदलीय पोर्तगीज हिंदुस्थान के युवा उग्रदलियों से साँठ-गाँठ कर रहे हैं कि गोवा महाराष्ट्र से जोड़कर इस अखंड महाराष्ट्र को लेकर एक स्वतंत्र एवं बलशाली राज्य की स्थापना करें। ईश्वर करे और अंधे के हाथ बटेर लग जाए।'

जिस तरह 'टाइम्स' ने उधर महाराष्ट्र में यह अचूक खोज की, उसी तरह कलकत्ता में पोलैंड के एक गोरे ज्योतिषी ने इससे भी अधिक अद्भुत खोज की थी। उस ज्योतिषी ने कहा, 'मैंने बारह बरस हिंदुस्थान में ज्योतिषादिक अध्ययन में व्यतीत किए और मेरा भविष्य-कथन अचूक होता है। आनेवाली २२ मार्च को एक बड़ा भूचाल आएगा और सारा हिंदुस्थान उसमें 'स्वाहा' होनेवाला है।' इस भयानक 'गड़गड़ाहट' में साइमन कमीशन के साथ ही हिंदुस्थान भी स्वाहा होनेवाला है या वह अकेला-इस बात को स्पष्ट नहीं किया गया था।

मारवाड़ी बाजार में इस भविष्य ने हड़कंप मचाया। कई लोग चिंता में डूब गए हैं। हाँ, वे आंदोलनकारी जो अंग्रेजी शासन के-हम करें सो कायदा-से ऊब चुके थे, हर्ष-विभोर हो गए। क्योंकि उस अंधेर नगरी से मुक्ति पाने के लिए अनत्याचारी अहिंसा से भी यह सुलभतर एवं उत्कृष्टतर मार्ग था। हम इतने सारे अनत्याचारी, अहिंसक प्राणी होने के कारण मार्च की २२ तारीख की प्रतीक्षा भारतीय स्वाधीनता के दिन जैसा सुवर्ण-दिवस मानकर करते रहे। इतने भूचाल में-जिसमें पूरा हिंदुस्थान स्वाहा होगा-उसे यदि ढक्कन नहीं लगाया तो अपना पूरा-का-पूरा मसिपात्र ही लुढ़क जाएगा-यह बात हर्षोन्माद के जोश में भूल ही गया। हमारे पड़ोस की पान-बीड़ी के दुकानदार ने मन्नत माँगी थी कि 'हे प्रभु, भूचाल मत आने देना। एक मट्ठी भर चावल उस ज्योतिषी को दान करूँगा।'

मार्च की २३ तारीख आ गई। न हिंदुस्थान स्वाहा हुआ न ही अंग्रेजी राज। इतना ही नहीं, हमारा मसिपात्र भी औंधे मुँह नहीं गिरा।

उस पान-बीड़ीवाले ने कहा, 'बहुत बड़ा अनिष्ट टल गया, पर समाचार मिला है कि उस भविष्यवक्ता गोरे को हर कोई सता रहा है-तुम्हारी भविष्यवाणी मिथ्या सिद्ध हो गई। तब उस पान-बीड़ीवाले ने उस ज्योतिषी महाशय को तुरंत सूचित किया कि उसने मुट्ठी भर चावल अर्पण करने की मन्नत माँगी थी।'

अब उस ज्योतिषी महाशय को भयभीत होने की आवश्यकता नहीं। वह दावे के साथ कह सकता है. 'भविष्य कथन गलत नहीं था। भूचाल होने से हिंदुस्थान का नामोनिशान तक मिट जाता, परंतु गणित ज्योतिष के साथ फलज्योतिष का जो एका है, उसके प्रताप से इस पान-बीड़ीवाले ने मुट्ठी भर चावल का जो दान दिया, उससे वह भूचाल टल गया, अन्यथा उसका होना अटल था। ज्योतिष गणित भी सही सिद्ध हो गया। फल-ज्योतिष के भी सत्य सिद्ध होने से भविष्यवादियों को पेट के लिए चावल का प्रबंध भी अखंड रह गया।'

यह तो हुआ, पर भविष्य? इससे संबंधित चर्चा अब इस संबंध की ओर मुड़ेगी कि भविष्य कैसा हो?

विलायत के 'स्पेक्टेटर' नामक एक समाचारपत्र में भारत की सभी आपत्तियों को माफ करनेवाला भविष्य काल किस तरह लाया जा सकता है, इसके संबंध में चर्चा करके उसके लिए एक उत्तम उपाय के रूप में मुसलमानों ने सुझाव दिया है, 'हिंदुस्थान का संपूर्ण राज्य दिल्ली के मुगल सम्राट के किसी वंशज को सौंपा जाए जिससे कि वह ब्रिटिश शासन की अधीनता में हिंदुस्थान की बादशाही सुचारु रूप से चलाएगा। यदि ऐसा हो गया तो उत्तराधिकार की एक अभूतपूर्व विजय होगी। 'लॉ रिपोर्टर' का एक विशेष संस्करण निकालना होगा।

मुगल बादशाह के किसी वंशज को भारतीय राज्य सौंपने की हमारे मुसलिम बंधु की सूचना को महाराष्ट्र की ओर से हमारा पूरा समर्थन है, क्योंकि उत्तराधिकार की इस विजय से प्राचीन मुगल बादशाही के वंशज के पास हिंदुस्थान की बादशाही आते ही प्राचीन पेशवा के उत्तराधिकारियों के पास चौथाई या सरदेशमुखी उत्तराधिकार भी महाराष्ट्र की ओर सहज आ जाएगा और उसे वसूल करते-करते महादजी शिंदे का कोई वंशज उस मुगल बादशाह को पेंशन देकर संपूर्ण बादशाही अपनी जेब में मात्र उत्तराधिकार द्वारा डाल सकेगा।

हिंदू सभा की ओर से इस सूचना को समर्थन अवश्य प्राप्त होना चाहिए, क्योंकि अब मुसलमानों को शुद्ध करके हिंदू बनाना सुलभ होने से मुगलों के उस 'किसी' वंशज को बादशाही प्राप्त होते ही उसे हिंदू बनाना संभव होगा। हिंदू सभा के प्रधान कार्यवाहक पं. नेकीराम दिल्ली में ही बादशाही महल के निकट रहते हैं।

अंग्रेजों को एक बार इस मुगल बादशाह का कोई वंशज स्वीकार है, परंतु क्रांतिकारियों के वंशज का नाम भी सुनना अप्रिय प्रतीत होता है, क्योंकि मुसलमानों की उपर्युक्त सूचना पर किसी भी अंग्रेजी पत्र-पत्रिका को क्रोध नहीं आया, परंतु आजकल पिछले एक वर्ष में ही जिन क्रांतिकारियों ने पाँच-छह बार जो उत्पात किए और उनके षड्यंत्र के अभियोग देवघर आदि स्थानों पर अभी तक जारी हैं, उनके समाचार सुनकर समाचारपत्र लाल-पीले हो रहे हैं। पंजाबवासी श्रीमती पार्वती देवी का एक युवा पुत्र भी इस षड्यंत्र में मिलने का समाचार है। ब्रिटिश लोगों को इसका स्पष्टीकरण देने का कार्य कि इतने उच्च कुलीन हिंदुओं के दिमाग में इस पागलपन का संचार कैसे हुआ-ए.जी. बुलेकाट नामक एक अंग्रेज लेखक ने किया है। 'भारतीय देशभक्त' शीर्षक से इन बुलेकाट साहब ने पिछले एक-डेढ़ वर्ष में बहुत सारे क्रांतिकारियों की जानकारी प्रकाशित की है। उसमें काकोरी के क्रांतिकारियों के षड्यंत्र का वर्णन विस्तारपूर्वक दिया गया है। उसका प्रत्येक शब्द क्रोध की लाल स्याही में रँगा हुआ है।

इन 'भारतीय देशभक्तों' को, जो स्वदेश-स्वतंत्रता के लिए प्राणों की भी बलि चढ़ाते हैं, बुलेकाट साहब ने जो दस गालियाँ दी हैं, उनके स्थान पर दस हजार गालियों की फटकार भी सुनाई होती तो भी इन 'भारतीय देशभक्तों' की कहानी जैसे-तैसे उन्होंने यूरोप के, कम-से-कम इंग्लैंड के कानों तक पहुँचाई। इसके लिए हम बुलेकाट साहब का मनःपूर्वक अभिनंदन करते हैं। हिंदुस्थान के उपर्युक्त एक हजार सस्ते My Lord वाले व्याख्यानों से जैसे अंग्रेजों के कान खड़े नहीं होते, वैसे केवल इस कहानी से होते हैं। हिंदुस्थान निर्धन है, हम भूखे मर रहे हैं आदि 'आँसू भरी' कहानियाँ जिनसे आँखें भर आती हैं और 'आँखें दिखानेवाली' इन दोनों स्वरूपों से अंग्रेजों को परिचित कराया-इसके लिए बुलेकाट साहब को कोई सत्यप्रिय व्यक्ति धन्यवाद ही देगा। उससे भारतीय राजनीति के दोनों पहलुओं से अंग्रेज परिचित होंगे।

उनमें यही अंतर होता है। इन 'आँखें दिखानेवाले' देशभक्तों की इस प्रकार की बलवती कहानियाँ अपने आप को ही वर्णन करते हुए शिष्ट लज्जाशीलतावश हम भारतीय लोगों को विचित्र सा प्रतीत होता है। हाँ, यदि अन्य कोई कहे तो चोरी-चोरी सुन सकते हैं। साइमन कमीशन पर अविश्वास का आरोप जब वरिष्ठ विधान मंडल (लेजिस्लेटिव असेंबली) में लगाया गया। तब उस उत्तेजना में 'हिंदुस्थान टाइम्स' के संवाददाता की लिखने की पेटी ऊपर के छत से धड़ाम नीचे गिर गई। बुलेकाट को इसका सदमा पहँचकर मूर्च्छना की भावना आ गई। परंतु जैसे-तैसे वे ठीक हो गए। बहुत बुरा हुआ।

यह अच्छा हुआ कि उस पत्रकार पर अभियोग चलाया गया। तब उसने बिना कुछ छिपाए, जो भी सत्य था वही कह दिया कि 'सर बेसिल बुलेकाट साहब' के भारतीय विरोधी भाषण से मैं इतना उत्तेजित हो गया कि 'मुझे इस बात का जरा भी होश नहीं रहा कि अपने हाथ का सामान मैं कहाँ और कैसे रख रहा हूँ।' उस अवस्था में उसने एक खाली स्थान पर ही वह पेटी रखी, परंतु वह खाली स्थान होश में था। उसने अपने स्वभाव के अनुसार उस पेटी को वैसे ही नीचे गिरने दिया।

सुना है, उस पत्रकार को दंड अथवा कारावास का छोटा सा दंड मिल चुका है। अच्छा ही होता उसे थोड़ा अधिक दंड मिलता, क्योंकि कागजों के उस बक्से के स्थान पर यदि उसके हाथ में दूसरी-तीसरी वस्तु होती तो कैसा हाहाकार मचता!

बेहोश हुआ तो क्या हुआ-अंग्रेजों के सर की हड्डी भी किसी भारतीय मनुष्य की तरह ही मानवी होती है, जिसे पेटी से भी आघात पहुँचे। और क्या उसे इतना भान न रहे कि अंग्रेज भी मूर्च्छित हो सकते हैं?

१९ अप्रैल, १९२८

तुर्की कन्याओं को अमेरिकी स्कूल में मत भेजो

अपने देश के अमेरिकी स्कूलों में तुर्की लड़कियों को भरती किया जाता है-यह देखकर तुर्की सरकार ने ब्रुसा स्थित अमेरिकी स्कूल बंद कर दिया। तुर्की सरकार ने आदेश निकाला है कि तुर्क अपनी बेटियों को तुर्की स्कूल में ही भरती करें। इससे स्पष्ट है कि कमाल पाशा स्वयं कुरान पर विश्वास नहीं करते तथापि तुर्की लड़कियाँ ईसाई न बनें, इसलिए वे सरकारी कड़ाई का भी प्रयोग करते हैं। क्योंकि कमाल पाशा के अनुसार इस तरह की भावना होना केवल धार्मिक स्वतंत्रता का ही प्रश्न नहीं है, उसमें संस्कृति, राष्ट्रीय एकता तथा राष्ट्रीय संख्या बल का प्रश्न है। कितना बावला है बेटा! कितना अच्छा होगा, हमारे यहाँ के कुछ वाचाल पंडित जो 'शिव शिव न हिंदुर्न यवनः' कहते हैं, कमाल पाशा को इस तरह का अनत्याचारी उपदेश देते कि 'क्या तुर्की, क्या ईसाई! तुर्कस्तान की राष्ट्रीय एकात्मता के लिए, दे दीजिए न ईसाइयों को तुर्की बेटियाँ।'

इसीलिए श्रद्धानंद के एक अंक में हमने लिखा था कि कमाल पाशा ने यदि हिंदुस्थान पर अधिकार किया, तो भी वह मोहम्मद अली होगा ही नहीं, यह हम कह नहीं सकते, क्योंकि यद्यपि मुसलमानियत को धर्म के रूप में उसने स्वीकार नहीं किया है तथापि तुर्की संस्कृति पर तो वह अवश्य श्रद्धा रखता ही होगा। ईसाइयों के इन तरुण तुर्कों ने ही अर्मेनिया में जो कत्लेआम किया, वह इसलिए नहीं कि कुरान, बाइबिल के ईश्वर विषयक तत्त्वज्ञान में, धर्म में भेद है अपितु इसलिए कि ईसाई संस्कृति तथा तुर्की संस्कृति-इन दोनों की जाति, नीति, राष्ट्रीयता में अंतर है। इसलिए ही शुद्धि हिंदुत्व का आंदोलन है, न कि मात्र धार्मिक अर्थात् दर्शन विषयक वितंडा। तुर्की राष्ट्रीय पक्ष कुरान को ईश कथित नहीं मानते हुए भी ईसाई शालाएँ तुर्की कन्याओं को धर्मभ्रष्ट न करें, उनके स्कूल को कठोरता से बंद करता है, उसी कारण हिंदू कन्याएँ धर्मभ्रष्ट न हों, इसलिए हिंदू संगठन संघर्षरत हैं। जो लोग यह कहते हैं कि शुद्धि का अर्थ हमें समझ में नहीं आता, वे उसकी समझ कमाल पाशा से प्राप्त करें।

परम करुणानिधि हिंदुस्थान सरकार ने चित्रकला का विशेष ज्ञान ग्रहण करने के लिए कछ भारतीय चित्रकारों को छात्रवृत्ति देकर यूरोप भजन का योजना बनाई है। लो, अब हिंदुस्थान के भाग्योदय में विलंब नहीं रहा, क्योंकि हिंदुस्थान की जो अत्यंत दुर्बल दास्यग्रस्त अवस्था हो गई है, वह इसलिए कि उस बेचारे को चित्रकला का 'विशेष ज्ञान' नहीं था।

शेष सारा विज्ञान उसके लिए बाएँ हाथ का खेल ही हो गया है। मशीनगंस, हवाई जहाज पटुता, संचालन, विध्वंसिका, पनडुब्बियाँ, सैनिकी कुशलता, विषैला धुआँ, वह रसायन विज्ञान जो इस विषैले धुएँ का प्रतिकार करता है आदि एक प्रबल राष्ट्र के लिए अत्यावश्यक कलाओं का प्रशिक्षण देने हजारों छात्रों को आज तक हिंदुस्थान सरकार ने विदेश भेजकर उनकी हिंदुस्थान वापसी पर उनके बड़े-बड़े सबल दल हिंदुस्थान की सुरक्षार्थ तैयार करके रखे ही हैं। शेष रही चित्रकला। अतः उसके अध्ययनार्थ विदेश में छात्र भेजे जा रहे हैं। एक बार उन्हें वापस लौटने भर की देरी है, फिर उन रूसी लोगों तथा अफगानों की क्या मजाल है हिंदुस्थान पर आक्रमण करने की! न केवल ये लोग वरन् अंग्रेजों की पलटन भी दुम दबाकर भाग जाएगी। महाशय, बस एक बार चित्रकला में हिंदुस्थान निपुण हो जाए!

एक मुसलमान ने, जिसका नाम सिद्दीक था, प्रथम यह कहकर कि वह हिंदुओं के जैन पंथ के संस्थापक श्रीमान चन्न बसवेश्वर का अनुयायी है, अब उन्हीं श्री बसवेश्वर के नाम पर हिंदुओं को-मुसलमान धर्म ही अत्युत्तम धर्म है-कहते हुए-दीक्षा देना आरंभ किया है। आगा खान भी कलंकी के अवतार के नाम पर ही हिंदुओं को मुसलमानी धर्म की दीक्षा देते हैं। वह ठीक ही है क्योंकि-

ख्रिस्ती पुराण में इस तरह एक अनुश्रुति है कि शैतान प्रथम अपने ही नाम से लोगों को शैतानी पंथ का उपदेश देने लगा, परंतु आस्तिक लोग यह सुनते ही कि वह शैतान के विचार हैं, उन्हें सुनने के लिए तैयार नहीं होते थे। यह देखकर चिंतित अवस्था में शैतान विचारमग्न हो गया तथा आस्तिकों को सहजतापूर्वक अपने जाल में फाँसने के लिए उसे एक युक्ति सूझी। तब-

The Devil said with wink and nod,

The wisest way to work my will,

Is to call it the will of God!

शैतान ने आँखें झपकाते हुए तथा सिर हिलाकर कहा, 'उत्तम युक्ति सूझी। मेरी शैतानी इच्छा लोगों से पूर्ण करवाने का उत्तम मार्ग यह है कि उस शैतानी इच्छा को ईश्वरेच्छा के नाम से प्रसिद्ध किया जाए। ईश्वर का नाम सामने आते ही भोले-भाले लोग शैतान की भी पूजा करेंगे।'

सुना है, इसी युक्ति का अवलंबन करते हुए बंबई, ठाणे आदि जिलों में कुछ षड्यंत्रकारी कुटिल हसन निजामीवाले हिंदू अवधूतों के वेश में संचार कर रहे हैं और जनता को आकर्षित कर रहे हैं। सीता को भी इस सत्य का आकलन नहीं हुआ था कि स्वर्णमृग में मारीच छिपा है, फिर जनता की क्या बात! जहाँ लक्ष्मण की चेतावनी अकारथ गई, वहाँ भला हम कैसी चेतावनी दें, फिर भी हम कहते हैं-यदि यह सत्य है तो सावधान! ब्राह्मण वेश में आकर एक मुसलमान ने पिछले ही महीने में हिंदू संगठक स्वामी परमानंद के सीने में बिहार में छुरा घोंप दिया था। इस घटना को हिंदू विस्मृत न करें। सिक्का परख-लें-कम-से-कम 'बद्द' स्वर निकलते ही उसे दूर फेंक दें।

हिंदुओं को यह चेतावनी दी। इसलिए लगे हाथ मुसलमान बंधुओं को भी एक चेतावनी देना अनिवार्य है, अन्यथा हिंदू-मुसलमानों से समान व्यवहार न करने के कारण 'राष्ट्रीयता' का कोपभाजन बनना होगा कि आप एकात्मता को भंग कर रहे हैं। अतः मुसलमानों के लिए यह चेतावनी है कि-

पिछले महीने में ही मथुरा में एक धर्मनिष्ठ मुसलमान ने एक हिंदू महिला को अपने घर में रख लिया। यह कोई नई बात नहीं है, यह तो आए दिन की घटना है। नई घटना यह है कि इस कृत्य से हिंदुओं के तलुवों में आग लग गई। इससे भी नवीनतम घटना यह है कि उन नष्ट हिंदुओं ने संगठित होकर बड़ा फसाद खड़ा किया और उससे भी नवीनतम आश्चर्यजनक घटना यह है कि हिंदू मुसलमानों के इस दंगे में हिंदू नहीं मरे, सारे-के-सारे मुसलमान मर गए। एक बेचारा मुसलमान मारा गया और बेचारे बीस मुसलमान घायल हो गए। अब दंगे के पश्चात् पुलिस ने अच्छा-खासा बंदोबस्त कर रखा है। लाठी के साथ घूमने-फिरने पर पाबंदी लगाकर पकड़-धकड़ करके अभियोग चलाए हैं।

परंतु अब वह सारा कुछ अच्छा-खासा हो रहा है तथापि मुसलमान बंधुओं को एक बात का विस्मरण नहीं होना चाहिए कि हिंदुओं की कोई साधारण अबला भी अब इतनी सस्ती चीज नहीं रही, जैसे पहले थी। मथुरा का ७ मार्च का दंगा-फसाद मुसलमानों को यही चेतावनी दे रहा है कि इसके बाद भी तुम्हें किसी हिंदू स्त्री को चलते-फिरते पकड़कर घर में ले जाने की इच्छा हो ही गई हो तो अपने किसी एक का सिर तथा बीसियों के भयंकर घाव एक रूमाल में लपेटकर फिर उस पूँजी के साथ सौदा करने निकलें, क्योंकि लगता है, आजकल दिन-ब-दिन हिंदू पदार्थों के बाजार-भाव बढ़ते-बढ़ते आकाश को छू रहे हैं।

२६ अप्रैल, १९२८

निजाम के समर्थक मुसलमान

पुणे में हैदराबाद के अत्याचारी और हिंदू-विद्वेषी राज्य पद्धति के विरुद्ध जो परिषद् आयोजित की गई थी, उसके निषेधार्थ एवं निजाम के समर्थनार्थ पुणे में मुसलमानों की सभा आयोजित होना स्वाभाविक ही था। नौकरियों की तरह सभा में स्वतंत्र तथा विरोधी प्रतिनिधित्व होना ही चाहिए। उस सभा में मुसलमानों ने ठोंक-बजाकर पूछा है कि जिस तरह निजाम ने कभी-कभी हिंद दीवान नियुक्त किए थे, उसी तरह किसी हिंदू राजा ने कभी मुसलमान दीवान नियुक्त किए थे? दिखाइए।

उनकी इस चुनौती से यह संदेह होता है कि मैसूर के महाराज ने कुछ दिन पहले जिस मुसलमान दीवान की नियुक्ति की थी, वह हिंदू तो नहीं हो गया? शुद्धि के युग में भई इस बात का कोई भरोसा ही नहीं रहा कि कब कौन मुसलमान हिंदू बन जाएगा।

सभा में मुसलमानों ने एक ऐसा भी प्रस्ताव रखा कि 'ब्रिटिश सरकार और निजाम इन दोनों में जो अविरत स्नेह संबंध जुड़ा हुआ है वह हिंदुओं के इस प्रकार के दुष्ट आक्रोश से सहमकर कहीं बिगड़ न जाए।' हमारी भी यही प्रार्थना है। जिस 'सतत एवं अखंड स्नेह-संबंध तथा सुकोमल प्रेम भावना से प्रेरित होकर निजाम ने ब्रिटिशों के पास बेझिझक की माँग की, जैसे अपने मित्र की कोई भी वस्तु अपनी ही समझकर हम उसकी निस्संकोच माँग करते हैं, ब्रिटिश सरकार ने भी मित्र-ही मित्र को जिस तरह प्रेम से जाओ, मैं नहीं देता' इस तरह कभी-कभी निस्संकोचपूर्वक हँसते-हँसते कहता है, उसी तरह दाँत निकालते हुए कहा, 'जाओ, नहीं देते।' इतना ही नहीं अपितु अत्यंत प्रिय मित्र की तरह निजाम के स्वतंत्र अस्तित्व की भावना के प्राणों से चिपकते हए अपना पंजा जो चौबीस घंटों के अंदर-अंदर उत्तर की माँग करता है, उसके कंठ से भिड़ाया-इस प्रकार का स्नेह-संबंध ब्रिटिश तथा निजाम के बीच निरंतर रहे-यही हमारी कामना है। इस प्रकार का लोभ पहले से अधिक थोड़ा बढ़ जाए तो हमें स्वीकार है। निजाम और अंग्रेजों में स्थित स्नेह-संबंध की चरम सीमा होकर कर्जन ने जिस तरह उन दो जीवों को एक कर दिया, उसी तरह हैदराबाद में भी हो और हमारे इस स्नेह-संबंध के लिए लालायित पुणे के मुसलमानों के मुँह में घी-शक्कर पड़े।

मुसलमानों के 'मुबालिक अखबार' के एक दिसंबर के अंक में लिखा है, 'मोहम्मद फारूख साहब' नामक महान् सज्जन, जो 'उमल-ए-इसलाम' पत्र के संपादक थे, ने पंजाब गवर्नर को यह तार देकर मुसलमानों की एक महत्त्वपूर्ण माँग आगे बढ़ाई है, 'जबकि मुसलमानों के धर्म का रुख मूर्तिपूजा के विरुद्ध है और हिंदुओं की मूर्तियों के जुलूस देखते ही उनका उद्वेलित होना स्वाभाविक है, इसलिए सरकार को चाहिए कि वह हिंदुओं की मूर्तियों के जुलूस मुसलमानों की मसजिद के निकट से ही नहीं, दुकान के सामने से भी नहीं जाने दे। सरकार न्यायप्रिय है और हमें आशा है कि इससे पहले कि मुसलमानों का क्षोभ भड़क उठे, वह उनकी मांग पूरी कर उन्हें संतुष्ट करेगी।

(अर्जुन)

उपरि निर्दिष्ट 'माँग करने का साहस जुटाया' इसलिए 'एडिटर साहब' मोहम्मद फारूख का मैं आभारी हूँ। मुसलमानी समाचारपत्रों की गतिविधियों का समाचार हमें कितना कम मिलता है, इसका यह उदाहरण है कि इस मुसलमानी समाचारपत्र के दिसंबर के अंक में क्या लिखा है, इसका पता हमें आज छह महीनों के पश्चात् लग रहा है। हिंदू मूर्तिपूजा तथा मूर्तियों के जुलूस मुसलमानों के सामने निकट अथवा आसपास न करें, क्योंकि मूर्तिपूजा मुसलमानी धर्म के विरुद्ध है। मुसलमानों ने हिंदुओं पर सत्य ही बड़ा उपकार किया कि उन्होंने अपनी माँग कई बार स्पष्ट की।

सत्य ही यह हिंदुओं पर उपकार है, क्योंकि जब मुसलमानों ने कहा कि मुसलमान होने के कारण ही हमारे धर्म का खलीफा तुर्क से नहीं लड़ेगा और जब हिंदुओं ने भी उनकी इस युक्ति को उस धार्मिक कारण के लिए पुष्टि दी, तभी यह तत्त्व सिद्ध हुआ कि मुसलमानों की धार्मिक धारणाएँ हिंदुओं के लिए भी बंधनकारी हैं। खलीफा से नहीं लड़ेंगे, क्योंकि वह मुसलमान धर्म का विरोधी है, अपने मसजिदों के सामने वाद्य बजाने नहीं देंगे, क्योंकि वह मुसलमान धर्म के विरुद्ध है, मसजिद के सामने ही क्यों घर के आसपास भी शंख, घंटा नहीं बजाने देंगे, क्योंकि वह मुसलमान धर्म के विरुद्ध है, इस तरह की विचार परंपरा जिस मूल तत्त्व की उपजाऊ कोख से अपने आप पैदा हो गई, उस विचार परंपरा का आदर करते हुए हम मसजिद के सामने वाद्य बंद करेंगे। ऐसा हिंदू-मुसलमानों की एकता के समर्थकों के कहते ही उसकी अगली सीढ़ी पर आरूढ़ होकर मूर्तिपूजा बंद करो, क्योंकि वह भी मुसलिम धर्म विरोधी है, इस तरह की माँग करने में मुसलमान कभी नहीं चूकेंगे। हमने इसी तरह का अपरिहार्य अनुमान निकाला था। तब हमारे भोले-भाले हिंदु हमसे नाराज होकर कहते थे, 'नहीं, कभी नहीं। हमारे मुसलमान भाई इस तरह के अतिरेकी नहीं हैं। तुम हिंदू ही उपद्रवी हो, अन्यथा इस प्रकार का भय, इस तरह की आशंका तुम्हारे मन में कभी नहीं आती।' परंतु हमारे पंजाब के मुसलमानों में से कुछ नेताओं ने वही, बिलकुल वही माँग बेझिझक कर डाली और तर्कशास्त्र की लाज रखी। इसीलिए हमने कहा, 'उन्होंने यह उपकार ही किया।'

'वाद्य बंद करो' कहते ही नवनीत से भी मुलायम, कोमल मन के हिंदुओं ने समितियों की नियुक्ति करके मुसलमान मौलवियों के अभिमत मँगवाए कि 'सत्य ही वाद्य मुसलिम धर्म विरोधी हैं?' अब वे सज्जन ही पुनः मूर्तिपूजा के प्रश्न के लिए मौलवी समिति की नियुक्ति करेंगे और यदि उन्होंने 'मूर्तिपूजा मुसलिम धर्म के विरोध में है' बल्कि यह अभिमत प्रकट किया तो पंजाबी शिकायत को सत्य समझकर न केवल वाद्यवृंद, मूर्तियों के जुलूस भी और वे भी केवल मसजिदों के सामने ही नहीं, मुसलमानों की दुकानों के आसपास, आगे-पीछे, ऊपर-नीचे सर्वत्र बंद रखना एकता की दृष्टि से हित में है। केवल वाद्यों से संबंधित ही नहीं, मूर्तिपूजा छोड़ देने के संबंध में भी अपने परमप्रिय मुसलमान बंधुओं की भावनाएँ हिंदु विचाराधीन समझेंगे' इस तरह का प्रस्ताव आगामी राष्ट्रीय सभा मान्य करेगी ऐसी उत्कट आशा हम करते हैं।

वाद्यबंदी की माँग पर राष्ट्रीय सभा विचार कर ही रही है। अब इस वर्ष मूर्तिपूजा बंदी की माँग विचाराधीन रखकर उसे स्वीकृति देते ही अलगे वर्ष उपनयन बंदी की माँग उठेगी। उपनयन विधि मुसलमान धर्म के विरुद्ध है। इसी सर्वमान्य एवं राष्ट्रीय सभा सम्मत तत्त्व के आधार पर सामने लाई जा सकती है। इस प्रकार एक-एक करके हम मुसलमानों में फूट डालने के सारे प्रश्न धीरे-धीरे सुलझाएँगे और हिंदुओं को मुसलमान ही बनाएँगे। इससे राष्ट्रीय हित साधने का महत्तम पुण्य शीघ्रतापूर्वक अंटी में बाँधा जा सकता है।

वस्तुतः वाद्यों से अथवा मूर्ति से अधिक मुसलमानों को चाहिए कि वे उस उपनयन विधि की ओर ही अपना लक्ष्य केंद्रित करें, क्योंकि उनकी धर्म प्रचार का भयंकर शत्रु कोई वाद्य अथवा मूर्ति नहीं, वह उपनयन ही है।

कोई भी बात भली हो या बुरी, मुसलमानी धर्म में वह है या नहीं, इस निष्कर्ष से हिंदू तय करें-मुसलमानों की यह माँग सर्वथा स्वाभाविक है, परंतु यह आर्य समाज जब देखो, पच्चर मारता है और अब यह संगठन गंडस्योपरि पिटिका संवृत्ता।

मुसलमानों ने स्वाभाविक रूप से यह माँग की है कि 'सत्यार्थ प्रकाश' जब्त करो, क्योंकि उसमें मुसलमानों के कुछ मतों का निषेध किया गया है। लगे हाथ आर्य समाज तथा संगठनवादियों ने उद्घोष किया, 'कुरान जब्त करो, क्योंकि उसमे हिंदू धर्म विरोधी बहुत सारी बातें हैं।' संगठन की यह कितनी उपद्रवी प्रवृत्ति है! इस प्रकार प्रतिस्पर्धा करने से राष्ट्रीय एकात्मता थोड़ी ही सिद्ध होगी?

अतः हमें यह भय प्रतीत हो रहा है कि 'मूर्तिपूजा बंद करो'-मुसलमानों की इस नई माँग का ये कुछ-न-कुछ अपशकुन संगठनवादी अवश्य करेंगे। हाँ, कौन कह सकता है भला? मुसलमान एडिटरों ने हमारे धर्म में मूर्तिपूजा निषिद्ध है', अतः वाद्य ही क्यों, हमारी दुकानों से जुलूस निकालना भी बंद करो, इस तरह तार देते ही कोई आर्य समाजी एडिटर भी कहीं इस तरह तार न दे कि 'लाश को दफनाना हिंदू धर्म में निषिद्ध है। अतः दफनाए गए माता-पिता का सुपूत या कुपूत कोई भी हो, हमारी दुकान पर से न जाए।' क्योंकि ऐसा थोड़े ही है कि मुसलमानी एडिटर तार कर सकता है और हिंदू एडिटर नहीं कर सकता।

सिंध में तहसील डोकरी स्थित किसी सैयद मुसलमान की बेटी ने 'कुरान' ग्रंथ के साथ ही अपना निकाह संपन्न किया। अष्ट पुत्रा सौभाग्यवती भव।

इस अष्टपुत्रा से हमें छापखाने में रहते भूतों से डर लगता है। पहले एक बार 'अष्टपुत्रा' शब्द सही ढंग से पढ़ न सकने के कारण अथवा वह पठनीय ढंग से न लिखा होने के कारण एक ऐसे बुद्धिमान व्यक्ति ने, जो उपमुद्रित (प्रूफ्स) देखता है, उसे 'उष्टपुत्रा' छापा। हम चेतावनी दे रहे हैं कि ऐसी भूल ऊपरी निर्दिष्ट आशीर्वाद की छपाई में न करें।

अद्भुत विवाह आजकल मानो एक संक्रामक रोग ही होता जा रहा है। 'कुरान' के विवाह इस प्रकार होते देखकर 'पुराण' से भी हाथ पर हाथ धरे बैठना असंभव हो गया। उसने भी दो-चार स्थानों पर अच्छा-खासा हाथ मारा है।

क्योंकि आजकल ही अनेक यूरोपीय कन्याओं द्वारा हिंदू धर्म को स्वीकार कर हिंदुओं से ब्याह रचाने के समाचार आ रहे हैं। ग्रुवेन हॉफ नामक २३ वर्षीय जर्मन कन्या ने स्वामी सत्यानंदजी के शुभ कर-कमलों द्वारा हिंदू धर्म ग्रहण किया और श्री किरण चंद्र बागची से विवाह किया। कुमारी का नाम इंदुबाला रखा गया। विवाहोपरांत मिठाई बाँटी गई और यह बताना आवश्यक है कि अनेक उपस्थित हिंदुओं ने मिठाई का आस्वाद लिया। श्रीमती रिबिट्स नामक एक अंग्रेज महिला ने भी हिंदू धर्म को स्वीकार किया है। शर्मिष्ठा देवी की कहानी तो त्रिखंड में सर्वश्रुत है ही।

यूरोपीय कन्याओं का हिंदुओं से विवाह करना कोई नई बात नहीं है। अमेरिका से लेकर रूस तक फैली हुई प्रत्येक राजधानी स्थित भारतीय बस्ती में झाँक कर देखने से ज्ञात होगा कि ऐसे विवाह पहले भी हुआ करते थे; परंतु आज तक हिंदुओं का यूरोपीय कन्या से विवाह होते ही वह कन्या घर आने के स्थान पर वर ही अपने घर से वंचित होकर ईसाई बनकर और कन्या के घर का रुख अपनाता था।अब ऐसा नहीं होता। यूरोपीय कन्याएँ अब तो हिंदू होकर ही हमारे पुत्रों के घर बसाने आ रही हैं। पहले हिंदू लड़के बाइबिल के पीछे भागते थे। अब आधुनिक-से-आधुनिक ईसाई कन्याएँ भी हमारे पुराणों के पीछे भाग रही हैं। हाँ, चार दिन सास के तो चार दिन बहू के। यही होता रहा है। अच्छा ही है।

आजकल ऐसा प्रतीत हो रहा है कि हिंदुस्थान में लगी महान् अंग्रेजों की मूर्तियों के पीछे सनीचरी लगी है। अपने शताधिक सत्य के प्रयोगों में से एक प्रयोग करते समय गांधीजी ने आदेश दिया था कि पंजाब स्थित लॉरेंस की मूर्ति हिलाने के लिए प्रथमत: स्त्री-पुरुष बच्चों के साथ संपूर्ण लाहौर शहर इकट्ठा हो, परंतु पुतला हिलाने से भी संपूर्ण लाहौर हिलाना बड़ा कठिन हो गया। इतने में भगवान् जाने किसके दिमाग में एक कल्पना घुस गई-उसने रात में वहाँ जाकर उस पुतले के हाथ की तलवार ही तोड़ डाली। सरकार ने तुरंत इस पुतले पर लाज का परदा डाला। उस पुतले पर लिखे विवादास्पद, लज्जास्पद वाक्य भी मिटा दिए और उस कांड को रफा-दफा कर दिया। संपूर्ण लाहौर हिलाकर जो साध्य करना था, वह एक मनुष्य को हिलाकर साध्य किया गया। नील के पुतले के कारण मद्रास का पारा चढ़ गया, परंतु उधर प्रस्तर के पुतले पर प्रहार करना अथवा पत्थर फेंकना, पत्थर से पत्थर को मारना ही था। यह हिंसा है या अहिंसा, यह अत्यंत गंभीर प्रश्न उत्पन्न होकर अंत में तय हो गया कि कीचड़ फेंकने में कोई आपत्ति नहीं है और इस कीचड़ में ही वह अभी तक धँसा है।

इतने में इधर बंबई से तार आ गया कि बंबई के महारानी विक्टोरिया के पुतले के हाथ का राजदंड तोड़कर किसीने उसे भद्दा बना दिया है।

बंबई के इस व्यक्ति ने तो अचानक राजदंड को ही तोड़ डाला। सारी बंबई हिलाकर लाहौर जैसे स्त्री-पुरुष बच्चों के संग उधर जाने की योजना नहीं बनाई, न ही अहिंसा के कीचड़ में नरम-नरम गोले बनाता रहा। झक्की कहीं का! व्यर्थ झंझट मोल लेने में क्या मिलता है इन लोगों को!

इस आश्चर्य में बुद्धिमान लोग चिंतित हो गए, इतने में चतुर पुलिस भाँप गई, पुतला किस तरह विरूप बन गया। उसने घोषित किया कि पुतले के हाथ का राजदंड रास्ता धोनेवाले नौकर के दमकल के फव्वारे के साथ फिसल गया। बिलकुल सहज आकस्मिक घटना। बाकी कुछ नहीं। तथास्तु। अन्य कुछ न भी हो, तो सभी के लिए अच्छा है, क्योंकि इससे पहले भी एक बार इसी पुतले की दुर्गति बनी थी। किंबहुना अंग्रेजी पुतले का इस प्रकार आदर करने की योजना हिंदुस्थान में तब से बनाई जाती आ रही है जब पच्चीस-तीस वर्ष पूर्व इस पुतले को विरूप किया था।

महारानी विक्टोरिया के उत्सव का वह दूसरा दिवस था। उसी दिन अचूकता के साथ किसी साहसी व्यक्ति ने पहरेदार को चकमा देते हुए उस उत्सव के गुलाबी रंग में भंग डालने के लिए उस रानी के पुतले को तारकोल का रंग पोतकर उसके गले में फटे जूतों की माला पहनाई थी। आगे चलकर तारकोल का रंग निकालकर पुतले को ठीक-ठाक करने के लिए हजारों रुपए पानी की तरह बहाने पड़े थे। जिस साहसी वीर ने यह कृत्य किया, उसका नाम जिस-तिस के मुख पर चढ़ गया। आगे चलकर सिद्ध हो गया, पुणे में प्लेग के दिनों में रेंड साहब की हत्या करनेवाले चापेकर बंधुओं ने ही इस पुतले की ऐसी दुर्गत बनाई थी।

गत इतिहास के कारण ही इस पुतले की पुनः दुर्गत बनाने के समाचार को थोड़ा सा महत्त्व प्राप्त हो गया, अन्यथा प्रस्तर के पुतले के हाथ में घी पकड़े राजदंड को पूछता ही कौन है? परंतु पानी के फव्वारे के कारण राजदंड हाथ से फिसलकर गिर गया। अच्छा हुआ, यह एक अत्यंत सुलभ तथा दोनों पक्षों के लिए सुविधाजनक स्पष्टीकरण तुरंत ही हो गया।

परंतु यदि वह राजदंड गिर गया तो भला मिला कैसे नहीं? पानी के फव्वारे के साथ जो वह उड़ा, वह क्या अभी तक ऊपर ही उड़ान भर रहा है? और कहा जाता है, वह नौकर भाग गया, वह क्यों? दूसरे हाथ में धरा 'भूगोल' विच्छिन्न होने का समाचार छपा है। क्या वह गोला भी पानी से ही भग्न हो गया।

परंतु ये सारे प्रश्न गौण हैं। इनके संतोषजनक उत्तर कभी भी दिए जा सकते हैं। अब इतनी सावधानी बरतनी चाहिए कि इस स्पष्टीकरण को जैसे राजदंड पानी के फव्वारे के साथ उड़ गया-मजबूत करना होगा और भविष्य में इतने कच्चे, हलके राजदंड जो प्रसंगवश पानी के फव्वारे के साथ उड़े-नहीं दिए जाएँ और पुतले के हाथ में पक्का राजदंड दिया जाए। बस, इसलिए यह सावधानी बरतनी है कि पुतले के हाथ का क्यों न हो, परंतु राजदंड का गिरना भोले-भाले लोगों को अशुभसूचक लक्षण प्रतीत होता है।

२४ मई, १९२८

'संपूर्ण राजनीतिक स्वाधीनता'इन शब्दों से संतप्त गांधीजी एवं अंग्रेज

पिछले दिसंबर में राष्ट्रीय सभा ने मद्रास में घोषित किया, 'हिंदुस्थान का ध्येय संपूर्ण राजनीतिक स्वाधीनता है, यही स्वराज्य शब्द का सही अर्थ है।'

उस समय 'स्वाधीनता' के उस प्रस्ताव से दो लोग अत्यंत घृणा करते थे। दोनों इस प्रस्ताव को 'बचकाना, असंभव तथा मूर्खतापूर्ण' समझकर संतप्त हो गए थे। इनमें से एक है अंग्रेज और दूसरा व्यक्ति है-हमारे गांधीजी।

हिंदुस्तान 'संपूर्ण स्वाधीनता' को ही अपना राजनीतिक ध्येय निश्चित करे-इस बात से अंग्रेजों का लाल-पीला होना स्वाभाविक ही है। ऐसा ही होता है ऐसे समय पर।

जैसे आजकल ही बंबई के एक जज साहब ने एक व्यावसायिक चोर के विरुद्ध जब निर्णय दिया कि उसके पास पाई गई संपूर्ण संपत्ति उस साहूकार को लौटाई जाए जिसकी चोरी हुई, तब उस चोर को जो, प्रामाणिकता के साथ चोरी का व्यवसाय करता था, बड़ा क्रोध आ गया। उसने कहा, 'अपना पसीना बहाकर मैंने यह संपत्ति अर्जित की थी। महापुरुषों की महानता की गौरव गाथा जिस तरह गाई जाती है, वही वर्णन मेरे प्रयासों के लिए लागू है। उस सज्जन व्यक्ति की संपत्ति किसीने मेरे सिरहाने नहीं रखी थी। सातवें मंजिल पर जब वह रात में सोया था, तब मैं अपने बाहुबल से इतनी ऊँचाई पर चढ़ गया।'

The height that I too reached and kept!

Was not attained by a sudden flight!!

But I while honest men had slept!

Was toiling upwards in the night!!

यदि उस चोर का पारा चढ़ना स्वाभाविक था तो अंग्रेजों का भी स्वाधीनता के इस प्रस्ताव पर त्योरियाँ चढ़ाना स्वाभाविक ही था। वे भी सहजतापूर्वक करते कि 'हमारे पुरखों ने अपना पसीना बहाकर भारतीय साम्राज्य अर्जित किया है। सातारा, झाँसी, लाहौर, पुणे, अयोध्या, एक नहीं अनेक राज्य, अनेक मुकुटों, सिंहासनों, रत्न, हीरे, मोती, सिक्के आदि केवल उठाकर भंडार में ठूँसना होता तब भी भीम जैसा कुली भी थककर चूर-चूर हो जाता। फिर हमने तो सभी लूट अपने बाहुबल से पहले लूटी और फिर उठाई है। इतना ही नहीं, इस राजनीतिक लूटमार को तथा उठाईगिरी को अब हम 'साम्राज्य' नाम भी दे चुके हैं। लूटमार को साम्राज्य कहने के पश्चात् भी वह जिसका था, उसे लौटाने का अधिकार जता रहे हैं। कैसा अन्याय! हम इस बात पर इतना गौर नहीं करते, अन्यथा १२१ का आँकड़ा जानते हैं? यह मत भूलें कि यह संख्या हो सके तो सीधी, अन्यथा काल के गले के समान टेढ़ी होती है।'

स्वाधीनता के प्रस्ताव पर क्रोध जिन दोनों को-अंग्रेज तथा गांधी को आया, उनमें से अंग्रेजों का क्रोध स्वाभाविक ही है, यह तो सभी जानते होंगे। परंतु अनेक के लिए यह अनबूझ पहेली है कि महात्मा गांधी को, जो हिंदुस्थान के सुपुत्र हैं और एक वर्ष में स्वराज्य दिलाने का बीड़ा उठानेवाले एक महान् देशभक्त हैं-हिंदुस्थान से ब्रिटिशों की पराधीनता को फेंक देने के लिए कृतसंकल्प होते ही इतने तैश में क्यों आ गए? उनके भक्तों के लिए भी यह एक अनबूझ पहेली ही है। इनमें से दो-तीन भक्त परसों-आसपास कोई नहीं है-यह देखकर आपस में खुसुर-फुसुर कर रहे थे, 'यह कैसे हुआ, भाई? स्वाधीनता सभी राष्ट्रों का, व्यक्तियों का, जैसे जीवन सिद्ध, उसी तरह प्रकृति सिद्ध अधिकार है। यह कैसे हो सकता है कि इन न्यायपरायण गांधीजी-जो अंग्रेजी सत्ता को शैतानी सत्ता कहते हैं-को स्वाधीनता का प्रस्ताव अच्छा न लगे। यह बात तो उनके पूर्व चरित्र से विसंगत ही है।

परंतु इस पहेली की कुंजी इस पूर्व चरित्र में ही मिलनेवाली है, यह बात उनके इन छह-सात वर्षों से परिचित लोगों को ही ज्ञात नहीं है, इसीलिए तो उनकी यह छलना हुई है। गांधीजी का पूर्व चरित्र ही नहीं, वर्तमान चरित्र भी इस विसंगति के सूत्रों ने सर्वथा सुसंगत रूप में ग्रंथित किया है और वह भी उन्होंने स्वयं ही। अपने आत्मचरित्र के बारे में वे क्या कहते हैं, ये देखिए-

'जुलू लोगों का अंग्रेजों से झगड़ा चल रहा था। जुलुओं ने हिंदुस्थान को कोई हानि नहीं पहुँचाई थी। गांधीजी को यह भी समझ में नहीं आ रहा था कि अंग्रेजों को भी उन्होंने क्या नुकसान पहुँचाया था। किंबहुना संपूर्ण विश्व को ज्ञात था कि जुलू लोगों की स्वाधीनता छीनकर उनपर ब्रिटिशों के नाखूनों की धाक जमाने के लिए अंग्रेजों ने ही ये गड़े मुरदे उखाड़े थे, परंतु अंग्रेजों ने जुलू लोगों पर आक्रमण किया। अंग्रेज ठहरे हिंदुस्थान के राजाधिराज। गांधी हिंदुस्थान के एक सपूत अर्थात् अंग्रेजों की प्रजा; अत: अंग्रेजों द्वारा आक्रमण करने से गांधीजी को अपने प्रिय साम्राज्य के आज्ञा पालन का प्रजा धर्म निबाहना ही होगा। वे भी उस आक्रमण के साथ अंग्रेज पक्षीय स्वयंसेवक बन गए। वे देख रहे थे, पशु से भी अधिक नृशंसता के साथ अंग्रेज जुलू लोगों की हत्या कर रहे हैं। अंग्रेज उनकी स्वाधीनता का अपहरण कर रहे हैं। यह तो उतना ही स्पष्ट था जितना सूरज का उजाला; परंतु करुणानिधि गांधीजी ने जुलू लोगों के विरोध में अंग्रेज सेना के स्वयंसेवा कार्य का त्यागपत्र नहीं दिया। अंग्रेजी सरकार के लिए उनके मन में जो आस्था थी वह जुलू लोगों के 'कत्ले-आम' से भी नहीं पसीजी। यह हुआ सत्य का एक प्रयोग।'

बोअर युद्ध के तो क्या कहने हैं! उस शूर राष्ट्र की स्वाधीनता हरणार्थ निकली अंग्रेज सेना में हिंदुस्थान के ये सुपुत्र आत्म-स्वतंत्रता से वंचित, प्रमाणित तथा जन्मजात दास, स्वयंसेवक बनकर बलपूर्वक अंग्रेज सेना में प्रविष्ट हो गए, एक-दो की संख्या में नहीं अपितु और भी पाँच-पचास लोगों को संगठित करके। संपूर्ण विश्व बोअर लोगों के स्वाधीनता युद्ध में पराजित होने से मन मसोसकर रह गया और ब्रिटिशों की विजय को धिक्कारने लगा; परंतु बोअरों की स्वाधीनता का हनन करने के पावन कार्य से जिनके हाथ रँगे हुए थे, उन्हें अंग्रेजों ने पुरस्कार दिए तब गांधीजी को भी एक पुरस्कार मिल गया और वह तमगा-वह प्रामाणिक तथा निर्लज्ज दासता का पट्टा उन्होंने गर्व के साथ अपने गले में बाँध लिया। यह था सत्य का दूसरा प्रयोग।

तथापि इस प्रकार आत्म-स्वतंत्रता चौपट करते हुए फिर दूसरे की स्वाधीनता उस तीसरे के लिए, जो अपनी स्वाधीनता चौपट कर रहा है, कुचलकर विश्व भर में संचार करते हुए वे सत्य के प्रयोग उधर सुदूर अफ्रीका में कर ही रहे थे। प्रत्यक्ष हिंदुस्थान में उस सत्य का टीका लगाना बाकी था। अतः परम कारुणिकता के साथ सत्य का यह प्रयोग भी हिंदुस्थान में करने के उद्देश्य से विगत महायुद्ध के समय ब्रिटिश साम्राज्य को अर्थात् हिंदुस्थान को अपनी पराधीनता की इस प्रामाणिक लतखोरी से अपनी क्रीतनिष्ठा की इस अप्रामाणिक मूर्खता का प्रदर्शन हिंदुस्थान में शुरू भी हुआ। महायुद्ध के सुनहले अवसर पर लोकमान्य का राष्ट्रीय पक्ष ब्रिटिशों के हाथ से यथासंभव भारतीय अधिकार छीनने के लिए इधर मैदान में शतरंज की चाल चल रहा था तो उधर वह अभिनव भारतीय क्रांति पक्ष अंग्रेजों के हाथ से राजदंड ही जो सभी अधिकारों का अधिष्ठान था, छीनने के लिए प्राणों की बाजी लगाकर 'शक्ति से ही राज्य प्राप्त होता है' इस प्रकार लरजते-गरजते दाँव लगाते युद्धभूमि में घुस रहा था। उसी समय गांधीजी अपने 'सत्य के प्रयोग' अथवा आत्मवृत्त में लिखते हैं, 'उस समय मेरे सामने यह समस्या खड़ी थी कि इस जर्मन महायुद्ध में मेरा कर्तव्य क्या है...जैसेकि अनेक भारतीय लोगों का अभिप्राय था-अंग्रेज हमारे बलात्कारी स्वामी, हम उनके चरणदास, हम दोनों का इस तरह का संबंध होने के कारण उनपर आए संकटों का उपयोग हम अपनी मुक्ति के लिए करें-इस तरह का उपदेश उस समय भला मेरे गले में कैसे उतर सकता था? क्योंकि अपनी अवस्था संपूर्ण दास सदृश मैं समझता ही नहीं था। मेरी धारणा थी कि ब्रिटिश शासन प्रणाली में दोष है और अधिकतर ब्रिटिश अधिकारियों में दोष हैं। ये दोष हम प्रेम से दूर कर सकते हैं। राज्यपद्धति सदोष प्रतीत होती थी, परंतु उतनी नहीं जितनी आज असहनीय प्रतीत हो रही है, लेकिन आज इस प्रणाली से मेरा विश्वास जितना उठ चुका है उतना ही उस समय भी जिनका विश्वास उठ चुका था वे उस संकट में अंग्रेजों से यथासंभव अधिकार छीनने के प्रयास में जुट गए। भला वे अंग्रेजों की कैसी सहायता कर सकते हैं? परंतु अधिकार छीनना तो दूर, अधिकारों की माँग करने की नीति अपनाना भी इंग्लैंड के इस संकट समय पर अशिष्टता एवं अदूरदर्शिता प्रतीत हुई और मैंने ठान लिया कि अंग्रेजों की बिना शर्त सहायता करना ही अपना परम कर्तव्य है!'

इस 'दूरदर्शिता एवं शिष्ट कर्तव्य की पूर्ति के लिए ही गांधीजी ने ८० लोगों को संगठित करके इस युद्ध में स्वयंसेवा की अनुमति प्राप्ति के लिए सतत निवेदन पत्र भेजना आरंभ किया।' परंतु अंत में अंग्रेजी राजनीति की तीक्ष्ण बुद्धि को उन करोड़ों लोगों के हुड़दंग में इन मुट्ठी भर नगण्य लोगों की स्वयंसेवा ऐसी प्रतीत हुई, जैसे ऊँट के मुँह में जीरा। उसने सोचा, इससे अधिक इन लोगों का उपयोग हिंदुस्थान में लोकमान्य के राष्ट्रीय पक्ष के दाँव-पेंचों को नाकाम करने में अधिक होगा, इन 'दीर्घ' एवं 'शिष्ट' अंग्रेज राजनिष्ठ लोगों को वे हिंदुस्थान की ओर ही खींचकर ले आए। आगे चलकर अहिंसात्मक शिष्ट सत्य द्वारा यहाँ किए गए तमाशे प्रसिद्ध ही हैं। जर्मन लोगों को सशस्त्र युद्ध में जान से मारने के लिए हिंदुस्थान के बेचारे किसान लोगों को सेना के बूचड़खाने में भेजने के लिए यही अहिंसा अंग्रेजों की 'स्वयंसेवक रिक्रूटिंग अफसर' बन गई थी। कभी-कभी प्राचीन नीति शास्त्रज्ञ लिखते हैं, 'धर्मार्थ की हुई हिंसा हिंसा ही नहीं होती।' सज्जनों की रक्षार्थ करणीय हिंसा अहिंसा ही होती है। इस तरह प्रतिपादन करनेवाली प्राचीन परिभाषा गलत है, निरपवाद अहिंसा ही सच्ची अहिंसा है। उस निरपवाद अहिंसा की सक्रिय परिभाषा इस प्रकार करते हैं, अंग्रेज साम्राज्यार्थ की हुई हिंसा हिंसा ही नहीं है। जर्मन, जुलू, बोअर चाहे कोई भी ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध लड़ता हो, उसकी हिंसा के लिए नए सिपाहियों की भरती करने की निरपवाद अहिंसा के 'शिष्ट' कार्यक्रम में 'हिंसा' सम्मत है।

पिछले महायुद्ध में गांधीजी ने राष्ट्रीय पक्ष के प्रतिरोधपूर्ण राजनीति में यथासंभव बाधा डालने के लिए संघर्ष करके उसमें थोड़ी सी सफलता प्राप्त की। अंग्रेजों की बस इतनी ही अपेक्षा थी कि वे लोकमान्य के कार्य में अडंगा डाल पाएँ, क्योंकि सरकार को इस बात का भान था कि क्रांतिकारी महात्माजी की अहिंसात्मक 'शिष्ट' 'दूरदर्शिता' को दो कौड़ी की उधारी से भी नहीं पूछते।

गांधीजी के उपर्युक्त आत्मचरित्रात्मक परिच्छेद से किसीको भी इस तथ्य का बोध होगा कि मद्रास की राष्ट्रीय सभा द्वारा सम्मत स्वाधीनता के प्रस्ताव से उनका तैश में आना कितना सहज था। उनका पूर्व वृत्तांत तथा 'पहाड़-सी गलतियों की परंपरा जिन्हें ज्ञात नहीं है, बस, वे ही इस बात से विस्मित होते हैं तो होने दो।'

विगत महायुद्ध में उन्हें जो 'शिष्ट' अहिंसात्मक 'दूरदर्शिता' की नीति प्रतीत हो गई, उनके संबंध में उन्होंने उसी परिच्छेद में प्रतिपादन किया है कि मैं ऐसा नहीं समझता। अर्थात् उन्होंने इस बात को स्वीकार किया है कि उस समय जो लोग उनकी नीति तथा प्रवृत्ति को गलत कहा करते थे, वही सही हैं। उनके प्राचीन सत्य के अनंत प्रयोग में यदि कोई एकाध सत्य भी हो तो सही है कि उन्हें सत्य रूप में जो-जो भी प्रतीत हो गया हो, वह यही है कि वह सबकुछ बहुशः असत्य होता है। प्रयोगक्षमता के लिए आवश्यक चिकित्सक दृष्टि एवं प्रवृत्ति ही उनमें नहीं बसती। आज जिसे वे 'सत्य' समझते हैं, उसी को कल एक 'पहाड़-सी गलती' कहते हैं। कला का त्रिकालबाधित सत्य आज पहाड़-सी भूल' होती है। आज का सत्य कल 'पहाड़-सी गलतियाँ' हो सकता है। परसों का नरसों-इसी तरह यह क्रम चलता रहता है।

इसी परंपरा से देखा जाए तो आज मद्रास की स्वाधीनता के जिस प्रस्ताव को गांधी बचकाना समझते हैं, वे ही अपने कथन को बचकाना कहकर वह एक 'हिमालयीन प्रमाद' (Himalayan Mistake) था। इस तरह प्रकट करते बहुशः आगे आएँगे। हाँ, पर और कुछ वर्षों के पश्चात्। विश्व को जो आज दिखाई देता है वह उन्हें पचीस वर्षों के पश्चात् दिखाई देता है। दूरदृष्टि अर्थात् दूर जाने पर पिछला देखनेवाली दृष्टि।

परंतु हजारों बार अनुभव की हुई बात आज पुनः एक बार दोहराने का उबाऊ कर्तव्य करने का प्रमुख कारण यह है कि ऐसा न हो, उनके कुछ अनुयायी स्वाधीनता के प्रस्ताव को उनके द्वारा प्रदर्शित किए हुए विरोध को देखकर अभी तक बौराए, बिचके से हो गए हैं। यह ठीक ही है, जिसे जिस सत्य की जानकारी नहीं हुई है, ऐसा उस विषय में मूर्ख व्यक्ति उस सत्य के प्रयोग करता रहता है, परंतु स्वाधीनता जिस तरह व्यक्ति का, राष्ट्र का जीवन है, उसी तरह वह जन्मजात, पूर्वार्जित, अहरणीय संपत्ति है-यह राजनीतिक सत्य जो स्पष्ट रूप से देख सकता है, भला वे इस विषय में कैसे प्रयोग कर सकते हैं? पचीस वर्ष पूर्व अभिनव भारत को जो राजनीतिक सत्य दिखाई दिए, गांधीजी को उनका दर्शन आज हो रहा है। इसमें उनका रत्ती भर भी दोष नहीं है, परंतु राजनीति तथा धर्मनीति में उनकी दुरदृष्टि इतनी अदूरदर्शी होती है कि प्रतिदिन उनसे ऐसी अक्षम्य गलतियाँ होती हैं जो स्वयं उन्हें ही कल तिरस्करणीय प्रतीत होती हैं। यह उन भोले-भाले लोगों का ही दोष है जो उनके आत्मवृत्त के सत्य की प्रयोगशाला में पग-पग पर अपने राष्ट्रीय विकास मार्ग की यष्टि करने की इच्छा रखते हैं। अंधे नेताओं का जितना दोष है, उतना ही 'अंधेनैव नीयमाना' का भी दोष होता है।

परंतु सौभाग्यवश संतोषजनक बात यह है कि और इस प्रकार किए गए निर्भीक दोषाविष्करण ने ही आज उस दोष के रोग से यह हिंदी राष्ट्र बहुश: मुक्त हो रहा है। हिंदुस्थान का ध्येय संपूर्ण स्वाधीनता ही है। यद्यपि महात्माजी तथा ब्रिटिशों को यह पसंद नहीं था, तथापि उनमें से पहले के निर्जीव अभिशापों की अथवा दूसरे की मारक यंत्रणाओं की चिंता न करते हुए संपूर्ण भारत उस स्वतंत्रता भगवती के चरणों पर ही अपनी अटल निष्ठा समर्पित करते आ रहा है। केरल की प्रांतीय परिषद् और उसके अध्यक्ष पं. जवाहरलाल नेहरू का भाषण देखिए, कर्नाटक परिषद् और उसके अध्यक्ष नरीमन का भाषण देखिए, महाराष्ट्र परिषद् और उसके अध्यक्ष सुभाष बाबू का भाषण देखिए। जिधर देखो उधर स्वतंत्रता लक्ष्मी की जय-जयकार चल रही है। स्वतंत्रता लक्ष्मी के नगाड़ों के धूमधड़ाकों में हे ब्रिटिश साम्राज्य पर धरी निर्लज्ज निष्ठा, तेरी तूती की आवाज कौन सुनेगा?

स्वतंत्रता लक्ष्मी के जयनाद से पहले भी एक बार इस भारतभूमि के मंदिर का यह सभामंडप न सही परंतु उसका गर्भगृह निनादित हो गया है। वह गर्जना अभिनव भारत की गर्जना थी। गर्भगृह से निकलकर आज सभामंडप उद्घोषित कर रही है। बहुत खूब! परंतु...परंतु...

परंतु अभी एक स्थूल अंतर रह गया है। यह कमी पूरी करनी है। आप सभी ने 'स्वतंत्रता के एकमेव ध्येय का प्रस्ताव पारित किया है। यही साध्य निश्चित किया है, परंतु हे महाराष्ट्र-कर्नाटक केरल बंग! हे भारत! तुमने केवल साध्य का प्रस्ताव पारित किया, परंतु किसीने भी साधन का उल्लेख क्यों नहीं किया?'

जब तक स्वतंत्रता लक्ष्मी की पूजा के साधन उसके गर्भगृह में एकत्र नहीं हुए, न ही किसीने उनका संचय करने के संबंध में एक शब्द का भी उच्चारण किया। तब केवल सभामंडप में इस बासी एवं खोखले जयघोष की सहायता से उसका उत्सव भला कैसे संपन्न होगा? बिना होम-पूजा के देवी प्रसन्न कैसे होगी?

अतः सावधान! साधन से संबंधित एक भी प्रस्ताव नहीं हुआ। अत: सावधान! अन्यथा पुनः कोई अप्रस्तुत व्यक्ति ही असंगत साधन का आयोजन करेगा। वह निर्लज्ज अहिंसा, वह परतुष्टिकारक प्रेम, वह स्वपक्षविघातक न्याय, पक्षविघातक निष्पक्षपात, जिन्होंने विगत महायुद्ध में शिष्टता एवं न्याय के ढोंग की ओट में अन्याय के तलवे चाटने जैसे काम किए, वे सभी कल के किसी नए सुवर्णावसर पर पुनः ऐसा ही कुछ पाखंड रचने में नहीं हिचकिचाएँगे। इसीलिए तो उसकी इस तरह सतत जाँच करनी और यह चेतावनी देनी है कि-

अभी प्रस्ताव तो हो गया, परंतु साधन का क्या करना है? वह कहो, क्योंकि मुख्य रहस्य तो इसी में है। और कोई नहीं तो पंजाब ने साधन का एक धुंधला सा निर्देश किया है- 'संपूर्ण स्वाधीनता ही हमारा ध्येय है और उसे प्राप्त कराने में जो संभव हो, वही हमारा साधन है।'

संकल्प ठीक-ठाक पूरा हो गया। मंदिर के सभा मंडप में इतना कुछ होना भी पर्याप्त है, परंतु अब उस गर्भगृह में चलिए। मुख्य पूजा सामग्री वहीं होनी चाहिए, परंतु उधर अभी तक एक भी फूल, एक भी समिधा या होलिका का एक भी अग्नि कण उठता हुआ नहीं दिखाई देता।

२८ जून, १९२८

अंदमान में हुतात्माओं की मृत्यु क्यों नहीं हुई ?

कुछ दिन पूर्व हमें किसीने बताया कि कानपुर का कोई वीर पुरुष, जो हिंदू संगठन पर सदैव गाली-गलौज व अभिशापों की वृष्टि करता है, अपने हिंदुत्व को सार्थक करनेवाले डॉ. मुंजे केलकर के संगठनात्मक आंदोलनों को देशद्रोही घोषित करता है, सिंध प्रांत मुसलमानों को उपहारस्वरूप दिया जाए, इसलिए हाथ में तलवार धारण करता है। उसने 'श्रद्धानंद' के संपादक द्वारा स्वाधीनता के प्रस्ताव का विरोध करने के कारण 'श्रद्धानंद' द्वारा उस विरोधक पर हुई आलोचना से संतप्त होकर पूछा है कि जो अपने आपको हुतात्मा कहते हैं, उन्होंने क्षमा याचना कैसे की? वे कारागृह में ही मर क्यों नहीं गए? उन्होंने सरकार को निवेदन-पत्र क्यों भेजे?'

वस्तुतः क्षमा याचना तो दूर 'श्रद्धानंद' के संपादक ने बंदीगृह से मुक्ति पाने के लिए सरकार को निवेदन-पत्र आदि भी कभी नहीं भेजे। अतः कानपुर के इस वीरपुंगव को सूचित किया जाए कि हमने सोचा, 'श्रद्धानंद' के संपादक के नाम का किसी अन्य महान् हुतात्मा के नाम से घोटाला होने से आपसे यह भूल हुई है।

परंतु पुनः सोचा, जबकि उसने 'हुतात्मा' का स्पष्ट उल्लेख कर उससे ठोंक-बजाकर पूछा है कि क्षमा-याचना क्यों की, तब हो सकता है, यह भूल न हो। देश में जिन्हें हुतात्मा के रूप में गौरवान्वित किया जाता है, उनमें से किसीने भी क्षमा-याचना करने की बात की है, इसकी हमें जानकारी नहीं है। हाँ, एक बात प्रसिद्ध ही है कि पंजाब से पांडिचेरी तक तथा सिंध से बंगाल तक सैकड़ों क्रांतिकारी, जिन्होंने अपना सिर हथेली पर लेते हुए तथा अपने घरबार को आग लगाकर स्वदेश की गृहस्थी बसाने के लिए राष्ट्र स्वतंत्रता लक्ष्मी की जय-जयकार में मौत के घाट में 'मारते-मारते' प्रवेश किया और उस युद्ध में आहत होकर पराभूत होने के पश्चात् पुनः देशसेवा करने के लिए कुछ दिन युद्ध छोड़ देने की विपक्ष की शर्त स्वीकार करते हुए उनसे मुक्ति पा ली, उन्हीं को 'हुतात्मा' संबोधित किया गया हो और हो सकता है, उनकी इस शर्त को ही 'क्षमा याचना' कहा गया हो!

तो क्या? ऐसे हुतात्माओं को जिनके साहस, त्याग एवं व्रतनिष्ठा के पराक्रम से शत्रु के नेत्र भी चकाचौंध हो जाएँ, उन्हें ललकारते हुए 'तुम कारावास में ही मर क्यों नहीं गए?' इस तरह उसे टोकनेवाला यह वीरपुरुष कौन है और एवंगुण विशेष वीर कानपुर में जीवित होते हुए ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ जो वहाँ से केवल दो हाथ दूर है, अभी तक ज्यों-का-त्यों जीवित कैसे है? इस बात का हमें भय मिश्रित आश्चर्य हुआ और हम पल भर के लिए हक्के-बक्के रह गए।

शत्रु के चंगुल में फँसने पर शिवाजी से भी कारागृह में 'बेमौत मरने की' आत्महत्या की शूरता नहीं हो सकी। उसने निवेदन-पत्रों के न जाने कितने गढे भेजे होंगे। उसने औरंगजेब के चरणों में विनम्र प्रार्थना की, औरंगजेब को झाँसा दिया और उसकी छाती पर हिंदू पदपादशाही के सिंहासन का पग रखा, परंतु वह कायर! दिल्ली के उस कारागृह में अन्न त्याग करके सत्याग्रह करते हुए उसने मृत्यु को गले नहीं लगाया। उससे इतना साहस नहीं हुआ। औरंगजेब जो सिद्ध नहीं कर सका, उसे स्वयं मरकर सिद्ध कराने की बुद्धिमानी भला शिवाजी में कहाँ थी? अफजल खान के सामने तो वह हाथ जोड़ते हुए गया, जिन हाथों में व्याघ्र नख थे, वे हाथ जोड़कर। समझ में नहीं आता कि उस छलना को धिक्कारें या उस हाथ जोड़ती भीरुता को धिक्कारें! अहिंसा का कंकण हाथ में भरकर सत्य के नाम पर अपनी सेनाएँ कहाँ और कैसी दबी हुई हैं-उन सभी ठौर-ठिकानों को अफजल खान के सामने उजागर करते हुए उसके मार्ग में लेटकर अनशन करते हुए उसने सत्याग्रह क्यों नहीं किया-इस तरह कहीं कोई शिवाजी को टोकेगा तो नहीं, इस आशंका से हमें प्रतीत हुआ कि कितना अच्छा होता यदि शिवाजी सिर पर टोपी पहनता-शूरता की यह अनूठी युक्ति तथा धैर्यसूचक अपूर्व बुद्धि उस टोपी में छिपे हुए सिर के बिना किसी अन्य मस्तिष्क की उपज थोड़े ही बन सकती है? मैं उस कालखंड में होता तो शिवाजी तथा राणाप्रताप को सशस्त्र क्रांति के लिए दोषी ही समझता। यह जर्मनों को अंग्रेजों के लिए मारनेवाली अहिंसा को कुछ ही दिन पूर्व प्रकाशित कर कहा था। 'यंग इंडिया' के पाठक इस बात से परिचित होंगे।

परंतु अतीत के भंडार में छिपने से यद्यपि शिवाजी को मुक्ति मिल गई तथापि आजकल स्वतंत्रता युद्ध में वीरपक्ष का सम्मान जिन क्रांतिकारियों को प्राप्त हो गया है, उस दल में जिसका 'The morning star of Indian Independence', सरोजिनी ने प्रशंसा की और जिसे शत्रु भी 'The Prince of Indian Revolutionists' संबोधित करे, उस 'हुतात्मा' से लेकर कल के काकोरी के देशवीर रामप्रसाद बिस्मिल, सान्याल आदि को मारनेवाला, फाँसी पर मरे हुए अथवा जीवित फाँसी पर-आजन्म कारावास पर-लटकते हुए क्रांतिकारी हुतात्माओं तक सभी ने सरकार को निवेदन-पत्र भेजे हैं। फाँसी रद्द करो, इस तरह ब्रिटिशों के राजा को दया-याचना का निवेदन भी सत्येंद्र से लेकर काकोरी के रामप्रसादादिक हुतात्माओं तक सभी कर चुके हैं, परंतु उनसे 'ये निवेदन-पत्र भेजने की अपेक्षा मौत को गले क्यों नहीं लगाते?' इस तरह का कोई बुद्धिमान प्रश्नकर्ता उन्हें आज तक नहीं मिला। परंतु यह ज्ञात होते ही कि आज इस 'Prince of Indian Revolutionists' को भी टोकनेवाला व्यक्ति कानपुर में उत्पन्न हो गया है-वह नरपुंगव कौन हो सकता है, देखने में कैसा है, उसने ऐसे अभूतपूर्व पराक्रम कौन से किए हैं, इन प्रश्नों के कारण सभय आश्चर्यचकित होकर हम पल भर के लिए हक्के-बक्के से रह गए।

ऐसा प्रतीत हुआ, 'को एष संप्रति नवः पुरुषावतारो वीरो न यस्य भगवान् भृगुनंदनोऽपि!'

इतने में कलकत्ता के प्रसिद्ध 'स्वतंत्र' दैनिक के चार अगस्त के अंक में यह समाचार पढ़ा कि कानपुर के 'प्रताप' नामक समाचारपत्र के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी हैं। उन्होंने सरकारी कोर्ट की मानहानि करने के अभियोग से छुटकारा पाने के लिए क्षमा-याचना की। केवल खेद प्रदर्शन करके मुख्य न्यायाधीश छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे, तब 'Unconditional apology' (बिना शर्त क्षमा-याचना) करके सरकारी कोर्ट की दया पर अपने आपको छुड़ाकर 'क्षमस्व' कहते हुए सरकार की त्रिवार याचना की और सभी सरकारी व्यय भरकर अपनी जान छुड़ाई।

यह समाचार पढ़ते ही हमें तुरंत ऐसा प्रतीत हुआ, 'हाँ, जी हाँ! 'हुतात्माओं' को निवेदन-पत्र लिखकर कारागृह से मुक्ति क्यों पाई? मौत को गले क्यों नहीं लगाया? इस प्रकार टोकनेवाला वह 'नवः पुरुषावतारः' कानपुर का नरपुंगव इस 'प्रताप' का संपादक ही होना चाहिए। वह ठहरा नरपुंगव! अपने सिंह और 'केसरी' के नखाग्र, इनमें स्थित अंतर बिना अनुभव के भला उसे कैसे ज्ञात होगा?

क्योंकि हुतात्मा से 'तुम मर क्यों नहीं गए' इस तरह पूछने का साहस इसी तरह का कोई 'क्षुद्रात्मा' ही कर सकता है। 'Fools rush where angles fear to tread.'

स्वदेश स्वाधीनता के लिए जूझते समय शत्रु के फंदे में गरदन फँसाकर प्राणों पर बीतने का प्रसंग आने पर इसलिए कि पुन: इसी कार्य में जूझना संभव हो सकता है, शत्रु को चकमा देने के लिए काकोरी के किसी क्रांतिकारी ने ब्रिटिश सम्राट् से दया की भीख माँगने का पत्र भेजा, उसपर हँसने का साहस वही नरपुंगव कर सकेगा जो प्राणों की तो दूर की बात रही, एकाध वर्ष कारावास में पड़ने का क्षुद्र प्रसंग भी आते ही-राजा के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध पुकारने के भयंकर आरोप के भीषण दंड की बात भी दूर-सरकारी न्यायालय का अपमानकारक एक यःकश्चित् लेख लिखने का आरोप आते ही हड़बड़ाकर विपक्ष के तलवे चाटने लगा।

तथापि यह 'प्रताप संपादक!' हुतात्मा की ओर ईर्ष्या की जिस उलटी दूरबीन से देखने का साहस तुमने किया, उसी दूरबीन से तुम्हें देखने पर तुम कितनी और कैसी 'क्षुद्रात्मा' दिखते हो-यह केवल तुम्हें दिखाने के लिए उस दूरबीन का उपयोग हमने दुःखपूर्वक तथा निरुपायवश किया है।

और इसीलिए तुम से विदा लेने से पहले अब तुम्हारी उस यःकश्चित् ईर्ष्या से तड़की हुई दूरबीन दूर फेंककर हम कहते हैं कि आपने कोर्ट की क्षमा-याचना में जो किया है वह नीति उस स्थिति में कदाचित् सही भी हो सकती है। उन महान् हुतात्माओं का आदर्श आपने सामने रखा, तो आपको ज्ञात होगा कि 'कातर्य केवला नीतिः शौर्यं श्वापदचेष्टितम्। अतस्तपः समेताभ्यामुभाभ्यामन्वियेष सः।'

फिर भी नैनीताल के कारागृहवासी बंदियों पर हो रहे अत्याचारों के जिन आरोपों की पूछताछ न्यायालय में जारी है, उसके संबंध में आपने जो लिखा, वह लिखने में आपका उद्देश्य जनता का दुःख निवारण करना ही था और इस प्रकार इससे पूर्व भी कई बार आपके 'प्रताप' समाचारपत्र ने वहाँ की जनता की सेवा भूषणास्पद रीति से की है, इसका उल्लेख करना हम अपना कर्तव्य समझते हैं। क्योंकि जिस तरह अन्य लोगों का अनुकूल तथा प्रतिकूल दोनों पहलुओं पर विचार करके न्याय्य-बुद्धि से किया हुआ आचरण हमें अपेक्षित है उसी तरह हम भी अन्य लोगों से व्यवहार करने का यथासंभव प्रयास करते हैं।

महात्माजी के विषय में आपने जो लिखा, उसकी पूछ-परख आगे कभी करेंगे और वह भी तब, जब स्वयं गांधीजी ही उसके संबंध में पूछना चाहेंगे। महात्मा गांधी को हम जानते हैं और वे भी हमें जानते हैं। आज तक हम ही अपना सब देखते आए हैं, भविष्य में भी देखेंगे। किसी ऐरे-गैरे को उसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। अहिंसा को निर्लज्ज कहना और गांधीजी को भी वही कहना-दो भिन्न-भिन्न बातें हैं, इतना भी समझने का ज्ञान जिसे नहीं, उसके साथ कैसी चर्चा करें। महात्माजी को हम अवश्य उत्तर देंगे, पर आगे। आज वह महान् देशप्रेमी बारदोली के रणांगण में जिस नीति को अपनाकर लड़ रहा है वह नीति अभी तक कुशल सेनापति के लिए उचित ही होने के कारण और किसी भी राष्ट्रीय संघर्ष में यथासंभव हम सभी को कंधे से कंधा मिलाकर एकजान हो लड़ना युक्त होने के कारण इस समय हम वही शब्द बोलेंगे और वही आचरण करना चाहेंगे जो महात्माजी की सहकारिता तथा सहायतार्थ उपयुक्त हो। जहाँ राष्ट्रीय हितकारी सर्वनाश होता है वहीं प्रतिरोध करना अनिवार्य होता है और वह भी केवल राष्ट्र कार्य तक ही। व्यक्तिशः 'परैस्तु विग्रहे प्राप्ते वयं पंचशताधिकम्।' यही हम सभी की आदर्शोक्ति होनी चाहिए और हम उस प्रतिज्ञा का पालन करते हैं। क्या अब उस ऐरे-गैरे की खोपड़ी में यह बात घुसेगी?

३ अगस्त, १९२९

राष्ट्रीय सभा से अधिक सर्वपक्षीय सभा महान्

पं. मोतीलाल नेहरू कहते हैं, 'मैं राष्ट्रीय सभा से सर्वपक्षीय सभा को अधिक महत्त्वपूर्ण समझता हूँ।' एक तरह से वह सही है, क्योंकि सर्वपक्षीय सभा ही वास्तविक राष्ट्रीय सभा है, जिसमें राष्ट्र का संपूर्ण प्रतिनिधित्व प्रतिबिंबित होता है। क्रांतिकारी जब राष्ट्रीय सभा की पुरानी याचकशाही एवं खादीशाही की आज्ञाओं को 'राष्ट्रीय आज्ञा' के रूप में स्वीकार नहीं करते थे, तब वे इसी कारण का उल्लेख करते थे। सर्वपक्षीय परिषद् एक तरह से राष्ट्रीय सभा से अधिक राष्ट्र की वास्तविक प्रातिनिधिक संस्था है, उसका प्रस्ताव प्रागतिक न सही, पर प्रातिनिधिक अवश्य है।

परंतु वह प्रस्ताव नेहरू को कब और कहाँ सुनाई दिया? हमें तो यह प्रस्ताव पारित होने ही नहीं अपितु सर्वपक्षीय परिषद् संपन्न होने का भी समाचार नहीं मिला, न ही इसकी संभावना दिखाई दे रही है, क्योंकि हिंदुस्थान के अभ्युदयार्थ क्रांतिकारी पक्ष को, जो इन सभी पक्षों में आवेशपूर्ण है तथा अपने प्राणों की बाजी लगाकर जूझ रहा है, किसी भी परिषद् का निमंत्रण आया हुआ अथवा दिया हुआ, उसका एक पक्ष के रूप में अस्तित्व भी स्वीकारने का समाचार हमने नहीं सुना। और यदा-कदा क्रांतिकारी पक्ष इस 'सर्वपक्षीय' कहलानेवाली परिषद् में उस नाम में निहित अर्थ को ही निमंत्रण समझकर मंडप के दर्शनी द्वार से भीतर प्रविष्ट हो गया तो जाहिर है, ये प्रागतिक, जागतिक असहाय आदि सभी पक्ष उस मंडप के पिछले द्वार से, उसी द्वार से जहाँ से सूरत अधिवेशन में था, प्रमुख लोग अदृश्य हो गए-राह निकालकर गायब हो जाएँगे, यह स्पष्ट है।

क्रांतिकारियों का नाम तो दूर ही रहा। परंतु राष्ट्रीय सभा में पं. जवाहरलाल का स्वतंत्रता पक्ष भी असहनीय होने से निभाना कठिन हो गया है। अच्छा है, बेचारे जवाहरलाल का 'स्वतंत्रता संघ' भी स्वतंत्रता के साधनों का नाम नहीं लेता। क्या चाहिए? यह निश्चित करने के विवादों के ढोल बजाने के झंझट में 'किस प्रकार लिया जाए' इस विचार का उच्चारण अपने आपको भी सुनाई न दे, इस पुरातन परंपरा का आज तक सभी राष्ट्रीय पक्ष विपक्षों ने प्रामाणिकता के साथ पालन किया, उसका इस नवनीतम स्वतंत्रता संघ' ने बिलकुल उन्मूलन नहीं किया हमें अधिकार चाहिए'-नरमदल ने कहा। परंतु उन्हें हम कैसे हासिल करेंगे? यह कहना तो दूर, योजना बनाने की भी अदूरदर्शिता का प्रदर्शन उनमें से किसीने नहीं किया। स्वाधीनता चाहिए, परंतु क्या हम कोई सिरफिरे हैं कि उसे किस प्रकार प्राप्त करना है, इसका आचार और विचार करें। स्वाधीनता के साधन जुटाना तो चुटकी भर का काम है। ऐसे-जैसे-तैसे किसी भी तरह। देखा जाएगा जब विचार हो तब! सिरफिरे व्यक्ति के बिना ऐसा कौन अधीर एवं निठल्ला है जो उन साधनों की प्राप्ति के लिए प्रयास करेगा? बुद्धिमान लोग तो स्वाधीनता या स्वराज, इन शब्दों के उच्चारण-प्रत्युच्चारणों के घमासान में राष्ट्रीय सभा का पूरा सप्ताह लरजता-गरजता रखें कि बस!

तथापि जिस प्रकार वैदिक प्रक्रिया से पहले वैदिक मंत्रों का सही उच्चारण आश्वयक होता है, उसी तरह ध्येय का उच्चारण 'वर्णस्थान समीरित' इस प्रकार अब लोग सही-सही करने लगे हैं। इसके लिए युवा पं. जवाहरलाल को तथा वृद्ध पंडित आयंगार को धन्यवाद देना चाहिए। उन्होंने गुप्त यज्ञ की यज्ञाग्नि से अभिभूत उस महामंत्र को राष्ट्रीय सभा के सिंहासन पर बैठाया।

परंतु इससे राष्ट्रीय सभा के सिंहासन पर जो परतुष्टिकारी कुलक्षणी विपदा आज तक बैठी थी, वह भय तथा कष्ट से जल-भुन गई--यह स्वाभाविक ही था। इसलिए ऐसी सावधानी बरतनी होगी कि और एक-दो वर्ष राष्ट्रीय सभा के सिंहासन पर यह कुलक्षिणी झपट्टा न मारे। स्वाधीनता का महामंत्र राष्ट्रीय सभा के ध्वज पर राष्ट्रीय सभा के सिंहासन पर, राष्ट्रीय हृदय की वेदी पर, सतत उद्घोषित रहना चाहिए। 'अन्यथा वह डायन परवशता करेगी निश्चित ही घात' कवि गोविंद की यह सावधानी हमें विस्मृत नहीं करनी चाहिए।

इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि युवा जवाहरलाल स्वतंत्रता के दीक्षित बन गए, पंरतु आश्चर्य इस बात का है कि श्रीमान आयंगार जैसे वृद्ध 'ऋषिः पुराणो' इस उपाधि के लिए अपनी ध्येयनिष्ठा के कारण पात्र हो गए।

कुछ लोग संदेह प्रकट करते हैं कि आयंगार पहले सरकार के एडवोकेट जनरल थे। होंगे। पहले राष्ट्रीय सभा के नेता देशभक्ति के सोपान पर चढ़कर राष्ट्रीय सभा के अध्यक्ष पद की सीढ़ी से सरकारी परवशता के हाईकोर्ट जज के स्थान पर पग रखते थे। आज आयंगार उस सरकार की परवशता की सीढ़ी से उतरकर राष्ट्रीय सभा के अध्यक्ष होकर पश्चात् हाईकोर्ट जज का स्थान ग्रहण करने की परंपरा की अपेक्षा प्रथम एडवोकेट जनरल होते हुए भी उस पाश से मुक्त होकर फिर स्वाधीनता के दिव्य ध्येय की ओर चढ़ रहे आयंगार की परंपरा अधिक अनुकरणीय है।

आयंगार ने स्वाधीनता के ध्येय का हठ किया, उसे देखकर कोई कहते हैं, इससे राष्ट्रीय सभा में फूट पड़ेगी। नेहरू-प्रतिवृत्त को सहर्ष सम्मति दी जाए। वह सम्मति स्वतंत्रतावादियों को भी अस्थायी उपाय के रूप में देना उचित है; परंतु इसलिए यदि कोई मद्रास की राष्ट्रीय सभा में सम्मत स्वतंत्रता का ध्वज नीचे खींचने का प्रयास करे तो फूट के हौवे से न डरते हुए राष्ट्र के सभी युवकों को श्रीमान स्वतंत्रतावादी आयंगार के नेतृत्व में जूझते हुए इस आपत्ति को टालना चाहिए। एकता राष्ट्रीय हिताय आवश्यक है, राष्ट्रीय विमोचनार्थ भी आवश्यक है, परंतु इंग्लैंड के साम्राज्य के रथ के पहिए से राष्ट्र को सदैव बाँधे रखने के लिए नहीं।

पचास आलसी, निकम्मों का एका हो, इसलिए स्वयं भी अधोगामी निठल्लापन मोल लेने की अपेक्षा सब मिलकर राष्ट्रीय उद्धारार्थ परिश्रम करना अधिक अच्छा है। दस भीरुओं से एकता के लिए गठजोड़ करके स्वयं भीरु होने की अपेक्षा अकेले में उन सभी में फूट डालकर राष्ट्र के लिए यथासंभव साध्य पराक्रम करने के लिए निठल्ले निकल पड़ना श्रेयस्कर है। 'मेरी जन्मभूमि इंग्लैंड के साम्राज्य की मुहर लगी दासी ही रहेगी।' यह प्रतिपादन करने के लिए करोड़ों के साथ एकता करने से अच्छा है उस संपूर्ण बुद्धिभ्रष्ट जगत् से स्पष्ट रूप में अनैक्य करते हुए अकेले ही गर्जन-तर्जन करना। मेरी यह जन्मभूमि किसीकी दासी नाममात्र के लिए भी नहीं रहेगी। किसी अन्य की मुहर उसकी राजमुद्रा पर वह कदापि नहीं सहेगी। वह स्वतंत्र होना चाहती है अन्यथा जूझते हुए मरना चाहती है। मुझे तो उसका यही संदेश मिला है।

पहले सूरत अधिवेशन में इसी एकता के बुरके की आड़ में 'स्वराज्य' के प्रस्ताव का गला घोंटा जानेवाला था, परंतु तिलक ने यह कहते हुए कि जो राष्ट्रघात करती है वह एकता ही फूट है-राष्ट्रहितकारी फूट को ही स्वीकार किया और 'स्वराज्य' का ध्वज नहीं गिरने दिया। उसी प्रकार स्वराज्य का अर्थ है-इंग्लैंड की परिधि के अंतर्गत एक उपग्रह का पराधीन अस्तित्व बिना सेना, बिना हवाई जहाज, बिना जल सेना, बिना राजमुकुट इस प्रकार पंगु रियासती अस्तित्व ऐसी परिभाषा जब होती है तब हजार नहीं, लाख लोग भी उस भ्रम में पड़ जाएँ और कहने लगें-एकता के लिए तुम भी इसी प्रकार भीरुता को पूर्ण अक्कीपन स्वीकार करो तो इसमें से तुरंत अलग होकर स्वतंत्रता के ध्येय का ध्वज उठाने के लिए अपने अकेले हाथों से तब तक संघर्ष करना होगा जब तक अपना मस्तक शरीर से अलग नहीं होता। इन परिस्थितियों में एकता ही पाप है-फूट ही पुण्य...

मुसलमानों से एकता करते हुए खिलाफत का संकट मोल लेनेवाले सज्जनों ने ही आज भी इस एकता के नाम पर स्वाधीनता विरोधी हुआँ-हुआँ शुरू की हुई है। राष्ट्रीय सभा को परनिर्भरता का जो ग्रहण लगा हुआ था वह मद्रास में छूट गया था, उसकी पुनरावृत्ति न हो, इसके लिए सभी स्वतंत्रतावादी कलकत्ता में श्री आयंगारादि नेताओं का समर्थन करें।

सुना है, आयंगार नेहरू से नेतृत्व छीनने के लिए ही स्वतंत्रता की जय जयकार कर रहे हैं, परंतु उससे क्या बिगड़ेगा? गोखले-मेहता का नेतृत्व न सहने के कारण ही तिलक स्वदेशी अफवाह बहिष्कार का डंका बजा रहे थे-इस प्रकार की अफवाह तब शोर मचा रही थी न!

परंतु चूँकि उससे ही राष्ट्रहित साध्य हो गया, इसलिए तिलक के पास ही नेतृत्व जाना उचित सिद्ध होता है। वही स्थिति आज है। यदि मोतीलाल नेहरू स्वाधीनता के प्रस्ताव को विफल बनाने के लिए सोचेंगे-प्रायः वे ऐसा कुछ नहीं करेंगे-तो वे अथवा कोई और अंग्रेजों के ऋणानुबंध से दब्बू बने लोग वैसा करेंगे तो स्वाधीनता के नाम पर आयंगार द्वारा उनका नेतृत्व छीनने का प्रयास करना उचित ही होगा। वे जो नेतृत्व छीनने की कामना करते हैं, वे जो उसे हाथ से निकलने न देने के लिए एड़ी-चोटी एक करते हैं-दोष नहीं दे सकते।

१३ दिसंबर, १९२९

लालाजी पर लाठी प्रहार

देशवीर लाला लाजपतरायजी को निहत्थी अवस्था में घेरकर हीन-दीन दुर्बल स्वदेश बांधवों के दु:खों का परिहार करने का प्रयास करने के पाप के कारण अंग्रेजों की उन्मत्त लाठियों ने घायल किया।

परंतु लालाजी को मारपीट करके ही वे रुक जाते तो उनके ईसाई धर्म की पुस्तक के वचनों का आधा ही अनुसरण होता। ईसाई धर्मग्रंथों में लिखित भविष्य अक्षर-अक्षर सत्य सिद्ध करने का पुण्य उन्हें नहीं मिलता। 'Prophets of old' ने जो कहा वही सत्य हो 'Should come to pass' कहकर लालाजी को मारपीट करने के पश्चात् अंग्रेजों ने एक कमेटी नियुक्त की। 'हमने किसीकी इस तरह मारपीट नहीं की' कहते हुए वे लालाजी से पूछने लगे, 'आप ही बताइए, आपको किसने मारा? देखें, आप सही-सही पहचान सकते हैं या नहीं? देखें तो सही, आप उतने बुद्धिमान तथा धैर्यशाली हैं या नहीं!'

'For all this came to pass as foretold.' क्योंकि यह सब उनके धर्म पुस्तक में, वह बाइबिल में जो ग्रंथित किया है वह उसी तरह हो गया। वे ईसाई अधिकारी बाइबिल पर विश्वास करते थे। उस पढ़ाई का, उस इतिहास का, अक्षर-अक्षर आचरण में लाना ईसा के भक्तों का कर्तव्य था।

अत: 'बॉइड कमिटी' नियुक्त की गई। क्योंकि बाइबिल में उनके इस कृत्य का जो भविष्य कथन पहले से ही सही-सही किया गया था उसमें स्पष्ट रूप से कहा है, 'They then spat at him in his face and did buffet him. They smote him in the face with the palms of their hands and jeeringly asked; prophesy unto us, oh christ, who of us smote thee!'

इस यमक ने साइमन के आगमन के अवसर पर मारपीट का तथा बॉइड कमेटी का भविष्य कितना सही-सही कथन किया है। सत्य ही बाइबिल भविष्यवादी ग्रंथ है। अंग्रेज सरकार सत्य ही ईसाई ही है। और उपर्युक्त भविष्य परसों की घटना का ही होने के कारण उपर्युक्त बाइबिल प्रणीत वचन में संबोधित 'क्राइस्ट' शब्द लालाजी को संबोधित किया है, क्योंकि बॉइड कमिटी ने उसी वचन में पूछा है-Prophesy unto us, Oh Lalaji, who of us smote thee!

२० दिसंबर, १९२८

काशी में मर्कट महासम्मेलन और ठूँठ महासम्मेलन

पिछले दो महीने पूर्व काशी में जो दो महासम्मेलन एक ही समय संपन्न हुए उनकी विस्तृत जानकारी अब पाठकों को ज्ञात हो गई होगी।

उनमें से ज्ञानवापी के निकट आयोजित पहला महासम्मेलन--मर्कट सम्मेलन है और दूसरा महासम्मेलन अज्ञानव्यापी के निकट आयोजित ब्राह्मण महासम्मेलन था। उसे तनिक प्राकृत भाषा में सुविधाजनक ढंग से कहना हो तो पहले को 'मर्कट महासम्मेलन' और दूसरे को 'ठूँठ महासम्मेलन' कहा जा सकता है।

मर्कट महासम्मेलन से संबंधित जो खबर काशी के समाचारपत्रों में छपी है वह सारांश रूप में इस तरह है-कुछ दिन पूर्व काशी में बिजली के तार सड़कों में लगाए गए। इससे पूर्व सीधे तारों पर फिर वे चाहे किसी बाड़ के हों, जाली के हों, पूर्वापर परंपरा से उनपर काशी के मर्कट जन बैठते थे। तारों पर बैठना, उनसे लटकना, यह मर्कटों का जाति स्वभाव ही बन गया था। उससे उन्हें किसी भी प्रकार की हानि न होने के कारण इस कृत्य की इस रूढ़ि की उनकी ज्ञाति-स्मृति में आज तक शिष्टाचार के रूप में गणना की जाती थी। जब बिजली के तार नए-नए आए, तब उन तारों में छिपी बिजली से अनभिज्ञ होने के कारण अपनी शिष्ट सम्मत रूढ़ि के अनुसार बंदर उसपर लटकने लगे, परंतु बिजली के झटके खाने से अचानक उनमें खलबली मची। पहले-पहले उन्हें यह बात बिलकुल समझ में नहीं आ रही थी कि ये दुर्घटनाएँ कैसे होती हैं। अंत में अतर्व्य संकटों के बारे में चर्चा करें और उनपर सर्वानुमतों के अनुसार कुछ उपाय ढूँढें। इसलिए काशीवासी मर्कटों ने अपनी जाति का एक महासम्मेलन आयोजित किया। सैकड़ों मर्कट एक मैदान पर इकट्ठा हो गए। उनमें पता नहीं कितनी बार अपनी मर्कट भाषा में गिटपिट, कैसा निर्णय लिया गया, परंतु उनमें से एक वृद्ध कपि उछलता-कूदता बाहर निकला, समस्त सभा उसकी ओर टकटकी बाँधे खड़ी थी। वह धीरे से उन नए तारों के खंभे पर चढ़ गया। फिर धीरे-धीरे हाथ आगे बढ़ाता हुआ वह उस खंबे से ही उन तारों को जल्दी-जल्दी स्पर्श करने का प्रयास करने लगा। अर्थात् उसे कुछ झटके खाने पड़े। वह तुरंत उस खंबे से उतरा। पुन: अपने जाति सम्मेलन में लौटा। पुन: कुछ गिटपिट हो गई और उस दिन से अचानक सभी बंदरों ने उस प्रकार के तारों पर चढ़ना छोड़ दिया। यह वृत्तांत हम कपोलकल्पित रूप में केवल मनोरंजनार्थ नहीं बता रहे, यह सत्य घटना है-यह वे लोग जानते हैं जो समाचारपत्र पढ़ते हैं।

उपर्युक्त घटना जैसी दिखाई दी, उसी तरह स्थूल रूप से समाचारपत्रों ने प्रकाशित की। उसे पढ़कर इस उद्देश्य से कि उन बंदरों की सभा को सूक्ष्म हेतु का बोध हो, हमने अपने विशेष संवाददाता श्री मनकवडे (जो मन की बात जानता है) को उधर भेजा था। उन्होंने उन मर्कटों के मन में प्रवेश करके उस सभा के संबंध में जो अधिक जानकारी भेजी, वही हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। अर्थात् पाठक उसे कल्पित समझ बैठें तो हमें कोई आपत्ति नहीं। क्योंकि ऐसा नहीं कि श्री मनकवडे की तरह मन की बात जानने की शक्ति सभी के पास होती है। वे लिखते हैं, आज तब निरुपद्रवी साबित तारों पर ये दुर्घटनाएँ क्यों होने लगीं, यह ज्ञात न होने से बंदरों ने उस महासम्मेलन का आयोजन किया था। उनमें एक बंदर का जिसका नाम हनुमान था, सुझाव था कि कदाचित् उन तारों में कुछ हानिकारक पदार्थ भर दिया हो। हो सकता है कि ये तार आज तक के तारों से अलग हों, उसका भाषण सुनकर उनमें से पुच्छवान नामक एक अन्य बंदर ने तुनककर कहा, 'कदापि नहीं! यह तो विपरीत शंका है। तारों में इस तरह भयंकर तार होने की आशंका होती तो अपने त्रिकालदर्शी स्मृतिकारों ने हमें पहले ही नहीं बता दिया होता! तार देखते ही उसपर चढ़ना, लटकना अपने इस जाति नियम का पालन आज हजारों वर्षों से हम अबाधित रूप से करते आए हैं, परंतु ऐसी दुर्घटनाएँ कभी नहीं हुईं। अतः तारों पर संदेह करना व्यर्थ है, हमारे त्रिकालदर्शी पूर्वजों का तथा सनातन स्मृतिकारों का अपमान है। उस क्रुद्ध कपि ने, जिसका नाम शीर्षवान था, कहा, 'अपने इस आक्षेपक का उसके माता-पिता ने जो 'पूच्छवान' नाम रखा, वह निस्संदेह ही उचित है। इसके इस मूर्खतापूर्ण आक्षेप से स्पष्ट है कि यह महाशय अपनी पूँछ की ओर से सोचता है, न कि शीर्ष की ओर से। इसका उत्तमांग पुच्छ है, न कि मस्तक। हे मूढ़ कपि, तुम ही कहते हो, देख रहे हो कि आज ऐसी दुर्घटनाएँ घट रही हैं जो इससे पहले कभी नहीं हुई थी, जबकि हमें आज नवीन दुर्घटनाएँ सहनी पड़ रही हैं, जिनके संबंध में हमारे त्रिकालदशी पूर्वजों ने स्मृति में कुछ भी नहीं कहा और आज तक अपनी जाति को कुछ भी ज्ञात नहीं, तब उन दुर्घटनाओं को स्वीकार करना भी उन स्मृतिकारों का अपमान जैसा ही है? और यदि नई दुर्घटनाओं को स्वीकार करते हो तो इस दुर्घटना की नई चिकित्सा करना, यह भी प्राचीन स्मृति का अपमान नहीं है, यह तुम्हें स्वीकार करना ही पड़ेगा। बस, हमें एक बार यह अजमाना होगा कि ये तार अन्य तारों से कहीं नए एवं अधिक भयंकर तो नहीं। मैं आगे बढ़ रहा हूँ और आप लागों के सामने ही देख आता हूँ कि इन नए तारों में ही दुर्घटना का कारण तो छिपा नहीं? समाज कल्याणार्थ मुझे उससे झटके खाने पड़े अथवा उन झटकों से मेरी मृत्यु हो भी गई तो चिंता नहीं। उस शीर्षवान बंदर का कथन सुनकर सभी ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और उसे उस कार्यार्थ भेजा। जैसाकि ऊपर के समाचार में कहा है, उसने उन तारों पर प्रयोग करके निश्चित किया कि ये तार नए ढंग के हैं, इनमें कुछ भयंकर विस्फोटक द्रव्य होने के कारण उन्हें स्पर्श न करने की नई रूढ़ि बंदरों को शुरू करनी होगी, तभी वे सुरक्षित रहेंगे। उसने अपना अभिप्राय सभा में सूचित किया-'अब परिस्थितियाँ बदल गई हैं। अब तारों को निर्दोष समझने की पुरानी रूढ़ि में परिवर्तन कर इस प्रकार के तारों को शत्रुवत् समझने का नया नियम अपनी स्मृति में समाविष्ट करना होगा।'

'स्थितियाँ बदल चुकी हैं' शीर्षवान के ये शब्द सुनते ही पुच्छवान ने क्रोधित होकर कहा, 'कैसी बात करते हो? 'परिस्थितियाँ' शब्द शास्त्रबाह्य है। परिस्थितियाँ कैसी हैं, उनमें परिवर्तन हुआ या नहीं, इसका विचार करना मर्कट धर्म के विरुद्ध है।' उसका कथन सुनकर सभी बंदर जोर-जोर से हँसने लगे, उन्होंने कहा, 'परिस्थितियों में हो रहा परिवर्तन विचाराधीन न समझने का व्रत रखने के लिए क्या हम कोई काशीवासी राजेश्वर शास्त्री हैं? अजी यह पुच्छवान कुछ नहीं समझता। मानव कहीं का!' इस प्रकार धिक्कार ध्वनि उभरते ही पुच्छवान भी खिसिया सा गया और सभी बंदरों ने नए तारों को स्पर्श न करने का नया नियम करके बदली हुई परिस्थितियों का सामना किया।

इधर यह मर्कट-सम्मेलन संपन्न हो रहा था और उधर काशी के कुछ चुनिंदे ब्राह्मण ठूँठ सम्मेलन का आयोजन कर रहे थे। हिंदुस्थान के कई ब्राह्मण उधर संगठित हो गए थे। उनके पारित किए हुए प्रस्ताव अब महासम्मेलन के प्रस्ताव के रूप में सर्वत्र प्रसिद्ध हो हो चुके हैं। मर्कट महासम्मेलन में पुच्छवान मर्कट की असम्मत निषेधात्मक सूचना इस ठूँठ महासम्मेलन में सम्मत हो गई। उसमें जब एक शीर्षवान अनुयायी ने कहा, 'बदली परिस्थितियों का सामना करने के लिए ऐसा शास्त्रार्थ चाहिए जिससे हम समर्थ होंगे। केवलं शास्त्रमाश्रित्य न कर्तव्यो विनिर्णयः। युक्तिहीन विचारे तु शास्त्रहानि प्रजायते।'

तब वह स्मृति श्लोक सुनाई न दे, इसलिए उस ब्राह्मण सम्मेलन में सभी ने एक ही रट मचाकर कहा, 'कदापि नहीं। 'परिस्थितियाँ' शब्द शास्त्रबाह्य है।' 'परिस्थितियाँ', 'परिवर्तन', 'विचार' इन शब्दों का विचार भी हमारे विचाराधीन नहीं हो सकता। इस प्रकार संस्कृत भाषा में चिल्लाकर उन प्राकृतों ने यह प्रस्ताव किया कि 'परिस्थतियों के परिवर्तन पर विचार करना पाखंड है।' इस प्रकार यह ज्ञात हो गया कि मनुष्य की इस सभा में मर्कटों की सभा की अपेक्षा पुच्छवान के अनुयायियों की संख्या अधिक थी।

परंतु इस ब्राह्मण महासम्मेलन के प्रस्ताव के कारण डार्विन के विकासवाद पर बड़ा आघात हो गया। परिस्थितियों में परिवर्तन पर विचार करके उसीके अनुसार जो जातियाँ और जो व्यक्ति अपने-अपने व्यवहारों में परिवर्तन करते हैं और उसके अनुसार जीवनयापन करते हैं, विकसित होते हैं। विकासवाद (Evolution) की इस व्याख्यानुरूप डार्विन आदि वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया कि बंदर का उत्तरोत्तर विकास होते-होते उसका मनुष्य बन गया; परंतु काशी के मर्कट महासम्मेलन में तथा ठूँठ महासम्मेलन के यह ताजे समाचार विकासवाद की परिभाषा के अनुरूप मनुष्य मर्कट का विकसित रूप है-अपने इस सिद्धांत का अपवाद है, इसका ज्ञान विकासवादियों को होना स्वाभाविक ही है। क्योंकि मर्कट परिस्थितियों के परिवर्तन को अपने आचरण में परिवर्तन करते हुए सामना करते हैं और मनुष्यों में ही ऐसे प्राणी उत्पन्न होते हैं जो परिस्थितियों पर विचार नहीं करते। अर्थात् कम-से-कम काशी के ठूँठ महासम्मेलन के ये पंडित मर्कटों की विकसित श्रेणी नहीं हैं, मर्कट ही उन पंडितों के विकसित होते-होते श्रेष्ठत्व तक पहुँचे हुए रूप हैं, इसी तथ्य को स्वीकार करना अनिवार्य है।

१९ जनवरी, १९२९

बंबई का दंगा-फसाद

हो गया! आखिर बंबई में दंगा हो गया। भड़का और शांत हो गया। उत्पत्ति, स्थिति और विलय, इन तीनों अवस्थाओं से वह गुजर चुका था-जो प्रत्येक पदार्थ मात्र को भुगतनी पड़ती हैं। अब शमन होने के उपरांत अंत्येष्टि विधि संस्कार की चिता का दिव्य ही शेष रहता है, दंगे का शव चिता पर रखकर उसमें तब तक ईंधन डाला जाता है जब तक वह भस्मावशेष नहीं रह जाता। बस, अब केवल इतना ही देखना शेष है कि गेहूँ के साथ घुन भी कितना पीसा जाता है।

माना कि बंबई में दंगा हो गया, परंतु यह क्या? अभी तक बंबई में कितने हिंदू जीवित हैं? किंबहुना यही गिनना आसान है कि कितने मरे, शेष सारे ही जीवित हैं। इतनी बड़ी संख्या में जीवित हैं कि पूर्ववत् उनकी सहज गिनती नहीं हो सकती। अहो आश्चर्यम्!

क्योंकि जब से संगठन का आरंभ हुआ और विशेषतः नेहरू प्रतिवेदन आ जाने के पश्चात् प्रलय के संबंध में बड़े-बड़े मुसलमानी पैगंबर सतत भयंकर भविष्य बता रहे थे। शौकत अली की धधकती हुई जीभ ने कहा, 'हिंदू आज मुझे चिढ़ा रहे हैं? अब जल्दी ही उनका घमंड चूर-चूर होगा। हिंदू जन हो, नेहरू प्रतिवेदन सम्मत कर रहे हो न! War to the knife! खंजर से खंजर भिड़ेगी, इतना कड़ा संघर्ष होगा।' मोहम्मद अली ने कहा, 'हिंदू किस झाड़ की पत्ती है!' मुसलिम आउटलुक ने कहा, 'यदि आवश्यकता ही पड़ जाए तो पठानों को भीतर बुलाकर हिंदुओं की छाती पर पाच्छाई खड़ी करेंगे।' अन्य मुल्लाओं एवं मौलवियों के धार्मिक आदेशों तथा बहकावों की तो गिनती ही नहीं की जा सकती। उनमें मतभेद एक ही बात पर होता था कि साधारणत: लड़ाई में एक मुसलमान कितने हिंदुओं के बराबर होता है, उसका खंजर घमासान युद्ध में कितने हिंदुओं के प्राण ले सकता है।'

कुछ विशेषज्ञों का कहना है, 'एक मुसलमान पाँच हिंदुओं को जान से मार सकता है।' किसीने कहा, दस, किसीने पचास, किसीने कहा, सौ। इनका तथा अन्य गणितज्ञों का औसत निकालकर हमने यह सिद्धांत बनाया कि एक मुसलमान कम-से-कम २८.६ हिंदुओं के लिए भारी होगा ही। वह भी हिंदुस्थानी मुसलमान! लोग हिंदुओं की छाती पर बादशाही की स्थापना करना चाहते हैं, उस एक पठान के लिए सौ हिंदू चटनी के लिए भी पूरे नहीं पड़ेंगे। उपर्युक्त सिद्धांत खुले तौर पर उपसिद्धांत था। कलकत्ता में घटित मुसलमानों के खुले (Public) अथवा गुप्त सभा सम्मेलनों में व्यक्त ये भयंकर भविष्य जनवरी में एक के पीछे एक हमारे कानों से टकराने लगे कि अब यह कहा नहीं जा सकता कि हिंदू जगत् पर प्रलय कब गुजरेगा। उस दिन हिंदुओं की पृथ्वी घूमना छोड़कर भय से थरथर काँपती रहेगी।

इतने में समाचार-पर-समाचार आने लगे कि बंबई में पठान तथा हिंदुओं में मुठभेड़ हो गई। शौकत अली ने कहा, 'यही आग हिंदू-मुसलमानों के दंगे का रूप धारण करेगी' और वही हुआ। पठान, शेख, सैयद, शिया, सुन्नी सारे मुसलमान एक हो गए। सत्य ही खंजर-खंजरों का घमासान युद्ध छिड़ा। हजारों मुसलमानों की टोलियाँ हिंदुओं की हत्या करने लगीं- 'टाइम्स' के स्तंभ इस प्रकार भरते हुए देखकर पूरे हिंदू जगत् की जैसे कमर ही टूट गई। ऐसा प्रतीत होने लगा, यही है वह हिंदू जगत् पर टूटनेवाला कहर जिसके आगमन का चारों ओर डंका बज रहा था। आखिर प्रलय आ ही गया। हर मुसलमान जो कम-से-कम २८.६ हिंदुओं से जन्मजात ही अधिक शक्तिशाली है, छुरों के साथ हजारों की टोलियों में निकल पड़ा है। अब बंबई में भला हिंदू शेष कहाँ रहेगा? लाख बार गणित करके देखा-यही एकमात्र उत्तर! अब बंबई हिंदू विरहित होगी। पठान भी मिल गए। अर्थात् अब मुसलिम बादशाही भी हिंदुओं की छाती पर पुनः प्रस्थापित होगी। 'भवितव्यता बलीयसि' इस प्रकार आहें भरकर हम इस तरह सीना तानकर खड़े रहे कि वह उस उभरते मुसलिम बादशाह के तख्त की पहली सीढ़ी बने।

इतने में हर रास्ते पर पठान दिखाई देने लगे, परंतु वे अपनी जान बचाकर भाग रहे थे, गिर रहे थे, मर रहे थे और हाथ में जो भी शस्त्र मिलता रहा उसे उठाकर हिंदुओं की टोलियाँ उनके पीछे लगी हुई थीं; परंतु मन में सोचा, इस तरह हिंदुओं के सामने पहले गिरते, पड़ते, मरते वे अचानक उनपर उलटकर उनका सर्वनाश करने पर तुल गए। हो सकता है, पठानों ने कोई कूटनीति अपनाई हो। इतने में 'तोबा-तोबा' का आक्रोश सुनाई दिया। देखा तो शौकत अली चीख रहे थे, 'मेरे पठान मारे जा रहे हैं। हिंदू लोग उनका शिकार कर रहे हैं। सरकार, दौड़ो! पुलिस दौड़ो! मुसलमानो दौड़ो! तोबा! तोबा!'

सोचा, अरे मुसलिम बादशाही हिंदुओं की छाती पर स्थापित करने की आशा का यही (पठान) तो एकमात्र आधार हैं, वे और हिंदू उनका शिकार कर रहे हैं। खंजर-खंजरों का घमासान लरजता-गरजता यह दमकल इस तरह अचानक कराहने लगा है। अरे, एक पठान दिखते ही हिंदुओं की पूरी-की-पूरी चाल बंद कर लेनेवाले हिंदू पठानों का शिकार करते हुए रास्ते-रास्ते में दिखने लगे, यह कैसे संभव हो सकता है? एक मुसलमान तो २८.६ हिंदुओं के बराबर है!

अच्छा चलो, पठानों का शिकार कर ही डाला, परंतु मुसलमानों की मुख्य आपत्ति यह है कि हिंदुओं ने जिन पठानों की हड्डी नरम की, वे मुसलमान हैं। केवल पठान नहीं। इस पर हिंदुओं का क्या कहना है? हिंदुओं की यह अक्षम्य भूल थी। हर पठान को मूर्तिमंत अत्याचारी समझकर न मारते हुए उसकी मुसलमानी छोड़ केवल पठानियत को ही उन्होंने क्यों नहीं मारा? संपूर्ण पठान को ही वे ॐ स्वाहा करने लगे। मुसलमानी अंश को तो उन्हें खाली बाहर करना था। इसलिए मुसलमानों को भी इन दंगों में उतरना ही पड़ा और वह लरजता-गरजता खंजर खंजरों का घमासान युद्ध, जिसका चारों ओर डंका बज रहा था-आज ही हो जाने दो-इस विचार से मुसलमानों ने रणसिंघा फूँका। अच्छा! इतने पर ही हिंदुओं की आँखें खुलनी चाहिए थीं। मुसलमानों की परिपाटी के अनुसार छुरा निकलते ही हिंदुओं को उस पुरातन परिपाटी के लिए, राष्ट्रीय एकता के लिए, कम-से-कम उस २८.६ हिंदू=१ मुसलमान-इस सूत्र के सम्मान के लिए तो फटाफट अपने सिर आगे करने चाहिए थे न? हम मुसलमानों पर बड़ी भीड़ इकट्ठी करके दंगा करने का दोष है न? जब इस दंगे का पठान-कामगार स्वरूप लुप्त होकर हिंदू मुसलमानी स्वरूप आ गया, तब एक मुसलमान दिखते ही २८.६ हिंदू झट से आगे बढ़कर अपने सर आगे क्या करते? सौ-सौ मुसलमानों के 'दोस्त, अपनी गरदन काटने दो' ऐसी न्यायसंगत माँग करते रहने पर भी, एक-एक हिंदू उलटे उन्हीं पर पत्थर फेंकता दिखे तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है कि मुसलमानों की २८.६ की धर्मभावना को ठेंस पहुँचकर वे आग लगाते गए। कितना घोर अन्याय!

इतने पर ही बात समाप्त नहीं हुई। आजकल हिंदुओं पर संगठन का जो भूत सवार है, उससे उन मूर्खों ने भी हजारों की संख्या में संगठित होकर मुसलमानों पर प्रति आक्रमण किया। अच्छा हुआ, कम-से-कम वह शांति समिति तो निर्मल राष्ट्रीय ध्वजा थामकर हिंदू रक्तपात की झाड़ियों के साथ 'हिंदू-मुसलमान की जय' के नारों की झड़ियाँ भी लगाती रही।

शुक्रवार की रात की यह 'हिंदू-मुसलमान की जय' और मालाबार की उस रात में मोपलों की 'स्वराज्य की जय' ये दोनों जय-जयकार हमारे इतिहास में चिरस्मरणीय होंगे। दुर्भाग्यवश बंबई में एक ही शांति समिति थी। अतः शुक्रवार की एक ही रात वह 'हिंदू-मुसलमान की जय' की गर्जना से राष्ट्रीय एकता को अंशत: क्यों न हो उद्घोषित कर सकी। यदि इस प्रकार की दस-पाँच शांति समितियाँ होती तो कम-से-कम हिंदू तो शांत होते। बिलकुल सौ प्रतिशत शांत श्मशान-शांति! और फिर 'हिंदू-मुसलमान की जय' के अंतर्गत 'हिंदु' शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र के नियम से लुप्त होकर केवल 'मुसलमान की जय' शेष रहता और राष्ट्रीय एकता प्रस्थापित करने की तथा स्वच्छ मुसलिम बादशाही प्रस्थापित करने की युद्धकला विशारद खिलाफत समिति के अंतर्गत खलीफाओं की-इस प्रकार दोनों आकांक्षाएँ एक साथ कम-से-कम बंबई के लिए तो सफल हो जातीं।

परंतु उस संगठन ने राष्ट्रीयत्व के मुख पर कालिख पोती। ये अपने देशबंधु हैं इसलिए मुसलमानी छुरों के बलि होने की बजाय वे उलटे मुसलमानों से ही कहने लगे, हम हिंदू ही आपके देशबंधु होने के नाते आप ही मुँह से चूँ तक न करते हुए हमारे छुरे के शिकार बन जाओ। और हिंदुओं ने मसजिदों पर धावा बोल दिया, गली-गली में मुसलमानों की छाती में छुरा घोंपकर कुछ समय तक कुछ इलाके खाली कर दिए, हजारों मुसलमानी रुपयों की लूटमार की, उत्तरी पुरभैये ट्राम रोककर पठान देखते ही उसे खींचकर मारने लगे, क्योंकि उन्हें 'जुम्मे रात' का प्रतिशोध लेना था। मुसलमान देखा और मारा। हिंदू जो ठहरे! जहाँ बहक जाएँगे उधर बहकते ही जाएँगे। चार-पाँच वर्ष पहले स्वयं ही मरते रहते थे। अब बस, मारने पर उतारू हो गए हैं। क्या किया जाए! दुर्भाग्य 'हिंदू-मुसलमान की जय' का! और क्या? मोपलों के (मालाबारी लोगों के) विद्रोह के समय राष्ट्र का नेतृत्व खिलाफत धुरंधर गांधीजी ही कर रहे थे, उसी तरह आज भी बंबई में होता तो मोपलों की उस औरंगजेबी धाँधली में जिस तरह एक या दो हिंदू कहीं पर बलात्कर से धर्मच्युत हो गए कहा गया था, उसी तरह ही बंबई में 'एक या दो हिंदू कहीं पर' मर जाते और हिंदुओं के इस पाप के लिए कुछ राष्ट्रीय अनशन व्रत का पालन करके उनकी आत्मशुद्धि की व्यवस्था सहजतापूर्वक की जाती।

परंतु संगठनवश 'प्रतिशोध' की यह बला हिंदुओं के मन में घुस गई। उससे सर्वनाश हो गया। बेचारी शांति समिति, उद्देश्य कितना ऊँचा! परंतु दो-तीन मुसलमान स्वयंसेवकों की जान इन क्रूर हिंदुओं ने ली, एक पठान ने ही लाठी से प्रति-आक्रमण किया, पर उन बेचारे नरिमन पर!

मुसलमानों ने हिंदुओं का कत्ल किया, उनकी लूटमार की-उसका क्या? इस प्रकार कोई देशद्रोही प्रश्न उठाएगा? परंतु वह यह मत भूले कि यह तो मुसलमानों की परिपाटी ही है। उनकी इस कट्टरता की 'My Brave Mohamadan Brothers' कहते हुए हिंदुओं की प्रशंसा करनी चाहिए, न कि 'प्रतिशोध भावना से हमारी' 'हिंदू-मुसलमान की जय' पर वार।

इस सगठन ने तो सारा गुड़-गोबर कर डाला। देशभक्त स्वतंत्रतावादी, मोहम्मद अली और दाहिना हाथ शौकत अली भग्नहदय होकर बंबई से दिल्ला रवाना गए। पुनः इन देशद्रोही हिंदुओं का मुखावलोकन ना हो-इस प्रकार शताधिक वीरों ने हिंदुओं से मुँह फेरकर प्रतिज्ञा की। अली का अपना युद्धकला विशारद सिर कंधे पर ही है। तभी दिल्ली का रास्ता नापा। मुसलमानों की सैकड़ों लाशें तथा घायलों के आक्रोश रास्ते में रोड़ा बनकर आने लगे, परंतु वे नहीं रुके। दिल्ली पहुँचकर ही चैन की साँस ली, यह ठीक ही था। भई, किसीकी लाश के लिए कहीं कोई तब तक कैसे रुक सकता है जब उसे अपनी लाश गिरने का भय हो।

गवर्नर ने अपना कर्तव्य चोखा बजाया। दंगे के पश्चात् वे अपने दलबल के साथ दंगाग्रस्त इलाके के निरीक्षणार्थ गए थे। यदि कोई डरपोक गवर्नर होता तो दंगा चलते ही उधर जाने की मूर्खता का प्रदर्शन करता? इन गवर्नर महाशय में प्रजा के दंगा-फसाद करने के अधिकार में वैसे किसी भी तरह का अनधिकृत हस्तक्षेप न करते हुए दंगे के शमन के पश्चात् उस धर्मक्षेत्र की यात्रा की। महाभारत के पश्चात् हजारों वर्षों के उपरांत क्या हम कुरुक्षेत्र की यात्रा नहीं करते? गवर्नर महाशय यदि और एक वर्ष के पश्चात् दंगाग्रस्त इलाकों का निरीक्षण करते तो यह तीर्थयात्रा अधिक शोभाप्रद होती।

उसी तरह गवर्नर ने मि. प्रिस्टले के परिवार को भी उनकी हत्या पर दुःख प्रदर्शक सहानुभूतिपूर्ण पत्र लिखा। जो सैकड़ों इतरे जन दंगे में मारे गए थे, उनके परिवार लापता। इन मूर्खों का न घरबार, न ही कोई ठौर-ठिकाना-उन्हें सहानुभूति परक पत्र भेजना असंभव था।

इस प्रकार एक मुसलमान २८.६ हिंदुओं का मारक वीर होने पर भी और एवंगुण विशेष वीरों की हजारों की संख्या में सेना 'दीन-दीन' करते टूट पड़ने के बावजूद दंगा हो भी चुका-तथापि बंबई में हिंदू अभी भी जीवित हैं। यह सच है, हजारों बंबई से बाहर गए हुए थे, परंतु उन धूर्तों में ऐसे अनेक लोग हो सकते हैं जो दंगे के पश्चात् की पकड़-धकड़ के लिए स्वयं उपस्थित रहना आवश्यक नहीं समझते हों।

यद्यपि साइमन कमीशन के सामने भी बहिष्कारवश कुछ अधिक लोग गवाह बनकर नहीं गए, तथापि इस दंगे का जाना संभव है। ब्रिटिश पुलिस नहीं हो तो आप राजपाट कैसे संभालेंगे? यह प्रश्न अब साइमन से पूछना नहीं चाहिए, क्योंकि यह दंगा स्वयं ही इसका साक्षी है।

बंबई के कई इलाकों में एक भी शक्तिशाली पुलिस थाना नहीं था। ब्रिटिश-सरकार दो-चार दिन तक किसी भी उपर्युक्त कार्य के लिए क्यों न हो, दिखाई नहीं दी-तथापि हिंदु जीवित रहे ही। हर चाल में से ललकारते हुए जीवित रहे-मारते मारते जीवित रहे-ऐसे ही हिंदुस्थान में भी जीवित रहेंगे।

हाँ, सरकार एक बात का तनिक विवेचन कर ले। यदि ये दंगे इसी तरह जारी रहें, यदि गार्ड, मोटर कारें, मशीनगंस, कवच, गोलीबारी, किसी प्रकार की दहशत उत्पन्न न करते हुए बार-बार आवाजाही करने लगें, जैसे सवेरे दूध देने के लिए घर-घर आनेवाला ग्वाला, तो लोगों के मन से इन भूत-पिशाचों की भयंकर दहशत का भय कम होकर दंगा-फसाद का यह भस्मासुर साक्षात् भूतनाथ के मस्तक पर भी हाथ रखने का साहस कर सकता है। इस प्रकार के दंगे विद्रोह के वस्तुपाठ होते हैं-इस ऐतिहासिक सत्य का पाठ ब्रिटिश सरकार को पढ़ाने की आवश्यकता नहीं है; परंतु क्या करें, अपने राजनिष्ठ अंत:करण से रहा नहीं जाता, अतः यह सुझाव दिया-माई-बाप सरकार उसका यथोचित विचार अवश्य करेगी।

२३ फरवरी, १९२९

नेपाल का प्रस्तर-प्रासाद और सैयद अहमद का काँच-घर

क्या कोई बता सकता है कि ख्यातनाम सैयद अहमद खान, जो अपने शीशमहल में रहते हुए नेपाल के पत्थर निर्मित राजमहल पर पत्थर मारा करते थे, आजकल कहाँ हैं? 'श्रद्धानंद' में कुछ दिन पहले उन्होंने यह सिद्ध करके दिखाया था कि अफगानिस्तान के सामने नेपाल कितना हीनतर देश है। वे सैयद अहमद खान, कोई बता सकता है, आजकल कहाँ हैं? हम उन्हें एक खुशखबरी देना चाहते हैं।

जिस शीशमहल में बैठकर वे दूसरों पर पत्थर फेंकते हैं, उस पते पर उनके नाम लिखकर पत्र भेजा था। परंतु हमारा वही पत्र मृत-पत्रालय (Dead letter office) से केवल लापता होने से वापस नहीं आया अपितु उसके साथ यह चेतावनी भी प्राप्त हुई कि 'भविष्य में पते पर नाम सोच-समझकर लिखें।' इससे पहले एक बार एक पत्र पर नाम था- 'दिगंबर भट महार'। तब हमने उस मूर्खतापूर्ण गलती को विचारणीय नहीं समझा, परंतु अब पुन: यह 'सैयद अहमद खान' नाम इस दूसरे पत्र पर देखकर इस प्रकार की गलतियों पर विशेष ध्यान न देना पोस्ट ऑफिस के लिए असंभव था। सैयद के नाम के आगे 'खान' लिखना ठीक वैसा ही है जैसे ब्राह्मण की जाति-पाँत महार (अछूत) लिखना। इतनी बड़ी गलती पुनः न करें अन्यथा दुगुना जुर्माना भरना पड़ेगा।

पोस्ट ऑफिस से इस प्रकार अपमानित होने के बाद 'श्रद्धानंद' निकालकर देखा। वही नाम 'सैयद अहमद खान' ही था, परंतु यह सोचकर कि अब पोस्ट में पुनः वही नाम लिखने का साहस करने की अपेक्षा अच्छा है, 'श्रद्धानंद' द्वारा ही सार्वजनिक पत्र-व्यवहार किया जाए। हम पूछ रहे हैं कि यदि इस सैयद अहमद खान का पता कोई जानता हो तो हमें सूचित करें। कम-से-कम बात इस प्रकार थी।

उन्होंने नेपाल से अफगानिस्तान का श्रेष्ठत्व सिद्ध करने के लिए जो-जो प्रमाणपत्र दिए, वे सारे उस समय कुछ हिंदुओं को कटु तथा मिथ्या प्रतीत हुए। तथापि उनके 'श्रद्धानंद' के उस पत्र के पश्चात् अफगानिस्तान की जो अभूतपूर्व समृद्धि तथा कीर्ति ले गई, वह अफगानिस्तान के शत्रुओं की भी सैयद खान के सभी प्रमाणपत्र सिर झुकाते हुए स्वीकार करने के लिए बाध्य करते हैं। सत्य ही अफगानिस्तान अत्यंत प्रोन्नत, बलशाली तथा सभ्य राष्ट्र है, इसमें किसे संदेह हो सकता है?।

सैयद खान ने लिखा था, 'कहाँ वह निर्धन, रद्दी, उजड्ड नेपाल! हाल ही में देखा, अमीर का कितना सम्मान हुआ? अफगानिस्तान में यातायात के साधनों में तेजी से वृद्धि हो रही है। यातायात निर्विघ्नतापूर्वक चल रहा है। अमीर क्रांतिकारी सुधार तेजी से कर रहे हैं।

अफगानिस्तान की शासन प्रणाली कितनी प्रगतिशील एवं बलशाली है और नेपाल की कितनी बेकार! अफगानिस्तान बलूचिस्तान लेगा दूसरी ओर से तिब्बत लेगा फिर अपनी सीमा से लगा पंजाब, सिंध भी हड़प लेगा। अफगानिस्तान को पीछे से ईरान, तुर्कस्तान, रूस, मिस्र आदि राष्ट्रों का समर्थन है। मुसलमानी राष्ट्रों में जिस तरह एका है, वैसा तुम लोगों में कहाँ? अमीर अमानुल्ला का कितना दबदबा है!

सैयद खान ने जब अफगानिस्तान का यह सत्यदर्शन कराया तब अनेक शंकालु लोगों ने नाक-भौंह सिकोड़ते हुए कहा, 'अजी, रुकिए। कार के साथ दौड़ लगाने के लिए श्वान जब पहले बेसुध भागता है तब घूरे के उसके जात-भाइयों को विश्वास होने लगता है, यह उस कार को पीछे छोड़ देगा।

हिंदुओं का सैयद खान का किया हुआ ऐसा मखौल अंत में हिंदुओं के ही गले में पड़ गया, क्योंकि सैयद खान द्वारा कथित उपर्युक्त सभी बातों की यथार्थता का विश्वस्त प्रमाण उनके कथन के पीछे-पीछे ही भागा-भागा आ गया। 'ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति।' अब हिंदुओं को अपना मुँह खोलने के लिए भी गुंजाइश नहीं रही।

प्रथमतः अमीर के संबंध में देखिए। 'अमीर का कितना दबदबा, कितना पराक्रम।' इस तरह सैयद खान ने जो कहा था, वह अक्षरशः सत्य सिद्ध हो गया। कंगले, चोर-उचक्के, बेकार, फकीर, भिश्ती के बच्चे, चोरों की टोलियाँ, दो कौड़ी के मुल्ला अमानुल्ला के सर से ताज का कष्टप्रद बोझ उतारकर अमीर को आराम देने के लिए देखो, कैसे उसके सिर के साथ धींगामुश्ती कर रहे हैं। अमीर का कितना दबदबा! और उसका पराक्रम! उसके संबंध में तो पूछिए ही मत! यदि कोई दूसरा भीरु होता हो काबुल पर बच्चा साकू जैसा उठल्लू आक्रमण कर रहा है--यह समाचार मिलते ही अपनी पूर्वार्जित राजधानी के सिंहद्वार के निकट जूझता रणमैदान पर मौत को गले लगाया, परंतु जीवित रहकर भगोड़ा नहीं होता। परंतु अमानुल्ला ने वैसा कोई भी कायरतापूर्ण कृत्य नहीं किया। उसकी शासकीय सतर्कता वसा हा थी जैसी उसका पराक्रम। एक भिश्ती काबुल पर सेनाबल से धावा बोलने याग्य बलशाली हो सकता है, क्रूर अमानुल्ला ने पहले इसकी कोई पूछताछ नहीं की। पूछताछ हो गई तब प्रतिबंध नहीं किया और काबुल पर भिश्ती के बेटे ने आक्रमण करने पर भी उसके सदृश यःकश्चित् प्रतियोगी से अपने जैसे राजपुरुष ने लड़ना अपनी योग्यता पर कालिख पुत जाएगी, यह जानकर बंदूक की एक भी गोली न चलाते हुए वह महापराक्रमी अमानुल्ला पाँच पीढ़ियों का पैतृक राज्य-मुकुट के साथ ज्यों-का-त्यों रखकर कंधार की ओर भाग गया-नहीं उसने प्रयाण किया। अरे, भिश्ती से क्या लड़ना! इस प्रकार के युद्ध के कलंक से अमानुल्ला ने अपने आपको आज तक बचाया था। वह शूर अमानुल्ला चौबीस घंटों में राजधानी हार गया, चार मिनटों में उसने राज्य का परित्याग किया, चार मिनटों में उसने भाई को राजपाट सौंपा, पुन: चार मिनटों के पश्चात् वह राजपाट फिर अपने हाथों में लिया और चार महीने होने पर भी कंधार की दीवारों की ओट में अपना डेरा-डंडा जमाकर वह रह गया। अमीरी तख्त पर भिश्ती विराजमान है, अमानुल्ला के अंत:पुर की रिश्ते-नाते की राजकुमारियों का बँटवारा चोर-उचक्के आपस में ही कर रहे हैं, अमानुल्ला के शयनागार में राह के चोर उठाईगीर घोड़े बेचकर सो रहे हैं, हर प्रदेश के अधिकारी 'भिश्ती अमीर या अमानुल्ला! अथवा हम स्वयं? कहकर अमानुल्ला की अमीरी आज्ञा को अवहेलनात्मक उत्तर भेज रहे हैं। अरे भाई, अमीर का यह कितना दबदबा! कितना पराक्रम!

'अफगानिस्तान में क्रांतिकारी सुधार हो रहे हैं' इति सैयद! सोलह आने सत्य है। दाढ़ी बनाएँ या बढ़ाएँ। बढ़ाई तो कितने अंगुल कितने हाथ! टोपी पहनें या पगड़ी? टोपी पहनी तो वह कैसी? गोल या खड़ी? तिरछी अथवा तुर्रेवाली? इस तरह की अत्यंत गूढ, जटिल समस्याएँ सुलझाते हुए सुधार और उसके लिए रक्तरंजित क्रांति। बच्चा साकू ने तो क्रांतिकारी सुधारों में अमानुल्ला को भी पीछे छोड़ दिया। न केवल लड़कियाँ प्रत्युत लड़के भी परदा करें, सभी स्कूल बंद रखें, रास्ते में मुल्ला का दर्शन होने पर लोग उसे साष्टांग प्रणाम करें। राजकुमारियों को पवित्र आसुरी विवाहों द्वारा भिश्तियों के, चोर-उचक्कों के राक्षस-अंत:पुर में तूंसा जाए। सिख, असिख हिंदू, देखते ही उसे लूटे, काफिर समझकर उसकी हत्या करे। कुरान के अतिरिक्त अन्य पुस्तक न रखें, न पढ़ें, कुरान ही पढ़ें! उस धर्म पुस्तक का पठन करके बच्चा साकू आचरण करता है, उसी तरह धर्मपरायण बनकर आचरण अजी, सुधारों-पर-सुधार। सर्वथा क्रांतिकारी सुधार। जब वह पिशाच स्थान के रूप में मशहूर था, तब के पठानों की परंपरा के पूरी तरह चलाए हुए सेनापति नादिर खान को ही देखिए न! पाँच बरस तक विलायत में रह आया, परंतु उसके अनुसार स्त्रियों का परदा करना ही उचित है। तेजी से सुधार और क्या?

सैयद खान कहते हैं, 'नेपाल की राज्यप्रणाली कितनी त्याज्य! अफगानिस्तान का राष्ट्रैक्य, एकात्मक राज्य प्रणाली कितनी प्रगतिशील, कितनी दृढ़!' भला उसे कैसे नकारा जा सकता है? नेपाल में अभी भी एक ही प्रधान, एक ही राजधानी! और हमारे अफगानिस्तान की ओर देखो! पाँच अमीर, पचास राजधानियाँ। हर कोई या तो अमीर है या किसी अमीर का प्रधान! प्रत्येक जाति अन्य जाति के गले लगी हुई। शिनवारों के सीने में दुरानियों की छुरी, शियाओं की छाती में सुन्नियों की छुरी। राष्ट्र में एकता का रूप और कैसा हो? प्रतिदिन दो-एक अमीर निर्माण करती हुई शासन प्रणाली से प्रगतिशील प्रणाली और कौन सी हो सकती है? बालिश्त भर के अफगानिस्तान में तैंतीस टोलियों के छिड़े हुए द्वंद्वयुद्ध देखकर राष्ट्रीय दृढ़ता का दूसरा नमूना और क्या दिखाया जा सकता है!

'नेपाल जंगली' सौ प्रतिशत सत्य। राजकुमारियों को भिश्तियों के बच्चे घसीटते हुए ले जाकर बलात्कार की बेदी पर नेपाल में कहाँ ब्याह रचाए जाते हैं? अफगानिस्तान में अमानुल्ला जिस तरह अहमदियों की हत्या करता है और बच्चा साकू हिंदू सिखों की मारकाट कर रहा है और आजकल सुन्नी जिस तरह शियाओं का कत्ल कर रहे हैं, उसी तरह का सभ्य धार्मिक कृत्य भला नेपाल के हाथों आज हजारों वर्षों में एक भी हुआ है? वहाँ न मुसलिमों को काफिर समझकर उनका 'कत्ले-आम' हो रहा है, धन्य है यह न ही हिंदुओं में शैव वैष्णवों को मार रहे हैं। देखो, 'मुसलमानों का संगठन'-अमानुल्ला बच्चा से चिपकता है, बच्चा अहमद खाँ से, शिनवारी दुरानी से, दुरानी विशेष रूप में खेला से। भई, एकता-ही-एकता! एकता-ही-एकता जिस-तिस का गहरा वास्ता पड़ा हुआ।

इस प्रकार का संगठित रूप अफगानिस्तान 'एक ओर तिब्बत, दूसरी ओर सिंध-पंजाब जीत लेगा' यह केवल सैयद ही बता सकते हैं। उस समय वीर अमानुल्ला ही अफगानिस्तान के नेता थे, अत: सैयद तिब्बत, पंजाब पर प्राप्त विजय पर संतुष्ट हो गए; परंतु अब केवल अमानुल्ला ही नहीं, उसकी बीवी, उसकी माँ, उसका भिश्ती, भाई, सेवक, सेनापति सारे रणांगण में उतरे हुए हैं। सभी अमीर, अब अफगानिस्तान केवल बाएँ-दाएँ, आगे-पीछे के देशों को जीतकर ही नहीं रुकता, वह नीचे भूगर्भ के अग्निलोक पर और ऊपर आकाशीय चंद्रलोक पर आक्रमण किए बिना नहीं रुकेगा।

'अफगानिस्तान को जब सागर की आवश्यकता प्रतीत होगी तब पश्चिम सागर को प्राप्त करने के लिए वह हिंदुस्थान का सिंध से लेकर काठियावाड तक का प्रदेश जीत लेगा।' सैयद के इस कथन में न केवल उनके, प्रत्युत संपूर्ण अफगान राष्ट्र की महत्त्वाकांक्षा का स्पष्ट उच्चारण हो गया है; परंतु यह समाचार आज हा हमें नहीं मिला, हम यह बचपन से सुन रहे हैं। अमीर के बाप ने उसके बाप के बाप ने भी भारतीय सागर के किनारे कम-से-कम एक बार तो समुद्र स्नान हो, इसलिए हाँफते हुए प्राण त्याग किया, परंतु समुद्र स्नान नहीं हुआ। वर्तमान में अफगानिस्तान के बित्ता भर की नदियों में ही जो राष्ट्र गोते खा रहा है, उसे प्रथम उन नदियों को तो पार करने दें और फिर यह विश्व बच गया तो फिर भारतीय महासागर को अपनी अंजुलि में भर लेने दो। भारतीय महासागर भी यह प्रतीक्षा कर रहा है। वह इतना गहरा है कि अफगानों के समुद्र स्नान का ही नहीं, समुद्र समाधि का भी शौक पूरा कर सकता है।

'अफगानिस्तान में यातायात और परिवहन निर्विघ्नतापूर्वक चल रहा है।' अरे, इसे कौन नकारता है? सत्य है, एक यात्री सौ सिपाहियों की सुरक्षा सेना के साथ एक सौ एक जानलेवा संकटों का सामना करने के पश्चात् यदि एक मील तक जीवित रहे तो निर्विघ्नता से दूसरे मील में प्रवेश कर सकता है। सैयद खान, शौकत अली खाँ, मोहम्मद अली खाँ आदि खिलाफत के धुरंधर लोग कहते हैं, 'अफगानिस्तान की प्रबलता की अंतिम गवाह मुसलिम जगत् द्वारा अमानुल्ला का किया हुआ समर्थन है। 'ईरान, तुर्कस्तान, मिन, अरब इन सभी मुसलिम विश्व का अमानुल्ला को समर्थन प्राप्त है।' इस समर्थन के कारण ही तो अमानुल्ला को सिंहासन से नीचे खींचने के लिए बच्चा साकू पचीस लोगों के साथ काबुल आया और अमानुल्ला कंधार चला गया। अमानुल्ला अभी-अभी यूरोप, तुर्कस्तान, ईरान से स्वदेश आया था। इस दरमियान रूस के दिग्गजों ने भी अपनी पीठ पर अफगान की यह मक्खी पल भर के लिए बैठने दी थी। इसी वजह से सैयद ने जो कहा था, रूस भी अमानुल्ला के बस में है, सो ठीक ही तो था। हम कहते हैं, रूस अफगानिस्तान का समर्थक है-जैसे शिकारी मृग के पीछे होता है-रूस ही क्यों, इंग्लैंड भी तो अफगानिस्तान का समर्थक है, अमानुल्ला के नहीं अपितु बच्चा साकू का समर्थक है, परंतु किसी-न-किसी अफगानी को इंग्लैंड का समर्थन अवश्य है। खिलाफतवालों द्वारा वर्णित पॉन इसलामी एकता सत्य ही अति बलशाली है। अमानुल्ला के संकटग्रस्त होते ही देखो, किस तरह कमाल पाशा ने चार-साढ़े चार तुर्की लोग भेज दिए और वे चार लोग भी काबुल जाने से पहले ही जल्दी-जल्दी फिर कमाल के पास चले गए।

अब पॉन इसलाम के हितार्थ और प्रेमार्थ इन खिलाफत धुरंधरों को, विशेषतः हमारे भारतीय खिलाफतवालों को हमारी एक सूचना है। वह यह है कि अब वे किसीकी ओर भी ललचाई नजर से देखने की जल्दबाजी न करें, क्योंकि कुछ भी हो, उनके देखने मात्र से ही नजर लग जाती है। पहले वह बेचारा तुर्की खलीफा मजे में था, परंतु इस भारतीय खिलाफतवालों द्वारा उसे 'खलीफा' कहते हुए उसके लिए प्रयास करना आरंभ करते ही बेचारे का सर्वनाश हुआ। जो भी यह खिलाफत थी, वह भी चली गई। वह दर-दर की ठोकरें खाने लगा। तभी इनकी दृष्टि कमाल पर पड़ी, परंतु कमाल ने तो कमाल ही कर डाला। खलीफा की ही नहीं, खिलाफत की भी उसने खिल्ली उड़ाई। बीच में निजाम को खलीफा का तिलक करने गए तो उस बेचारे की ऐसी दुर्गत बनी कि पूछिए मत। खिलाफत की हवा से फूलकर कुप्पा बना हैदराबादी गुब्बारा वाइसराय की चुटकी में फँसते ही फट से फूट गया। अजी, कैसा प्रस्ताव और कैसी स्वतंत्र रियासत! यूरोपीय बावरची पर सत्ता नहीं चली। इतने में खिलाफत की लालची नजर ने अमीर अमानुल्ला को देखा। अली आदि लोग जो हर्ष-विभोर होकर अमानुल्ला के सिर पर खलीफा होने का अभिषेक करने सतृष्ण दृष्टि से साहस करते हैं तब तक नजर लगकर उस अभिषेक पात्र में ही अमानुल्ला की अमीरी भी डूबकर मर गई। इस सदुद्देश्य से कि हम यह सूचना खिलाफतवालों को दे रहे हैं कि अब उस अमंगल उपाधि की शामत और किसी पर भी न आ जाए, क्योंकि आजकल ही सुनने में आया है कि मोहम्मद अली गाजी बच्चा साकू से सोने के दूरभाष (टेलीफोन) द्वारा बात करने लगे हैं। अतः हमारी प्रार्थना है कि अब कम-से कम बच्चा साकू को खिलाफत की नजर लगवाकर उसका सर्वनाश ना करें। अभी वह बच्चा है। चार दिन राजमहल का सुख भोगने दें। आगे चलकर जब उसका सर्वनाश बिलकुल निकट आएगा तब पॉन इसलाम का खलीफा होने की आकांक्षा अपने आप उसके सिर पर आएगी ही।

अब सैयद खान से विदा लेनी हो तो वह बेचारी 'जंगली, उजड्ड अशिष्ट तथा असंगठित' नेपाली भाषा में न लेते हुए उसके अफगानिस्तानवासी पूज्य कवि हजरत शेख सादी के ही शब्दों में लेना उचित है। सादी कहते हैं-

फारसी

सादिया! अज़ रोज़े अज़लहुस्न व तुर्की दादन्द

अल्को दानाई फ़इम ब यूना दादन्द

नाज़ो अज़ज़ क्रिश्मा हमा दर आलमे हिन्द,

बेवकुफी व जहालत खास अफगां दादन्द।

अर्थात्-हे सादी! सृष्टि रचना के समय 'रूप' तुर्कों को प्राप्त हुआ; विद्या-बुद्धि यूनानियों (ग्रीकों को) प्राप्त हो गई। कोमलता, मधुरता, शिष्टता, भाव-भंगिमा हिंदुस्थान के हिस्से में आ गईं और शोहदापन, निठल्लापन, मूर्खता एवं पिशाचवृत्ति अफगानिस्तान को दी गई।

सलाम, सैयद खाँ, अलविदा!

३० मार्च, १९२९

हुतात्मा राजपाल और महात्मा गांधी

पिछली बार पार्लियामेंट सभा में हिंदुस्थान को औपनिवेशिक सत्ता (Dominion Status) देनी चाहिए या नहीं, इस विषय पर जो मनोरंजक वाद विवाद छिड़ा, उसमें जो एक गंभीर दुःखपूर्ण समाचार फूट पड़ा, उसके संबंध में प्रत्येक सहृदय व्यक्ति को सहानुभूति अवश्य होगी, चाहे वह अंग्रेज हो या भारतीय। उस विवाद के आवेश में इंग्लैंड के एक प्रधान नेता तथा संपूर्ण विश्व के एक प्रधान षड्यंत्रकारी मि. वाल्डविन ने कहा, 'कम-से-कम आपकी तथा हमारी आँखों के सामने हिंदुस्थान को औपनिवेशिक सत्ता-उपनिवेशी स्वाधीनता--प्राप्त होना असंभव है।' कितना दुःखपूर्ण समाचार है यह!

हाय! हाय! मि. वाल्डविन तथा पार्लियामेंट के वे अंग्रेज सदस्य, जिन्हें संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, 'आपकी तथा हमारी नजरों के सामने हिंदुस्थान को स्वाधीनता की प्राप्ति कदापि संभव नहीं।' उन सभी सज्जनों के नेत्र इतने शीघ्र ही बंद होंगे? मात्र साल भर के अंदर-अंदर ही वाल्डविन साहब हमें छोड़कर जाएँगे? हाय! हाय!

क्योंकि भगतसिंहादिकों ने परसों लाहौर कोर्ट में स्पष्ट ही कहा, 'औपनिवेशिक स्वराज्य तो एक वर्ष के भीतर ही प्राप्त होगा। इतना ही नहीं, उस समय हम सभी बरी होनेवाले हैं। अतः आप इस अभियोग के लिए व्यर्थ कष्ट उठाना छोड़कर निश्चिंत होकर विश्राम करें।' इस प्रकार का अनुरोध उन्होंने कोर्ट से किया। अत: औपनिवेशिक स्वराज्य-एक वर्ष के भीतर-और वे उसे सत्य सिद्ध करके ही रहेंगे-और उधर वाल्डविन के अनुसार उनकी आँखों के सामने उस दिन का उदय असंभव-और वाल्डविन कोई ऐसे नागरिक नहीं जो कोई अनुत्तरदायी प्रतिज्ञा करें। अर्थात् जाहिर है, एक वर्ष के अंदर मि. वाल्डविन तथा पार्लियामेंट में उस दिन उनके आगे उपस्थित सभी सदस्यों के नेत्र हमेशा के लिए बंद हो जाएँगे। हाय! हाय! कैसा दु:खद प्रसंग!

भारतभक्त भगतसिंह कहते हैं, 'एक वर्ष के भीतर स्वराज्य प्राप्त होगा।' ब्रिटेनभक्त वाल्डविन का कहना है, 'कम-से-कम मेरी आँखों के सामने स्वराज्य नहीं मिल सकता।' इन दोनों की प्रतिज्ञाएँ असत्य न हों...

क्योंकि दोनों ही सज्जन इस ब्रिटिश साम्राज्य के अपने-अपने देशों के माननीय देशभक्त हैं। कोई भी झुठा सिद्ध हो जाए तो भी सारे भारतीय-अंग्रेज नागरिकों के, जो ब्रिटिश साम्राज्य के सुराज्य में रहना चाहते हैं, ब्रिटिश साम्राज्य के सामाष्टिक अभिमान को ठेस पहुँचेगी। अतः इन दोनों प्रतिज्ञाओं को सत्य सिद्ध करने का एकमेव अर्थ जो मार्ग उसमें से निकलता है, वही मार्ग साम्राज्याभिमानी वाल्डविन साहब स्वीकारेंगे और अपनी आँखें इस वर्ष के पूर्वार्द्ध में ही सदा के लिए मूँदकर इस वर्ष के उत्तरार्द्ध अर्ध में हिंदुस्थान को औपनिवेशिक स्वराज्य प्राप्ति-का दिन उदित होने देंगे-इसमें हमें कोई संदेह प्रतीत नहीं होता। तथापि वाल्डविन समान व्यक्तित्व से इतने अप्रत्याशित रूप से, इतनी शीघ्रतापूर्वक हम वंचित होंगे-यह समाचार स्वयं उनके ही मुख से सुनने के कारण अत्यधिक दुःख अवश्य हो रहा है। सत्य ही अंग्रेज पार्लियामेंट पर यह बाँका प्रसंग गुजरेगा। गाय फॉक्स के समय का संकट भी इतना भयानक नहीं था। हिंदुस्थान को स्वाधीनता एक वर्ष के भीतर अवश्य प्राप्त होगी और उसी समय पार्लियामेंट के 'आपकी तथा हमारी आँखों के सामने यह असंभव है' यह कहनेवाले युवा-बाल-वृद्ध महान् ब्रिटिश सदस्यों की जीवनडोर इस तरह अचानक छोटी हो गई। हाय! हाय! ईश्वरेच्छा बलीयसि और क्या!

उधर बर्कनहेड पर ऐसा बुरा समय गुजरनेवाला है। इधर धर्मवीर राजंपाल के हत्यारे इलामदीन पर तो इससे भी बुरा प्रसंग गुजर चुका। हिंदू धर्मवीर राजपाल का हत्यारा वह मुसलमान इलामदीन अपनी जान बचाने के लिए सतत प्रयास कर रहा था; परंतु उसका सारा प्रयास निष्फल हो गया और अंत में वह फाँसी पर लटका दिया गया और इस प्रकार 'रँगीला रसूल' कांड की अंतिम क्रिया संपन्न की गई। मुसलमानों के ही शव दफनाते हुए न कि हिंदुओं के। क्योंकि राजपाल को जब मारा गया तब मौलवी अली ने तुष्ट अकड़ के साथ कहा था, 'राजपाल की मौत से 'रंगीला रसूल' कांड दफन हो गया।' परंतु आखिर उनकी वह घोषणा अत्यंत जल्दबाजी सिद्ध हो गई, क्योंकि राजपाल के शव को हिंदुओं ने अग्नि दी, न कि दफनाया और उस आग की लपटों से झुलसकर आज जब इलामदीन फाँसी पर लटका दिया गया, तब उसे दफनाने से ही वह 'रँगीला रसूल' असली दफन हुआ।

अब वह मुट्ठी भर मिट्टी में मिल जाने से इस कांड का कुल जायजा लेकर यह देखने के लिए कि अपने पल्ले क्या पड़ा है-यदि हम वह मुट्ठी भर मिट्टी तनिक छानकर देखें तो यही दिखाई देता है कि कम-से-कम मुसलमानों को यह सौदा कुछ अधिक सस्ता नहीं पड़ा। क्योंकि एक हिंदू राजपाल के लिए उनके तीन-तीन आदमी काम आ गए। पहले गाजी ने राजपाल पर जो आक्रमण किया वह सात वर्ष से जेल में सड़ रहा है। दूसरे गाजी ने आक्रमण किया तो वह चौदह वर्ष जेल में बंद किया गया। इस तीसरे गाजी ने राजपाल की हत्या की, परंतु वह स्वयं फाँसी पर लटकाया गया। एक हिंद के लिए मत तथा अधमरे मिलकर तीन मुसलमान खर्च होते हैं। उसपर पुनः पिंड दक्षिणा आदि पर अभियोगवश प्रीवी कौंसिल तक चार-पाँच लाख से ऊपर व्यय। ऐसे महँगे भाव से व्यर्थ का झंझट मोल लेने का मुसलमानों की मस्ती अभी तक दबी नहीं हो तो वे आराम से इसे जारी रखें। प्रत्येक मुसलमान एक गाजी इलामदीन हो गया तो भी वे सात करोड़ हैं। एक हिंदू राजपाल को तीन मुसलमान-इस प्रकार अधिक-से-अधिक तीन करोड़ हिंदुओं के लिए सात करोड़ गाजियों का पूरा परिवार-पूरा-का-पूरा काम आ जाने पर भी १९ करोड़ हिंदू शेष रहेंगे और मुसलमान? शून्य।

इस बात पर गौर करते हुए भी आगे मुसलमान इस तरह की गुंडागर्दी जारी रखने का साहस करते हैं तो खुशी से करें। इस प्रसंग से यह स्पष्ट होता है कि राजपाल की हत्या करने से पहले कभी-कभी हिंदू गुंडागर्दी से दब जाते थे, परंतु अब यह संगठन का युग है। अब तुम अपनी यह गुंडागर्दी तब तक सुखपूर्वक चलने दो जब तक तुम्हारे अंजर-पंजर ढीले नहीं पड़ते।

वस्तुतः 'किशन, तेरी गीता जलानी पड़ेगी' मुसलमानों द्वारा की गई इस कृष्ण-निंदा का उत्तर देने के लिए राजपाल ने 'रँगीला रसूल' नामक पुस्तक लिखी। उसमें अधिकतर महंमद महोदय के चरित्र की ऐतिहासिक कथाएँ होने के कारण कोर्ट ने राजपाल को निर्दोष ठहराकर छोड़ दिया, परंतु यदि मुसलमानों को यही चाहिए था तो वे दूसरी ऐसी पुस्तक प्रकाशित करते जो इस पुस्तक के तथ्यों को काटती। फिर तर्क के ऊपर तर्क का सिलसिला चलता रहता, पर नहीं। मुसलमान क्या जाने कि तर्क किस चिड़िया का नाम है। उन्होंने तुरंत अपना पैशाचिक लाठी क्रम बीच में घुसेड़ दिया। इससे पहले कभी-कभी इस लाठी नीति से काम हो जाता था, अतः उन्हें चस्का सा लगा था, परंतु अब वे दिन गए। राजपाल ने उसी साहस के साथ अपना कार्य जारी रखा। जब उसकी मृत्यु हो गई, तब तीन मुसलमानों को मारकर वह मरा और हिंदुओं से अधिक मुसलमानों को ही यह सौदा महँगा कराके ही मरा। उसने हिंदू धर्म का पक्ष लिया। इसलिए उसे मौत आ गई, अत: हिंदू वीर राजपाल के रूप में उसका सम्मान करने लगे और अंत में जब दो लाख मुसलमानों की आँखों से पानी निकला, उन्हें भी 'गाजी' इलामदीन के शव के साथ 'हाय तोबा' वाली अरथी निकालनी पड़ी, तब कहीं 'रँगीला रसूल' कांड का वास्तविक क्रियाकर्म संपन्न हुआ।

जिस मुसलमान ने 'किशन, तेरी गीता जलानी होगी' कहकर फसाद खड़ा किया, उसी के पाप के प्रायश्चित्त के रूप में एक अन्य मुसलमान को, जिसका नाम इलामदीन था, फाँसी पर चढ़ना पड़ा और दो लाख मुसलमानों को रोते-कलपते उसका क्रियाकर्म करना पड़ा।

अलीबाग के पटवर्धन का सौदा भी मुसलमानों के लिए सस्ता नहीं था, भले ही राजपाल के सौदे जैसा अधिक महँगा नहीं था। पठान ने पटवर्धन के पेट में छुरा घोंप दिया, परंतु उस पठान को फाँसी पर लटककर लंबा होना पड़ा। आखिर एक के बदले एक-आँख को आँख--दाँत को दाँत-गले को गले-जान को जान-इस शर्त पर यदि यह खेल जारी रखने का मुसलमान साहस करते हैं, तो भी हमें कोई आपत्ति नहीं है। उनके सात करोड़ से हमारे सात करोड़ का क्षय होने पर भी शेष पंद्रह करोड़ हिंदू बचते हैं।

कोई भला मनुष्य यूँ ही पूछेगा, अजी, यह आँख के बदले आँख, दाँत के बदले दाँत-यह क्रम कब तक चलेगा? तब हमारा उत्तर होगा, 'हे भोले शंकर, तब तक, जब तक आततायीपन से गड़े मुरदे उखाड़कर उसका शरीर लहूलुहान होते-होते वह उखाड़ने से उकता नहीं जाता। पूछ उसीसे। उसकी मस्ती नहीं उतरी, तो? यह खेल चल ही रहा है। इस तरह हमारे न कहने से क्या होगा? वह स्वयं धावा बोलता है, उधर रोने-धोने से क्या होगा? यदि यह तब तक चला रहेगा जब तक कम-से-कम दोनों में से किसी एक की दो आँखें और पूरे बत्तीस दाँत नहीं उखडते तो उकठाऊँ को सारे दाँत उखाड़कर यह खेल बंद करना कम-से-कम अधिक अन्यायपूर्ण तो निश्चित नहीं होगा। अतः पुनः एक बार आश्वासन के साथ कहता हूँ कि इससे आगे हिंदू छोड़ने के लिए तो नहीं कहते। किसी माई के लाल में इतनी हिम्मत हो कि वह आततायियों को मटियामेट करने तक लड़ सकता है तो अवश्य लड़े। इस दृढ़ निश्चय के लिए धर्मवीर राजपाल की चिता साक्षी है। दीनदयाल पटवर्धन के प्राण साक्षी हैं, क्योंकि हिंदुओं को ये दोनों सौदे महँगे नहीं पड़े-मुसलमानों के लिए तो निश्चित ही सस्ते नहीं हुए। अतः और किसी मुसलमान कवि की हिम्मत हो तो वह 'किशन, तेरी गीता जलानी होगी' इस तरह की कविता पुनः लिखे ताकि उस पूरे ड्रामे का अभ्यास होते-होते पुनः कोई इलामदीन फाँसी पर लटककर लंबा हो जाए। उसके लिए भी हमें कोई आपत्ति नहीं है। यदि आपसे बन पड़े और आप चाहें तो प्राणांत तक भी आप गाजीपन के नशे का भोग करें।

हाँ, लाहौर में जब दो लाख मुसलमान इलामदीन को 'गाजी', 'शहीद', 'हुतात्मा' समझकर सम्मानित करते थे, तब उस कोलाहल से हमारे महात्मा गांधी की समाधि रत्ती भर भी कैसे भंग नहीं हुई? यदि यह कहा जाए कि वह अभंग समाधि है तो लाहौर लाखों हिंदू राजपाल का शव जुलूस के साथ ले गए और 'धर्मवीर राजपाल की जय' की गर्जना की, तब यही समाधि पागल बन, लुहार की धौंकनी सी फुफकारती, नागन जैसी फौं-फौं करती, उस जुलूस को डंसने के लिए दौड़ी थी। राजपाल की मृत देह नहीं मिल रही थी। परंतु हिंदुओं ने पुलिस की मारपीट की परवाह न करते हुए उस लाश को छुड़ाया। लाहौर का पूरा हिंदू राजपाल की अरथी पर फूलों की वर्षा करते तथा 'जय धर्मवीर' की गर्जना करते चला। मुसलमानों ने भी हिंदुओं की जीवट वृत्ति की नकल उतारते हुए इलामदीन की लाश छुड़ाई। और गर्जन-तर्जन के साथ उसे 'गाजी' का खिताब देकर उसका जुलूस निकाला। इन दोनों गर्जनाओं में इलामदीन आततायी होने से छुरा उठाकर हत्या करने के कारण वस्तुतः अहिंसा के किसी भी सच्चे पुजारी को उस जुलूस से अधिक घृणा होनी चाहिए थी, पर नहीं, महात्मा गांधी ने उस जुलूस से घृणा नहीं की। उसे 'गाजी' कहने के लिए मुसलमानों को दोषी ठहराने योग्य एक शब्द भी उन्होंने नहीं लिखा, परंतु राजपाल का 'धर्मवीर' के रूप में सम्मान करने के बाद उनकी समाधि शांति' इतनी खौलने लगी कि वह गाली-गलौज पर उतर आई। उन्होंने कहा, 'महाराष्ट्रीय पाठक शायद इस सत्य से अनजाने होंगे, अतः वह कहानी सुनाता हूँ जो पंजाब के हिंदुओं के मर्म को छू गई है।' गांधीजी ने आपे से बाहर होकर कहा था, 'राजपाल एक पुस्तक विक्रेता है। उसने एक ऐसी पुस्तक छापी जिससे मुसलमानों के मन को ठेस पहुँची। इस वजह से उसकी हत्या हो गई। अरे इसमें उसने ऐसा कौन सा तीर मारा? उसके द्वारा छपी हुई सारी पुस्तकें बिक गईं, अत: उसका रत्ती भर भी नुकसान नहीं हुआ। फिर उसने ऐसा कौन सा स्वार्थ-त्याग किया?'

महात्मा गांधी के कहने का सार यह है कि पेट के लिए पुस्तक छापी, मोल लेकर उसे बेचा, उसकी कीमत वसूल की-इस व्यवसाय के झमेले में वह मारा गया। अरे, इसमें कैसी धर्मवीरता? अतः राजपाल का गौरव हुतात्मा के रूप में करना हिंदुओं की निरी मूर्खता है।

'राजपाल की पुस्तकों की ब्रिकी हो चुकी थी।' अत: स्वधर्मार्थ वह मारा गया, फिर भी उसे 'हुतात्मा' कहने की आवश्यकता नहीं। गांधीजी भी अपनी पुस्तकें हमेशा बेचते रहते हैं और विशेषतः उनका 'यंग इंडिया' तो केवल चंदा ऐंठकर ही जीवित है, फिर उन्हें क्यों 'महात्मा' कहा जाए। 'व्यवसाय के झमेले में राजपाल की मौत हुई' इस प्रकार निर्लज्जतापूर्वक किया हुआ तर्क भी प्रतिपादन कर सकता है कि तिलक को भी व्यवसाय-'केसरी' समाचारपत्र के झंझट में कारावास हुआ था-दंड हुआ था, फिर उन्हें 'लोकमान्य' क्यों कहें?

'राजपाल की व्यावसायिक झमेले में हत्या हुई' मान लीजिए-हुई, परंतु उसने किसीकी हत्या नहीं की थी। फिर इसलिए कि वह केवल व्यवसाय कर रहा था, राजपाल को 'धर्मवीर' कहते ही क्रोध से लाल-पीले हो रहे न्याय तथा अहिंसा के आचार्य, कायर और हत्यारे इलामदीन को, जो छुरा निकालकर, छिपे-छिपे दूसरों के सीने में घोंपता था-'गाजी' कहकर आरती उतारनेवाले मुसलमानों के विषय में निंदाजनक एक शब्द भी क्यों नहीं कहते? हो सकता है, मुसलमानों द्वारा हिंदू के सीने में छुरा घोंपना उनके अहिंसा तत्त्व के लिए उतना बाधक नहीं है, जैसे अंग्रेज के लिए जर्मनों की जान लेना भी अहिंसा विरोधी नहीं था।

महाशय राजपाल केवल व्यवसाय में ही अपना जीवन व्यतीत करते तो वह मुसलमानों की आँख की किरकिरी नहीं बनते। वे आर्यसमाज के कट्टर अभिमानी सेवक थे। मुसलमानों द्वारा की गई भगवान् कृष्ण की निंदा सहन न होने के कारण ही उन्होंने 'रँगीला रसूल' पुस्तक प्रकाशित की, उसमें निहित धोखा जानते हुए भी-इस अंजन से मुसलमानों की आँखों में झनझनाहट होने लगते ही उनकी बाँछे खिल गईं। यदि उन्हें व्यवसाय करना होता तो श्रद्धानंद के हत्यारों का, अब्दुल्ला का, चरित्र लिखकर और उसे 'भाई अब्दुल्ला' का गौरव प्रदान कर 'यंग इंडिया' समान ही उसकी लाखों प्रतियाँ बेचते अथवा कोई कल्पित इतिहास की पुस्तक जो 'अपने उन शूर मुगलों' की धर्मनिष्ठा की प्रशंसा के पुल बाँध रही है और दावा कर रही है कि नलबाजार [3] में उन्होंने अत्याचार किए ही नहीं, प्रकाशित करके खिलाफत कमेटी द्वारा ही नहीं, साबरमती के आश्रम से भी उस हिंदू द्वेष के पाप-पुण्य का सैकड़ों रुपयों का पुरस्कार प्राप्त करते।

कम-से-कम अपने भोपाल के नवाब तो थे ही। हिंदू जनता उस धर्मच्छल से उस दुष्ट राज्य से संत्रस्त थी, उस राज्यांतर्गत लड़के-लड़कियों का, जो मुसलिम गुंडागर्दी के शिकार बन चुक थे, आक्रोश 'कर्मवीर' समान गांधीभक्त समाचारपत्र में भी गूँज रहा था। उस राज्य में हिंदी भाषा, हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति की हत्या करते हुए सतत मुसलमानीकरण के चलते जिस प्रकार महात्माजी जान-बूझकर भोपाल में कहते रहे कि नवाब की राज्य-व्यवस्था में भोपाल की प्रजा संतुष्ट है, जिस नवाबजादे की केवल एक ऐशो-आराम की मोटरकार इतनी महँगी है कि उसमें स्नानगृह, पानगृह (बार), शय्यागृह इस प्रकार पूरा राजमहल ही खड़ा किया गया है और पूरे यूरोप में आजकल एक प्रतियोगिता में भव्यता के लिए जिसे प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ है-गांधीजी के अनुसार उस नवाब का रहन-सहन बिलकुल सादगीपूर्ण है। वह लगभग रामराजा ही है। हमारा कहना है, 'यदि राजपाल महाशय केवल पुस्तक बेचने का ही व्यवसाय करना चाहते तो वे 'भोपाल का रामराजा और उसका भाट साबरमती का वाल्मीकि' नामक एक पुस्तक प्रकाशित करके गांधी विरचित भोपाल के नवाब का चरित्र उसमें छापते। अर्थात् भोपाल के नवाब महात्मा गांधी समान राजपाल बाबू के हाथ भी गीले करते। इतना ही नहीं, मुसलमान लोग राजपाल बाबू को भी 'महात्मा गांधी' कहने लगते, हिंदू तो अवश्य ही कहते, क्योंकि उसे महाकरुणाधन कहा जाता है, जो सज्जन को लगे घाव से चोर को लगे घाव देखकर अधिक दुःखी होकर रोता है। महासात्त्विक वही है जो मनुष्य के बच्चे के सामने से दूध छीनकर सपोले को दूध पिलाता है। महान् तपस्वी वही कहलाता है जो दानों टाँगों पर न चलते हुए सिर के बल चलता है।

हिंदू धर्म की निष्ठा और हिंदुत्व का यथार्थ अभिमान तीन बार अपने प्राणों पर संकट पड़ने पर भी राजपाल महाशय ने नहीं त्यागा, इसलिए वे सच्चे धर्मवीर थे। इसी कारणवश संगठनाभिमानी लाखों हिंदुओं ने उनपर कृतज्ञता के फूल बिखेरे और इसलिए महात्मा गांधी को यह बात खटकी। क्योंकि संगठनाओं का प्रचंड आंदोलन उनके अभिशापों को ताक पर रखकर दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा है। यह सत्य है कि यह बात उन्हें फूटी आँखों भी नहीं सुहाती। उसे भर पाने के लिए वे उसकी निंदा अवश्य करते हैं जिसकी संगठनावादी हिंदू धर्मवीर प्रशंसा करते हैं और वे जिसकी निंदा करते हैं, उन भोपाल नरेश जैसे हिंदू द्वेषी नवाबों की प्रशंसा के पुल बाँधते हैं, संगठन में उनका महत्त्व नहीं, इसलिए उनसे ईर्ष्या और संगठन से गठजोड़ करें तो मुसलमानों की लाठी और छुरे सिर पर घूमते रहेंगे-यह भय-इससे यह मामला पेचीदा हो गया है-और क्या?

अच्छा हुआ, आजकल लंका में रावण का राज्य नहीं है, अन्यथा हिंदू संगठन से जल-भुनकर कबाब बने भोपाल के नवाब की जिस तरह उन्होंने इतनी प्रशंसा की कि व्यावसायिक स्तुतिक-पाठकों का सिर भी लज्जा से झुक जाएगा-उसी तरह लंका में खादी का दौरा निकालकर वे यह कहे बिना नहीं रहते कि 'रावण राज में पूरी प्रजा संतुष्ट है, अशोक वन में बंदिनी बनी सीता माई भी। रावण रामराजा हैं।'

३० नवंबर, १९२९



[1] गंडा भूतप्रेत की बाधा दूर करने के लिए किसी धागे में मंत्र पढ़कर गाँठ लगाने का कार्य।

[2] अक्षता-अखंडित चावल। यज्ञोपवीत संस्कार या विवाह के अवसरों पर चावल कुंकुम लगाकर निमंत्रित अतिथियों को दिए जाते हैं। पुरोहित के मंत्रोच्चारणों के साथ ये चावल वर-वधू पर अथवा उस बालक पर जिसका उपनयन हो रहा है, अतिथि फेंकते हैं।

[3] मुंबई का एक इलाका।

शंकराचार्य महाराज तथा जॉन बुल महाराज की सूचना

अत्याचारियों की एक विशेष जाति होती है। इसलिए संसार भर में अत्याचारियों की विचार परंपरा भी एक समान, एक ही साँचे में ढली हुई होती है। फिर वह जल्लाद कोट-पतलून-टोपीधारी कोई जॉन बुल हो अथवा काषाय कौपीन मुंडधारी कोई पीठेश्वराचार्य हो।

यदि कोई इस हाथ कंगन को आरसी देखना चाहता हो तो वह शारदा पीठ के शंकराचार्य की ओर से प्रसिद्ध अंत्यज वर्ग विषयक घोषणा देखे। अंत्यज वर्ग को छूना भी घोर पाप होने के कारण इस पाप प्रवण प्राणिमात्र की रक्षा करने के पवित्र उद्देश्य से परमहंस परिव्राजकाचार्य इत्यादि-इत्यादि द्वारा यह घोषणा की गई है। यह घोषणा नवीनतम होने के कारण हमने सोचा, उसमें कुछ नए विचार होंगे, अतः हम उसे पढ़ने लगे, परंतु हमें ऐसा प्रतीत होने लगा कि इसमें से प्रायः सभी वाक्य इससे पहले कहीं पढ़े हैं। विचार-परंपरा तो इतनी परिचित प्रतीत हई कि संदेह उभरने लगा, वह किसी पुराने लेख से चुराई हुई है, परंतु पीठ जैसी अधिकारी संस्था की घोषणा होने से वह किसीकी चुराई हुई घोषणा है, यह कहने का साहस हमने नहीं किया। अत: किसी अन्य व्यक्ति ने, जो शारदा पीठ समान ही मानसिक परिस्थितियों से गुजर रहा हो और उसी तरह महान् होकर दलितों पर केवल दया करने के लिए ही उन्हें पीसने का पुण्य कर्म करने में निपुण हो, इससे पहले इसी तरह घोषणा की हो, उस घोषणा को हमने पढ़ा हो और जान-बूझकर उसकी नकल उतारने का हेतु न होते हुए भी मानवता समान होने के कारण समान मानसिक अवस्थाओं में समान उदगार सहजतापूर्वक निकलने की प्रवृत्तिवश उस प्राचीन घोषणा जैसी ही विचार परंपरा इस नई घोषणा में उतरी हो-इस प्रकार हमारी धारणा होने से हम अपनी स्मृतियों के हृदय कपाट में तथा कमरे के काष्ठ कपाट में ढूँढ़ने लगे कि वह प्राचीन परंपरा हमने कहाँ देखी और कहाँ रखी है।

कुछ समय पश्चात् हमें वह कागज मिल गया। हमें प्रसन्नता हई। हमारी धारणा के अनुसार वह भी एक महान् अधिकारसंपन्न संस्था की घोषणा ही थी। इतना ही नहीं, परंतु शारदा पीठ की यह घोषणा जिस तरह 'श्रीमद् राजराजेश्वर महाराज' की ओर से थी, उसी प्रकार वह भी बिलकल उसी राजराजेश्वर महाराज के ही महान् नाम को अलंकृत कर रही थी। इसी आशा से कि ऐसी ऐतिहासिक समानता की जिस प्रकार हमने सराहना की उसी प्रकार पाठक भी करेंगे, हम इन दोनों घोषणाओं के अंतर्गत महत्त्वपूर्ण अंश प्रकाशित कर रहे हैं। इन घोषणाओं में से शारदा पीठ की घोषणा आजकल सभी के सामने होने के कारण उसका परिच्छेद हम दे रहे हैं। उसकी सत्यता व सत्यता की परख कोई भी कर सकता है। केवल अर्थ स्पष्टीकरणार्थ कोष्ठक में कहीं-कहीं जो वाक्य दिए हैं, बस उतने ही हमारे हैं। बाकी शारदा पीठ की घोषणा हमने ज्यों-की-त्यों दी है। उसमें से अहिंदू शब्द भी बदला नहीं, क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि हिंदू शंकराचार्य के लेखन में म्लेच्छ शब्दों का प्रयोग भी सनातन धर्म ही होगा। दूसरी घोषणा जो है, वह केवल हमारी आलमारी में पड़ी एक पांडुलिपि के बिना प्राय: अनुपलब्ध ही है। तथापि ऐसे हजारों लोग विद्यमान हैं जिन्होंने उसमें स्थित लेखन कहीं-न-कहीं पढ़ा होने से उन वाक्यों के यथावत् होने में संदेह ही नहीं रहेगा। यह नई घोषणा शंकराचार्य महाराज की ओर से अंत्यज वर्ग को सूचना के रूप में निकली है। जॉन बुल महाराज की ओर से शंकराचार्य के साथ सभी भारतीयों को पुरानी घोषणा आज्ञापत्र के रूप में निकली है, जो हूबहू वैसी ही है। शंकराचार्य शारदा पीठ केवल महार, चमारों को अंत्यज अस्पृश्य होने के नाते जो उन्हें अपने ही धर्म के अनुसार रहने का उपदेश दे रहे हैं-उसी अंत्यज धर्म के अनुसार रहने का उपदेश भी महाराज जॉन बुल की घोषणा शंकराचार्य के साथ सभी भारतीयों को अंत्यज, अछूत समझकर भारतीय लोगों को दे रही है। ये दोनों घोषणाएँ इस तरह हैं-

शंकराचार्य महाराज की धर्मनिष्ठ भारतीय अस्पृश्य वर्ग को सूचना

श्रीमत् परमहंस परिव्राजकाचार्य जगद्गुरु श्री शंकराचार्य शारदापीठाधीश्वर श्रीमद् राजराजेश्वर महाराज की ओर से अस्पृश्य वर्ग को शुभ आशीर्वादपूर्ण सूचित किया जाता है कि-

१. कुछ दिनों से लोभ-लालच के वश होकर कई धर्मद्रोही लोग स्पर्शास्पर्श मर्यादा अर्थात् सृष्टिक्रमानुसार पारंपरिक प्रणाली तोड़कर सब गोलंकार करने के उद्देश्य से अंत्यज स्पर्श करने का और अंत्यजों को उच्च वर्णियों की तरह देवमंदिर प्रवेश अधिकार देकर उच्च वर्णीय प्रजा को भ्रष्ट करने का स्वार्थी तथा धर्मद्रोही प्रयास कर रहे हैं। धर्मद्रोह के इस बवंडर में तुम अछूत अपने आप को दूर रखो।

२. तुम अंत्यज भारतवर्ष की ही प्रजा हो और हिंदू जाति का ही एक अंग हो। भारतीयों का प्रमुख धर्म (अर्थात् हम स्पृश्यों से इतना सटकर न चलें। जितना गाँव का कत्ता चलता है। उस स्थान का भी पानी जहा भैंस पानी पीती हैं वहाँ भी नदी का पानी न पीकर उसके बिलकुल नीचे नदी को छूना, उस स्वादिष्ट तालाब का जहाँ मुसलमान अपनी चायदानी धोते हैं, कुत्ते पानी पीते हैं-पानी चखकर उसे भ्रष्ट न करना। सभी तरह के लाभदायक व्यवसाय में व्यस्त रहेंगे, तुम गाँव के श्मशान की परली तरफ झुग्गी-झोंपड़ी में ही रहना (आदि पवित्र धर्म सूत्रानुरूप) अपने धर्म का पालन करोगे तो इसी में तुम्हारा कल्याण है।

३. इन नवधर्मद्रोही अंत्यजोद्धारक लोगों ने कभी तुम्हें अन्न-वस्त्र दिया है? (जैसे कि हम ग्रहण छूटने के पश्चात् फटे-पुराने चीथड़े तथा तीज-त्योहार में झूठन का सनातनी दान करते हैं।) उन्होंने ऐसा क्या दिया है जिसमें तुम्हारा सच्चा कल्याण है? (यह बात सफेद झूठ है कि स्वामी श्रद्धानंद, लाला लाजपत राय, हिंदूसभा के दलितोद्धारक संगठनों ने हजारों अस्पृश्यों को रोजी-रोटी दी) हम उच्च वर्णीय लोग उसमें सहायता करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं जिसमें तुम्हारा कल्याण हो। ये धर्मद्रोही नेता तुम्हारे वास्तविक शत्रु हैं। उनकी आँधी में फँसोगे तो मुंशीगंज-पार्वती की तरह उसका परिणाम भुगतना पड़ेगा, बड़ा बावेला मंचेगा।

४. अतः इन धर्मद्रोहियों से सावधान! अपने अस्पृश्य धर्म का पालन करते रहोगे तो ईश्वर तुमपर कृपालु होकर अगले जन्म में तुम्हें उच्च वर्णियों में जन्म देगा (कदाचित् हो सकता है कि आज का कोई शंकराचार्य पिछले जन्म में चमार हो-उसी तरह आज का अछूत अगले जन्म में उच्च वर्णियों में जन्म लेकर अगला शंकराचार्य भी हो सकता है। मरने के बाद इससे अधिक आशादायी भविष्य क्या हो सकता है भला? अतः मरते दम तक इस जन्म में कुत्ते से भी अधिक अछूत अवस्था में ही संतुष्ट रहो।)

जॉन बुल महाराज की राजनिष्ठ भारतीय प्रजावर्ग को सूचना

श्रीमत् परमहंस (हंस की तरह गौरवर्णीय) परिव्राजकाचार्य (वे जिनका आक्रमण चारों महाद्वीपों में संचार कर रहा है।) आंग्ल द्वीपाधीश्वर श्रीमद्राजेश्वर (आपके शंकराचार्य सहित सभी राजा-महाराजाओं के अधिराज) श्रीमत् जॉन बुल महाराज की ओर से हमारे भारतीय पद दलित प्रजाजनों को शुभाशीर्वादपूर्वक आज्ञा दी जाती है कि-

१. कुछ दिनों से लोभ-लालच के वश होकर कई राजद्रोहियों ने (उदाहरणस्वरूप तिलक, लाजपतराय, चापेकर, सावरकर, अरविंद, गांधी, गोखले आदि-बड़े-बड़े ओहदे की नौकरियाँ न पाने के कारण असंतुष्ट बने दुष्टों ने राजा-प्रजा मर्यादा-'ना विष्णुः पृथिवीपतिः) सृष्टिक्रम से चली आई यह प्रणाली तोड़कर हम यानी गोरे अंग्रेज पृथ्वीपति, तुम काले हिंदू लोगों के राजे हैं, इसलिए विष्णु समान पूज्य, तुम प्रजा अर्थात् हमारे दास। यह व्यवस्था भंग करने और गोरे अंग्रेजों तथा काले हिंदी लोगों का समान अधिकार कहकर सब गोल करने का तथा हमारे राजमंदिर से इस हीनवर्णीय प्रजा को प्रवेशादिक अधिकार देकर भ्रष्ट करने का राजद्रोही प्रयास चलाया है। इस राजद्रोह की आँधी में तुम अर्थात् हमारी काली प्रजा न फँसे।

२. तुम भारतीय लोग हमारी प्रजा हो और हमारे ब्रिटिश साम्राज्य का एक अंग भी। तुम्हारे सनातन वर्णाश्रम धर्म के अनुसार इस साम्राज्य का प्रधान धर्म वर्णाश्रम ही है अर्थात् Colour bar है। तुम हिंदी दास प्रजा और हम अंग्रेज गोरे-स्वामी, राजे। तुम इस वर्णाश्रम का पालन करो। (अर्थात् हम फर्स्ट क्लास में बैठे हों तो तुम लोग हमारी बराबरी करके साथ नहीं बैठना। राह में अंग्रेज को देखते ही उसे सलाम करना, वरिष्ठ गोरा अफसर क्रुद्ध हो जाए तो उसकी लातें प्रसाद समझकर खाएँ, हम गवर्नरी आदि करें और तुम क्लर्की, चपरासी, बावरची बनके रहना, कचहरियों में काम करते हम नगरों में बसें और तुम गाँव के बाहर की गंदी Coloured Area में बसना, स्कूलों में, ट्रांबे, सड़कों पर हमारे साथ नहीं चलना, गोरे लोगों का मार्ग भ्रष्ट नहीं करना। हम तुमपर सवार, तुम हमारे भारवाहक पशु-इस राजा-प्रजा संबंधित सृष्टि नियम का आनंदपूर्वक पालन करना) इस धर्म का पालन करने में ही तुम्हारा कल्याण है।

३. इन नवराजद्रोही भारतोद्धारक कहलानेवाले लोगों ने तुम भारतीय प्रजाजनों को कभी अन्न-वस्त्र दिया है? उनका काँइयाँपन उजागर हो, इसलिए तो तुम्हारे कल्याणार्थ ही हमारे राज्य में हम लगभग प्रतिवर्ष बड़े-बड़े सूखे करवाते हैं और तम काले लोग दाने-दाने के लिए तरसते हो। तब हम लाखों रुपयों का वेतन ऐंठकर विलायत भेजते हैं (इस उद्देश्य से कि तुम्हें इस कसौटी का दर्शन कराएँ कि ये राजद्रोही तुम्हें भरपूर अन्न-वस्त्र देते हैं या नहीं) जिससे तुम्हारा वास्तविक हित है (उदा. प्रचुर मात्रा में चुपचाप कर का भुगतान करना, हिंदुस्थान स्थित सारा सोना विलायत भेजने में बाधा नहीं डालना, हमारे शत्रु की तोपों का तब तक भक्ष्य बनना जब तक उसका गोला-बारूद समाप्त नहीं होता)। इस प्रकार के कार्यों में हम उच्च वर्णीय (White Races) तुम्हारी सहायता के लिए सिद्ध हैं। ये तिलक आदि राजद्रोही नेता ही तुम्हारे वास्तविक शत्रु हैं। उनके बवंडर में फँसोगे तो उसका परिणाम (जालियाँवाला बाग की तरह) तुम्हें भुगतना पड़ेगा। कहर बरपेगा।

४. अत: इन राजद्रोह आंदोलनकारियों से सावधान! राज्यकर्ता अंग्रेजों को विष्णुरूप मानकर, प्रजा के दासधर्म का पालन करते रहोगे तो हो सकता है ईश्वर तुमपर कृपा करके अगले जन्म में अंग्रेजों में-इंग्लैंड में-तुम्हारा जन्म हो। (न जाने कहीं मरने के बाद अगले जन्म में लॉर्ड लोगों में जन्म लेकर तुम साम्राज्य के प्रधानमंत्री भी बनोगे या राजमहल में जन्म लेकर तुम राजा-महाराजा बनोगे-मरने के बाद अगले जन्म के लिए कितना आशावादी भविष्य!) अतः उस पर नजर रखकर इस जन्म में (मरते दम तक हमारे वेतन के भारवाहक संतुष्ट गधे बनकर) प्रजाधर्म का यथावत् पालन करो।

१४ दिसंबर, १९२९

सर टेगार्ट के डंडे के विरोध में चिटगाँव का प्रतिडंडा

जिधर देखो उधर निबंध भंग। भारतीय लोगों का निर्बंध भंग का यह खेल देखते-देखते साक्षात् अंग्रेज सरकार से भी निर्बंध भंग की इस छूत की बीमारी में सम्मिलित हुए बिना रहा नहीं गया।

अंग्रेज सरकार के सभी खिलाड़ियों में कलकत्ता के सर चार्ल्स टेगार्ड अत्यंत तेज-तर्रार खिलाड़ी के रूप में पहले से ही प्रसिद्ध है। अतः यह स्वाभाविक ही है कि निर्बंध भंग का यह खेल अपना रंग जमा ही रहा था कि उन्हें सबसे पहले उसमें कूदने की इच्छा हो गई और उनकी एक छलाँग के साथ उन्होंने सभी सरकारी तथा अर्ध सरकारी खिलाड़ियों पर मात की।

बै. सेनगुप्त, सुभाष बाबू और अन्य लोग नमक निबंध का भंग करते हैं। सर चार्ल्स टेगार्ड ने कहा-ठहरो, मैं निबंध-ग्रंथ का ही-पूरे भारतीय संविधान का ही-इंडियन पीनल का ही भंग करता हूँ। इतना कहते हुए वे बाहर निकल पड़े और उसपर सरस्वती छापखाने में जो उन्होंने पहले-पहल देखा-घुसकर वहाँ के प्रबंधक मुखर्जी से भिड़ गए। उन्होंने मुखर्जी से पूछा, तो मुखर्जी ने उनसे कहा, 'पर, आपके पास वॉरंट है?' सर टेगार्ट फौं-फौं करने लगे--'चुप रहो! वॉरंट? यह देखो, पुलिसिया वॉरंट।'

कलकत्ता के उस पुलिस कमिश्नर ने मुखर्जी महाशय के सिर पर अपना पुलिसिया डंडा जोर-जोर से घुमाते हुए कहा, 'यह देखो वॉरंट', इसके आगे इस डंडा-वॉरंट से ही सारा कारोबार होगा।

हमारे महान् नेताओं ने नमक-कायदा भंग किया तो सरकार के साक्षात् पुलिस कमिशनर ने सभी इंडियन पीनल कोड तथा क्रिमिनल प्रोसिजर का ही निबंध भंग कर डाला। सरकार भी महात्मा गांधी के आंदोलन में सम्मिलित हो गई। अब निर्बंध भंग आंदोलन को किसीका भी विरोध नहीं रहा। डंडा ही वॉरंट बन गया। गायों में जिस प्रकार तैंतीस करोड देवताओं का निवास होता है, उसी तरह इस डंडे में अंग्रेजों के तैंतीस करोड़ निबंध समाविष्ट हुए हैं। अब बस अमुक धारा, अमुक कोड छेदक रटने की आवश्यकता नहीं। बस, एक ही शब्द का स्मरण करें-दंड। दंड ही निबंध, यही नियम, यही नीति, यही धर्म और वॉरंट। डंडा, अंग्रेजी प्रशासन का सारा मर्म इसी एक शब्द में समाया हुआ है। जो शब्द आज तक किसी गुरु-मंत्र के समान गोपनीय रखने से मुर्ख उस अंग्रेजी प्रशासन के घटना सूत्र पीनल कोड आदि पचास धाराओं में ढूँढ़ते फिरते हैं, अच्छा हुआ कि वह शब्द आखिर सर टेगार्ड ने स्पष्ट किया-डंडा। इसी में अंग्रेज सत्ता का मर्म है। 'डंडा ही अंग्रेजी अस्तित्व का वॉरंट है और 'सेक्शन' भी।

'ठीक है। तो फिर' चिटगाँव के क्रांतिकारियों ने कहा, 'चलो, डंडा ही सही।' निर्बंध नियम, डर, चाल-चलन, सभी पैरों तले रौंदकर अंग्रेज प्रशासन के इस 'चुप रहो, डंडा ही वॉरंट है।' कहकर दी हुई चुनौती के साथ ताल ठोंककर चिटगाँव के क्रांतिकारियों ने भी प्रतिचूनौती दी-'नहीं रहते चुप। तुम्हारे इस डंडे को यह प्रतिडंडा।' क्या तुम्हारी ही बाँहें हैं? तुम लोग वॉरंट मचा रहे थे, तब उस ताल पर हम भी निर्बंध भंग के गीत के साथ इतरा रहे थे, पर अब तुम लोग यदि वॉरंट्स दिखा-दिखाकर हमारे सर पर डंडा घुमाना चाहते हो तो हम भी उस निबंध भंग के ललित गीत समाप्त करके प्राणभंग के रणगीत का पहला डंडा बजाएँगे। मानो इस तरह कहते हुए उन उग्र क्रांतिकारियों ने किसीको कानोकान खबर भी नहीं थी, तब अचानक चिटगाँव में प्राणभंग की भयंकर खलबली मचाई।

जो लोग प्राणभंग के आंदोलन पर उतारू हो गए थे, वे सारे मुट्ठी भर ही थे। अधिक-से-अधिक कोई सौ एक हों, परंतु इन मुट्ठी भर प्राणभंग की गर्जन तर्जन से निर्बंध भंग के मीलों तक फैले हुए हजारों जुलूसों के स्वाहाकारों से, हाहाकार से अथवा जय-जयकार से राजनीतिक वातावरण इतना काँप उठा था जितना इससे पहले कभी नहीं काँपा था, क्योंकि उन कठोर हृदयों ने स्वतंत्रता नमक फेंककर एकदम स्वतंत्रता-पिस्तौल ही मुट्ठी में पकड़ी। एकदम प्राणों पर आ पड़ी।

वह शुक्रवार की रात थी। उस पर वह 'अच्छा शुक्रवार, गुड फ्राइडे था।' अंग्रेज अधिकारी छुट्टी तथा त्योहार का आनंद ले रहे थे। इतने में रात का अँधेरा एकदम चमक उठा। क्रांतिकारियों ने तीन टुकड़ियों में बँटकर-उनमें से एक ने टेलीफोन एक्सेंज काट दिया और पेट्रोल डालकर आग लगा दी। ढाका और कलकत्ता की रेल का संबंध तोड़कर दूर-दूर की पटरियाँ उखाड़ दीं। मालगाड़ी पटरियों से खींचकर रेलमार्ग बंद किया। दूसरी टुकड़ी ने आसाम-बंगाल रेल अधिकारियों पर आक्रमण करते हुए बंदूक के दस्ते से उनका सर कुचलकर मार डाला। इसके बाद उस स्टेशन को भी आग लगाकर उसमें पड़ी बंदूकें तथा बारूद छीन लिया।

तीसरी टुकड़ी ने आरक्षित पुलिस की छावनी पर छापा मारा। अंग्रेज साऊंट आदि पहरेदारों को निडर मारकर वे शस्त्रागार में घुस गए और बंदूकें, बारूद आदि शस्त्रों की लूटमार की। जिस बारूद को उठाना उनके लिए असंभव था, उसमें आग लगा दी।

इतना सारा भयानक कांड होने के बाद मजिस्ट्रेट साहब मोटर से बंदोबस्त के लिए निकल पडे, परंतु रास्ते में उन्हीं का बंदोबस्त कर दिया गया। क्रांतिकारियों ने उन्हीं की मोटर उड़ाकर गोलियाँ चलाकर ड्राइवर को घायल किया, सिपाहियों को जान से मार डाला। मजिस्ट्रेट बड़ी कठिनाई के साथ जान बचाकर खिसक गए।

इस प्रकार विद्रोह करके, शस्त्र लूटकर सौ लोगों का वह दल पास के दुर्गम पहाड़ों में घुसकर सही-सलामत आँखों से ओझल हो गया।

अच्छे शुक्रवार का दिन चिटगाँव के अंग्रेजों को तथा अंग्रेज सत्ता के लिए बहुत बुरा सिद्ध हुआ। सिंह के जिन दाँतों तथा नाखूनों का भय था, वही दाँत और नाखून जिन क्रांतिकारियों ने उखाड़ फेंक दिए, वे सिंह की पूँछ से थोड़े ही डरेंगे? जिस शस्त्रागार के भय से ब्रिटिश सत्ता का भय था, उस शस्त्रागार को ही क्रांतिकारियों ने लूट लिया। अंग्रेजों के ही शस्त्र छीनकर उन्होंने अंग्रेजों का संहार किया। जूता भी उनका और सिर भी उनका। सर टेगार्ड ने मुखर्जी के सिर पर जो डंडा घुमाकर कहा, 'यह देख वॉरंट' उसी डंडे से चिटगाँव में क्रांतिकारियों ने टेगार्ड के अंग्रेज भाई-बंधुओं के सिर पर प्रहार करते हुए कहा, 'यह देखो मौत!'

पिछले महीने में ही कलकत्ता और कराची में दंगे हो गए, परंतु वे दंगा-फसाद ही थे। हजारों लोग बिना किसी योजना के पुलिस और सरकार की नादिरशाही से तत्काल क्षुब्ध हो गए और वह मारपीट हुई। तथापि उसमें जो अंग्रेजों पर अचूक मार पड़ी और भारतीय नेताओं पर जो अचूक गोलियाँ दागी गईं, उनसे निर्बंध भंग का पग स्वयं ही प्राणभंग की ओर बढ़ने लगा, परंतु इस चिटगाँव का मामला अलग था, यहाँ क्रांतिकारियों ने जान-बूझकर अंग्रेजों पर आक्रमण किया। १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का फाड़ा हुआ एक पन्ना था वह, न कि दंगा-फसाद। वह किसी विद्रोह की उकताहट का हुंकार था।

क्योंकि सन् सत्तावन में प्रत्येक केंद्र का यही कार्यक्रम निश्चित था। अचानक डाक-तार-रेल तोड़-फोड़ करके यातायात ठप करना, अंग्रेज प्रशासकों पर छापा, स्थानीय और क्रांतिकारियों की विजय घोषित करना, यही कार्यक्रम ठीक वैसा ही घड़ी की सुई की तरह संपन्न किया गया। एक बात बाकी रही-सन् १८५७ में सैनिक और पहले क्रांतिकारियों से पुलिस की मिलीभगत होती थी और विद्रोह होते ही वे प्रकट रूप में उनमें घल-मिल जाते थे। इक्का-दुक्का विद्रोह नहीं अपितु सार्वत्रिक उत्थान। सर्वव्यापी आभियान-इन दो बातों को छोड़ दें तो चिटगाँव का विद्रोह १८५७ के पूर्व निश्चित तथा आक्रमणशील स्थानिक कार्यक्रम की पूरी-पूरी कार्यान्विति था। कश्चित् आनेवाले बवंडर की पूर्व सूचना थी।

और इसलिए गवर्नर जनरल, गवर्नर, कलेक्टर, मजिस्ट्रेट, इतना ही नहीं हमारे महात्मा गांधी भी चिटगाँव के इस क्रांतिकारी हुंकार के साथ अचानक चौंक कर आगबबूला हो गए। इधर लक्षावधि लोग इस प्रकार आंदोलन की मौज-मस्ती उड़ा रहे थे। जुलूस, मुट्ठी-मुट्ठी नमक, पुलिस का मजा हड़ताल के समाचार कि आज अमुक को पुलिस ने नोचा, अमुक ने भी नमक का त्याग नहीं किया, उस स्वतंत्रता वीर को दो महीनों का दंड हुआ, अमुक देशवीर को तीन दिनों का। सरकार और लोग-दोनों ही इस आंदोलन में मग्न हो गए थे, परंतु चिटगाँव के इन मुट्ठी भर सौ लोगों ने उस सारे रंग में भंग कर दिया। अरे, आंदोलन के खेल में कोई इस तरह क्रुद्ध होता है कहीं? ये क्रांतिकारी खेल के रूप में उसे देखते ही नहीं। एकदम तू-तू, मैं-मैं। यही कारण है कि जिस तरह अंग्रेजों से हमारी गहरी छनती है उस तरह इन लोगों से नहीं।

और इसी वजह से हम अंग्रेज सरकार और लोगों को सानुरोध सूचना करते हैं कि-ऐसे चिड़चिड़े और तू-तड़ाक पर उतरनेवाले इन लोगों का समय पर ही ठीक बंदोबस्त करें। चिटगाँव का यह क्रांतिकारी आक्रमण, चौरी-चौरा दंगे से भी जिसका इससे पहले इतना बोलबाला हुआ था-बहुत ही अधिक भयंकर अर्थों से भरा हुआ है। उसमें स्थित खूबी समय पर ही जान लें। विशेषत: अंग्रेज सरकार प्रत्येक स्थान पर चिटगाँव की पुनरावृत्ति होने से पहले ही कुछ समझौता करे।

गांधीजी ने चिटगाँव के इस भयंकर विद्रोह को दो-चार गाली-गलौज के साथ आदेश दिया है कि वे लोग मेरे आंदोलन से दूर ही रहें जो अहिंसा नीति का पालन नहीं करते। यह आश्चर्य है कि गांधीजी की आँखें चौरीचौरा की घटना से आजकल खुली ही नहीं। अभी भी वे इस बात पर गौर करें कि एक बार कोई प्रचंड राष्ट्रीय आँधी उठे तो उसे किसी बारदोली के कुल्हड़ में 'मेरे' नियमों का डाट लगाकर दबाना असंभव होता है।

महात्माजी! यह जो आंदोलन चल रहा है न, वह एक संपूर्ण संतप्त राष्ट्र के उत्थान के साथ हो रहे हुंकार की गूँज है। यह आंदोलन न मेरा है न ही आपका। यह भारत के युगों से संचित पाप-पुण्यों की, मानापमान की, कोटि-कोटि जीवों की तड़प, लगन से उत्क्षुब्ध हुई महाकाली की प्रलयकारी क्रांति है। इसमें 'मेरा', 'तेरा', 'उन' का, 'सभी' का हिस्सा है। परंतु उसका भाग्य, विधि, विधान और नियंत्रण 'मेरे तेरे' 'उन' के किसी के भी हाथ में नहीं, उस महाकाली की अति मानवी इच्छा पर निर्भर है। दासता की श्रृंखलाएँ तोड़ने की उत्कंठा आपसे भी उन्हें अधिक उत्कटतापूर्वक लगी है। आप दर्भ से तोड़ना चाहते हैं, हम छड़ी से, तो वे हथौड़े से तोड़ने का प्रयास करते हैं। उन श्रृंखलाओं को तोड़कर यह भारतभूमि स्वतंत्र करने के लिए कटिबद्ध होने का तथा लड़ने का अधिकार प्रत्येक को है। कौन किससे कहे कि तुम दूर रहो। अत: 'यह होकर ही रहेगा' यह स्वीकार करके हम सभी को उस क्रांति का सामना करना होगा। अब कम-से-कम भविष्य में इस प्रकार विपरीत आज्ञा, विपरीत अपेक्षा न करें।

इसके लिए ही हमने पहले एक अंक में किसी कर्नल बीड के भेजे हुए पत्र से कि 'क्रांतिकारी पक्ष तीन वर्षों तक चुप नहीं रहेगा', जो लोग अभिभूत हो गए थे, उन्हें चेतावनी भेजी थी। तीन वर्ष ही नहीं, तीन सप्ताह भी पूरे नहीं हुए कि कलकत्ता में दंगा हुआ, कराची में हो गया और चिटगाँव का यह क्रांतिकारी छापा तो पूरे हिंदुस्थान को ही नहीं, पूरे अंग्रेजों को भी इतने जोर से कि 'बहरा भी सुन सके', चेतावनी दे रहे हैं कि क्रांतिकारी जीवित हैं, वृद्धिंगत हो रहे हैं और जब तक वे सफल नहीं होते, उनके अदृश्य होने के चिह्न नहीं दिखाई देते। इसलिए वह क्रांति यथासंभव समझा-बुझाकर अंग्रेज और हम दोनों मिल-जुलकर करें-यही उचित है-और यह अभी भी संभव है। इसके आगे भवितव्यता बलीयसी है।

परंतु यह भवितव्यता चाहे कुछ भी हो और बिलकुल आज भी स्वाधीनता का पार्सल इंग्लैंड ने भेज भी दिया, तब भी आज किस मुँह से कहा जाएगा कि यह स्वतंत्रता बिना रक्तपात तथा बिना शस्त्राघात के प्राप्त हो गई। क्योंकि रक्तपात और शस्त्राघात तो आज बीस वर्षों से सतत चल ही रहा है। सर टेगार्ड का डंडा और चिटगाँव का प्रतिडंडा उसके बिलकुल अद्यावधि (Up to date) अस्तित्व का ताजा समाचार है।

३ मई, १९३०

यह प्रतिशोध की बला अथवा हत्या की बला

यह बात अब सर्वविदित हो चुकी है कि लाहौर को सांडर्स नामक एक असिस्टेंट पुलिस सुपरिटेंडेंट को किसीने गोली से उड़ा दिया और सारे विश्व को संदेह है कि यह कृत्य लालाजी की हत्या के प्रतिशोधार्थ किया गया है। लालाजी पर साइमन के बहिष्कार-प्रदर्शक जुलूस में जो अत्याचारी मार पड़ी, उस प्रसंग में सांडर्स पुलिस अधिकारी के नाते वहाँ उपस्थित था अर्थात् उस दंगे में उसका भी हाथ था, यह बात कई समाचारपत्रों में प्रकाशित हो गई थी।

स्वयं लालाजी ने तो हाथ में छड़ी भी नहीं पकड़ी थी। इतना ही नहीं, जुलूस में अन्य लोगों के हाथों की लाठियाँ भी उन्होंने चुन-चुनकर छीन ली थीं और इस प्रकार के लाठीशून्य समाज के साथ लाठीबाज, बायोनेटबाज पुलिस का सामना किया जिससे कि अहिंसात्मक सत्याग्रह की परिभाषा की चौखट में यह जुलूस ठीक बैठे। वैसे बैठ भी गया। और जब बिनलाठी लाठी से सामना करती है तब जो इस अलौकिक युद्धकला का लौकिक परिणाम होना था, अंत में वह निरपवाद रूप में हो भी गया। लाठी द्वारा बिनलाठी की छाती पहले ही आघात से फटकारी गई, जुलूस तितर-बितर किया गया, लालाजी घायल हो गए, सरकार ने पुलिस की पीठ ठोंकी, हमारी पीठ सरकारी लाठियों से छीली, आगे चलकर लालाजी का अकस्मात् स्वर्गवास हो गया। लोगों ने कहा, लालाजी लाठी के घाव की बलि बन गए। सरकार ने कहा, 'नहीं' और यदि बन भी गए तो 'शांति तथा निबंधों' का उल्लंघन करनेवालों का बंदोबस्त करते समय ऐसा हो भी जाए तो इसमें हमारा दोष नहीं। लोगों ने लालाजी के शव को लेकर प्रचंड जुलूस निकाला। लालाजी का सूतक मनाया। परंतु सरकार ने दुःख होने के लिए ऐसा कोई भी कारण नहीं देखा। लोगों ने दु:खी होकर दरवाजे, दुकानें बंद रखीं। हमेशा की तरह सरकारी कचहरियाँ आँखों की खिड़कियाँ खोलकर वह शोकयात्रा, सूतक, हड़ताल का तमाशा देख रही थीं।

इतने में उस पुलिस दल का, जिसने लालाजी पर गोलियाँ चलाई थीं, वरिष्ठ अधिकारी सांडर्स एक स्वच्छ प्रात:काल के समय कचहरी से बाहर निकला। उसके मन में साइकिल पर सवार होने की इच्छा हो गई। वह साइकिल पर सवार हो गया। इतने में किसी अन्य व्यक्ति के मन में उसपर गोली चलाने की इच्छा हुई, उसने गोलियाँ चलाईं, तत्काल दम तोड़ते हुए सांडर्स धड़ाम से गिर गया।

लाठी मार पड़ने के कुछ दिनों पश्चात् लालाजी की मृत्यु हो गई। तब सरकार के मन में यह आशंका आना स्वाभविक था कि उनकी मृत्यु लाठी से नहीं हुई, परंतु गोली लगते ही सांडर्स की उसी क्षण मृत्यु हुई, अतः निस्संदेह वह गोली लगकर ही मर गया, अत: सरकार को उसी क्षण दुःख हुआ। हाँ, ऐसे दुःखद प्रसंगों में किसी भी सहृदय मनुष्य को दु:ख तो होता ही है और सरकार सहृदय तो है ही।

लालाजी की मृत्यु हो जाने पर लोगों ने उनकी अंतिम यात्रा निकाली, परंतु सांडर्स के मरने के पश्चात् अंतिम यात्रा निकालने का प्रसंग स्वयं सरकार पर ही आ गया। जब लालाजी की मृत्यु हुई, तब लोगों ने घरबार बंद करके शोक का प्रदर्शन करते हुए हड़ताल का पालन किया। अब सरकार पर अपनी कचहरियाँ बंद करके शोक-प्रदर्शन का दु:खद प्रसंग आ गया। लालाजी पंजाब के नेता थे, परंतु उनकी अंतिम यात्रा पर शोक वेश धारण कर उपस्थित रहना गवर्नर ने आवश्यक नहीं समझा। सांडर्स की शवयात्रा पर गवर्नर के साथ सभी अधिकारी उपस्थित थे। लालाजी के लिए लोगों को शोकग्रस्त होना पड़ा। वस्तुतः सरकार एक सार्वजनिक संस्था है, उसे लालाजी तथा सांडर्स दोनों पर भी बीते हुए संकट में समदु:खी होना चाहिए था, परंतु लालाजी की शवयात्रा पर बीस-तीस हजार लोगों की भीड़ जमा होने पर भी इस सार्वजनिक दु:ख के प्रदर्शनार्थ सार्वजनिक पैसों से खरीदा हुआ बारूद उड़ाकर उसे विदावंदना (Last Post) की बंदूकें नहीं दागी गईं और जिस सांडर्स की शवयात्रा में अधिक-से-अधिक दो हजार लोग भी नहीं थे और उसे अकेले को ही यह विदावंदना तोपों का सैनिक सम्मान दिया गया।

बस, एक ही खुशी की बात थी कि जनता के नेताओं ने अपने कर्तव्य का पालन अच्छी तरह से किया। उन्होंने लालाजी पर किए गए अत्याचारों की प्रतिध्वनियों का भी जोरदार विरोध किया। उन्होंने सरकार की तरह एकांगी, संकीर्णता का प्रदर्शन न करते हुए लालाजी और सांडर्स दोनों के सूतक का पालन किया 'ब्राह्मणे गवि हस्तिनि शुनि चैव श्वपाके च पंडिताः समदर्शिनः।'

और पंडितों की समान बुद्धि जो निष्पक्षपाती दु:ख कर सकती है, उससे कुछ विलक्षण दु:ख महात्माओं की बुद्धि को नहीं हुआ तो फिर वह महात्मा की बुद्धि कैसी कहलाई जा सकती है?

अत: यह तो अपेक्षित ही था कि आपको और हमें सांडर्स कांड विषयक जो दुःख हो रहा है, उससे सौ गुना अधिक दुःख महात्मा गांधी को होगा। और वैसा ही हआ, उस बेचारे महात्मा की आत्मा उस दुष्ट वार्ता से छटपटाई। 'यह प्रतिशोध की बला' अथवा 'यह हत्या की बला' (This curse of assassination) नामक जो लेख उन्होंने 'यंग इंडिया' में लिखा है, उसमें उन्होंने गुबार की तरह अपनी आत्मा की यथासंभव अधिक-से-अधिक पीड़ा उगलने का प्रयास किया है। फिर भी सबकुछ बाहर न निकलकर अंदर-ही-अंदर कुछ होगी ही। उसके अंग्रेजी शीर्षक का संपूर्ण अर्थ अनुवाद में गलत न हो, इसलिए हमने उसका दोहरा अनुवाद किया है।

महात्माजी को सांडर्स की हत्या विषयक दुःख कितना तीव्र था, इस बात का यदि किसीको अनुमान लगाना हो तो वह इस एक बात से स्पष्ट होगा कि स्वामी श्रद्धानंद के समय भी 'हत्या की बला' के संबंध में इतना गुस्सा उनके लेख में प्रकट नहीं हुआ था। शहा मारे गए, उनकी देह पशुवत् पीटकर कुचली गई, परंतु गांधीजी की स्थितप्रज्ञता की एक भी चीख उस समय किसीने नहीं सुनी। मालाबार के हत्याकांड का हलाहल भी चूँ तक न करते हुए उस स्थितप्रज्ञता ने पचाया था। 'यंग इंडिया' का पन्ना आँसू की एक बूँद से भी नहीं भीगने दिया, परंतु वही स्थितप्रज्ञता सांडर्स की हत्या का समाचार सुनते ही हम प्राकृत जनों से भी अधिक विह्वल होकर दुःखाश्रुओं में डूब गई। इतना वह नृशंस कृत्य था। क्या कहा जाए?

दुःख के इस उद्रेक के साथ ही महात्माजी को इस शोचनीय घटना में अनेक हृद्गत व्यक्त हुए हैं जो अन्य लोग नहीं देख सके। पहली महत्त्वपूर्ण बात जिसपर किसीने भी गौर नहीं किया-महात्माजी ने इस लेख के पहले वाक्य में बता दी कि यह अत्यंत भीरुतापूर्ण कर्म है। 'It was a dastardly act.' इससे पहले क्या किसीने इसपर गौर किया था? हिंदू पत्रों के संबंध में क्या कहा जाए! वे तो हिंदू ही हैं, परंतु उन मुसलमानों ने भी, जिन्हें अच्छे-बुरे साहसी कृत्यों के संबंध में विपुल अनुभव है, समाचारपत्रों द्वारा इस कृत्य के अद्भुत साहस को देखकर दाँतों तले अँगुली दबाई गई थी। और तो और, अंग्रेज समाचारपत्रों में भी जिस उग्र तथा कठोर अविचल धैर्य के साथ वह युवक इस तरह का भयंकर कृत्य करके उसका पीछा जी-जान से होते हुए भी जेब में हाथ डाल करके गंभीर मुद्रा से किस तरह निकल पड़ा, इसका उल्लेख किए बगैर नहीं रहे।

इस घटना को आपने, हमने, सभी ने-शोचनीय कहा, किसीने निंदनीय, तो किसीने आतंकवादी-परंतु अंग्रेजी समाचारपत्रों ने भी, यह कृत्य भीरुतापूर्ण था ऐसा नहीं कहा जो एक कायर व्यक्ति के हाथ से हुआ। परंतु गांधीजी ने यह पहचान लिया? Dastardly और क्या?

कोई कहेगा, गांधीजी के अनुसार अत्याचारी कृत्यों में साहस के लिए कोई स्थान ही नहीं हो सकता, अत: उन्होंने उसे 'भीरुतापूर्ण' कहा और उन अंग्रेजों को जिन्हें साहस, धीरज, शौर्य आदि गुणों का नित्य परिचय है-उसकी झट से परख हो गई, परंतु यह समझना कि साहस की पहचान गांधीजी को नहीं है-उनका अपमान करना है। क्योंकि मालाबार में जब मोपलों ने अत्याचारी दंगे किए और प्रतिशोध के रूप में नहीं, धर्म के नाते, निरुपद्रवी लोगों को भी तंग किया तब उनके उस साहस तथा शौर्य ने गांधीजी को इतना विमोहित किया कि उन अत्याचारों की उपेक्षा उन्होंने ही की इसके विपरीत इसी 'यंग इंडिया' में उन्होंने उन मोपलाओं को 'My brave Mopla brother' कहकर सम्मानित किया था। अत: 'brave' किसे कहना है, यह गांधीजी अच्छी तरह से जानते हैं। इसीलिए वे मोपलाओं को वीर कहते हैं। अर्थात् अत्याचारी मोपले ही शूरवीर हैं और सांडर्स का यह हत्यारा अत्याचारी कोई कायर नपुसंक है, Dastardly-और क्या।

यह भी नहीं कहा जा सकता कि गांधीजी अत्याचार विषयक क्रोध के कारण इस तरह कुछ लिख बैठे। क्योंकि श्रद्धानंद की हत्या के कारण हिंदू समाज प्रक्षुब्ध होते हुए भी इस हिंदू महात्मा ने शांत वृत्ति रखकर उस हत्यारे को 'भाई अब्दुल रशीद' कहकर संबोधित किया और हिंदुओं से कहा, 'उसकी फाँसी रद्द करने के लिए अनुरोध करो। हिंदू श्रद्धानंद के मारे जाने पर भी इतने निर्विकार रहे सज्जन ने अंग्रेज सांडर्स के मारे जाते ही जो कहा, वह विचारपूर्वक ही कहा होगा। Dastardly!-और क्या।'

ऐसा भी नहीं कि उनके लिए किसी उपसंपादक ने कुछ घसीटकर लिखा हो। क्योंकि वदतोव्याघात की मुद्रा उनसे अधिक किसीको भी साध्य नहीं है जो उनके अन्य लेखों की तरह स्पष्ट रूप में आभूषित कर रही है। क्योंकि उस कृत्य को Dastardly भीरुतापूर्ण कृत्य घोषित करते हुए आगे वे तुरंत कहते हैं, इसी प्रकार के कृत्यों के लिए जनता की जो गुप्त सहानुभूति प्राप्त होती है, वह इसलिए कि उसमें निर्भीकता एवं साहसिकता प्रकट होती है। 'पश्चिमी लोगों के लुटेरे, चाचे (समुद्र पर रहनेवाले लुटेरे), डाकुओं के साहसपूर्ण कृत्य पढ़ने का चस्का लगने के कारण जहाँ भी कहीं साहस तथा शौर्य दिखाई देता है, वहाँ उसके उद्देश्य की ओर ध्यान दिए बिना हम तुरंत उसे वीरपुरुष की मान्यता दे देते हैं। यह अच्छी आदत नहीं है। सांडर्स की हत्या करने के साहस के कारण ही जनता में इस प्रकार के कृत्यों के विषय में सहानुभूति एवं गुप्त आदर उत्पन्न हो रहा है-गांधीजी ने इसका यह तात्त्विक कारण दिया है। अर्थात् इस लेख का सारांश यह है कि उस भीरुतापूर्ण कृत्य में 'अद्भुत् साहस' था।

क्यों? है न यह 'वदतोव्याघात' का सरस उदाहरण? भीरुतापूर्ण कृत्य में निर्भय साहस प्रकट होता है! निर्भय साहस भीरुता है। Dastardly!-और क्या!

परंतु यह कहें कि मात्र साहस से मोहित होने का चस्का जनता को लग गया है तो गांधीजी ने जिन यूरोपीय चोरों, लुटेरों, डाकुओं के उदाहरण रूप संकेत किए हैं, उनमें से एक का भी नाम किसीके मुँह में नहीं बसा, इतना ही नहीं हिंदुस्थान का कारागृह भी दस-दस सशस्त्र डाके डाले हुए डाकुओं से भरे पड़े हैं, परंतु उनके चित्र जनता की दीवारों पर नहीं दिखाई देते। उन्हें देखते ही वीर के रूप में उनकी पीठ नहीं ठोंकी जाती।

देखिए, यह अगला समाचार-'दिनांक ३ के दिन पुणे के लॉ कॉलेज के छात्र कुर्लेकर ने भांबुडी के पास रेल की पटरियों पर लेटकर गाड़ी के पहियों के नीचे अपनी जान दे दी।' अब केवल प्राण देने के साहस का ही प्रश्न हो तो वह एक साहस ही है, परंतु इस विषय पर किसीने अग्रलेख नहीं लिखा। ऐसे गुप्त पत्रक भी नहीं छपे जो उसकी वाहवाही करते। फिर सांडर्स की हत्या के साहस से लोग इतने आकर्षित क्यों हो गए? भई, यह गांधीजी का कहना है, न कि हमारा।

क्योंकि गांधीजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है, 'अब देश के वातावरण में पुनः एक बार अत्याचार की हवा चल रही है-Violence is in the air.' हमें तो ऐसा नहीं दिखाई देता। और आज आठ वर्षों तक अहिंसात्मक अनत्याचार की गर्जना की दमघुटी से भरे इस देश के वातावरण में यदि पुनः सत्य ही अत्याचार की प्रतिकार ध्वनि उभरी हो तो क्या यह गांधीजी का दबदबा व्यर्थ होने का ही प्रमाण नहीं है?

हत्यारे चाहे कुछ भी कहें। वे सुनें या ना सुनें, परंतु उन्हें चार उपदेशपरक शब्द कहकर सावधान करना-हम जैसे सभी शांत, शिष्ट, सहनशील, राजनिष्ठ प्रजाजन का कर्तव्य है। हमें यदि इस प्रकार उपदेश देने का अधिकार नहीं है तो और किसे होगा?

शिवाजी, राणाप्रताप, श्रीकृष्ण को भी उपदेश देने का अधिकार गांधीजी रखते हैं। भई, स्वयं ही अपने मुख से वे कहते आए हैं। अतः हत्यारों के लिए ही हितकारक नहीं, आप और हमारे लिए भी हितकारक है-इस प्रकार और एक अनमोल बात वे अपने लेख में करते हैं कि पुलिस अधिकारियों का उस समय का व्यवहार सर्वथा निरुपद्रवी था। The innocent police officer discharges his duty, however disagreeable its consequence may be for the community to which the assassin blongs.

जिस समाज में वह हत्यारा पैदा हुआ, उस समाज द्वारा अस्वीकृत परिणाम भी उस पुलिस अफसर के कृत्यों से निकले हों-फिर भी उस निरुपद्रवी पुलिस का ऐसा व्यवहार उसका कर्तव्य ही था।

अब सभी की समझ में आई न बात? यही लगभग इसी शब्द में पार्लियामेंट में अंग्रेज अधिकारियों ने बताई थी, परंतु उस समय जनता ने उसे नहीं माना। प्रायः सभी पत्रकारों का यही कहना है कि उस प्रसंग में पुलिसवालों का व्यवहार अत्याचारपूर्ण था। हत्यारों की बात ही अलग है। वे लोग गांधीजी के 'उनका वह कर्तव्य ही था। भले ही विदेशियों को उसका परिणाम कितना ही अप्रिय क्यों न लगे।' इस वाक्यांतर्गत यही न्याय आत्म समर्थन करने के लिए आयोजित किए बिना नहीं रहेंगे, परंतु हम उन शिष्ट जनों को, जो हत्यारे नहीं है अब लाहौर के उस कर्तव्यरत पुलिस के विषय में अपनी धारणाएँ बदलनी चाहिए। गांधीजी के लेख के अर्थ पर गौर करना चाहिए। Dastardly इस एक ही शब्द में जैसे गागर में सागर भरा हो।

तथापि एक विधेय का उस लेख के सार से भी अलग उल्लेख करना ही होगा। इतना उस बात का विशेष महत्त्व है। मनुष्य का क्या दोष? इस प्रणाली का ही दोष है। Whatever the Assistant Superintendent did was done in obedience to instructions. No one person can be held wholly responsible for the assault and the aftermath. The fault is that of the Government system. What requires mending is not men but the system.

'लालाजी पर किए गए आक्रमण का दोष किसी एक व्यक्ति पर उचित नहीं। पुलिस सुपरिटेंडेंट ने जो किया वह उसका कर्तव्य ही था। भला उसमें उसका क्या दोष? दोष राज्य प्रणाली का है। मनुष्य में सुधार लाना आवश्यक नहीं, इस प्रणाली को सुधारना होगा।' देखा न यह सोच-विचार कितनी सूक्ष्म, फिर भी कितना स्थूल था और उसका स्मरण भी कितना समय पर हो गया।

हाँ, समय पर। क्योंकि ओड्वायर और डायर के व्यवहार विषयक पूछताछ समिति में गांधीजी को इस महान् सिद्धांत का विस्मरण हुआ था। वैसा लगता है अब विस्मरण नहीं हुआ है। गांधीजी ने ओड्वायर और डायर को दोष दिया है। मोम जैसा नरम क्यों न हो, पर उन्हें दंड बताया था। साधारण धारणा तो यह है कि ओड्वायर और डायर मनुष्य प्राणी हैं, परंतु दोष मनुष्य का नहीं, प्रणाली का है, इस महान् सिद्धांत का तब महात्मा को विस्मरण हो गया। वस्तुतः डायर ने वरिष्ठों के आदेशों का ही पालन किया था, अत: वह निर्दोष है। तथापि वरिष्ठों के आदेशों का पालन करने से कनिष्ठ लोग निर्दोष सिद्ध हो गए, परंतु वरिष्ठ भी तो मनुष्य ही हैं? अतः मनुष्य दोषी नहीं है। राज्य प्रणाली में दोष है। उस समय महात्माजी को भी इस महान् तत्त्व का आकलन न होना स्वाभाविक था। परंतु अंत में अब स्मरण हुआ। समय ही वैसा आ गया। कम-से-कम अब तो सभी को समझना चाहिए, यह कृत्य 'Dastardly' था, और क्या?

चलो, अच्छा ही हुआ, इस तत्त्व का भी आज ही स्मरण हो गया, 'मनुष्य का कैसा दोष? राज्य प्रणाली में सुधार लाना होगा, अन्यथा उस गोपीनाथ साहा के समय ही गांधीजी चेतावनी (Ultimatum) भेजते कि गवर्नर साहब! मनुष्य को कैसे दोष दिया जा सकता है? उस साहा को छोड दीजिए और उस क्रांतिकारी प्रणाली को फाँसी पर चढाइए।' इस प्रकार कोई चेतावनी (Ultimatum) गांधीजी भेजते तो गवर्नर जनरल को भी सुनना ही पड़ता। गांधीजी की चेतावनी (Ultimatum) से गवर्नर जनरल भी किस तरह थरथर काँपते हैं-इसका अनुभव उस विख्यात एकवार्षिक स्वराज्य युद्ध के समय भी किया गया है। यदि ऐसा होता तो साहा फाँसी से बच जाता और वह समाज को एक और प्रतिशोध की बला का कलंक लगाता। अब बस इतना ही भय है कि सांडर्स का हत्यारा यदि फाँसी पर चढ़ने लगा तो मनुष्य कैसे दोषी हो सकता है? उसे फाँसी पर चढ़ाना हत्या की बलाओं की संतान बढ़ाना है। इस तरह का कुछ निवेदन तो गांधीजी नहीं करेंगे।

मनुष्य पर किसी भी तरह का उत्तरदायित्व न डालते हुए केवल 'प्रणाली' को ही शासन करने की कुशाग्र युक्ति यदि मनुष्य व्यवहार में ला सके तो आज ही सत्युग का उदय होगा। मनुष्य मनुष्य से शत्रुता करना छोड़ देगा। चोर के पकड़े जाते ही उसे गौरव से निर्दोष समझकर छोड़ दिया जाएगा। और बस उसकी चोरी जेल में बंद की जाएगी। बेचारा सांडर्स! इस महान् खोज की उपलब्धि उसके जीवन काल में होती तो वह और उसके साथी भी लालाजी के शरीर पर लाठी के प्रहार न करते हुए मनुष्य समझकर उन्हें छोड़ देते और उनके इर्दगिर्द के शून्य वातावरण में छिपे उस अमूर्त सत्याग्रह की 'प्रणाली' की पीठ पर ही लाठी से प्रहार करते। लखनऊ में सरकारी घुड़सवार उस अनैर्बधिक (Illegal) जुलूस को भंग करने के लिए उसमें भाग लेनेवालों को तितर-बितर न करते हुए उनमें स्थित उस जुलूस को ही चुनकर उसपर ही घोड़े चढ़ाते। यदि घोड़े नहीं चलते तो उन्हें चाबुक से न फटकारते हुए उनमें स्थित शिथिलता को ही चाबुक से मारते, क्योंकि जिस तरह मनुष्य दोषी नहीं, वह प्रणाली दोषी है जिसको वह स्वीकार करता है, उसी तरह मंदगति घोड़ों का दोष तो उनमें स्थित शिथिलता का दोष है।

इतना ही नहीं, मूर्त मनुष्यों के व्यतिरिक्त वायुदेहधारी 'प्रणाली' का अमूर्त पिशाच गांधीजी की सूक्ष्म दृष्टि को इस लेख के शुभ मुहूर्त पर दिखाई दिया। यदि एक बार वह मिल जाता तो बड़े-बड़े महायुद्ध भी लड़े जाकर उनमें मनुष्य रक्त की एक बूँद भी नहीं गिरेगी। जर्मन महायुद्ध में लाखों जर्मन लोग तथा अंग्रेज लोग आमने-सामने खड़े रहकर लाख-लाख बंदूकें दागते, पर किसपर? मनुष्यों पर नहीं-भई, मनुष्य का दोष क्या है? उस प्रणाली पर दागते, उस System पर British Imperialism नामक जो प्रणाली अंग्रेज सेना के सिर पर आकाश में वायुरूप में लहराती थी। उसपर ही अंग्रेजों के सिर से तीन-चार मील ऊँचाई रखते हुए जर्मन लोग अपनी तोपों को दागते और Militarism के रूप में जो दुष्ट प्रणाली जर्मन लोगों की ओट में छिपकर सारी शैतानियाँ कर रही थी, उसको दंड देने के लिए जर्मन लोग प्रतिदिन केसरिया पुलाव जैसे पकवान डकार सकें, इतनी अन्न सामग्री जर्मन नगरों में पहुँचाकर केवल उस 'प्रणाली' को चावल का एक दाना भी नहीं मिले। इसलिए ब्रिटिश राष्ट्र blocade सिंधुबंदी करते रहो।

खैर! जो हुआ सो हुआ। अब आगामी महायुद्ध में मनुष्य के बिना जीवित रहनेवाली इस 'प्रणाली' नामक चुड़ैल को चूर-चूर करने के लिए उसके रहने का स्थान गांधीजी शीघ्रतापूर्वक प्रसिद्ध करें। हो सकता है, जिस तरह जनानी हौवा, जो नानी के पलने के निकट जिस किले में रहती है, उसी में 'प्रणाली' का यह हौवा भी मिलेगा।

यह सत्य है कि सांडर्स की हत्या अत्यंत अनिष्ट थी, परंतु उसे सिद्ध करने के लिए इस तरह का असत्य असंबद्ध तर्क लड़ाने की भला क्या आवश्यकता थी! जो स्पष्ट है, वह स्पष्ट ही है; सत्य है, वह सत्य ही कथन किया जा सकता है।

१९ जनवरी, १९२९

गांधी आपाधापी

स्वतंत्रता का मार्ग

'उसका नारा चलता रहा,

मूल स्वभाव वही रहा।'

-तुकाराम

एक-डेढ़ वर्ष पहले जब महात्माजी ने घोषित किया था कि अब वे राजनीति के झमेले में न पड़ते हुए खादी के विधायक कार्यक्रमों के लिए समर्पित रहेंगे, तब उस प्रत्येक की, जो उनकी पगलाई और गमाऊ राजनीति से ऊब चुका था और पिछले छह वर्षों में राजनीति की जो दुर्गति बनी थी तथा उससे स्वदेश का जो भयंकर दिशाभ्रम हो गया था, उसे देखकर अत्यंत दु:खी हुए हर देशभक्त की, जान में जान आ गई। ऐसा प्रतीत हुआ था-चलो, भविष्य में तो अब महात्माजी राजनीति के क्षेत्र में जो उनके ज्ञान, बुद्धि तथा शक्ति से परे है, व्यर्थ हस्तक्षेप न करके और अहिंसा, असहयोग, विधायक कार्यक्रम आदि बड़े-बड़े खोखले शब्दों की जुगाली करते हुए राष्ट्र की युवा पीढ़ी का तेजोभंग करने का देशविघातक व्यापार छोड़कर अपने चरखे में ही व्यस्त रहेंगे; परंतु देखा तो 'राजनीति से हम दूर रहेंगे' इस तरह का निश्चय घोषित करके भी पुनः राष्ट्रीय सभा में उपस्थित रहकर यथासंभव अपने उन्हीं मूर्खतापूर्ण कार्यक्रमों को उठाने से लेकर नागपुर के सत्याग्रह कांड में लिखे हुए बेकार पत्र भेजने तक गांधीजी ने आते-जाते हस्तक्षेप करने का कार्य जारी ही रखा है।

उन्होंने राजनीति से दूर रहने की जो घोषणा की थी, वह भी इसलिए कि इसके सिवा अन्य कोई चारा नहीं था। स्वराज्य पक्ष की राष्ट्रीय सभा की कार्यकारी समिति का सभा-त्याग करके (अहमदाबाद के ऑ. इ. कां. क. की सभा से) चले जाने पर भी इतराते हुए गांधीजी ने कहा था, 'कोई बात नहीं, व्यर्थ की भीड़ किसे चाहिए? दो अनुयायी भी रह गए तो भी काफी हैं।' परंतु आगे चलकर ऐसे दो पक्के दृढ़ अनुयायी मिलना कठिन हो गया, जिनके बलबूते पर राष्ट्रीय सभा को खादी प्रचारिणी सभा बनाकर तथा संसद् में सरकारी विपक्ष को मरजी के अनुसार प्रशासन करने का मार्ग निष्कंटक कराके कृतार्थ हो सकें-तब उनके हाथ-पैर फूल गए। उस बैठक में ही गांधीजी और मोहम्मद अली का वह रोना-धोना, वह हठी निराशा के आँसू और अंत में शरणागति, इन सभी का जिसे स्मरण है, उसे तुरंत ज्ञात होगा कि गांधीजी का राजनीति से पैर जब से उखडा, तभी से वे कहने लगे कि अब मैं राजनीति में पैर नहीं रखूँगा। क्रांतिकारियों का नाम तक मिटाने के लिए मैं बंगाल जा रहा हूँ। इस प्रकार लंबी-चौड़ी प्रतिज्ञा के साथ उस सत्कर्म को करने साधु पुरुष सरकार के आशीर्वाद से बाहर निकाला हेतु परंतु तीन महीने एड़ी-चोटी एक करके भी बंगाल की राज्यक्रांति के गुप्त आंदोलन का गला घोटना संभव नहीं हुआ। उधर विधानसभा में पूर्वकालीन सभी असहकारितावादी घुस गए। हिंदू संगठन के प्रचंड आंदोलन का श्रीगणेश होकर उस खिलाफत की आफत की लाश आखिर जलाई गई। इस प्रकार क्रांतिकारियों में अथवा विधानसभा में हिंदुओं अथवा मुसलमानों में कहीं किसीने भी नहीं पूछा। अतः जो संन्यास उन्हें ग्रहण करना पड़ा, वही राजनीति से संन्यास स्वयं ही लेने का बहाना बनाया गया।

परंतु जिन्हें बलपूर्वक संन्यास दिया जाता है, उन सभी संन्यासियों की जो अवस्था होती है वही अवस्था गांधीजी की हो गई। यद्यपि ऐसा लगता था कि वे खादी कार्य में व्यस्त हैं, तथापि थोड़ा अवसर मिलते ही राजनीति में हस्तक्षेप करने के लिए उनका जी मचलने लगता है, यह बात इससे पहले भी कई बार उजागर हो ही चुकी थी, परंतु उन्होंने पहले ही जब कुछ समय तक राजनीति में भाग न लेने की घोषणा की तभी राजनीति की कड़ी आलोचना करने का देशविघातक कार्य जो राष्ट्रहिताय कर्तव्य होने पर भी मन को दुःख देता है-अब पुनः हाथ में नहीं लेना पड़ेगा, इस बात से हमें प्रसन्नता हुई थी। अतः हमने गांधीजी की असहयोगी भाषा तथा अहिंसात्मक सत्याग्रह आदि शब्दों के उच्चारण के साथ-साथ कभी-कभी आ रहे इन मिरगी के दौरों की ओर ध्यान नहीं दिया; परंतु परसों उन्होंने नागपुर के सत्याग्रह कांड में जो पत्र तथा 'यंग इंडिया' में जो लेख लिखे हैं, उनमें उन्होंने जो निरस्करणीय बातें कही हैं, उनकी खबर लेना अब सर्वथा अपरिहार्य हो गया था, क्योंकि इस विषैले तत्त्व-ज्ञान का सर्प अपना फन उठाए, इससे पहले ही उसे कुचलने का प्रयास करना अनिवार्य हो गया है।

अरे, वह तत्त्व-ज्ञान थोड़ा ही है? तत्त्व का प्रगाढ़ अज्ञान, यही उसका असली अनन्य तत्त्व है। सत्याग्रह की मीमांसा करते हुए साबरमती के ये श्रमण कहते हैं, जो सत्याग्रही है वह शस्त्र क्यों उठाएगा? वह सत्य के लिए स्वयं इतना सा प्रतिकार न करते हुए आत्मबलिदान करेगा। इस प्रकार के सत्याग्रह को ही अहिंसात्मक सत्याग्रह कहा जा सकता है।' अच्छा, परंतु आपकी अभी-अभी अहिंसा की दी हुई परिभाषा इतनी ताजा है कि आपने इससे पहले क्या कहा था, उसका प्रसंगवश पूर्णतया विस्मरण होने की अथवा उसे एक पहाड़ जैसी भूल मानकर अपने आपको ही मूर्ख कहलाने में न हिचकिचाने की जो भुलक्कड़ कला आपको भलीभाँति ज्ञात है, आपके लिए भी नकारना तथा विस्मृत करना असंभव है। पागल कुत्तों को मारा जाए या नहीं या उनका घर-जमाई जैसा आतिथ्य सत्कार करते रहें और आने-जानेवाले व्यक्ति को काटकर उसे मौत के घाट उतारनेवाली अहिंसा का पुण्य संपादन करते रहें, इस प्रश्न का उत्तर देते समय आपने कहा था-'अधिक अहिंसा टालने के लिए अपरिहार्य रूप में जो हिंसा करनी पड़ती है, वह धर्मसम्मत है और उसके अनुसार पगलाए कुत्तों को बंदूक की गोलियों से जब मार डाला गया तब जैन समाज के हजारों लोगों ने सभा आयोजित करके आपका तीव्र विरोध किया, आपको 'महात्मा' कहना भी बंद किया। फिर भी आपने हिंसा की यह परिभाषा वापस नहीं ली अथवा उन पगलाए कुत्तों को बंदूक से मार डालने के कृत्य का विरोध नहीं किया।

परंतु अब आप पत्र में लिखते हैं कि 'सत्याग्रही कभी हाथ में शस्त्र नहीं लेगा। वह बस इतना ही जानता है कि उसे तो सत्य का आचरण करते मर जाना ही ज्ञात है। उससे तो यही सिद्ध होता है कि पगलाए कुत्तों को मारने के लिए भी सत्याग्रही बंदूक अथवा कोई भी शस्त्र धारण नहीं करेगा। पागल कुत्ते के काटने के पश्चात् जब वह सत्याग्रही भी पागल बनेगा, तब वह जो दाँतों का उपयोग करेगा बस उतना ही शस्त्राग्रह सत्याग्रह की पवित्र कक्षा में आ सकता है। अवसर आने पर उस पागल कुत्ते का प्रतिकार-शस्त्र का प्रयोग न करते हुए उसके सामने खड़े रहकर बस इतना ही कहना है, 'हे पागल कुत्तेजी, काटना असत्य है। मुझे मत काटिए! इसके आगे काटना ही है तो सत्याग्रही वीर जब आप काटेंगे तब एक पग भी पीछे न हटते हुए अथवा हाथ में शस्त्र लिये प्रतिकार न करते हुए मैं वैसे-के वैसे ही कटवा लेता हूँ और आपको खुला छोड़ता हूँ ताकि आप अन्य लोगों को भी आराम से काट सकें।' यही है शुद्ध सत्याग्रह!

जब गांधाजी ने पागल कुत्तों के विषय में लिखते समय अहिंसा की इस प्रकार व्याख्या की कि अधिकतर हिंसा को टालने के लिए अपरिहार्य अल्प हिंसा कर्तव्य ही सिद्ध होती है, तब हमने सोचा, चलो आजीवन ठोकरें खाते अंत में क्यों न हो, इस जन्म में ही गांधीजी अहिंसा का अर्थ थोड़ा-बहुत समझने लगे हैं। अपने राजनैतिक जीवन में गांधीजी ने अपनी बुद्धि ठिकाने पर रखते हुए जो एक-दो वाक्य कहे थे, उनमें हमने कुछ उपर्युक्त वाक्यों का समावेश किया है, परंतु गांधीजी की सुधी भी उनके स्वाभाविक बेसुधी का एक क्षण होता है। नौसिखिया बच्चे का निशाना जिस प्रकार क्रिकेट में कभी-कभी गलती से अचूक लगता है, उसी प्रकार राजनीति के दाँव में गांधीजी कभी-कभी जो सही बात कहते हैं, वह भी गलती से की हुई होती है, क्योंकि दूसरे ही पल में वे उस सही कृत्य को ही गलत कहने की एक और भूल अवश्य कर बैठते हैं। यदि यह सत्याग्रही इतना अहिंसात्मक प्राणी होता कि हाथ में शस्त्र पकड़ना भी वह पाप समझता है, उसे नीतिवाह्य मानता तो फिर पचास पागल कुत्तों को इकट्ठा बंद करके उन्हें बंदूक से मरवाने का कृत्य करनेवाला क्या एक हिंसक हत्यारा ही सिद्ध नहीं होता? और जर्मन महायुद्ध में 'सेना में भरती हो जाओ। अंग्रेजों की बिना शर्त सहायता करके रणभूमि पर युद्ध करो।' इस तरह चीख-चीखकर कौन कह रहा है? यह व्यक्ति सेना में भरती के लिए नियुक्त सरकारी दलालों का अग्रणी वह कौन है? वह पागल जो अंग्रेजों की बिना शर्त सहायता करने के लिए जर्मनों को शस्त्रों से बिना शर्त मारने के लिए प्रोत्साहित करते हुए इतना घूमता है कि अंत में खटिया पकड़ लेता है-वह भी अहिंसा का ही भक्त था। उन सैकड़ों जर्मनों को, जो अपने देश के साथ मित्रता का नाता जोड़ना चाहते हैं, वे हिंदुस्थान के वैरी न होते हुए उन्हें सटासट काटना-हिंसा नहीं है? परंतु जो हमारे पीढ़ीजात शत्रु हैं-उनके विरोध में केवल आत्मरक्षार्थ शस्त्र ग्रहण करना हिंसा है। केवल शस्त्र ग्रहण करना यही बात सत्याग्रह के लिए लज्जास्पद होती है, तो फिर जब जान पर आ बीतती है तब क्यों सशस्त्र डॉक्टर को बुलाकर पेट पर कर्तन करवा लिया? रोगाणुओं का एक पूरा राष्ट्र ही जो आपके पेट का आश्रय लेकर सुखी संपन्न ऑस्ट्रेलियन उपनिवेश की तरह दिन दूना रात चौगुना समृद्ध हो रहा है-आपने उस डॉक्टर के शस्त्रों से कत्ल कर ही लिया न? फिर उनके कृत्यों का निषेध करते आपने मृत्यु को गले क्यों नहीं लगाया?

वह हिंसा आपको कैसे रास आ गई? उन रोगाणुओं तथा जर्मनों के आगे, सत्याग्रही वीरों का जो कर्तव्य आप अभी कह रहे हैं, उसी तरह सिर्फ खड़े रहकर परंतु महात्माजी का हृदय जितना विशाल और उन्नत है, उतनी ही उनकी बुद्धि संकुचित और अपरिपक्व है। अहिंसा, दया, क्षमा आदि कर्णमधुर शब्दों पर उनका कोमल हृदय मुग्ध हो जाता है, परंतु इन शब्दों के सत्य तत्त्वों का यथातथ्य आकलन करने की शक्ति उनकी बुद्धि में न होने के कारण और इस प्रकार की शक्ति अपनी बुद्धि में नहीं-इस तथ्य का भी बोध होने योग्य विवेकशक्ति उनमें शेष न रहने के कारण वे कभी कुछ, तो कभी कुछ बकते हैं। वस्तुत: अहिंसा की उपर्युक्त परिभाषा हिंदू धर्म के प्रत्येक पृष्ठ भर खोदी गई है, परंतु आयु के पचास वर्ष पार करने के पश्चात् गांधीजी यह सीखने लगे और तुरंत ही एक वर्ष बीतने से पहले ही उन्हें उसका विस्मरण भी हो गया। वे पुनः लिखने लगे कि 'सच्चा सत्याग्रही शस्त्र को स्पर्श तक करने का विचार मन में नहीं घुसने देता। लाठी तक हाथ में पकड़ना सत्याग्रह के विरुद्ध है। हाँ, पर अंग्रेजों, जिन्होंने हमें परतंत्रता में बंद करके रखा है, के सहायतार्थ-उन जर्मनों का, जो हमारी स्वाधीनता प्राप्ति के कार्य में सहायता करना चाहते हैं-बंदूक, तलवार से मार डालना सत्याग्रह के तत्त्व एवं व्रत को शोभा ही देता है। आज तक इस तरह के परस्पर विरोधी भाष्य तथा कार्य गांधाजी ने इतने किए हैं कि उनकी एक गाथा ही लिखी जा सकती है। अर्थहीन शब्दों से तथा बुद्धिहीन अर्थों से उनकी उक्तियाँ और कृतियाँ खचाखच भरी हुई हैं। स्वराज्य, खादी, विशुद्ध स्वदेशी, असहकार, सत्याग्रह, अहिंसा आदि शब्दों से आज पाँच छह वर्ष हिंदुस्थान भर में जो गांधी-घपला हो रहा है, उससे कम-से-कम महाराष्ट्र तो उकता गया है। गांधीजी ने ऐसे प्रत्येक शब्द की इतनी परस्पर विरोधी परिभाषाएँ और अर्थ दिए हैं कि उन्हें एक साथ पिरोया जाए तो कोई पागल भी हँसते-हँसते लोटपोट हो जाएगा; परंतु इस अँधेर खाते ने राष्ट्रकार्य को इतना चूर-चूर किया है और राष्ट्र का तेजोभंग करते हुए इसे इतना अकर्मण्यशील करके छोड़ा है कि घृणा के साथ मन में हास्यभाव उत्पन्न न होते हुए गंभीर दुःखावेग से तथा क्रोधवश तिरस्कार उत्पन्न होता है।

नागपुर के शस्त्राग्रह से गलत किरिच चुनते हुए गांधीजी कहते हैं, 'सत्याग्रह का विषय शस्त्र निर्बंध (एक्ट) नहीं है। उसका मुख्य ध्येय बंगाल के राजबंदियों की मुक्ति है। अतः शस्त्रों का निर्बंध भंग करना विषयांतर है।' परंतु रौलट निर्बंध के प्रतिशोध के रूप में गांधीजी ने बंबई में स्वयं ही मुद्रण निबंध (Press act) को भंग किया और जब्त की गई पुस्तकें बेचने लगे। उस समय कुछ लोगों ने यही आपत्ति उठाई थी कि रौलट निर्बंध तोड़ो, उसके लिए यह दूसरा निर्बंध तोड़ना विषयांतर है, परंतु उस समय तो किसी भी अन्यायपूर्ण निर्बंधों का कभी भी भंग करना युक्तिसंगत हो सका तो आज भी शस्त्र निर्बंध जैसा अत्यंत अपमानास्पद निर्बंध तोड़ना भी युक्तिसंगत क्यों नहीं हो सकता? परंतु हम करें सो कायदा मानने का अहंकार पहले स्वयं ही जिसे पूरब कहा था, उसे ही अब पश्चिम कहने के लिए हिचकिचाता नहीं, इतना वह ढीठ बनता है।

इससे भी आगे निकलकर वे कहते हैं, 'जो निर्बंध नीति मूल्य होते हैं उनके भंग करने के आंदोलन को सत्याग्रह नाम शोभा नहीं देता। शस्त्र निर्बंध तोड़ना भी नैतिक दृष्टि से उतना ही सत्याग्रह के विरुद्ध है जितना चोरी का निर्बंध भंग करना। आत्मरक्षार्थ भी हाथ में शस्त्र पकड़ना-सिर्फ पकड़ना, जिस व्यक्ति को उतना ही पापप्रद लगता है जितना चोरी करना। उसे जिन जर्मनों का कत्ल करने के लिए अंग्रेज सेना में भरती होना पापप्रद नहीं प्रतीत होता, ऐसों के मुँह भी क्या लगना?

और तथापि जब तक पिछले पाँच-छह वर्षों में उत्पन्न प्रज्ञाहीन बछड़ों का ऐसा एक वर्ग इस देश में जीवित है कि जिसे इन खोखले शब्दों का अंधेरखाता ही गूढ़ दर्शन सा प्रतीत होता है, उस बुद्धि के अँधेरे में वे बातें भी नहीं दिखाई देतीं जो स्पष्ट हैं तब तक इन बालबुद्धि के शब्दच्छलों की भी किसी महत्त्वपूर्ण विषय सदृश चर्चा करना अनिवार्य होता है।

देशभक्त आवारा द्वारा आरंभ किया हुआ सत्याग्रह निष्फल, अनीतिकारी, अत्याचारी और सत्याग्रही व्यक्ति के लिए अशोभनीय है-यह स्पष्ट करने के पश्चात् उसी लेख में गांधीजी परम कारुणिक ढंग से एक अन्य उपाय सुझा रहे हैं जो बंगाली राजबंदियों को मुक्ति दिला सकता है, जो सफल, नीतिकारक अनत्याचारा तथा सत्याग्रही प्राणियों के लिए अशोभनीय है-यह उपाय भी श्रवणीय तथा अश्मयुगीन अस्थि की खोपडी के निकट जतन करने योग्य है। वे कहते हैं, 'नागपुर से एक-एक व्यक्ति कलकत्ता पैदल चलकर आ जाए, यदि पैदल नहीं तो रेल से आए' और क्या करे? जहाँ राजबंदियों को बंद किया गया है, उनमें से एक स्थान पर लाखों लोग जोरदार धावा बोलकर उस थाने को तोड़-फोड़कर राजबंदियों को मुक्त करें, जैसे फ्रेंच लोगों ने बास्तील को तोड़ा था? शिव! शिव! ऐसा कुछ नहीं। तो गांधीजी कहते हैं, प्रत्येक व्यक्ति नागपुर से पैदल निकले, कलकत्ता जाए और सीधे गवर्नर की कोठी पर जितना चढ़ सके, चढ़े और चिल्लाए 'राजबंदियों को बरी करो।' बस, इतना चिल्लाकर स्वयं बंदी बनकर कारागार में पड़े रहें। इस आशंका से कि इस रामबाण उपाय में इतना सब करने के बाद भी कुछ कसर रह जाएगी, अत: गांधीजी आगे कहते हैं, 'हाँ, परंतु इस सत्याग्रही को संपूर्णतः निरुपद्रवी तथा निःशस्त्र होना ही चाहिए।'

वाह, कैसा उत्तम उपाय सुझाया! नागपुर से पैदल कलकत्ता जाना अर्थात् युवकों का भी उसी में समावेश होने के कारण सत्याग्रह की आधी से अधिक जीवन शक्ति इस यात्रा में ही सूख जाएगी-अन्यथा रेल से जाए-अर्थात् प्रत्येक सत्याग्रही का रेल का किराया भरते-भरते उसकी टटपूँजिया निधि के हजारों रुपए रेल खाते के विलायती खाने में अनायास जमा होंगे और ये हजारों रुपए अथवा उन पैरों में छाले पड़कर गिराए हुए खून की धाराएँ बहाकर अंत में करना क्या है? गवर्नर के द्वार पर-यदि जाने दिया तो-सिर्फ खड़े रहकर चिल्लाना 'अरे छोड़, राजबंदियों को छोड़' हाँ, केवल चिल्लाना!

जैसाकि गवर्नर जन्मबधिर है। नागपुर के लोग अपनी पत्नियों से रसोईघर में क्या बोलते हैं, यह भी जिस गवर्नर को अचूक ज्ञात होता है, उन्हें अपनी कोठी के पास चिल्लाने से मानो अधिक सुनाई देगा? नागपुर की सभाओं में तथा पंथों में उठी हुई गर्जना 'राजबंदियों को छोड़ दो' उन गवर्नरों को मानो सुनाई ही नहीं दी-वह अब उनकी कोठी पर सुनाई देगी।

पर हम कहते हैं, इस प्रकार की संजीवनी के उपलब्ध होते उसे केवल राजबंदियों की मुक्ति जैसी एक ही छोटी व्याधि पर क्यों खर्च किया जाए? सभी व्याधियों की जड़ जो पराधीनता है। उसी को इस उपाय के अमोघ अस्त्र से (तोबा! तोबा! खादी के धागे से) क्योंकि न काटा जाए? कलकत्ता के गवर्नर तक ही क्यों रुका जाए? हम हर उस भ्रमित सत्याग्रही वीर के लिए यही सुझाव देते हैं कि वह पहले कश्मीर में हिमालय तक चढ़े, उसके पश्चात् पैदल चलकर गोबी के रेगिस्तान में उतरे, मृत सागर पार करके कॉकेशस पर्वत लाँघे और सीधे इंग्लैंड तक पैदल पहुँचे। इसके पश्चात् कपड़े बदलकर, नहा-धोकर मानसिक, कायिक, वाचिक आत्मशुद्धि करते हुए संपूर्ण नि:शस्त्र तथा निरुपद्रवी होने के पश्चात् इंग्लैंड के राजा जिस बकिंगहॅम राजमंदिर में रहते हैं, उसी मंदिर के आँगन में-जहाँ तक बने-जाए और फिर जोर-जोर से घोषणा करे-'हमें स्वराज्य दो।'

हाँ, चिल्ला-चिल्लाकर कहने से यदि बात बन जाती है तो केवल बंगाल के राजबंदियों की मुक्ति ही क्यों माँगे? साक्षात् महाराज जॉर्ज के राजमंदिर के सामने खड़े रहकर स्वराज की भिक्षा झोली में क्यों न प्राप्त करें? पहले कभी छह महीनों के अंदर एक धागे से स्वराज्य प्राप्ति का उपाय गांधीजी ने बताया था, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि चिल्लाने के इस नए उपाय के सामने उस उपाय का तेज भी फीका पड़ जाता है। बेचारा महात्मा स्वराज्य प्राप्ति के लिए एक से बढ़कर एक उपाय सुझा रहा है, पर क्या करें? 'इन महाराष्ट्रवासियों में श्रद्धा ही नहीं।'।

एक बार इस तरह के उपायों को भी लड़कपन समझकर तनिक हँसते हुए दूर किया जा सकता है, परंतु इन उपायों का मर्म स्पष्ट करने के लिए गांधीजी अपने सनकी विचारों की भाषा बोलने लगते हैं, तब होंठों पर उभरती हँसी भी अदृश्य होकर उनके झक्कीपन की घिन आने लगती है, क्योंकि भोले-भाले लोग उनके उन उपायों से इतने पथभ्रष्ट नहीं होते जितने इन सनकी विचारों से होते हैं। इन उपायों के संबंध में आगे चलकर वे कहते हैं, 'हो सकता है, इस तरह पैदल कलकत्ता जाकर चिल्लाने से शीघ्रतापूर्वक कार्यसिद्धि नहीं होगी, परंतु सभी को इस बात का स्मरण रहे कि अंत में आत्मत्याग सफल होता है।'

वाह रे आत्मत्याग! अजी, जिस साधन से अन्य सभी साधनों में से अल्पतर त्याग से अधिकतर मात्रा में संपादित किया जाता है, उस साधन के लिए किया गया त्याग, सच्चा स्वार्थत्याग और यथार्थ आत्मत्याग है, परंतु साध्य प्राप्त्यर्थ जो मार्ग सबसे अधिक कष्टप्रद तथा निष्फल होता है, उसी को अपनाने का कष्ट जान बूझकर जो व्यक्ति करता है, वह आत्मविनाश करता है, न कि आत्मत्याग। बंबई से मद्रास तक जाना है तो मद्रास रेल से न जाते हुए पहले हिमालय की ओर जाओ, फिर जापान होकर अमेरिका में उतरकर यूरोप मार्ग से मद्रास को जाओ-इस प्रकार का पागल सनकीपन आत्मत्याग नहीं, आत्मविनाश है। केवल इसलिए कि आत्मत्याग व्यर्थ नहीं जाता, घर के सामने की उपजाऊ खेती छोडकर क्या कोई सहारा के रेगिस्तान में खेती कर सकता है? मात्र आत्मत्याग के लिए ही हो तो फिर कलकत्ता जाने के लिए विलायती रेल में पैसा क्यों बहाया जाए? नागपुर में ही किसी पुराने कुएँ के किनारे खड़े रहकर चिल्लाए, 'राजबंदियों को छोड़ दो' और गले में पत्थर बाँधकर उसी कुएँ में कूद पड़े, अपनी जान दे दे।

नहीं! आत्मत्याग, आत्मबल, सत्याग्रह, अहिंसा, सत्य आदि के सुंदर, आकर्षक नामों के नीचे हितशत्रु समान राष्ट्र का आज तक तेजोभंग किया गया-वह बस हुआ। राजनीति को लड़का ही मानकर जो खिलवाड़ हुआ, वह बस हुआ। कहते हैं, कलकत्ता पैदल जाओ और चीखो-चिल्लाओ! युवा बंधुओ, यदि आप सचमुच राष्ट्र के लिए कुछ कर दिखाना चाहते हैं तो यह बालबुद्धि का दर्शन और यह नपुंसकता का शास्त्र सबसे पहले पैरों तले कुचल डालें। पुनः 'यह कृत्य सत्याग्रही है या नहीं इस तरह प्रश्न न पूछते हुए बस, इतना ही देखें कि साधारणतः वह कृत्य आपसे अल्प-से-अल्प स्वार्थ-त्याग करवाकर दृष्ट विपक्ष को अधिक-से-अधिक क्षति पहुँचा सकता है या नहीं। फिर उसे चाहे भोलापन कहें या उठाईगिरी, सत्याग्रह कहें या शस्त्राग्रह।

उस मुसोलिनी को देखो, इटली पर लड़ाकू हवाई जहाजों की घनी छत डालना चाहता है, जो सूर्य को ढक सके। लेनिन को देखो, ट्रॉटस्की को देखो, देखते-देखते जारशाही को पलटकर लाल सेना का, एक संपूर्ण राष्ट्र का निर्माण कर रहा है, जो यूरोपीय राजाओं से दो-दो हाथ करेगा। चीन को देखो, लाख-लाख सेना को बढ़िया शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित करते हुए लड़ते-लड़ते मरकर विदेशियों को खदेड़ रहा है। इंग्लैंड की ओर देखो, रणनौकाओं, पनडुब्बियों, विध्वंसकों, हवाई जहाज सेना इनके सिवाय एक शब्द का भी उच्चारण न करते हुए, इतना विशाल साम्राज्य कैसे घड़ी के समान सुचारु ढंग से चला रहा है। प्रत्येक अंग्रेज नागरिक एक-एक मुसोलिनी ही बन रहा है। वह ठिगना जापान देखो, अपनी दाढ़ी-मूंछ का झंझट मुँड़वाकर तलवार निकालकर खड़ा है, कमाल पाशा को देखो, वह छोटा सा अफगान का अमीर देखो, जेहाद-धर्मयुद्ध की गर्जना करता हुआ घर-घर घूम रहा है और इस प्रकार के प्रचंड, भयंकर घमासान युद्ध में इस भारत का भाग्य तुमने जिन हाथों को सौंपा है-ये तुम्हारे दो कौड़ी के 'चक्रवर्ती' देखो। ये चरखे का चक्र घुमाकर भारत को चक्रवर्ती बनाएँगे। ये नागपुर से पैदल आकर कलकत्ता के गवर्नर की कोठी के पास खड़े रहते हुए 'राजबंदियों को छोड़ दो' इस तरह चिल्लाकर उन क्रांतिकारियों को मुक्ति दिलवाएँगे। यदि तुम खादी बुनना चाहते हो, फल खाकर अथवा पत्तियाँ चबाकर जीना चाहते हो, लंगोट पहनकर रहना चाहते हो, अनशन व्रत करना चाहते हो तो खुशी से इनके अनुयायी बनो। इन सद्गुणों के लिए उपदेशक के रूप में यही उचित है; परंतु यदि आप स्वराज्य की कामना करते हैं, स्वाधीनता की प्रबल कामना आपको हाथ पर हाथ धरे बैठने नहीं देती, अपने हिंदुस्थान की छाती पर लहराते फिरंगी ध्वज को देखकर लज्जावश आपके चेहरे स्याह पड़ रहे हों, तो हे युवा जन, उठो और सीधे रूस, इटली, आयरलैंड से, उस शिवाजी से, चंद्रगुप्त से, यशोधर्म से जाकर पूछो कि 'स्वतंत्रता के लिए कौन से मार्ग हैं?' क्योंकि वे स्वयं उन मार्गों से गुजरे हैं। उन्होंने स्वाधीनता संपादन की है। फिर उन मार्गों में से परिस्थिति के अनुरूप तथा न्याय मार्ग चुनना आपके लिए सुलभ होगा। भांडारकर भले ही प्रकांड पंडित तथा संस्कृतज्ञ हों, जिस तरह राजवैद्य के स्थान पर उन्हें नियुक्त नहीं किया जा सकता, उसी तरह गांधीजी को भले ही वे महात्मा हों और यदि वे अपनी कक्षा के बाहर हस्तक्षेप करने के मोह पर नियंत्रण करेंगे तो हम सभी के लिए वे पूजनीय ही हैं, तथापि उनके समान व्यक्ति जो स्वतंत्रता के घमासान युद्ध में पहली आवाज से ही घबरा जाते हैं तथा सिटपिटाते हैं, जो राजनीति में सर्वथा अप्रबुद्ध हैं-आपके राजगुरु नहीं बन सकते। उस स्थान पर चाणक्य ही चाहिए-एक महासमर्थ व्यक्तित्व। जेनो काम तेनो ठाय, दूजा करे सो गोता खाए।

११ अगस्त, १९२७

गांधीजी और भोले-भाले हिंदू लोग

अब्दुल रशीद का उल्लेख गांधीजी ने 'भाई' नाम से किया और उसके विरोध में सारे हिंदू जगत् के संतप्त होते हुए भी उसका पक्ष लेकर वे दो शब्द कहने के लिए तत्पर हो गए, यह बात कितनी स्वाभाविक है। प्रत्येक अभिनेता को ऐसा अभिनय करना पड़ता है जिससे उसके चरित्र में अधिक-से-अधिक रंग भर जाए। यह संसार एक नाटक है और प्रत्येक मनुष्य एक अभिनेता है। गांधीजी ने 'महात्माजी' की भूमिका स्वीकार की है, फिर उन्हें ऐसे वाक्यों का उच्चारण करना ही चाहिए जिनसे इस भूमिका में अधिक रंग भरे। शिवाजी अथवा रामदास जैसे साधारण अल्प योग्यता की आत्मा के समान 'न्याय का जो अभिमान, उसे ही जानि जो निराभिमान' न्याय-अन्याय समान नहीं हो सकता'। अत: उस जाति का पक्ष ले जिसमें हमने जन्म लिया है।

हम प्रत्येक हिंदू की यही इच्छा होती है कि वह कितना ही घोर अपराधी हो, उसका कोई समर्थक हो जो उसका पक्ष प्रस्तुत कर सके। फिर भला इसमें अनुचित क्या है कि अब्दुल रशीद को गांधीजी मिल गए? यदि गांधाजी के अलावा अन्य कोई व्यक्ति उसका समर्थन करनेवाला मिलता तो फिर अब्दुल रशीद को शोभा नहीं देता।

परंतु ये हिंदू लोग निपट मूर्ख हैं। 'भाई' अब्दुल रशीद का पक्ष प्रस्तुत करने गांधीजी को आगे बढ़ते हुए देखकर वे पूछते हैं, 'यदि अब्दुल रशीद भाई है तो फिर गोपीनाथ शाह को गांधीजी ने झट से 'भाई' क्यों नहीं कहा? यदि अब्दुल रशीद का पक्ष लेना न्यायसंगत है तथा महात्मा की भूमिका के लिए भी अत्यंत सुसंगत है तो गोपीनाथ शाह का पक्ष लेने में उन्होंने वह तत्परता क्यों नहीं दिखाई? वह समाचार मिलते ही वे गद्गद होकर आगे क्यों नहीं बढ़े? इतना ही नहीं, गोपीनाथ शाह का नाम तनिक ममत्व और आत्मीयता के साथ उच्चारण करते ही देशबंधु दास पर अंगार उगलने के लिए वे प्रवृत्त क्यों हो गए?'

अरे दुधमुँहो, ऐसा प्रश्न क्यों पूछते हो? इसलिए कि गोपीनाथ शाह हिंदू था। गोपीनाथ शाह जैसे हिंद का पक्ष लेने अथवा गद्गद अंत:कारण के साथ उस 'भाई' कहना भला किसी महात्मा को शोभा थोड़े ही देता है? उसी तरह गोपीनाथ शाह हत्यारा था और हिंदू भी था-फिर भी देशबंधु दास तथा अखिल बंगाल प्रांतिक परिषद उसका पक्ष लेने का साहस करें, यह देखकर गांधीजी का देशबंधु दास पर आग बरसाना सामान्य ही था। हत्यारे का और वह भी हिंदू का पक्ष लेने का देशबंधु दास को भला क्या अधिकार था? दास ठहरे मात्र देशबंधु, हत्यारे का पक्ष लेने का अधिकार किसी महात्मा के अतिरिक्त अन्य जनों को नहीं हो सकता।

फिर भी गोपीनाथ शाह का हिंदू होने का अपराध भूलकर महात्मा उसके संबंध में एकाध स्निग्ध वचन कह भी लेते, गोपीनाथ की आत्मा के लिए भगवान् के पास करुणा की प्रार्थना भी वे करते, जैसी रशीद की आत्मा के लिए की थी। परंतु गोपीनाथ शाह ने किसी हिंदू संन्यासी की हत्या थोड़े की थी। अंग्रेज के हत्यारे का पक्ष लेने का और दुःखी होकर तुरंत प्रकट रूप में 'भाई' कहने का अधिकार दास बाबू जैसे देशबंधु को तो क्या, साक्षात् महात्मा को भी नहीं है। इंडियन पीनल कोड से लेकर स्पेशल ऑर्डिनेंस एक्ट तक सभी धर्मग्रंथों का इस विषय पर एकमत है, परंतु ये मूर्ख हिंदू लोग यह सूक्ष्म भेद क्या जानें!

महात्मा गांधी ने इसी संबंध में चर्चा करते हुए बताया कि 'मैं मुसलमानों का मित्र हूँ। मुसलमान मेरे खून के भाई हैं। भला इसमें गलत क्या है? सत्य ही मुसलमान हमारे खून के भाई हैं। उनमें से आधे से अधिक हिंदू से मुसलमान बने हुए हैं। अत: उनमें अभी तक हिंदू रक्त ही बह रहा है। इससे भी अधिक तात्त्विक विचार किया जाए तो मुसलमान भी इनसान हैं। अतः मानवीय लहू की दृष्टि से भी उनका और हमारा लहू एक ही है। तो फिर उन्हें अपने खून भाई' कहकर महात्माजी ने सत्य कथन ही तो किया है।

परंतु ये भोले-भाले हिंदू लोग महात्माजी की उपर्युक्त बात पढ़कर कहते हैं, क्यों जी, पिछले वर्ष 'यंग इंडिया' में एक क्रांतिकारी हिंदू ने जब महात्माजी से कहा था-'हम हिंदुओं की नस-नस में राणा प्रताप तथा शिवाजी का लहू बह रहा है, तब सात्त्विक क्रोध से उछलकर गांधीजी ने उत्तर दिया था, बिलकुल नहीं। आपके अथवा मेरे शरीर में प्रताप और शिवाजी का लहू नहीं है। हिंदुओं में विभिन्न जातियाँ होने के कारण राजपूत अथवा मराठों का ब्राह्मण अथवा बनिया का लहू एक है यह कैसे कहा जा सकता है?'

और इस बात का स्मरण रखना चाहिए कि प्रताप, गोविंदसिंह, शिवाजी का लहू मुझमें है-वे मेरे खून के भाई हैं-इस तरह एक हिंदू कहे तो उसमें महात्मापन कहाँ है? इस तरह की बात साधारण व्यक्ति भी कर सकता है; परंतु मुसलमान मेरे मित्र हैं, वे मेरे लहूबंधु हैं-यह सत्य विशेषतः जिस दिन श्रद्धानंद के हिंदू रक्त को मुसलमान खून ने बहाया, उसी दिन उगलना यही महात्मापन को दिव्य शोभा देना है।

अब विंसगति की एक आपत्ति है कि जातिभेद के कारण बेटी व्यवहार बंद होने से यदि हिंदू लोग यह नहीं कह सकते कि मुझमें प्रताप, शिवाजी, वसिष्ठ अथवा श्रद्धानंद का लहू बह रहा है, तो फिर यह भी कैसे कहा जा सकता है कि उसी जाति से भ्रष्ट हुए मुसलमानों का लह मुझमें है, वे मुसलमान मेरे ही भाई हैं? इस प्रकार की विसंगति मूर्ख हिंदू लोगों को प्रतीत होना स्वाभाविक है, क्योंकि उनकी बुद्धि मोटी है; परंतु वे यह बात भी ध्यान में रखें कि विसंगति का बंधन महात्माओं की बातों पर नहीं हो सकता अन्यथा महात्माजी जो यह कहते हैं कि सगी बहन पर बलात्कार करनेवाले पापी पर भी निरुपायवश शस्त्र चलाना यह भी हिंसा होने के कारण वैसा न करे, अंग्रेजों का पक्ष लेकर जर्मनों का कत्ल करने के लिए भारतीय युवकों को सेना में भरती होने का हठ बीमार पड़ने की हद तक तो न करते।

१० फरवरी, १९२७

कौन सा धर्म शांतिप्रधान है ?

परसों के 'यंग इंडिया' में गांधीजी ने A Candid Critic (एक निर्भीक आलोचक) शीर्षक के नीचे एक पत्र व्यवहार के उत्तरस्वरूप लेख लिखा है। इसमें उल्लिखित मुद्दे अत्यंत भ्रांतिजन्य हैं। 'इसलामी धर्म शांतिप्रधान धर्म है' इस तरह का गांधीजी का विधान कितना साहसपूर्ण है, यह उस व्यक्ति को भी ज्ञात होगा जो इसलाम के इतिहास की ओर सरसरी दृष्टि डालता हो। इसी लेख के अंत में गांधीजी कहते हैं-'The seat of religion is in the heart' धर्म का स्थान है-हृदय। ठीक है न! तो फिर इसलामी हृदय टटोलकर देखने पर अनायास ही ज्ञात होगा कि इसलामी धर्म कैसा है! जबसे इसलाम का प्रसार होने लगा तब से हम उसके हृदय का रूप कैसा देख रहे हैं? इसलाम ने पहले सीरिया ले लिया, तब वहाँ क्या हुआ? वहाँ के ईसाईधर्मी लोगों पर भयंकर अत्याचार हुए और वे बेचारे हताश होकर स्वदेश त्यागकर चले गए। वे कहाँ गए और उन्हें किसने आश्रय दिया? इसी पुण्यश्लोका हिंदू संस्कृति ने उन्हें दक्षिण हिंदुस्थान में आश्रय दिया। आगे चलकर इसलाम धर्म पर्शिया में दायरस के साम्राज्य में घुस गया। यह साम्राज्य एक समय विश्वविख्यात था। वहाँ क्या हुआ? संपूर्ण ईरान-पर्शिया तहस-नहस होकर पारसी लोग एवं उनकी सुधारणा नष्टप्राय हो गई। केवल एक जलयान भर देशवीर तथा धर्मवीर पारसी इस संपूर्ण विनाश से बाल-बाल बचकर अपनी पवित्र अग्नि तथा अपना जेंदावस्ता लेते हुए इस विशाल महासागर के मृत्युमुख में घुस गए और उन्हें भी किसने आश्रय दिया? इसी हिंदू जाति ने। उन असहाय धर्मवीरों को उदारता के साथ अपनी मातृभूमि के अंक पर आश्रय दिया और आज तक उसी भूमाता ने उनका रक्षण किया। आगे चलकर इसलाम धर्म की लहर प्रत्यक्ष हिंदुस्थान भर में फैल गई और सोरटी सोमनाथ के आक्रमण से रक्तपात, आगजनी, लूटपाट का पूरे हिंदुस्थान में बावेला मच गया। गांधीजी! क्या यह शांतिप्रधान धर्म है? आज तक अनेक ने केवल देश जीते हैं। 'यश से विजिगीषु' कई लोग हो गए हैं, परंतु यह हत्याकांड अनन्य साधारण है। जो मुसलमान नहीं, वह 'काफिर', उसकी सारी चीज-वस्तुओं, बीवी-बच्चों को लूटे-खसोटे, भ्रष्ट करे, बलात्कार करके उन्हें मुसलमान बनाए, इस तरह की भीषण परंपरा कुछ अल्प अपवादों को छोड़कर हिंदुस्थान में इसलामी धर्म के पदार्पण के पश्चात् ही प्रारंभ हुई। गजनवी, मुहम्मद गोरी, मुहम्मद तुगलक, औरंगजेब, टीपू सुलतान इन नामों का केवल संकेत निदर्शनात्मक उच्चारण करने पर भी इसलाम धर्म का संपूर्ण इतिहास आँखों के सामने खड़ा हो जाता है और चित्तौड़ में तीन बार जो बाल-बच्चों तथा सतियों का जौहार करना पड़ा सो अलग। फिर भी महात्माजी कहते हैं कि इसलाम शांतिप्रधान धर्म है। उपर्युक्त घटनाओं के अपवाद भी हैं। इसलाम धर्म में कुछ अंश भूतदया का उपदेश करता है, परंतु यह सत्य है कि हृदय में धर्म होता है तो इसलामी प्रसार का हृदय का स्वरूप भी ऐसा है। आगे चलकर महात्माजी इसलाम धर्म की वकालत करते हुए कहते हैं, 'यह सच है कि इसलाम की तलवार से जरा अधिक निकटता होती है, परंतु वह परिस्थितियों के दोषों का फल है।' वे कैसी परिस्थितियाँ थीं-यह महत्त्वपूर्ण गोपनीयता महात्माजी ने गुप्त ही रखा है। यदि यह परिस्थितियों का ही दोष है तो फिर वह सभी को समान रूप से लागू होना चाहिए। और उसी के अनुसार यह दोष मुसलमानों के हत्याकांड के दावानल में मराठे, राजपूत सिखों को भी जड़ना चाहिए था; परंतु स्वराज्य स्थापना के पश्चात् भी तथा साम्राज्यवर्धन के समय साम्राज्यवर्धन के पश्चात् मराठों ने कितनी मसजिदें गिराईं, कितने मुसलमानों को बलपूर्वक हिंदू बनाया, इसका कुछ इतिहास महात्माजी के पास है? मराठों, राजपूतों ने एक भी मसजिद नहीं गिराई अथवा एक भी मुसलमान को बलपूर्वक हिंदू नहीं बनाया। तो फिर कौन सा धर्म शांतिप्रधान है? इसलाम या हिंदू?

वस्तुत: आज इस पिष्टपेषण का कोई प्रयोजन नहीं तथा गड़े मुरदे उखाड़ने में किसी भी तरह का अनिष्ट हेतु नहीं है, परंतु रोग का कारण यदि गलत हुआ तो जिस तरह महातेजस्वी औषधि भी रोगहारिणी नहीं हो सकती, रोग बढ़ानेवाली होगी। उसी तरह महात्माजी के रोग निदान किस तरह तथ्यहीन, इतिहास के विरुद्ध हैं यह दिखाने के लिए यह रामायण लिखनी पड़ी।

वास्तविकता यह है कि बहुसंख्य मुसलमानों को यह हिंदुस्थान देश अपना नहीं प्रतीत होता और उसमें हिंदुओं का निवास उन्हें शूलि की तरह चुभता है-उनकी यही भावना इस सारे फसाद की जड़ है। कुछ समझदार मुसलमानों को छोड़कर अन्य लोग यही आस लिये बैठे हैं कि तुर्कस्तान, ईरान, अफगानिस्तान की तरह हिंदुस्थान भी एकमेवद्वितीय हो और यदि ऐसा हुआ तो वे इस देश से स्वदेश समझकर प्रेम करेंगे। परसों बैरिस्टर अमीन ने दिल्ली की परिषद् में साफ शब्दों में कहा कि अगले दस वर्षों में प्रत्येक मुसलमान को कम-से-कम तीन हिंदुओं को मुसलमान बनाना होगा, ताकि जो स्वराज्य प्राप्त होगा, वह इसलामी राज होगा। उनकी यही प्रवृत्ति मूलभूत एकता के विनाश की जड़ है। और एक भी मुसलमान कभी इसका निषेध नहीं करता, उसके लिए कोई प्रयास भी नहीं करता। यही इस झगड़े की जड़ है, इस रोग का कारण है। ऐसा थोड़े ही हो सकता है कि बैरिस्टर अमीन का दिल्ली का अत्यंत उत्तेजक भाषण गांधीजी ने नहीं पढ़ा हो? परंतु उसके संबंध में उनके मुसलमान साथियों के साथ ही चुप्पी साधकर इस तरह वे बकवास कर रहे हैं कि 'संख्याबल में क्या रखा है'। इस समय भी मुसलमानों को स्पष्ट चेतावनी देने का साहस गांधीजी में स्फुरण नहीं होता और कोई तेजस्वी आर्यसमाजी इस प्रकार के मुसलमानों की वाहियात शेखी को उत्तर देने लगे तो उस आर्यसमाजी पर किसी मरकहे मास्टर की तरह झुँझलाते हुए अपनी लेखनी की छड़ी निकालकर टूट पड़ने में वे पुरुषार्थ समझते हैं। यही काँटा हिंदू लोगों के मन में चुभता है। हम जानते हैं कि गांधीजी महात्मा हैं, इसलिए वे पक्षपातातीत हैं, परंतु जिस तरह जाति की ओर झुकना पक्षपात कहलाता है उसी तरह परजाति की ओर झुकाव भी पक्षपात ही होता है, शब्दकोश में यह भी पक्षपात ही कहलाता है।

इसका उपाय करने से सबकुछ ठीक होगा। इसलाम में जो सहिष्णुता, भूतदया के उपदेश महात्माजी को ज्ञात हैं, वस्तुतः वे उन्हें मुसलमानों को 'यंग इंडिया' द्वारा पढ़ाएँ और उनके पट्टशिष्य अली बंधुओं ने खिलाफत पर जैसे भाषण दिए, उसी तरह इसलाम स्थित शांति के मंत्रों पर व्याख्यान आयोजित होने चाहिए। मुसलमानों को राष्ट्रीय वृत्ति सिखाने के लिए प्रसंग पड़ने पर कटु, परंतु अंत में गुणकारक बोध कराना चाहिए।

परंतु यह सब छोड़कर जब वे गोलमोल बोलने लगते हैं, बिना किसी कारण हिंदुओं को दोषी ठहराते हैं, मुसलमानों के कोहाट जैसे भयंकर अपराधों के स्पष्ट हो जाने पर भी जब वे मौन धारण करते हैं तब निश्चयपूर्वक तथा निर्णायक रूप में यही कहना हम अपना कर्तव्य समझते हैं कि यह कारण गलत है और कलह का वास्तविक कारण कहीं अन्यत्र है।

२७ जनवरी, १९२७

ब्रिटिशों के समर्थक

महात्मा गांधी ने औपनिवेशिक स्वराज तथा नि:शस्त्र असहयोग आदि विषयों पर जो समर्थन व्यक्त किया था, उससे 'पायोनियर' आदि समाचारपत्र संतुष्ट हो गए हैं। पायोनियर कहता है-

There can be little doubt but that the wide spread conservative elements in the land will once more rally round the Government and among them the foremost would be Mahatmaji! The revolutionary movement in the country would be isolated and left in the air and there would still be a chance to preserving India for the British commonwealth of Nations! If no such step is taken, the future would be black indeed!!

अर्थात् अब सरकार सभी उदारमतवादी लोगों को पुनः एक बार अपने झंडे तले संगठित करे और आज भी अंग्रेज सरकार से, जो एकनिष्ठ हैं, उन लोगों में महात्माजी ही प्रमुख हैं। सरकार उन्हें अपने निकट रखे अन्यथा ब्रिटिश साम्राज्य का भविष्य अँधेरे में डूब जाएगा। ब्रिटिश साम्राज्य को हिंदुस्थान से सदा के लिए हाथ धोना पड़ेगा, परंतु महात्माजी जैसे शांतिवादी को, जो आज भी ब्रिटिश साम्राज्य के हितैषी हैं, सरकार यदि अपनी कक्षा में खींच लेगी, तो अभी क्रांतिवादियों का आंदोलन दबाया जा सकता है। क्रांतिकारियों को दबाने के लिए-महात्माजी के शांतिप्रिय अहिंसक तथा आज भी अंग्रेज साम्राज्य से एकनिष्ठ रहनेवाले पक्ष को अपने में संगठित करो।

आजकल 'पायोनियर' बिना भूले गांधीजी को 'महात्माजी' संबोधित करता है। महात्माजी के कलकत्ता की पकड़-धकड़ के संबंध में इंग्लैंड का 'मैनचेस्टर गार्डियन' भी कहता है कि 'बंगाल सरकार की क्या मति मारी गई है? आज अंग्रेज राज्य के हितार्थ यदि किसीको खुला छोड़ना उचित हो सकता है तो वह केवल महात्माजी को, क्योंकि वे विश्व की एक महान् हस्ती हैं। इस व्यक्ति को पकड़कर क्रांतिकारियों का मार्ग निष्कंटक करने की मुर्खता सरकार कर रही है-भला इसे क्या कहा जाए?

इस प्रकार 'Rally round gandhites' इसी एकमात्र बीज मंत्र का उच्चारण सभी ब्रिटिश राजनीतिज्ञ कर रहे हैं। पहले इसी मोर्ले ने इन्हीं क्रांतिकारियों को दबोचने के लिए इसी मंत्र का उच्चारण किया था। 'Rally round gandhites'-पायोनियर-गार्डियन ने कहा।' भला कौन कह सकता है कि उनका यह विधान अनुचित है? सत्य ही इन दुष्ट क्रांतिकारियों के चंगुल से सरकार को तथा हिंदुस्थान को बचाना हो तो-अर्थात् हिंदुस्थान को ब्रिटिश साम्राज्य में दबाना हो, उसे बचाना हो-तो हमें चाहिए कि महात्माजी के कार्यक्रमों का ही समर्थन करें, क्योंकि आज पाँच-छह वर्ष पिछले उदारमतवादी पक्ष का स्थान नए अनत्याचारी असहकारितावादियों के लेने के पश्चात्। क्रांतिकारियों के उग्रवादी आंदोलन के मार्ग में सरकार की ओड्वायरशाही रौलेट बिलशाही इतनी बाधक नहीं बन सकी जितनी यह महात्माशाही बनी। उनकी राजनीतिक उपयोगिता को भूलना सरकार का अपने ही हितैषियों के साथ विश्वासघात करना है। हम अनत्याचारी, अहिंसावादी, ब्रिटिश साम्राज्यवादी, सभी हिंदू लोग-महात्माजी के पक्ष का उपकार कभी नहीं भूलेंगे। सरकार भी न भूले। गांधीजी की यात्रा में रोड़े अटकाना तो दूर, स्वयं रेल का खर्चा उठाकर सरकार द्वारा उन्हें हिंदुस्थान भर में घूमने देना ही इष्ट है। यह पायोनियरादिकों के अभिमतों की तरह हमारी भी विनम्र सूचना है। क्योंकि ऐसी कई महत्त्वपूर्ण बातें हैं जो सरकार अपने बारे में नहीं बता सकती-महात्माजी का पक्ष लोगों को समझ आता है। और क्रांतिकारियों के लिए मार्ग से ब्रिटिश साम्राज्य किसी मारक विष की तरह डरता है, उस मार्ग से लोगों को परावृत्त करके राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, औद्योगिक, शैक्षणिक आदि सभी दिशाओं से ब्रिटिश साम्राज्य के लिए सापेक्षतः अत्यधिक सुविधाजनक तथा न्यूनतम हानि के मार्ग पर भारतीय असंतोष को रोक सकता है। ब्रिटिश साम्राज्य के हितार्थ तथा हिंदुस्थान के हितार्थ 'क्योंकि ब्रिटिश हित ही भारतीय हित है।' सरकार महात्माजी को पुन: कभी भी न रोके।

और उस प्रकार अटके जाने का अब अधिक भय नहीं रहा, क्योंकि सरकार को पायोनियरादिकों का अभिप्राय संभव है-दिल्ली के चायपान से यह स्पष्ट होता है और यदि पकड़े गए तो यथासंभव मुक्त होने की नीति गांधीजी ने अपनाई है। उन्होंने अपनी जाति का प्रतिज्ञापत्र प्रस्तुत किया, इससे यह जाहिर ही है। बेचारी असहकारिता! चाय की एक प्याली में डूब मरी।

मैनचेस्टर गार्डियन तनिक एक बात और स्पष्ट करे। वे मि. गांधी, सभी ब्रिटिश समाचारपत्रों में 'महात्माजी' के नाम से वंदनीय हो गए। वे वैसे कब से हो गए? विश्व के अत्यंत महान् पुरुष वे आज ही बन गए या जब उन्हें 'Swollen headed" कहते हुए छह वर्ष कारागृह में बंद किया, तब भी वे अत्यंत महान् पुरुषों में से एक थे। और एक प्रेमपूर्ण सूचना है कि महात्मा गांधी के राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक इत्यादि उपदेशों की तथा कार्यक्रमों की अंग्रेजी समाचारपत्र अधिक प्रशंसा न करें, क्योंकि उससे क्रांतिकारियों को यह आरोप लगाने का अवसर मिलता है कि गांधीजी कहीं-न-कहीं भूल कर रहे हैं। दूसरी बात यह कि यदि प्रकट रूप में प्रशंसा करनी ही हो तो कम-से-कम अंग्रेज यह तर्क प्रकट रूप में न करें कि 'क्रांतिकारियों का आंदोलन अंग्रेजी प्रशासन पर मर्माघात कर रहा है, इस आघात से हमें बचाने के लिए महात्माजी की सीख तथा कृति एक बिना मूल्य, उपयोगी ढाल है, अत: गांधीजी को अपना लो।' क्योंकि इससे क्रांतिकारी सहजतापूर्वक यह सिद्ध कर सकते हैं कि गांधीजी के कार्यक्रम ब्रिटिश सत्ता के मर्म पर ही हाथ डालने का प्रयास करते हैं। अंग्रेजी समाचारपत्रों के इस प्रकार के तर्क को प्रसंगवशात् सरकार कोई नया प्रेस एक्ट बनाकर दंड दें, क्योंकि क्रांतिकारियों के लेखों से अधिक अंग्रेजी पत्रों को यह सत्य कथन ही गांधीजी की नीति के लिए अधिक विघातक और क्रांतिकारियों के आंदोलन के लिए अधिक पोषक है।

३० मार्च, १९२९

वाइसराय के साथ भोजन करता हुआ असहयोग

कलकत्ता में संपन्न युवा परिषद् ने यह घोषित किया था कि '१० मई, १८५७' का दिन स्वतंत्रता दिवस के रूप में संपूर्ण भारतवर्ष में मनाया जाए, क्योंकि जिसे सुज्ञ, धूर्त अंग्रेज और अज्ञ, परतुष्टि की नीति अपनानेवाले भारतीय लोग 'सिपाहियों का विद्रोह' कहते हैं, वह राष्ट्रीय क्रांतियुद्ध था, भारतीय स्वाधीनता युद्ध था और १० मई, १८५७ के दिन उसका पहला विस्फोट हुआ। अतः अखिल भारतवर्षीय युवा परिषद् ने उसे राष्ट्रीय उत्सव के रूप में मनाने की घोषणा की है।

जिन महाराष्ट्रीय युवकों के श्री भट प्रभृति नेताओं ने शोलापुर, पुणे आदि स्थानों पर यह प्रस्ताव करते हुए कलकत्ता में अखिल भारतीय युवा परिषद् में इस क्रांतियुद्ध की स्मृति इतनी प्रखरतापूर्वक उद्दीपित की, उनका यह कृत्य अत्यंत तेजस्वी, आत्मसम्मानजनक था। हमें आशा है, अब उतनी ही तेजस्विता के साथ पूरे महाराष्ट्र में यह स्वाधीनता दिवस जगह-जगह पर धूमधड़ाके के साथ संपन्न करके हमारे महाराष्ट्रीय युवक यह प्रस्ताव हिंदुस्थान भर में कार्यान्वित करने में ही प्रमुख स्थान प्राप्त करेंगे।

कुछ भी हो, पर अब सन् १८५७ का विद्रोह राष्ट्रीय क्रांतियुद्ध था, यह भान अब सदा के लिए जीवित रहेगा। सन् १९०८ के अंधकार में अभिनव भारत ने अपनी एकाकी उपस्थिति में देखा हुआ यह भी सत्य अब संपूर्ण भारत को स्पष्ट दिखाई देने लगा।

और वही स्थिति अभिनव भारत ने पच्चीस वर्ष पूर्व अपनी एकाकी उपस्थिति में देखी हुई उस स्वतंत्रता लक्ष्मी के दिव्य दर्शन की भी हो गई, भरी राष्ट्रीय सभा में स्वतंत्रता के प्रस्ताव को, मोतीलाल-गांधीजी जैसों के प्रकट तथा निरंतर विरोध को ताक पर रखते हुए एक हजार अनुकूल मत मिल गए और युवा परिषद् में स्वाधीनता या उपनिवेश राज्य यह प्रश्न विचारणीय भी नहीं है-इस तुच्छता के साथ स्वाधीनता ध्येय के प्रकट समर्थक राष्ट्रीय सभा अग्रगण्यों का सम्मान हुआ, फिर इस तरह का निर्णय दिया गया कि स्वाधीनता का ध्येय-स्वाधीनता भारत का जन्मसिद्ध अधिकार ही है-उसमें योजना बनाने का प्रश्न ही कहाँ उठता है? भारतीय युवा परिषद् एक स्वर में गर्जना करने लगी 'Independence is my brith right.'

बच्चों को इस स्वयंसिद्ध सत्य का बोध हुआ, परंतु महात्मा गांधी का कहना है, 'मुझे कम-से-कम एक वर्ष इस विषय का अधिक अध्ययन करना होगा। तब कहीं मुझे उसका बोध होगा।' यह स्वाभाविक ही है। भवभूति कहते हैं-

'भवति च पुनर्भूयात भेदः फलं प्रति तद्यथा।

प्रभवति शुचिर्बिन्बोद्ग्राहे मणिनं मृदां चयः॥'

पिछले चार युगीन इतिहास का मनुष्य जाति का साधारण अनुभव गांधीजी ने पर्याप्त नहीं समझा। प्लासी की लड़ाई से लेकर ब्रिटिश राष्ट्र का डेढ सौ वर्षों से अधिक का विशेष अनुभव उनके लिए पर्याप्त नहीं था। उनके अनुसार और वर्ष भर तक प्रतीक्षा करनी है। उन्होंने प्रण ही किया है कि अभी और एक वर्ष मैं इस सत्य का अध्ययन करूँगा ही नहीं। यह सदबद्धि मझे वर्ष भर तक नहीं सूझेगी। अब यह अत्याचार है। वह अत्याचार करोगे तो हम विश्वव्यापी विरोध करेंगे-इस तरह की निर्लज्ज भाषा की राजनीति का सारभूत सूत्र है-इस तरह हमारे भारतीय नेताओं की पिछली तीन पीढ़ियों की ठोस धारणा हो गई है। आज अस्सी वर्षों से सरकार मनमाना दमनचक्र चला रही है और हम 'अब तक जो हुआ सो हुआ, परंतु भविष्य में इस तरह करोगे तो याद रखना' यही बकवास कर रहे हैं। आगे सरकार नई मनमानी कर ही रही है और हम पुनः 'पर आगे याद रखना, अच्छा' इस तरह गीदड़भभकी सा अंतिमोत्तर (ultimatums) भेज ही रहे हैं।

हमेशा रोनेवाला, दुर्बल, पिलपिला तथा चिड़-चिड़ा बच्चा स्कूल के हट्टे-कट्टे बच्चों के थप्पड़ खाते हुए यह रट लगाता रहता है-'अब हाथ उठा तो सही बच्चू, देख लूँगा।' और दूसरी थप्पड़ रसीद होते ही पुन: चीखकर आँखें मलते हुए कहता है, अबे, हाथ लगाकर तो देख अल्टीमेटम-पर-अल्टीमेटम!! लोगों की लड़ाइयाँ अंतिमोत्तरों से आरंभ होती हैं। गांधीजी की लड़ाइयाँ अंतिमोत्तर के साथ समाप्त होती हैं। अंतिमोत्तर बलवानों के युद्ध में पहला वार होता है और दुर्बलों के युद्ध का अंतिम वार। डेढ़ सौ वर्ष मार खाते-खाते अंग्रेजों को डाँट पिलाते हैं-'अब जो हुआ सो हुआ, परंतु यदि इस वर्ष स्वराज्य नहीं दिया तो...'

क्या? 'तो फिर' 'क्या?' गांधीजी कहते हैं, तो फिर दूसरा-तीसरा कुछ नहीं-मैं निर्मल स्वतंत्रतावादी के रूप में विश्व में विचरण करूँगा! तारीख-दिन ही नहीं, घंटा भी तय करके गांधीजी यह भयंकर अंतिमोत्तर (ultimatum) देते हैं-सन् १९२९ के दिसंबर में ३१ तारीख के रात १२ बने तक इंग्लैंड के सदुद्देश्य तथा सत्क्रिया पर मैं विश्वास रखनेवाला हूँ। इससे अधिक भयंकर अंतिमोत्तर कैसा भेजा जाए? तथापि सन् १९२९ के दिसंबर की ३१ तारीख के रात १२ बजे तक-बस इतना ही लिखकर न रुकते हुए कुछ पल-विपल भी निदर्शित किए जाते तो अंतिमोत्तर अधिक ही भयंकर नहीं होता? फिर सरकार की मजाल है उसे दुत्कारने की? क्योंकि सन् १९२९ के ३१ दिसंबर के १२ बजे तक रखा हुआ यह विश्वास यदि सरकार ठुकराएगी तो तुरंत स्वच्छ, स्वतंत्रतावादी के रूप में यह जगत् मुझे देखने लगेगा।' कितनी आश्चर्यजनक, युगप्रवर्तक, प्रलयकालीन, सृष्टिक्षोभक घटना होगी, यह ईश्वर जाने, उस दिन ब्रिटिश साम्राज्य का क्या होगा?

'क्योंकि, मैं स्वतंत्रतावादी होकर अमुक कार्य करूँगा' इस तरह गांधीजी कह भी देते तो ब्रिटिश साम्राज्य का क्या होगा, इसपर तर्क किया जा सकता था। परंतु अभी तो बस इतनी ही जानकारी दुनिया को प्राप्त हो गई है कि उस दिन स्वतंत्रतावादी के रूप में गांधीजी विचरण करने लगेंगे। अत: बस इतनी ही धुँधली सी चिंता हो रही है कि ईश्वर जाने ब्रिटिश साम्राज्य का क्या होगा। प्रायः गांधीजी ब्रिटिश दास्यता को 'ईश्वरी वरदान' समझकर उसका सम्मान करते थे-उसे छोड़कर इस घोषणा से ब्रिटिश साम्राज्य का जो कुछ हुआ, वही गांधीजी के स्वतंत्रतावादी के रूप में इस जगत् में विचरण करने के पश्चात् भी होगा।

'औपनिवेशिक स्वाधीनता दो, अन्यथा मैं चरखा चलाता रहूँगा।' इस प्रकार पिछले दस वर्ष तक रट लगाई, उसी तरह 'स्वतंत्रता दो, अन्यथा मैं खद्दर पहनूँगा, हाँ।' इस तरह और दस वर्षों तक कहते रहने से भी क्या होगा? इस तरह रट लगाते रहने से अंग्रेज टस से मस नहीं होंगे। उससे उनका अच्छा-खासा मनोरंजन ही हुआ होगा। उससे भय नहीं लगता होगा। वे हँसकर कहेंगे, 'ठीक है।' राष्ट्र के संबंध में विचार, स्वतंत्रता के बिना संभव ही नहीं होगा-इस सीधे-सादे सत्य का बोध गांधीजी को एक वर्ष पश्चात् होगा। और एक वर्ष के पश्चात् उससे वे वह मोटी बात सीखेंगे। इस बात से उनके उस एक वर्ष के पश्चात् आनेवाले बचपन के कौतुक से अधिक साठ वर्ष की आयु के पश्चात् भी उन्हें उस बात का बोध नहीं हुआ जो बच्चों को भी समझ में आती है-इससे उनके दासताप्रवण बुद्धिमांद्य से हम अंग्रेजों को अधिक घृणा होती है।

सिंहकेतु अंग्रेज मन-ही-मन बिलकुल यही कहेंगे। हाँ, पर प्रकट रूप में वह गांधीजी की बुद्धिमानी, दूरदर्शिता, राजनीतिक चतुराई की ऐसी प्रशंसा करने लगेंगे, जैसी पहले कभी नहीं की थी। करने भी लगे हैं-

वह देखिए 'पायोनियर' ने स्पष्ट कहा है, 'टाइम्स' भी उसकी हाँ में हाँ मिला रहा था कि 'राष्ट्रीय सभा में सभी बचपना ही हो रहा था। वह तो महात्मा गांधी के वजन से कुछ गंभीरता आ गई तथा दूरदर्शिता दिखाई देने लगी। यदि उद्यत क्रांतिकारियों के हाथ राष्ट्र सभा तथा राष्ट्रीय आंदोलन जाने नहीं देना हो तो वाइसराय गांधीजी जैसों को तुरंत बुलाए और विचार-विनिमय करे।'

और उसी के अनुसार गांधीजी तथा गवर्नर की भेंट ही नहीं, सहभोजन के कार्यक्रम भी दिल्ली में हो रहे हैं। असहयोग की यह कितनी विजय! राष्ट्रीय सभा में गवर्नर जनरल के पास यह प्रस्ताव भेजा जाए' इस प्रकार का अपमानास्पद वाक्य स्वंतत्रतावादियों ने, जो असहयोग की प्रतिज्ञा नहीं करते थे-दुत्कार दिया, परंतु उस वाक्य को छोड़ देने के कारण गांधीजी ने दुःख प्रदर्शित किया। अनत्याचारी असहयोग की यह कितनी महान विजय! यह अनत्याचारी असहयोग जो गवर्नर से बातचीत करता है, उससे मिलता है, उसके साथ भोजन करता है-कितना बलवान, सुसंगत तथा स्वाभाविक है! और वह प्रत्याचारी प्रतिसहयोग देखिए, कितना ढोंगी है!

उस प्रत्याचारी प्रतिसहयोग के क्रांतिकारियों के बिना मिलावट स्वतंत्रता के लिए और आवश्यकता पड़े तो सशस्त्र क्रांति भी उचित है, ऐसा कहनेवाले क्रूरता के लिए गांधीजी उन्हें पापी, मूर्ख कहें; परंतु कम-से-कम एक बात के लिए तो उन्हें धन्यवाद देना उचित है, वह बात है-परसों का वह सहभोजन।

'पायोनियर' ने स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया है कि अत्याचारी क्रांतिकारियों को दबाने के लिए अत्याचारी ब्रिटिश राजनीति अनत्याचारी गांधीजी की पीठ ठोंक रहे हैं। अत: अत्याचारी क्रांतिकारियों के अस्तित्व का कम-से-कम एक लाभ तो अवश्य हुआ कि परसों गांधीजी आदि को गवर्नर के साथ सहभोजन का अवसर मिला। यदि स्वतंत्रतावादी क्रांतिकारियों का कुछ अधिक तकाजा न लगाया हो तो पटेल के घर के इस सहभोजन समारोह का इतनी लाभ शीघ्रतापूर्वक नहीं होता। हिंदुस्थान तथा इंग्लैंड के वर्तमान स्नेह-संबंध बहुत ही अच्छे हैं। इसी कारणवश तो परसों के सहभोजन की शोभा को चार चाँद लग गए। उचित समय पर ही उचित बातें शोभा देती हैं। इस तरह गांधीजी गवर्नर जनरल के सहभोजन आयोजित कराने में क्रांतिकारी पक्ष के अस्तित्व का उपयोग तो है ही और कम-से-कम इसके लिए तो 'अन्नदाता सुखी भव' कहते हुए गांधीजी आदि ऐसे अवसर के लिए तो क्रांतिकारियों के प्रति आभार प्रकट करें।

बेचारे श्रीनिवास आयंगार! भला किसलिए स्वतंत्रता की घोषणा की थी, वे भी और एक वर्ष तक ब्रिटिशों की दयाशीलता पर विश्वास करने का निश्चय करते तो परसों के भोजन समारोह से उन्हें वंचित क्यों होना पड़ता? गवर्नर जनरल के टेबल के पास आगे, नीचे कहीं-न-कहीं तो उन्हें भी अवश्य स्थान मिल जाता। ब्राह्मण होकर भी पंक्ति का लाभ उठाने की कला का उन्हें कैसे विस्मरण हो गया?

१९ मार्च, १९२९

साबरमती का श्रमण

:१:

हुतात्मा यतींद्र के लिए महात्मा गांधी ने कुछ भी सुख-दुःखोद्गार अपने 'यंग इंडिया' में क्यों नहीं निकाला, इस विषय में कुछ विचारवान तथा प्रमुख पत्रकारों को बहुत आश्चर्य हो रहा है। कइयों को दुःख हो रहा है। जैसे कलकत्ता का विख्यात हिंदी दैनिक 'स्वातंत्र्य' कह रहा है, 'हुतात्मा यतींद्र दास के बलिदान पर सुदूर आयरलैंड ने भी दुःख व्यक्त किया। सरकार भी तनिक प्रभावित हो गई। भारत भर में मानो विद्युत् का संचार हुआ, परंतु गांधीजी के विचार से मानो यह कोई महत्त्वपूर्ण घटना ही नहीं थी, इतने वे चुप्पी साधे बैठे हैं।' 'यंग इंडिया' में उसका उल्लेख भी नहीं है। साबरमती के आश्रम की साधारण घटना के तार भी देश भर में भेजे जाते हैं, यंग इंडिया' में स्तंभ भर-भरके लिखा जाता है, परंतु यह समाचार कि यतींद्र की मृत्यु हुई--देने योग्य स्थान उसमें नहीं है। पिछले 'यंग इंडिया' में मोहम्मद अली को अफ्रीका में जाने के लिए रोका गया था, उस घटना से संबंधित चर्चा को स्थान मिल गया, परंतु यतींद्र का नाम नहीं। क्या वे यतींद्र को भी हिंसक समझते हैं? हो सकता है, उनकी हिंसा विषयक परिभाषा हिंदू धर्म की परिभाषा से भिन्न है और भारत में आज तो उनसे कोई भी सहमत नहीं है। शायद गांधीजी कहना चाहते हैं कि यतींद्र ने खीजकर अपनी नाक काटकर भारत सरकार का अपशकुन किया। वे इसलिए चुप बैठे हैं कि यतींद्र ने भारत सरकार को दुःखी किया, वह हिंसक था; अथवा हो सकता है कि दौरों की धाँधली में और मानपत्र तथा थैलियों को सँभालने की गड़बड़ी में उन्हें फुरसत ही नहीं मिली हो।

परंतु हुतात्मा यतींद्र का उल्लेख करना महात्माजी भूल गए-इस बात का आश्चर्य जिन लोगों को होता है, वे स्वयं इस बात को भूलते हैं कि गांधीजी से-उस महात्मा से आजकल ही जो आयु के साठ पार कर चुके हैं-औचित्य की अपेक्षा ठीक समय पर करना उनकी आयु का अपमान करना है। इतना भी नहीं समझ में आता क्या?

हुतात्मा यतींद्र ने ऐसा कौन सा तीर मारा जिससे महात्मा गांधी जैसे महान् सत्यप्रिय, परमदयानिधान, शांतिवादी, अहिंसक व्यक्ति उसकी प्रशंसा में अपना समय नष्ट करे, वाणी को कष्ट दे।

भई, यतींद्र क्या कोई मुसलमान था? उसने किसी हिंदू संन्यासी की हत्या थोड़ी ही की थी? इस तरह कोई प्रशंसनीय कृत्य किया होता और फिर गांधीजी ने उसके नाम से प्रेम भरे झरझर आँसू नहीं बहाए होते तो उसमें उनका दोष होता। जब अब्दुल रशीद ने पिस्तौल दागकर श्रद्धानंद स्वामी की हत्या की, तब इस दयावान पुरुष ने तार पढ़ते ही भरी सभा में तुरंत 'मेरा भाई अब्दुल' कहते हुए आक्रोश किया था। बिलकुल श्रद्धानंद जिसकी हत्या हुई थी उल्लेख की साँस के साथ ही उस हत्यारे भाई अब्दुल के लिए करुणा के उल्लेख की साँस भी ली थी। इतना ही नहीं, भाई अब्दुल को जब फाँसी की सजा जाहिर हो गई, तब 'यंग इंडिया' द्वारा सूचना दी, लेख लिखे कि श्रद्धानंद का पुत्र उसे क्षमा करने का निवेदन करे। हिंदू गांधी-हिंदू, हिंदू ही हिंदू के संबंध में सरकार से निवेदन करे कि उसके प्राण बचाए जाएँ-इसमें ऐसी कौन सी बड़ी बात हुई? वह तो प्रकृति ही है। ऐसी सहज, विहित स्वाभाविक बातों में वे उलझते तो आज उन्हें 'महात्मा' उपाधि कैसे मिलती? सनकीपन की महात्मा की आत्मा-कम-से-कम हिंदुस्थान में आज कुछ ऐसी ही धारणा है, इसमें गांधीजी का दोष नहीं है। आप ही ने उन्हें महात्मा बनाया-अब उन्हें आप ही की महात्मा की परिभाषा के अनुरूप उसे सुशोभित करना पड़ रहा है, इसमें वे क्या करेंगे?

वे ठहरे निरपवाद अहिंसावादी महात्मा। पर यतीन्द्र? एक साधारण हिंसक हुतात्मा, जो स्वाधीनता के लिए शस्त्र धारण करके रक्तपात पर उतर गया था। यह आशा करना ही दुष्टता है कि गांधीजी उसकी प्रशंसा करें। जब जर्मनों की हत्या करने के लिए भारतीय युवक हथियार उठाकर जर्मनों का रक्त, जर्मनों का जिन्होंने कभी हमारे देश का बाल भी बांका नहीं किया। उन जर्मनों का रक्त इस तरह सात्त्विक गर्जना के साथ यूरोप में लड़ने गए, तब उन अहिंसक वीरों की पीठ इस अहिंसा की चूड़ियाँ पहने हुए इसी निरपवाद अहिंसक महात्मा ने क्या नहीं ठोंकी थी? नहीं, इंग्लैंड के लिए जर्मनों को मारो! काटो! इस प्रकार हिंसा शून्य शांतिवाद का उपदेश करते हुए तथा किराए के टटू इकट्ठा करते हुए यही कह रहे थे कि अत्यधिक परिश्रम से ज्वर चढ़ा, तब भी मैं घूम रहा था।' परंतु यतीन्द्र ने तो इस तरह का कोई भी पुण्य कर्म नहीं किया है, बिलकुल नहीं। दुष्ट कहीं का! स्वदेश की स्वाधीनता के लिए हाथ में शस्त्र लेने चला। अरे हिंसक, स्वदेश के लिए तो कोई भी लड़ता है, इसमें तुमने ऐसा कौन सा तीर मारा? वह तो विहित ही है, स्वभाव ही है। हाँ, यदि तुम स्वदेश के अत्याचारी शत्रु को मित्र कहते, दूसरे को तीसरा लूटे इसलिए चौथे को मारने पर तुल जाते तो तुम्हारे उस आचरण में कुछ तो अलौकिक विक्षिप्तता, कुछ तो ऐसे अप्राकृतिक मूर्खता का प्रदर्शन होता कि जिसका समर्थन इस हिंदुस्थान में प्रकट रूप में तथा इंडियन पीनल कोड की परवाह न करते हुए हम अपने महात्मा के व्रत का पालन करते।

भाई अब्दुल्ला जैसी दया न सही, जर्मनों के हत्यारे बने हुए लोगों जैसा सहयोग न सही, पर कम-से-कम यतींद्र की ध्येयनिष्ठा की जीवट वृत्ति की तो गांधीजी प्रशंसा करो, जैसे प्रतिपक्षीय सरकारी वकीलों ने की-इस प्रकार कुछ लोग आपत्ति उठाते हैं, परंतु यह भी उनकी भूल है। गांधीजी शूरता एवं ध्येयनिष्ठा जैसे गुणों की प्रशंसा करने में कभी पीछे नहीं हटते। मोपलों के विद्रोह में उन्होंने 'यंग इंडिया' में बार-बार 'The moplas are brave people' कहते हुए खुल्लमखुल्ला उनकी पीठ ठोंकी थी; परंतु भगतसिंह, दत्त, यतींद्र ने मोपलों जैसी कौन सी ध्येयनिष्ठा, शूरता का प्रदर्शन किया था? उनपर रखा गया आरोप सिद्ध होने पर भी अधिक-से-अधिक उन्होंने लालाजी का प्रतिशोध लेने के लिए सांडर्स की हत्या की, बस इतना परिणाम निकलेगा। कहाँ उनका यह Dastardly भीरुतापूर्ण कृत्य और कहाँ मोपले, शूर मोपले-जिन्होंने पुरुषों को तो छोड़ो, हिंदुओं की निरपराध कन्याओं, पत्नियों तथा स्त्रियों पर भी सशस्त्र आक्रमण करके बलात्कार किया, उन्हें भ्रष्ट किया, इस तरह का एक भी पुरुषार्थ इस भगतसिंह, दत्त, यतींद्र आदि क्रांतिकारियों ने कभी किया? 'Dastardly' कहीं के!

और ऐसे 'Dastardly' लोगों की प्रशंसा 'यंग इंडिया' में महात्मा गांधीजी ने नहीं की। इसलिए लोग उनसे नाराज हैं। यदि गांधीजी मोपलों का धिक्कार करते, अब्दुल्ला को 'गधा' कहते और क्रांतिकारियों को 'Dastardly' 'कायर' नहीं कहते जैसे अन्य लोगों ने किया-तो यही लोग गांधीजी को एक साधारण मनुष्य समझकर उन्हें 'महात्मा' नहीं कहते। प्रथम ऐसे अनूठे झक्कीपन को महात्मा पद का सूचक मानना, उस सद्गुण के प्रदर्शनार्थ उसे महात्मा पद प्रदान करना और फिर पुनः पलटी खाकर उस महात्मा पद की भूमिका इतनी उत्तम ढंग से संपन्न करते हुए उसी महात्मा को दोषी ठहराना, क्योंकि उसने सफलतापूर्वक वह भूमिका निभाई-यह इस लोकसत्ता का, प्रजातंत्र का अन्याय है। इसलिए उस दिन गांधीजी ने भोपाल में स्पष्ट कह दिया, 'मुझे लोक सत्तावाद से इतना प्रेम नहीं। यह राजसत्ता ही अच्छी लगती है। जैसे इस भोपाल के नवाब को ही देखिए। बेचारे का रहन-सहन कितना सादगीपूर्ण है। उसकी प्रजा बहुत सुखी और संतुष्ट है।'

हुतात्मा यतींद्र की मृत्यु का समाचार भी देने की जगह 'यंग इंडिया' में नहीं थी, इसलिए लोग नाराज होते हैं, परंतु वे यह नहीं सोचते कि इस समाचार में इतना आश्चर्यजनक अथवा इतना महत्त्वपूर्ण क्या है कि इसका वृत्तांत 'यंग इंडिया' में 'तरुण भारत' में इस 'नवजीवन' में प्रकाशित हो। उधर साबरमती के आश्रम स्थित वाटिका के केलों पर बंदरों के झुंड-के-झुंड टूट पड़ रहे हैं। उन बंदरों के इस भयंकर आक्रमण को कम-से-कम हिंसा द्वारा किस तरह जान से मारा जाए अथवा कम-से-कम घायल करके अथवा डरा-धमकाकर लौटाया जा सकता है। अनाज के दाने पकाकर खाए जाएँ अथवा आधे पकाकर या पूरे गलाकर, भिगोकर या बैल के समान सूखे चबाकर खाए जाएँ, आश्रम के साग में मसाला क्यों नहीं डाला जाए, क्यों डाला जाए, कितना डाला जाए, कैसे डाला जाए, उसमें मिर्च कितनी, नमक कितना हो। एक बीमार गाय को किस तरह मारा जाए, इंजेक्शन देकर या गोली से या उसे उसी स्थिति में छोड़कर-इस तरह एक से बढ़कर एक महान् घटनाएँ षड्यंत्र, उथल-पुथल साबरमती के आश्रम के विश्व में घट रही थीं-जिनपर युवा हिंदुस्थान का जीवन-मरण निर्भर है-उन्हें स्तंभ के पीछे स्तंभ समर्पित करना उचित है या ऐसे साधारण क्रांतिकारी लौंडों के रद्दी जीवनों के तथा Dastardly मृत्यु के पश्चात् समाचार छपते रहें! भई, हमने अपने समाचारपत्रों के 'यंग इंडिया', 'युवा हिंदुस्थान' जैसे नाम यूँ ही नहीं रखे। वही बात नवजीवन की। वह 'युवा हिंदुस्थान' का 'नवजीवन' है और अन्न ही जीवन होने के कारण साबरमती आश्रम के रसोईघर में अनेक आंदोलन की महनीय चर्चाओं के चलते आपके इस लाहौर के एक कारागृह की एक कोठरी में एक Dastardly आवारा जी रहा है या मर रहा है, इसकी चिंता कौन करेगा?

इस सारे विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि यतींद्र के लिए मौन धारण करनेवाले महात्माजी को दोष देनेवाले लोग किस तरह भूल कर रहे हैं। महात्माजी का साठवाँ जन्मदिवस पूरे देश भर में संपन्न हो चुकने पर भी इन लोगों को समझ में नहीं आ रहा कि महात्माजी साठ वर्ष पार कर चुके हैं। यदि इस तथ्य पर वे गौर करते तो वे इसकी चर्चा कभी नहीं करते कि वैसा क्यों नहीं कहा। इन क्रांतिकारियों ने महात्माजी को क्या कभी इस तरह सताया? क्योंकि जिस समय महात्माजी चालीस वर्ष के हो गए, तभी क्रांतिकारियों ने, जो उनसे पहली बार परिचित हुए थे तुरंत अनुमान लगाया कि तिलक पंचांग (जंत्री) के अनुसार गांधीजी अवश्य ही साठ वर्ष पार कर चुके हैं और तभी से उन क्रांतिकारियों ने इसकी कभी पूछताछ भी नहीं की कि गांधीजी क्या कहते हैं और क्या नहीं। इतना ही नहीं, गांधीजी स्वयं यदि कुछ कहने लगे तो उसे सुनने का कष्ट भी उन्होंने कभी गांधीजी को नहीं दिया।

१२ अक्तूबर, १९२९

:२:

आश्चर्य यह कि आखिर महात्मा गांधी के 'यंग इंडिया' में इतनी निरुपयोगी जगह न गई कि 'यतींद्र नाथ' का नाम समा सके। जैसे-तैसे उस नाम के लिए स्थान मिल गया, किंतु आज संपूर्ण भारत उस नाम के पीछे जो 'हुतात्मा' पद भूषित कर रहा है, उन तीन अक्षरों को किसी भी तरह स्थान नहीं मिला।

पीछे केवल एक वर्ष में धागे से स्वराज्य प्राप्त करने का दावा करनेवाले गांधी युग की जैसे क्षण भंगुर संपन्नता में कोई बात करते समय यदि किसीके मुँह से यूँ ही 'गांधीजी' अथवा 'गांधी' निकलता तो कुछ सभाओं में क्रोध से उबलते हुए निषेध उभरते 'अजी, महात्मा गांधी कहो।' परंतु पूरा राष्ट्र जिस यतींद्र का 'हुतात्मा' के रूप में सम्मान कर रहा है, उसका गांधीजी केवल 'Das' 'यतींद्र दास' यही उल्लेख करते हैं। और वह भी किसमें, 'यंग इंडिया' में, उसमें जिस पत्र का नाम 'तरुण इंडिया' है।

इधर 'तरुण भारत' इस हुतात्मा यतीन्द्र के नाम की जय-जयकार से सारा आकाश सिर पर उठा रहा है, उस शव के साथ भारत की लाखों युवतियाँ और युवक अपनी भक्ति तथा श्रद्धापूर्ण आँसुओं की आरतियाँ उतार रहे हैं, उसकी विभूति को रक्षा विभूति समझकर माथे पर लगा रहे हैं, हजारों स्कूल तथा विश्वविद्यालय भारत भर में हड़ताल आयोजित कर रहे हैं, 'जय यतींद्र', 'जय हुतात्मा' की गर्जनाएँ कश्मीर से लेकर रामेश्वरम् तक भारतीय विश्व के तरुण-भारत के कंठों से फूट रहीं है और उस तरुण भारत के नाम पर बिक रहे साबरमती के उस बित्ता भर विश्व के 'तरुण भारत' में-Young India' में Yatinadradas का एकवचनी उल्लेख देखिए। सच्चे तरुण भारत के जीवन में ज्वार बनकर आए 'हुतात्मा यतीन्द्र' का प्रतिबिंब इस नाम के 'तरुण भारत' के 'नवजीवन' के गँदले उबरे में मात्र एक 'Yatin' है।

केवल 'Yatin' वह श्रद्धानंद के हत्यारे अब्दुल्ला के समान 'Brother Yatin' नहीं और अपने धर्मनिष्ठ मोपलों जैसा 'Brave Yatin' भी नहीं। अपनी उदारता की चरम सीमा पर खड़े रहकर महात्माजी कहते हैं, 'यतींद्रदास' अपराधी नहीं था।' वाह! बहुत खूब! कितना महत्त्वपूर्ण, अहम् प्रमाणपत्र दिया गांधीजी ने! किसी भी तमोली को, भिखारी को, कुली, पुलिस, ट्राम चालक को इस तरह का जो 'तुम अपराधी नहीं हो' जैसा प्रमाणपत्र मिलता है, वही प्रमाणपत्र यतींद्र को भी मिला, यह भी कम नहीं है। बेचारे गोपीनाथ शाह को तो इतना भी प्रमाणपत्र नहीं मिला था। उसकी उदात्त देशभक्ति को तथा प्राणदानी साहस को पूरी बंगाल प्रांतीय परिषद् ने आँखों पर बैठाकर उसकी प्रशंसा एक स्वतंत्र प्रस्ताव से करते समय महात्मा गांधीजी ने इस 'Young India' में लिखा था, 'गोपीनाथ शाह से हिंसक क्रांतिकारी मूलत: ही अपराधी हैं। उनके उद्देश्य की प्रशंसा करना पाप है'; परंतु उस समय निकली बेहूदी बातों की पूरे राष्ट्र ने जो थुक्का-फजीहत की, उससे इस समय हुतात्मा यतींद्र को 'अपराधी' कहने का भीरुतापूर्ण साहस महात्माजी नहीं कर सके। चलो, यतींद्र का भाग्य भी कुछ कम नहीं।

और महात्मा गांधी का इतना लिखना भी कुछ कम उदारतापूर्ण नहीं है। ऐसे महात्मा को ऐसे हुतात्मा की प्रतिद्वंद्विता का भान होना स्वाभाविक ही है। लोग उस क्रांतिकारी हुतात्मा की जैसे-जैसे प्रशंसा करने लगे हैं, जैसे उन हुतात्माओं की जय-जयकार ध्वनि से संपूर्ण राष्ट्र गूँज उठता है, वैसे ही यह घटना इस महात्मा के मन को शूलि की तरह चुभना स्वाभाविक ही है। इस महात्मा को इस तथ्य का अहसास होता है कि वह ऐसे प्रशंसनीय क्रांतिकारियों को 'पापी अपराधी' हिंसक कहता है और यह भी कहता है कि उनके देशेकनिष्ठ उद्देश्यों को भी देशभक्ति, उनके अटूट साहस को शूरता कहकर उसका गौरव करना पाप है-इस तरह उन्हें महान् अपराधी समझकर उनकी निंदा की थी। इसलिए जय-जयकार द्वारा जनता ऐसे महात्माओं के प्रति अप्रत्यक्ष रूप में निंदा ही व्यक्त करती है, उनका धिक्कार करती है। इतना कुछ होते हुए भी जब महात्माजी ने यतींद्र को अपराधी, पापी, हिंसक जैसी गालियाँ गिन-गिनकर नहीं दीं, जैसे वे हमेशा क्रांतिकारियों को गालियाँ देकर उनका सम्मान करते हैं, यह उचित है। तब बस, इस बात के लिए तो क्रांतिकारी उनके प्रति आभार प्रकट करें।

और यह सूचित करने में हमें बड़ी प्रसन्नता हो रही है कि यह उचित ही घटा। हमारे पास 'आभारी क्रांतिकारी' के हस्ताक्षर का एक पत्र आजकल ही आया है। ये आभारी क्रांतिकारी महोदय लिखते हैं, हुतात्मा यतींद्र के लिए महात्मा गांधी को अन्य कुछ भी लिखने की इच्छा नहीं हुई। बस, इतना ही लिखने की इच्छा हुई कि मैं यतींद्र के लिए अधिक अच्छी बात बस यही कह सकता हूँ कि 'यतींद्र अपराधी नहीं है।' हुतात्मा यतींद्र के लिए महात्माजी ने जो उदार विधान किया है उस उपहार को स्वीकार करते समय महात्मा गांधी को भी यतींद्र की ओर से ऐसे ही दुशाले में लपेटकर प्रति उपहार देना उचित ही होने के कारण क्रांतिकारी पक्ष भी वही महान् प्रमाणपत्र गांधीजी को प्रत्यर्पित कर रहा है और कह रहा है कि 'गांधी के विषय में अधिक-से-अधिक अच्छी बात अभी मैं बस इतनी ही कह सकता हूँ कि वे अपराधी नहीं हैं।'

गांधीजी यदि यतींद्र को हुतात्मा नहीं समझते, तो इस तरह की भावना रखने का उन्हें अधिकार है। किसीको भी यह कहने का अधिकार नहीं कि वे अपनी इस प्रामाणिक धारणा के विरोध में बोलें। बस, वे इतना ही करें कि एक सी स्थिति में वे अपने प्रामाणिक मत सार्वजनिक रूप में कहते समय प्रामाणिक भाषा में तथा प्रामाणिक बुद्धि से कहें, परंतु क्रांतिकारियों के संबंध में बोलते समय, लिखते समय उनकी भाषा एवं तर्क इतने ढुलमुल होते हैं कि उन्हें निस्संदेह अप्रामाणिक कहा जा सकता है। जिस व्यक्ति से मात्र स्वदेशार्थ अपने प्राणों की आहुति देनेवाले गोपीनाथ शाह के उद्देश्य की प्रशंसा नहीं की गई अथवा उसकी फाँसी के समय उसे बचाने के लिए एक अक्षर भी उच्चारण नहीं किया गया, वह व्यक्ति श्रद्धानंद के हत्यारे को झट से 'भाई' इसलिए कहता है कि उसकी फाँसी रद्द हो, आंदोलन छेड़ने के लिए भाषण झाड़ता है अथवा लेख लिखता है, तब उसका व्यवहार पक्षपातपूर्ण और इसलिए अप्रामाणिक न कहा जाए तो क्या कहा जाए? संपूर्ण युवा भारत 'हुतात्मा' कहकर यतींद्र का सम्मान करता है, उसी समय तरुण भारत के नाम पर उस यतींद्र का केवल 'यतीन्द्र' इस तरह एकवचनी, तुच्छ उल्लेख किया जाता है। इतनी विपरीतता तो गांधीजी अवश्य टालें। सत्य ही गांधीजी का 'तरुण भारत'-Young India युवा भारत नहीं, वृद्ध भारत का साठ वर्ष पुराना एक अंक है।

युवा भारत गोपीनाथ शाह को देशवीर के रूप में सम्मानित कर रहा है। युवा भारत ने पिछले महीने में कलकत्ता में डॉ. भूपेंद्रनाथ दत्त की अध्यक्षता में एक सभा आयोजित कर पिछले वर्ष दक्षिणेश्वर बम अभियोग में दंड प्राप्त अनंत हरि और प्रमोद रंजन इन दोनों देशवीरों की पुण्यतिथि प्रकट रूप में ऑल्बर्ट हॉल में संपन्न की। हमारी समझ में नहीं आता, जिस युवा भारत का सिर इस प्रकार भड़क उठा है, उसके नाम का उस अविकारी अचल महात्माजी के मुखपत्र को कलंक क्यों लगे। चाहे बुरा कहिए या भला, परंतु तरुण भारत का समाचार भयंकर चिंताजनक एवं क्रोध भड़कानेवाला है। यह समाचार महात्माजी के समाचारपत्र में किस तरह मिलेगा-और उसमें प्रकाशित भी कैसे होगा? ऐसी अवस्था में यही उचित है कि वे अपने इस मुख पत्र का 'तरुण भारत' नाम बदलकर 'वृद्ध भारत' रखें, ताकि नाम संभववश विपरीत पत्र लेकर लोग धोखा नहीं खाएँगे। वह 'यंग इंडिया' नहीं तो 'ओल्ड इंडिया' का एक 'Back Number' है। खूसट भारत का साठ वर्षीय पुराना अंक।

युवा हिंदुस्थान! आज बीस वर्ष पूर्व ही हिंदुस्थान का ध्येय घोषित करनेवाला उस स्वाधीनता के लिए-भला या बुरा-यह प्रश्न स्वतंत्र है, परंतु उन्हें जो उचित प्रतीत हो, उन मार्गों से अपना तन-मन-धन-प्राण तक समर्पित करता हुआ, फाँसी पर लटकता, अंदमान में सड़ता, खंड-खंड पर भयंकर संकटों को सहता, शत्रु का पीछा करते-करते बीहड़ वनों, जंगलों में खूखार जानवरों का भक्ष्य बनता, परंतु मुख से 'स्वतंत्रता लक्ष्मी' की जय-जयकार गरजता हुआ अग्नि समान दहकता युवा हिंदुस्थान और यह-स्वाधीनता के ध्येय का विरोधक, उपनिवेशीय स्वराज्य ही नहीं परंतु ऊपर चाहे कोई भी सवार हो, पर मुझे लगाम का कष्ट न हो, इस तरह अपनी चमड़ी बचाता-सवारी के घोड़े के समान मात्र सुराज्य से ही संतुष्ट होनेवाले आपके इस घास-फूस भक्षी खूसट हिंदुस्थान को भला युवा कैसे कहा जाए? आपका वह Young India-'तरुण भारत' पहले कभी युवा होगा, पर अब वह साठ ही नहीं, सौ वर्षों से अधिक का है। अब वह हो गया है उस खूसट हिंदुस्थान का सौ वर्ष पुराना एक अंक।

अतः अब महात्मा गांधी जैसे सच्चे इनसान को यदि अप्रामाणिक स्थितियाँ अच्छी नहीं लगतीं तो वे अपने यंग इंडिया का नाम ही बदल डालें और उसे 'Back Number' पुराना अंक अथवा 'वृद्ध भारत' नाम दें। गांधीजी जब अपने विचार ज्यों-के-त्यों प्रस्तुत करते हैं, तब उनमें से कुछ विचारों पर हँसी आते हुए भी दुःख नहीं होता, परंतु गांधीजी के अनेक राजनीतिक झमेलों के चलते सत्य के नाम पर बेधड़क असत्य की लुका-छिपी चलती है। अपना मन खरा है, यह अपने आपको भी सिद्ध करना कठिन होता है और मेरे विचार केवल अविचार थे, इस सत्य को खुले रूप में स्वीकार करने का साहस भी तो नहीं होता। तब प्रसंग निभाने के लिए जो मुँह में आया, बकते हैं-उनका यह व्यवहार हास्यास्पद था। एक उदाहरण के रूप में-उस दिन उन्होंने मेरठ के क्रांतिकारी अभियोग के अभियुक्तों से भेंट की, वह प्रसंग देखिए। मेरठ के क्रांतिकारियों का अभियोग अंतरराष्ट्रीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण! सभी के लिए चोटी के नेताओं ने उनके बचाव के लिए निधि एकत्र की। साधारण चोरी-डकैती के व्यक्तिगत अभियोग में भी न्याय का उचित लाभ मिले, इसलिए सरकारी खर्चे से भी वकील दिया जाता है। अतः इतने बड़े राष्ट्रीय अभियोग के अंतर्गत इतने देशप्रेमी, देशसेवकों के समर्थनार्थ सार्वजनिक निधि खड़ा करना अनुचित है-इस तरह का विधान प्रत्यक्ष उनकी विपक्षीय-इंग्लिश सरकार भी नहीं कर सकी; परंतु गांधीजी ने मेरठ अभियोग के लिए निधि एकत्र करने में कोई सहयोग तो नहीं ही दिया उल्टे अपना यह अभिप्राय व्यक्त किया कि इस कार्य को रोका जाए। आगे चलकर इस सनकी राय को ताक पर रखकर लोगों ने निधि जमा की। तब अपने मन के चोर को ही यह बात कचोटने पर कहिए अथवा इससे अधिक न्यूनतापूर्ण किसी उद्देश्यवश महात्माजी मेरठ जाकर उन बंदियों से मिले। जब उनसे निधि का विरोध करने का कारण पूछा गया, तब बौखलाकर क्या कहा, जानना चाहते हैं आप?

गांधीजी ने कहा, 'मेरठ के बंदियों पर चल रहे अभियोग के लिए सार्वजनिक निधि जमा करने का जो विरोध किया, उसकी वजह यह थी कि मेरठ अभियोग चलाने के लिए कोई बड़ा वकील स्वयंस्फूर्त ढंग से आगे बढ़े।' क्या यह तिकड़मबाजा नहीं थी? इस समय असमय के उनके वक्तव्यों पर अंधविश्वास रखकर उसम स्थित झक्कापन के ही विचारों को अगम्य रहस्य समझनेवाले बछिया के ताऊ को छोड़कर अन्य कोई भी विवेकशील व्यक्ति इस घपलेबाजी से ऊब ही जाएगा।

मेरठ अभियोग के देशसेवकों को निःशुल्क वकील दिलवाने का यदि गांधीजी का उद्देश्य था तो उसके लिए वे किसी से अंतस्थ विनती करते अथवा सार्वजनिक रूप में अपनी इच्छा प्रकट करते। अच्छा वकील मुफ्त में मिलने का समय कब का निकल चुका। उसके बाद भी निधि में दान क्यों नहीं दिया? कोई बड़ा वकील आगे बढ़कर इतना बड़ा अभियोग निःशुल्क चलाएगा, यह आशा करने योग्य हिंदुस्थान की परिस्थिति के संबंध में गांधीजी इसी समय इतने अनभिज्ञ कैसे रहे? खादी निधि के लिए मानपत्रों को नीलाम कर-करके राशि इकट्ठा करते समय वे प्रतीक्षा क्यों नहीं करते कि कोई एक ही सौदागर लाखों रुपयों की रकम एक ही समय दे देगा। उस समय अमुक जिले में अमुक हजार मिलने ही चाहिए, इस तरह अपने चेलों को सख्त आग्रह करने में न हिचकिचाते हुए ये खद्दर भिखारी केवल बेचारे मेरठ निधि के लिए अपनी टाँग अड़ाते हैं कि इस तरह भीख माँगने से तो अच्छा है, कोई वकील स्वयंस्फूर्त रूप से आगे बढ़े। जर्मनों को मारने के लिए अंग्रेजों की पलटन में शूर लोग स्वयंस्फूर्त रूप से जोतने की इन सज्जन ने प्रतीक्षा क्यों नहीं की? अंग्रेजों के रिक्रूट एजेंट का काम अपने घर की रोटियाँ तोड़ते हुए इन्होंने इतने अथक रूप से किया कि अंत में इन्हें ज्वर चढ़ गया। ऐसा क्यों किया? इसलिए न कि अंग्रेजों की ओर से लड़ना था और मेरठवासियों पर अंग्रेजों के विरोध में लड़ने का आरोप है? फिर हमारा कहना है, आप यह उजागर क्यों नहीं करते? कोई बात नहीं, परंतु अपना अंत:स्थ हेतु छिपाने के लिए निर्बुद्ध बुद्धिवाद करने का आपको जो चस्का लग गया है, मुख्यत: वही धिक्कार करने योग्य है।

हुतात्मा यतींद्र एक सशस्त्र क्रांतिकारी था। ऐसे अग्निभक्षक भगत, दत्त, शाह, यतीन्द्र आदि बागियों का जब संपूर्ण राष्ट्र 'देशभक्त', 'देशवीर' कहकर सम्मान करता है, तब मेरे उन गरीब बेचारे घासभक्षी अर्थहीन अहिंसापंथीय लोगों का विश्वास उड़ने लगता है और उस अनुपात से मेरा व्यक्तिगत क्यों न हो (क्योंकि व्यक्तिगत प्रश्न स्वतंत्र है।) तथापि पांथिक महात्मा का महत्त्व कम होता है। अतः मैं यतींद्र को हुतात्मा नहीं कहता-इस तरह गांधीजी साफ-साफ बता देंगे तो इससे अधिक ईमानदारी होगी। उसी तरह मेरठ के वे लोग भी सशस्त्र क्रांति के आरोप में फँसे हुए, उनके लिए राष्ट्र यदि निधि खड़ा करे तो ऐसा होगा जैसे राष्ट्र उनका सम्मान कर रहा है-क्योंकि एक वकील मुफ्त में मिलने से भी उसमें राष्ट्रीय स्वरूप नहीं आ सकता। अत: राष्ट्रीय निधि खड़ा करने से ही इस अभियोग का राष्ट्रीय महत्त्व अत्यंत स्पष्ट होता है। इसलिए ही यह मेरठ निधि जान-बूझकर खड़ी की जा रही थी; परंतु राष्ट्र में इन क्रांतिकारियों का इस प्रकार सम्मान होते देखकर मेरा पारा चढ़ता है। (बात करते-करते गांधीजी का किस तरह झट से पारा चढ़ता है इसका अनुभव उन अनेक सज्जनों के किया है जिन्होंने उनका विरोध किया था।) ऐसे हुतात्माओं का धिक्कार ही है! ऐसे क्रांतिकारियों की सहायता करनेवाला राष्ट्रीय निधि अहिंसावादियों का पीछा करनेवाला राष्ट्रीय निंदा ही है-यह मुझे भलीभाँति ज्ञात होने के कारण मैं यह बिलकुल सहन नहीं कर सकता कि कोई इन क्रांतिकारियों का सम्मान करे। और इसलिए मैंने मेरठ अभियोग की निधि का विरोध किया। इस तरह महात्माजी साफ-साफ कह देते तो उन्हें झूठ-मूठ के बहाने बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती और इसके आगे तो वे इस तरह अप्रामाणिक तथा उनके अतिरिक्त अन्य किसीको भी धोखे में न रखनेवाले तर्क करना छोड़ दें। जिससे कि उनके मत के कितने ही विरोधी क्यों न हों, अन्य लोगों को उसका दुःख नहीं होगा। और इन सभी सुधारों का पांथिक आत्मशुद्धि के आरंभस्वरूप उनके उस समाचारपत्र का 'Young India' जैसा भ्रामक नाम बदलकर कोई दूसरा नाम रखें-जैसे 'Back Number!' क्योंकि उस साठ वर्षीय तरुण भारत की पुरानी आकांक्षाओं तथा उस निर्जीव नवजीवन से जीवंत भारत की युवा पीढ़ी का रत्ती भर भी वैचारिक साम्य अथवा आचार सादृश्य नहीं रहा है। तरुण भारत महात्मा गांधी की चंचल, उथली तथा दुर्बल राजनीति को तुच्छ समझकर उनसे एक शताब्दी आगे निकल चुका है, जिससे वे सिर्फ 'यतीन्द्र' कहते हैं, उसका 'हुतात्मा' के रूप में सम्मान हो रहा है। सच है-यह बहुत बुरी बात है, परंतु यही वास्तविकता है। आपको युवा भारत में कोई नहीं पूछता। उनकी प्रचलित भाषा में वे आपके ताजे अंक को Back Number कहते हैं, Old Dying India कहते हैं, न कि Young India.

१६ नवंबर, १९२९

स्वतंत्रता का विरोध

इसमें कोई संदेह नहीं कि मद्रास की राष्ट्रीय सभा का अधिवेशन बहुत सफल हुआ, परंतु महात्माजी कहते हैं, 'राष्ट्रीय सभा का यह अधिवेशन बिलकुल एक लड़कपन था। मालवीय, बेसेंट आदि सत्तर-अस्सी वर्षीय बच्चे जहाँ चर्चा में प्रमुखतः भाग ले रहे थे, उस अधिवेशन की चर्चाएँ बचकानी तो होंगी ही। अच्छा हुआ, इनमें लाला लाजपतराय नहीं थे अन्यथा पंजाब का यह बच्चा पूरी सभा में लड़कपन का ही प्रदर्शन करता।'

मोहम्मद अली, शौकत अली, श्रीनिवास आयंगार, अंसारी आदि मद्रास सभा के नेतागण ही गांधीजी के कलकत्ता तथा अहमदाबाद तक 'लड़कपन' की राष्ट्रीय सभा के साथी थे। इतना ही नहीं, अध्यक्ष भी होते थे। दिसंबर के पहले सप्ताह में गांधीजी ने कहा था, 'मेरा राजनीतिक अभिमत आयंगार के स्वाधीन है।' और उसके उपरांत वह अंसारीजी के अभिमत में समाविष्ट हो रहा है, परंतु ये सारे सज्जन जो पिछले सप्ताह तक महान् थे, क्या चार दिनों में वाहियात एवं दायित्वशून्य हो गए? कारण? उन्होंने 'संपूर्ण स्वाधीनता ही भारत का ध्येय' है यह प्रस्ताव पारित किया।

संपूर्ण स्वतंत्रता के प्रस्ताव से सरकार बहुत चिढ़ती है अर्थात् उनके गांधीजी का भी विशेषत: उसी प्रस्ताव से चिढ़ना उनके परोपकारी शांत स्वभाव को ही शोभा देता है। वे कहते हैं कि इस तरह की बचकानी बातें, जो अपनी शक्ति से परे हैं, कहकर हम अपनी ही हँसी उड़ाते थे। गांधीजी का यह आक्षेप सोलह आने सत्य है। क्योंकि उन्होंने जो साम्राज्य के अंतर्गत स्वराज्य का ध्येय सामने रखा था, वह कितना सहज था, जैसे झुके हुए बबूल का फूल लप से तोड़ ले। अनत्याचारी अहिंसा के सातवर्षीय कालखंड में गांधी घपले के पश्चात् भी साइमन कमीशन पर एक भी सदस्य की नियुक्ति नहीं की गई-इस एक ही बात से यह स्पष्ट होगा कि किस तरह औपनिवेशिक स्वराज्य बिलकुल हाथ में आया था।

अच्छा, माना कि ध्येय तथा कार्यक्रम में लड़कपन का प्रदर्शन हो गया सो हो गया, परंतु कम-से-कम अपनी शक्ति की सीमा में मद्रास की राष्ट्र सभा का कार्यक्रम कब सफल होगा-इसकी अवधि तो स्पष्ट करते, पर नहीं। हमारे महात्माजी ने क्या किया-सभी लोग, कोर्ट-कचहरी-नौकरियों को लात मारकर सूतकताई करें-यह एक साँस में कहने योग्य सुलभ कार्यक्रम और एक वर्ष में स्वराज्य जैसा फलश्रुति की सुस्पष्ट अवधि एक अंगुली पर गिनने योग्य। इससे भी आगे बढ़कर निर्णायक हिसाब के साथ उन्होंने घोषित किया कि चरखे के चक्र का एक घेरा घूमन से स्वराज्य एक दिन निकट आता है, इस प्रकार एक सूत का सुलभ कार्यक्रम और इस तरह गणितीय निश्चिति की अवधि निश्चित करनी चाहिए। फिर जो यश गांधीजी को प्राप्त हुआ, उसी का लाभ होकर स्वराज्य प्राप्ति होती है, जैसे उन्हें ही गई थी।

खैर, जो हुआ सो हुआ। आशा है, वे लोग सचेत होंगे जिन्होंने मद्रास की राष्ट्रीय सभा के वे बचकाने, दायित्वशून्य प्रस्ताव किए थे जो विवाद खड़े कर सकते थे। गांधीजी का पारा चढ़ गया है और उनके मतों का अनादर करना असंभव है। गांधीजी आगबबूला हो गए, क्योंकि वे सत्गुणों की खान हैं। उनके विचारों का अनादर करना उचित नहीं। क्योंकि 'Himalayan Mistakes' की पहाड़ी गलतियों की सतत धारा के वे साक्षात् गोमुख हैं!!

स्वाधीनता का 'Absolute Political Independence' का ध्येय क्यों नहीं होना चाहिए-इस विषय में गांधीजी ने एक महत्त्वपूर्ण कारण प्रस्तुत किया है कि 'Independence' इस अंग्रेजी शब्द के लिए कोई स्वदेशी प्रतिशब्द नहीं है। भई, इसे कहते हैं भाषा विज्ञान। गीता तो केवल एक रूपक है, उसमें निरक्षेप अहिंसा का पाठ ही पढ़ाया जाता है और महाभारत का युद्ध कभी हुआ ही नहीं-गांधीजी के इस ऐतिहासिक संशोधन को भी इस खोज ने पछाड़ दिया। सच है, जिस तरह के वे प्रचंड इतिहास शास्त्रज्ञ हैं, उसी तरह भाषाशास्त्रज्ञ भी हैं। महाराष्ट्र के किसी स्कूल का कोई छात्र नहीं चाहिए। इसका जो लेखक गंभीरता से प्रतिपादन करते हैं वही Independence के लिए स्वाधीनता यह प्रतिशब्द है। उसे महात्माजी को पढ़ाने की कृपा कोई करेगा क्या?

और माना कि Independence शब्द के लिए स्वदेशी शब्द नहीं है, तो क्या बस इसीलिए स्वदेश स्वतंत्र नहीं होना चाहिए?

पार्लियामेंट के लिए स्वदेशी शब्द नहीं था? फिर पार्लियामेंट प्रणाली गांधीजी को कैसे रास आ गई? गांधीजी स्वयं शेखी बघारते हैं कि 'सत्याग्रह शब्द का जनक मैं हूँ।' अर्थात् उनके अनुसार सत्याग्रह के लिए कोई स्वदेशी शब्द नहीं था, तो फिर सत्याग्रह की धारणा उन्होंने छोड़ क्यों नहीं दी? परंतु एक वाक्य का दूसरे वाक्य से, एक आचरण का दूसरे आचरण से, आज के वचन का कल के वचन से सुसंगत संबंध जुड़ जाए तो भला उसमें गांधीजी की विशेषता क्या रही? Independence के लिए स्वदेशी प्रतिशब्द नहीं। अतः स्वतंत्रता का ध्येय रखनेवाला लेखक मद्रास कांग्रेस को लड़कपन का खेल कहता है, वह सत्य ही उसके लिए भूषणास्पद है।

Independence के लिए स्वदेशी प्रतिशब्द नहीं, इसलिए कहते हैं, अंग्रेजों के साम्राज्य में रहने का ध्येय ही ठीक है। एक संपूर्ण राज्य दास्य के नर्क में सड़ने दो। क्यों? इसलिए कि भाषा में एक शब्द की कमी है। अजी, यदि Independence के लिए स्वदेशी प्रतिशब्द नहीं है तो ढूँढ़ निकालेंगे, परंतु यह भारत एक संपूर्ण प्रतिसृष्टि रचाएगा। एक प्रति-महाभारत लड़ाएगा, परंतु स्वतंत्रता प्राप्त करके ही रहेगा। कहते हैं, Independence के लिए प्रतिशब्द इस लोक में अस्तित्व में नहीं है। गांधीजी के अनुसार लोग स्वतंत्रता का अर्थ नहीं समझते, परंतु ये लोग, कौन से लोग हैं भाई? साबरमती के आश्रमवासी? क्योंकि साबरमती के बाहर उधर गोदावरी के तट पर मंदिर-मंदिर से, हाट-बाजार, घाटियों से, घाट-घाट से 'स्वतंत्रता की ध्वनि इतनी बुलंदी के साथ निकल पड़ी है कि उसकी गूँज सीधी टेम्स नदी के तट से टकरा रही है। मुठा (महाराष्ट्र स्थित नदियाँ) हुगली के तथा रावी सतलुज के किनारे-किनारे पर इस सदी के बिलकुल बीस वर्षों के अंदर 'स्वाधीनता' शब्द इतने सुर्ख, रक्तरंजित अक्षरों में लिखा गया है कि कोई जन्मांध भी उसे पढ़ सके। जिन पर यह शब्द उभर रहा है ऐसे फाँसी के स्तंभ और बंदीगृहों की दीवारें किनारे किनारे पर खड़ी की गई हैं। अंदमान के प्रत्येक सुरंग से यह शब्द गूँज उठा है। यह प्राचीन कहानियाँ नहीं, पिछले पच्चीस वर्षों की-नहीं पच्चीस महीनों में-ना ना, पच्चीस दिनों में घटित हुतात्माओं के ताजे खून समान ताजा घटनाओं का वर्णन हम कर रहे हैं। यह सत्य है या असत्य, यह देखना हो तो काकोरी के क्रांतिकारियों के फाँसी के स्तंभों से पूछिए जो अभी तक गीले हैं। महात्माजी, वे आपके ब्रिटिश साम्राज्य के स्वराज्य के लिए मृगमरीचिका के जल के लिए नहीं मरे। वह अर्थ का बोध उन्हें नहीं हुआ। स्वाधीनता के लिए उन्होंने मृत्यु को गले लगाया। आपके गत सात वर्षों के गांधी घपले में उन्हें 'स्वाधीनता' शब्द के अर्थ का विस्मरण नहीं हुआ।

अजी, इस जय-जयकार में पिछले बीस वर्षों में हजारों युवकों ने अपने सर काटकर, अपनी घर-गृहस्थी जलाकर भारतमाता के चरणों पर बलिदान किया। वह खादी की जय-जयकार नहीं थी, 'स्वतंत्रता लक्ष्मी की' ही जय-जयकार थी।

यदि हिंदुस्थान में 'स्वाधीनता' शब्द का अर्थ किसीको पता नहीं था तो उन लोगों को नहीं अपितु राष्ट्रीय सभा को नहीं था। हजारों लोगों के लहू की बूँद-बूँद में वह शब्द गूँज उठा, लाखों लोग उस शब्द की जय-जयकार सुनते ही प्रकट रूप में भयभीत होते, परंतु मन-ही-मन उसका आदर ही करते; परंतु निजी भय की ही लाज छिपाने के लिए 'वह ध्येय ही गलत है' कहते हुए उसका प्रकट अनादर करते हुए अहंकारी भीरुता का इतना निर्लज्ज प्रदर्शन लोगों ने कभी नहीं किया, जितना राष्ट्रीय सभा ने किया। महायुद्ध के दिनों में ही अनपढ़ सिपाहियों की कई पलटनों को 'स्वाधीनता शब्द' का तुरंत बोध हुआ, परंतु राष्ट्रीय सभा उसके संबंध में अनभिज्ञ रही।

स्वाधीनता शब्द के अर्थ से यदि कोई अनभिज्ञ रहा हो तो वह राष्ट्रीय सभा थी, न कि जनता। और राष्ट्रीय सभा में भी यदि कोई इसके अर्थ से सर्वथा अनभिज्ञ है तो वह गांधीजी, आप हैं, आप!

'God Save The King' ब्रिटिश साम्राज्य का यह समर-गीत गाकर अपने आप को गौरवशाली समझनेवाले आप ही हैं। जूलू युद्ध के संबंध में आप ही अपने आत्मकथ्य में लिखते हैं-'जुलू लोगों ने भारतीय लोगों की जरा भी हानि नहीं की थी। उन लोगों पर विद्रोह का आरोप भी बड़ी मुश्किल से थोपा गया था। उन लोगों का कत्ल बड़ी नृशंसापूर्वक किया जा रहा था, परंतु जैसे ही मैंने सुना, उन लोगों के विरुद्ध अंग्रेजों ने युद्ध छेड़ा है और उस अभियान के लिए स्वयंसेवकों की माँग की है, मुझे स्वयंसेवक होना और अंग्रेजों के इस युद्ध में भाग लेना आवश्यक प्रतीत हुआ, क्योंकि मेरी धारणा थी-अंग्रेजी साम्राज्य विश्व पर उपकार करनेवाला साम्राज्य है। मेरी मन:पूर्वक इच्छा थी कि इस साम्राज्य का विनाश न हो।

और आज भी आपकी यही इच्छा है। हो सकता है, आपको इसका बोध नहीं हुआ हो, परंतु अंग्रेजों को हुआ है। आपको छह वर्षों का दंड देकर केवल दो ही वर्षों में यों ही बरी नहीं किया। और लोकमान्य तिलक को छह वर्षों से एक दिन अधिक ही रोका गया होगा, पर एकाध दिन की भी छूट नहीं मिली। सरकार आपको हिंदुस्थान भर में उन्मुक्त भ्रमण करने के लिए यूँ ही नहीं खुला छोड़ती। रेल को विशेष आदेश दिए जाते हैं ताकि आपकी यात्रा सुखद हो। सरकारी आदेश द्वारा आपके लिए स्वतंत्र डिब्बों का आरक्षण किया जाता है और तिलक को अपनी जेब से किराया भरकर आरक्षित किया डिब्बा भी समय पर नहीं मिलता और उनका फोटो घर में रखने पर पुलिस पीछे पड़ती है और आप हैं कि राजा-महाराजाओं का आतिथ्य स्वीकारते हुए चार-चार महीने मजे में रहते हैं फिर भी सरकार उन देशी नरेशों को कभी नहीं टोकती। वही तिलक अथवा स्वतंत्रता लक्ष्मी की जय-जयकार करनेवाला उस राजमहल में चार मिनट भी रहता तो उस रियासत के महाराज को तथा नरेशों को वाइसराय अपनी राजगद्दी से नीचे उतारता।

बड़ी वीरश्री मुद्रा में गांधीजी आगे लिखते हैं, 'मुझे स्वाधीनता के अर्थ का बोध नहीं होता।' यदि यह सत्य है तो मतिमंदत्व का अन्य कौन सा लक्षण हो सकता है भला? 'मुझे स्वतंत्रता की Independence की लालसा नहीं, परंतु मुझे Freedom की दास्य मुक्ति की अभिलाषा है। भई, उन्हें मौजी बंधन की लालसा नहीं, उपनयन की है। शादी की नहीं, विवाह की है। वे वृत्तपत्रों में, अखबारों में नहीं लिखते, समाचारपत्रों में लिखते हैं।

'मैं अंग्रेजों के बोझ से मुक्ति चाहता हूँ। इसके लिए मैं कुछ भी मूल्य चुकाऊँगा।' क्या सशस्त्र क्रांति का भी? ना बाबा! शांतम् पापम् शांतम् पापम्!

आगे चलकर वे लिखते हैं, 'दास्यमुक्ति से अच्छा है अशांति तथा अव्यवस्था फैले, क्योंकि ब्रिटिशों की शांति मरघट की शांति है। एक संपूर्ण राष्ट्र के इस जीवित मरण से अन्य किसी भी अवस्था में रहना बेहतर है। इस सुंदर भूमि का इस शैतानी प्रशासन ने नैतिक तथा भौतिक सत्यानाश किया है।'

बहुत खूब। वीरश्री का यह अभिनय साबरमती के अनेक नौसिखियों को अनूठा प्रतीत होता होगा, परंतु हमें इसमें कोई नवीनता प्रतीत नहीं होती। जब आज के Independence के अर्थ की तरह इन वाक्यों का भी बोध आपको नहीं हो रहा हो तो आपको इस बात का विस्मरण भी नहीं हुआ होगा कि ये वाक्य भी हम युवकों ने ही आपको और आपकी पीढ़ी के अनेक बूढ़ों को सिखाए हैं। यदि आपको विस्मरण हुआ हो तो आपके ही हाथ के प्रमाणपत्र के साथ यह सिद्ध करेंगे। स्वतंत्रतावादियों को ये पाठ आपके द्वारा पढ़ने की आवश्यकता नहीं है, आपको ही अभी पूरी तरह से उन्हें सीखना है। इन वाक्यों में से प्रत्येक वाक्य पच्चीस वर्षों से हम युवक जन बलपूर्वक आपके कानों में उड़ेलते आए हैं।

यदि यही आपकी अपने Freedom की परिभाषा है, तो फिर Independence की भी यही परिभाषा है। स्वराज्य और स्वतंत्रता एक ही है।

जो स्वतंत्र नहीं, वह स्वराज्य हो ही नहीं सकता। जो स्वराज्य नहीं, वह स्वतंत्र नहीं हो सकता।

स्वाधीनता का प्रस्ताव लड़कपन क्यों? क्योंकि यह ध्येय आज के लिए असंभव है और गांधीजी अपने ध्येय के बारे में कहते हैं, 'विश्व के सभी दुर्बल राष्ट्रों को शक्तिशाली पीड़कों के चंगुल से (जिनमें इंग्लैंड प्रमुख है।) छुड़ाना ही मेरा जीवित ध्येय है।' भई, इसे कहते हैं तर्कसंगति। स्वदेश स्वाधीनता का ध्येय आज के लिए दुस्साध्य है और इसलिए उसे लड़कपन समझनेवाले बृहस्पति को संपूर्ण विश्व के दुर्बलों को मुक्ति दिलाने का ध्येय सहज सुसाध्य प्रतीत होता है। यदि नहीं हो तो सहस्रों गुना अधिक दुस्साध्य होने के कारण सहस्र गुना अधिक लड़कपन का नहीं है क्या?

स्वाधीनता का ध्येय मात्र एक कथनी है। वह आपत्ति उठाते हैं, पहले कृति करो, फिर बोलो। यदि वीरश्री की प्रतिज्ञा के अनुरूप वीरवरों की कृति सत्य ही इस हिंदुस्थान में किसी एक पक्ष द्वारा ही हुई है। स्वतंत्रता लक्ष्मी की जय-जयकार करनेवालों ने ही उनके शरीर एवं प्राणों की राख करते हुए हिंदुस्थान का युद्ध सन् १८५७ से १९२७ ई. तक खेला है। वे चौरीचौरा की गुप्त राहों से दुम दबाकर भाग नहीं गए।

और उतना ही ध्येय रखो जितनी कृति कर सको-कहनेवाले महात्माओं ने, जिन्होंने संपूर्ण विश्व के सामने दुर्बल राष्ट्रों की मुक्ति का ध्येय रखा है-उसके अनुरूप कौन सी कृति की है? उनके ही अनुसार पीड़क राष्ट्रों के प्रमुख इंग्लैंड के साम्राज्य की रक्षार्थ जर्मनों का कत्ल करने के लिए बेचारे भारतीय किसानों को मौत के मुख में ढकेल दिया। यही न?

वास्तव में देखा जाए तो जिन्हें यह भी ज्ञात नहीं कि तर्कशास्त्र किस चिड़िया का नाम है, ऐसे आचार्यों के मुँह लगना समय का अपव्यय करना ही है, परंतु कई बुद्धू भोले-भाले प्राणी उनके असंबद्ध, बेसिर-पैर के शब्दाडंबर को ही अगम्य बुद्धिमानी का लक्षण समझकर धोखा खाते हैं। इसीलिए तो स्वाधीनता के क्रोध से लाल-पीले होकर गांधीजी ने 'यंग इंडिया' में जो अनर्गल प्रलाप किया, उससे विवश होकर इतनी कलम घिसनी पड़ी।

जो जय-जयकार कारागृहों, स्पेशल ट्रिब्यूनलों, डिपोर्टेशन, काले पानी से, लाल पानी से, फाँसी के स्तंभों से, वैमानिक बम वर्षा से, जालियाँवाला कांड से नहीं रुकी, वह आज 'यंग इंडिया' की इस निर्जीव टीका-टिप्पणी से नहीं रुकेगी। जो विजय ध्वनि प्रथम एक मुट्ठी भर हुतात्माओं ने की, वह आज संपूर्ण भारत प्रकट रूप में कह रहा है। चाहे गांधीजी छटपटाएँ, नौकरशाही जल-भुनकर राख बने, संपूर्ण भारत गर्जना करता ही रहेगा-'स्वतंत्रता लक्ष्मी की जय!'

२६ जनवरी, १९२७

दे दान छूटे ग्रहण

मद्रास की राष्ट्रीय सभा ने इतने महत्त्वपूर्ण तथा दूरदर्शी प्रस्ताव रखे कि आज बहुत दिनों के पश्चात् महाराष्ट्र पक्ष राष्ट्रीय सभा को हार्दिक बधाई देने का आनंद उठाना पुनः संभव हो गया है।

'संपूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता ही मेरा राजनीतिक ध्येय है' इस तरह की शपथ बीस-पच्चीस वर्ष पूर्व अभिनव भारत ने ली थी। उस समय स्वतंत्रता का स्पष्ट तथा अदम्य उच्चारण ऐसी वीरगर्जना से किया जो गाँव-गाँव में गूँज उठा। उस समय वे 'मुट्ठी भर लोग सिरफिरे थे'। सिरफिरी बुद्धिमानी उन्हें देश भर हँसती तथा घृणा करती हुई फिर भी उनसे डरती हुई घूम रही थी। आज उन मुट्ठी भर सिरफिरों की शपथ संपूर्ण राष्ट्र की टेक हो चुकी है। घर-घर से, घाटियों से, जंगलों से, उन मुट्ठी भर लोगों ने जो संपूर्ण स्वतंत्रता (Absolute Political Independence) की शपथ ली। वही आज संपूर्ण राष्ट्रीय सभा ले रही है। अर्थात् उन मुट्ठी भर सिरफिरों के सिर सही थे।

अंग्रेजों के लिए जो-जो अनुकूल है, वही अवश्य करना और वह भी इस भावना से कि अंग्रेजों के विरुद्ध आयोजित यही बुद्धिमानी का एक अद्भुत साधन है-इस प्रकार इतराते हुए डंके के साथ, इस प्रकार बुद्धिभ्रम की चपेट में राष्ट्रीय सभा के आते ही क्रांतिकारी उसके जानी दुश्मन बन जाते। क्रांतिकारी ही नहीं, हाथ में लाठी पकड़ना भी जहाँ पाप तथा हिंसा समझा जाता है वहाँ पिस्तौलधारी तो शैतान से भी शैतान समझे जाएँगे ही। यह तो ज्ञात ही है कि देशबंधु गोपीनाथ शाह का नामोच्चारण करते ही राष्ट्रीय सभा के कई प्रतिष्ठित भगोड़ों पर कितना बड़ा नैतिक आघात हो गया। उन गवर्नरों तथा गवर्नर जनरलों से जो मशीनगंस और बम की वर्षा करनेवाले हवाई जहाज रखते हैं, हाथ मिलाने में, केवल उनके संकेत से ही बंबई-शिमला का रास्ता पकड़ने से इस अहिंसा को भ्रष्टता का भय नहीं होता, परंतु उस गोपीनाथ के, जिसके पास एक जंग लगा पिस्तौल है, हाथ को ही क्यों, उसके उद्देश्य को भी स्पर्श करने में इन्हें पाप लगता हैं, क्योंकि...क्योंकि भारतीय संविधान के अंतर्गत १२१, १२१(अ) आदि धाराएँ हैं, और क्या? अंग्रेजों को क्रांतिकारियों का नाम भी लेना एक अपराध प्रतीत होता तो अहिंसा की ओट में रहनेवालों ने उसके नामोच्चारण को भी दस गुना अपराध समझना निश्चित किया। हाँ, पर अब्दुल रशीद, जो गोपीनाथ जैसा ही पिस्तौलधारी था, वह 'भाई अब्दुल!' क्योंकि उसने एक हिंदू संन्यासी की हत्या की। उसमें उन्हें मोपलों के समान ही बहादुरी दिखाई दी। परंतु गोपीनाथ? वह एक तुच्छ हिंदू, जिसने अंग्रेज को मार डाला! उसमें न बहादुरी', न 'हेतु की पवित्रता', न देशभक्ति, न ही धर्मपरायणता, वह है कूड़ा-करकट! बंधु अंग्रेज' परंतु इस प्रकार मूर्खतापूर्ण आत्मवंचना का मद्रास की सभा ने धिक्कार किया। उन्होंने ऐसी भाषा में, जो प्रामाणिक तथा राजनीतिक देशप्रेमी को शोभा देती है, काकोरी के क्रांतिकारी हुतात्माओं का कृतज्ञ स्मरण किया। उसी प्रकार चोरी के विरुद्ध, भारतीय संविधान की धारा के विरोध में सत्याग्रह करना जितना पाप उतना ही शस्त्रधारण के विरोध में ब्रिटिश निबंधों का भंग करनेवाला सत्याग्रह भी अनैतिक है-शस्त्र और सत्याग्रह दो शब्द साथ-साथ नहीं रह सकते आदि मठाज्ञाओं की परवाह न करते हुए सेनापति आवारी को, जो शस्त्रानुरोध करता था, 'सेनापति' संबोधित करते हुए मद्रास की राष्ट्रीय सभा ने उनकी यातनाओं के लिए उत्कट सहानुभूति का प्रदर्शन किया और इससे भी अधिक विशेष यह कि प्रत्येक सत्याग्रही नागपुर से कलकत्ता पैदल जाए और वाइसराय की कोठी तक यदि पुलिस ने जाने दिया तो जाकर चिल्लाए कि 'शस्त्र सँभालने दो' और फिर पकड़े जाकर जेल में बंद हो जाओ। इस प्रकार विक्षिप्त स्मृति के अंतर्गत किसी भी मंत्र का राष्ट्रीय सभा ने सेनापति आवारी के अनुयायी को उपहार नहीं दिया। श्री सकलातवाला के, जिन्होंने हिंदुस्थान की स्वाधीनता के लिए प्रयास किया, साहस का भी मद्रास राष्ट्रीय सभा ने अभिनंदन किया है।

इस प्रकार एक से बढ़कर एक बढ़िया प्रस्तावों को प्रचंड बहुमत से पारित करते हुए मद्रास की राष्ट्रीय सभा ने यह घोषित किया है कि भारतीय राजनीति नविवेकशील राहु के ग्रहण से मुक्त हो गई है। राष्ट्रीय वृत्ति का रुझान फिर से वीरता की ओर हो रहा है। उस मतिभ्रम की, जो मात्र धागे के बलबूते स्वराज्य प्राप्त करना चाहता था, सन् १९२० से १९२७ तक लगी हुई साढ़े साती समाप्त हो गई है। राष्ट्रीय सभा के साथ-साथ ही आयोजित प्रजा परिषद् (Republican Conference) 'हिंदुस्थान का ध्येय संपूर्ण स्वाधीनता ही' इतना ही केवल घोषित नहीं किया तो उस स्वाधीन हिंदुस्थान का संविधान प्रजास्वरूप का ही रहेगा, यह निश्चित किया। विशेषतः क्रांतिकारी देशवीर श्रीमान राजू जैसे 'विद्रोही' की देशभक्ति का भी अभिनंदन करते हुए यह स्पष्ट ध्वनित किया कि हिंदुस्थान की वीरवृत्ति को लगी हुई यह खोखली अहिंसा की दीमक मार डाली गई है, मद्रास में इकट्ठे किए हुए ताजे गरम खून के देशभक्तों ने, अंग्रेजों को वही करना जो नहीं करना चाहिए, जैसे उपक्रम के साथ गर्जना की- 'दे दान! छूटे गिरहान!'

भारतीय राष्ट्रीय सभा की प्रदर्शनी में 'यूनियन जैक' लहराता हुआ देखकर पूरे मद्रास में सभाओं और विरोध का आरंभ हुआ। अर्थात् इस अंग्रेजी ध्वज को 'स्वतंत्र भारत' के स्वतंत्र प्रदर्शनी से उतारकर उधर भारतीय ध्वज लहराया गया। एक अदने से कपड़े के टुकड़े से क्यों न हो, परंतु लोगों को 'यूनियन जैक' से झगड़ा करने की इच्छा हो गई। 'दे दान! छूटे गिरहान!' (ग्रहण)

इसी 'यूनियन जैक' की छाया तले अत्यंत ममत्व तथा अभिमान भरे स्वर में 'God Save The King' गाते हुए गांधीजी को देखा ही है। सैकड़ों लोग कहते, 'हमारा ब्रिटिश साम्राज्य' और उस ब्रिटिश राष्ट्रगीत पर कोई युवक नाक-भौंह सिकोड़ता तो कई नामवर नेता गरज उठता, 'अरे! अरे! ना विष्णुः पृथिवी पतिः।' मद्रास में उसी यूनियन जैक का इस तरह सम्मान हुआ-'दे दान! छूटे गिरहान!'

स्वाधीनता के प्रस्ताव पर बोलते-बोलते श्री आयंगार ने कहा, 'भाइयो, अंग्रेजों को साफ-साफ कहो, भारत आपको नहीं चाहता।' इसपर बीच में ही डॉ. पट्टाभाई सीतारामैया ने व्यंग्य किया, 'भई, कहना क्या? उन्हें मारकर नीचे गिराओ।' आयंगार ने शांति से मुसकराकर कहा, 'जब पट्टाभाई अंग्रेजों को मारकर नीचे गिराने निकलेंगे तो मैं भी उनका हाथ बँटाऊँगा।'

वस्तुतः ऐसी बातें हँसी-मजाक में उड़ा देना ठीक नहीं, परंतु 'धागे से स्वराज्य प्राप्ति होती है। चरखा धीरज बँधाता है-नहीं, उसकी सहायता से आध्यात्मिक पवित्रता संपादन की जाती है, परंतु कीचड़ उछालना हिंसा नहीं होती। दया से अंग्रेज द्रवित होते हैं। वे स्वयं ही साम्राज्य छोड़कर चले जाएँगे। अतः उनकी क्रूरता का पेट भरने के लिए तुम इतनी बड़ी संख्या में चुपचाप मरो कि उसे दया की उलटी हो जाए। सिर्फ मरते-मरते मरो। यही शूरता की चरम सीमा है, आदि प्रतिपादन करनेवाली उस साढ़े साती की उन्मुक्त हँसी से इस वर्ष की यह सूत में बँधी नपी-तुली हँसी कुछ अलग ही है, इसमें कोई संदेह नहीं।

यह देखते हुए कि यह हास्य कुछ अलग-थलग है, शौकत अली भी कुछ अलग ही बोलने लगे। उन्होंने कहा, 'मैं सन् १९२० ई. में भी स्वतंत्रतावादी ही था, परंतु महात्मा गांधी का लिहाज करते हुए कुछ अधिकार जोर नहीं दे रहा था, परंतु यदि महात्मा गांधी हमेशा ही शांति की ही माला जपते रहे तो मैं उनका साथ छोड़ दूँगा।'

इस वर्ष भी महात्माजी स्वतंत्रता के प्रस्ताव का विरोध कर रहे थे और अंत में भी करनेवाले थे, परंतु संपूर्ण राष्ट्रीय सभा नव प्रेरणा से ओतप्रोत थी, उसके कानों पर जूँ तक नहीं रेंग सकती थी, यह देखकर बीमारी के कारण वे विरोध करने के मंच पर नहीं आ सके।

ब्रह्मदेश को भारत से अलग न करें। इसलिए हमारे ब्रह्मी बंधुओं ने ही जो प्रस्ताव किया था उसे भी राष्ट्रीय सभा ने पारित किया और ब्रह्मदेश-भारत की एकजीव मित्रता की नींव द्रढ़ थी। बहिष्कार जैसे शब्द से विद्वेष की बू आती है या प्रीति की गंध, इस ऊहापोह में न पड़ते हुए अंग्रेजी सामान पर सभा ने कार किया।

पिछले सात-साढ़े सात वर्षों के अविवेकपूर्ण प्रभुत्व को इस प्रकार काफी पादाक्रांत करते हुए राष्ट्रीय सभा ने इस प्रकार अपनी मुक्ति की। ऐसा प्रतीत होने लगा, यह साढ़े साती समाप्त हो रही है। चरखा एक उचित कोने में जा बैठा। अहिंसा, दया, वनस्पति आहार, गाय का दूध पीना यह हिंसा है या बकरी का दूध पीना हिंसा है? आदि वाग्जाल झटककर राष्ट्रीय सभा के कार्यालय की सफाई की वेवेक के ग्रहण से भारतीय राजनीति को लगभग छुटकारा मिलने लगा।

राष्ट्रीय सभा ने ठीक-ठाक बात की, परंतु अब इस कथनी के अनुसार होनी चाहिए। खरी कसौटी यही है। वाचाशूरता के सभापर्वीय प्रतिज्ञाओं का अभिनय ठीक हुआ, परंतु अभी उद्योग-पर्वादिक क्रियाशूरता का पर्व आगे ही है।

१९ जनवरी, १९२९

अत्याचार शब्द का अर्थ

Resistance to aggression is not only justifiable but imperative : Non-resistance hurts both altruism and egoism.

-Herbert Spencer's Ethics

पिछले सात-आठ वर्षों में अर्थविहीन आडंबर का उपद्रव राजनीति में जिन पाँच-दस शब्दों से मचाकर लोगों की सम्यक् दृष्टि को पूर्णतया भ्रमित किया गया, उसमें इस अत्याचार अथवा Violence शब्द की प्रमुख गणना की जानी चाहिए। अभी भी इस शब्द के वास्तविक अर्थ की चर्चा किसीके भी न करने के कारण उसका दुरुपयोग हो रहा है। और उससे राष्ट्र की राजनीतिक मनोवृत्ति अंधी होकर दिन को रात और रात को दिन समझकर पग-पग पर लड़खड़ा रही है।

'अत्याचार' शब्द का उच्चारण करते ही उसके धात्वर्थ से यही प्रतीत होता है कि वह बुरे दूषणीय वर्तन का निदर्शक शब्द है। अनचाहा, हानिकारी अथवा अनुचित आचार अर्थात् अत्याचार, यह अर्थ उस शब्द के उच्चारण के साथ ही मन में उदित होता है। अर्थात् किसी कर्म के लिए 'अत्याचारी' विशेषण जोडते ही यही भावना उपजती है कि वह कृत्य अवश्य ही निंदनीय अथवा त्याज्य है। वही स्थिति Violence हिंसाचार की है। ऐसे अतिरेकी बलात्कारी आचरण को जिससे दूसरे को बिना किसी कारणवश दुःख तथा आघात पहुँचे, इस शब्द को जोड़ने से इस शब्द के उच्चारण के साथ ही किसी सत्प्रवृत्त व्यक्ति के मन में इस शब्द से संबंधित कृत्यों से तुरंत घृणा उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है। इन दोनों शब्दों में बल अथवा शक्ति का पीड़ादायक उपयोग ध्वनित होता है। अत्याचार कहें या Violance दोनों शब्द बल, शक्ति के प्रयोग को ध्वनित करते हैं, यह उनके ध्वनि का वास्तविक अर्थ और न्याय, लेकिन मर्यादित होता है, परंतु उस मर्यादा की बात पर गौर न करते हुए कुछ अतिरेकी लोगों ने शक्ति का उपयोग अथवा बल का प्रयोग इन शब्दों से अधिक व्यापक अर्थबोधक शब्दों के लिए अत्याचार अथवा Violance प्रतिशब्द की योजना, भारतीय राजनीति में अहिंसा का पाखंड घुसेड़ते समय आरंभ करने के कारण आज उन शब्दों ने संपूर्ण राजनीति का राष्ट्रविघातक मिथ्या ज्ञान दिन-दहाड़े फैलाया है।

Violence अथवा अत्याचार शब्द के अर्थ का मूल अधिष्ठान शक्ति अथवा बल होने से शक्ति अथवा बल का प्रयोग जिन-जिन कृतियों में मुख्यतः किया जाता है, उस कृति को इस अतिरेकी बुद्धि ने Violence शब्द अथवा अत्याचारी संबोधित करना आरंभ किया। अर्थात् अत्याचार अथवा Violence शब्द से मूलत: ही जुडी हुई निंदनीय एवं त्याज्य भावना इस संबोधन के साथ क्रमश: उन कृत्यों के विषय में जनमत में सहजतापूर्वक उत्पन्न होती गई। 'दुष्कर्म मत करो' इस वाक्य का उच्चारण करते ही जिस तरह कोई भी उसे झट से सम्मति दे देता है, क्योंकि 'बुरा' कहते ही वह निंदनीय अवश्य होगा। यह अर्थ का गठबंधन उस शब्द के साथ मूलत: ही जुड़ा हुआ होता है। उसी तरह हम अत्याचार न करें, हम अनत्याचारी रहें इस वाक्य का उच्चारण होते ही उसे सम्मति देना हमारा कर्तव्य ही है। इस तरह की भावना प्रत्येक के, विशेषतः साधारण समुदाय के मन में तुरंत उत्पन्न होती है। राष्ट्रीय सभा के अधिवेशन में हम Non-Violent ही रहेंगे। अर्थात् अत्याचार नहीं करेंगे, यह शपथ उसी शब्द की सहज ध्वनि के साथ प्रत्येक ने चुपचाप ग्रहण की। उसपर आपत्ति उठाने का अर्थ 'मैं अत्याचार करूँगा।' यह कहने जैसा ही होगा और अभी भी अत्याचार निंदनीय होने के कारण स्वाभाविक है, कोई भी इस तरह की बात कहने को तत्पर नहीं हुआ। 'मैं बुरा करूँगा' ऐसा कोई भी नहीं कहता, इस सत्प्रवात्ती की ओट में छिपकर उसी तरह मैं अत्याचार करूँगा, यह भी कोई सत्प्रवृत्त मनुष्य नहीं कहता, परंतु इस अहिंसा के पाखंड से जो-जो कर्म शक्ति तथा बल के प्रयोग से करने पड़ते हैं वे सब अत्याचार हैं, इस तरह शोर मचाना जब शुरू हुआ तब लोगों का भी अनजाने में ही बुद्धिभ्रंश हुआ। अत्याचार बल प्रयोग पर निर्भर करता है-इतने से प्रमाण के आधार पर जो-जो बल प्रयोग हो वह सभी अत्याचार ही होता है, इस प्रकार उलटी-पलटी तथा अतिव्याप्त धारणा, सर्वत्र फैली धारणा के परिणाम उसके द्वारा राजनीति में अहिंसा, अनत्याचार Non-Violence आदि शब्दों ने बड़ी धाँधली मचा दी। सदियों से जो-जो कर्म प्रशस्त इतना ही नहीं तो प्रशंसनीय समझकर संपूर्ण विश्व में सराहे जाते थे, वे कृत्य सद्गुणों की सूची से निकलकर अचानक दुर्गुण युक्त और निंदनीय समझे जाने लगे। शूरता, क्षात्रतेज, जुझारू वृत्ति, रणनिपुणता, शस्त्रनिपुणता, तेज वृत्ति, दुष्टशामक पराक्रम-ये सब बल प्रयोग पर निर्भर करते हैं, अत: उन्हें अत्याचार की परिभाषा में ठूँसा जाने लगा तथा उन्हें दुर्गुण समझकर धिक्कारा जाने लगा। जो-जो कर्म शक्ति प्रयोगात्मक होता है, वह सब अत्याचार। इस प्रकार जो अतिरेकी बुद्धि की परिभाषा को अंधेपन से राष्ट्र ने स्वीकार किया, उसीका यह स्वाभाविक परिणाम था। अंत में बात यहाँ तक बढ़ गई कि किसी पत्थर के पुतले का पाँव हथौड़ी से तोड़ना भी हिंसा समझी जाने लगी और हाथ में लाठी पकड़ना अत्याचारी प्रवण, और इसलिए अनत्याचार के लिए विसंगत कर्म सिद्ध हो गया। हथौड़ा मारना अथवा लाठी पकड़ने का अत्याचारी कृत्य जिससे संभव होता है, उस हाथ को ही प्रत्येक अनत्याचारी व्यक्ति को तोड़ना चाहिए-इस प्रकार का आदेश निकालना ही अब शेष रहा था।

मनुष्य की भाव-भावनाएँ शब्दार्थ से जुड़ी हुई होती हैं, अतः शब्दोच्चारण के साथ क्रमशः वह भावना बुद्धि को विचार करने के लिए कुछ समय मिलने से पहले ही तुरंत उसके मन में उभरकर उसकी कृति को घेर लेती है। कोई नया व्यक्ति प्रवेश करते ही यदि कोई हमारे कान में धीरे से फुसफुसाए 'पक्का पाजी है यह' तो तुरंत उसके कमीनेपन की भावना से जुड़ी हुई घृणा हमारे मन में उत्पन्न होकर उस व्यक्ति को जाँचने-परखने से पहले ही हमारा मन, थोड़ा सा भी क्यों न हो, कलुषित करती ही है। शब्दों के यथावत् प्रयोग द्वारा इस महत्त्व का प्रदर्शन करने के लिए वेदों तथा पुराणों में प्रमोदशील स्वर से अर्थ भेद होकर उस अनर्थ से देवताओं का कितना विनाश हुआ, इस प्रसंग की कथाएँ वर्णित हैं। पिछले सात-आठ वर्षों में अत्याचार शब्द तथा अर्थ के स्वरों में गलती होकर हमारे राष्ट्र की ठीक ऐसी ही अवस्था हुई थी। अत्याचार दुष्कर्म है, वह बल प्रयोगात्मक ही है अर्थात् जो बल प्रयोग कर्म होता है वह बुरा होता है, इस प्रकार हेत्वाभास की विचारधारा अनजाने में राष्ट्र का बुद्धिभ्रंश करने के कारण कर्माकर्म के निर्णय में बहुत घपलेबाजी हो गई, जो-जो बल प्रयोगात्मक कर्म अत्याचार समझा जाने लगा। कुल्हाड़ी के साथ घर में घुस जाने पर यह बल प्रयोगात्मक कर्म भी अत्याचार और अवसर देखकर, घात में रहकर उसे छुरा घोंपकर घायल करते हुए अपने निरपराध बाल-बच्चों की रक्षा करने का निजी कृत्य भी बल प्रयोगात्मक ही होने से वह भी अत्याचार ही है। रावण ने सीता का बलपूर्वक अपहरण किया। यह भी अत्याचार है और प्रभु रामचंद्र ने बल प्रयोग से उसके दसों सिर काट डाले, यह भी अत्याचार ही है। मुसलमानों ने कोहट में अपनी बहुसंख्या के बल पर हिंदुओं के सिर काटे, अग्निकांड में राक्षसी धमाचौकड़ी मचाई, यह भी अत्याचार! तथापि वहाँ के अल्पसंख्यक हिंदुओं ने आत्मरक्षार्थ बंदूकें दागकर मुसलमानों का शूरतापूर्वक सामना किया-यह भी अत्याचार ही है। बलवान विदेशी शत्रुओं ने इटली, अमेरिका, आयरलैंड को पादाक्रांत करते हुए उनकी स्वतंत्रता का बलपूर्वक अपहरण किया, वे भी अत्याचारी और उनपर शत्रुओं की बायोनेट (Bayonets) अपनी मातृभूमि की छाती में घुसती हुई देखकर जिन वीरों ने उन बायोनेट धारकों के मदांध हाथ अपने खंजरों से काट दिए, ऐसे गैरीबाल्डी, वॉशिंगटन, एमेट तथा डी वॅलरा भी अत्याचारी ही हैं। निद्रित बालक का गला उसके जेवरों के लालच में नाखून से फोड़नेवाला नृशंस हत्यारा भी अत्याचारी और वह न्यायाधीश भी अत्याचारी जिसने उस हत्यारे को फाँसी दी है। कृष्ण भी उतना ही पापी जितना कंस! बलवान भीम उतना ही पापी जितना दुःशासन, जो उसकी सुशील रानी को विवस्त्र करने की चेष्टा कर रहा था, क्योंकि दोनों के कर्म बल प्रयोगात्मक ही थे-और जो बल प्रयोगात्मक कृत्य हैं, वह अत्याचार! वही Violence। इस प्रकार कुछ भोले-भाले बृहस्पतियों ने अनत्याचार पर भाष्य किया हुआ था। साँप डस लेता है। इसलिए अत्याचारी और मनुष्य जान-बूझकर उसकी हत्या करता है, इसलिए मनुष्य साँप से भी अधिक अत्याचारी, अधिक पापी, अधिक निंद्य है। इस सीमा तक बात पहुँच गई। जो वीर पुरुष राष्ट्र के लिए सशस्त्र युद्ध में जूझते हुए मर गए, उन्हें पापी समझा जाने लगा। जगह-जगह पर प्रताप और शिवाजी की निंदा अत्याचारी के रूप में करते हुए ऐसे ढीठ बालक दिखाई देने लगे जिनकी कमर झुकी हुई हैं, नामर्द हाथ लटक रहे हैं और जिन्होंने खद्दर की टोपियाँ पहनी हैं। सारा विश्व का मशीनगंस की होड़ में व्यस्त होते हुए शस्त्र धारण करना अत्याचार ही है। आप लाठी भी न पकड़ें-इस तरह के निर्लज्ज उपदेशक महंत भी उन बेमुरौवत बालकों की बिना रीढ़ की पीठ ठोंकने लगे जिन्हें लाठी देखते ही मतली सी होने लगती है। राष्ट्र का वह क्षात्र नष्ट हुआ जिसका अभी अभी उदय हो रहा था। हमारे राष्ट्र शत्रु, जो इस क्षत्रिय तेज के उदय से भयभीत हुए थे, पुनः प्रबल होने लगे।

इस लज्जास्पद स्थिति से कुछ लोग घृणा करते थे, वे धीरे-धीरे उसका विरोध करने लगे; परंतु आश्चर्य है, अत्याचार की इस परिभाषा में वे स्वयं ही फँसने के कारण उनके लिए भी अपने निषेध का सयुक्तिक समर्थन करना असंभव हो गया। कई क्रांतिकारी तो अनत्याचार की इस मूर्खता के झमेले से झुँझलाते हुए कहने लगे, हम अत्याचार ही करेंगे, हम Violence ही करेंगे, परंतु इस तरह कोई झुँझलाकर हम बुरा ही करेंगे, हम अन्याय ही करेंगे-कहने लगा तो उसे अपने आपको भी उस वाक्य का ठीक तरह से समर्थन करना जिस तरह असंभव होता है, उसी तरह उनकी अवस्था हुई। पिछली राष्ट्रसभा में मद्रास में कई लोगों ने अध्यक्ष से भी कह दिया कि भले ही हम आज अनत्याचारी (Non-Violent) हैं, लेकिन हम इस बात का विश्वास नहीं दिला सकते कि कल भी हम ऐसे ही रहेंगे, परंतु इसका अर्थ पड़ने पर 'हम कल अत्याचारी बनेंगे, Violent होंगे' यही निकलता है और अत्याचारी शब्द का उच्चारण करते ही उसका मूलभूत निंदनीय अर्थ ही तुरंत ध्वनित होने के कारण उनके ये वाक्य उनके तथा अन्य लोगों के मन को भी 'हम अब अन्याय ही करेंगे, पाप ही करेंगे।' इस तरह खीज भरे होंगे, जो अपने आपको ही विचित्र एवं असमर्थनीय प्रतीत होते हैं। वह बात उत्तम होते हुए भी उसे व्यक्त करने के लिए इस विपरीत शब्द का प्रयोग करने से वह भी विपरीत ही प्रतीत होती है और जो बल प्रयोगात्मक कर्म का वे समर्थन करना चाहते हैं, वही उन समर्थन वाक्यों से निषेधार्ह सिद्ध होता है।

इस पूरे घपले का कारण यह है कि हम अत्याचार अथवा Violence शब्दों की गलत परिभाषा को आज भी सीने से लगाए हुए हैं। यह सच है कि अत्याचार बल प्रयोगात्मक कर्म है, परंतु इसलिए हर बल प्रयोगात्मक कर्म अत्याचार ही होता है-इस प्रकार मिथ्या सिद्ध नहीं होता। बल प्रयोगात्मक जो कई भले-बुरे कर्म हैं, उनमें से एक है अत्याचार। आग लगानेवाला भी आग जलाता है और रसोइया भी आग जलाता है। इसलिए रसोइया आग लगानेवाला नहीं होता। उसी तरह देशवीर जो स्वदेश की स्वाधीनता के लिए न्याय्य समर में शस्त्र धारण करता है, लोकपीड़क मदांध तलवार को तड़ाक से तोड़कर उसका सिर अपनी तलवार से काटता है, इस कृत्य के लिए हुतात्मा बनकर फाँसी पर लटकता है अथवा वह तेजस्वी पुरुष जो अपने देवालय, घरबार, स्वजनों की अन्याय्य, गुंडागर्दी से सशस्त्र रक्षा करता है, उस शूर पुरुष का किया हुआ प्रतिकार भी एक बलप्रयोगात्मक कर्म ही है तथापि वह अत्याचारी नहीं, वह सदाचारी ही सिद्ध होता है।

बल प्रयोगात्मक कर्म दुष्ट हेतु से, परपीड़क बुद्धि से किया जाए, तभी वह अत्याचारी होता है, वही कर्म सुष्ट रक्षार्थ न्याय्य बुद्धि से किया जाए तो वह सदाचार होता है। अतः अत्याचार अत्याचार की यही वास्तविक परिभाषा है। Violence अत्याचार नित्य ही निंदनीय है, परंतु force (बल) हमेशा निंदनीय नहीं होता। क्योंकि Violence is aggressivly used-आततायी बल ही अत्याचार है और आततायी ही अत्याचारी है।

दूसरे के प्रति अन्याय उपद्रव करने के लिए जिस बल का प्रयोग किया जाता है, वह बल अत्याचार है, परंतु उस परपीड़क बल के प्रतिरोध के लिए जिस बल का प्रयोग किया जाता है, वह अत्याचार नहीं होता। इतना ही नहीं, अपितु वह सदाचार ही है, क्योंकि समूचे सदाचारों की जो कसौटी-लोकहितवर्धकता-इस कर्म को ठीक वैसे ही तथा आत्यंतिकता के साथ लागू हो सकती है, वह है विघातक शक्ति ही अत्याचार, परंतु प्रत्याघातक शक्ति सदाचार है। जो परपीड़क खड्ग धारण करके कंस देवकी के बंदीगृह स्थित सूतिका गृह में प्रविष्ट हुआ था, वह खड्ग अत्याचारी है, परंतु उस प्रजापीड़क आततायियों के हाथ से संपूर्ण मथुरा की मुक्ति करने के उद्देश्य से खड्ग धारण करके गोकुल का वह विश्व वंदनीय जगजेठी रंग सभा में घुस गया और कंस को सिंहासन से खींचकर उसका शिरच्छेद किया। दोनों शस्त्र ही हैं, दोनों ही शस्त्र हैं, दोनों के कर्म बलप्रयोगात्मक हैं, परंतु एक तलवार ने लोकपीड़ा की चरम सीमा की, अत: वह पापी, अत्याचारी एवं दंडनीय सिद्ध हुआ। दूसरे ने लोकपीड़क नृशंसता के चंगुल से निष्पाप एवं निरपराध जनता की मुक्ति की। अतः दूसरा खड्ग लोकमंगलकारी था, इसलिए सदाचारी एवं पूजनीय सिद्ध हो गया।

अन्यथा अत्याचार की वर्तमान उलटी-पुलटी धारणा के अनुसार दोनों खड्ग बल-प्रयोगी ही होने से वे दोनों भी अत्याचारी ही सिद्ध होते हैं। लोकहितकारी कर्म भी अत्याचारी है, इस प्रकार भयंकर अनवस्था उत्पन्न होकर लोग अपने आपका हा यह नहीं समझा सकते कि इनमें से एक पूजनीय क्यों और दूसरा दंडनीय क्यों, परंतु अन्याय्य आक्रमण करने की शक्ति यही अत्याचारी है और न्याय्य प्रतिरोधक शक्ति ही सदाचारी है-इस शब्द की यह परिभाषा ध्यान में रखने से सारी उलझनें दूर होती हैं। चोर, डाकू, हत्यारे जब सशस्त्र बलात्कार के साथ निरपराधियों को अनन्वित यंत्रणा देते हैं और अनाथों का प्राण हरण करते हैं, तब वह कार्य नृशंसतापूर्ण होने से वह बल आक्रमक, आघातक, उपद्रवी होने से That force being aggressivly used become violence.

वह शक्ति अत्याचारी होती है, परंतु उस डाकू को दंड देने के लिए जब घर का स्वामी प्रसंग समय देखकर अपना खंजर उस सशस्त्र डाकू की छाती में घोंपकर बलपूर्वक प्रत्याघात करता है अथवा जब न्यायाधीश उस प्राणघातक हत्यारे को फाँसी पर लटकाकर उसे बलपूर्वक प्राणदंड देता है, तब वह बल, वह कर्म, वह सशस्त्र प्रतिरोध अत्याचार नहीं, सदाचार ही है।

अतः धर्मशास्त्र के आद्य प्रवर्तक मनु महाराज कहते हैं-

आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।

नाततातिवधे दोषे हंतुर्भवति कश्चन।

प्रकाशं वा प्रकाशं वा मन्युस्तन्मन्युमृच्छति॥

आततायी अत्याचारी है। उसे गुप्त या प्रकट रूप में चुनौती देकर अथवा छापा मारकर जो हत्या करता है, वह सदाचारी होता है न कि अत्याचारी। कानूनी दृष्टि से भी प्रत्येक समाज के लोगों को विधिशास्त्र की पुरानी-से-पुरानी पुस्तक लेकर वर्तमान अंग्रेजी प्रशासन के दंडनीय तक (Indian Penal Code) स्व-पररक्षार्थ उपयोजित शक्ति Self-Defence के कार्य में समाविष्ट की जाती है, उसे अत्याचारी अथवा Violent के रूप में संबोधित नहीं किया जाता, परंतु Violence अथवा अत्याचार कानूनी दृष्टि से दंडनीय है। हाँ, पर Self-Defence स्व-पररक्षार्थ उपयोजित शस्त्र अथवा शक्ति Legitimate Force न्याय और वैधानिक बल के वर्ग के अंतर्गत आता है। वह कानूनी दृष्टि से सदाचार ही माना जाता है, न कि अत्याचार।

वही बात राजनीति की है। इटली पर उस देश की इच्छा के तथा हित के विरुद्ध ऑस्ट्रिया ने केवल बायोनेट के बलबूते शासन किया-यह अत्याचार ही है, वह आततायी कर्म है; परंतु स्वदेश की स्वाधीनता के लिए गैरी बाल्डी, कॅस्पी, मैजनी आदि क्रांतिकारियों द्वारा आयोजित शस्त्र बल सदाचार है। इसीलिए हिंदुस्थान में घटित प्रचंड क्रांतियुद्ध अत्याचार नहीं हो सकता।

इस विवेचन का आशय 'इस देश में अथवा उस देश में आज ही कोई सशस्त्र क्रांति करनी ही होगी' इस तरह निकालना गलत होगा, क्योंकि सशस्त्र क्रांति इस अथवा उस देश में आज या भविष्य में कभी हो या नहीं, यह इस लेख का विषय नहीं है। उस सशस्त्र क्रांति के समर्थन अथवा विरोध के कारण उस देश की क्रांति असंभव है अथवा इष्ट भी नहीं-इस तरह जो विचार करते हैं, वे भी यह नहीं कह सकते कि वह क्रांति सशस्त्र है-बस, इतना ही इस लेख से प्रतिपादित हो सकता है। अतः अत्याचार, सदाचार की उपर्युक्त सत्य परिभाषा को यदि हम हमेशा स्मरण रखें तो आज तक की हुई हमारी भूलें भविष्य में हमसे नहीं होगी।

९ फरवरी, १९२९

स्वतंत्र भारत का सम्राट् कौन है ?

'हैदराबाद' शीर्षक के नीचे गांधीजी ने १३ अक्टूबर, १९४० के 'हरिजन' में एक लेख लिखा है। किसी सत्य अथवा कल्पित पृच्छक को 'ब्रिटिश सरकार ने अपने कब्जे में लिये हुए वन्हाड, उत्तर सरकार आदि प्रदेशों पर निजाम का अधिकार कैसे पहुँचता है?' वस्तुतः उन लेखों में ऐसा कुछ नहीं कि उनपर विशेष गौर किया जाए, परंतु इन लेखों द्वारा मुसलिम समाज को पाकिस्तान आंदोलन के लिए जो अधिक चेतना दी गई है और उसका हिंदू समाज पर जो कष्टप्रद परिणाम निश्चित रूप में होनेवाला है, उसकी ओर लोगों का ध्यान बँटाना तथा इस उपद्रवी लेखन का निषेध करना आवश्यक है।

मुसलमान बढ़े हुए आत्मविश्वास के साथ अपने पाकिस्तान का आंदोलन चलाएँ और किसी उचित क्षण यदि वह समाज हिंदुस्थान में इसलामी साम्राज्य की स्थापना करने के लिए अपना सिर उठाएँ तो उनका प्रयास सफल होने की बहुत संभावना है। इतना ही नहीं, उस कृत्य का नैतिक तथा राजनीतिक दृष्टि से हम समर्थन ही करते रहेंगे, इस प्रकार गांधीजी के इस उपर्युक्त लेखन से मुसलमान समाज की, जो पहले से ही धर्मांध है, धारणा दृढ़ होगी। उस लेख से साधारण रूप से यही स्पष्ट होता है कि इसी सद्हेतु से यह लेख लिखा होगा।

सन् १९१४ के एंग्लो-जर्मन युद्ध के समय गांधीजी ने मुसलमान नेताओं की ओर से अफगानिस्तान के अमीर अमानुल्ला को हिंदुस्थान पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित करने की बहुत ही विघातक योजना बनाई थी-यह बात स्वामी श्रद्धानंद जैसे परम विश्वसनीय तथा अधिकारी पुरुष ने ही प्रमाण के साथ सिद्ध की है और 'केसरी' तथा 'मराठा' समाचारपत्रों में अनेक गद्यांशों के साथ उसकी सत्यता सारे संसार को सप्रमाण सिद्ध की थी।

गांधीजी और उनके कांग्रेस भक्तगणों ने बार-बार यह व्यक्त किया है कि मुसलमानों को यदि भारत के दो टुकड़े करके उनमें से एक में केवल मुसलमानी राज्य की निर्मिति करनी हो तो कोई भी शक्ति उन्हें रोक नहीं सकती। इसके भी आगे बढ़कर ये कांग्रेसी देशभक्त पाकिस्तान की योजना को सम्मति देकर उसे 'हिंदू सत्ता' मानने के लिए तत्पर हैं।

इसी समय अपनी सरहद पर स्थित टोलीवाले भाई-बंधुओं के निकट जाने के लिए पिछले वर्षों से गांधीजी प्रयास कर रहे हैं-उसपर भी प्रकाश डालना आवश्यक है। मीराबेन, पॅरीबेन, भूलाभाई, आसफभाई जैसे अन्य अनेक 'भाई' और 'बेन' गांधीजी के विश्वसनीय वकील बनकर इन पठानों की मनुहार करने के लिए उधर भेजे जाते हैं। किसलिए? उनका हृदय-परिवर्तन करने के लिए। ये 'बेन' तथा 'भाई' लोग इन पठान टोलियों के बारे में बड़ी सहानुभूति जताते हुए कहते हैं, इन भगवान् भीरु (इति गांधी) लोगों की आर्थिक तथा नैतिक दृष्टि से 'दमघुटी' होने के कारण ही उन्हें इस तरह के अवैध मार्गों का आचरण करना पड़ता है। उनकी इस विकट परिस्थितियों के कारण ही सीमा प्रांतीय हिंदू पुरुष तथा स्त्रियों की नृशंसतापूर्वक हत्या करना, उनका बलपूर्वक धर्मांतरण करने के लिए बाध्य करना, उन्हें लूट- खसोटकर उनका अपहरण करना-इसी तरह अनेक पाशवी अत्याचार करने के लिए वे बाध्य होते हैं। गांधीवाद की पहली तथा वर्तमान करतूतों पर गौर करते हुए यदि गांधीजी का वह 'हरिजन' में प्रकाशित लेख पढ़ा तो किसी भी हिंदू को ज्ञात होगा कि स्वयं गांधी तथा उनके कांग्रेसवादी हिंदू अनुयायी पिछले एंग्लो-जर्मन युद्ध में खेली हुई वही बाजी अब पुनः खेलने के चक्कर में हैं।

खड्ग की धार ही राज्य की सीमाएँ निश्चित करती है

ब्रिटिशों के दबाव में पाकिस्तान के ढंग पर संविधान बनवाकर उसमें हिंदुओं को कुचल डालना अथवा भाग्यवश इस जागतिक युद्ध में ब्रिटिशों पर पराभव का आधान होकर उन्हें हिंदुस्थान छोड़कर जाना पड़ा तो इधर सशस्त्र क्रांति द्वारा अपना प्रभुत्व स्थापित करना- इनमें से किसी एक मार्ग से हिंदुस्थान के मुसलमान हिंदुस्थान पर इसलामी शासन प्रस्थापित करने के प्रयास में हैं। मुसलमानों द्वारा पहले से ही शुरू की हुई इस विघातक योजना की सहायता करने में ये गांधीवादी आगे-पीछे नहीं देखेंगे, इसे पत्थर की लकीर समझिए।

उस प्रश्नकर्ता की, जिसने गांधीजी से प्रश्न किया था यदि यही भावना हो कि खालसा हुए प्रदेश पर निजाम का अधिकार है, इस प्रकार शेगाँव के न्यायालय में निर्णय होते ही तुरंत ब्रिटिश सरकार उन राज्यों से निजाम की झोली भर देगी तो वह व्यक्ति बिलकुल मूर्ख है जिसकी इस प्रकार की धारणा है। राज्य की सीमाएँ तथा अधिकार खड्ग की तेज धार तथा तोपों के भयानक गोले ही तय करते हैं, परंतु किसी भी मुद्दे पर गौर न करते हुए इस प्रकार का मूर्खतापूर्ण प्रश्न जितनी गंभीरतापूर्वक पूछा गया होगा, उतनी ही गंभीरता से गांधीजी ने भी इसकी चर्चा करते-करते अंत में यही निर्णय दिया कि जबकि अंग्रेजों ने उन प्रदेशों को छीन लिया है तब अंग्रेजों का ही उनपर अधिकार नहीं रहता।

गांधीजी को भारतीय इतिहास का बिलकुल ही साधारण परिचय है-इस सत्य पर गौर करने पर भी, जिस प्रश्न पर वे लेख लिखते हैं, उससे संबंधित उन्हें कम-से-कम इतना तो ज्ञान होना चाहिए कि अंग्रेजों को निजाम ने ये जो प्रदेश दे दिए वे विजय के इच्छुक मराठों से निजाम का संरक्षण करने का मूल्य था। खर्डा में मराठों ने निजाम की हड्डी-पसली तोड़ दी थी और परिणामस्वरूप पुणे के पेशवा के प्रवेशद्वार में बंदी रूप में खडे रहने का प्रसंग आ जाएगा, जैसे अपने वजीर पर आ गया था-यह जानकर ही निजाम ने अंग्रेजों से अपनी सुरक्षा की याचना की थी। इसके अतिरिक्त शेष प्रदेश अंग्रेजों ने अपनी तलवार के बलबूते जीता था।

गांधीजी के अनृत से भी अधिक विघातक अर्धसत्य

तथापि खड्ग की विजय अधिकार के रूप में मानने के लिए ही यदि गांधीजी तत्पर नहीं हैं, तो वे अंग्रेजों को निजामशाही से जीते हुए तथा अनुबंध से प्राप्त प्रदेश छोड़ने के लिए कहने की अपेक्षा प्रथम निजाम को ही उपदेश करें कि तुम अपना सारा प्रदेश छोड़कर चले जाओ। उसके लिए कारण सरल ही है कि मुगल सम्राट ने अपने एक राज्य के सूबेदार के रूप में तुम्हारी नियुक्ति करते हुए तुम अपने ही स्वामी के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह करके सारा प्रदेश ही दबोचकर बैठे हो।

और यदि यह निश्चित किया जाए कि खड्ग से विजित अधिकार को माना ही न जाए तो निजाम के हाथ में आज जो प्रदेश है और ब्रिटिशों के अधिकार में गया हुआ प्रदेश, इन सभी के वास्तविक स्वामी हैं विजयनगर के महाराज हैं, क्योंकि उन्हीं के पूर्वज उस राज्य के न्यायतः स्वामी थे और उनपर मुसलमान की मजबूत बाँहों के टिड्डी दल का आक्रमण हुआ और उसने हमारे पुरखों से यह भूमि छीन ली।

परंतु अधिकार के इस प्रश्न को ताक पर रखकर गांधीजी आगे लिखते हैं कि यदि कोई मुझसे कहे कि न्यायबुद्धि के साथ विचार करें तो बस, इतना ही कह सकूँगा कि वराड, उत्तर सरकार और कर्नाटक आदि प्रदेशों से संबंधित लोग उनका स्वयं निर्णीत चुनाव करें। बस, इतनी ही न्यायबुद्धि मैं जानता हूँ। अब इस सूचना पर कोई आपत्ति नहीं उठाएगा, परंतु पूर्ण सत्य कथन का धोखा टालने के लिए यह एक बनाया हुआ पलायन मार्ग है-इसका विस्मरण नहीं होना चाहिए। इस प्रकार के मामले में यह निश्चय करना कि जनता का चयन क्या है-इसी में वास्तविक मर्म होता है। गांधीजी यदि सत्य ही प्रजातंत्र तत्त्व का समर्थन करना चाहते तो वे अपनी इस रामकहानी को आधी-अधूरी न छोड़ते हुए कहते कि जनता का चयन बहुमत द्वारा ही निश्चित किया जाना चाहिए, परंतु गांधीजी को इस कटु सत्य की जानकारी है कि खालसा प्रदेश में नहीं, साक्षात् निजाम के राज्य में भी हिंदू ही बहुसंख्या में हैं। इसलिए सार्वजनिक मत-पंजीकरण करवाना निजाम को अपना सारा बोरिया-बिस्तर उठाकर अपनी रियासत छोड़ने के लिए कहना है और यह स्पष्ट दिखाई देता था कि इससे मुसलमान गांधीजी से रुष्ट होंगे। इसलिए गांधीजी ने अपने उस लेख के दूसरे हिस्से में विशेषतः मुसलमान भाइयों को प्रसन्न करने का प्रयास किया है।

गांधीजी निजाम को ही भारत का सम्राट पद प्रदान करेंगे

इस किसी तथाकथित पृच्छक के प्रश्न का उत्तर देने से ही संतुष्ट न होकर गांधीजी ने इस लेख में किसीसे कुछ संबंध न होते हुए भी एक अलग ही मुद्दा उपस्थित किया है। हिंदुस्थान का भविष्य किन-किन मार्गों से निश्चित होने की संभावना है।

इसके संबंध में बहुत सारी धूल उड़ाने पर उसमें से यह निर्णीत हुआ कि हिंदुस्थान स्थित ब्रिटिश प्रशासन बिना युद्ध के पलट गया और यदि अन्य किसी अभारतीय जागतिक सत्ता ने ब्रिटिशों का वह स्थान तुरंत ग्रहण नहीं किया तो हिंदुस्थान में आंतरिक विप्लव होगा। उस समय वही सत्ता हिंदुस्थान पर अपना अधिकार प्रस्थापित करेगी जो सबसे बलशाली होगी और गांधीजी के अनुसार वह सत्ता कोई अन्य नहीं, 'हैदराबाद' ही है। वे कहते हैं, 'अन्य सभी छोटे-मोटे राजे-महाराजे अंत में इस निजाम की बलशाली सत्ता को ही आत्समर्पण करेंगे और निजाम हिंदुस्थान के सम्राट पद पर विराजमान होंगे।'

परंतु उस समय स्वयं गांधी और कांग्रेस की भूमिका कैसी रहेगी? गांधीजी के अनुसार, 'बेचारी कांग्रेस यदि अपने अनत्याचारपूर्ण ध्येय के साथ अव्यभिचारी रहेगी तो उसकी मृत्यु निश्चित ही है।'

और भला इससे अलग अन्य कौन सा भाग्य ऐसी संस्थाओं के हिस्से में होगा, जो अपने ध्येय से एकनिष्ठ है? गांधीजी का भविष्य सोलह आने सही है। गांधीजी जो अपने आपके बारे में 'मैं श्रद्धाशील मनुष्य हूँ और श्रद्धावान व्यक्ति के लिए इस संसार में कुछ भी असंभव नहीं' कहते हैं। वह स्वयं स्वीकार करते हैं कि कांग्रेस का भविष्य अंधकारमय है।

परंतु ऐसा नहीं कि कांग्रेस की मिट्टी पलीद हो गई और इस प्रकार का विप्लव उत्पन्न होने पर भी गांधीजी हाथ पर हाथ धरे बैठेंगे। वे कहते हैं, 'देश पर ब्रिटिशों का अथवा अन्य विदेशियों का व्यवस्थित राज्य होने से मुझे यह विप्लव अधिक पसंद है।' मान लीजिए, इस देश के राजे-महाराजाओं ने निजाम का मातहत बनना स्वीकार किया अथवा सीमावर्ती मुसलिम टोलियों द्वारा निजाम का समर्थन करने से यदि हिंदुस्थान में निजाम का राज्य प्रस्थापित हो रहा हो तो ऐसे विप्लव का भी मैं स्वागत करूँगा।' और 'मैं ऐसा क्यों करूँ' इसका जो कारण गांधीजी देते हैं, वह गौर करने योग्य है। 'इस देश में स्थित सभी हिंदू राजा-महाराजाओं को सीमावर्ती टोलियों की सहायता से अपना मातहत बनाकर यदि निजाम हिंदुस्थान का सम्राट हो सकता है तो वह राज्य सौ प्रतिशत स्वराज्य ही है-वह 'होमरूल' ही है।'

और अंत में गांधीजी लिखते हैं, 'परंतु यह सबकुछ तात्त्विक (एकेडेमिकल) है।'

औरंगजेब का राज

वैसे देखा जाए तो औरंगजेब का भी जन्म हिंदुस्थान में ही हुआ, इसी धरती पर वह पला-बढ़ा, परंतु क्या इसलिए हिंदुओं ने उसके शासनकाल को 'स्वराज्य' की दृष्टि से देखा? बल्कि उससे घृणा ही की। भविष्य में भी किसी मुसलिम विजेता का राज्य उतनी घृणा के साथ धिक्कारा जाकर शिवाजी, बाजीराव पेशवा अथवा महाराजा रणजीत का नया अवतार उसे मटियामेट किए बिना नहीं रहेगा।

इस कारण से और अहिंसात्मक दृष्टि से भी हम गांधीजी से मनःपूर्वक प्रार्थना करते हैं कि घटना, तर्क, व्यवहार, परिस्थितियाँ अथवा दैविक घटनाओं की ओर ध्यान न देते हुए वे अपने प्रिय अहिंसा धर्म से ही चिपके रहें। उन्होंने ही तो कहा है कि वे आशावादी हैं और उनके समान आशावादी मनुष्य के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। तो फिर आशा की एक ही साँस के साथ हिंदुस्थान में चिरकालीन अहिंसक साम्राज्य की स्थापना करने की 'संभावना का निर्माण वे क्यों नहीं करते?' तलवार, बंदूकों से नख-शिख सुसज्जित निजाम की अपेक्षा विनोबा भावे का, जो अहिंसक बादशाह होने के लिए चरखे के साथ सिद्ध है, हमें लाभ प्राप्त है-यह बड़ी सौभाग्यपूर्ण बात है।

परंतु इसमें एक अनिवार्य बाधा यह है कि इस श्रेष्ठ सम्मानार्थ विनोबा भावे अद्यापि हिंदू ही होने के कारण अनधिकारी हैं। और कोई भी हिंदू राज्य को स्वीकृति नहीं देगा, परंतु कुछ भी हो, अहिंसापंथीय हिंदू मुसलमानी सत्ता के सामने सिर झुकाने में ही अपना गौरव समझेंगे तथा ऐसा एक भी मुसलमान मिलना असंभव है जो अहिंसा पर विश्वास करता है-इसलिए हो सकता है, निजाम को राज्यमुकुट चढ़ाने के अतिरिक्त गांधीजी के पास अन्य कोई चारा ही नहीं रहा हो।

कुछ भी हो, इस संबंध में निजाम को एक सुखद सूचना दिए बिना हमसे रहा नहीं जाता। वह यह कि पाकिस्तानी मुसलमान तथा गांधीजी पंथीय कुछ हिंदू पागल लोगों की मूर्खतापूर्ण धारणाओं के सामने अपना शीश झुकाने से पहले वह दो बार सोच ले।

इससे पहले खिलाफतवालों के साथ इन्हीं गांधी-आजाद जैसे लोगों ने अमानुल्ला को यह पढ़ाया था कि वह अपने आपको भारतीय राज्य का ईश्वर प्रेषित हकदार माने, परंतु भाग्ययोग कुछ अलग ही था। बच्चा-ए-साकू नामक एक भिश्ती के बेटे ने उसे ही राजसिंहासन से नीचे खींचा। वही गांधीजी की टोली पाकिस्तानी मुसलमानों के हाथों में हाथ डालकर बेचारे निजाम को हिंदुस्थान का ताज हड़पने के लिए उकसा रही है। ईश्वर निजाम की रक्षा करे ताकि अमानुल्ला की तरह उसकी दुर्गति न हो।

स्वतंत्र हिंदुस्थान के सम्राट 'हिज हायनेस द निजाम' नहीं 'हिज मैजेस्टी द किंग ऑफ नेपाल' हैं। गांधीवादियों ने जिस तरह यह तात्त्विक चर्चा की, उसी तरह तात्त्विक भविष्य कथन हम हिंदू संघटक भी कर सकते हैं। हिंदू संघटकों को इस तथ्य का विस्मरण नहीं होता कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले हुए लाखों हिंदू 'सभी हिंदू एक हैं' इस आवेश से प्रस्फुरित हो गए हैं। ऐसा समझने के लिए कोई कारण नहीं कि मुसलमानी राजाओं ने यदि कोई राष्ट्रव्यापी गृहयुद्ध शुरू किया तो उस अवसर पर हिंदू संस्थानिकों का रक्त मृत रहेगा। प्रमुख हिंदू राजे जान चुके हैं कि हिंदुत्व के विनाश के साथ-साथ उनका भी विनाश निश्चित ही है। हिंदू धर्म तथा हिंदू सम्मान की रक्षा करने के लिए तैयार हिंदू राजा-महाराजाओं की इस हिंदू विश्व के आरक्षित शक्ति-यह संगठित हिंदू शक्ति आज के किसी हैदराबाद अथवा भोपाल के लिए पर्याप्त है। अकेले शिंदे एक तरफ और निजाम की सारी शक्ति एक तरफ होने पर भी किसी उद्गीर अथवा खड़ी की रणभूमि पर अकेले शिंदे ही निजाम की धज्जियाँ उड़ा देंगे। जब उदयपुर से कोल्हापुर तक सभी हिंदू महाराजे और दक्षिण के मैसूर से लेकर कोचीन तक सभी हिंदू नरेश एकबल से मुसलमानी आक्रमण पर टूट पड़ेंगे, तब दक्षिण सागर से सीधे उत्तर की यमुना तक मुसलमानी सत्ता का अंश भी शेष नहीं बचेगा।

मुगल साम्राज्य की स्थापना की धारण व्यर्थ होगी। अब शेष प्रश्न रहा सीमावर्ती टोलियों का तथा भारत के बाहर के इसलामी राज्यों का, परंतु यूरोपीय युद्ध के दावानल में अफगानिस्तान, अरबस्तान अथवा तुर्कस्तान जैसे राज्य जीवित रह गए तो भी बहुत है। इसकी आशा ही नहीं रखनी चाहिए कि नादिरशाह तथा अहमदशाह को अपनी संपन्नावस्था में जो साध्य नहीं हुआ, वह अब उनके क्षुद्र वंशजों के हाथों से होगा। हिंदुस्थान में आकर अपना पूर्वकालीन साम्राज्य-स्थापना का सपना वे कभी सीने से ना लगाएँ और टोलीवालों को रावी पार करने से पहले ही उनकी खबर लेने के लिए हमारे शूर सिख समर्थ हैं।

इसके अतिरिक्त नेपाल के स्वतंत्र हिंदू राज्य का विचार न करना किसीके लिए विप्लव होगा तो उसमें से हिंदओं के उज्ज्वल भवितव्य का निर्माण करने का शक्ति सहस्रों नेपाली हिंदुओं की अनुशासनबद्ध बंदूकों में है और नेपाल के हिंदू राजा का राजपाट तो गांधीजी की परिभाषा के अनुसार ही स्वराज्य है, वह स्वायत्त ही है। उसपर तात्त्विक विवेचन भी करना हो तो यही कहा जा सकता है कि भविष्यकालीन भारत का स्वतंत्र सम्राट् 'हिज मैजेस्टी द किंग ऑफ नेपाल' ही है, न कि 'हिज एक्जाल्टेड हायनेस' निजाम।

कोई भी मुसलमान हिंदुस्थान पर राजनीतिक प्रभुत्व प्रस्थापित करने की आकांक्षा लेकर आगे बढ़ा और उसने उत्तर-दक्षिण अथवा सीमा प्रदेश से कहीं भी सिर उठाने का प्रयास किया तो उसके विरोध में धर्मसंरक्षक तथा हिंदुओं की सेना के सरसेनापति के रूप में नेपाल नरेश अवश्य आगे बढ़ेंगे। कम-से-कम अपने लिए तो नेपाल सरकार इस प्रकार गतिविधियाँ करके सार्वभौम सत्ता संपादन का अनायास प्राप्त सुवर्णावसर कभी व्यर्थ नहीं छोड़ेंगे। वर्तमान परिस्थितियाँ ही कायम रहने पर, गुरखा लोगों की पलटनें पूर्व की ओर बिहार, बंगाल से आसाम की ओर तथा पश्चिम की ओर सिंधु तक आराम से आक्रमण कर सकती हैं। अखिल हिंदुस्थान संगठन के स्वतंत्र नेपाली सैनिकों का रेला रोकने के लिए मि. हक्क के नौआखाली गुंडे अथवा कंधों पर केवल फावड़ा उठाकर इधर-उधर घूमनेवाले खाकसार असमर्थ हैं। प्रक्षुब्ध महासागर की तूफानी लहरों को रेत के ढेर भला कभी रोक सकते हैं?

नेपाल का स्वायत्त राज्य हिंदुस्थान के लिए कितना महत्त्वपूर्ण है-इसके संबंध में विख्यात इतिहासकार पर्सिवल लेडन क्या लिखते हैं-इसकी जानकारी कम-से-कम हिंदू तो अवश्य रखें। वे कहते हैं-

The fact is that the communal strife from one end of India to the other invests Nepal with an importance that it would be foolish to overlook. Englishmen should attempt to understand the high position which Nepal holds in the Southern Asiatic balance and the great and growing importance which she will possess in the future in solution of the problem which beset the present state of India. Nepal stands today on the threshhold of a new life. Her future calls her in one direction and one only. It is not impossible that Nepal may even be called upon to control the destiny of India itself.'

और स्वतंत्र हिंदू साम्राज्य का स्वप्न शीघ्र ही प्रत्यक्ष साकार होगा

परंतु हम भी पुनः कह रहे हैं, यह सबकुछ तात्त्विक है। तथापि यदि हिंदुओं ने भारतीय मुसलमानों की तुलना में उसके हाथों में कितना सामर्थ्य संगठित होना संभव है, इसका 'पॉन हिंदू' इस दृष्टिकोण से निरीक्षण किया और उन सभी केंद्रों को समय पर अपने हाथों में ले लिया, तो आज की यह तात्त्विक चर्चा साकार हो सकती है (मूर्त हो सकती है)। संगठित, बलशाली तथा स्वतंत्र हिंदू साम्राज्य का यह सपना इतनी अल्पावधि में सत्य होगा कि हिंदुओं को उसकी कल्पना करने का भी साहस नहीं हो सकता।

घोंघी भगवती

सत्याग्रही शस्त्र के साथ सत्याग्रह न करें, क्योंकि सच्चा सत्याग्रही शस्त्र का छूना भी पाप ही समझता है। हाथ में लाठी पकड़ना भी उसे अपमानजनक प्रतीत होता है, यह गांधीजी का कहना है, क्योंकि वे महात्मा हैं।

परंतु महात्मा भोलेचंद ने यह घोषित किया है, सत्याग्रही सत्याग्रह करते समय अपने दाँत और नाखून भी पास न रखें, क्योंकि दाँत और नाखून भी प्रकृति के दिए हुए हथियार ही हैं। लाठी का प्रयोग नहीं, तलवार मात्र के बल हाथ में थामे रहना, उससे किसीकी हत्या नहीं करना, इस प्रकार का निश्चय करने पर भी शस्त्र होने के कारण उनका प्रयोग करना जिस तरह सत्याग्रही को शोभा नहीं देता उसी तरह दाँत और नाखून का प्रयोग काटने तथा नोचने के लिए नहीं करने पर भी मूलतः वे शस्त्र ही होने के कारण सत्याग्रही उन्हें अपने पास न रखें, क्योंकि न जाने कहीं किसी चलते राहगीर को काटने-नोचने की प्रवृत्ति हो जाए। इसलिए सत्याग्रही संपूर्ण आत्मशुद्धि के लिए अपने नाखूनों को समूल काट डाले तथा अपने सारे दाँत निकालकर सत्याग्रह करने के लिए निकले--यही भोलेचंद का कहना है, क्योंकि वे भी महात्मा हैं।

गांधीजी के मतानुसार इस जगत् में शस्त्रों को त्याज्य समझना असंभव है। उनके बिना व्यवहार असंभव है। अत: गांधीजी के पट्टशिष्य भरुचा एंड को ने स्पष्ट शब्दों में कह डाला और गांधीजी की अवज्ञा की। तथापि गांधीजी का उपदेश इस जगत् में सर्वथा अव्यवहार्य होने पर भी अत्यंत उदात्त है-इतना कि उसका उपदेश देने के पराक्रम से गांधीजी बुद्ध, श्रीकृष्ण से भी श्रेष्ठ सिद्ध होते हैं, भरुचा की आज भी यही भावना है।

इस संसार में जो-जो अव्यवहार्य और विपुल हो, उसका शाब्दिक उपदेश देना ही यदि बुद्ध और श्रीकृष्ण से श्रेष्ठता सिद्ध करने की सीढ़ी हो तो फिर भरुचा को मानना पड़ेगा कि महात्मा गांधी से महात्मा भोलेचंद सवाई महात्मा हैं, क्योंकि उपदेश की अव्यावहारिक झक्कीपन ही उदात्त होने की कसौटी हो, तो महात्मा गांधी के इस सूत्र से कि जिसके हाथ में तलवार तो दूर लाठी भी नहीं होती वही सत्याग्रही है-महात्मा भोलेचंद का यह सूत्र-जो सत्याग्रह करते समय अपने दाँत भी तोड़ देता है वही सच्चा सत्याग्रही, कई गुना अधिक अव्यावहारिक तथा अंधाधुंध तथा विक्षिप्त होने से यही सिद्ध होता है कि उनका ध्येय उतनी ही मात्रा में अधिक उदात्त है। इसलिए महात्मा भोलेचंद न केवल बुद्ध और भगवान् श्रीकृष्ण से बल्कि गांधीजी से भी सवाई श्रेष्ठ हैं।

महात्मा भोलेचंद का प्रतिपादन सर्वथा निराधार नहीं है, क्योंकि दाँत और नाखून मूलतः शस्त्र ही तो हैं। इतना ही नहीं, तलवार भी मनुष्य का एक बढ़ा हुआ नाखून ही है। साधारण नाखून नोचने-खसोटने के लिए पर्याप्त नहीं था। इसलिए तलवार अथवा व्याघ्रनख में उसका रूपांतर हो गया। और दाँत भाला बन गए। सूअर का दाँत भाले का पूर्वज है। अतः सत्याग्रही शस्त्र संन्यास द्वारा वास्तविक आत्मशुद्धि चाहते हैं-तो केवल तलवार अथवा लाठी ही फेंककर न रुके, वे तो अपने सारे दाँत तोड़कर ही उस सात्त्विक कार्य का आरंभ करें। इसका सभी ने अनुभव किया होगा कि सात्विकता का उपदेश भी उस मुँह से नहीं निकलता जिसमें पूरे-के-पूरे दाँत हों। वस्तुतः दंतसहित मुँह को मृदुल सात्त्विक शब्द इतनी शोभा नहीं देते। जिस सिंह के दाँत नुकीले हैं-गर्जना किसी शूर पुरुष जैसी कर्कश तथा कंपदायी प्रतीत होती है। वह दंतविहीन घोंघी देखिए-किसीने केवल पाँव रख दिया तो पिचक जाएगी, पर कभी नहीं डँसेगी। सत्वशील, निरुपद्रवी तथा निःशस्त्र सत्याग्रह का मूर्तिमंत आकार!

महात्माजी को हम प्रेमपूर्वक सूचित करते हैं कि भारत के राष्ट्रीय ध्वज पर सात्त्विकता की प्रतिमा के रूप में चरखे का चित्र लगाने की अपेक्षा घोंघा का चित्र अधिक शोभायमान होगा, अत: वही दे दें।

और हिंदुओं को भी चाहिए कि वे अपनी संस्कृति के ध्येय-चिह्न के स्वरूप गाय को पूजनीय न समझते हुए घोंघी को ही पूजनीय समझें। गोपूजा के लिए हम हिंदू 'गऊ' बन गए, परंतु अब सात्त्विकता की अगली सीढ़ी हमें चढ़नी चाहिए। गऊ के भी दाँत होते हैं। वह लात भी मारती है और अपने सींग भी घोंप देती है। अत: उसकी पूजा करते-करते हम निरी गऊ भी बन गए, तथापि हमारी आत्मशुद्धि पर्याप्त रूप में नहीं हुई। अन्यथा आज भी कोई तामसी शशिमोहन हममें उत्पन्न होकर हमारी सात्त्विक संस्कृति को कलंक क्यों लगाता? अत: यदि हम ऐसी निर्बुद्ध 'आत्मशुद्धि' की कामना करते हैं जिसमें 'निरुपद्रवी, निरस्त्र' और प्रतिकार बुद्धि भी मर चुकी है, तो अब उस घोंघी को जिसमें ये सारे गुण उत्कटता से विद्यमान हैं अपना आराध्य मानना होगा, क्योंकि घोंघी जैसा सत्याग्रही वीर आज तक इस संसार में हुआ ही नहीं।

सत्य ही घोंघी इन सात्त्विक गुणों में गांधीजी से भी श्रेष्ठ है, क्योंकि गांधीजी कभी-कभी अंग्रेजों से नहीं, परंतु जर्मनों के विरुद्ध शस्त्र पकड़कर खून बहाना चाहते हैं। अपेंडिसायटिस के हजारों रोगाणुओं को अपने पेट में उत्पन्न होकर पुत्रवत बढ़ने दें-उन्होंने अपना पेट फाड़कर उनकी हत्या की, अब पुत्रवत पले हुए उन रोगाणुओं पर प्राणांतिक अत्याचार किए। इसलिए सत्य कथन करना ही चाहिए भले ही वह अप्रिय हो। इस नियमानुसार, निरस्त्र, निरुपद्रवी और बुद्धिहीन आत्मशुद्धि में गांधीजी से भी बढ़कर घोंघी श्रेष्ठ देवी है-यह कथन करने का सत्याग्रह हम कर रहे हैं।

१८ अक्तूबर, १९२७

अहिंसात्मक भंडविधान

यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि नील का पुतला हटाने के लिए चल रहा सत्याग्रह सफल बनाने का साधन आखिर महात्माजी ने ढूँढ़ ही निकाला।

एक हट्टे-कट्टे, मुस्टंडे स्वयंसेवक ने नील के पुतले के घोड़े की टाँग हथौड़ी से तोड़ डाली। जब से यह समाचार सुना, सभी अहिंसात्मक अनत्याचारी वीर श्रेष्ठों को इतनी तीव्र वेदना हुई जितनी उस पाषाणी घोड़े को भी नहीं हुई थी। अनुश्रुति के अनुसार प्राचीन काल में एक मेमने को लगी हुई चोट देखकर भगवान् बुद्ध व्यथित हो गए थे, परंतु वह जीवंत मेमना था, जीवंत प्राणी के लिए कोई भी दुःखी होगा, परंतु वही सच्चा अनत्याचारी वीरपुंगव है जिसका दिल पत्थर को लगी हुई चोट से भी अकुलित होगा। ऐसे ही कई वीरपुंगव उदास होकर अहिंसा के आचार्य के पास जाकर रोने लगे। तब उन्होंने छटपटाते हुए मठादेश दिया, अब भविष्य में सत्याग्रह में हथौड़ा लेकर कोई प्रवेश न करे-लाठी, हथौड़ा ये शस्त्र हैं। भारतीय दंड विधान (इंडियन पीनल कोड) में उनके लिए दंड नहीं होगा। परंतु अहिंसात्मक भंडविधान में उसे भी अवश्य दंड बताया गया होगा। हथियार हाथ में लेना ही पाप है। नागपुर में जब शस्त्र धारण करने का अधिकार प्राप्त करने सत्याग्रह हो रहा था, तब आचार्य ने इसलिए तो स्पष्ट उत्तर दिया था कि 'शस्त्र के लिए सत्याग्रह! शस्त्र और सत्य एक साथ रह नहीं सकते। शस्त्र धारण करने के अधिकारार्थ सत्याग्रह करना शब्दों का भयंकर दुरुपयोग है। शस्त्र धारण न करें यह कानूनन न्याय है। जिस प्रकार चोरी न करें, डाका न डालें आदि भारतीय दंडविधान निर्बंध भंग करना पाप है, उसी तरह शस्त्र धारण न करें। इस तरह का निर्बंध भंग करना अहिंसात्मक अनत्याचार के शास्त्र के अनुसार पाप है। अत: भारतीय दंडविधान के एक कदम आगे बढ़कर हथौड़ा, लाठी आदि सारे हथियार अहिंसात्मक, अनत्याचारी भंडविधान दंडनीय समझता है।'

फिर अनत्याचारी वीरश्रेष्ठों ने प्रश्न किया, 'हे महर्षे, मशीनगंस नहीं मिलतीं। हथौड़े, लाठियाँ, पत्थर उपलब्ध होते हुए भी अहिंसा की दृष्टि से हम उन्हें हाथ में न लें इस तरह आप आदेश दे रहे हैं। तो फिर नील के पुतले के पास जाते समय हम हाथों में क्या लेकर जाएँ?' तब मठादेश हो गया-'कीचड़'।

कीचड़ उठाकर सत्याग्रही वीरपुंगव नील के पुतले के पास जाए और कीचड़ के गोले उस पुतले पर तब तक फेंकता रहे जब तक पुलिस नहीं पकड़ती। यह निर्णय सुनकर अनत्याचारी अहिंसा भगतों की सेना के सभी सत्याग्रही वीरपुंगव हर्ष-विभोर हो गए। भई, पुंगव जो ठहरे।

हम उन पुंगवों में से न होते हुए भी और एक उपाय का सुझाव देना चाहते हैं। कीचड़ से इतने आहत नहीं हो सकते जितना पत्थर से, परंतु वह मनुष्य जिसने अहिंसा का पवित्र व्रत धारण किया है, भला वह कीचड़ भी कैसे उछाले? क्योंकि कीचड़ होने पर भी पत्थर की आँखों में उड़कर उसे चुभने लगे और उस पत्थर के पुतले को थोड़ा-बहुत तो शारीरिक दुःख तो होगा ही। अतः हमारा विनम्र कथन है कि सत्याग्रही वीर हाथ में कीचड़ भी न लेते हुए नील के पुतले तक जाए और...

और दूर से ही उस पुतले को मुँह चिढ़ाते हुए खड़ा रहे। कीचड़ फेंकने की अपेक्षा शुद्ध अहिंसात्मक सत्याग्रह को यही कृति अधिक शोभा देगी। हथौड़ा, लाठी, पत्थर की तरह कीचड़ भी एक शस्त्र ही है। अतः कीचड़ भी अहिंसात्मक अत्याचार के भंडविधान में बहिष्कार योग्य समझा जाए।

वस्तुतः हाथ भी एक हथियार ही है और इसलिए उसे भी काटकर सत्याग्रही आगे बढ़े, पर जाने भी दो यारो, हाथ की बात छोड़ देते हैं। भोजन के लिए और केले, संतरे आदि पदार्थ का सेवन करने के लिए उपयुक्त वस्तु है वह। अतः ये सत्याग्रही वीरपुंगव नील के पुतले के सामने जाकर केवल उसे मुँह चिढ़ाए।

१० जनवरी, १९२८

कथनी और करनी

नील का पुतला रास्ते से हटाया जाए, इसलिए सत्याग्रह हो रहा है। पिछले दिनों पंजाब में भी लॉरेंस के पुतले के नीचे भारतीयों के लिए कुछ अपमानजनक शब्द खुदे हुए थे, अतः उन्हें हटाने के लिए सत्याग्रह हो रहा था।

लॉरेंस का पुतला हटाइए अन्यथा हम सरेआम वहाँ जाकर उसे खोदकर निकालेंगे, अन्यथा जैसे कि गांधीजी का सुझाव है-महिलाएँ, बच्चे, पुरुष सारे मिलकर सारा लाहौर उस पुतले के सामने भीड़ करेगा। फिर आप गोलियाँ चलाएँ! हम मरेंगे, पर हटेंगे नहीं-इस तरह का वर्णन लगातार जारी था। ये सारे केवल बोल!

इन व्यर्थ बोलों के चलते-चलते उन्हें व्यक्त करने दो-चार स्वयंसेवक कारागार में भरती हो गए। बोल अधिक जोर-शोर से करते ही पुलिस पहरे भी अधिक जोरदार हो गए। पुरुष, महिलाओं, बच्चों के साथ समूचा लाहौर उधर खड़ा करने की गांधीजी की विक्षिप्त योजना जहाँ-की-तहाँ ही धराशायी हो गई। लॉरेंस का पुतला न हिला, न डुला, न ही उसपर लिखे अपमानास्पद शब्द हटे।

एक दिन एक व्यक्ति मन-ही-मन कहने लगा, 'चार हाथ के एक पत्थर को हिलाने के लिए सारा लाहौर-महिलाओं के साथ! वहाँ इकट्ठा करें? और क्या कहते हैं, गोलियाँ चलाई जाएँ और हम फटाफट मर जाएँ? अथवा दिन-दहाड़े पुलिस के सामने खड़े रहकर कहें, मैं यह पुतला तोड़ने आया हूँ! मुझे पकड़ो और पकड़ा जाए। चार-चार बरस तक चालीस-चालीस जने जेल में सड़ते रहें। चार हाथों का एक पत्थर हिलाने की खातिर? वाह रे सत्याग्रह? केवल कथनी!

चार-आठ दिनों में अंग्रेजी समाचारपत्रों में समाचार आया, 'किसी दुष्ट मनुष्य ने कल रात पुलिस की असावधानी से उस पुतले पर आक्रमण करते हुए उसके हाथ में पकड़ी तलवार ही, जो कलह की जड़ थी, तोड़-फोड़कर पुतले को विद्रूप बना दिया।' सभी कहने लगे, 'इसे कहते हैं करनी!',

बस, सरकार ने सोचा, विद्रूप पुतला रखने से अच्छा है उसका वहाँ से हटाना! उसने अपने खर्चे से उसे ढक लिया और उन वाक्यों को, जो भारत के लिए अपमानकारक थे-मिटाकर ठीक-ठाक किया हुआ पुतला उधर प्रस्थापित किया। जिस कार्य के लिए महिलाओं के साथ संपूर्ण लाहौर इकट्ठा होने जा रहा था, वह कार्य एक ही व्यक्ति ने एक झटके के साथ संपन्न कर दिया।

इतने में इधर मद्रास में नील के पुतले से सभी चिढ़ गए। पुन: सत्याग्रह के पुण्याहवाचनादि संस्कार संपन्न होने लगे। सत्याग्रह का स्मरण करते ही, उसका पुण्याहवाचन, उसकी अर्धांगनी जो अहिंसा, उसके बिना शास्त्रोक्त होगा ही नहीं, अतः वह भी पीढ़े पर आकर स्थानापन्न हो गई। अब महत्त्वपूर्ण प्रश्न उत्पन्न हुआ, पत्थर की मूर्ति को मुक्का मारना अथवा चपत लगाना अथवा उसे पकड़कर झकझोरना-ये कृत्य अहिंसात्मक हैं या हिंसात्मक?

तुरंत शिष्य संप्रदाय अहिंसा के आचार्य के पास चला गया और उसने पूछा, 'महात्माजी, नील की पाषाण मूर्ति हिलाने का अर्थ है उसे चोट पहुँचाना।' अत: उस प्रस्तर की मूर्ति को हिलाने की, खोदने की गड़बड़ी में यदि उस पत्थर को कुछ चोट आदि पहुँची तो क्या वह हिंसा है? अहिंसात्मक अनत्याचारी सत्याग्रह का पत्थर को आघात करने से भी विरोध है? आदि अत्यंत विकट, जटिल प्रश्नों का विचार अहिंसा के आचार्य कर रहे हैं, अनत्याचारी सत्याग्रह से ही मूर्ति हिलाना संभव हो, तभी मैं सहमति दे सकता हूँ-इस तरह वे हिदायत दे रहे हैं।

इतने में उधर एक मुस्टंडे स्वयंसेवक ने मन-ही-मन कहा, 'वाह जी, वाह! पत्थर की चोट! चलो इतना तो ठीक हुआ। नील के पुतले को ही चोट पहुँचाना हिंसा है या अहिंसा-उसने इतना ही पूछा! अन्यथा सभी पत्थरों का प्रश्न उत्पन्न होकर घर की सीढ़ी के पत्थर का भी अपमान न हो इसलिए उसपर पाँव न रखते हुए सिर के बल पर सीढ़ी चढ़ने का फैशन शुरू होगा। भई, चलने में भी तो छोटे-मोटे कंकड़ अर्थात् पत्थर के बाल-बच्चों को चोट पहुँचाना ही है-अतः मठाज्ञा निकलेगी-'चलना-फिरना भी बंद! वाह रे सत्याग्रह! यह तो मात्र बकवास है।'

कथनी और करनी के और भी कुछ उदाहरण घट रहे हैं। श्रद्धानंद स्वामी की हत्या के पश्चात् अब्दुल रशीद ने कहा, 'मैं स्वर्गारोहण के लिए उत्सुक हूँ; भई, मुझे मौत से कैसा डर? मैंने उस काफिर की, स्वधर्म शत्रु होने के नाते, हत्या की! यह है कथनी।'

परंतु जब मृत्यु कोठरी के द्वार पर आकर उसे स्वर्ग में ले जाने के लिए कहने लगी, 'चलिए गाजी', तब अब्दुल के होश उड़ गए, ऐसे बुखार चढ़ गया, वह पागलपन का ढोंग रचाने लगा और बुद्धिमान मनुष्य की तरह निवेदन करने लगा। 'सरकार, दया करो! मुझे मौत के शिकंजे से छुड़ाओ।' अंत में मौत से डरकर वह स्याह पड़ गया-यह है करनी।

वही कहानी इच्छा और पूर्ति की। अब्दुल फाँसी पर चढ़ गया, तब मुसलमान लोग चाहते थे-पचास हजार लोगों के साथ गाजी की लाश को किसी सुलतान की लाश का सम्मान देंगे, उसका जुलूस निकालेंगे और शास्त्रशुद्ध तरीके से कब्रिस्तान में दफनाएँगे और भविष्य में उसपर ताजमहल खड़ा करेंगे-यह हुई इच्छा।

परंतु अब्दुल की लाश छीनकर जब मुसलमान उसका जुलूस निकालने लगे तब अचानक मशीनगंस तथा बायोनेटों ने उसे सैनिक वंदना दी। बंदूक की गुसैल गुरगराहट सुनते ही वह पचास हजार धर्मवीरों की सेना गाजी की लाश छोड़कर सिर पर पाँव रखकर भागने लगी।

बेचारे अब्दुल मियाँ! जैसाकि उन्हें वचन दिया था, फाँसी के फंदे से कोई उन्हें मुक्त नहीं कर सका। और तो और, उनकी लाश भी कोई कब्रिस्तान में नहीं दफना सका। घंटा-डेढ़ घंटा लावारिस लाश की तरह उनकी मृत देह रास्ते में बेकार पड़ी रही। धर्मवीरों की पचास हजार मुसलमानी 'दीनदारों' में कोई ऐसा साहसी वीर नहीं निकला जो सीना तानकर खड़ा रहे। अंत में वह लाश सरकारी सिपाहियों द्वारा जेल में दफनाई गई जहाँ कारागार के चोर, डाकू, हत्यारों को दफनाया जाता है। कहा जाता है-Like attracts the like! जाति से जाति मिलती है और माटी से माटी!

लाश पर ताजमहल खड़ा किया जाए, यह इच्छा! उसपर कारागार का निर्माण किया गया-यह है पूर्ति! गांधीजी के शब्दों में कहना हो तो 'भाई अब्दुल' फाँसी पर चढ़ गया और उसकी लाश के सम्मानार्थ पचास हजार मुसलमान सामने आए। अब्दुल रशीद का यह कृत्य एक व्यक्ति की कृति है। उसका दोष सारे मुसलिम समाज पर मत थोपो, क्योंकि मुसलमानी समाज इस कृत्य का नैतिक समर्थक नहीं है, न ही उन्हें उससे कुछ सहानुभूति है, गांधीजी द्वारा पहले ही की हुई भविष्यवाणी हूबहू सच निकली। भई, महात्मा के त्रिकालदर्शी वचन कभी असत्य सिद्ध नहीं होते।

हिंदू-मुसलमान की एकता स्थापित करने के लिए महात्माजी ने इक्कीस दिन अनशन किया। तुरंत इलाहाबाद से कलकत्ता तक चार बड़े-बड़े दंगों के साथ मुसलमानों ने उस अनशन व्रत का समाप्ति दिवस मनाया। अब कलकत्ता में राष्ट्रीय सभा की कार्यकारी समिति ने हिंदू-मुसलमानों के सारे झंझट मिटाकर एकता की अंतिम घोषणा की। यह समाचार दिल्ली में मिलते ही उधर पचास हजार मुसलमानों ने एक हिंदू का सिर तोड़कर पाँच-पचासों को घायल करते हुए इस एकता पत्रिका पर हिंदुओं के लहू से हस्ताक्षर किए और इसके पश्चात्, जाहिर है, एकता भंग का ठीकरा मुसलमानों के सिर पर फोड़ने का साहस डॉ. मुंजे भी नहीं कर सकेंगे, यह स्पष्ट है।

८ दिसंबर, १९२७

पर शुद्धि नहीं मरेगी

एक मुसलिम वक्ता ने क्रोध से उफनकर दिल्ली में कहा, 'हिंदुओं के लिए हम हिंदुस्थान के बाहर स्थित मुसलमानों के साथ संबंध जोड़ना नहीं छोड़ेंगे। पॉन इसलामिज्म के प्रेम-रज्जुओं से हम भारतीय मुसलमान विश्व के मुसलिम राष्ट्रों से जुड़े रहेंगे। ठीक है, जुड़े रहो, भला मना कौन करता है? परंतु विश्व के मुसलमान आपसे प्रेम-रज्जुओं से जुड़ना चाहते हैं न? अन्यथा 'कोई न पूछे बिचारी, खड़ी मौसी मैं बेचारी' यही गत बनेगी।

अलीगढ़ के शिक्षित मुसलमानों के मुखपत्र में मि. फजने हमीद ने लिखा है कि इस तरह का विधान करना मैं पाप समझता हूँ। वह ठीक है, परंतु हिंदुओं में से भोले-भाले लोगों को ठगने के लिए तो कभी-कभी एक-दो मुसलमानों का यह कहना कि मैं पहले भारतीय हूँ और बाद में मुसलमान-यह तो पुण्य ही होगा न! उतना हो गया, बस हुआ।

हमारे पाठकों को स्मरण होगा, हसन निजामी के पत्र में श्रद्धानंद की हत्या से पहले शुद्धि आंदोलन की अरथी जमुना तट पर जलाई जाएगी-इस भावार्थ की कविता प्रकाशित हुई थी-

बहुत मालवीयजी ने बगल बजाई,

बहुत लाजपत ने बजाए दो तारे।

मगर होश में आएँगे जब ये दोनों,

नजर आएँगे मालवी दिन के तारे॥

अशुद्धि मिटा करके छोड़ेंगे हम भी,

अगर बाजुओं में है कुछ दम हमारे।

बजाकर अशुद्धि की अरथी को स्वामी,

हुवा आज चुपके से जमुना किनारे॥

श्रद्धानंद की हत्या के पश्चात् कवि गोविंदराम ने 'हिंदू पंच' में इस कविता का उत्तर दिया है-

बला से चलें सरपे तेगें व आरे

गलप फिर या कि खझूजर हमारे

उदू गोलियाँ चाहे सीने पे मारे

हटेंगे न शुद्धि से शुद्धि के प्यारे॥

फिदा जिस्मो जाँ तक करेंगे खुशी से

हों शर लाजपत मालवी के इशारे

न समझो कि डर जाएँगे कत्ल से हम

है जोशे शहादत दिलों में हमारे॥

किया कत्ल स्वामी को कातिल हुआ क्या

ये शुद्धि यों ही शाद चली रहेंगी

तो हिंदू बनेंगे मुसलमान सारे

चलेगा जो शुद्धि का चक्कर निजामी

नजर आएँगे फिर तुम्हें दिन को तारे।

कट्टर सनातनी मंडल के प्रसिद्ध नेता पंडित दीन दयाल शर्मा के सुयोग्य पुत्र हिंदू महासभा के प्रगतिपरक कार्य के विरोधी थे, परंतु पिछली सनातन सभा के कट्टर अधिवेशन में ये दोनों दिग्गज पंडित बैठे थे। छोटे दिग्गज ने स्वयं उठकर कहा कि शुद्धि के लिए शास्त्रीय आधार मिल गया है और अब हम किसी भी भ्रष्ट व्यक्ति को शुद्ध करने की व्यवस्था कर रहे हैं। भले पंडितजी, आप कुछ भी कहिए, हम हैं एक सौ पाँच बंधु!

हसन निजामी ने दिल्ली में वेतन के लिए हड़ताल पर गए हिंदू भंगियों को धमकाया, यदि तुम लोग आर्यसमाज के शिकंजे में फँसकर इस तरह हड़ताल करके मुसलमान बंधुओं को तंग करोगे तो मैं मुसलमानी में भंगी काम करनेवाला वर्ग तैयार करूँगा। इतना ही नहीं, मैं स्वयं उनका मुखिया होने के लिए पीछे नहीं हटूँगा। 'शुभस्य शीघ्रम्' वास्तव में यह कार्य तो उन्हें पहले से ही हाथ में लेना चाहिए था। लीग से अधिक यह प्रमुख भंगी होने का कार्य ही उनकी योग्यता को अधिक शोभा देता है।

तुर्कस्तान और इंग्लैंड के बीच युद्ध छिड़ गया। खिलाफत के आंदोलन की सहायता करना हिंदुओं का धर्म है। इस प्रकार हो-हल्ला मचाकर पूरा आसमान सिर पर उठानेवाले महात्माजी, चीन में इतना हाहाकार मच रहा था। तब उस विषय में चुप बैठे हैं-इसके लिए कुछ लोगों को बड़ा आश्चर्य हो रहा है; परंतु उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। तुर्क मुसलमान था-हिंदू मुसलमानों का वह खलीफा था। अत: उसकी सहायता करना हिंदुओं का धर्म तो था ही, परंतु चीन 'हिंदू' है। भला हिंदुओं की सहायता करना कभी हिंदुओं का धर्म हो सकता है?

बोअर लोग जब उनकी स्वतंत्रता के लिए इंग्लैंड के विरुद्ध लड़ रहे थे, तब गांधीजी साम्राज्य के एकनिष्ठ प्रजाजन बनकर एक रण शुश्रूषा दल के साथ इंग्लैंड की सहायता के लिए रणभूमि की ओर भागे-भागे गए थे। उससे भी आगे जाकर जर्मन लोग जब उनके विनाश पर तुली हुई अंग्रेज राजनीति को पलटने के लिए लड़ने को तैयार हो गए तब अहिंसक गांधीजी ने जर्मनों की जान लेने के लिए अंग्रेजों की सशस्त्र सहायता करने के लिए कई भारतीय नौजवानों को मृत्यु के जबड़े में ढकेलने में कोई कसर नहीं रखी। उन्हीं गांधीजी को अब चीन की स्वतंत्रता के लिए लडने का महापाप करते समय वस्तत: अंग्रेजों की ओर से भारतीय स्वयंसैनिक दल खड़े करके चीन पर आक्रमण करना चाहिए था, परंतु ऐसा न करते हुए वे अभी तक चुप बैठे हैं-यह क्या उनका चीन पर थोड़ा उपकार हुआ है? चीन के प्रति वे तथा उनके शिष्य और कैसी सहानुभूति का प्रदर्शन कर सकते हैं? चीन जान बूझकर हिंदुस्थान का राजनिष्ठ मित्र और धर्म का शिष्य, उसे सक्रिय सहानुभूति क्या दिखाना? भला इसमें कौन सी महत्ता है? चीन के विरोध में अंग्रेजी सेना की सहायता करने में ही सच्चा महात्मा होना है, जैसे बोअर युद्ध अथवा जर्मन युद्ध में प्रकट किया गया था। और अद्यापि हमें आशा है, किसी वाइसराय के अथवा गवर्नर की भेंट करने का मधुर प्रयोग करने पर इस 'चीनांग्ल' युद्ध में भी महात्माजी आज नहीं तो कल उसे प्रकट भी करेंगे।

'गाजी अब्दुल रशीद का बेटा ही कोई उड़ा ले गया' यह अर्जुन ने प्रकाशित किया है। श्रद्धानंद का भूत बेचारे के पीछे पड़ा है। उसने श्रद्धानंद के बेटे को पितृहीन किया। न्यायालय में एक मुसलमान गवाह ने बताया था कि 'गाजी' ने एक दिन घर के दरवाजे बंद करके अपने बेटे की जमकर पिटाई की थी।

श्रद्धानंद के पुनर्जन्म पर विश्वास होने के कारण जाफर अली ने लिखा था कि वे शायद गाय का जन्म लेकर मुसलमान कसाई के खूँटे पर बाँधे जाते, परंतु अब एक परलोकविद्या विशारद के प्लँचेट पर स्वर्ग से संदेश आया है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। मलकाना राजपूत के शुद्धिकरण के पुण्य कृत्य के उपलक्ष्य में प्रसन्न होकर श्रद्धानंदजी को भगवान् ने कुछ दिनों के लिए परलोक में ही स्वर्गीय प्रचारक के कार्य में नियुक्त किया है और उन्होंने उधर भी शुद्धि सभा की स्थापना करके जाफर अली के दादा-परदादा को भी मुसलमान धर्म से परावृत्त करके उन्हें हिंदू धर्म की दीक्षा दी है। इसी सप्ताह वे जाफर अली के तथा हसन निजामी के पिताओं की भी शुद्धि करनेवाले थे।

प्रत्यक्ष श्री शंकराचार्य डॉ. कुर्तकोटी जैसों की ओर से भी धारणा में जिस हिंदूसभा की स्थापना करना असंभव हो गया था, वह श्रद्धानंद की हत्या से आखिर प्रस्थापित हुई, यह शुभ समाचार भी प्रसिद्ध हुआ है, परंतु अब वह कार्यारंभ कब करेगी? सभा स्थापित होने के लिए एक संन्यासी की हत्या के मुहूर्त तक इस प्रकार रुकना पड़ा, उसी तरह कार्य आरंभ करने के लिए किसी अन्य महान् संन्यासी की एक और हत्या के मुहूर्त की धारवाड़ मार्ग-प्रतीक्षा तो नहीं कर रहा है?

हिंदू लोगों के चोर, डाकू, बाल-बच्चों को सम्मोहित कर तथा अनाथ अबलाओं का अपहरण करके इसलाम के प्रचारार्थ 'तबलिक' उधर जी-जान से प्रयास कर रही है और उधर देखिए-उस कृष्णमूर्ति को-एक हिंदू ब्राह्मण कुमार स्वयं ही भगवान् का अवतार मानकर यूरोप, अमेरिका के महाद्वीप के स्थित बड़े बड़े वैज्ञानिक, कवि, राजे, महाराजे, ग्रंथकार तथा हजारों स्त्री-पुरुष उस हिंदू कुमार की चरणरज को भस्म समझकर मस्तक पर धारण कर रहे हैं। गीता पाठ कर रहे हैं। कहाँ वह हसन निजामीय अँधेरे में दुबककर की गई उल्लू की घूँ-घूँ। और कहाँ यह औपनिषदीय उषाकाल के स्वागतार्थ देवदूतीय स्वर्गीय संगीत!

आप यदि बंगाल के राजबंदी को बंदीमुक्त करना चाहते हैं तो 'यंग इंडिया' में गांधीजी गंभीरतापूर्वक लिखते हैं-'चरखा चलाओ।' परंतु न राजबंदी बरी हुए, न ही चीन से सेना को बुलाने के लिए कोई आदेश निकला। तब हमारा माथा ठनका, भई, 'चरखा चलाओ' इस तरह 'यंग इंडिया' ने जो लिखा है, तब उन्होंने इसकी भी कुछ सीमा रखी होगी कि चरखा कितने दिन तक चलाना होगा। एक बार चलाकर बात नहीं बनी, अतः हमने 'यंग इंडिया' के कार्यालय में पूछा-बताइए, कितने दिन चरखा चलाने से चीन की सेना वापस लौटेगी? हो सकता है, यही उत्तर मिलेगा-संपूर्ण वर्तमान जन्म और दूसरा अगला जन्म! 'टाइम्स' द्वारा यह ज्ञात होता है कि बेचारे जापान में भूचाल के विस्फोट से सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची है। उसी तरह मॉरीशस में भयंकर तूफान में एक पूरा जलयान यात्रियों के साथ बह गया। परंतु फिर ये लोग चरखा क्यों नहीं चलाते? यदि घर में बैठे-ठाले चरखा चलाने पर चीन में भेजी हुई सेना तुरंत वापस लौट सकती है तो क्या चरखा भूकंप तथा तूफान शांत नहीं कर सकता? परंतु इस महाराष्ट्र के लोगों में श्रद्धा ही नहीं है।' और जापानी लोगों में भी।

गांधीजी ने शिपोशी की भेंट में एक संदेही, शक्की सज्जन को अपने तर्कों के पश्चात् बताया कि मेरे खद्दर से ही किस तरह स्वराज्य प्राप्त होगा-इस विषय में मेरे तर्क सुनकर ही सभी शक्की लोग मेरे चेले बन जाते हैं।' यह निस्संदेह सत्य है। सत्य ही वे चेले बनते हैं, क्योंकि खद्दर से स्वराज्य किस तरह प्राप्त होगा, इस विषय का उनका अकाट्य तर्क सुनकर, जैसे चरखा चलाकर चीन की सेना अभी इसी क्षण वापस बुलानेवाले तर्क की तरह ही-उनके आगे दो कदम जाने की बात छोड़िए-परंतु उनके साथ-साथ भी चलने के लिए कोई तैयार नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति वह विचित्र, झक्की तर्क सुनकर उनके पीछे-पीछे ही रहता है, उसकी कमर ही टूट चुकी है, सत्य ही उनका अनुगामी बन जाता है।

यह प्रसिद्ध हुआ है कि चीन में गई हुई भारतीय सेना में क्रांतिकारियों ने हस्त पत्रक वितरित करके उनसे प्रार्थना की है कि चीन के विरुद्ध मत लडिए। प्लेग के चूहे तो गिरने लगे। अब प्लेग कब शुरू होगा?

श्रद्धानंद की हत्या और गांधीजी का निष्पक्ष पक्षपात

यह स्वाभाविक ही था, स्वामी श्रद्धानंद की नृशंस हत्या के संबंध में देश भर में दुःख का आक्रोश हो रहा था। प्रायः सभी नगरों, समाचारपत्रों तथा प्रमुख भारतीय व्यक्तियों द्वारा उपस्थित जातीय विषमता के प्रश्न पर कुछ-न-कुछ सार्वजनिक अभिप्राय प्रसिद्ध किया है। उस हत्यारे ने स्पष्ट कह दिया था, इस हत्या के पीछे उसका उद्देश्य क्या था। उसने स्पष्ट कहा है कि इसलाम की अधोगति तथा दुर्दशा को टालने के लिए और मलकाना राजपूतों के शुद्धिकरण का प्रतिशोध लेने के लिए मैंने श्रद्धानंद की हत्या की। अतः इस हत्या का दोष किसी भी तरह से हिंदुओं पर डालने का साहस मुसलिम नेतागण नहीं कर सके।

परंतु आश्चर्य है कि यद्यपि ऐसे प्रसंगों में मुसलमानों में ऐसा कोई प्रमुख व्यक्ति नहीं निकला जिसने हिंदू जाति पर सारे दोषों का ठीकरा फोड़ा हो और इस हत्या का उत्तरदायित्व मुसलमानों के समान रूप में हिंदुओं पर लादा, तथापि एक हिंदू ही निकला जो अपने आपको हिंदू कहलाता था। वह गांधी ही हैं जिनके हाथों से इस प्रकार हिंदू जाति की अनुदारता को ही उदार प्रवृत्ति समझने की हिमालय जितनी पहाड़-सी गलतियाँ हो चुकी हैं।

'यंग इंडिया' में श्रद्धानंद पर लिखे हुए लेख में गांधीजी कहते हैं, 'मैं अब्दुल रशीद नामक मुसलमान, जिसने श्रद्धानंद की हत्या की है, का पक्ष लेकर कहना चाहता हूँ, इस हत्या का दोष हमारा है। समाचारपत्र एक चलता-फिरता प्लेग बन चुका है। वह सतत असत्य तथा निंदा का प्रचार करता है। अब्दुल रशीद जिस धर्मोन्माद से पीड़ित था, उसका उत्तरदायित्व हम शिक्षित एवं नीमशिक्षित लोगों पर है। इसकी चर्चा अनावश्यक है कि हिंदू और मुसलमान-इन दोनों पक्षों में यह ठीकरा किसके सिर फोड़ा जाता है। क्योंकि जहाँ दोनों ही अपराधी हैं वहाँ कौन कितने दोष का भागी है-यह निश्चित रूप में सुवर्ण काँटे से तोलने का कार्य किसे साध्य होगा?

कुल मिलाकर उनके लेख में जो विचित्र एवं विक्षिप्त विधान किए गए हैं उनमें उपर्युक्त विधान अत्यंत कायरतापूर्ण, अन्याय तथा पक्षपाती है। हिंदू-मुसलमान दोनों ही दोषी हैं, यह पक्केपन से कहना-हो सकता है, उनके अपने महात्मा पद को क्षति नहीं पहुँचाता हो, परंत राष्ट्रीय हिताय और विशेषत: गांधीजी लेखों और भाषणों द्वारा जिस सत्य का ढिंढोरा पीटते हैं, उस सत्य को ही कलंकित करता है, इसमें कोई संदेह नहीं।

यह सिद्ध करने के लिए कि हिंदू मुसलमानों के बीच द्वेषाग्नि भड़काने के लिए दोनों ही समानरूपेण जिम्मेदार हैं-क्या गांधीजी ने एक भी प्रमाण नहीं दिया? हम मान लेते हैं भारतीय समाचारपत्रों अथवा प्रचारकों से भी कभी-कभी अन्याय्य अथवा उत्तेजक आलोचना हुई हो, परंतु इससे अधिक-से-अधिक हम यह कह सकते हैं कि इसमें हिंदुओं का भी थोड़ा-बहुत दोष है। परंतु हमें ऐसा प्रतीत नहीं होता, परंतु हिंदू और मुसलमान इन दोनों का भी दोष समान है कहना 'रामाय स्वस्ति, रावणाय स्वस्ति' कहकर राम तथा रावण दोनों से भी मान्यता की दक्षिणा उड़ाने के प्रयास में रहे ढपोरसंखी भट्टाचार्य से अधिक प्रामाणिक है, क्योंकि यह विधान किसी मूर्ख व्यक्ति ने नहीं किया है, जो प्रचलित सार्वजनिक घपलों से पूरी तरह अनभिज्ञ हो, उस व्यक्ति ने किया है जो बरसों से पत्रकारिता के व्यवसाय से जुड़ा हुआ है, जिसे सार्वजनिक घटनाओं का पूरा-पूरा ज्ञान है-वह व्यक्ति उसी प्रकार पत्रकार वर्ग का है जिसका गांधीजी ने 'चलता-फिरता प्लेग' जैसे शब्दों में सम्मान करने का साहस किया है।

अन्य प्रमाणों से समाचार, पत्रकार, असत्य दुष्ट निंदा का प्रचारक 'चलता फिरता प्लेग' सिद्ध हो या न भी हो, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं, कम-से-कम महात्माजी ने हिंदू और मुसलमान हत्या के इस अपराध में समान हिस्सेदार हैं' जैसे असत्य और दुष्ट विधान का प्रचार करके समाचारपत्र चलता-फिरता प्लेग है' यह दुसरा विधान कम-से-कम अपने 'यंग इंडिया' तक तो सिद्ध किया ही है, इसमें शंका नहीं।

मालाबार के विद्रोह में सैकड़ों हिंदुओं को बलात्कार से भ्रष्ट करके, सैकड़ों मंदिर मटियामेट करके, सैकड़ों हिंदुओं की स्वधर्म-त्याग न करने के अपराध में हत्या करके-जो 'खिलाफती राज्य' किया था-वह किसने? हिंदुओं ने या मुसलमानों ने? 'यंग इंडिया' में एक या दो उदाहरण ही बलात्कारी धर्म-प्रसार के मुसलमानों द्वारा हुए हों, इस प्रकार की गांधीजी ने निठल्ले हुए एक मुसलमान की गवाही ग्रथित की थी-उस मुसलमान को और उसके उस महात्मा गुरु को छोड़कर संपूर्ण हिंदुस्थान में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो दावे के साथ कहे कि मालाबार में अत्याचार नहीं हुए। उस एक मुसलमान की गवाही का गांधीजी ने उल्लेख किया--परंतु इन्हीं स्वामी श्रद्धानंद, डॉ. मुंजे, श्री देवधर और उन न्यायाधीशों ने जिन्होंने न्यायालय में मोपलों पर सैकड़ों अभियोग चलाए थे-इन सभी लोगों ने क्या यह साधार, सप्रमाण सिद्ध नहीं किया था कि निरपराध हिंदुओं पर धर्म प्रसार के बहाने मोपलों ने राक्षसी अत्याचार किए थे? तो फिर जिस 'यंग इंडिया' में उस एक मुसलमान निठल्ले की हुई गवाही एक विचारणीय प्रमाण के रूप में प्रसिद्ध की गई, उसी 'यंग इंडिया' में ऊपर निर्दिष्ट सन्मान्य तथा सैकड़ों लोगों की गवाहियों का उल्लेख क्यों नहीं किया गया? इसमें कोई संदेह नहीं कि समाचारपत्र कम-से-कम इस कथन तक 'यंग इंडिया' का लेखक असत्य का प्रचारक, चलता-फिरता प्लेग है।

आजकल दिल्ली में, एक स्वामी श्रद्धानंद मारा गया, उसका काफी बोलबाला हुआ, क्योंकि वह ख्यातनाम था, परंतु 'हम हिंदू धर्म नहीं छोड़ेंगे' यह कहने के लिए इस तरह कितने गुमनाम श्रद्धानंद मालाबार में इससे भी अधिक नुशंसतापूर्वक मारे जाते हैं? जिस महात्मा ने श्रद्धानंद के हत्यारे के दोष का ठीकरा हिंदू-मुसलमानों के सिर पर समान रूप से फोड़ा है उसी ने मालाबार स्थित उन शताधिक दीन, निर्धन, अप्रख्यात हिंदू धर्मवीरों के प्राणघात का ठीकरा भी इसी तरह दोनों के सिर फोड़ने की योजना बनाई थी, इस बात पर गौर करना उचित होगा। जिस रशीद का पक्ष लेकर यह कहने का साहस हुआ कि वह अज्ञानी था, इसलिए वास्तविक दोषी कोई अन्य ही है-उसी ने मालाबार स्थित सैकड़ों अब्दुल रशीदों को भी 'मेरे वीर मोपला बंधु' संबोधित करके अज्ञान की ढाल के नीचे उनके अपराध भी इसी तरह दूसरों के मत्थे मढ़ने का प्रयास किया था।

मालाबार के पश्चात् गुलबर्गा, गुलबर्गा के पश्चात् कोहाट, कोहाट के पश्चात् दिल्ली, दिल्ली के पश्चात् पानीपत, कलकत्ता, पवना संपूर्ण पूर्व बंगाल-इतना ही नहीं, पिछले तीन सौ पैंसठ दिनों में जो तीन सौ पैंसठ छोटे-बड़े दंगा-फसाद, मारपीट और अत्याचार हुए, जिनमें सैकड़ों लोगों का बलिदान हुआ, उन फसादों में से कितने दंगे हिंदुओं ने शुरू किए थे, कितने स्थानों पर पहला वार हिंदुओं ने किया था, कितने हिंदू भ्रष्ट किए गए और कितने मुसलमान भ्रष्ट किए गए-इसका ब्योरा क्या गांधीजी दे सकते हैं? इन संपूर्ण चार-पाँच वर्षों में कितनी हिंदू कुँवारी लड़कियाँ, शिशु, बच्चे सिंधु, पंजाब, बंगाल आदि राज्यों में बलात्कार के साथ अपहृत किए? और विपरीत पक्ष में कितनी मुसलिम महिलाएँ, कितने बच्चों का हिंदुओं ने बलात्कार से अपहरण किया?

स्वामी श्रद्धानंद जैसा अकेला नेता ही हिंदू संगठन कार्य में बलि नहीं चढ़ाया गया। इससे पूर्व भी अजमेर, मलकाना राजपूतों की शुद्धि के उपलक्ष्य में हिंदू नेताओं की तथा शुद्धिकृत हिंदुओं की निरंतर हत्या करने का षड्यंत्र उजागार हो चुका था। हिंदुओं का नेता होने के कारण जानराव पाटील की हत्या की गई थी और बिहार में भी हिंदु-संगठन के आंदोलनार्थ ही एक हिंदू नेता मारा गया था। पंडित लेखराम के शुद्धिकरण के लिए की गई हत्या की घटना पुरानी होने के कारण छोड़ देते हैं, परंतु मुसलमानों द्वारा हिंदू नेताओं की हत्याओं का जो उपक्रम चल रहा था और पंडित मदनमोहन और लालाजी की हत्या की भी योजनाएँ बनाई जा रही थीं। यह भी उजागर होते हुए हम पूछते हैं, किस हिंदू ने कौन से मुसलमान नेता पर हत्या के उद्देश्य से आक्रमण किया? इसके विपरीत इसलाम की खिलाफत के लिए उनके नेतागणों को कारावास हुआ, इसलिए हिंदुओं ने अपनी जेब से लाखों रुपए देकर उनके जुलूस निकालकर उनका आडंबर मचाया था? फिर भी हिंदू इस हत्या के उतने हिस्सेदार होते हैं, जितने मुसलमान!

स्वजनों के अपराधों को ढकना यह प्राकृतों का पक्षपात दोषार्ह है, परंतु स्वजनों पर राक्षसी अत्याचारों के होते केवल येन-केन-प्रकारेण अपनी महानता का प्रदर्शन करने के लिए परकीयों का ठीकरा स्वजनों पर ही फोड़ने का प्रयास करना-यह महात्माओं का पक्षपात उससे सैकड़ों गुना दोषार्ह है। यह मात्र कायरता है। इसे भीरुता न कहते हुए हम उसे मूर्खता कहते हैं, परंतु जिस व्यक्ति ने ये विधान किए, उसे दो-चार वर्षों की घटनाओं का पूरा ज्ञान है। हमारे उपर्युक्त प्रश्नों का उत्तर देना उनके लिए सर्वथा असंभव है और इसलिए मुसलमानों का अपराध हिंदुओं के अपराध से सौ गुना अधिक है, यह स्पष्टतया दिखाई देने पर भी हिंदुओं को उतना ही दोषी कहने का प्रयास किया जाता है जितना मुसलमानों को-वह इस कारणवश ही मूर्खतासूचक न कहलाया जाकर भीरुता अथवा पाखंडसूचक कहलाने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है। यह दुरात्मा का पक्षपात है, न कि महात्मा की निष्पक्षता।

यदि यह ऐसा नहीं है तो गांधीजी यह अवश्य प्रसिद्ध करें कि हिंदुओं को इस हत्या के अथवा जाति वैमनस्य के दोष के लिए उतना ही दोषी सिद्ध किया जा सकता है जितना मुसलमान को, यह गांधीजी किस प्रमाण के आधार पर सिद्ध कर सकते हैं। आज भी वे अपने आप को हिंदू कहलाते हैं। हम उन्हें चुनौती देते हैं कि सर्व हिंदुओं के और इसलिए हममें से प्रत्येक के मत्थे यह जो भयंकर आरोप मढ़ने का आप साहस करते हैं, उसको या तो सिद्ध करें अन्यथा अपने इस स्वपक्षघाती पक्षपात के लिए प्रकट रूप में क्षमा याचना करें।

मुसलमान मसजिद के सामने ही नहीं, घर-घर में जाकर मारपीट करें, ताकि कोई झाँडा, करताल, घंटी, शंख न बजाए, स्वयं मुसलमान हिंदू लोगों को अत्याचार यंत्रणा तथा शक्ति के बलबूते पर भ्रष्ट करने का संगठित प्रयास लगातार करते हैं, ऊपर यह हठ करते हैं, हिंदू मत-परिवर्तन करके भी शुद्धिकरण न करें, मालाबार, कोहाट जैसे शहरों में हिंदुओं के पूरे-के-पूरे नगर जलाकर उन्हें मार-काट के साथ तहस-नहस करें और हिंदुओं के श्रद्धानंद, लालाजी, पंडितजी जैसे महनीय नेताओं की हत्या करें और हत्या के षड्यंत्र रचें, उनके इतने राक्षसी अत्याचारों के चलते उनका दोष हिंदुओं में अंशतः यदि किसी पर पड़ ही रहा हो तो गांधीजी आपके अपने राजनीतिविमूढ़, परंतु अत्यंत अहंकार भरे मस्तिष्क पर, जो विष की विपुल फसल इस देश में खुले हाथों से बो रहा है, वह दोष हिंदू समाज के सिर पर नहीं आता। यदि किंचित् दोष उस समाज पर आ ही रहा हो तो वह बस इतना ही कि अन्याय और न्याय, क्रूरता एवं करुणा, अत्याचारी को और अत्याचार झेलनेवाले को, पीड़क और पीड़ितों को, राम तथा रावण को समान रूप में दोषी समझना और समान दयापात्र समझना ही निष्पक्ष प्रवृत्ति है-इस प्रकार भ्रामक धारणा बनानेवाले आप जैसे 'महात्मा' को वह हिंदू समाज बार-बार जन्म देता है।

केवल यहीं पर नहीं या हिंदुओं के विरोध में ही नहीं, वाहवी, कादियानी को पत्थर मारना धर्मसम्मत समझनेवाले अफगान तथा संगसारी को भी धार्मिक कर्तव्य के रूप में घोषित करनेवाली, मुसलिम परिषदों से लेकर दिल्ली के उन कागज बेचनेवाले गटरगुंडों तक, जो अब्दुल रशीद को 'गाजी' कहते हुए उसके चित्र बेचते हैं और खरीदते हैं, धर्मोन्मादी हत्याओं को धार्मिक कर्तव्य समझते हैं, ऐसे सैकड़ों, हजारों मुसलमान-मुसलिम समाज में प्रमुख या अप्रमुख रूप में चलते-फिरते हैं, तब भी वह महात्मा जो शांति से कहता है, 'अब्दुल रशीद का कृत्य एक व्यक्ति का है, पूरे समाज को उसका दोषी न ठहराएँ।' हिंदुओं की इस दुर्गति तथा यंत्रणा का प्रमुख कारण है।

किसी रोग की छानबीन में भूल हो जाए तो उसपर किए गए दवा-दारू के उपचार भी विपरीत होते हैं। हिंदू-मुसलमानों के वैमनस्य के भयंकर रोग से यदि हम सभी मुक्त होना चाहते हैं तो यह स्पष्ट है कि मुसलिम समाज स्थित धर्मोन्मादपूर्ण प्रवृत्ति ही इस रोग की जड़ है और यह निष्पक्ष पक्षपात जो इस प्रवृत्ति का आविष्करण करने के लिए भय से अथवा भोलेपन से अथवा मूर्खता से स्वयं का महत्त्व मुसलमानों में अधिक बढ़े, ऐसी अक्षम्य कामना से हिंदू समाज और मुसलिम समाज समान रूप में दोषी है, इस तरह जो कहता है वही निष्पक्ष पक्षपात ही वास्तव एक राष्ट्र विघातक 'चलता-फिरता' प्लेग है।

यदि गांधीजी सच्चे मने से हिंदू समाज को अंशत: नहीं तो सर्वथा उतना ही दोषी मानते हैं जितना मुसलमानी समाज को, तो वे उसे साधार, सप्रमाण सिद्ध करें। हिंदू समाज से मुसलमानी समाज पर इस जाति के वैमनस्य का दोष इतनी बड़ी मात्रा में पड़ रहा है कि सूक्ष्म बुद्धि का सुवर्ण काँटा यदि साबरमती के किनारे पर उपलब्ध नहीं हो तो वहाँ के स्थूल बुद्धिप्रवण जंग चढ़े लोहे के काँटे को भी मुसलिम दोषों का पलड़ा इतना भारी प्रतीत होगा कि वह झट से धरती को छू लेगा, उनके तामसी दोष इतने भारी हैं। हिंदू समाज का आचरण सापेक्षतः इतना सात्त्विक है और हिंदुओं का वास्तविक दोष यदि कोई है तो यही असात्त्विक सात्त्विकता ही है।

श्रद्धानंद, १० जनवरी, १९२७


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